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________________ ૨૮૮ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती विहत्तियाणं पमाणुप्पत्तीदो।। * असंखेजभागहाणिकम्मंसिया संखेजगुण । $ ५६९. कुदो ? हिदिसंतसमाणबंधगद्धादो हिदिसंतादो हेट्टिमट्टिदिबंधगद्धाए संखेजगुणत्तादो । तं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव अप्पाबहुगादो। ॐ एवं बारसकसाय-णवणोकसायाणं । ६ ५७० जहा मिच्छत्तस्स बड्डि-हाणि-अवहाणाणमप्पाबहुअपरूवणा कदा तहा बारसकसाय-णवणोकसायाणं कायव्वा । णवरि विगलिदिएसुप्पजमाणएइ दियाणं चरिमअंतोमुहुत्तकालम्मि इत्थि-पुरिसवेदाणं णत्थि बंधो, णqसयवेदो चेव बज्झदि, विगलिंदिएसु णqसयवेदवदिरित्तवेदाणमुदयाभावादो। तेणेइंदियाणं विगलिंदिएसुप्पण्णपढमसमए संखे०गुणवड्डी इत्थि-पुरिसवेदाणं होदि। विगलिंदिएसुप्पण्णपढमसमए वज्झमाणित्थिवेद-पुरिसवेदहिदिबधादो संखेज्जभागहीणहि दिसंतेणुप्पण्णाणं संखे०भागवड्डी वि होदि । विगलिंदियाणं पुण विगलिंदिएसुप्पण्णाणमित्थि-पुरिसवेदाणं संखे० भागवड्डी चेव, संखेगुणवड्डी णत्थि । कारणं जाणिदण वत्तव्यं । एइदियहिदिसंतकम्मेण एईदिएहितो आगंतूण विगलिंदिएसुप्पन्जिय अंतोमुहुत्तकालं ‘णqसयवदं चेव राशिमें भाग देने पर अवस्थितविभक्तिवालोंका प्रमाण प्राप्त होता है। ॐ असंख्यातभागहानिकर्मवाले जीव संख्यातगुणे हैं। ६५६९. क्योंकि स्थितिसत्त्वके समान बन्धकालसे स्थितिसत्त्वके नीचेकी स्थितिबन्धका काल संख्यातगुणा पाया जाता है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी अल्पबहुत्वसूत्रसे जाना जाता है। * इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा प्ररूपणा करनी चाहिये । ६५७०. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी वृद्धि, हानि और अवस्थितके अल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की उसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा करनी चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले एकेन्द्रियोंके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तकालमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध नहीं होता एक नपुंसकवेदका ही बन्ध होता है, क्योंकि विकलेन्द्रियोंमें नपुंसकवेदके अतिरिक्त वेदका उदय नहीं पाया जाता। इसलिये जो एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं समयमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातगणवृद्धि होती है। तथा विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें बंधनेवाले स्त्रीवेद और पुरुषवेदके स्थितिबन्धसे संख्यातभागहीन स्थितिसत्त्वके साथ उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सं यातभागवृद्धि भी होती है। परन्तु जो विकलेन्दिय जीव विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातभागवृद्धि ही होती है। संख्यातगुणवृद्धि नहीं होती । कारणका जानकर कथन करना चाहिये। _ शंका—जो जीव एकेन्द्रियके स्थितिसत्कर्मके।साथ। एकेन्द्रियों में से आकर और विकलेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक नपुंसकवेदका ही बन्ध करता है उसके प्रतिभग्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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