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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ चरिमसमयमिच्छाट्ठिस्स सम्मत्तणिसेगेहिंतो पढमसमयसम्माहट्टिस्स सम्मत्तणिसेगा एग णिसेगेणब्भहिया, मिच्छत्तदयसरूवेण त्थिबुक्कसंकमेण गच्छमाणसम्मत्तणिसेगस्स सम्माडिपटमसमए गमणाभावादो । तदो णावट्ठिदत्तं जुञ्जदि ति १ ण एस दोसो, कालं पेक्खिदून सम्मत्तस्स अवट्ठिदत्तुवल भादो । तं जहा - मिच्छाहट्ठिचरिमसमए जत्तिया सम्मत्तदि तत्तिया चैत्र सम्माट्ठिपढमसमए वि, अधो एगसमए गलिदक्खणे चैव मिच्छत्तादो सम्मत्तम्मि उवरि एगसमयवडिदंसणादो । णिसेगेहि अवट्टिदत्तं जदि इच्छिजदि तो वि ण दोसो, कालमस्सिदृण सम्मत्त - मिच्छत्ताणं समाणद्विदिसंतकम्एिण णिसेगे पडुच्च एगणिखेगेणा हिय मिच्छत्त ड्डि दिसंत कम्मेण मिच्छादिट्टिणा सम्म गहिदे चरिमपदमसमयमिच्छादिट्टिसम्म|दिट्ठीसु खिसेगाणं सरिसत्त वलंभादो | $ १७. सम्मामिच्छत्तस्स पुण हेट्ठा उवरिं च एगणिसे गाहियमिच्छाइट्टिणा सम्मत गहिदे वदत्तं होदि, सम्माडिपढमसमयम्मि एगे णिसेगे त्थिर्बुकसंक्रमेण गदे उवरि एगणिसेगस्स वड्डिसणादो। सुत्तकारो पुण पहाणीकय कालो । तं कुदो णव्वदे ? सम्मत्तादो समयुत्तर मिच्छत्तरेण सम्मत्त े पडिवण्णे सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमकमेण अवट्ठिदभोपरूवणादो | - सम्यत्वका जो स्थितिसत्त्व था, सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में प्राप्त हुआ सम्यक्त्वका स्थितिसत्त्व उसके समान है । शंका- मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय में जो सम्यक्त्वके निषेक हैं उनसे सम्यग्दृष्टिके पहले समयमें प्राप्त हुए सम्यक्त्वके निषेक एक अधिक हो जाते हैं, क्योंकि मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्व के उदयरूपसे स्तिवक संक्रमणके द्वारा प्राप्त होनेवाला सम्यक्त्वका निषेक सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में मिथ्यात्व के उदयरूपसे नहीं प्राप्त होता है । अर्थात् मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वका निषेक स्तिवुक संक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वरूप होता रहता है परन्तु सम्यक्त्वके प्राप्त होनेपर वह निषेक मिथ्यात्वरूप नहीं होता और इस प्रकार प्रकृतमें एक निषेककी वृद्धि हो जाती है, अतः सम्यक्त्वप्रकृतिका अवस्थित पना नहीं बनता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कालकी अपेक्षा सम्यक्त्वका अवस्थितपना बन जाता है । उसका खुलासा इस प्रकार है मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय में सम्यक्त्वकी जितनी स्थिति थी उतनी ही सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में रही, क्योंकि नीचे एक समयके गलनेके समय में ही मिथ्यात्व से सम्यक्त्व में ऊपर एक समयकी वृद्धि देखी जाती है । G अब यदि निषेककी अपेक्षा अवस्थितपना चाहते हो तो भी दोष नहीं है, क्योंकि कालकी अपेक्षा जिसके सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका स्थितिसत्कर्म समान है और निषेकोंकी अपेक्षा जिसके मिथ्यात्वका स्थितिसत्कर्म एक निषेक अधिक है ऐसे किसी एक मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व के ग्रहण करने पर मिथ्यादृष्टि अन्तिम और सम्यदृष्टि के प्रथम समय में दोनोंके निषेकोंकी समानता पाई जाती है । $ १७. सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा तो जिसके नीचे और ऊपर एक निंषेक अधिक हो ऐसे मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व के ग्रहण करने पर अवस्थितपना प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में एक निषेकके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा चले जानेपर ऊपर एक निषेककी वृद्धि देखो जाती है । किन्तु चूर्णिसूत्रकारने तो कालकी प्रधानता से कथन किया है । शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — क्योंकि उन्होंने सम्यक्त्व प्रकृति से एक समय अधिक स्थितिवाले मिथ्यात्व के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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