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________________ गा० २२ ] पदणिक्खेवे अप्पा बहुअं * उक्कस्सिया हाणी असंखेज्जगुणा । $ २११ कुदो १ अंतोकोडाकोडीए ऊणसत्तरिसागरोवमकोडाको डिपमाणत्तादो । * उक्कस्सिया वड्डी विसेसाहिया । $ २१२. सागरोवमेण सागरोवमपुधत्तेण वा ऊणसत्तरिसागरोवमकोडा कोडिपमाणत्तादो | सागरोवमेण सागरोवमपृधत्तेण वा ऊणत्तस्स किं कारणं १ बुच्चदे -- एइंदिएस ठाइदूण' जेण सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिदाणि सो तेसिं सागरोवममेत्तट्ठि दिसंते सेसे वेदगसम्मत्तपाओग्गो जदि तसकाइए अच्छिदूण उब्वेल्लदि तो सागरोवमपुधत्ते सम्मत्त सम्मामिच्छत्तट्ठि दिसंते सेसे वेदगपाओग्गो होदि तेणेत्तिएण ऊणसत्तरिसागकडकडदी उकवड्डी होदि । एत्थ पुण एगसागरोवमेणूणुक सदी व्वा; उक्कसवड्डीए अहियारादो । $ २१३. संपहि चुण्णिसुत्तमस्सिदृण अप्पाचहुअपरूवणं करिय विसेसावगमणट्ठमेत्थ उच्चारणाणुगमं कस्सामो । अप्पा बहुअं दुविहं -- जहण्णमुक्कस्तं च । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णि० - ओघे० आदेसे० । तत्थ ओघेण छव्वीसं पयडीणं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । बड्डी अवाणं च विसेसाहिया । एदस्स आइरियस्स अहिप्पारण कसारसु उकस्सट्ठिर्दि बंधमाणे पंचणोकसायाणमुक्कस्सट्ठिदिबंधणियमो णत्थि हाणीदो वड्डी विसेसाहिया ११३ * उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है । २११. क्योंकि इसका प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । * उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है । सागर है । २१२. क्योंकि इसका प्रमाण एक सागर या सागरपृथक्त्व कम सत्तर कोड़ाकोड़ी शंका- — सत्तर कोड़ीकोड़ी सागरमेंसे जो एक सागर या सागरपृथक्त्व कम किया है सो इसका क्या कारण है ? समाधान - जिसने एकेन्द्रियोंमें रहकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की है वह उनकी एक सागर प्रमाण स्थितिके रहते हुए वेदकसम्यक्त्वके योग्य होता है। और यदि त्रसकायिकों में रहकर लेना की है तो वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी सागर पृथक्त्व प्रमाण स्थिति के रहने पर वेदकसम्यक्त्वके योग्य होता है, अतः इतनी स्थिति कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट वृद्धि होती है । परन्तु यहाँ पर एक सागर कम उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिये, क्योंकि यहाँ उत्कृष्ट वृद्धिका अधिकार है । ६ २१३. इस प्रकार चूर्णिसूत्र के आश्रय से अल्पबहुत्वका कथन करके अब उसका विशेष ज्ञान कराने के लिये यहाँ पर उच्चारणाका अनुगम करते हैं । अल्पबहुत्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्ट का प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे थोड़ी है । उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक हैं। उच्चारणाचार्य के अभिप्रायानुसार कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बँधते समय पाँच नोकषायोंकी उत्कृष्टि स्थितिके बन्धका नियम नहीं है । अन्यथा पाँच - नोकषायों के १ आ० प्रतौ हाइदूण इति पाठः । १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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