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________________ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे [ द्विदिविहत्त सम्मामिच्छत्ताणं हिदिसंतस्स बहुप्पसंगादो' । ण च एवं सम्मत सम्मामिच्छत्तेसु मिच्छादिट्ठिगुणट्ठाणे मिच्छत्तस्सुवरि समहिदीए संकममाणेसु वि सरिसत्तविरोहादो । तदो मिच्छादिट्ठम्मि मिच्छत्तट्ठिदिकंडए णिवदमाणे णियमा सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं पिट्ठदिकंडयमणियदायामं पददि । सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं ट्ठिदिकंडए णिवदमाणे मिच्छत्तङ्किदिकंडयघादो भयणिजो त्ति घेत्तव्वं । तेण मिच्छत्तुकस्सट्ठिदिसंतकम्मियमिच्छादिद्विणा वेदगसम्मत्ते पडिवण्णे दंसणतियस्स सरिसं ट्ठिदिसंतकम्मं होदि । पुणो डिदिखंडयघादेण विणा तप्पा ओग्गसम्मत्तद्धं गमिय मिच्छत्तं गंतूण डिदिकंडयघादेण विणा अंतोमुहुत्तकालमच्छमाणो जदि सम्मत्तं पडिवञ्जदि तो सम्मत्तस्स अवट्ठिदकम्मंसियो चेव होदि, सम्मत्तणिसेगेहिंतो मिच्छत्तणिसेगाणं रूवाहियत्वभादो । विसोहीए मिच्छत्तट्ठिदिं घादेदूण वेदगसम्मत्तं पडिवञ्जमाणो वि सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणमवहिदकम्मं सिओ चेव होदि, मिच्छत्ते घादिज्जमाणे घादिदसम्मत्त सम्मामिच्छत्तट्ठिदित्तादो । एवं सव्वत्थ सम्मत्तं पडिवजमाणस्स अवदिकम्मं सियत्तं परूवेदव्वं जा उव्वेल्लणाए ण पारंभो होदि । उव्वेल्लणारण पारंभे संते वि जाव पढमुव्वेल्लणकंडयं ण पददि ताव तत्थ वेदगसम्मत्तं पडिवजमाणो वि अवदिकम्मं सिओ चैव होदि, वड्डीए कारणाभावादो । उव्वेल्लणकंडए पुण पदिदे अवट्टिदक मंसियत्तस्स ण पाओग्गो, तत्थ वेदगसम्मत्तं पडिवजमाणस्स असंखेजभागवदंसणादो । पुणो अंतोमुहुत्तकालेन मिच्छतस्स भुजगारबंधं काढूण विसोहिमुवणमिय बहुत प्राप्त होता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के मिथ्यात्वमें समान स्थितिरूपसे संक्रमण होनेपर भी समानतामें विरोध आता है । इसलिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मिथ्यात्वके स्थितिकाण्डकोंके पतन होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनियत आयामवाले स्थितिकाण्डकोंका पतन नियमसे होता है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के स्थितिकाण्डक के पतन होनेपर मिथ्यात्वका स्थितिकाण्डकघात भजनीय है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए । अतः मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म वाले मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर तीन दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म समान होता है । पुनः स्थितिकाण्डकघात के बिना तत्प्रायोग्य सम्यक्त्वके कालको गमाकर और मिथ्यात्व में जाकर स्थितिकाण्डकघात के बिना अन्तर्मुहूर्तकालतक रहकर यदि सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो वह सम्यक्त्वका अवस्थितकर्मवाला ही होता है, क्योंकि यहाँपर सम्यक्त्वके निषेकों से मिथ्यात्वके निषेक एक अधिक पाये जाते हैं । तथा विशुद्धि के बलसे मिथ्यात्व की स्थितिका घात करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाला जीव भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अवस्थितकर्मवाला ही होता है, क्योंकि मिथ्यात्वका घात करने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिका घात होता ही है । इसप्रकार सर्वत्र उद्वेलना के प्रारम्भ होनेतक सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अवस्थितकर्मपनेका कथन करना चाहिये । उद्वेलनाके प्रारम्भ होनेपर भी जब तक प्रथम उद्वेलनाकाण्डकका पतन नहीं होता है तबतक वहाँ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाला जीव भी अवस्थितकर्मवाला ही होता है, क्योंकि यहाँ वृद्धिका कोई कारण नहीं है । परन्तु उद्वेलनाकाण्डकके पतन हो जानेपर जीव अवस्थितकर्मपनेके योग्य नहीं रहता है, क्योंकि वहाँ वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके असंख्यात भागवृद्धि २९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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