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________________ उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है, क्योंकि ये दोनों बन्ध प्रकृतियाँ न होकर संक्रम प्रकृतियाँ हैं, इसलिए जिस जीवने मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके उसका काण्डकघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया है उसके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें अन्तर्मुहूर्त कम मिथ्यात्वके सब निषेकोंका कुछ द्रव्य संक्रमणके नियमानुसार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे संक्रमित हो जाता है, इसलिए इन दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अद्धान्छेद अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण प्राप्त होता है। सोलह कषायोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद चालीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण है, क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्यात जीवके इन कर्मोंका इतना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद एक आवलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है । यद्यपि नौ नोकषाय बन्ध प्रकृतियां हैं पर बन्धसे इनकी उक्त प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती। किन्तु यह उत्कृष्ट अद्धाच्छेद संक्रमणसे प्राप्त होता है । यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि जब सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तब नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध होता है । उस समय स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका बन्ध नहीं होता। इसलिए नपुंसकवेद आदि पाँच प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद सोलह कषायों के उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय भी सम्भव है, क्योंकि मान लीजिए किसी जीवने सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध प्रारम्भ किया और उस समय वह नपुंसकवेद आदिका भी बन्ध कर रहा है, इसलिए वह जीव एक आवलि के बाद सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको नपुंसकवेद आदिमें संक्रमित भी करने लगेगा । अतः सोलह कषायोंके बन्धकालके भीतर ही नपुंसकवेद आदिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद बन जायगा पर स्त्रीवेद आदिका उस समय तो बन्ध होता ही नहीं, इसलिए सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कराकर और उससे निवृत्त होकर स्त्रीवेद आदि चारका बन्ध करावे और एक आवलि कम सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण कराके इनका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद आवलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण प्राप्त करे। स्त्रीवेद आदि चार प्रकृतियोंकी कहीं कहीं पुण्य प्रकृतियों के साथ परिगणना की जाती है। इसका बीज यही है। यह उत्कृष्ट अद्धाच्छेद है। इन प्रकृतियों के जघन्य अद्धाच्छेदका विचार करने पर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषाय ये स्वोदयसे क्षय होनेवाली प्रकृतियां नहीं , इसलिए जब इनकी अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें दो समय कालवाली एक निषेकस्थिति शेष रहती है तब इनका जघन्य अद्धाच्छेद होता है । सभ्य व और लोभसंज्वलन इनका तो नियमसे स्वोदयसे ही क्षय होता है। तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद ये भी स्वोदयसे क्षयको प्राप्त हो सकती हैं, अतः जब इनकी क्षपणाके अन्तिम समय में एक समय कालवाली एक निषेकस्थिति शेष रहती है तब इनका जघन्य अद्धाच्छेद होता है । एक तो क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेद इनका क्षपकश्रेणिमें अपनी अपनी उदयव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें पूरा सत्त्वनाश नहीं होता। दूसरे वहाँ इनके अपने अपने वेदनकालके अन्तिम समयमें नवकबन्धके निषेकों के साथ प्रथम स्थितिके निषेक भी शेष रहते हैं, इसलिए इनकी जघन्य स्थिति अपने अपने वेदनकालके अन्तिम समयमें न कहकर अन्तमें जो नूतन बन्ध होता है उसके एक समय कम दो आवलिप्रमाण गला देने पर अन्तमें इन कर्मों की जघन्य स्थिति कही है। जो क्रोधसंज्वलनकी अन्तर्महर्त कम दो महीना, मानसंज्वलन की अन्तर्मुहूर्त कम एक महीना, मायासंज्वलनकी अन्तर्मुहूर्त कम पन्द्रह दिन और पुरुषवेदकी अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्षप्रमाण होती है । यही इनका जघन्य अद्धाच्छेद है। छह नोकषायोंके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालि संख्यात वर्षप्रमाण होती है, इसलिए इसका जघन्य अद्धाच्छेद संख्यात वर्षप्रमाण कहा है। सर्व-नोसर्वविभक्ति-सर्वस्थितिविभक्तिमें सब स्थितियाँ और नोसर्वस्थितिविभक्तिमें उनसे न्यून स्थितियाँ विवक्षित हैं । मूल और उत्तर प्रकृतियों में यह यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए। उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टविभक्ति-सबसे उत्कृष्टस्थिति उकृष्ट स्थितिविभक्ति है और उससे न्यून स्थिति अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति है। ओष और आदेशसे जहाँ यह मिसप्रकार सम्भव हो उस प्रकारसे उसे जान लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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