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________________ गा० २२ ] विदिविहत्ती उत्तरपयडिभुजगारसामित्तं $ १८. किं च जदि णिसेगेहि चेव सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमवट्ठिदत्तमिच्छिज्जदि तो अंतरकरणं काऊण मिच्छत्तपढमडिदिं गालिय विदियट्ठिदीए धरिददंसणतिय हिदिसंतकम्मस्स उवसमसम्माइट्ठिस्स वि अवट्ठिदत्तं होदि, तत्थ दंसणमोहणिसेगाणं गलणाभावादो | ण च जइवसहाइरिएण एत्थ अवट्ठिदभावो परुविदो । तदो जाणिजह जहा जवसहाहरियो एत्थुद्देसे पहाणीकयकालो त्ति । जुत्तीए वि एसो चेव अत्थो जुज्जदे, कम्मखंधाणं कम्मभावेणावद्वाणस्स कम्मट्ठिदित्तादो । ण च कम्मक्खंधी ट्ठिदी; ड- डिदि - अणुभागाधारस्स द्विदित्तविरोहादो । * अवत्तव्वविहत्तिओ अणदरो । $ १९. कुदो १ अण्णदरगईए अण्णदरकसाएण अण्णदरतसपाओग्गोगाहणाए अण्णदरलेस्साए णिस्तीकयसम्मत्त सम्मामिच्छत्तेण मिच्छादिट्टिणा पढमसम्मत्ते गहिदे अवतव्वभाववलभादो । ६ साथ सम्यक्त्व प्राप्त होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अक्रमसे अवस्थितपना कहा है । इससे मालूम होता है कि चूर्णिसूत्र में कालकी प्रधानता से कथन किया है । $ १ . दूसरे यदि निषेकोंकी अपेक्षा ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थितपना स्वीकार किया जाय तो अन्तरकरण करके और मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिको गलाकर दूसरी स्थिति में जिसने दशनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका स्थितिसत्कर्म प्राप्त कर लिया है ऐसे प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिके भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थितपना प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँपर दर्शनमोहनीयके निषेकोंका गलन नहीं होता है । परन्तु यतिवृषभ आचार्यने यहाँपर अवस्थितपनेका कथन नहीं किया है। इससे जाना जाता है कि यतिवृषभ आचार्यने इस उद्देश में कालकी प्रधानता से कथन किया है । युक्ति से भी यही अर्थ जुड़ता है, क्योंकि कर्मस्कन्धोंका कर्मरूपसे रहना ही कर्मस्थिति कही जाती है । केवल कर्मस्कन्ध स्थितिरूप नहीं हो सकता क्योंकि प्रकृति, स्थिति और अनुभागके आधारको केवल स्थिति माननेमें विरोध आता है । * अवक्तव्य विभक्तिवाला कोई भी जीव होता है । १६. क्योंकि जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको निःसत्त्व कर दिया है ऐसे किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवके अन्यतर गति, अन्यतर कषाय, त्रस पर्यायके योग्य अन्यतर अवगाहना और अन्यतर लेश्या के रहते हुए प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्राप्त करने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवक्तव्य भाव देखा जात है । विशेषार्थ - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिविभक्तिका स्वामी चारों गतियों का सम्यग्दृष्टि जीव हो सकता है, क्योंकि उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति संक्रमणसे ही प्राप्त होती है और इनमें मिथ्यात्वका संक्रमण सम्यग्दृष्टिके ही होता है । तथा चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीवके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है. क्योंकि मिथ्यादृष्टि के अधःस्थितिगलना और स्थितिघातके द्वारा उत्तरोत्तर इनकी स्थितिमें न्यूनता देखी जाती है । किन्तु जिस सम्यग्दृष्टिने इनकी भुजगार या अवस्थित स्थितिविभक्ति नहीं की उस सम्यग्दृष्टि के प्रथम समयमें और इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्तावाले अन्य सम्यग्दृष्टियोंके द्वितीयादि समयों में इनकी अल्पतर स्थितिविभक्ति बन जाती है तथा जिन मिथ्यादृष्टियों के सम्यक्त्वको ग्रहण करने के पहले समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी स्थिति एक समय अधिक है उनके द्वितीय समय में सम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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