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________________ गा०२२] वडिपरूवणाए समुक्कित्तणा ६२६३. मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० अस्थि तिमिवड्डी तिण्णिहाणी अवट्ठाणं च । अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्वं गत्थि, पुव्विल्लसमए अण्णाणाभावादो। सम्मत्त-सम्मामि० अस्थि चत्तारि हाणीओ। एवं मिच्छाइट्ठी। ६२६४. आमिणि-सुद०-ओहि० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० असंखेज्ज. भागहाणी संखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी असंखेज्जगुणहाणि त्ति अस्थि चत्तारि हाणीओ। सम्मत्त०-सम्मामि० अस्थि चत्तारि हाणीओ । चत्तारिवड्डि-अवत्तव्बावट्ठाणाणि णस्थि: पुचिल्लसमए तिण्हं णाणाणमभावादो। एवं मणपज्ज०.संजद ०-सामाइयछेदो०-ओहिदंस० सुकलेठ-सम्मादिहि त्ति । णवरि सुक्कले० सम्म०-सम्मामि० चत्तारिवड्डि-अवट्ठा०-अवत्तव्व० अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्वं च अस्थि । ___६२६५. परिहार० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणताणुबंधिचउक्काणं अस्थि हो जायगी जो इष्ट नहीं है, क्योंकि उपशम हो जाने पर सबकी समान स्थिति होती है ऐसा नियम है। अतः चूर्णिसूत्रकारके मतानुसार अपगतवेदीके आठ कषायोंकी संख्यातभागहानि न होकर एक असंख्यातभागहानि ही प्राप्त होती है। किन्तु यहाँ इनकी दो हानियाँ बतलाई हैं इससे मालूम होता है कि उच्चारणाचार्य अन्तकरणके बाद भी मोहनीयका स्थितिकाण्डकघात मानते हैं। नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके विषयमें भी इसी प्रकार समझना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है इन दोनोंकी उक्त दो हानियाँ क्षपक अपगतवेदीके भी बन जाती हैं। यहाँ अनन्तानुबन्धी तो है ही नहीं अतः उसका तो विचार ही नहीं है। अब शेष रहीं सात नोकषाय और चार संज्वलन ये ग्यारह प्रकृतियाँ सो इनमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि ये तीन हानियाँ बन जाती हैं । यह कथन क्षपकश्रेणिकी मुख्यतासे किया है । उच्चारणाचार्यके मतसे उपशमश्रेणिमें अपगतवेदीके इनकी असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानि ये दो हानियाँ ही प्राप्त होती हैं। किन्तु चूर्णिसूत्रकारके मतसे एक असंख्यातभागहानि ही प्राप्त होती है। ६२६३. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यभंग नहीं है, क्योंकि पूर्व समयमें अज्ञानका अभाव है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ हैं । इसी प्रकार मिथ्यादृष्टियोंके जानना चाहिए। ६२६४. श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ये चार हानियाँ हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार हानियाँ है। चार वृद्धियाँ, अवक्तव्य और अवस्थान नहीं हैं, क्योंकि पूर्व समयमें तीन ज्ञानोंका अभाव है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धियाँ, अवस्थान और अवक्तव्य तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्य हैं। $ २६५. परिहारविशुद्धिसंयतोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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