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गा० २२ ]
द्विदिवत्तीए उत्तरपयडिभुजगारसष्णियासो
ाणावरणादीनमुदयदसणादो । जेण विणा जंण होदि तं तस्से ति ववहारदंसणादो । एवं दव्वं जाव अणाहारए ति ।
एवंभावाणुगमो समत्तो ।
* सरिणयासो |
१६३. सुगममेदं अहियार संभालणहेउत्तादो' ।
* मिच्छत्तस्स जो भुजगारकम्मंसियो सो सम्मत्तस्स सिया अप्पदरकम्मसि सिया कम्मसि ।
S १६४. जदि सम्मत्तस्स संतकम्ममत्थि तो मिच्छत्तभुजगारकम्मं सियम्मि सम्मतस्स णियमा अपदरट्ठिदिविहत्ती होदि; पढमसमयसम्मादिहिं मोत्तणण्णत्थ भुजगारअवट्ठिद-अवत्तत्व्वाणं सम्मत्तगोयराणमभावादो । जदि अक्रम्मंसिओ तो णत्थि सण्णियासो, संतेण असंतस्स सण्णियास विरोहादो ।
* एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि ।
तरह उपशान्तकषाय जीवके अल्पतरपदके साथ व्यभिचार हो जायगा, क्योंकि वहाँ पर उपशम भाव पाया जाता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि वहाँ पर भी ज्ञानावरणादि कर्मोंका उदय देखा जाता है । तथा जो जिसके बिना न हो वह उसका है ऐसा व्यवहार भी देखा जाता है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये ।
विशेषार्थ---उपशान्तकषाय गुणस्थान में मोहनीयका उपशम होनेसे इस अपेक्षासे उपशम भाव है, फिर भी वहाँ मोहनीयके अल्पतर पदका औदयिक भाव कहा गया है । यद्यपि वीरसेन स्वामी ने यहाँ अन्य ज्ञानावरणादि कर्मोंके उदयको स्वीकार कर अल्पतर पदके औदयिक भावका समर्थन किया है फिर भी मोहनीयका उदय न होनेसे मोहनीयके अवान्तर भेदोंके अल्पतर पदका औदयिक भाव कैसे बनेगा यह विचारणीय है । मालूम पड़ता है कि अन्यत्र सर्वत्र मोहनीयका उदय देखकर यहाँ भी उसका उपचार किया गया है। कारणका निर्देश वीरसेन स्वामीने स्वयं किया है ।
इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ ।
* अब सन्निकर्षानुगमका अधिकार है ।
$ १६३. यह सूत्र सुगम है; क्योंकि इसका फल अधिकारकी सम्हाल करनामात्र है । * जो मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिसत्कर्मवाला है वह कदाचित् सम्यक्त्वकी अल्पतरस्थितिसत्कर्मवाला है और कदाचित् सम्यक्त्वसत्कर्म से रहित है ।
$ १६४. यदि सम्यक्त्वकर्मका अस्तित्व है तो मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिके होने पर सम्यक्त्वकी नियमसे अल्पतर स्थितिविभक्ति होती है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि के प्रथम समयको छोड़कर अन्यत्र सम्यक्त्व प्रकृतिके भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य पद नहीं होते हैं । यदि सम्यक्त्व सत्कर्म से रहित है तो सन्निकर्ष नहीं होता, क्योंकि सत्के साथ असत्का सन्निकर्ष माननेमें विरोध आता है।
* इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी सन्निकष जानना चाहिए ।
१ ता० आ० प्रत्योः - संभालठ्ठहे उत्तादो इति पाठः ।
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