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________________ १४६ गा०२२] वडिपरूवणाए समुक्कित्तणा वमहिदिसंतकम्मप्पहुडि जाव दूरावकिट्टिहिदिसंतकम्मं चेदि ताव एत्थ अंतरे पदमाणद्विदिखंडयाणं चरिमफालीसु णिवदमाणासु सव्वत्थ संखेजगुणहाणी होदि।संसारावत्थाए विसोहीए द्विदिखंडए घादिजमाणे समयाविरोहेण सव्वत्थ संखेजगुणहागी सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं वत्तव्वा । २५०. संपहि असंखेज्जगुणहाणी वुच्चदे । तं जहा-दसणमोहक्खवणाए दावकिट्टि. हिदिसंतकम्मे चेट्ठिदे तत्तो उवरि जाणि हिदिकंडयाणि पदंति तेसिं सव्वेसि पि चरिमफालोसु णिवदमाणासु असंखेज्जगुणहाणी चेव होदि । कुदो १ साहावियादो । सव्वुक्कस्सचरिमुव्वे. लणचरिमफालीए णिवदिदाए वि असंखेज्जगुणहाणी होदि। पुणो अण्णेगेण जीवेण इमाए सव्वुक्कस्सचरिमुव्वेल्लणफालियाए समयूणाए पादिदाए असंखेज्जगुणहाणी होदि । एवं दुसमयूण-तिसमयणादिकमेण णेदव्वं जाव सबजहण्णुव्वेल्लणचरिमफालिं पादिय असंखेज्जगुणहाणि कादण द्विदो त्ति। एवं कदे समय॒णसव्वजहण्णुव्वेल्लणचरिमफालिं सव्वुक्कस्सउव्वेल्लणचरिमफालियाए सोहिदे सुद्धसेसम्मि पलिदो० असंखे०भागम्मि जत्तिया समया तत्तियमेत्ता असंखेज्जगुणहाणिवियप्पा उम्वेल्लणाए लद्धा होति । ६२५१ संपहि अवढिदस्स परूवणा कीरदे । तं जहा–वेदगपाओग्गअंतोकोडाकोडिसागरोवमट्ठिदिसंतकम्मस्सुवरि समयुत्तरं मिच्छत्तहिदि बंधिदण सम्मत्ते गहिदे अवद्विदं होदि । पुणो पुव्वुत्तद्विदीदो समयुत्तरसम्मत्तहिदिसंतकम्मियसम्मादिहिणा मिच्छत्तं गंतूण पल्यप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे लेकर दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्मतक इस अन्तराल में पतनको प्राप्त होनेवाले स्थितिकाण्ड कोंकी अन्तिम फालियोंके पतन होने पर सर्वत्र संख्यातगुणहानि होती है । तथा संसारावस्थामें विशुद्धिके द्वारा स्थितिकाण्डकका घात करने पर यथाअगम सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वकी संख्यातगुणहानि कहनी चाहिये । १५०. अब असंख्यातगुणहानिका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें दूरापकृष्टिप्रमाण स्थितिसत्कर्मके शेष रहने पर इसके आगे ऊपर जितने स्थितिकाण्डकोंका पतन होता है उन सबकी अन्तिम फालियोंका पतन होते समय असंख्यातगुणहानि ही होती है। क्योंकि ऐसा स्वभाव है। सबसे उत्कृष्ट अन्तिम उद्वलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय भी असंख्यातगुणहानि होती है। पुनः किसी एक अन्य जीवके द्वारा सबसे उत्कृष्ट अन्तिम उर लनाकाण्डककी एक समय कम अन्तिम फालिका पतन करनेपर असंख्यातगुणहानि होती है। इस प्रकार दो समय कम तीन समय कम आदि क्रमसे लेकर सबसे जघन्य उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने तक कथन करना चाहिये, क्योंकि इनके पतनमें भी असंख्यातगुणहानि होती है । इस प्रकार करने पर एक समय कम सबसे जघन्य उद्वेलनाकी अन्तिम फालिको सबसे उत्कृष्ट उद्वलनाकी अन्तिम फालिमें से घटाने पर शेष रहे पल्योपमके असंख्यातवें भागमें जितने समय हों उद्वेलनामें असंख्यातगुणहानिके उतने विकल्प प्राप्त होते हैं। ६२५१. अब अवस्थितका कथन करते हैं। जो इस प्रकार है-वेदकसम्यक्त्वके योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर स्थितिसत्कर्मके ऊपर एक समय अधिक मिथ्यात्वकी स्थितिको बाँधकर सम्यक्त्वके ग्रहण करने पर अवस्थित होता है। पुनः पूर्वोक्त स्थितिसे सम्यक्त्वकी एक समय अधिक स्थितिसत्कर्मवाले सम्यग्दृष्टिके द्वारा मिथ्यात्वमें जाकर और मिथ्यात्वकी एक समय अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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