SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ * सामित्तं । मिच्छत्तस्स भुजगार अप्पदर-अवहिदविहत्तिो को होदि? $ १० सुगममेदं पुच्छासुत्तं । * अण्णदरो णेरइयो तिरिक्खो मणुस्सो देवो वा । ११. भुज० अवडिद० मिच्छाइटिस्सेव । अप्पद० सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा। * अवत्तव्यो पत्थि । ६ १२. मिच्छत्तसंतकम्मे णिस्संतभावमुवगए पुणो तस्संतकम्मस्सुप्पत्तीए अभावादो। सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है वे मिथ्यादृष्टि भी हो सकते हैं। अब यदि किसी सम्यग्दृष्टि देवने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की और वह कालान्तरमें मिथ्यादृष्टि हो गया हो तो उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्य भंग प्राप्त हो जाता है और शेष देवोंके अनन्तानन्धी चतुष्कका अल्पतर भंग रहता है। तथा यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना भी होती है, अतः इन दोनों कृतियोंके ओघके समान भुजगार आदि चारों भंग बन जाते हैं। इस प्रकार शक्ललेश्यामें जानना चाहिये । तथा अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके सब प्रकृतियोंकी स्थितिमें वृद्धि नहीं होती, अतः सब प्रकृतियोंकी स्थितिका एक अल्पतर भंग ही है। इसी प्रकार मूलमें और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी जानना चाहिये । जिस जीवने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है वह सासादनमें भी जाता है और ऐसे जीवके सासादनके प्रथम समयमें ही अनन्तानुबन्धीका सत्त्व हो जाता है पर यहाँ सासादनगुणस्थानसे पूर्व अवस्थाका विचार सम्भव नहीं है, अतः सासादनमें अवक्तव्य नहीं होता। इसी कारण सासादनमें भी अनन्तानुबन्धी चतुष्कका एक अल्पतर भंग कहा है। अभव्योंके छब्बीस प्रकृतियोंका ही सत्त्व होता है और उनके उन सब प्रकृतियोंकी स्थितियोंमें वृद्धि, ह्रास और अवस्थान सम्भव है, अतः उनके छब्बीस प्रकृतियोंके तीन भंग कहे। __इस प्रकार समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। * स्वामित्व कहते हैं। मिथ्यात्वकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिका स्वामी कौन है। १०. यह पृच्छासूत्र सुगम है। * कोई भी नारकी, तिथंच, मनुष्य और देव मिथ्यात्वकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका स्वामी है। ६११. भुजगार और अवस्थितविभक्ति मिथ्यादृष्टि के ही होती है तथा अल्पतरविभक्ति सम्यग्दृष्टि के भी होती है और मिथ्यादृष्टि के भी होती है। * मिथ्यात्वका अवक्तव्य भंग नहीं है । ६ १२. क्योंकि मिथ्यात्वसत्कर्मके निःसत्त्वभावको प्राप्त होनेपर पुनः उसकी सत्कर्मरूपसे उत्पत्ति नहीं होती है। विशेषार्थ-मिथ्यात्वका बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होता है और बन्धके बिना मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्ति बन नहीं सकती, अतः मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्ति मिथ्यादृष्टिके ही होती है यह मूलमें कहा है। तथा जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अनन्तर उत्तरोत्तर कारणवश उसकी अल्पतर स्थितिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy