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________________ गा० २२] वडिपरूवणाए अंतरं २०५ संखेज्जमागहाणि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणं णत्थि अंतरं । ६३३४. पंचिंदिय-पंचिं०पज्जत्तएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेज्जमागवड्डि-अवढि० जह० एगसमओ, उक्क० तेवद्विसागरोवममदं अंतोमुहुत्तब्भहियतीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०, उक० अंतोमुहु० । संखेज्जगुणवाड्डि-संखेज्जगुणहाणीणं जह० अंतोमुहु०, उक० तेवद्धिसागरोवमसदं दोहि अंतोमुहुत्तेहि अब्महियतीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जभागहाणीणमेवं चेव । णवरि संखेज्जभागहाणीए पलिदो० असंखेज्जभागेणब्भहियतेवट्टिसागरोवमसदं । असंखेज्जगुणहाणीए जहण्णुक० अंतोमुहुः । एवमणंताणु०चउक० । णवरि असंखेज्जभागहाणीए जह० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो० देसूणाणि । असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्वाणं जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियं सागरोवमसदपुधत्तं । सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि०-अवढि० जह० अंतोमुहु०' । असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस०। असंखेज्जगुणवड्डि-अवत्तव्यं जह० पलिदो० असंखज्जदिभागो। उक० सम्वेसि पि सागरोवमसहस्सं पुव्वकोडिपुधत्तणमहियं सागरोवमसदपुधत्तं देसूर्ण । एवं तसकाइय-तसकायपज्जत्ताणं । णवरि सग-सगुकस्सहिदी वत्तव्वा । संखेज्जभागवड्डि-संखज्जगुणवड्डीणं जहण्णंतरस्स ओघपरूवणा एक समय है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। ६३३४. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर दा अन्तमुहूत और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठसागर है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिका अन्तर इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षासे जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर है। असंख्यातगुणहानि और प्रवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक हजार सागर और सौ सागरपृथक्त्व है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, तीनहानि और अवस्थितकाजघन्य अन्तर अन्तमुहूते, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कुछ कम पूर्वकाटिपृथक्त्वसे अधिक एकहजार सागर और कुछ कम सौ सागरपृथक्त्व है। इसी प्रकार त्रसकायिक और सकायिकपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिके जघन्य अन्तरकी श्रोधके समान प्ररूपणा करना चाहिये। पंचेन्द्रियअपर्याप्त और त्रसअपर्याप्त जीवोंके पंचेन्द्रियतियेच १ ता. प्रतौ भवहि० अंतोमु० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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