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________________ गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिभुजगारसमुक्त्तिणा ६९. आणदादि जाव उवरिमगेवज० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अत्थि अप्प० जीवा । अणंताणु० चउक्क० एवं चेव । णवरि अवत्तव्वं पि अस्थि । समत्त-सम्मामि० ओघं एवं सुक्कले० । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठ० सधपयडीणं अस्थि अप० जीवा । एवमाहार०-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-आमिणि-सुद०-ओहि ०- मणपज्ज०- संजदसामाइय-छेदो०-परिहार-सुहम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय०वेदय०-उवसम० सासण-सम्मामिच्छाइहि त्ति । अभव० छब्बीसं पयडीणमत्थि भुज०. अप्प०-अवढि० विह। एवं समुक्त्तिणाणुगमो समत्तो विशेषार्थ– पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है। इसका यह तात्पर्य है कि जिस प्रकार ओघसे मिथ्यात्व आदिकी स्थितियों में भुजगार आदिका कथन किया है उसीप्रकार मनुष्य और तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना तथासंयोजना नहीं होती, अतः इनके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य भंग नहीं पायाजाता। तथा इनके एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है और मिथ्यात्व गुणस्थानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें मिथ्यात्वका संक्रमण नहीं होता, अतः इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक अल्पतर भंग ही पाया जाता है। इसी प्रकार मूलमें और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी सब प्रकृतियोंकी यही व्यवस्था जाननी चाहिये। यद्यपि उनमें कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं और औदारिकमिश्र आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें मिथ्यात्व, सासादन और अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं तो भी इतने मात्रसे उन मार्गणाओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिविभक्तिके होने में कोई अन्तर नहीं आता । इसका विशेष खुलासा स्वामित्व अनुयोगद्वारमें किया ही है। ९. आनत कल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अल्पतर स्थितिबिभक्तिके धारक जीव हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका अवक्तव्य भंग भी है। सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतरस्थितिविभक्तिके धारक जीव हैं। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकायोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्द्राष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्ति के धारक जीव है। विशेषार्थ-आनतकल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंके वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जो स्थिति होती है वह उत्तरोत्तर कमती ही होती जाती है, बन्ध या संक्रमसे उसमें वृद्धि नहीं होती, अतः इन देवोंके उक्त कर्मोंकी एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है। किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थितिमें अल्पतर और अवक्तव्य ये दो भंग होते हैं। बात यह है कि उक्त स्थानोंमें मिथ्यादृष्टि जीव भी उत्पन्न होते हैं और जिन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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