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________________ गा० २२ ] डिपरूपणा ११६ विशेषार्थ — जीवसमास चौदह हैं । इसमें से प्रत्येकमें जो अपनी अपनी जघन्य स्थिति लेकर अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक वृद्धि होती है उसे स्वस्थानवृद्धि कहते हैं । और अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर जो अपनी अपनी जघन्य स्थिति तक हानि होती है उसे स्वस्थान हानि कहते हैं । इसी प्रकार नीचेके जीवसमासको ऊपर के जीवसमासमें उत्पन्न कराने पर जो स्थिति में वृद्धि होती है उसे परस्थानवृद्धि कहते हैं और ऊपरके जीवसमासको नीचे के जीवसमासमें उत्पन्न कराने पर जो स्थितिमें हानि होती है उसे परस्थान हानि कहते हैं। इनमें से पहले किस जीवसमास में कितनी स्वस्थानवृद्धि और स्वस्थान हानि सम्भव है इसका विचार करते हैं। मोहनीयके २८ भेद हैं। उन सबकी अपेक्षा एक साथ ज्ञान करना सम्भव नहीं इसलिये पहले मिध्यात्वकी अपेक्षा विचार करते हैं। पर कहाँ कौन-सी हानि और वृद्धि होती है इसका ज्ञान होना तब सम्भव है जब हम प्रत्येक जीवसमासमें जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिको जान लें । अतः पहले प्रत्येक जीवसमासमें जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका विचार किया जाता है - सामान्यतः यह नियम है कि एकेन्द्रियके एक सागरप्रमाण, द्वीन्द्रियके पच्चीस सागर प्रमाण, त्रीन्द्रियके पचास सागरप्रमाण, चौइन्द्रियके सौ सागरप्रमाण और असंज्ञी पंचेन्द्रियके एक हजार सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है । तथा एकेन्द्रियके अपनी उत्कृष्ट स्थिति में से पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम कर देने पर और शेषके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे पल्यका संख्यातवाँ भाग कम कर देने पर जो स्थिति शेष रहती है वह अपना अपना जघन्य स्थितिबन्ध है । एकेन्द्रियके चार भेद हैं। तथा जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा उनके आठ भेद हो जाते हैं। अब प्रत्येककी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति लानेके लिये उनकी निम्न प्रकार से स्थापना करो । १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ बा. प. उ. सू. प. उ. बा. अ. उ. सू. अ. उ. सू. अ. ज. बा. अ. ज. सू. प. ज. बा. प. ज. ४ २८ १ २ १४ ६८ १९६ आशय यह है कि एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर जघन्य स्थिति तक मध्यके जितने विकल्प हैं उसके ३४३ खण्ड करो। बादर पर्याप्तकके स्थिति के ये सब खण्ड पाये जाते हैं । सूक्ष्म पर्याप्त के उत्कृष्ट स्थितिकी तरफके १६६ और जघन्य स्थितिकी तरफके ६८ खण्ड छूट जाते हैं । बादर अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिकी तरफके २२४ और जघन्य स्थितिकी तरफके ११२ खण्ड छूट जाते हैं । तथा सूक्ष्म अपर्याप्तकके उत्कृष्ट स्थितिकी तरफके २२८ और जघन्य स्थितिकी तरफके ११४ खण्ड छूट जाते हैं । द्वन्द्रियके दो भेद हैं । तथा जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा उसके चार भेद हो जाते हैं । अब प्रत्येककी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त करनेके लिये उनकी निम्न प्रकार से स्थापना करो— १ द्वी० प० उ० २ द्वी० अ० उ० ३ द्वी० अ० ज० Jain Education International ४ १ २ आशय यह है कि द्वीन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर जघन्य स्थिति तक कुल स्थिति के जितने विकल्प हैं उनके सात खण्ड करो । द्वीन्द्रियपर्याप्तक के ये सब खण्ड सम्भव हैं। पर द्वीन्द्रिय उत्कृष्ट स्थितिकी ओरके चार खण्ड और जघन्य स्थितिकी ओरके दो खण्ड छूट जाते अपर्याप्त हैं । त्रीन्द्रिय आदिके द्वीन्द्रियके समान ही विवेचन करना चाहिये । ४ द्वी० प० ज० इससे स्पष्ट है कि एकेन्द्रियोंके सब भेदों में अपने अपने जघन्य स्थितिबन्धसे अपना अपना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक है और द्वीन्द्रियादिके अपने अपने जघन्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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