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________________ ११६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ एक्कवीसपयडीणं णत्थि अप्पाबहुअं । एवमुक्कस्सप्पाबहुगाणुगमो समत्तो । ... * जहरिणया वड्री जहरिणया हाणी जहणणमवहाणं च सरिसाणि । __$२१९. कुदो, एगसमयत्तादो। तेण कारणेण णत्थि अप्पाबहुअं। संपहि एवं चुण्णिसुत्तं देसामासियं तेणेदेण सूचिदत्थाणुगमणद्वमुच्चारणं भणिस्सामो। $ २२०. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण । ओघे० अट्ठावीसं पयडीणं जहणिया वड्डी हाणी अवट्ठाणं च तिण्णि वि सरिसाणि । एवं सव्वणिरय०तिरिक्ख०-पंचिंतिरिक्ख०-पंचिंतिरि०पज०-पंचिंतिरि०जोणिणि-मणुस-मणुसपज०. मणुसिणी-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण.. पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउब्धिय-तिण्णिवे०-चत्तारिकसाय-असंजद०चक्खु०-अचक्खु०-पंवले०-भवसि०-सण्णि-आहारि त्ति । पंचिं०तिरि०अपज एवं चेव । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुगं; जहण्णहाणिमेत्तत्तादो। एवं मणुसअपज०. सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं० अपज०-सव्वपंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स.. वेउव्वियमि०-कम्मइय-तिण्णिअण्णाण-मिच्छादि-असण्णि-अणाहारि त्ति । $२२१. आणदादि जाव उवरिमगेवजो त्ति छव्वीसं पयडीणं णत्थि अप्पाबहुगं; एगपदत्तादो। सम्मत्त०-सम्मामि० सव्वत्थोवा जह० हाणी। जह० वड्डी असंखे०. समान है । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है। इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ। * जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान समान हैं। ६२१६. क्योंकि इनका प्रमाण एक समय है। इसलिये इनमें परस्पर अल्पबहुत्व नहीं है। यह चूर्णिसूत्र देशामर्षक है, इसलिये इससे सूचित होनेवाले अर्थका अनुसरण करनेके लिये अव उच्चारणका कथन करते हैं ६२२०. जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओपनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान ये तीनों ही समान हैं। इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यश्च योनिमती, मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि इनकी यहाँ जघन्य हानि मात्र पाई जाती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। ६२२१. आनतकल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयकतकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व नहीं है; क्योंकि इनका यहाँ एक पद पाया जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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