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________________ १० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ 8 एवं सेसाणं कम्माणं णेदव्वं । २०. एदेण सुत्तस्स देसामासियत्तं जइवसहाइरिएण जाणाविदं। तेणेदेण सूचि. दत्थपरूवणट्ठमेत्थुञ्चारणाणुगमं कस्सामो । २१. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त. चारसक०-णवणोक० भुजगार-अवद्विदविहत्ती कस्स होदि ? अण्णदरस्स मिच्छाइद्विस्स । स्थित स्थितिविभक्ति होती है , क्योंकि ऐसे जीवके यद्यपि सम्यक्त्व 'और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अधःनिषेक स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वमें संक्रमित हो जाता है तो भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी स्थिति एक समय अधिक है, अतः सम्यग्दर्शनके ग्रहण करनेके पहले समयमें मिथ्यात्व द्रव्यके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमित होनेसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी ऊपर एक समय स्थिति बड़ जाती है, अतः जिस समय सम्यग्दर्शन को यह जीव ग्रहण करता है उस समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उतनी ही स्थिति प्राप्त होती है जितनी सम्यक्त्व ग्रहण करनेके पूर्व समयमें थी और इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित स्थितिविभक्ति बन जाती है। यहाँ इस विषयमें यह शंका उठाई गई है कि इस प्रकार पहले और दूसरे समयमें सम्यक्त्वकी स्थिति समान भले ही प्राप्त हो जाओ पर निषेकोंमें समानता नहीं हो सकती, किन्तु मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वके जितने निषेक थे सम्यक्त्व ग्रहण करनेके समय उनमें एक निषेक बढ़ जाता है, क्योंकि मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वका एक निषेक स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वमें संक्रमित हो गया और इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही सम्यक्त्वका एक निषेक कम हो गया । पर दूसरे समयमें सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर सम्यक्त्वका अधःस्तन निषेक मिथ्यात्वमें नहीं संक्रमित होता किन्तु एक समय स्थिति अधिक मिथ्यात्वके द्रव्यके सम्यक्त्वमें संक्रमित होनेसे सम्यक्त्वका एक निषेक बढ़ जाता है, अतः उक्त प्रकारसे सम्यक्त्वकी अवस्थित विभक्ति नहीं बन सकती। इस शंकाका वीरसेनस्वामीने जो समाधान किया है उसका सार यह है कि इस प्रकार यद्यपि निषेकमें वृद्धि हो जाती है पर स्थितिमें वृद्धि नहीं होती, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जितनी स्थिति थी सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर उसकी उतनी ही स्थिति प्राप्त हो गई, क्योंकि मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें इसकी स्थितिमें यद्यपि एक समय कम हो गया तो भी सम्यक्त्वको ग्रहण करने पर ऊपर एक समय स्थिति में वृद्धि भी हो गई. अतः स्थिति समान रही आई । और स्थिति कालप्रधान होती है निषेक प्रधान नहीं । हाँ यदि निषेकोंकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी स्थितिमें अवस्थितपना लाना हो तो ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवको लो जिसके मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी स्थिति समान हो किन्तु सम्यक्त्वके निषेकसे मिथ्या त्वका एक निषेक अधिक हो । अब यह जीव जब सम्यक्त्वको ग्रहण करता है तो इसके मिथ्यात्व के अन्तिम समयमें सम्यक्त्वके जितने निषेक रहते हैं उतने ही सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके पहले समयमें भी देखे जाते हैं अतः यहाँ निषेकोंकी अपेक्षा अवस्थित विभक्तिपना बन जाता है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वके निषेकोंकी अपेक्षा अवस्थितविभक्तिपनाका कथन करते समय सम्यग्मिथ्यात्वके निषेकोंसे मिथ्यात्वके दो निषेक अधिक लेने चाहिये । शेष कथन सुगम है। * इसी प्रकार शेष कर्मों का जानना चाहिए। $ २०. इस कथनसे यतिवृषभआचार्यने सूत्रका देशामर्षकपना जता दिया, इसलिए इसके द्वारा सूचित होनेवाले अर्थका ज्ञान करानेके लिये यहाँ पर उच्चारणा का अनुगम करते हैं २१. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार और अवस्थित विभक्ति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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