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________________ गा० २२] वड्डिपरूवणाए काला १८७ __$३०६, दंपणाणुवादेण चक्खुदसणीसु ओघं । णवरि संखेज्जभागवड्डी० वे समया णत्थि । ओहिदंसणी० ओहिणाणिभंगो। $३१०. किण्ह-णील-काउलेस्सासु छव्वीसं पयडीणं तिण्णिव टि-अवट्ठाणाणपोघं । असंखेज्जमागहाणी०जह०एगस०,उक्क०तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरो०देसूणाणि । संखेज्जभागहाणि संखेज्जगुणहाणी० जहण्णुक० एगस० । णवरि अणंताणु०चउक्क० संखेज्जभागहाणि-असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्याणमोघं। सम्मत्त०सम्मामि० चत्तारिवाड्डि-अवट्ठाणाणमोघं । असंखेजमागहाणी. जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरो० देसूणाणि । संखेज्जभागहाणि-संखेजगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणि-अवत्तव्वाणि ओघं । ३११. तेउ-पम्मलेस्सा० तिण्णिवड्डि-अवट्ठाणाणं सोहम्मभंगो। अट्ठावीसं पयडीणमसंखेज्जभागहाणीए जह० एगसमओ, उक्क० तेउलेस्साए अड्डाइजसागरोवमाणि पम्मलेस्साए अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणी. जहण्णुक० एगस० । णवरि मिच्छत्त० संखेजभागहाणीए असंखेजगुणहाणीए च ओघ । अणंताणु०चउक्क० संखेजभागहाणि-संखेज्जगुणहाणिअसंखेज्जगुणहाणि-अवत्तवाणमोघं । सम्मत्त०-सम्मामि० चत्तारिवाड्डि-तिण्णिहाणि ६३०६ दर्शनमागंणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें ओघके समान जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातभागवृद्धिका दो समय काल नहीं है । अवधिदर्शनवाले जीवोंका भंग अवधिज्ञानियोंके समान है। विशेषार्थ—जो तेइन्द्रिय जीव चौइन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनमें संख्यातभागवृद्धिका दो समय तक होना सम्भव है । पर स्वस्थानकी अपेक्षा वह एक समय तक ही होती है, इसलिये चक्षु. दर्शनवाले जीवोंमें संख्यातभागवृद्धिके दो समयोंका निषेध किया है । शेष कथन सुगम है। ६३१० कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और अवस्थानका काल ओघके समान है। असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस, कुछकम सत्रह और कुछकम सात सागर है । संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी संख्यातभागहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी चार वृद्धि और अवस्थानका काल ओघके समान है। असंख्यात. भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमसे कुछकम तेतीस, कुछकम सत्रह और कुछ कम सात सागर है। संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका काल ओघके समान है। ३११ पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और अवस्थानका भंग सौधर्म स्वर्गके समान है। अट्ठाईस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पीतलेश्यामें ढाई सागर तथा पद्मलेश्यामें साधिक अठारह सागर है। मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी संख्यातभागहानि और असंख्यातगुणहानिका काल ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अवक्तब्यका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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