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________________ २२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ___६ ३५५. सण्णियाणु० सण्णीसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० असंखेज्जभागवडिअवढि० जह० एगस० । संखेज्जभागवडि-संखेज्जगुणवड्डी० जह० अंतोमु०। णवरि इस्थि-पूरिस० णम०-हस्स-रदि-अरदि-सोग० संखेज्जगुणवड्डीए जह० एगस ० । संखेज्जभागहाणि-संखेज्जगुणहाणीणं जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिं तेवद्विसागरोवमसदं तीहिपलिदोवमेहि सादिरेयं । णवरि संखेज्जमागहाणीए पलिदो० असंखेज्जदिभागेण सादिरेयं । असंखेज्जगुणहाणीए जहण्णुक० अंतोमु० । असंखेज्जमागहाणीए जह० एगसमओ, उक्क० अंत मु०। एवमणंताणु०चउक्क०। णवरि असंखेज्जभागहाणी० उक. वेछावट्टि सागरो० देसणाणि । असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं देसूणं। सम्मत्त-सम्मामि० तिण्णिवड्डि-तिण्णिहाणि-अवद्विदाणं ज. अंतोमु० । असंखेज्जभागहाणी० ज० एगस० । असंखज्जगुणवडि-अवत्तव्वाणं जह पलिदो० असंखेज्जदिभागो । उक्क० सव्वेसि पि सागरोवमसदपुधत्तं देसूणं । __ ३५६. असण्णि० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक. असंखेज्जभागवडि-अवढि० ज० एगस०, उक० पलिदो० असंखेज्जदिभागो। संखज्जभागवड्डी० ज० एगस० । इत्थि-पुरिस० अंतोमु० । संखज्जभागहाणी० ज० अंतोमुहुतं । उक्क० दोण्हं पि अणंतकालमसंखज्जा पोग्गलपरियट्टा। संखेज्जगुणवड्डी० ज० खुद्दाभवग्गहणं समयूणं, उक्क० ६ ३५५. संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय तथा संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, और शोककी संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकारअनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम एकसौ बत्तीस सागर है। असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम सौ सागर पृथक्त्व है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थितका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय तथा असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाण है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम सौ सागर पृथक्त्व है। ३५६. असंज्ञियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवां भाग है। संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है। पर स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातभागहानिकाजघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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