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________________ १६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ____३१४. सणियाणु० सण्णीणमोघं । णवरि संखेज्जभागवड्डीए संखेज्जगुणवड्डीए च णत्थि वे समया। सत्तणोकमायणं संखज्जगुणवड्डीए अस्थि वे समया। असण्णीसु छब सं पयडीणमसंखज्जभागवड्डि-सखज्जभागवड्डि-अवट्ठाणाणि ओघ । संखेज्जगुणवड्डी० जहण्णुक्क० एगस० । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणी. जहण्णुक्क० एगस० । असंखेज्जभागहाणी० ज० एगस०, उक्क. पलिदा० असंखेज्जदिभागो। सम्मत्त०-सम्मामि० असंखज्जमागहाणी. जह० एगस०, उक० पलिदो० असंखज्जदिमागो । तिण्णिहाणी० ओघं । आहाराणुवादेण आहारीसु ओषं । णवरि संखेज्जगुणवड्डीए वे समया णस्थि । सत्तणोकसायाणमस्थि । एवं कालाणुगमो समत्तो । उक्त प्रमाण कहा है। उपशमसम्यक्त्वका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। यहाँ अनन्तान की विसंयोजना हाती है इस अपेक्षासे इसमें अनन्तानुबन्धीकी सब हानियाँ बतलाई हैं। यद्यपि सासादनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि है तो भी स्वस्थानकी अपेक्षा यहाँ असख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक समय कम छह आवलि प्राप्त होता है अधिक नहीं । सम्याग्मथ्यात्वका यद्यपि जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है तथापि असख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय यहाँ प्राप्त हो सकता है, अतः यहाँ असंख्यात. भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत कहा है। मिथ्या दृष्टियों के असंख्यातभागहानका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर अभव्योंके समान घटित कर लेना चाहिये। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है । कारण स्पष्ट है। ३१४ संज्ञामागणाके अनुवादसे संज्ञियोंके ओघ के समान काल है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल नहीं है। सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका दा समय काल है। असंज्ञिया में छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और अवस्थानका काल ओघके समान है। संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट साल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा तीन हानियों का काल ओघके समान है। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें ओघके समान काल है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल नहीं है तथा सात नोकषायोंकी संख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल है। विशेषार्थ-संख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय असंज्ञियोंके ही प्राप्त होता है और संख्यातगुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय जा एकेन्द्रिय व विकलत्रय जीव संझियों में उत्पन्न होता है उसक होता हे अतः सं.ज्ञयोंक इसका निषेध किया है। हाँ सात नोकषायोंकी सख्यातगुणवृद्धिका दो समय काल संज्ञियोंके भी बन जाता है। इसका विशेष खुलास. पहलेके समान यहाँ भी कर लेना चाहिये । एकेन्द्रियोंम असंख्यातभागहानिकाण्डकघातका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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