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________________ गा० २२] वडिपरूवणाए कालो २५३ संखेज्जा समया। एवं सवढे । णवरि संखेजा समया। सम्मत्त-अणंताणु०४ संखे०भागहाणिवि० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। ६४०५. इंदियाणुवादेण सव्वएईदियाणमसंखे० भागवड्डि०-हाणि-अवढि० छब्बीसं पयडीणं सव्वद्धा। संखे०भागहाणि-संखे०गुणहाणीणं जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०-भागो । सम्मत्त-सम्मामि० असंखे०भागहाणिवि० सव्वद्धा। सेसपदवि० ज० एगसमओ, उक० आवलि. असंखे०भागो। एवं पुढवि०-चादरपुढवि०-चादरपुढविअपज्ज०-सुहुमपुढवि-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादर-आउ०-चादरभाउअपज्ज.. सुटुमआउ०-सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-चादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०सुहुमतेउपजत्तापजत्त-वाउ०- बादरवाउ०- बादरवाउअपज.- सुहुमवाउ०-सुकुमवाउपजत्तापजत्त-सव्ववणप्फदि०-सव्वणिगोदा त्ति । वादरपुढविआदिपज्जत्ताणमेवं चेव । णवरि छब्बीसं पयडीणमसंखे भोगवड्डि० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। ६४०६. सव्वविगलिदिएसु छब्बीसं पयडीणमसंखे०भोगहाणि-अवढि० सव्वद्धा । असंखे० भागवाड्डि-संखे०भागवड्डि-संखे०भागहाणि-संखे गुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है यहां संख्यात समय काल है । तथा सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी संख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ४०५. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे सब एकेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धि असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यातभागहानि स्थितिविभक्तिका काल सर्वदा है। तथा शेष पदस्थितिविभक्तियोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पुथिवीकायिक अपर्याप्त, सक्ष्म प्रथिवीकायिक, सक्षम प्रथिवीकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक,सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त और अपर्यात, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और अपर्याप्त, सब वनस्पति और सब निगोद जीवोंके जानना चाहिए । बादर पृथिवी आदि पर्याप्त जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। ६४०६. सब विकलेन्द्रियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है। असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और संख्यात गुणहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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