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________________ गा० २२] वडिपरूवणा १२३ उक्स्ससंखेजस्स उकस्सविसेसणं फिट्टदि; तत्तो उवरिं पि संखेजस्स संभवुवलंभादो ति अवत्तव्ववड्डीए णिवददि । कधमवत्तव्वदा ? संखेज्जासंखज्जसंखाहिंतो पुधभूदत्तादो । संखज्जासंखेज्जाणंतेहिंतो जदि पुधभूदा तो संखा चेव ण होदि । अध होदि तो अव्वावी तिविहसंखाववहारो ति ? ण ताव संखज्जासंखेज्जाणंतेहिंतो पुधभूदा संखा णत्थिः तिण्हं संखाणं विच्चालेसु अणंतवियप्पसंखाए उवलंभादो । ण संखासण्णा अव्याविणी, दव्वाट्ठिय. गए अवलंबिज्जमाणे तेसिं सव्वेसि पि अणंतंसाणं एगरूवम्मि पविट्ठाणं भेदोभावेण असंखेज्जाणतेसु चेव पवेसादो । एत्थ पुण णइगमणए अविलंबिज्जमाणे संखेज्जासंखेज्जागंतावत्तव्वभेएण चउव्विहा संखा होदि। कुदो दव्वट्ठियपज्जवट्ठियणयविसयमवलंबिय णइगमणयसमुप्पत्तीदो । संपहि उक्कस्ससंखेजे भागहारे जादे संखेजभागवड्डीए आदी जादा। ६२२८. एत्तो पहुडि छेदभागहारो समभागहारो च होद्णुवरि गच्छदि जाव धुवद्विदिभागहारो एगरूवं जादो त्ति । पुणो तकाले संखेजगुणवड्डी होदि; धुवट्ठीदीए उवरि धुवट्ठीदीए चेव बंधेण वड्डिदसणादो। एत्तो पहुडि जाव उकस्सद्विदिं वडिदूण ऊपरकी संख्याको संख्यात मानने में विरोध आता है । यदि उसे संख्यात मान लिया जाय तो उत्कृष्ट संख्यातका उत्कृष्ट यह विशेषण नष्ट होता है; क्योंकि उसके ऊपर भी संख्यातकी संभावना है। अतः छेदभागहारका अवक्तव्य वृद्धिमें समावेश होता है। शंका-यह संख्या अवक्तव्य कैसे है ? समाधान-संख्यात और असंख्यातसे पृथग्भूत होनेके कारण यह संख्या अवक्तव्य है। शंका-संख्यात, असंख्यात और अनन्तसे यदि यह संख्या पृथग्भूत है तो वह संख्या ही नहीं है । और यदि वह संख्या है तो तीन प्रकारका संख्याव्यवहार अव्यापी होजाता है । समाधान-संख्यात, असंख्यात और अनन्तसे पृथग्भूत संख्या नहीं है यह बात नहीं है, क्योंकि तीन प्रकारकी संख्याके अन्तरालमें अनन्त विकल्पवाली संख्या पाई जाती है। पर इससे संख्या यह संज्ञा अव्याप्त भी नहीं होती है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर वे सभी अनन्त अंश एकमें प्रविष्ट हैं अतः भेद नहीं होनेसे उनका असंख्यात और अनन्तमें ही समावेश हो जाता है। परन्तु यहाँ पर नैगमनयका अवलम्ब लेने पर संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अवक्तव्यके भेदसे संख्या चार प्रकारकी है क्योंकि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयके विषयका अवलम्ब लेकर नैगमनय उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार उत्कृष्ट संख्यात भागहार हो जाने पर संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ हुआ। ६२२८. यहाँसे लेकर छेदभागहार और समभागहार होकर आगे तबतक जाता है जबतक ध्रुव स्थितिका भागहार एकरूपको प्राप्त होता है । अर्थात् ध्रुवस्थितिके ऊपर ध्रुवस्थितिकी वृद्धि होने तक उक्त भागहारकी प्रवृत्ति होती है । पुनः उस समय संख्यातगुणवृद्धि होती है, क्योंकि यहाँ ध्रुव स्थतिके ऊपर ध्रुवस्थितिकी ही बन्धरूपसे वृद्धि देखी जाती है। इससे आगे स्थितिमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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