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________________ गा०२२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारसण्णियासो अप्पदरविहत्तिओ । तिण्हं कसायाणं णियमा अबत्तव्यविहत्तिओ। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ । एवं तिण्हं कसायाणं । एवं सुक्क० । ६१७४. अणुदिसादि जाव सबढे तिमिच्छत्तस्स जो अप्पदरविहत्तिओ सो सेससत्तावीसपयडीणं णियमा अप्प०विह० । णवरि अणताणु० अविहत्तिओ वि । सम्मत्तस्स जो अप्पदरविहत्तिओ तस्स मिच्छत्त-सम्मामि०-अणंताणु०-चउक्क० सिया अस्थि । जदि अत्थि णियमा तेसिमप्पदरविहत्तिओ । बारसक० णवणोकसायाणं णियमा अप्पदरविहत्तिओ । सम्मामि० जो अप्पदरविहत्तिओ तस्स मिच्छत्तभंगो । एवमणंताणु०चउक्कस्स। णवरि एकम्मि णिरुद्धे सेसतियं णियमा अस्थि । अपच्चक्खाणकोध० जो अप्पदरविहत्तिओ तस्स मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० सिया अस्थि । जदि अस्थि णियमा अप्प०विहत्तिओ। एकारसक०-णवणोकसायाणं णियमा अप्प०विहत्तिओ। एवमेकारसक०-णवणोकसायाणं । आहार-आहारमिस्स०-आमिणि-सुद०-ओहि०. मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादिहि-वेदय० दिट्ठीणमणुदिसभंगो । णवरि विसेसो जाणिय वत्तव्यो । १७५. अवगदवेदेसु जो मिच्छत्तस्स अप्पदरविहत्तिओ सो सम्मत्त०-सम्मामि०. बारसक०-णवणोक० णियमा अप्पद विहत्तिओ। एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं । ग्मिथ्यात्वकी नियमसे अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी अपेक्षा कहना चाहिये । इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए। ६ १७४. अनुरिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें जो मिथ्यात्वकी अल्पतरस्थितिविभक्तिवालाहै वह शेष सत्ताईस प्रकृतियोंकी नियमसे अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अभाव भी होता है। सम्यक्त्वकी जो अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है उसके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् है। यदि हैं तो उनकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। तथा बारह कषाय और नौ नोकपायोंकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। जो सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है उसके मिथ्यात्वके समान भंग है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि एक प्रकृतिके रहते हुए शेष तीन नियमसे हैं। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जो अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है उसके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुक कदाचित् हैं। यदि हैं तो उनकी अपेक्षा नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। तथा ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा नियमसे अल्पतरस्थितिविभक्तिवाला है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके अनुदिशके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि विशेष जानकर कहना चाहिये। १७५. अपगतवेदियोंमें जो मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है वह सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है। इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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