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________________ गा० २२] विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं २९३ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेहि सह मिच्छत्तस्स द्विदिघादं कादूण वेदगसम्मत्तं पडिवजमाणो अवहिदकम्मंसिओ होदि। एवं णेदव्वं जाव अण्णेगमुवेलणकंडयं ण पददि त्ति । पुणो तम्मि पदिदे असंखे०भागवड्डीए विसओ होदि जाब अंतोमुत्तकालं । पुणो वि मिच्छत्तस्स भुजगारं कादूण विसोहिमुवणमिय तिसु हाणीसु अण्णदरहाणीए डिदिकंडयघादे कदे अवडिदपाओग्गो होदि । एवं णेदव्वं जाव धुवहिदि त्ति । अंतोमुहुत्तेणावस्सं द्विदिखंडयघादो होदि :त्ति कुदो णव्वदे ? एगजीवंतरसुत्तादो। एवमेगो जीवो अंतोमुहुत्तमंतोमुहुत्तमंतरिय णियमेण अवट्टिदपाओग्गो होदि जाव अंतोमुहुत्तकालं । एवं सव्वअट्ठावीससंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं वत्तव्यं । असंखेजगुणहाणोए पुण पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तं कालं गंतूण एगवारं चेव पाओग्गो होदि । एवं जेणेगो जीवो बहुवारमवहिदकम्मंसियपाओग्गो होदि जेण च बहुआ तप्पाओग्गजीवा तेण असंखे०गुणहाणिकम्मंसिए हिंतो अवहिदकम्मंसिया असंखेजगुणा । * असंखेजभागवडिकम्मंसिया असंखेजगुणा। $ ५७३. कुदो ? अवहिदविहत्तिपाओग्गएगेगद्विदीए उवरि पलिदो०असंखे०भागमेत्तद्विदीणमसंखे०भागवड्विपाओग्गाणमुवलंभादो। कत्थ वि पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्ताणुवलंमादो का । तं जहा–अवट्ठिदस्स एगं हिदिसंतकम्ममस्सिदण एगो चेव देखी जाती है। पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा मिथ्यात्वका भुजगारबन्ध करके और विशुद्धिको प्राप्त होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके साथ मिथ्यात्वका स्थितिघात करके वेदकसम्यक्वको प्राप्त होनेवाला जीव अवस्थितकर्मवाला होता है। इसप्रकार एक दूसरे उद्वेलनाकाण्डकके पतन होने तक कथन करना चाहिये । पुनः उसका पतन होनेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यातभागवृद्धिका विषय होता है। पुनरपि मिथ्यात्वका भुजगारबन्ध करके और विशुद्धिको प्राप्त होकर तीन हानियोंमेंसे किसी एक हानिके द्वारा स्थितिकाण्डकघातके करनेपर अवस्थितविभक्तिके योग्य होता है। इसप्रकार ध्रुवस्थितिके प्राप्त होनेतक कथन करना चाहिये। शंका-अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा स्थितिघात अवश्य होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान—एक जीवके अन्तरका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रसे जाना जाता है। इस प्रकार एक जीव अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त कालका अन्तर देकर अन्तर्मुहूर्तकाल तक नियमसे अवस्थितस्थिति विभक्तिके योग्य होता है। इसी प्रकार अट्ठाईस सत्कर्मवाले सभी मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । परन्तु असंख्यातगुणहानिके योग्य तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके जाने पर एक बार होता है। इस प्रकार चूंकि एक जीव बहुत बार अवस्थितकर्मके योग्य होता है और चूँकि तत्प्रायोग्य जीव बहुत हैं, अतः असंख्यातगुणहानिकर्मवालोंसे अवस्थितकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। 8 असंख्यातभागवृद्धिकर्मवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। ६५७३. क्योंकि अवस्थितस्थितिविभक्तिके योग्य एक एक स्थितिके ऊपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियां असंख्यात भागवृद्धिके योग्य पाई जाती हैं। अथवा कहीं पर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण नहीं भी पाई जाती हैं। खुलासा इसप्रकार है-अवस्थितके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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