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________________ २१८ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहन्ती ३ मिच्छत्त० असंखेज्जगुणहाणी • जहण्णुक्क • अंतोमु० । अणंताणु० चउक्क० सव्वपदाणं मिच्छत्तभंगो । वरि असंखेज्जभागहाणी० जह० एस० । असंखेज्जगुणहाणिअवत्तव्व० जह० अंतोमु०, उक्क० तिन्हं पि वे - अट्ठारससागरो० ' सादिरेयाणि । सम्मत्त० सम्मामि० तिण्णिवड्डि-अवडि० तिष्णिहाणी० जह० अंतोमु० । असंखेज्ज - गुणवड्डि-अवत्तच्व० जह० पलिदो ० असंखेज्जदिभागो! असंखेज्जभागहाणी० जह० एगस० । उक्क० सव्वेसि पि बे-अट्ठारससागरो० सादिरेयाणि । ० ९ ३५२. सुक्कले० मिच्छत्त बारसक० णवणोक० असंखेज्जभागहाणी० जहण्णुक • एगस० | संखेज्जभागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । संखेज्जगुणहाणि - असंखेज्जगुणहाणी • जहण्णुक्क • अणताणु० चउक्क० अंतो० । असंखेज्जभागहाणी० जह० एस० । तिष्णिहाणि० - अवत्तव्व० जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिमेकत्तीस सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त सम्मा मि० तिण्णिव ड्डि- तिण्णिहाणी० जह० अंतोमु० । असंखेज्जभागहाणी० जह० एस० । असंखेज्जगुणवड्डिअवत्तव्व० जह० पलिदो० असंखेज्जदिभागो । उक्क० सव्वेसि पि एकत्ती ससागरो० देसाणि । णवरि विष्णं हाणीणं सादिरेयाणि । अवट्ठि० णत्थि अंतरं । $ ३५३. भवियाणु० भवसि० ओघभंगो । अमवसि० छब्बीसं पयडीणमसंखेज्ज असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पदोंका भंग मिथ्यात्वके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय, असंख्यातगुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो और साधिक अठारह सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि, अवस्थित और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है । तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो और साधिक अठारह सागर है । ९ ३५२. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । संख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर एक समय, तीन हानि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त, असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय असंख्यातगुणवृद्धि और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन हानियोंका साधिक इकतीस सागर उत्कृष्ट अन्तर है । अवस्थितका अन्तर नहीं है । $ ३५३. भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यों में ओघके समान भंग है । अभव्य जीवों में छब्बी १ ता० प्रतौ वे सन्त भट्ठारससागरो० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001410
Book TitleKasaypahudam Part 04
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages376
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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