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________________ गा० २२] वहिपरूवणाए अंतरं २०७ संखेज्जगुणवड्डि-संखेज्जगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणीणं णत्थि अंतरं। एसा परूवणा छन्वीसपयडीणं दट्टव्वा । अणंताणु० च रक्क० अवत्तव्व० णत्थि अंतरं । कुदो ? अणंनाणुबंधिविसंजोइदसम्माहट्ठी संजुतो होद्ण जहण्णमिच्छत्तद्धमच्छिय पुणो सम्मत्तं घेत्तण सव्वजहण्णेण कालेण अणंताणु० विसंजोइय पुणो जाव संजुत्तो होदि ताव एगजोगस्स अवट्ठाणाभावादो। सम्मत्त-सम्मामि० असंखज्जभागहाणीए जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहु० । चत्तारियड्डि तिण्णिहाहि०-अवट्टि०-अवत्तवाणं णस्थि अंतरं । ३३६. कायजोगि० मिच्छत्त-बारसक०णवणोक. असंखेज्जभागवडि-अवढि० जह० एगस०, उक्क० परिदो० असंखेज्जदिमागो । संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं जह० एगस० । इत्थि-पुरिस० संखज्जभागवड्डीए जह० अंतोमुहुः । संखेज्जभागहाणिसंखेज्जगुणहाणणं जह० अंतोमुहुः । उक्क० सम्वेसि पि असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । असंखेज्जभागहाणीए जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुः । असंखेज्जगुणहाणीए णत्थि अंतरं । एवमणंताणु०चउकस्स । णवरि अवत्तव्व० णत्थि अंतरं। सम्मत्त-सम्मामि० चत्तारिवड्डि-अवढि०-अवत्तवाणं णत्थि अंतरं। असंखेज्जभागहाणी. जह. एगस., उक्क० अंतोमुहुः । कुदो ? चरिमफालिं पादिय असंखेज्जभागहाणीए कायजोगेण अंतरं कादण णिस्संतकम्मिओ होदण अणियट्टिकरणद्धाए अभंतरे अंतोमुहुत्तमेत्तमंतरिय कायजोगदुचरिमसमए सम्मत्तं घेत्तण अवत्तव्वेणंतरिय चरिमसमए असंखेज्जभागहाणीए असंख्यातगुणहानिका अन्तर नहीं है। यह प्ररूपणा छब्बीसप्रकृतियोंकी जाननी चाहिए।अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अवक्तव्यका अन्तर नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वमें जाकर और अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होकर तथा सबसे जघन्य काल तक मिथ्यात्वमें रह कर पुनः सम्यक्त्वको ग्रहण करके और सबसे जघन्य कालके द्वारा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके पुनः मिथ्यात्वमें जाकर जबतक अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होता है तबतक एक योगका अवस्थान नहीं रहता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। चार वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्यका अन्तर नहीं है। ६३३६. काययोगियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा सबकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर र अन्तमुहर्त है और सभीका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा असंख्यातगणहानिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। किन्त इतनी विशेषता है कि अवक्तव्यका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्यका अन्तर नहीं है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि अन्तिम फालिका पतन करके और काययोगके साथ असंख्यातभागहानिका अन्तर करके पुनः निःसत्त्वकर्मवाला होकर अनिवृत्तिकरणके कालके भीतर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरके बाद काययोगके द्विचरमसमयमें सम्यक्त्वको ग्रहण करके और अवक्तव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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