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________________ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ $ १६५, जहा सम्मत्तेण सण्णियासो कदो, तहा सम्मामिच्छत्तेण वि कायव्वो; विसेसाभावादो । ८४ * सेसाणं ऐदव्वो । $ १६६. सेसाणं कम्माणं सण्णियासो जाणिदूण णेदव्वो' । तं जहा - मिच्छत्तस्स जो भुजगारविहत्तिओ सो सोलस कसाय-णवणोकसायाणं सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अप्पदरविहत्तिओ सिया अवट्ठिदविहत्तिओ । एवं मिच्छत्तअवट्ठिदस्स वि वतव्वं । मिच्छत्त० अप्पदरस्स जो विहत्तिओ तस्स सम्मत्तट्ठिदिसंतकम्मं सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तो सिया अप्पदरविहत्तिओ सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अवदिवित्तिओ सिया अवत्तव्वविहत्तिओ । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि सणयासो काव्वो । बारसक साय-णवणोकसायाणं सिया भुजगारविहत्तिओ सिया अप्पदरवि० सिया अवदिवि० । एवमर्णताणुबंधिचउक्काणं । णवरि सिया अवत्तव्यविहत्तिओ सिया अविहतिओ वि । $ १६५. जिस प्रकार सम्यक्त्वके साथ सन्निकर्ष किया उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के साथ भी करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । * शेष कर्मोका सन्निकर्ष यथायोग्य जानना चाहिये । $ १६६. शेष कर्मोंका सन्निकर्ष जानकर कथन करना चाहिये। इसका खुलासा इस प्रकार हैजो मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है वह सोलह कषाय और नौ नोकपायोंकी कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है, कदाचित् भल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है । इसी प्रकार मिध्यात्व की अवस्थित स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये | जो मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है उसके सम्यक्त्व स्थितिसत्कर्म कदाचित् कदाचित् नहीं है । यदि है तो वह मिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला जीव सम्यक्त्वकी कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है, कदाचित् भुजगार स्थितिविभक्तिवाला है कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी सन्निकर्ष कहना चाहिये । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी कदाचित् भुजगारस्थितिविभक्तिवाला है, कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अवस्थित स्थितिविभक्तिवाला है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सन्निकर्षं जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि वह इस अपेक्षा कदाचित् अवक्तव्य स्थितिविभक्तिवाला है और कदाचित् अनन्तानुबन्धचतुष्कसे रहित है । 1 विशेषार्थ – सन्निकर्षसंयोगका नाम है । प्रकृतमें यह विचार किया है कि किस प्रकृतिकी किस स्थिति रहते हुए तदन्य प्रकृतिकी कौन-सी स्थिति हो सकती है। पहले मिथ्यात्वको मुख्य मानकर उसकी भुजगार आदि स्थितियोंके साथ अन्य प्रकृतियोंकी भुजगार आदि स्थितियोंका संयोग बतलाया गया है। यथा - मिथ्यात्वकी भुजगार स्थिति में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व है भी और नहीं भी है। मिथ्यात्वकी भुजगार स्थिति मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है । अब १ ता० प्रतौ सूत्रमिदं नोपनिबद्धम् । २ ता० प्रतौ सेसाणं कम्माणं सण्णियासो जाणिदूण णेदव्वो इत्ययं टीकांशः सूत्रत्वेनोपनिबद्धः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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