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________________ गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड्ढोए अप्पाबहुअ २८९ बंधिय पडिहग्गपढमसमए वि इत्थि-पुरिसवेदाणं संखेज गुणवड्डी सत्थाणे किण्ण वुच्चदे ? ण, एइंदियहिदिसंतं पेक्खिदूण जादसंखे०गुणवड्डीए सत्थाणवड्डित्तविरोहादो । ® सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा असंखेजगुणहाणिकम्मंसिया। ५७१. कुदो ? चरिमुवेल्लणकंडयचरिमफालिं घादिय समऊणुदयावलियाए पवेसिदहिदि संतकम्माणमसंखे गुणहाणिदंसणादो। चरिमुव्वेल्लणकंडयस्स चरिमफाली वि एगवियप्पा ण होदि किंतु असंखेजवियप्पा । तं जहा-सव्वजहण्णुव्वेल्लणकंडयम्मि एगो चरिमफालिवियप्पो। समयुत्तरउव्वेलणकंडयम्मि विदिओ चरिमफालिवियप्पो । एवं विसमयुत्तरादिकमेण णेदव्वं जाव उकस्सफालि त्ति । उव्वेल्लणकंडयजहण्णफालीदो उ कस्सफाली असंखेगुणा । असंखे०गुणत्तं कुदो णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो। एदाओ चरिमफालीओ पलिदो० असंखे भागमेत्ताओ पादिय द्विदसव्वजीवे घेत्तूण असंखेगुणहाणिविहत्तिया सव्वत्थोवा त्ति भणिदं । एकम्हि समए फालिट्ठाणमेत्ता असंखे गुणहाणिकम्मंसिया किं लब्भंति आहो ण लब्भंति त्ति वुत्ते णत्थि एत्थ अम्हाण विसिट्ठोवएसो किंतु एककम्हि फालिहाणे एको वा दो वा उक्कस्सेण असंखेजा वा जीवा होनेके प्रथम समयमें भी स्वस्थानमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी संख्यातगुणवृद्धि क्यों नहीं कही ? समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ एकेन्द्रियोंके स्थितिसत्त्वको देखते हुए जो संख्यात गुणवृद्धि हुई उसे स्वस्थानवृद्धि मानने में विरोध आता है। ___* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव सबसे थोड़े हैं। ६५७१. क्योंकि अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिका घात करके जिन्होंने एक समयकम उदयावलिमें स्थितिसत्कर्मोको प्रवेश कराया है उनके असंख्यातगुणहानि देखी जाती है। अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालि भी एक प्रकारकी नहीं होती किन्तु असंख्यात प्रकारकी होती है। खुलासा इस प्रकार है-सबसे जघन्य उद्वेलनाकाण्डकमें अन्तिम फालिका एक विकल्प होता है। एक समय अधिक उद्वेलनाकाण्डकमें अन्तिम फालिका दूसरा विकल्प होता है। इसी प्रकार दो समय अधिक आदि क्रमसे उत्कृष्ट फाली तक ले जाना चाहिये। उद्वेलनाकाण्डककी जघन्य फालिसे उत्कृष्ट फालि असंख्यातगुणी है। शंका-असंख्यातगुणी है यह किस प्रमाणसे जाता है ? समाधान-सूत्रके अविरुद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है। पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण इन अन्तिम फालियोंको गिरा कर स्थित हुए सब जीवोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं ऐसा कहा । एक समयमें जितने फालिस्थान हैं उतने असंख्यातगुणहानिकर्मवाले जीव क्या प्राप्त होते हैं या नहीं प्राप्त होते हैं ऐसा पूछने पर आचार्य वीरसेन कहते हैं कि इस विषयमें हमें विशिष्ट उपदेश प्राप्त नहीं हैं । किन्तु एक एक फालित्थानमें एक या दो और उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात जीव होते हैं १. ता आ० प्रत्योः पदेसिदछिदि इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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