Book Title: Chandraraj Charitra
Author(s): Bhupendrasuri
Publisher: Saudharm Sandesh Prakashan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - PP.AC.Gunratnasuri M.S. গ্লাম্মা থ্রী জুইত্তর : ORIGIPAAAAMANHAREWS चन्द्रराज 48 सम्पादक Jun Gun Aaradhak Trust प.पू. मुनिराजश्री प्रशान्त रत्न विजयजी म. सा. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री अर्हनमः // 卐विश्वपूज्य प्रभुश्री राजेन्द्र - यतीन्द्र जयन्तसेन सूरि गुरुभ्यो नमः॥ 2015 पूज्य आचार्य श्री भूपेन्द्र सूरिजी कृत श्री चन्द्रराज चरित्र लेखक :साहित्य विशारद प.पू. आचार्य देव श्रीमद् विजय भूपेन्द्र सूरीश्वरजी म.सा. हिन्दी अनुवाद :प.पू. प्रवर्तक मुनिश्री धर्मगुप्त विजयजी म.सा. सम्पादक: प.पू. मुनिराजश्री प्रशान्तरत्न विजयजी म.सा. ACHANYA SRI KALASGAGANGUR! GYANINDIR S HANMARATHANE KENDRA Koba, Ganchiae rar-052 009. Phone : (079) 23275252, 23276204-05 वीर सं. 2527 विक्रम सं. 2058 श्री राजेन्द्र सं. 94 જય રાજેન્દ્ર ) P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 Ruga vervine inshasan 12839 Syanmar: Crobatirth.org प.पू. प्रवचन प्रभावक मुनिप्रवर / श्री प्रशान्तरत्न विजयजी म.सा. द्वारा लिखित - संपादित प्रकाशन शुभ मंगल ... दो प्रतिक्रमण सूत्र (हिन्दी) सात भव नो स्नेह (गुजराती) आराम शोभा (गुजराती) ज्योतिष रत्नाकर प्रशान्तरस झरणा (भक्तिगीतों का संग्रह) मंगल प्रभात (मांगलिक एवं आरतीयाँ) श्री राजेन्द्र सूरि जीवन सौरभ (हिन्दी) श्री चन्द्रराज चरित्र (हिन्दी) * * A Lifeline of Sri Rajendra Suriji चैत्यवंदनादि विधि संग्रह -- प्रकाशक :- . . --- सौधर्म संदेश प्रकाशन ट्रस्ट...बेंगलौर 20/1, मुनेश्वरा ब्लॉक नागप्पा स्ट्रीट, पेलेस गुटहल्ली, बेंगलौर - 560 003 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकूत सहयोगी प.पू. मुनिश्री दर्शनरत्न विजयजी म.सा. की प्रेरणा से * श्रीमान् शा. मोहनलालजी छगनलालजी गुर्जर, चामुन्डेरी निवासी. फर्म - MOHAN PHARMA - ERNAKULAM श्रीमान् शा. प्रवीणकुमार नथमलजी तोगाणी (पी टी) गुड़ा ACIA CAICI - ERNAKULAM * श्रीमान् शा. लक्ष्मीचंदजी जोमताजी संघवी हः शान्तिलालजी (सांचोरवाला) फर्म - भाग्योदय मेटल - ERNAKULAM श्रीमान् शा. सुरेश कुमार रतनचंदजी गुड़ाबालोतान निवासी - ERNAKULAM __ * श्रीमान् शा. मुकेशकुमार हस्तीमलजी मुंबई * राखी निवासी श्रीमान शा. अनराजजी छगनलालजी रांका 9oof - Raj Distributors - ERNAKULAM P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरतेज (सौराष्ट्र निवासी शा. धीरजलाल प्रभुदास खाखरीया परिवार हस्ते - लीलावती बेन डी. शाह फर्म - नवभारत सायकल & मोटर कं - ERNAKULAM RGR FAMILY फर्म - मेघोबा फार्मास्युटीकल्स - ERNAKULAM श्रीमान् सतीष भाई बी. शाह FAIR PHARMA - ERNAKULAM * श्रीमान् शा. अशोक कुमार मोहनलालजी गुर्जर, चामुंडेरी निवासी Mohan Drug House - ERNAKULAM श्रीमान् शा. हेमचंदजी बालचंदजी फलोदीवाला V.S. Enterprises - ERNAKULAM श्रीमान् शा. मोहनलालजी पोरवार, देवगढ़ मदारियावाला - MICRO MEDICA - ERNAKULAM श्रीमान् शा. चन्द्रप्रकाशजी JAIN SAHAB - ERNAKULAM * SHAH & CO. हः प्रतापभाई बी. शाह - ERNAKULAM नेल्लोर निवासी अशोकभाई मोटा पोशीनावाला - ERNAKULAM P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के समय की यह प्राचीन कथा है। भव्य जीवों की भव व्यथा का विनाश करनेवाली धर्म कथा है यह ! यह एक ऐसी अद्भुत, अनुपम और रोमांचकारी कहानी है जो मानवजाति की सैंकडों सुलगती हुई समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करती है। इस कहानी के वाक्य-वाक्य में वैराग्य रस भरा पड़ा है। इस कहानी में कदम-कदम पर कर्म की करुण कथा भरी पड़ी है। जंबूद्वीप के भीतर दक्षिण भरतक्षेत्र आता है। इस क्षेत्र के मध्य में पूर्व दिशा में अत्यंत मनोहर और इंद्र की नगरी के समान आभापुरी नामक नगरी थी। इस नगरी का सौंदर्य देखकर लंका-अलका आदि नगरियां भी शरमा कर अपने मुंह छिपा लेती थी। इस आभापुरी में भिन्नभिन्न प्रकार के बाजार थे। नगरी के ऊँचे-ऊँचे प्रासादों पर ध्वजाऐं फहराती-लहराती रहती थी। इस नगरी में रहनेवाले धनवान लोग एक से बढ़कर एक दानवीर थे। कृपण मनुष्य इस नगरी में ढूँढ कर भी नहीं मिलता था / इस नगरी के व्यापारी जितने धनवान थे, उतने ही नीतिमान भी थे। नगरी में रहनेवाली स्त्रियाँ रूपमती भी थीं और उतनी ही शीलवती भी। रमणीय और आकाश को चूमने वाले ऊँचे ऊँचे सेकड़ों जैन मंदिरों से यह नगरी जैन धर्म की उज्जवलता में चार चांद लगा रही थी। इस आभापुरी के राजा का नाम था वीरसेन ! राजा वीरसेन न्यायी, पराक्रमी और नीतिमान था / राजा अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करता था और इसलिए समस्त प्रजा में अत्यंत प्रिय था। राजा वीरसेन की पटरानी का नाम था वीरमती ! एक दिन की बात..... आभापुरी में कहीं से अनेक घोड़ों के सौदागर आ पहुँचे। इन सौदागरों के पास अनेक जातियों के उत्तमोत्तम - घोड़े थे / जैसे ही राजा को समाचार मिला, उसने उन घोड़ों की परीक्षा करवाई और उन सौदागरों को उनके घोड़ों का उचित मूल्य चुका कर उसने सभी घोड़े ख़रीद लिए / घोड़ों के सौदागर बहुत खुश होकर चले गए। राजा ने इन सौदागरों से जो घोड़े खरीदे थे, उनमें एक अत्यंत सुंदर घोड़ा था, लेकिन यह घोड़ा वक्र गतिवाला था। इस घोड़े के पुराने मालिक ने उसको जो शिक्षा दी थी, उसके कारण उसकी गति वक्र हो गई थी। *P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र - राजा को इस सुंदर अश्वरत्न की इस वक्रगति के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। इसलिए एक बार राजा इस वक्रगति अश्वरत्न पर सवार हुआ और अपनी सेना को साथ लेकर शिकार खेलने के लिए वन की ओर चल पड़ा। वन में अनेक वन्य पशुओं का शिकार करते-करते अचानक राजा की नज़र एक हिरन पर पड़ी। राजा हिरन का पीछा करने लगा। मृत्युभय के कारण हिरन भी चौकड़ी भरता हुआ चल निकला और बहुत दूर जाकर कहीं झाडी में गायब हो गया। राजा की पकड में यह हिरन नहीं आया। बहुत देर तक और दूर तक हिरन के पीछे दौड़ लगाने के कारण राजा बहुत थक गया था। घोड़े को रोकने के लिए राजा उसकी लगाम जोर से खींचने लगा। लेकिन यह घोड़ा न रुका, उल्टे वह दुगुनी गति से जोर लगा कर दौड़ता ही रहा। घोड़े को रोकने के राजा के सारे प्रयत्न विफल हुए। घोड़े के साथ-साथ राजा बहुत दूर निकल गया। राजा की सारी सेना बहुत पीछे रह गई। घोड़े पर बैठा हुआ राजा अब इस चिंता में फँस गया कि यह घोड़ा कब और कहाँ जाकर रुकेगा ! राजा इस बात का निर्णय नहीं कर सकता था। उसकी थकावट बढती ही जा रही थी। इतने में राजा की नज़र एक साफ-सुथरे और स्वच्छ पानी से भरे हुए सरोवर पर पड़ी। राजा ने देखा कि सरोवर के किनारे पर एक वटवृक्ष भी है। यह वटवृक्ष बिलकुल रास्ते के किनारे पर ही था। राजा ने झट से मन में निर्णय किया कि इस वटवृक्ष के नीचे पहुँचते ही मैं उसकी किसी डाली को पकड़ लूँगा और घोड़े को वहीं छोड़ दूंगा। भयजनक लगनेवाली वस्तु चाहे कितनी ही सुंदर और अमूल्य क्यों न हो, उसका त्याग करने में मनुष्य एक क्षण की भी देर नहीं करता है। चलते-चलते संयोग से घोड़ा जिस क्षण वटवृक्ष के नीचे आया, राजा ने वटवृक्ष की डाली तुरन्त पकड ली और घोड़े को अकेला छोड दिया। लेकिन सवार के पीठ पर न होने का ज्ञान होते ही घोड़ा भी वहीं रुक गया / शायद यह सोच कर कि 'मेरे मालिक को छोड कर मै अकेला कैसें जाऊँ ?' घोड़ा भी वटवृक्ष के नीचे ही रुक गया। आगे न बढ़ा। यह देख कर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और अब राजा को पता चला कि घोड़ा वक्र गतिवाला है। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र बहुत दूर तक और देर तक दौड़ लगाने से थका हुआ राजा पसीने से तरबतर हो गया था। इसलिए राजा ने घोड़े को वटवृक्ष के थड़ से बाँध दिया और राजा सरोवर के पास आया। सरोवर निर्मल जौर शीतल जल से लबालब (भरा हुआ) था। सरोवर का किनारा चारों ओर से स्फटिक रत्नों से बना हुआ था। राजा ने सरोवर के निर्मल नीर से अपने हाथ-पाँव मुँह आदि धोए / फिर उसने कुछ देर तक किनारे पर बैठ कर विश्राम किया, शीतल जल पीकर उसने अपनी प्यास बुझाई। फिर वह सरोवर के आसपास घूम-घूम कर वहाँ की शोभा देखने लगा। घूमते-घूमते राजा की नजर अचानक सरोवर में होनेवाली एक लोहे की जाली पर पड़ी। राजा ने बारीकी से देखा तो उसे पता चला कि लोहे की जाली के नीचे अनेक सीढियाँ है और नीचे की ओर जाने के लिए कोई रास्ता है। राजा ने कुतूहल से वह लोहे की जाली दूर की और निर्भयता से नीचे उतरने लगा। कुछ देर तक नीचे उतरने के बाद राजा एक गुप्त स्थान पर आ पहुँचा। वहाँ से और थोड़ा दूर जाने पर राजा ने पाताललोक का एक विशाल वन देखा / राजा निर्भय बन कर उस वन में आगे-आगे चलता गया। अचानक राजा के कानों पर किसी लड़की के रोने की आवाज आई। राजा के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ कि यहां पाताल में ऐसे निर्जन वन में किसी लड़की के रोने की आवाज कहाँ से आई होगी ? निश्चय ही कोई रहस्यमय बात है। लडकी के रोने की आवाज बड़ी ही करुण और हृदयस्पर्शी लगती है / लगता है कि बेचारी किसी विपत्ति में फँसी हुई हैं / परोपकारी, धैर्यवान और पराक्रमी राजा ने विचार किया कि यह समय आया हुआ अवसर गँवा देने का नहीं है। इसलिए राजा उस दिशा में तेजी से चलने लगा जिस दिशा से लड़की के रोने की आवाज आई थी। कुछ ही देर में राजा उस स्थान पर पहुँच गया। इधर उधर देखने पर राजा को पता चला कि वहाँ एक योगी ध्यानस्थ अवस्था में बैठा हुआ है। योगी की आंखें बंद थीं। उसके हाथ में फूलों की माला थी और उसके सामने पूजा की सामग्री पडी हुई थी। योगा के पास ही एक अग्निकुंड था। उसमें से अग्नि की ज्वालाएँ निकल रही थी। अग्निकुंड के पास एक लड़की बैठी हुई थी। लड़की के हाथ और पाँव मजबूत रस्सी से बँधे हुए थे। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वह लडकी बैठे-बैठे करुण स्वर से रो रही थी। उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। राजा तुरन्त सारी परिस्थिति समझ गया। वह उसी क्षण लड़की के सामने जाकर खड़ा हो गया। राजा को अपने पास आया हुआ देख कर वह लड़की बोली, ' "हे आभा नरेश, आप तुरन्त मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए। यह दुष्ट नराधम योगी बलि चढाने के लिए मुझे यहाँ उठा कर ले आया हैं।" __ उस लडकी की बात सुन कर राजा के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस अपरिचित लड़की को मेरा नाम कहाँ से मालूम हुआ होगा। राजा ने लड़की को शांत और स्वस्थ रहने को संकेत से कहा। राजा धीमे-धीमे योगी के पास पहुँचा, उसने हिम्मत से योगी के पास पडी हुई तलवार उठा ली और फिर उसने योगी को ललकारा, “हे निर्दय / हे निर्लज्ज !! हे पापी ! हे / दुरात्मा !! अब अपना वक्र ध्यान छोड कर मेरे साथ युद्ध करने को तैयार हो जा। अब तू अपने इस देवता का स्मरण कर ले। अब तू जान ले कि तेरे पाप का घडा भर गया हैं। मैं देखना ही। चाहता हूँ कि तू मेरे सामने इस निरपराध लडकी की बलि कैसे चढाता हैं / अब मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगा। दुष्टो को दंड देना और विपत्ति के समय सज्जनों की रक्षा करना यह हम क्षत्रिय राजाओं का धर्म है / मैं अपना धर्म अवश्य निभाऊँगा / तू मरने के लिए तैयार हो जा। अचानक ही राजा की ललकार सुन कर योगी बहुत धबरा गया। उसने अपने चारों ओर नजर दौड़ा कर देखा, तो उसे अपने तलवार कहीं दिखाई न दी। इसलिए अब आत्मरक्षा का अन्य कोई उपाय न दिखाई देने से वह अपने प्राणों के भय से वहां से भाग निकला। अनजाने प्रदेश में भागते हुए योगी का पीछा करना खतरे से खाली नहीं है यह जान कर राजा वहीं खडा रहा। कुछ देर बाद राजा उस लडकी के पास चला गया। उसने लडकी के सारे बंधन खोल दिए / है और उसे मुक्त कर दिया। / राजा ने उस लडकी से पूछा, “हे सुंदरी, तू किसकी पुत्री है ? तू इस दुष्ट योगी के शिकंजे में कैसे फंस गई ? मुझे यह भी बता दे कि तू मुझे केसे जानती है ?" ... ___अब निर्भय बनी हुई लडकी ने स्वस्थचित होकर कहा, “हे राजन्, मैं वीरसेन राजा को / पहले से ही पहचानती हूँ। वे मेरे भावि पतिदेव हैं / मैं उनके चरणों में अपना जीवन समर्पित P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कर चुकी हूँ। मैं ने मन-ही-मन उनका ही वरण किया हैं।" इतना कहते-कहते लज्जा से मुँह नीचा कर के भूमि की ओर देखते हुए वह लडकी चुप-चाप खड़ी रही। कुछ देर बाद वह धैर्य धारण कर फिर से बोली, "हे स्वामिनाथ, मैं आपको अपना संक्षिप्त परिचय देती हूँ। कृपा कर के आप मेरी बातें ध्यान से सुनिए / आभापुरी से पच्चीस योजन की दूरी पर पद्मापुरी नामक नगरी है। इस नगरी के राजा पद्मशेखर और पटरानी रतिरुपा की मैं कन्या हूँ। मेरा नाम चंद्रावती है। जैन धर्म के प्रति मेरे मन में बहुत श्रद्धा और प्रेम का भाव होने से मैं जैन धर्म की आराधना करती हूँ। जैसे ही मैं ने बचपन समाप्त कर योवनावस्था में प्रवेश किया, मेरे माता-पिता को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी / एक दिन राजदरबार में एक भविष्यवेत्ता महान् ज्योतिषी आया। मेरे पिताजी ने ज्योतिषी का उचित रीति से सम्मान कर उसे बैठने के लिए आसन दिया / फिर मेरे पिताजी ने ज्योतिषी से पूछा, मेरी युवा कन्या चंद्रावती का विवाह किसके साथ होगा ? “इस पर ज्योतिषी ने अपने ज्योतिषज्ञान के बल पर निर्णय कर के मेरे पिताजी को बताया, "हे राजन, आपकी इस भाग्यवती कन्या का विवाह आभारनरेश के साथ होगा।" ज्योतिषी की बातें सुन कर मेरे माता-पिता बहुत आनंदित हुए। मैं भी ज्योतिषी के मुख से अपने भावि पतिदेव का नाम, गुण, रुप, सौंदर्य, पराक्रम, कुल आदि के बारे में जान कर हर्ष से नाच उठी / इष्टपति के समागम के समाचार से कौन खुश नहीं होता ? मेरे पिताजी ने ज्योतिषी को उत्तम वस्त्रालंकारों से सम्मानित कर विदा दी। एक दिन की बात.... मैं अपनी अंतरंग सखियों के साथ जलक्रिडा करने के लिए राज महल से निकल कर उधान में स्थित सरोवर की ओर चली गई। हम सखियाँ सरोवर के निर्मल शीतल जल में क्रिड़ामग्न थीं कि उस दुष्ट योगी की दृष्टि अचानक मुझ पर पड़ी। मेरा अपहरण कर लेने का दुष्ट विचार उसके मन में आया। उसने अपनी मंत्रविद्या से इंद्रजाल कर मेरी सभी सखियों की आंखें बंद कर दी। फिर सम्मोहन विद्या का मुझ पर प्रयोग कर वह मुझे यहाँ खींच कर ले आया। योगी ने मुझे रस्सी की सहायता से हक खंभे जकड़ दिया और वह पूजा करने के लिए बैठा। उसकी पूजाविधि देखते ही मुझे तुरंत पता चला कि वह मुझे यहाँ क्यों खींच लाया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र है। मैं ने जान लिया के अब इस योगी के मायाजाल से मुक्त होना असंभव है और मुझे अपनी - मृत्यु सामने दिखाई देने लगी। मृत्यु के भय से मैं जोरशोर से रोने लगी। मेरे प्रबल पुण्योदय के कारण ही आप बिलकुल उचित समय पर मेरे प्राणों की रक्षा करने के लिए यहाँ आ पहुँचे। इसके बाद जो कुछ घटित हुआ, वह सब तो आप जानते ही हैं। हे गुणसागर ! हे प्राणनाथ ! आपने किसी अन्य स्त्री की नहीं बल्कि अपनी भावी पत्नी की ही रक्षा की है ! आपने मुझसे पूछा, 'तू किसकी पुत्री है और मैं इस योगी के शिकंजे में कैसे फंस गई ?' में ने इसका उत्तर पूरे विवरण के साथ आपको दे दिया है। ऐसे प्राणघाती संकट में प्राणनाथ के सिवाय मेरी रक्षा अन्य कौन कर सकता था ?' चंद्रावती की बातें सुन कर राजा वीरसेन मन ही मन बहुत हर्षित हो गया। अब राजा वीरसेन ने चंद्रवती को अपने साथ ले लिया और वह उसी मार्ग पर से लौटा, जिस मार्ग से उसने पाताललोक में प्रवेश किया था। जिस क्षण राजा पाताललोक में से सरोवर के उपर आया, उसी क्षण उसकी सेना भी राजा के पदचिन्हों का पीछा करती हुई सरोवर के किनारे पर आ पहुँची। सेनानायक ने घोड़े पर से उतर कर राजा को प्रणाम किया। उसने राजा से उसका कुशलसमाचार पूछा। राजा ने सेनानायक को सारी बातें विस्तार से बताई / राजा की बातें सुन कर हर्षित हुए सेनानायक ने राजा वीरसेन से कहा, "महाराज, आपको फिर से देख कर आज हमने नवजीवन पा लिया है / लेकिन महाराज, आपके साथ यह देवांगना जैसी रुपवती सुंदरी कौन है ? यह सुंदरी आपको कहाँ मिली ?" राजा ने सेनानायक की जिज्ञासा भी विस्तार से सारी कहानी बता कर शांत की। अब न केवल सेनानायक, बल्कि सारी सेना अत्यंत हर्षित होकर राजा की जय जयकार करने लगी। राजा वीरसेन अब उस रुपसुंदरी चंद्रावती को साथ लेकर पूरी सेना के साथ अपनी नगरी आभापुरी में लौट आया। आते ही राजा ने अपने एक निजी दूत को संदेश के साथ तुरंत राजा पद्मशेखर के पास भेजा। राजा ने संदेश भेजा था, “आपकी पुत्री चंद्रावती यहाँ आई है P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र है और आप से मिलने के लिए बहुत उत्कंठित है। इसलिए आप संदेश मिलते ही तुरंत यहाँ पधारने की कृपा कीजिए। आशा है, आप शीघ्र यहाँ पहुँच जाऐंगे।" राजा का संदेश लेकर दूत तुरंत राजा पद्मशेखर के दरबार में पहुँचा / उसने राजा को अपने स्वामी राजा वीरसेन का संदेश दिया। संदेश पाते ही राजा पद्मशेखर तुरन्त निकल कर आभापुरी में आभानरेश के दरबार में आ पहुँचा। बहुत दिनों से बिछडे हुए पिता-पुत्री का स्नेहमिलन हुआ। चंद्रावती ने अपने पिता को विस्तार से बताया कि उसका अपहरण किसने और कैसे किया और उस दुष्ट योगी के जाल में से उसे आभानरेश ने केसे मुक्त किया और वे उसे अपने दरबार में कैसे ले आए। अपनी कन्या के मुख से सारी बातें सुन कर राजा पद्मशेखर के हृदय में हर्ष की हिलोरें उठीं। . राजा पद्मशेखर ने राजा वीरसेन के प्रति कृतज्ञता प्रकट की और कहा, “हे परोपकारी पुरुष ! आपने मेरी प्रिय पुत्री के प्राणों को रक्षा कर मुझ पर जो उपकार किया है उसका बदला चुकाना मेरे लिए कभी संभव नहीं है / इस काम के लिए मैं आपका सदा ऋणी रहूँगा / हे राजन् ! मेरे मन में यह अत्यंत प्रबल कामना है कि आप मेरी इस कन्या का पाणिग्रहण कर मुझे उपकृत करें / हे राजन् ! आए मेरी इस प्रार्थना को अवश्य स्वीकार कर लीजिए। मेरे दरबार में आए हुए एक महान ज्योतिषी ने भी कहा था, 'तुम्हारी कन्या का पति आभानरेश ही होगा। 'ज्योतिषी की इस भविष्यवाणी को आप अवश्य सफल बना दीजिए। मेरी प्रार्थना को स्वीकार कीजिए।" राजा वीरसेन ने राजा पद्मशेखर की अत्यंत आग्रहभरी प्रार्थना सुन कर चंद्रावती को अपनी पत्नी बनाना स्वीकार कर लिया। विवाह की तैयारियाँ प्रारंभ हुई / ज्योतिषी के बताए हुए एक शुभ मुहूर्त पर राजा वीरसेन ने चंद्रावती को अपनी रानी बना लिया। राजा के विवाह समारोह की धूमधाम से आभापुरी की सारी जनता को बहुत आनंद आया लेकिन राजा की पटरानी वीरवती को आनंद के स्थान पर बहुत दुःख हुआ। वीरमती थी ही दुष्ट प्रवृत्ति की स्त्री, इसलिए वह खुश नहीं हुई, बल्कि दु:खी हो गई। सूर्य के उदित होने से उल्लू के कुल को संताप हुआ तो उसमें सूर्य का क्या अपराध ? चंद्रोदय से चोरों के पेट में पीडा हुई तो उसमें चंद्रोदय का दोष थोड़ा ही है ? ठीक इसी प्रकार रानी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वीरमती को अपने ईर्ष्यालु स्वभाव से आभानरेश और रानी चंद्रावती के विवाह से आनंद नहीं हुआ, बल्कि दु:ख ही हुआ। विवाह-महोत्सव समाप्त होते ही राजा पद्मशेखर अपनी नगरी में लौट आया / इधर आभानरेश के दिन नई रानी के साथ भोगविलास में व्यतीत हो रहे थे। दोनों के बीच दिन ब दिन प्रेम का भाव बढ़ता ही जा रहा था। इधर इस नवपरिणीत राजा-रानी के बढ़ते हुए प्रेमभाव को देख कर रानी वीरमती का हृदय ईर्ष्या से जल रहा था और दिन-व-दिन उसकी जलन बढ़ती ही जा रही थी। राजप्रासाद में रानी वीरमती को देख कर वह ईर्ष्या से जल रही थी। संसार में बहुसंख्य लोग अपने दोषों से ही दु:ख के दावानल में जलते रहते है हिंसा दोष है, असत्य है, चोरी दोष है, मैथुन दोष है, संग्रह की वृत्ति रखना (परिग्रह) दोष है, राग-द्वेष-क्रोधअभिमान माया-लोभ-इर्ष्या असूया दोष है, मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद दोष हैं। ये दोष ही महाभयंकर दुःख है / जहाँ-जहाँ दोष होता है, वहाँ वहाँ दुःख होता है। इस व्याप्ति में कहीं व्याभिचार दोष नही है। दोष रहित को दु:ख नहीं होता है और दोष युक्त को सुख नहीं होता है। दूसरे के उत्कर्ष, सुख और गुणप्रशांसा को सह सकता, उससे खुश न होना, खिन्नता का भाव मन में उत्पन्न होना ही ईर्ष्या है। रानी वीरमती अपनी सौत चंद्रावती से बहुत ईर्ष्या करती थी। द्वेष गुणों को नहीं देखने देता है। जिसके प्रति मन में द्वेष भाव जागता है, वह व्यक्ति महान् गुणवान् क्यों न हो, तो भी द्वेष करनेवाला उसके दोष ही देखता है और उन्हीं को बताता जाता है / वीरमती की ईर्ष्या के कारण सौतिया डाह होने से-यही स्थिति थी ! इधर रानी चंद्रावती सरल स्वभाव की होने से वीरमती को अपनी सगी बहन के समान मान कर उसके साथ प्रेम से व्यवहार करती थी। सच्चा प्रेम करनेवाला मनुष्य यह नहीं देखता कि अमुक के मन में मेरे प्रति प्रेमभाव नहीं है, बल्कि द्वेष दे, तो मैं उसके साथ प्रेम का व्यवहार क्यों रखू ? इसके विपरीत सच्चा प्रेम करनेवाला मनुष्य यह सोचता है कि दूसरे के मन में मेरे प्रति प्रेमभाव नहीं है, इसमें उस बेचारे का क्या दोष है ? यह तो मेरे ही पूर्वजन्म में किए हुए किसी दुष्कर्म का दोष हे। सज्जन मनुष्य कभी यह विचार नहीं करता कि अमुक मनुष्य मुझसे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र प्रेम रखेगा तो ही मैं उससे प्रेम रतूंगा। स्वार्थ से युक्त होनेवाला प्रेम सच्चा प्रेम नहीं हैं, प्रेम बिना किसी शर्त का ही होना चाहिए। प्रेम में. स्वार्थ की मिलावट नहीं होनी चाहिए। प्रेमरूपी दूध में स्वार्थरूपी खटास का छींटा पड़ते ही प्रेमरूपी दूध बिगड़ जाता है। प्रेम ‘दूध-पानी' जैसा होना चाहिए। रानी चंद्रावती अपने पति के सुख से सुखी और दु:ख से दु:खी होती थी। गुणवान् रानी चंद्रावती को पाकर राजा वीरसेन अपने को धन्य-धन्य मानता था। रानी वीरमती राजा वीरसेन और रांनी चंद्रावती के प्रति मन में अत्यंत द्वेषभाव रख कर अपना जीवन व्यतीत कर रही थी। समय बीतता गया और एक बार रानी चंद्रावती के गर्भ में एक अत्यंत पुण्यवान् जीव आया। रात को गर्भवती रानी चंद्रावती ने चंद्रमा को देखा। सुबह होते ही चंद्रावती ने पिछली रात को देखे हुए उत्तम स्वप्न की बात राजा वीरसेन से कही। स्वप्न की बातें सुन कर हर्षित हुए राजा ने स्वप्न का अर्थ बताते हुए अपनी प्रियतमा रानी चंद्रावती से कहा, ___"हे प्रिये, तू एक अत्यंत गुणवान्, पराक्रमी, महातेजस्वी, अत्यंत धर्मनिष्ठ और कामदेव के समान सुंदर पुत्ररत्न को जन्म देगी।" नौ महीने नौ दिन पूरे होते ही रानी चंद्रावती ने शुभ मुहूर्त पर एक सुंदर पुत्ररत्न को जन्म दिया। रानी की दासी ने दौडते हुए जाकर राजा वीरसेन को पुत्रजन्म की शुभ वार्ता सुनाई / अत्यंत हर्षित हुए राजा ने दासी को इतना दान दिया कि वह हरदम के लिए दास्यत्व से मुक्त हो गई और स्वतंत्र होकर खुशी से चली गई। . राजप्रासाद में पुत्रजन्म का समाचार वायुगति से सारी आभापुरी में फैल गया। सारे नगर में आनंद की हिलोरें लहराने लगीं / नगरवासियों ने अपने-अपने घरों के द्वारों पर बंदनवार बाँधे, कुंकुम के स्वस्तिकों से अपने घर सजाए। राजा ने पुत्रजन्म की खुशी में याचकों को खुल कर दान दिया। पशुओं को घास, पंछियों को चुग्गा, बीमारों को दवाएँ दे-दिला कर राजा ने अपनी अनुपम दानवीरता का परिचय दिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र बारहवें दिन नामकरण संस्कार बड़ी धूमधाम से संपन्न हुआ। सभी सभ्यों और स्वजनों की उपस्थिति में राजा ने अपने प्रिय पुत्र का नाम स्वप्न के अनुसार 'चंद्रकुमार' रखा। माता-पिता और सभी नगरजनों का प्रेमपात्र बना हुआ सबका दुलारा चंद्रकुमार शुक्लपक्ष के चंद्रमा के समान रूप, बल, तेज, उम्र, बुद्धि और गुणों में बढने लगा। रात्रि का दीपक चंद्र है, प्रभात का दीपक सूर्य है, त्रिभुवन का दीपक भी सूर्य है तो कुल का दीपक सुपुत्र है। ऐसा ही कुलदीपक पुण्यवान और गुणवान् चंद्रकुमार जहाँ सभी नगरजनों के मन और नयनों को आनंद देता था, वहाँ रानी वोरमती के लिए तो द्वेषरूपी अग्नि में घी की आहुति ही डालता जा रहा था। इधर राजा वीरसेन अपने सर्वगुणसंपन्न सुपुत्र को देखकर अपना जीवन सार्थक मानता था। राजा वीरसेन और रानी चंद्रावती रातदिन अपने प्रिय चंद्रकुमार का लालन-पालन अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय मान कर कर रहे थे। मनुष्य के मन में जिसके प्रति प्रेम होता है उसके सुख को और उसकी रक्षा की चिंता मनुष्य नित्य करता ही रहता है। ___ बाल चंद्रकुमार अपनी विविध बालक्रिडाओं से और तुतली बोली के मीठे बोलों से अपने माता पिता के चित्त को आनंद से भर रहा था। नगरी में एकमात्र वीरमती ही ऐसी स्त्री थी जिसका हृदय चंद्रकुमार को देख कर ईर्ष्या से जल-जल उठता था। रानी चंद्रावती अपनी बाल्यावस्था से ही जैन धर्मरागिनी थी। इसलिए उसने अनेक युक्तियों से और प्रेमपूर्ण बातों से राजा को सात व्यसनों से मुक्त कर दिया। रानी की निरंतर संगति में रहने से राजा के हृदय में जैन धर्म के प्रति अत्यंत अनुराग और श्रद्धा का भाव जाग उठा। राजा-रानी दोनों जैन धर्म का निष्ठा से पालन करते हुए अपने मनुष्य जन्म को सार्थक कर रहे थे। पुण्यशम् जीव जिनेश्वरदेव की पूजा, संध की सेवा, तीर्थयात्रा और वंदना, जिनवाणी का श्रवण, सुपात्र में दान और जीवदया का पालन कर के अपने मनुष्य जन्म को सफल बना लेते P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र जैन धर्मानुरक्त राजा वीरसेन ने अनेक जैन मंदिर बनवाए, अनेक जीर्ण हुए जैन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। राजा जैन श्रावकों को अपने सगे भाइयों के समान मानकर उत्तम वस्त्रों-अलंकारों से उनका सम्मान करता था। जैन मूर्तियों के साथ वह अत्यंत भक्तिभाव से पेश आता था। राजा-रानी प्रतिदिन परमात्मा जिनेश्वरदेव की मूर्तियों की पूजा-आराधना अत्यंत श्रद्धा से करते थे, नवकारमंत्र का जप करते थे और पर्वतिथियों को ब्रह्मचर्य का कड़ाई से पालन करते थे। सत्संगति से क्या नहीं प्राप्त हो सकता ? सदाचारिणी रानी चंद्रावती की संगति से राजा वीरसेन पूरी तरह धर्म के रंग में रंग गया। दिन बीते-महीने व्यतीत हुए-वर्ष बढते गए। अब बाल चंद्रकुमार भी आठ वर्ष का हो गया। राजा ने अब चंद्रकुमार को एक सुयोग्य ज्ञानी पंडित के पास विद्याध्ययन के लिए रखा / बृहस्पति को भी बुद्धि में मात देने की शक्ति रखनेवाला बुद्धिमान् बालक चंद्रकुमार ने कुछ ही समय में सभी कलाओं और विद्याओं में कुशलता प्राप्त कर ली ! वसंत ऋतु आई ! राजा वीरसेन अपनी दोनों रानियों-चंद्रावती और वीरमती-को साथ लेकर पुत्रपरिवार सहित क्रिड़ा करने के लिए उद्यान में चला गया। वहाँ वे अब स्वेच्छा से वनक्रीड़ा में तल्लीन हो गए। चंद्रकुमार भी अपने अन्य मित्रों के साथ मिलकर विविध क्रीड़ाएँ करने में रंग गया। इधर राजा, राजा का सारा परिवार और नगरजन जहाँ आनंद से वसंतोत्सव की विविध क्रीड़ाओं का सुख लूट रहे थे, वहाँ सिर्फ रानी वीरमती अपने ईर्ष्यालु स्वभाव के कारण वसंत की बहार में भी शोकमग्न थी। मन के दु:ख के कारण ऐसे आनंद के अवसर पर भी उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह रही थी। शोकाकुल और रोती हुई वीरमती को देख कर उसकी सखियों ने उससे पूछा, "हे स्वामिनी / इस आनंद के अवसर पर आप शोकातुर क्यों दिखाई देती है ? देखिए, आपके निकट ही आपका कामदेव जैसा पति सुख क्रीड़ाओं में मग्न है, बालक चंद्रकुमार भी आपके पास ही विविध क्रीडाओं के रंग में तल्लीन हो गया है। फिर आप अकेली ऐसी उदासशोकातुर क्यों है ? क्या किसी ने आप से कोई अनुचित बात कही है ? अथवा किसी ने आपको अपमानित किया है ? क्या आपकी आज्ञा का किसी ने उल्लंघन किया है ? बताइए, आप क्यों दु:खी हैं ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र सखियाँ के इतना पूछने पर भी वीरमती ने कोई उत्तर नहीं दिया, वह चुपचाप बैठी रही। रानी चंद्रावती के पुत्र को-चंद्रकुमार को-देख कर और 'मेरी गोद भगवान ने क्यों खाली रखी ? मुझे कोई संतान क्यों नहीं दी' इस विचार से वीरमती मन-ही-मन दुःखी हो रही थी, “हे देव ! मैंने अपने पूर्वजन्म में ऐसा कौन सा पाप किया है कि तुमने मेरी गोद खाली रखी ? पुत्र से रहित जीवन मुझे असार लगता है। प्राणों के बिना शरीर, दीपक के बिना घर, सुगंध के बिना फूल, पानी के बिना सरोवर, दया के बिना धर्म, प्रियवचन के बिना दान, मूर्ति के बिना मंदिर, जल से रहित मेघ, चंद्रमा से रहित रात्रि जैसे असार होती हैं, वैसे ही संतान से रहित होनेवाली स्त्री का जीवन भी असार होता है। इस संसार में उसी का जीवन सफल है जिसके घर सुपुत्र होता है ?" इस प्रकार अपने मन में अनेक प्रकार के कुतर्क करती हुई रानी वीरमती एक छतनार आम्रवृक्ष के नीचे बैठी थी। अचानक एक तोता उडता हुआ आया और उसी आम्रवृक्ष की डाली पर बैठा। वृक्ष के नीचे बैठी हुई रानी को शोकातुर देख कर तोते के मन में उसके प्रति गहरी सहानुभूति का भाव जाग उठा / तोता मनुष्य की भाषा में बोला, “हे सुंदरी, ऐसे आनंद के अवसर पर तू शोक्मग्न क्यों दिखाई देती है ? तू रो क्यों रही हैं ? तुझे किस बात का दुःख है ? किस बात की चिंता तुझे सता रही है ?" तोते के ऐसे प्रश्न सुन कर आश्चर्यचकित हुई वीरमती ने तोते से कहा, “ऐ तोते, तू तो एक पंछी है / तेरा निवास जंगल में है और तू आकाश में ऊँची-ऊँची उड़ाने भरना ही जानता है / प्राय: जंगल में रहनेवाले पशु-पंछी विवेकशून्य होते है। इसलिए तू मुझे मेरे दुःख के बारे में पूछ करक्या करेगा ? मेरा दुःख जान कर आखिर तुझे क्या लाभ होगा। जो किसी के दु:ख का निवारण नहीं कर सकता उससे अपना दु:ख क्यों कहा जाए ? हर किसी के सामने अपना दुखड़ा रोने से क्या लाभ ? रानी वीरमती की ये अभिमानभरी बाते सुन कर तोते के मन में बडा क्रोध आया। तोता क्रोध से बोला, “हे स्त्री, तू अपने को बड़ी पंडिता मान कर इतना गर्व क्यों कर रही हे ? तेरा यह बहुत बडा भ्रम है कि एक पंछी आखिर क्या कर सकता है ? तू नहीं जानती कि जो काम करने में मनुष्य समर्थ नहीं होता, वह काम पंछी कर सकता है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र ___ तोते की बात सुन कर रानी ने कहा, “हे तोते, तेरी बातों पर मुझे बिलकुल विश्वास नहीं होता है। तू व्यर्थ ही अपने बड़प्पन की शेखी बधार रहा है।" तोते ने इस पर-कहा, “हे स्त्री, ऐसा कह कर तू सिर्फ़ अपनी मूर्खता प्रकट कर रही है। पंछी समझ कर तू मुझे तुच्छ समझ रही है, लेकिन सुन, पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का वाहन गरुड़ नाम का पंछी है। सरस्वतीजी का वाहन हंस पंछी है। एक सेठ की स्त्री कामातुर बनकर जब गुमराह हुई तो उसे उचित मार्ग पर लानेवाला मुझ जैसा एक विचक्षण तोता ही है। नल और दमयंती का मिलन भी एक हंस पंछी की कृपा से ही हुआ था / क्या तू ये सारी बातें नहीं जानतीं ? मैं एक पंछी हुआ तो क्या हुआ ? इधर मैं एक बार पढ़ने पर पढ़ा हुआ अक्षर भी नहीं भूलता। और उधर-तुम मनुष्य तो अनेक शास्त्र पढ़ने पर भी प्रमादवश उन्हें भुल जाते हो। शास्त्रों का अध्ययन करने पर भी तुम लोग उनका सार ग्रहण नहीं करते हो / शास्त्रकारों ने जो पद हमें दिया है वही वह तुम मनुष्यों को भी दिया है। इसलिए हम मनुष्यों से किसी भी तरह तुच्छ नहीं है। मैंने तो सिर्फ न्याय के लिए ही मजबूर होकर अपनी जाति की प्रशंसा की है। हे रानी, तू मेरी बातों पर पूरा विश्वास कर, मैं बिलकुल झूठ नहीं बोल रहा हूँ।" तोते के चतुराई भरे वचन सुन कर रानी वीरमती फूली न समाई। अब उत्साहित होकर वह मधुर वाणी में तोते से बोली, “हे पक्षिराज, तू सज्जन और विद्वान दिखाई देता है। तेरी वाणी मधुर है और तेरा चरित्र भी सुंदर और प्रभावशाली लगता है। इसलिए अब मैं तुझे अपना दुःख अवश्य बताऊँगी। लेकिन इससे पहले तू मुझे यह बता कि तूने ऐसी सुंदर शिक्षा किससे प्राप्त की ?" तोते ने उत्तर दिया, “हे बहन, एक बार एक विद्याघर ने मुझे पकडा। उसने मुझे सोने के पिंजड़े में बंद किया और वह मेरी बहुत सावधानी से देखभाल करने लगा। एक बार वह मुझे पिंजडे के साथ एक साधु के पास ले गया। उसने साधु को वंदना की। साधु के दर्शन से मेरा सारा पाप नष्ट हो गया। शास्त्रों में कहा गया है - "साधुनां दर्शनं पुण्यं, तीर्थ भूता हि साधवः।' साधु ने मुझे उपदेश दिया। इस उपदेश का मुझ पर बहुत गहरा प्रभाव हुआ। जब साधु ने मुझे पिंजड़े में बंद देखा तब उसने विद्याघर को बताया, "हे विद्याघर, तुझ जैसे धर्मनिष्ट P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 . श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मनुष्य के लिए पंछी को पिंजड़े में बंद कर के रखना उचित नहीं है। किसी भी जीव को बंधन में रखने से उस कर्म का बंधन मनुष्य पर हो जाता है। इससे उस मनुष्य के जीव को जन्मजन्मांतर तक वध और बंधन की पीड़ा भोगनी पड़ती है।" साधु का उपदेश सुन कर प्रभावित हुए पापभीरु विद्याघर ने तुरन्त मुझे पिंजड़े में से मुक्त कर दिया। मुक्त होकर मैं नित्य स्वतंत्रतापूर्वक घूमता हुआ इस दिशा से होकर आगे जा रहा था। रास्ते में यहां यह छतनार आम का पेड़ देख कर मैं विश्राम करने के लिए उसकी डाली पर आ बैठा। इसके बाद हम दोनों के बीच जो वार्तालाप हुआ, वह सब तो तुम जानती ही हो / इसलिए हे रानी, अब तुम अपने दु:ख का कारण मुझे बता दो। मैं तुम्हें यूं ही सांत्वनाआश्वासन नहीं दे रहा हूँ। मैं अपनी शक्ति के अनुसार तुम्हारे दु:ख का निवारण करने की भरचक कोशिश करूँगा / वह न हो सके, तो तुम्हारे दु:ख निवारण का मैं अचूक उपाय बताऊँगा।" तोते की बातें सुन कर प्रसन्नचित हुई रानी वीरमती ने अपना आंतरिक दुःख तोते को बताते हुए कहा, “हे प्रिय बंधु, यदि तू मंत्र-तंत्र-यंत्र- औषाधि का सच्चा जानकार है, तो मुझे बता दे कि मेरा भाग्योदय कब होगा और मैं पुत्रसुख कब देख सकूँगी ? यदि तू मेरा यह दुःख दूर करेगा तो मैं तुझे नौ लाख रूपए मूल्य का हार पहनाऊँगी, तुझे स्वादिष्ट भोजन कराऊँगी और तेरे उपकार को कभी नहीं भूलूंगी। मैं तेरी शरण में आई हूँ। इसलिए मैंने दिल खोल कर अपना आंतरिक दुःख तेरे सामने प्रकट किया है। चाहे जिस प्रकार से क्यों न हो, लेकिन तू मुझे पुत्र का दान दे दे और मेरा जीवन सार्थक कर दे।" वीरमती के दु:ख का कारण जान कर तोते ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा, “हे देवी, तुम दु:खी मत हो / वैसे मेरी शक्ति तो कुछ भी नहीं है, लेकिन ईश्वर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करेगा / मैं तो तुम्हें सिर्फ पुत्रप्राप्ति का उपाय बताऊँगा। आज से मैं तुम्हें सगी बहन मान कर तुम से व्यवहार करूँगा। तुम्हारे सुख के लिए मुझ से जो कुछ भी बन सके, मैं, अवश्य करूँगा।" . . तोते की आश्वासनभरी बातें सुन कर वीरमती का मन शांत हुआ। अब तोते ने रानी वीरमती को बताया, “हे बहन, अब मैं तुम्हें एक उपाय बता रहा हूँ, उसे तुम ध्यान देकर सुन लो। सुनो - इस जंगल की उत्तर दिशा में एक उद्यान है। इस उद्यान में श्री ऋषभदेव स्वामि का P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र देवविमान के समान सुंदर मंदिर है। इस मंदिर में चैत्र महीने की पूर्णिमा के अवसर पर नृत्य की सारी सामग्री साथ लेकर नृत्यमहोत्सव मनाने के लिए अनेक अप्सराएँ आती है। इन अप्सरओं की प्रमुख अप्सरा नीले रंग के वस्त्र और आभूषण पहन कर इस महोत्सव में भाग लेने के लिए आती है। यदि इस प्रमुख अप्सरा के शरीर पर पहना हुआ नीला वस्त्र चाहे जिस प्रकार से तुम हथिया सको तो तुम्हारी कार्यसिद्धि अवश्य हो जाएगी। शायद तुम्हारे मन में यह आशंका हो सकती है कि मुझे यह बात कैसे मालूम हुई / बात यह है कि पिछले वर्ष मैं मुझे सोने के पिंजड़े में बंद कर रखनेवाले विद्याधर के साथ वहाँ गया था और मैंने अपनी आँखों से यह दृश्य देखा था। इसलिए तुम मेरी बात पर विश्वास करो। . आनेवाले चैत्र महीने की पूर्णिमा के दिन तुम अकेली उस उद्यान में अवश्य पहुँच जाओ और जैसा मैंने तुम्हें अभी बताया वैसे किसी भी तरह से प्रमुख अप्सरा के शरीर पर पहना हुआ नीला वस्त्र प्राप्त कर लो।" इतना कह कर तोता उस आम्रवृक्ष की डाली पर से उड़ गया। तोते के जाने से विरह व्याकुल रानी वीरमती की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। रानी वीरमती पूरा दिन वहीं रोती हुई बैठी रही। संध्या समय होने पर राजा वीरसेन अपने परिवार के साथ आभानगरी लौट चला। वीरमती भी अपने महल में लौट आई। __कुछ दिन व्यतीत हो गए और कालक्रम के अनुसार चैत्र महीने की पूर्णिमा का दिन आया। रानी वीरमती को तोते की बात पूरी तरह से याद थी। उस दिन रानी ने दिन का समय ज्योंत्यों व्यतीत कर दिया। रात होते ही रानी ने वेशांतर किया और अपने महल की दासी की नजर बचा कर वह अकेली ही महल से बाहर निकली और तोते की बताई हुई राह पर से होती हुई उत्तर दिशा के जंगल की ओर तेजी से चल पड़ी। अब तक रानी ने कभी रात के समय अपने महल से बाहर पाँव भी नहीं रखा था / यहाँ तक कि दिन के उजाले में भी वह कभी अकेले कहीं नहीं गई थी। लेकिन आज स्वार्थवश वह असहाय, अकेली रात के समय जंगल की ओर चल निकली थी। जहाँ प्राणी का कोई स्वार्थ सिद्ध होनेवाला होता है, वहाँ उसमें शक्ति, शौर्य, सत्व, निर्भयता अनायास आ जाती है। ऐसा स्वार्थ यदि आत्महित साधने में आ जाए तो जगत् के जीवों का कल्याण हो जाएगा, उनका बेड़ा पार हो जाएगा, जन्म मृत्यु की परंपरा नित्य के लिए P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 - श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र समाप्त हो जाएगी और उन्हें शाश्वत सुख की प्राप्ति हो जाएगी। लेकिन स्वार्थ सिद्ध करने में अंध बनी हुई राजा वीरसेन की इस पटरानी वीरमती ने यह भी नहीं सोचा कि ऐसी रात के समय मुझे अकेले कहीं जाते हुए किसीने देख लिया तो मेरे पति, मेरा कुल और मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी ; सबको व्यर्थ ही बदनाम होना पड़ेगा। अपने पति राजा वीरसेन से पूछे बिना, उन्हें बताए बिना अकेले ही चोर, डाकु और हिंसक प्राणियों के भय की परवाह किए बिना रानी वीरमती उत्तर दिशा की ओर तेज कदमों से चली जा रही थी। इस संसार में एकमात्र 'स्वार्थ' ऐसी चीज है कि उसके लिए मनुष्य मन, वचन, काया की सारी शक्ति लगा कर दत्तचित्त होकर काम करता जाता हैं। अंत में स्वार्थसिद्धि होगी या नहीं यह तो भाग्य के अधीन ही है। प्रबल पुरुषार्थ दिखाने पर भी कार्यसिद्धि भाग्याधीन हो जाती है। प्रारब्ध का पीठबल हो तो ही मनुष्य का पुरुषार्थ सफल सिद्ध होता है। प्रारब्ध के पीठबल से रहित अकेला पुरुषार्थ सफल नहीं हो पाता है / प्रारब्ध के अनुकूल होने पर ही पुरुषार्थ सफल होता है और प्रारब्ध के प्रतिकूल होने पर चाहे जितना पुरूषार्थ दिखाने पर भी मनुष्य को सफलता नहीं मिलती है। पुरुषार्थ व्यर्थ सिद्ध हो जाता है। रानी वीरमती अंकेली ही निर्भयता से तोते के बताए हुए मार्ग से जा रही थी। चाँदनी रात में रास्ते में अनेक मनोहर दृश्य सामने आ रहे थे, लेकिन उन द्दश्यों को देखने में उलझे बिना वह अपनी धुन में आगे ही आगे बढती जा रही थी। जैसे मुमुक्षु मनुष्य मोक्षमार्ग पर सिर नीचे कर चलते समय रास्ते में अनेक मनोहर विषय सामने आने पर भी उनकी ओर देखे बिना, उनमें आसक्त हुए बिना आगे ही आगे की ओर चलता जाता है, उसी तरह रानी वीरमती आगे ही आगे चली जा रही थी। बहुत देर तक लगातार चलती रहने पर उसे दूर श्री ऋषभदेव भगवान के मंदिर का शिखर दिखाई दिया। शिखर पर सुवर्णकलश चमक रहा था, शिखर पर की ध्वजा हवा के बहने से लहरा रही थी। वीरमती ने मंदिर के प्रवेशद्वार में पहुँच कर निसीहि' कह कर अंदर प्रवेश किया। ऋषभदेव भगवान की मूर्ति को उसने श्रद्धा से वंदन किया और दर्शन किए। भगवान की स्तुति का पाठ कर उसने तीन बार खमासमण (प्रणाम) दिए / उसने / अपने इच्छित कार्य की सिद्धि के लिए भगवान से प्रार्थना की और वह मंदिर के किसी गुप्त भाग में छिप कर खडी रही। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र उसे वहाँ बहुत देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पडी। थोड़े ही समय के बाद वहाँ भगवान की मूर्ति के आगे नृत्य-पूजा करने के लिए अप्सराओं का एक समूह आ पहुँचा। सबसे पहले अप्सराओं ने ऋषभदेव (आदिश्वर) भगवान को प्रणाम कर केशर-चंदन आदि उत्तम द्रव्यों से भगवान की पूजा की। परमात्मा की पूजा से पूजक पूज्य बन जाता है ! पामर पुरुषोत्तम बन जाता है ! नर नारायण बन जाता है ! रंक राजा बन जाता है ! ! जीव शिव बन जाता है ! ! ! भगवान जिनेश्वरदेव को पूजा-संसार रुपी सागर पार करानेवाली श्रेष्ठ नौका है ! वह शिवमहल पर चढने की सौढी है ! सकल कल्याण की कंद है !! सकल सुख का परम साधन है ! ! ! संकटरूपी पर्वत का नाश करने के काम आनेवाला वज्र है ! शिवलक्ष्मी के लिए वशीकरण है ! ! सकल दोषों-दर्दो के लिए यह परम औषधि है ! ! ! सुख-सौभाग्य-समाधि और सद्गति देनेवाला यह अपूर्व कल्पवृक्ष है ! दूर्गति का द्वार बंद करनेवाली अर्गला (अवरोध) है यह !! - जिनपूजा सफल अर्थो को साधनेवाली है। जिनपूजा के बल पर कोई कार्य सिद्द होना असंभव नहीं है। अप्सराओं ने भगवान की द्रव्यपूजा पूरी की और अब उन्होंने भावपूजा प्रारंभ को। विविध प्रकार के वाद्यों की लय और ताल पर उन्होंने अपने दिव्य नृत्य की कला भगवान के सामने प्रस्तुत की। लम्बे समय तक उन्होंने अनेक प्रकार के नृत्य किए, अपने कोकिलकंठों से भगवान के गुण गाकर उन्होंने सारे मंदिर को गुँजा दिया। बहुत देर तक मंदिर उनकी मधुर वाणी से गूंज उठा। फिर वे सारी अप्सराएँ मंदिर से बाहर आई / मंदिर के बाहर एक निर्मल और सुगंधित पानी से भरी हुइ बावडी थी। बावडी को देखते ही सभी अप्सराओं के मन में स्नान करने की प्रबल इच्छा जाग उठी। उन सबने बावडी के किनारे पर अपने-अपने वस्त्र उतार कर रख दिए और स्नान के लिए वे बावडी में प्रविष्ट हो गई। मंदिर के गुप्त भाग में छिप कर खड़ी हुई रानी वीरमती ने यह अच्छा अवसर जाना। वह चुपचाप मंदिर से बाहर निकली और बावडी के पास आ पहुँची। उसने बावडी के तट पर अनेक वस्त्र देखे, उनमें प्रमुख अप्सरा के नीले वस्त्र भी थे। उसने इधर-उधर एक नजर दौड़ाई, चुपके से प्रमुख अप्सरा का नीला वस्त्र उठाया और वह चुपचाप मंदिर में लौट आई। उसने धीरे से मंदिर का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया और वह उस नीले वस्त्र के साथ पहली जगह पर जाकर छिपी रही। तोते के कहने के अनुसार प्रमुख अप्सरा का नीला वस्त्र हाथ में आने से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र उसका मन अंदर ही अंदर नाच उठा। उसे लगा कि अब मेरे कार्य की सिद्धि बिलकुल निकट है। अब वह अपने मन में शेख चिल्ली की तरह अनेक प्रकार के मनसूबे बाँधने लगी। . ____ इधर कुछ देर तक बावडी के निर्मल और सुगंधित जल में यथेच्छ नहा कर सभी अप्सराएँ बावडी के तट पर आई / सभी अप्सराएँ अपने-अपने वस्त्र लेकर पहनने लगी / प्रमुख अप्सरा को चबूतरे पर बहुत देर तक ढूँढ़ने पर भी जब अपना नीला वस्त्र दिखाई न दिया, तब उसने अपने साथ होनेवाली अप्सराओं से अधिकारभरी वाणी से कहा, “हे सखियो, मेरा वस्त्र कहीं छिपा कर तुम मेरे साथ मजाक क्यों कर रही हो ? क्या तुम्हें मुझसे कोई भय नहीं लगता ? मेरा वस्त्र इसी क्षण लाकर मुझे दे दो, अन्यथा मैं तुम सबको कड़ी सजा दूंगी।" प्रमुख अप्सरा की ये क्रोधभरी बातें सुनते ही भयकंपित हुई सभी अप्सराओं ने अपनी स्वामिनी से कहा, "हे स्वामिनी, हम में से किसीने भी आपका वस्त्र नही छिपाया है।' क्या हम आपसे भी मजाक कर सकती है ? यह आपके मन में कैसे आया ? / सभी अप्सराएँ चारों ओर अपनी स्वामिनी के वस्त्र की खोज करने लगीं। लेकिन वस्त्र कहीं नहीं मिला और मिलता भी कैसे ? वस्त्र था मंदिर में छिप कर खडी वीरमती के हाथ में और अप्सराएँ उसे ढूँढ़ रही थी मंदिर के बाहर ! जैसे, जो सुख आत्मा के भीतर है वह बाहर भौतिक पदार्थो में खोजने से नहीं मिलता है, वैसे ही मंदिर के अंदर होनेवाला वस्त्र मंदिर के बाहर कितना ही ढूँढने पर आखिर कैसे मिलता? मंदिर के बाहर वस्त्र ढूँढते-ढूँढते एक अप्सरा मंदिर के निकट आ पहुँचो। उस चतुर अप्सरा ने देखा कि मंदिर का दरवाजा बंद है। उसने सोचा, जब हम सब मंदिर से बाहर निकलीं, तो दरवाजा खुला था। अब बंद है। जरूर यहीं दाल में कुछ काला है। निश्चय ही कोई यहां आकर हमारी स्वामिनी का नीला वस्त्र चुरा कर मंदिर में जाकर छिप गया है / इस अप्सरा ने अपने मन की आशंका अपनी स्वामिनी के पास जाकर प्रकट की। प्रमुख अप्सरा मंदिर के पास चली आई और उसने मंदिर के दरवाजे पर धक्का मारा, फिर भी दरवाजा नहीं खुला। इसलिए उसने जोर से पुकार कर कहा, 'कौन है अंदर ? तुरन्त बाहर आ जा!' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र प्रमुख अप्सरा की आवाज सुनते ही निर्भिक वीरमती मंदिर का दरवाजा खोल कर बाहर आई और उसने मुख्य अप्सरा के सामने अपना अपराध स्वीकार कर क्षमायाचना की। . प्रमुख अप्सरा ने वीरमती से पूछा, “तूने मेरा वस्त्र क्यों ले लिया ? तू कौन है और रात के समय यहाँ क्यों आई है ?" वीरमती ने अपनी परिचय देकर वहाँ आने का उद्देश्य बताया। उसने फिर कहा, “हे महादेवी / आप मुझ पर कृपा कीजिए, मुझे पुत्रदान कीजिए / मुझे पुत्रप्राप्ति का वरदान दीजिए। अभी तक मेरी गोद खाली है। मेरी गोद भर दीजिए। पुत्रप्राप्ति के लिए ही इतना बड़ा साहस कर के में यहाँ आ पहूँची हूँ। मेरी इच्छा पूरी कीजिए।" __ इतना कह कर वीरमती प्रमुख अप्सरा के चरणों पर झुक गई / जहाँ स्वार्थ सिद्ध होने की संभावना होती है वहाँ मनुष्य झुकने में विलंब नहीं करता है / वीरमती प्रमुख अप्सरा के सामने सद्गदित होकर पुत्रप्राप्ति के लिए बार-बार प्रार्थना कर रही थी। वीरमती की विनम्रताभरी प्रार्थना सुन कर, उसके प्रति दया उत्पन्न होने से प्रमुख अप्सरा ने अपने अवधिज्ञान के प्रयोग से देखा और फिर वीरमती से कहा, "हे साहसिक-शिरोमणी स्त्री, तेरे भाग्य में पुत्रप्राप्ति होना | नहीं लिखा है / भाग्य के प्रसन्न हुए विना देवता भी मनुष्य को इच्छित चीज देने को समर्थ नही होते हैं। फिर भी तेरे सत्व से प्रसन्न होकर मैं तुझे कई विद्याएँ प्रदान करती हूँ।" / / प्रमुख अप्सरा की सहानुभूतिपूर्ण बातें सुन कर अब वीरमती जान गई कि मेरे भाग्य में पुत्रसुख नहीं लिखा है। इसलिए अब पुत्रप्राप्ति के लिए जिद करना निरर्थक है / लेकिन जब प्रमुख अप्सरा मुझ पर प्रसन्न होकर मुझे कुछ विद्याएँ देने को तैयार है, तो उन्हें ही क्यों न प्राप्त कर लूं ? इस प्रकार से मन में विचार कर वीरमती ने प्रमुख अप्सरा से कहा, “महादेवी, आप मुझे विद्याएँ दान करने की कृपा कीजिए।" प्रमुख अप्सरा ने वीरमती को आकाशगामिनी, शत्रुबलहारिणी, विविध कार्यकारिणी और जलसारिणी-ये चार विधाएँ आम्नाय (रूढी) के साथ प्रदान की / चार-चार दैवी विद्याएँ अनायास मिल जाने से वीरमती की खुशी का ठिकाना न रहा। प्रमुख अप्सरा ने वीरमती से कहा, “हे स्त्री, ये विद्याएँ सिद्ध करने पर तेरा सौतेला पुत्र चंद्रकुणार, तेरा पति, प्रजा और सभी शत्रुराजा तेरे अधीन रहेंगे। तू मन में जो चाहेगी, वह कर सकेगी। तेरा यश और कीर्ति चारों दिशाओं में फैलेंगे। तेरे नाम का डंका सर्वत्र बजेगा। तेरी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र आज्ञा का उल्लंघन करने की हिम्मत कोई नहीं कर सकेगा। लेकिन एक बात विशेष सावधानी से ध्यान में रख तुझे अपने पति राजा वीरसेन, सोत रानी चंद्रावती और सौतेले पुत्र चंद्रकुगार को थोडा सा भी दु:ख नहीं देना चाहिए / तुझे कभी मन में भी ऐसी बात नहीं लानी चाहिए कियह चंद्रकुमार मेरी सोत का पुत्र है, मेरा सगा पुत्र नहीं हैं। तू मेरी दी हुई इन चारों विद्याओं का सदुपयोग करना। इस शक्ति का कभी गलती से भी दुरुपयोग नहीं करना / कहीं ऐसा न हो कितुझे इन विद्याओं का अपच हो जाए।" वीरमती ने मुख्य अप्सरा का दिया हुआ सारा उपदेश सुन लिया और उसका नीला वस्त्र उसे लौटा दिया। अब सारी अप्सराएँ अपनी सारी नृत्यसामग्री लेकर वहाँ से शीघ्र अपने स्थान की ओर चल दी। रानी वीरमती फिर से मंदिर में आई। उसने ऋषभदेव भगवान की वंदना की और चुपचाप निकल कर तेजी से चुपचाप अपने महल में लौट आई और सभी दासियों की नजर बचा कर अपने शयनखंड में जाकर सो गई / वीरमती के इस गुप्त कार्य का पता किसी को मालुम नहीं पड़ा। रानी वीरमती ने दूसरे ही दिन प्रमुख अप्सरा की दी हुई विद्याओं की साधना प्रारंभ कर दी। कहा भी हैं - 'स्वार्थ साधने कोऽलसायते ?' . अर्थात्, स्वार्थ की साधना में कौन आलस्य करेगा ? जब मूर्ख मनुष्य भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कभी आलस्य नहीं करता, प्रमाद नहीं होने देता, तब वीरमती जैसी चतुर स्त्री 2. अपने स्वार्थ के लिए विद्यासाधना करने मे विलंब कैसे करती ? - कुछ ही दिनों में वीरमती ने वह चारों विद्याओं की साधना में सिद्धि प्राप्त कर ली। अब नि:संतान होने के दु:ख को भूल कर वह आनंदपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगी। जैसे रत्नों की प्राप्ति होने पर मनुष्य को सुवर्ण के अभाव का दुःख नहीं खटकता हैं, वैसे ही दिव्य विद्याओं की प्राप्ति होते ही अब वीरमती को पुत्र के अभाव का दु:ख बहुत नहीं अखरता है। बड़े सुख की प्राप्ति होने पर मनुष्य छोटा दुःख भूल जाता हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 21 अब राजा वीरसेन और रानी चंद्रावती दोनों दीक्षा ग्रहण करते हैं। चारों विद्याएँ प्राप्त होते ही रानी वीरमती अत्यंत उन्मत्त हो गई। जो विद्या वास्तव में अभिमानरूपी ज्वर का नाश करनेवाली होती है, उसी विद्या से वीरमती अभिमान के जोरदार : ज्वर से ग्रस्त हो गई / विद्यामद से अस्त वीरमती सब को तिनके के समान तुच्छ समझने लगी। मंत्रों के प्रयोग से उसने अपने पति तथा अन्य लोगों को अपने वश में कर लिया। इधर कालक्रम से राजकुमार चंद्रकुमार ने शैशवावस्था समाप्त करके यौवन में पदार्पण किया। राजा ने अपने पुत्र को विवाहयोग्य जान कर गुणेश्वर राजा को कन्या गुणावलो के साथ उसका बड़ी धूमधाम से विवाह करा दिया। गुणावली सचमुच गुणों की 'अवली' (पंक्ति) ही थी / जैसा नाम वैसे उसके गुण भी थे। गुणावली पतिव्रता और धार्मिक प्रवृत्ति की युवती थी। रुपसौंदर्य में रति समान, बुद्धि में बृहस्पति समान और विद्या में सरस्वती जैसी होनेवाली गुणावली का कंठ कोयल की तरह मधुर था / हथिनी की तरह वह मस्तानी चाल से चलती थी और उसकी आँखें कमल की तरह सुंदर और विशाल थीं। उसका मुख पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह तेजस्वी था और वह चौंसठ कलाओं मैं कुशल थी। ऐसी रुपवती और गुणवती पत्नी पाकर चंद्रकुमार स्वयं को महान् भाग्यवान् समझता था / गुणावली के साथ विविध क्रीड़ाएँ करते हुए चंद्रकुमार अपना जीवन अत्यंत सुख से व्यतीत कर रहा था। प्रमुख अप्सरा के कहने के अनुसार रानी वीरमती चंद्रकुमार के प्रति सगी माँ से भी | अधिक प्रेम का व्यवहार करती थी। लेकिन चंद्रकुमार के प्रति वीरमती का यह प्रेम तब तक ही टिकनेवाला था, जब तक कि चंद्रकुमार का पुण्योदय था। दूसरे का प्रेम पाने के लिए भी पुण्य की आवश्यकता होती है। बिना पुण्य के प्रेम नहीं मिलता है। ___ एक बार रानी चंद्रावती अपने पति राजा वीरसेन के बालों में सुगंधित तेल लगा कर बालों में कंधी कर रही थी कि अचानक उसने राजा के काले बालों के बीच एक सफेद बाल देखा। पति के बालों में यह सफ़ेद बाल देख कर रानी चंद्रावती का मुँह मलिन हो गया। उसके चेहरे पर शोक की भावना फैल गई। उसने अपने पतिदेव राजा वीरसेन से कहा, “हे स्वामी, अकस्मात् शत्रुका दूत आ पहुँचा है, इसलिए आप सावधान हो जाइए।" राजा के अंत:पुर में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र अचानक शत्रु के दूत के आ धमकने की बात रानी से सुन कर राजा क्रोध से भडक उठा। राजा की आँखें क्रोध से लाल-लाल हो गई। उसने सोचा, किस मूर्ख को असमय मरने की इच्छा हुई है कि वह मेरी आज्ञा के बिना ठेठ मेरे अंत:पुर तक पहुँच गया ? आगबबूला हुआ राजा शत्रु के आए हुए दूत को देखने के लिए चारों ओर देखने लगा। राजा को वह दूत कहीं भी दिखाई नहीं दिया। इसलिए उसने रानी चंद्रावती से पूछा, “यहाँ आया हुआ वह दूत कहाँ गया ? दिखाई क्यों नहीं देता ? कहीं छिप तो नहीं गया ? राजा ने बाहर द्वार पर खड़े प्रतिहारी को पुकारा। अंत:पुर का अंगरक्षक एकदम तलवार लेकर दौड़ता हुआ आया / राजा ने अंगरक्षक को आज्ञा दी, "देख, यहाँ कोई शत्रु का दूत आकर कहीं छिप कर बैठ गया है। उसे खोज कर पकड़ ले और मेरे सामने ला कर खडा कर !" थोडी देर तक हँसी-मजाक करने के बाद अवसर देख कर रानी चंद्रावत ने अपने पति से कहा, “यहाँ आप की आज्ञा के बिना पाँव रखने की किस में हिम्मत है ? लेकिन आपके बाल सँवारते समय मैंने जराराक्षसी के दूत का आगमन हुआ देखा, इसलिए मैंने आप से कहा था कि 'दशमन का दूत’ आया है, सावधान ! देखिए, यह है वह दूत। यह कह कर रानी ने राजा के सिर के बालों में से एक सफेद बाल तोड़ कर राजा को दिखाया। इस पर राजा हँस पड़ा और फिर गमगीन होकर गहरे चिंतन में डूब गया। राजा ने सोचा कि, “धन्य है हमारे वे पूर्वजों को जो जरा (बुढापे) के दूत के आने से पहले ही राजवैभव और विलास का त्याग कर मुक्ति के मंगल मार्ग पर चल निकले। लेकिन मैं ऐसा कुलांगार और विषयान्ध हूँ कि जराराक्षसी के आ पहुँचने पर भी अब तक मोहनिद्रा में खर्राटे भर रहा हूँ। यह मेरा, वह मेरा' करता हुआ मैं मर रहा हूँ। मेरी विषयांधता को धिक्कार हो! ____ जैसे धोबी मैले-कुचैले काले कपड़े को धोकर सफेद बना देता है, वैसे ही यह जरा सिर के काले बालों को सफेद कर के संकेत देती है कि 'हे मूर्ख मानव, अब कर्म के काजल से काली हुई तेरी आत्मा को तप संयम से धोकर उसे शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-निरंजन-निराकार बना दे। जब तक तेरा शरीर स्वस्थ है, इंद्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हुई है और जीवनसूर्य अस्त नहीं हुआ है, तभी तक अपनी आत्मा का कल्याण कर ले। तेरी आत्मा को भवबंधन से मुक्त कर ले। आग लगने पर कुआँ खोदने के लिए तैयार होना व्यर्थ है / अब भी अवसर तेरे हाथ है, बाजी तेरे हाथ है। यह राज्य और वैभव तो तुझे अंत में नरक के गहरे कुएं में फेंक देंगे। ऐसा राज्य और P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वैभव तो तुझे भूतकाल में भी अनेक बार मिला है और तूने उसका उपभोग भी किया है। फिर भी जब तुझे तृप्ति नहीं मिली है, तो क्या इस एक जन्म के राजवैभव से तुझे तृप्ति मिलनेवाली है ? इसलिए मृगजल की तरह होनेवाले इन काल्पनिक, नकली, नाशवान् और पराधीन सुखों का त्याग कर और शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए तीर्थकर देवों द्वारा बताए हुए संयम के मार्ग पर चलना जल्द प्रारंभ कर / फिर से ऐसा अवसर मिलना दुर्लभ है / मनुष्य का यह शरीर तो नदी के किनारे पर उगे हुए पेड़ों के समान अस्थिर है / यौवन नदी के प्रवाह की तरह अत्यंत चंचल है। विषय-सुख संध्या के रंगों की तरह क्षणभंगुर है / वैभव बिजली की तरह चंचल है। स्नेहीजन यात्रा में मिले हुए पाथिकों की तरह आयाराम गयाराम जैसे हैं। इस संसार में कहीं कोई विश्वास करने योग्य नहीं है। मनुष्य का जीवन वायु की तरह अस्थिर जन स्वार्थी होते हैं / जहाँ संयोग होता है, वहाँ वियोग अवश्य होता है।" ... राजा ने सोचा, क्यों न मैं सारी बाह्य उपाधियों को त्याग कर और जल्द से जल्द संयम लेकर कर्मसत्ता को जड़ से उखाड़ कर नष्ट कर दूँ। हे आत्मन्, सावधान हो जा। संयम लेने का उचित समय आ गया हैं। तीनों भुवनों में संयम का परिणाम ही अत्यंत दुर्लभ है / 'शुभष्य शीघ्रम्' कर अपना आत्महित साध लें।" फिर राजा वीरसेन ने अपनी रानी चंद्रावती को अपने मन का विचार बताया और कहा, “देखो, मैं तो अब राज्य का बोझ त्याग कर संयम का भार स्वीकार करने को तैयार हो गया हूँ - संयम लेने का द्रढ़ संकल्प कर लिया है। हजारों वर्षों से भाँति-भाँति के मनभावने भोगों का उपभोग करने पर भी बिलकुल तृप्ति नहीं मिली है। कहा भी है - 'नच कामोयभोगेन कामक्षयो नाम।' अर्थात्, कामभोगों का उपभोग करने पर भी विषयवासना नष्ट नहीं होती है।" राजा की कही हुई ये बातें सुन कर रानी एक क्षण के लिए उदास हो गई। उसने सोचा कि मैंने ही 'जराराक्षसी का चुन-सफेद बाल' राजा को बता कर राजा के दिल में विरक्ति का भाव जगाया और बहुत बड़ी भूल की। मैंने तो मजाक किया था। मुझे क्या पता था कि उसका ऐसा गंभीर परिणाम निकल आएगा ? अब फिर से विकारजनक वचन बोल कर राजा के चिंत में राग उत्पन्न कर दूं। अब रानी राजा के सामने अनेक प्रकार से प्रेम के भाव व्यक्त करने लगी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र / लेकिन तपे हुए तवे पर पानी की बूंदें पड़ने से उस पानी की जो स्थिति होती हैं वही दशा रानी के कहे हुए अनुरागवर्धक वचनों की हुई / सच्चे विरक्त मनुष्य को राग के रंग में रंगने में कौन = समर्थ हो सकता है ? कहते हैं - 'विरक्ति दोषदर्शनात् !' 'विषयों' में जोरदार और यथार्थ दोषदर्शन में से सच्ची विरक्ति उत्पन्न होती है। अब विषयों के प्रति सच्ची विरक्ति पाए हुए मनुष्य को विषयों के बारे में गुणदर्शन-सुखदर्शनसारदर्शन कैसे कराया जा सकता है ? . अंत में जब रानी चंद्रावती ने अपने पति राजा वीरसेन को संयम दीक्षा लेने के निश्चय पर अटल देखा तो उसने यह बात-राजा की विरक्ति की बात-अपनी सौत रानी वीरमती को बताई / रानी वीरमती ने भी राजा के महल में आकर उसे अनेक प्रकार से समझाने का प्रयास किया, लेकिन राजा अपने द्रढ़ संकल्प से बिलकुल विचलित नही हुआ / जैसे मेरु पर्वत कल्पान्त काल की पवन से भी चलायमान नहीं होता है, वैसे ही राजा वीरसेन अपने संयम-दीक्षा लेने के निर्णय पर अटल रहा। अब रानी चंद्रावती ने राजा का संयम-दीक्षा लेने का द्रढ़ निश्चय जान कर राजा से कहा, "हे प्राणनाथ, में आपके मार्ग में रोड़ा अटकानेवाली नहीं हूँ। लेकिन आप मुझे भी संयम-दीक्षा लेने के लिए आज्ञा दीजिए / मैं आपके साथ ही संयम-दीक्षा लेने की इच्छा रखती हूँ। मैं भी आपकी ही तरह अपनी बची हुई जिंदगी मोक्षमार्ग पर चलने में व्यतीत कर देना चाहती हूँ। शास्त्रों में कहा भी है - 'प्रमदा: पतिवमगाः।' ___ अर्थात्, पत्नियाँ पतियों के मार्ग का अनुसरण करनेवाली होती हैं / जहाँ चंद्रमा होता हैं, वहीं उसकी ज्योत्स्ना होती है ! राजा ने चंद्रावती की संयम-दीक्षा लेने के लिए अनुमति की प्रार्थना स्वीकार कर ली। राजा रानी दोनों अपने-अपने मन में पूर्ण वैराग्य धारण कर संयम-दीक्षा ग्रहण करने के लिए तत्पर हो गए। राजा ने अपने इकलौते पुत्र चंद्रकुमार को अपनी पटरानी वीरमती को सौपा, उसे राजसिंहासन पर विधिवत् बैठा दिया और उसे विविध प्रकार का उपदेश दिया। फिर एक शुभ मुहूर्त पर राजा वीरसेन ने अपनी रानी चंद्रावती के साथ संयम दीक्षा ग्रहण कर ली। राजर्षि वीरसेन और साध्वी चंद्रावती ने निरतिचार चारित्र का पालन किया और दोनों क्रमश: श्री मुनिसुव्रत भगवान की अपार करुणा से केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्षसुख के अधिकारी बन गए। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र सास - बहु : बीरमती-गुणावली का गुप्त वार्तालाप: N O Ce राजा वीरसेन और रानी चंद्रावती की दीक्षा के बाद रानी वीरमती और सर्वतंत्र स्वतंत्र बन गई। अब राजपरिवार में वही सबसे बड़ी थी। उसके पास प्रमुख अप्सरा से प्राप्त एक नहीं, बल्कि चार-चार महा विद्याएँ थीं। इसलिए अब उसके अभिमान का कोई पार नहीं था। विद्या प्राप्त करना आसान होता है, लेकिन पाई हुई विद्या को पचाना बड़ा कठिन काम होता हैं। एक बार रानी वीरमती ने अपने पुत्र राजा चंद्रकुमार को एकान्त में बुला कर कहा, “हे प्रिय पुत्र, तू अभी बालक ही है / तेरे माता-पिता ने तुझको राज्य का बीझ सौंप कर दीक्षा ले ली है, लेकिन जब तक मैं जीवित हूँ तब तक तुझे चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मेरे पास अनेक दिव्य और अलौकिक शक्तियाँ है / इससे कोई शत्रु तेरा बाल भी बाँका नहीं कर सकता। मेरे पास ऐसी अलौकिक शक्ति हैं कि उसके बल पर मैं तुझे इंद्र का इंद्रासन भी लाकर दे सकती हूँ। मुझ मैं सूरज के रथ के घोड़े वहां से लाकर तेरी अश्वशाला में बाँधने की शक्ति है। पूरे मेरु पर्वत को उठा कर लाने की सामर्थ्य मुझ में है। देवकन्या या पातालकन्या से भी तेरा विवाह कराने की ताकत मैं रखती हूँ। मेरे लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं है। तेरे लिए, तेरे सुख के लिए सबकुछ करने के लिए मैं समर्थ हूँ। लेकिन हे पुत्र, एक बात तू ध्यान में रख कि मैं प्रसन्न हुई तो कल्पवल्ली हूँ और अप्रसन्न हुई तो विषवल्ली भी हूँ। इसलिए तुझे कभी यौवन या राज्य से उन्मत्त बन कर मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। अगर तू मेरी आज्ञा लिए बिना कोई काम करने की भूल करेगा या मेरे दोष देखने की कोशिश करेगा, तो उसका परिणाम बड़ा भयंकर होगा। ऐसी स्थिति आई तो मैं माता नहीं रहूँगी, शत्रु बन जाऊँगी और फिर तुझे कड़ी-से-कड़ी सजा दूंगी।" __राजा चंद्रकुमार ने अपनी सौतेली माता के ये धमकी भरे वचन सुन कर हाथ जोड़ कर माता से कहा, “मां तुम निश्चित रहो। तुम्हारी आज्ञा मेरे लिए हरदम शिरसाबंध है। तुम ही मेरी माता हो, तुम ही मेरी पिता हो, तुमही मेरी अन्नदाता हो, राजा भी तुम्ही हो और मेरे लिए त्रिकालज्ञानी ईश्वर भी तुम ही हो / मुझो तो बस, अन्न और वस्त्र मात्र से प्रयोजन है / यह राजवैभव तुम्हारा ही है। मैं तो बस, तुम्हारे चरणों का सेवक हुँ / इसलिए मेरे योग्य कोई भी काम हो, तो तुम नि:संकोच आज्ञा कर दो। सेंकड़ों अन्य काम अलग रख कर मैं सबसे पहले P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र तुम्हारा ही काम करूँगा। तुम मेरे बारे में बिलकुल नि:शक और नि:संकोच हो जाओ। मुझे तो सिर्फ तुम्हारी कृपादृष्टि की अपेक्षा है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।" __राजा चंद्रकुमार के मुँह से ऐसी विनययुक्त बातें सुन कर वीरमती बहुत खुश हो गई। नम्रता विनय का कारण है और गुणों का प्रकर्ष विनय से ही प्राप्त होता है / विनय का गुण महावशीकरण मंत्र है। धर्म की जड विनयगुण में ही निहित है / विनम्र मनुष्य सबको भाता है इसलिए चंद्रकुमार की विनम्रता से प्रसन्न होकर वीरमती बोली, ___ "हे प्रिय पुत्र, तू समस्त सुखोपभोगों का खुशी से अनुभव कर ! मेरा सारा जीवन तेरे ही लिए है। तू चिरंजीवी हो, पुत्रवान् हो और तेरा कल्याण हो यही मेरी इच्छा है!" चंद्रकुमार को ये आशीर्वचन सुना कर वीरमती अपने महल की ओर चली गई। चंद्रकुमार भी अपने महल की ओर लौट आया और पूर्वपुण्य के संयोग से प्राप्त हुई प्रिय पत्नी गुणावली के साथ सांसारिक सुखोपभोगों में तल्लीन हो गया। कामकला कुशल गुणावली भी राजा चंद्रकुमार को अनिर्वचनीय सुख का आस्वाद कराती रही ! इस राज-दंपती के शरीर अलग-अलग थे, लेकिन (हृदय-मन) तो एक ही था। शील-स्वभाव में समानता होने पर ही पतिपत्नी के बीच अटूट प्रेमभाव बना रहता है। साथ-साथ उठना, बैठना, सोना, जागना और हर्ष के प्रसंग में हर्षित और शोक के प्रसंग में शोकाकुल होना-ये ही सच्चे प्रेमभाव के लक्षण हैं। कामदेव की तरह अदभुत रूपसौंदर्य से युक्त राजा चंद्रकुमार राजसिंहासन पर बैठा हुआ ऐसा शोभित होता था जैसे उदयाचल पर सूर्य, नक्षत्रगणों के बीच चंद्रमा और देवताओं के बीच इंद्र शोभायमान होता है। चंद्रकुमार की राजसभा में बृहस्पति के समान बुद्दिमान् पाँच सौ पंडित थे। उसकी राजसभा में बुद्धि के भंडार समान मंत्री थे। राजा के पास लाखों की संख्या में सेना थी और राजभंडार भरपूर धन से भरा हुआ था। प्रबल पुण्यवान् और महापराक्रमी चंद्रराजा के भय से शत्रुराजा न घर में शांति पाते थे, न नगर में, न वन में। लेकिन चंद्रराजा की शरण में आते ही उन्हें शांति का अनुभव होता था। चंद्रराजा राजसभा के पंडितों के साथ प्रतिदिन ज्ञानचर्चा, तत्त्वचर्चा करता था। वह विद्वानों का सम्मान करता था और प्रजा का पुत्र की तरह पालन करता था। सातों प्रकार के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र व्यसनों को राजा ने अपने राज्य में से देशनिकाल कर दिया था। राजा की धर्मप्रियता और न्यायप्रियता के कारण प्रजा भी धर्मप्रिय और न्यायप्रिय हो गई थी। प्रजा राजा के प्रति गहरी श्रद्धा और प्रेम का भाव मन में रखती थी। 'यथा राजा तथा प्रजा' वाली कहावत यहाँ यथार्थ उतरती हुई दिखाई देती थी। राजा के सुख में प्रजा सुखी होती थी और राजा के दु:ख में दु:खी होती थी। चंद्रराजा के राज्य में कभी चोरी का भय नहीं था। राजा के प्रबल पुण्य के कारण उसे कभी अकाल का सामना नही करना पड़ता था / प्रजाजनों के घर धन-धान्य से भरे रहते थे। प्रजा दानप्रिय और सदाचारी थी। चंद्रराजा के राज्य में कही भिखारी खोजने पर भी नही मिलता था। चंद्रराजा युवक था, लेकिन उसमें युवावस्था का उन्माद नही था / सत्ताधारी होने पर भी उसमें अभिमान नही था, घमंड नही था, उन्मत्तता नही थी / रूपसौंदर्य में कामदेव की तरह होने पर भी वह परस्त्री को भूल कर भी बुरी नज़र से नही देखता था। राजा चंद्रकुमार नित्य सज्जनों की संगति में रहता था, दार्शनिक ग्रंथों का पठन करता था, परमात्मा जिनेश्वरदेव की प्रतिदिन नियमित रूप से पूजा करता था, ऋषिमुनियों के प्रति भक्तिभाव प्रकट करता था, उनकी सेवा करता था; साधार्मिक भाईयों को बंधुवत् मान कर उनके आदर-सम्मान रखता था; मुक्ति के मंगलमय मार्ग पर अग्रसर हुए माता-पिता का नित्य स्मरण कर वह उन्हें विसंध्या भावपूर्वक प्रणाम करता था और मन में नित्य यह इच्छा रखता था कि मैं भी अपने माता-पिता के पुनीत पदचिन्हों पर कब चल पडूंगा, कब मुक्तिमार्ग का पथिक बन जाऊँगा। चंद्रराजा की राजसभा इंद्र की सौ धर्मसभा से किसी भी तरह कम नही थी। बुद्धिनिधान मंत्रीगण राजतंत्र का संचालन अत्यंत सुंदर रीति से करते थे। राजा को सभी प्रकार का सुख प्राप्त था। उसके राज्य में किसी चीज का अभाव नही था। इस तरह चंद्रराजा की जीवन नौका संसार सागर में सरलता और सहजता से चली जा रही थी। लेकिन इस दुःखमय और कर्ममय संसार में किसके दिन एक समान व्यतीत होते हैं ? इस संसार में उन्नति-अवनति, सुख-दुःख, संपत्ति-विपत्ति का चक्र अनादिकाल से नित्य घूमता ही जा रहा हैं / भाग्यचक्र कभी एक गति से नही घूमता है। 'समरूपेण नो याति दिनं सर्व हि निश्चितम्।' यह सनातन सत्य है। संसार में रहते हुए नित्य सुख की आशा विवेकी मनुष्य को नही रखनी चाहिए / दु:खमय संसार में रहते हुए कभी दु:ख का स्पर्श भी नही होगा यह असंभव P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र है। संसार दु:ख से ही भरा हुआ है, इसलिए संसार में मनुष्य के जीवन में दुःख का आना सर्वथा स्वाभाविक बात हैं / संसार में रह कर दुःख से डरना मूर्खता है। जब तक संसार है, तब तक दुःख तो आता ही रहेगा / मनुष्य जैसे-जैसे दुःख से दूर भागने की कोशिश करता है, वैसे-वैसे दुःख उसका पीछा करके उसे खोजता हुआ आता ही रहता है। दुःख से डर कर दूर भागने में बुद्धिमानी नहीं है। सच्ची बुद्धिमानी तो आए हुए दुःख का हार्दिक स्वागत कर उसे समताभाव से भोगने में है। सच्चे धर्मनिष्ठ मनुष्य की निशानी यही है कि वह दु:ख के आने पर उसे 'जाजा' न कह कर प्रेम से 'आ-आ' कहता है और उसका स्वागत करता है / दु:ख का स्वागत करना ही दु:खमुक्ति का सच्चा और अच्छा उपाय है, तो सुख के आने पर उसे 'जा-जा' कहना ही सुखप्राप्ति का अचूक उपाय है। जैसे प्रशांत महासागर में तेज गति से बहनेवाली वायु के कारण संक्षोभ-तूफान आता है, वैसे ही संसारसागर में भी अशुभ कर्मरूपी तेज हवा से सुख की नौका उलट कर टूकड़ेटूकड़े हो जाती है। कर्म की विचित्र गति को रोकने की सामर्थ्य किसमें है ? प्रकृति के इस नियम के अनुसार अब चंद्रराजा की जीवननौका भी संकट में फँसने की तैयारी में है। महान् पुरुष के जोवन में आनेवाला सुख भी महान् होता है और दुःख भी वैसा ही महान् होता है। कहते ही हैं, बड़ों का सब बड़ा ही होता है'। si.. SEEEEE . . अब हम ज़रा यह भी देख लें कि राजा चंद्र की रानी गुणावली कैसे सुखवैभव के उपभोग में निमग्न है ! एक बार राजा चंद्र दोपहर के समय भोजनादि से निवृत्त होकर राजदरबार में राजकार्य में व्यस्त था। इसी समय रानी गुणावली भी भोजन करने के बाद अपनी सखियों के साथ अंत:पुर के महल के एक छज्जे में आकर बैठ गई थी। रानी के गुणावली के छज्जे में आकर बैठते ही वहाँ उपस्थित रानी की दासियों ने उसे पंखे से हवा करना प्रारंभ किया। एक दासी ने रानी को सुगंधित पान खाने को दिया तो दुसरी दासी सुवर्ण के गिलास में स्वादु-शीतल पानी पीने के लिए ले आई। तीसरी दासी रानी के लिए रंगबिरंगे सुगधित फूलों का हार गूंथने लगी। चौथी दासी रानी के मनोरंजन के लिए हँसी-विनोद भरी बातें कहने लगी। यह सारा दृश्य देख कर ऐसा लग रहा था मानो स्वर्गलोक को कोई देवांगना धूमने के लिए मृत्युलोक में आकर यहाँ बैठी हो-विश्राम कर रही हो / गुणावली रानी के सुख को देखने के लिए शायद सूरज भी क्षण मात्र के लिए स्तंभित होकर खड़ा रह जाता था। इस तरह गुणावली के महल में नित्य आनंद की लहरें लहराती रहती थी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र - अचानक दूर से अपनी सास वीरमती को अपनी ओर आते देख कर गुणावली ने अपनी दासियों को संकेत से सावधान कर दिया। रानी गुणावली को अंतरंग सहेली ने उसे सुझाया, “हे स्वामिनी, आप तुरन्त खड़ी होकर सामने से जा रही कपनी सास का स्वागत कीजिए। किसी की पुत्रवधू बनना और उसे निभाना आसान नहीं होता है। जैसे आप हमारे लिए सिरंछत्र की तरह हैं, वैसे ही आपकी यह सास आपके लिए सिरछत्र है। बहुत क्या कहूँ ?आपके पतिदेव भी आपकी सास की हर आज्ञा का पालन करते हैं।" __अपनी अंतरंग सखी की ये बातें ध्यान से सुन कर गुणावली अपने आसन पर से उठ खड़ी हुई / वह सास का स्वागत करने के लिए आगे बढ़ी और उसने अपनी सास को सम्मान से अपने महल में लाकर बैठने के लिए उच्चासन दिया। वीरमती के आसन पर स्थानापन्न होने के बाद गुणावली ने उसके पाँव पकड कर कहा, "आज मेरा बड़ा सौभाग्य है कि मेरे महल में आपका शुभागमन हुआ / आपने यहाँ पधार कर मुझे भी बड़ा सम्मानित किया है। अब आप तुरन्त मुझे बताइए कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मैं आपकी सेवा कर स्वयं को कृतार्थ समझ लूंगी।" पुत्रवधू गुणावली के प्रेम और विनय से भरे हुए वचन सुनकर वीरमती मन-ही-मन बहुत खुश हुई / वह गुणावली के सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद देते हुए बोली, "आकाशमंडल में जब तक ग्रह, नक्षत्र, तारे, सूरज और चंद्रमा विद्यमान हैं, तब तक तेरा सौभाग्य निरंतर बना रहे।" फिर वह गुणावली के पास नीचे बैठी और उसने गुणावली से प्रेम से कहा, “बहू, मैं किसी विशेष काम के लिए यहाँ नहीं आई हूँ। बहुत लम्बे समय से तुझे नहीं देखा था, इसलिए सिर्फ तुझसे मिलने और तेरा क्षेमकुशल जानने के उद्देश्य से मैं यहाँ आई हूँ। बहु सचमुच तू अपने नाम को सार्थक करती है, अपने नाम के अनुसार तुझ में गुण भी विद्यमान् हैं / तू सचमुच गुणों की अवलि है। इसके साथ साथ तूं कुलीन और विनयवती भी है। जब-जब तेरे मुख से मधुर वचन निकलते हैं, तब-तब ऐसा लगता है मानो अमृत का झरना बह रहा हो। जैसे चंद्रमा से अमृत् निकलने में, कमलपुष्प में से सुगंध फैलने में, गन्ने में से मधुर रस निकलने में और चंदन में से शीतलता प्रकट होने में कोई आश्चर्य नहीं होता, वैसे ही तेरे मुखरूपी कमल में से मधुरवाणी रूपी अमृत निकलने में कोई आश्चर्य नहीं होता / बहू, तू स्वभावत: मधुरभाषी हे, विनयवती है और सेवाभावी भी है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र प्रिय बहू, तूं करोडों वर्षों का जीवन पा ले ! तूं मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है। इसलिए तेरे मन में जो अभिलाषा हो, वह मेरे पास नि:संकोच होकर कह दे। यदि कभी मेरे पुत्र ने तुझे किसी तरह परेशान किया, तो मुझे बता दे। मैं उसको कड़ी उलाहना देकर तेरे लिए अनुकूल कर दूंगी। मैं तो यह मानती हूँ कि तुम दोनों समान सुखीपभोगी हो। मैं तो तुझे अपनी पुत्री ही समझती हूँ। आखिर तुम दोनों के सिवाय संसार में मेरा अपना है ही कौन ? तुम दोनों को सुखी देख कर मेरी आँखे तृप्त होती हैं / तुम दोनों को देखते रहने से ही मैं जीवित हूँ।" दुर्जन प्रवृत्ति के मनुष्य की बातें शहद जैसी मीठी होती हैं, लेकिन उसके हृदय में हलाहल विष भरा हुआ होता है। इसलिए किसी की बहुत मीठी-मीठी बातों का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए / दुर्जन अपना स्वर्थ सिद्ध करने के लिए सामने होनेवाले मनुष्य को पूरे विश्वास में लेने के लिए उसके आगे मीठी-मीठी बातें करके उसे अपने वश में कर लेता हैं / कटु बोलनेवाला सज्जन मनुष्य मीठी बातें करनेवाले दुर्जन से कई गुना अच्छा होता है ! भोली-भाली और सज्जन गुणावली को अपने मायाजाल में फँसाने के लिए मीठी-मीठी बातें करके उसे अपने वश में कर लेने के लिए वीरमती प्रयत्नशील थी। अब अपनी मिठासभरी बातें जारी रखते हुए वीरमती ने गुणावली से आगे कहा, “बहू, तेरे आचार-विचार और व्यवहार को देख कर मेरे मन में पूरा विश्वास हो गया है कि तू मेरी आज्ञा का कभी उल्लंघन नहीं करेगी। अब मैं तुझे खुल्लमखुल्ला बताती हूँ कि यदि त मेरे अनुकूल बर्ताव करेगी और मेरे कहने के अनुसार काम करेगी, तो मैं अपने पास होनेवाली अलौकिक विद्याएँ तुझे ही प्रदान कर जाऊँगी। मेरे पास जो दिव्य और अलौकिक शक्तियाँ हैं, उन्हें तू अपनी ही शक्तियाँ समझ ले!" ऐसी बातें कह-कह कर वीरमती गुणावली को ठगने की कोशिश में लगी हुई है। बिलकुल सरल स्वभाववाली गुणावली अपनी सौतेली सास की कुटिलता और बुरे इरादों को समझ नही पाई / सरल स्वभाववाला मनुष्य सबको सरल स्वभाव का ही समझता है। इसी कारण गुणावली को वीरमती की कही हुई सारी बातें बिलकुल सच लगी। गुणावली की दासियों और सखियों ने सोचा कि सास-बहू शायद गुप्त बातें कर रही हैं, इसलिए हमें यहाँ नहीं रूकना चाहिए। इसलिए वे सब एक-एक कर के वहाँ से चली गई। अब वीरमती ने अच्छा अवसर देखा कि एकान्त है, यहाँ कोई दिखाई नहीं देता है। इसलिए उसने गुणावली के कानों में मीठा जहर घोलना प्रारंभ किया। उसने गुणावली से कहा, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र "मेरी प्रिय बहू, तू राजकुमारी है। मेरा पुत्र तेरा पति है। लेकिन तेरा जीवन पराधीन है। ‘पराधीन सपनेहूँ सुख नाहिं !' पराधीन को प्रसन्नता कहाँ से मिलेगी ? इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि तेरा जीवन तो भाररूप है। भले ही तू बड़े राजा की रानी है, लेकिन तेरा जीवन पराधीनता की बेड़ियों से जकड़ा हुआ है / मुझे तेरे जीवन में कोई आनंद नहीं दिखाई देता वीरमती के मुख से ऐसी उल्टी-सीधी बातें सुन कर आश्चर्यचकित हुई गुणावली झट से बोली, “माताजी, आप ऐसी अघटित-अनुचित बातें क्यों बोल रही हैं ? मुझे तो अपना जीवन बिलकुल भाररूप और पराधीन नहीं लगता है। आपकी और आपके पुत्र की छत्रछाया में मुझे किसी बात की कमी नहीं है। मैं सभी प्रकार से सुखी हूँ। मेरे मन में किसी तरह असंतोष नहीं है, मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ। उत्तम हाथी, सोने के रथ, अश्वरत्न, सुवर्ण और रत्नों के आभूषण, उत्तमोत्तम वस्त्र, रहने के लिए सात मंजिलोंवाला प्रासाद, सेवा के लिए सेकड़ों दास-दासियाँ जो मेरी हर आज्ञा का पालन करने को निरंतर उद्यत हैं - ये सारी बातें विद्यामान होते हुए मुझे किस बात का आभाव है ? मुझ पर आप जैसी माता और आपके पुत्र का पूरा प्रेमभाव है। इतना सब होने पर अब मुझे और क्या चाहिए ? माताजी, यहाँ मैं पानी माँगती हूँ, तो दूध मिलता है; आँख का इशारा करती हूँ तो दासियाँ हाथ जोड़ कर सेवा में उपस्थित हो जाती हैं ! माताजी, मैं मानती हूँ कि इस पृथ्वी पर मुझ जैसी सुखी स्त्री अन्य कोई नहीं होगी!" / गुणावली की बातें सुन कर कुटिल स्वभाव की वीरमती गुणावली का हाथ पकड़ कर बोली, “बहू, तू सचमुच बड़ी सरलस्वभाव की स्त्री है। इसीलिए मेरे कहने का भाव तेरी समझ में बिलकुल नहीं आया। संसार में चतुराई ही मुख्य होती है / मूर्ख मनुष्य धनवान् और रूपवान् होते हैं, लेकिन चतुराई के बिना वे भी अपना इच्छित कार्य सिद्ध कर लेने में समर्थ नहीं होते हैं / तू तो सिर्फ अच्छे-अच्छे वस्त्रालंकार पहनने और मधुर बोलने में ही सबकुछ मानती है। लेकिन मुझे तुझ में चतुराई बिलकुल नहीं दिखाई देती है। तू भले ही अपने को चतुर मान ले, यह समझ ले कि 'मैं अनेक बातों में निपूर्ण हूँ, सभी बातों की जानकार हूँ, बुद्धिशाली हूँ, लेकिन सच बात तो वह है कि मुझे तुझ में और पशु में कोई अंतर नही दिखाई देता है। मुझे तो तेरा जीवन पशु के जीवन से भी बदतर लगता है, तुच्छ प्रतीत होता है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वीरमती की ये बातें सुन कर विचारमरन हुई गुणावली बोली, “माताजी, क्या मुझसे कोई गलत काम हुआ है ? क्या मैंने ऐसा कोई अकार्य किया है कि आप मुझे इस तरह मूर्ख समझ कर बोल रही हैं ?" अब हाथ जोड कर विनम्रता से गुणावली ने कहा, “माताजी, अनजाने में अगर मुझ से कोई अपराध हुआ हो तो आप मुझे क्षमा कीजिए / मुझे तो आपकी बातें समझ में ही नहीं आ रही है कि आज आप ऐसा क्यों कह रही है ? बालक तो माता के सामने हरदम अज्ञान ही होता है / आप इस द्रष्टि से मुझे अज्ञान, मूर्ख, भोली मानती हैं, तो ठीक है, मुझे कोई शिकायत नहीं है / लेकिन माताजी, मेरा जीवन बिलकुल घृणापात्र या व्यर्थ नहीं है। मुझे तो अपना जीवन पूरी तरह आनंदमय लगता है। अपने जीवन को साफ और पवित्र रखने के लिए आवश्यक चतुराई मुझ में अवश्य है / अन्य कोई पुरुष मुझे दिखाई नहीं देता हैं। ऐश्वर्य और सुखसंपत्ति की दृष्टि से -- देखिए तो मेरे लिए कोई न्यूनता नहीं हैं / ऐसी मेरी सभी सुखों से परिपूर्ण स्थिति होने पर भी आप मुझे पशु से भी हीन क्यों समझती है, यह मेरी समझ में बीलकुल नहीं आता है !" गुणावली की बातें सुन कर बडी गंभीरता से वीरमती ने उससे कहा, “प्रिय बहू तेरे मन में बड़ा गर्व है कि मेरे पति के समान अन्य पुरुष इस संसार में नहीं है।" तूने अपने पति से बढ़ कर होनेवाला कोई अन्य पुरुष अभी देखा ही नहीं, इसलिए तू ऐसा कह रही है। तेरी स्थिति तो बिलकुल कुएँ में पडे हुए मेंढ़क की तरह हैं / उस बेचारे को समुद्र की विशालता का अनुभव कभी मिलता ही नहीं है, और वह मान बैठता है कि यह कुआँ ही समुद्र है . नपुंसक होनेवाले पुरुष को रतिसुख की बात क्या समझ में आएगी ? जिसने कभी अंगूर चखा ही नहीं, उसे अंगूर के स्वाद की कल्पना कहाँ से होगी ? जिसने सम्यक् ज्ञान की सहायता से आत्मांनद को नहीं जाना, उसे तो भौतिक (सांसारिक) सुख ही उत्कृष्ट लगते हैं। जिसने कभी परमानंद का अनुभव नहीं किया, उसे तो विषयसुख ही रमणीय लगता है। जिसने जीवन में कभी घी नहीं देखा, उसे तो तिल का तेल ही मीठा जंचता है। नगरों की शोभा का ज्ञान जंगल में रहनेवाले जंगली मनुष्य को कहाँ से होगा ? जिसने कभी महल देखा ही नहीं, उसे घासफूल की बनी झोंपडी ही अच्छी लगती है / आँखों पर निरंतर ढक्कन होनेवाले तेली के कोल्हू मे जुते बैल को विश्व के विविध वृत्तांतों का पता कैसे चल सकता है ? बहू तेरी स्थिति बिलकुल ऐसी ही है। तूने अभी तक अपने अंत:पुर और आभानगरी के सिवाय देखा ही क्या है। तेरी अवस्था बिलकुल कूपमंडक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र , 33 जैसी है / अन्यथा जगत में एक से एक बढ़ कर ऐसे पुरुष विद्यमान है कि उनको देख कर देखनेवाले का मस्तक आनंद की मस्ती से नाच-नाच उठेगा / महल के एक कोने में पड़ी रहनेवाली तुझे इन सारी बातों का क्या और कैसे पता होगा ? तू तो अज्ञान के आनंद में तल्लीन है।" अपनी सास की ये लम्बी-चौड़ी बातें सुन कर प्रसन्नचित गुणावली ने सास से कहा, "माताजी, आप कभी ऐसा मत बोलिए। आकाश में रात के समय करोडों तारे चमकते हैं, फिर भी रात्रि की शोभा तो चंद्रमा से ही होती है। जंगल में सियार गीदड़ तो अनेक होते है, लेकिन उनकी सिंह से तुलना नहीं हो सकती। जंगल में मृग (हिरन) तो सेकडों होते हैं लेकिन कस्तूरी किसी कस्तूरीमृग की नाभि में ही विद्यमान् होती है। उसी तरह कहाँ आपके प्रिय पुत्र और मेरे पतिदेव राजा चंद्रकुमार और कहाँ अन्य पुरुष ? मैं तो आपके पुत्र के सिवाय अन्य पुरुषों को उनके नाखून की बरा-बरी का भी नहीं मानती हूँ। जिसके महल के सामने गजरत्न झूम रहे हो, उसे गधा देखना कैसे पसंद आएगा ? जिसके आँगन में कल्पवृक्ष हो, उसे रेंडी का पेड़ देखना क्या अच्छा लगेगा ? आपके प्रिय पुत्र को पति के रूप में पाकर में अपने जीवन को सार्थक मानती हूँ। मेरे तो वे ही सबकुछ हैं। मेरे लिए वे ही कामदेव है और वे ही परमात्मा है। क्या आपने कभी यह नहीं सुन कि हर मनुष्य को अपने सामने-निकट-होनेवाली वस्तु ही प्रिय लगती | अपनी बहू के ये वचन सुन कर वीरमती ने कहा, "तेरा यह कहना बिलकुल सत्य है कि मेरा पुत्र चंद्र लावण्यादि गुणों की दृष्टि से अनुपम है। मैं यह बात स्वीकार करती हूं। पति चाहे जैसा क्यों न हो, कुलीन स्त्री के लिए तो वही उसका सर्वस्व होता है, सबकुछ होता हैं। लेकिन बेटी यह 'वसुन्धरा बहुरत्ना' है। इस संसार में एक से बढ़ कर एक नररत्न पाए जाते हैं। जब तू मेरे साथ देशदेशांतर की यात्रा करेगी और घूम कर दुनिया देखेगी, तभी तुझे मेरी बात का सत्य प्रतीत होगा। जब तक तू इस आभापुरी में ही बसी हुई है और अपने पति को ही देखती रहती है, तब तक तुझे किसी बात की खबर नहीं होगी। तू वैसे ही कूपमंडक बनी रहेगी। - इसलिए देशाटन करना तेरे लिए श्रेष्ठ है। उसके बिना मुझे तेरा जीवन पशु समान ही लगता है। दूसरी बात यह है कि मुझ जैसी विविध अलौकिक विद्याओं से संपन्न सास को पाकर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र भी तूने देशभ्रमण न किया, तो तेरा जीवन सचमुच निरर्थक है / फिर यह अवसर कब आएगा ? मैं जानती हूँ कि तू अपने मन की बात कहने में संकुचा रही है। लेकिन मैं यह भी जानती हूँ कि तेरे मन में देशाटन के लिए जाने की, अनेक देश देखने की उत्कंठा निर्माण हुई है। / मैं चाहती हूँ कि तेरी यह उत्कंठा तुरन्त पूरी हो / बहू, मेरे पास आकाशगामिनी विद्या जैस अनेक विद्याएँ है / इस आकाशगामिनी विद्या के बल पर एक क्षण में लाखों योजन दूर जाना संभव है / लाखों योजनों की दूरी पर से कुछेक घंटों में ही वापस आना भी संभव ही नहीं बिलकुल आसान है। यह सब इस तरह आसानी से होगा कि किसी को पता भी नहीं चलेगा कि हम हजारों योजन दूर कब गई और वापस कब लौट आई! देशाटन करने से अनेक लाभ मिल सकते हैं। नए-नए प्रदेशों के निवासियों के आचार देखने को मिलेंगे। नए-नए प्रदेश देखने को मिलेंगे, नए-नए पर्वत, वन, समुद्र, नदियाँ देखना संभव होगा। नए-नए राजा-महाराज और राजकुमार देखने को मिलेंगे। यह सब अपनी आँखों से देखने से नित्य नया आनंद मिलेगा, ज्ञानवृद्धि होगी, चतुराई बढ़ेगी, अनुभवज्ञान वृद्धिगत होगा। ऐसी ज्ञानसंपन्नता पाने पर भविष्य में कभी कोई हमें ठग नहीं सकेगा, छलकपट नहीं कर सकेगा, धोखा नहीं दे सकेगा ! मेरी बहू, यहाँ राजमहल में रहने से तुझे अच्छी-अच्छी चीजें खाना, पीना और श्रेष्ठ वस्त्रालंकार पहनना-ओढना इसके सिवाय किस बात का ज्ञान है ? देशदेशांतर में भ्रमण करने से वहाँ की नई-नई चीजें देख कर जीवन सफल हो जाता है।" रानी वीरमती की जानबूझकर बार-बार कही हुई ये बातें सुनकर गुणावली का मन भ्रमित हुआ। अब वह मन-ही-मन सोचने लगी, सचमुच मेरा जीवन कूपमंडूक जैसा है। मेरा जीवन किसी पशु की तरह पराधीन है। संसार में कब और क्या होगा, कौन जानता है ? लेकिन एक राजा की रानी होने से राजमहल के बाहर कदम रखना भी क्या संभव हें ? अब मन-ही-मन भ्रमित और दुःखी हुई गुणावली ने सास से कहा, - “माताजी, आपका कहना बिलकुल सच है ! देशाटन करने से अद्दष्ट वस्तुओं के दर्शन होंगे, ज्ञान वृद्धिगत होगा, चातुर्य बढ़ेगा, नए-नए तीर्थक्षेत्रों की यात्रा होगी। ये सारी बातें मैं जानती हूँ। लेकिन क्या मेरे लिए राजमहल के बाहर पाँव रखना संभव है ? मन में इच्छा होने पर भी मैं कहीं बाहर नहीं जा सकती हूँ। मैं स्त्री जाति को पराधीनता को समझ सकती हूँ, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र लेकिन क्या किया जाए ? एक राजा की पटरानी होने से वैसे तो मुझे सभी बातों का सुख प्राप्त है, लेकिन मुझे इस बात का दु:ख भी है कि मैं अपने महल के बाहर मुक्त रीति से कदम नहीं रख सकती। पतिदेव से पूछे बिना या उनको अनजान रख कर कहीं जाऊँ तो उसका परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा। अगर मेरे पति मुझ पर क्रुद्ध हो गए तो मेरी क्या दुर्दशा होगी, आप अच्छी तरह जान सकती हैं / इसलिए पतिदेव की आज्ञा पाए बिना महल से बाहर निकलना मुझे पसंद नहीं है। मेरे ज्ञान के अनुसार इस दुनिया में पंछी, पवन और पुरुष-ये तीनों ही स्वतंत्र रीति से विचरण कर सकते हैं, लेकिन पराधीन स्त्री स्वतंत्र रीति से कहीं नहीं जा सकती!" वीरमती ने तुरन्त जान लिया कि बहू गुणावली के मन में देशाटन करके नई-नई चीजें देखने की इच्छा प्रबल रूप में जागी है। उसने मन में सोचा कि मैं जिस उद्देश्य से यहाँ आई थी, उसमें से आघा काम तो पूरा हो गया ! अब बाकी बचा हुआ काम उचित अवसर पाकर, यहाँ आकर पूरा कर लूँगी। यदि मैं इसी समय गुणावली पर बहुत दबाव डालूं, तो जो अभी कमाया, उस पर पानी फिर जाएगा, सब गड़बड़ हो जाएगा। उसे मेरे कपट का पता चलप जाएगा। _ 'धीरज का फल मीठा होता है / इस कहावत पर अमल करके इस समय अपने महल में लौट जाना ही अच्छा है। अवसर पाकर और फिर आकर, आज का अधूरा बचा हुआ काम पूरा कर लेने का संकल्प करके और गुणावली से विदा पाकर वीरमती अपने महल में लौट आई। कपटी मनुष्य कपट कला में कैसा प्रवीण होता है इसका आदर्श नमूना यह वीरमती है। महासती और अपने पति पर अपना सर्वस्व समर्पित करनेवाली गुणावली को वीरमती ने कैसे भ्रमजाल में फँसाया, यह इस उदाहरण में स्पष्ट दिखाई देता है। संगति का परिणाम कम या अधिक मात्रा में हुए बिना नहीं रहता है। कुछ दिन बीते / अवसर पाकर वीरमती फिर एक बार गुणावली के पास आ पहुँची। अब सास और बहू के बीच बहुत धीमां आवाज में बातें प्रारंभ हो गई। अपनी बहू को कपटजाल में फँसाते हुए सास वीरमती ने कहा, “हे भोली-भाली बहूं मेरी बेटी, क्या तू नहीं जानती है कि जो कार्य पुरूषों के लिए दुःसाध्य है, वही कार्य करने में स्त्रियाँ शक्तिमान होती हैं ? हरिहर ब्रह्मा भी स्त्रियों के अधीन हो गए थे। जितेंद्रिय मुनियों को स्त्रियों ने ही उनकी तप:साधना से भ्रष्ट कर दिया था। वास्तव में स्त्रियों को ऐसा पराक्रम कर दिखाना चाहिए कि महान् पुरुषों को भी अपनी पराजय स्वीकार कर लेनी पड़े ! स्त्रीचरित्र को जानने में कौन समर्थ है ? संसार में ऐसे पुरुष .... P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र बहुत कम है - बिरले ही हैं - कि जिन्हें स्त्रियाँ कभी जीत नहीं पाती है। बाकी सारे पुरुष तो कुछेक सेकण्डों मैं स्त्रियों के अधीन बन जाते हैं। - मेरी बेटी, स्त्री में अपार शक्ति होती है। इसलिए स्त्री को पुरुष से धबराने का कोई कारण नहीं है / जो अपने पति से डरती है उसका सारा जीवन व्यर्थ है-मेरी यह स्पष्ट राय है, समझी ? मेरी बहू, यदि तेरे मन में विश्वदर्शन करने की प्रबल इच्छा है, तो चंद्रकुमार का डर मन में से बिलकुल हटा दे। मेरे पास ऐसी अनेक विद्याएँ और मंत्र हैं कि उनके बल पर सारे विश्व को वश में करना तो मेरे लिए बाएँ हाथ का खेल ही समझ ले। तू मुझ पर पूरा विश्वास रख और जैसा मैं कहूँगी, वैसा कर ! मैं तेरा बाल भी बाँका नहीं होने दूंगी / तेरी सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी मेरी है, तू बिलकुल चिंता मत कर / तू बिलकुल निर्भय और निश्चित हो जा। तेरी सारी इच्छाएँ पूर्ण करने की सामर्थ्य मुझ में है। हम दोनों आज रात को आकाशगामिनी विद्या की सहायता से दूर-सुदूर देशों में जाकर सुबह होने से पहले ही फिर लौट आएँगी। इस बात की चंद्रकुमार को या अन्य किसी को खबर भी नहीं हो सकेगी। क्यों, फिर तैयार है न तू बेटी ?" इस पर गुणावली ने कहा, 'माताजी, यदि आप मेरी रक्षा करने के लिए इतनी जाग्रत हो, तो मुझे किसी से भय का कोई कारण नहीं है। यदि आप मुझे देश-देशांतर की नई-नई चीजें दिखाना चाहती हैं, तो मैं तैयार हूँ। सास के सभी गुणों से युक्त होनेवाली आप मेरे लिए देवी की तरह हैं। मैं सपने में भी आपकी आज्ञा का उल्लधन नहीं करूँगी। आप मुझे जहाँ ले जाना चाहती है, वहाँ आज की रात को आने को मैं बिलकुल तैयार हूँ / लेकिन आप पहले अपनी मंत्रविद्या के प्रभाव से अपने पुत्र को वश में कर लीजिए। इससे फिर वे कोई उपद्रव नहीं मचाएँगे और मुझ पर नाराज भी नहीं होंगे। क्या आप ऐसा करेंगी न माताजी ?' गुणावली की उपर्युक्त बातें सुन कर वीरमती ने सोचा, “अब पकड़ी गई है यह गुणावली मेरे मायाजाल में ! अब चिंता करने का कोई प्रयोजन नहीं है।" खुश होकर वीरमती ने गुणावली से कहा, "प्रिय बहू, मेरे पास अवस्वापिनी नाम की विद्या है। उस विद्या की सहायता से मैं सारी नगरी के सभी मनुष्यों को निद्राधीन कराने में समर्थ हुँ / फिर तेरे पति चंद्रकुमार को वश में करने में कौन सी बड़ी बात है ? तू चंद्रकुमार का भय मन में से बिल्कुल निकाल डाल / अब तू मेरी योजना सुन ले - तेरे मन में आज रात को देश P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र देशांतर की नई-नई चीजें देखने की इच्छा है न ? तो आज मैं उसके लिए तैयारी कर लेती हूँ। देख, यहाँ से 1800 योजन की दूरी पर विमलापुरी नाम की नगरी है। वहाँ मकरध्वज नाम का महान् पराक्रमी राजा राज्य करता है / इस राजा की प्रेमलालच्छी नाम की परम लावण्यवती इकलौती कन्या है / यह कन्या अपनी सुंदरता में स्वर्ग की सुंदर अप्सराओं को भी मात देती है . / इस सुंदरी प्रेमलालच्छी का विवाह आज रात रिहलपुर नगर के राजा के पुत्र कनकध्वज के साथ संपन्न होनेवाला है। यह विवाह महोत्सव बहुत ही देखनेयोग्य है / आज रात को हम दोनों आकाशगामिनी विद्या की सहायता से इस विमलापुरी में यह अपूर्व विवाह-महोत्सव देखने जाएँगी। इसके लिए अब तू तैयारी कर ले।"वीरमती की नमकमिर्च लगा कर कही हुई बातें सुन कर गुणावली के मन में यह विवाह महोत्सव देखने की लालसा बहुत प्रबल हो उठी, उसने प्रसन्नता से वीरमती से कहा, “सचमुच माताजी, आपके गुणों का कोई पार नहीं है / आपकी शक्ति अद्वितीय है, अलौकिक है, दिव्य है ! आप जैसी सास तो उसी को मिल सकती है, जिसने अपने पूर्वजन्म में बहुत बड़ा पुण्य संचय किया हो / मेरा महान् भाग्य है कि मुझे आप जैसी साक्षात् वात्सल्यमूर्ति और मातातुल्य सास मिली है। आपने विमलापुरी के जिस विवाहमहोत्सव को देखने की बात कही है, उसके लिए आपके साथ आने को मैं बिलकुल तैयार हूँ। मेरे मन की यह प्रबल लालसा पूर्ण करने में आप कल्पवृक्ष के समान हैं। लेकिन मेरे मन में एक बात का संदेह है कि मैं आज रात को राजमहल में से निकल कर आपके साथ विमलापुरी किस तरह आऊँ ? आपके पुत्र और मेरे पति राजा इस समय राजसभा में चले गए हैं। संध्यासमय तक वे राजसभा में ही रहेंगे। संध्यासमय तक अपने कार्य पूरे करके वे एक प्रहर रात बीत जाने के बाद मेरे महल में पधारेंगे। फिर एकाध प्रहर तक मेरे साथ हँसी-विनोद करके आधी रात के समय वे सो जाएँगे। आधी रात के बाद एक प्रहर तक सोकर फिर रात के आखिरी प्रहर में तो वे जाग जाते हैं / इसलिए मुझे तो रात के समय महल से बाहर निकलने का अवसर ही नहीं मिल पाएगा। इसलिए मैं रात को आपके साथ कब और किस तरह आऊँ इसके बारे में आप ही मुझे बताइए।" गुणावली ने जब अपनी सास वीरमती को अपने मन की यह व्यथा कह सुनाई, तो वीरमती बोली, “बहू, तू इसके बारे में बिलकुल चिंता मत कर / जैसा मैं कहूँ, वैसा कर / अब P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र तू मेरी अपूर्व विद्या का चमत्कार देख ले / मैं इसी समय तुझे वह चमत्कार बताती हूं। इस चमत्कार के कारण तेरा पति राजा चंद्र निश्चित समय से पहले ही राजसभा में से उठ कर तेरे महल में आ जाएगा। फिर अपने मंत्रप्रयोग से मैं उसे सुला दूंगी। उसके खर्राटे भरना शुरु करते ही तू तुरन्त मेरे पास चली आ। बाकी सब मैं संभाल लूँगी, समझी ?" इस प्रकार गुणावली के साथ गुप्त रीति से परामर्श कर के वीरमती अपने महल में लौट आई / इधर गुणावली अपने महल में अकेली रहने पर अपने मन में सोचने लगी कि क्या सचमुच मेरी सास के पास ऐसी चमत्कारी विद्याएँ होंगी ? बातें तो वे बहुत लम्बी-चौड़ी करती हैं, लेकिन मुझे उनकी बातों में विश्वास नहीं होता है / खैर, यदि आज मेरे पति राजसभा में से सचमुच ही निश्चित समय से पहले लौट आए, तो फिर मैं सासजी की बातों का विश्वास कर लूंगी। जब अपने महल में अकेली बैठी हुई गुणावली मन में इस प्रकार से तर्कवितर्क कर रही थी, तब इधर वीरमती अपने महल में ध्यानस्थ अवस्था में बैठकर किसी विद्या की साधना कर रही थी। कुछ देरतक ध्यानस्थ अवस्था में बैठकर मंत्र का जप करने के बाद एक देव उसके सामने आकर खड़ा हुआ। उसने वीरमती से पूछा, “हे रानी, तुम किस लिए मेरी आराधना कर रही थी ?' वीरमती ने कहा, “हे देव! मैंने बिना किसी प्रयोजन के तुम्हें यहाँ आने का कष्ट नहीं दिया है। तुम्हें यहाँ बुलाने का प्रयोजन यह हैं कि मैं चाहती हूँ कि आज तुम ऐसा कोई उपाय करो कि जिससे मेरा पुत्र राजा चंद्र पहले निश्चित किए हुए समय से पहले ही राजसभा विसर्जित कर तुरन्त अपनी पत्नी गुणावली के महल में लौट आए।" वीरमती की बात सुन कर देव ने कहा, “क्या तुमने मुझे इसी काम के लिए ही यहाँ बुलाया है ? यह काम तो मेरे लिए बाएँ हाथ का खेल है ! मैं अभी तुम्हारा इच्छा के अनुसार ऐसा उपाय करता हूँ जिससे तुम्हारा पुत्र राजा चंद्रतुरन्त राजसभा विसर्जित कर गुणावली के महल में लौट आएगा।" वीरमती से यह बात कहते-कहते ही देव ने अपनी दिव्य शक्ति के प्रयोग से सारा आकाशमंडल काली-काली घनघोर घटाओं से भर दिया / आकाश में बादल जोर-शोर से गरजने लगे। बिजली की चकाचौंध से आकाश भर गया। आकाश में काले बादल छाए हुए देख कर और उनकी गर्जना सुन कर आनंदित हुए मोर नृत्य करने लगे। अचानक धुआंधार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वर्षा प्रारंभ हुई / धरती पर सर्वत्र पानी-हो-पानी फैल गया। नगरी में रास्तों पर से आनेजानेवाले लोगों में भगदड़ मच गई। सब लोग भागते हुए अपने-अपने घरों में घुस गए। ___ वातावरण में अचानक आया हुआ यह परिवर्तन देख कर चंद्र राजा ने अपनी राजसभा का काम तुरन्त रोक दिया और वह सूर्यास्त होने से पहले ही गुणावली के महल में लौट आया / अपने पतिदेव को अचानक इतनी जल्द महल में लौट आते हुए देख कर गुणावली मन-हीमन अत्यंत आश्चर्यान्वित हुई। यह सारा चमत्कार देख कर अब गुणावली को अपनी सास की बातों पर विश्वास हो गया। / पति को आते देख कर दोनों हाथ जोड़ कर पति का स्वागत करते हुए गुणावली ने कहा, “हे स्वामिनाथ, आज आप राजसभा में से जल्द लौट आए है, इससे मुझे अत्यंत हर्ष हुआ है। लेकिन है प्रिय, आपके मुँह पर उदासी क्यों दिखाई दे रही है ?" इस पर राजा चंद्र ने कहा, “प्रिय, प्रसन्नता हो भी कैसे सकती है ? ऐसी घुआँधार वर्षा और वातावरण में हुए परिवर्तन के कारण राजसभा का काम समय से पहले ही रोक देना पड़ा। इससे मेरा स्वास्थ्य ठीक नही है, कँपकँपी हो रही है।" राजा की बात सुन कर गुणावली ने तुरन्त सुकोमल शय्या सजाई। राजा शय्या पर बैठ गया / गुणावली ने कस्तूरी आदि से मिश्रित सुगंधित तांबूल राजा को खाने के लिए दिया / उसने सुगंधित मसालों से युक्त दूध गर्म कर राजा को पीने के लिए दिया। उसने नारायण तेल आदि से राजा के शरीर को मालिश किया। इससे राजा के शरीर की कँपकँपी नष्ट हो गई और राजा के शरीर में फिर से गरमी आई / गुणावली ने ऐसी कुशलता से शय्या पर लेटे हुए राजा चंद्र का शरीर दबाया कि राजा निद्राधीन होने लगा। आज गुणावली का चित्त विमलापुरी जाने की चिंता से चचंल हो गया था। इसलिए वह बार बार शय्या पर लेटे राजा की ओर देख रही थी कि वह सो गया है या अभी जाग रहा है। धीरे-धीरे संध्या समय हुआ। लेकिन संध्या समय राजा को नींद आए भी कैसे ? गुणावली की चंचलता को राजा ने भाँप लिया। वह मन में सीचने लगा कि आज मेरी रानी इतनी चंचल क्यों दिखाई देती है ? मन मैं आशंका निर्माण होते ही राजा ने आँखें बंद कर ली और नींद का दिखावा करते हुए वह शय्या पर लेटा रहा / लेटे-लेटे राजा सोचने लगा कि आज मेरी सुशीला P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र गुणावली किसी दुःशीला स्त्री की तरह वर्तन क्यों कर रही है ? ऐसा लगता है कि वह किसी कं कुसंगति में फँसी हुई है / कुसंगति में पड़ कर कौन भ्रष्ट नहीं होता हैं ? दुर्बुद्धि से मनुष्य बुर बर्ताव करता है और बुरे बर्ताव से मनुष्य दुःख का भाजन बन जाता है। ऐसा जान पड़ता है कि रानी गुणावली किसी के प्रेमजाल में फंस गई है / अगर ऐसा न होता, तो क्या उसका ऐस बर्ताव होता ? उसकी अति चंचलता से लगता है कि वह कहीं जाने के लिए उतावली हो गई गुणावली की लीलाएँ देखने के उद्देश्य से राजा बनावटी निद्रा की मुद्रा में सो गया। राजा का निद्रा का दिखावा ऐसा सही था कि गुणावली समझ गई कि राजा गाढी नींद सो रहा है। मौका पाकर गुणावली ने इधर-उधर द्रष्टि दौड़ाई और कोई देख नहीं रहा है, इस बात का विश्वास होने पर वह राजा की शय्या के निकट से उठी। धीरे से उसने महल का दरवाजा खोला और वह बाहर निकल आई। गुणावली के बाहर निकल जाने का विश्वास होते ही राजा शय्या पर से उठा और हाथ में तलवार लेकर रात के अंधेरे में गुणावली का पीछा करने लगा। अंधेरे के कारण गुणावली मन में निर्भय थी। वह मन में समझ रही थी कि मेरी कोई बात राजा समझ भी नहीं पाया है। इधर राजमाता वीरमती बहुत देर से गुणवली की प्रतीक्षा कर रही थी। अचानक दूर से गुणावली को अपनी ओर आते देख कर उसका मन हर्ष से नाच उठा। अपनी विद्या के गर्व से उसकी छाती फल गई, उसका मन अभिमान से भर गया। गुणावली वीरमती के पास आई और उसने वीरमती से कहा, “माताजी, आपने तो बहुत बड़ा चमत्कार कर दिखाया है। मैं आपकी आज्ञा के अनुसार मेरे पतिदेव को सुला कर आपके पास आ गई हूँ। अब जो करना हो, खुशी से कीजिए। लेकिन पतिदेव के जागने से पहले हम लौट आएँ, ऐसी सावधानी रखिए। इससे उनकी समझ में हमारी यह ‘यात्रा' नहीं आ पाएगी।" . इधर वीरमली के महल के एक कोने में गुप्त रीति से खड़ा हुआ राजाचंद्र सास और बहु के बीच चल रहा यह गुप्त वार्तालाप बड़े ध्यान से सुन रहा था। वीरमती ने गुणावली को समझाया, "प्रिय बहु, तू महल के पीछे होनेवाले उद्यान में से कनेर के पेड की एक छोटी पताली छड़ी ले आ। मैं तुझे वह छड़ी उस पर मंत्र डाल कर दे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 41 दूंगी। तू उस मंत्रित छड़ी से तीन बार अपने पति के शरीर को स्पर्श कर इससे सुबह तक तेरा पति नींद से जागेगा ही नहीं। सास की आज्ञा के अनुसार गुणावली महल के पीछे स्थित उद्यान में गई और कनेर के पेड़ की पतली छोटी छड़ी ले आई।उसने वह छड़ी सास के हाथ में दे दी। सास ने उस छड़ी को मंत्रित कर के वह छड़ी फिर गुणावली को दे कर कहा, "ले, यह छड़ी। अब तू तेरे महल में चली जा और इस छड़ी से तेरे सोए हुए पति को तीन बार स्पर्श कर के तुरन्त लौट आ जा।" इधर राजा चंद्र ने छिप कर सार-बहु की ये सारी बातें सुनी थी। इसलिए वह तुरन्त वहाँ से छिप कर चल निकला और गुणावली के महल में जा कर उसकी बनाई सुकोमल शय्या पर पहले की तरह सो गया / अर्थात उसने सो जाने का दिखावा किया / कुछ ही देर बाद गुणावली तेजी से वह कनेर की मंत्रित छड़ी ले कर अपने महल में आ पहुँची। पतिदेव को गाढ़ी. नींद सोते देख कर वह बिल्ली की तरह धीरे-धीरे कदम उठाते हुए पतिदेव की शय्या के पास आ गई। उसने साहस करके उस छड़ी से राजाचंद्र के शरीर को तीन बार स्पर्श किया। कितना बडा साहस किया था गुणावली ने ? जहाँ स्वार्थ सिद्ध होनेवाला होता है वहाँ साहस, शौर्य, शक्ति अपने आप प्रकट होते हैं। राजा चंद्र ने नींद का तो बस दिखावा ही किया था। उसने गुणावली को जो कुछ करना था, वह सब करने दिया। आँखे मूंदी हुई रख कर वह गुणावली का सारा नाटक देखता जा रहा था / गुणावली ने सास वीरमती के कहने के अनुसार तीन बार उस कनेर की मंत्रित छड़ी से पतिदेव के शरीर को स्पर्श किया और वह तुरन्त वहाँ से भाग कर वीरमती के पास लौट आई। अब राजा चंद्र पूरी तरह समझ गया कि मेरी पत्नी गुणावली अपनी सास वीरमती की आज्ञा के अनुसार सबकुछ कर रही है। _बड़ा विकट कार्य सफलतापूर्वक पूरा कर गुणावली लौट आई थी, इसिलिए सास. वीरमती ने उसके पराक्रम की जी भर प्रशंसा की और उसकी पीठ ठोकी / गुणावली के महल से बाहर निकलते ही चंद्रराजा भी अपनी दिखाने की नींद त्याग कर झट आसन पर से उठा और अपनी तलवार लेकर गुणावली के पीछे-पीछे उसकी नज़र बचा कर गुप्त रीति से वीरमती के महल के पास आ पहुँचा / वह वीरमती के महल के दरवाजे के निकट छिप कर ऐसा खड़ा रहा कि अंदर सासबहू के बीच अगली योजना के बारे में जो परामर्श चल रहा था, वह सब सुनाई दे। राजा कान देकर दोनों के बीच अंदर चल रही सारी बातें सुनता जा रहा था। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र गुणावली ने मंत्रित छडी अपनी सास के हाथ में दे कर कहा, “माताजी, यह काम तो सफलता पूर्वक पूरा करके पतिदेव की और से नि:शंक बन कर मैं यहाँ आ पहुँची हूँ। लेकिन अब भी मेरे मनको नगरजनों का भय सता रहा है। हम दोनों को रात के समय महल से बाहर निकलते हुए किसी ने देख लिया और यह बात राजा तक पहुँची तो मैं तो मारी जाऊँगी, कहीं की न रहूंगी। इसलिए इस भय के निवारण का कोई उपाय हो, तो आप वह अवश्य बता दीजिए . गुणावली का भय जानकर वीरमती ने उससे कहा, "प्रिय बहू तू बारबार व्यर्थ ही घबरा रही है। मेरा तो सारा जीवन ऐसे ही काम करते करते बीता है अब में ऐसा चमत्कार कर दिखाऊँगी कि उसे जो लोग अपने घरों के बाहर होंगे वे निद्रादेवी के इतने अधीन हो जाएँगे कि वहीं के वहीं निश्चेष्ट होकर गाढी नींद सोने लगेंगे। सुबह होने तक वे निद्रा में से जागेंगे ही नहीं / कोई इन सोए हुए लोगों के पास ढोल बजाए, तो भो वे अपनी आँखें खोल नहीं सकेंगे।" वीरमती के मुँह से ये बातें सुन कर चंद्र राजा एकदम घबरा-सा गया। लेकिन क्षणिक घबराहट के बाद उसने सोचा, “अरे, मैं तो महल के अंदर खड़ा हूँ। मैं कहीं घर के बाहर रास्ते पर नहीं हूँ। इसलिए मुझ पर मेरी माता की विद्या का असर नहीं होगा। . वीरमती ने अपनी विद्या के प्रयोग से गधी का रूप धारण कर लिया / गधी के रूप में आने पर उसने ऐसी भयंकर आवाज निकाली वह ऐसे रेंकी कि अपने-अपने घरों से बाहर रास्ते पर होनेवाले सभी नगरजन तुरन्त निश्चेष्ट होकर निद्रादेवी के अधीन हो गए। आभापुरी के नगरजनों को रास्तों पर ही अवस्वापिनी निद्रा से मूर्च्छित कर वीरमती गुणावली को साथ लेकर महल से बाहर निकली और नगर के रास्ते पर से होती हुई तेजी से नगर के बाहर स्थित उद्यान में आ पहुंची। वीरमती और गुणावली के पीछे-पीछे चंद्र राजा भी अंधेरे में हाथ में तलवार लेकर, उन दोनों की नजरों से बचता हुआ और छिप-छिप कर चलता हुआ नगर के बाहर वाले उद्यान में आ गया। वह वहाँ एक पेड़ की ओट में छिप कर सास-बहू की अब आगे क्या कार्रवाई चलती है, यह देखने लगा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र / वीरमती ने गुणावली से कहा, 'देख बहू, सामने जो छतनार आम्रवृक्ष दिखाई देता है, उसकी डाली पर बैठ कर अब हमें आकाशगामिनी विद्या की सहायता से विमलापुरी जाना है। इस आम के पेड़ की डाली पर बैठते ही यह पेड़ वायुगति से उड़ेगा और हम दोनों एक क्षण में विमलापुरी के उद्यान में पहुँच जाएँगी / चालाक चंद्र राजा इन दोनों सास-बहू के उस पेड़ के पास जा पहुँचने से पहले ही अंधेरे में तेजी से उस पेड़ के पास पहुँच कर पेड़ की पोल में घुस कर चुपचाप बैठ गया। पेड़ के उस कोटर (पोल) में छिप कर बैठे-बैठे राजा चंद्र विचार करने लगा कि सचमुच मेरी गुणावली गुणावली ही है। मैंने आज तक उसमें कभी कोई दुर्गुण नहीं देखा / लेकिन सरल स्वभाव की होने से वह मेरी माता के कपटजाल में बराबर फँस गई है / मेरी माता के कहने से उसकी बुद्धि फिर गई है। अब ये दोनों मिलकर आगे क्या करती हैं यह देखता जाऊँगा। चंद्र राजा मन में यह सोच ही रहा था कि इतने में सास और बहू, दोनों आम के पेड़ के पास आ पहुँची / मन में तय किए हुए पेड़ पर दोनों चढ़ी। तब वीरमती ने अपने हाथ में होनेवाली मंत्रित कनेर की छड़ी से पेड पर जोर से प्रहार किया। प्रहार होते ही पेड़ अपना स्थान छोड़ कर वायुयान की तरह आकाश मार्ग से विमलापुरी की ओर उड़ा। उन दोनों के साथ-साथ उसी पेड़ के कोटर में पहले ही छिप कर बैठा हुआ चंद्र राजा भी उड़ा / जैसे जीवों का केवलज्ञान केवलज्ञानावरण से आच्छादित होता है, वैसे हो राजा चंद्र भी पेड़ के कोटर के आवरण से आच्छादित था। कोटर के अंदर छिपा हुआ होने से चंद्र राजा बाहर की दुनिया देखने में समर्थ नहीं था। लेकिन वीरमती और गुणावली खुले आकाश में चंद्रमा की ज्योत्स्ना के प्रकाश में विविध नगरों वनों-उपवनों की शोभा का अवलोकन कर रही थीं। आम का पेड़ आकाशमार्ग से वायु से भी अधिक गति से आगे की ओर बढ़ता जा रहा था। वीरमती गुणावली को विशिष्ट देखने योग्य स्थानों का परिचय कराती जा रही थी। ऐसे ही आकाशमार्ग से चलते-चलते नीचे गंगा नदी दिखाई दी। सास वीरमती ने बहू गुणावली से कहा, “देख, नीचे परमपावनी गंगा नदी बह रही है। देख, अब यह कालिंदी (यमुना) नदी है। इस नदी का पानी नीले (काले) रंग का और निर्मल है। इतने में मार्ग में अष्टापद तीर्थक्षेत्र आया। वीरमती गुणावली को इस तीर्थक्षेत्र का परिचय कराती हुई बोली, “प्रिय बहू, देख, यह नीचे अष्टापद तीर्थक्षेत्र है। यहाँ कई बार ऋषभदेव भगवान पधारे थे। यहाँ देवताओं P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र ने अनेकबार समोवसरण की रचना की थी। भगवान ने यहाँ से अनेक बार धर्मदेशना दी थी - धर्मोपदेश किया था। भगवान का इस तीर्थक्षेत्र पर ही निर्वाण हुआ। यहीं पर भगवान के ज्येष्ट पुत्र चक्रवर्ति भरत ने सुवर्ण का बना रत्नजटित बड़ा मंदिर बँधाया था। यह मंदिर आकाश की ऊँचाई से प्रतिस्पर्धा करते हुए कैसे शोभित हो रहा है ! इस मंदिर के गर्भगृह में पूर्व दिशा में ऋषभदेव और अजितनाथ भगवान की रत्नजटित प्रतिमाएँ हैं / दक्षिण दिक्षा में संभवनाथ स्वामी आदि चार जिनेश्वरदेवों की रत्नजटित प्रतिमाएँ हैं, पश्चिम में सुपार्श्वनाथ स्वामी आदि आठ तीर्थकर देवों की और उत्तर दिशा में धर्मनाथस्वामी आदि दस तीर्थकर देवों की रत्नमय प्रतिमाएँ हैं / इन चौबीसों तीर्थकर देवों की समचतुरस्त्र उपनिवेश की, प्रशमरसमग्न और शिवसुंदरी का मंगल संदेश सुनानेवाली ये प्रतिमाएँ कितनी शोभायमान हो रही है, देख ले! इसी तीर्थक्षेत्र पर राजा रावण अपनी पटरानी मंदोदरी के साथ आया था। उसने भगवान के आगे भक्तिनृत्य कर तीर्थकर नामगोत्र बाँध लिया था। देख, इस पर्वत के आसपास वलयाकर में गंगा का पवित्र जल कलकल करता हुआ बहता जा रहा है। इस तीर्थक्षेत्र की यह सारी शोभा अपनी आँखों में भर ले।" आम्रवृक्ष वायुवेग से आकाशमंडल में आगे की ओर बढ़ता जा रहा था। बीच रास्ते में नीचे सम्मेतशिखर तीर्थक्षेत्र आया। वीरमती ने गुणावली का ध्यान उस ओर आकर्षित करते हुए कहा, ___ "प्रिय बहू, यह नीचे दिखाई दे रहा है न, यह तरणतारण (सब का उद्वार करनेवाला) सम्मेतशिखर तीर्थक्षेत्र है। उसकी वंदना कर ले। अब तक हुए सतरह (17) तीर्थकरों ने यहीं निर्वाण पाया है और बाकी बचे तीन तीर्थकर भी यहीं निर्वाण पानेवाले है !" __आम का पेड़ आगे बढता जा रहा था। आगे जाते जाते रास्ते में वैभारगिरि, आबू और सिद्धगिरि तीर्थक्षेत्र आए। वीरमती गुणावली को इन तीर्थक्षेत्रों का संक्षेप में परिचय कराती जा E रही थी। दोनों सास-बहू इन तीर्थक्षेत्रों को वंदना करती जा रही थीं। ऐसे ही बीच रास्ते में जब सिद्धाचल तीर्थक्षेत्र आया, तो वीरमती ने गुणावली को परिचय कराया, “देख बहू, यह त्रिभुवन में श्रेष्ठ सिद्धाचल तीर्थक्षेत्र है। इसके दर्शन मात्र से सभी जीवों के पाप तत्क्षण नष्ट हो जात P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हैं। इस महातीर्थक्षेत्र पर ऋषभदेव भगवान निन्यानवे पूर्व बार पधारे थे, इसलिए इस तीर्थक्षेत्र की महिमा बहुत बढ़ गई है। इस तीर्थक्षेत्र की बराबरी कर सकनेवाला कोई तीर्थ तीनों भुवनों में नहीं है। इसी तीर्थक्षेत्र पर अब तक अनगिनत मुनिजन अनशन कर कर्ममुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर गए हैं और भविष्य में भी अनंत मुनिजन यहीं अनशन कर सभी कर्मो का क्षय करके निर्वाण पानेवाले हैं। इस तीर्थक्षेत्र के दर्शन अत्यंत पुण्यशाली भव्यात्मा को ही होते हैं। इस तीर्थक्षेत्र का उद्वार पहली बार भरत चक्रवर्ति ने कराया, दूसरी बार इसका उद्वार दंडवीर्य राजा ने कराया, तीसरा उद्धार ईशानइंद्र ने, चौथा उद्धार माहेन्द्र इंद्र ने, पाँचवाँ ब्रह्मेन्द्र ने छठाँ भवनपति के इंद्र ने, सातवाँ सगरचक्रवर्ती ने, आठवाँ व्यंतर इंद्र ने, नौवाँ चंद्रयशा राजा ने और दसवाँ उद्धार चक्रायुध राजा ने कराया था। वैसे तो अनेक महापुरुषों ने अनेक बार इस महातीर्थ का उद्धार कराया है। भविष्यकाल में दशरथ राजा के पुत्र राम इस तीर्थक्षेत्र का उद्धार कराएँगें। प्रिय बहू, यह महातीर्थ है। इसकी तीन बार वंदना कर / यह पवित्र तीर्थक्षेत्र संसारसागर पार कर जाने के लिए श्रेष्ठ जहाज के समान है। मनुष्य का प्रबल पुण्योदय होने पर ही उसे इस | तीर्थक्षेत्र के दर्शन-वंदन का अवसर प्राप्त होता है।" और थोड़ा दूर जाने पर रास्ते में नीचे गिरनार तीर्थक्षेत्र आया। वीरमती ने गुणावली को गिरनार तीर्थ दिखाते हुए कहा, “बहू, यह गिरनार तीर्थक्षेत्र है। यहाँ राजीमति के पति नेमनाथ स्वामी मुक्तिकन्या का पाणिग्रहण करेंगे। यह तीर्थ भी सिद्धाचलजी की तरह अत्यंत फलदायी है।" इसी तरह आम्रवृक्ष वायुवेग से विमलापुरी की ओर बढ़ता जा रहा था / बीच रास्ते में होनेवाले नए-नए अद्भुत और अनुपम तीर्थक्षेत्रों का शास्त्रपंडिता वीरमती बहू गुणावली को परिचय कराती जा रही थी। गुणावली का मन और नयन इन नए-नए तीर्थक्षेत्रों के दर्शन से हर्ष के कारण नाच रहे थे। चलते-चलते सास वीरमती ने अपनी बहू गुणावली से पूछा, “बहू, यदि तू अपने पति राजा चंद्र के डर से महल में चुपचाप बैठी रहती तो क्या तुझे ऐसे तरणतारण, अनुपम दर्शनीय तीर्थक्षेत्रों के दर्शन-वंदन का अवसर मिलता ?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र गुणावली ने कृतज्ञता जताते हुए कहा, “नहीं माँ जी, आपके प्रताप से ही आज मुझे जीवन में पहली बार ऐसे अद्भुत तीर्थक्षेत्रों के दर्शन और वंदन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।" बहू की बातें सुन कर सास की छाती गर्व से फूल उठी ! आकाशमार्ग से आगे की ओर जाते-जाते वीरमती ने गुणावली को बताया, “देख बहू, यहाँ नीचे नदी और सागर का संगम हो रहा है। यह लवणसमुद्र जंबुद्वीप की चारों ओर से घरे कर वलयाकार में पड़ा है। यह समुद्र विविध प्रकार के रत्नों का बहुत बड़ा भंडार है।" जब ये दोनों सास-बहू इस तरह बातें करती हुई आकाशमार्ग से चली जा रही थी, तो विमलापुरी की सीमा दूर से ही दिखाई देने लगी। वीरमती ने गुणवली को बताया, “देख बहू, यही है विमलापुरी ! यहाँ सामने ये मनोहर उपवन हैं, अत्यंत रमणीय सरोवर हैं, आकाश को चूमनेवाले ये ऊँचे-ऊँचे महल और मकान हैं। ये सब दर्शकों का चित्त हरण करने में समर्थ हैं। यह विमलापुरी स्वर्गपुरी से भी प्रतिस्पर्धा करनेवाली मनमोहिनी नगरी है। इसी विमलापुरी की शोभा देखने के लिए हम दोनों आकाश मार्ग से 9,800 योजन दूर चली आई हैं।" जब गुणावली विमलापुरी की शोभा दूर से ही अपनी आँखों में भरती जा रही थी, तो दोनों आम्रवृक्ष के साथ विमलापुरी के उद्यान के ऊपर आई / उद्यान के ऊपर आम्रवृक्ष के आ पहुँचते ही वीरमती ने उसे वहीं उद्यान में नीचे उतरने का आदेश दिया। आदेश होते ही आम्रवृक्ष अंबर पर से अवनि पर उतरा और विमलापुरी के उद्यान में खड़ा रहा। अब वीरमती और गुणावली आम्रवृक्ष की डाली पर से नीचे उद्यान में उतरी और दोनों विमलापुरी की ओर चल पड़ी। उनके उद्यान से बाहर निकलते ही आम्रवृक्ष के कोटर में से चंद्र राजा भी धीमे से बाहर निकल गया और छिपता-छीपाता उन दोनों के पीछे-पीछे विमलापुरी की ओर चलने लगा। वीर पुरुष सिंह की तरह निर्भय होते हैं / चंद्र राजा भी सिंह की तरह निर्भय होकर सासबहू की जोड़ी के पीछे चल पड़ा था। चलते-चलते सास-बहू की जोडी ने नगरद्वारा में प्रवेश किया। यहाँ तक तो चंद्र राजा उन दोनों के पीछे-पीछे ही चलता जा रहा था। नगर में प्रवेश करने के बाद नगरी की अपूर्व-अनुपम शोभा देख-देख कर सास-बहू दोनों आश्चर्यमुग्ध हो गई। फिर दोनों मिल कर विवाहमंडप में आ पहुँची / विवाहमंडप का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 47 वातावरण विविध प्रकार के गीतो। नृत्यों और वाद्यों की मंगल ध्वनियों से गूंज रहा था। विवाहमंडप में वरवधू के पहुंचने में अभी कुछ समय था। इसलिए सासबहू दोनों एक कोने में बैठ कर विवाहमंडप की अद्भुत शोभा चारों ओर से देखती रहीं। इस प्रकार शोभा अवलोकन ___ करती हुई दोनों विवाहमंडप में खुशी से बैठी रहीं। लेकिन चंद्र राजा ने जैसे ही नगर के प्रवेश द्वारा में प्रवेश किया, वैसे ही द्वारपाल ने राजा को प्रणाम किया और उसकी जयजयकार की। द्वारपाल प्रणाम किया और उसकी जयजयकार की। द्वारपाल ने राजा को प्रणाम किया और उसकी जयजयकार की। द्वारपाल चंद्र राजा के साथ ऐसे खुल कर और प्रेम से बातें करने लगा, मानो दोनों पूर्वपरिचित हों / द्वारपाल के इस बर्ताव से चंद्र राजा के आश्चर्य का ठिकाना, न रहा। उसने सोचा, इतनी दूरी पर होनेवाले इस द्वारपाल ने मेरा नाम कहाँ से जाना होगा ? इतने में द्वारपाल ने राजा चंद्र से कहा, 'हे आभानरेश, आप सचमुच गुणों की खान हैं। आज यहाँ पधार कर आपने हमें सनाथ कर दिया है। आपके शुभागमन से हमारे महाराज की चिंता दूर हो गई है। इस उसी प्रकार उत्सुकता से आपकी प्रतीक्षा कर रहे थे, जैसे कोई दूज के चंद्रमा की प्रतीक्षा करता है। अब आप कृपा कर सिंहलपुर के राजा के पास चलिए। हमारे महाराज के राजमहल को आप अपने पवित्र चरणकमलों से पावन कर दीजिए।" - द्वारपाल की ऐसी बातें सुनकर चंद्र राजा अपने मन में सोचने लगा - “हैं ! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है कि यह द्वारपाल मेरा नाम भी जानता है। लेकिन ऐसा लगता है कि यह भ्रम में पड़ गया है। शायद यह किसी अन्य ‘चंद्र' नामक मनुष्य की प्रतीक्षा कर रहा है और मुझे ही वह 'चंद्र' समझ कर मेरे साथ बातें कर रहा है।' इसलिए चंद्र राजा ने द्वारपाल को समझाते हुए कहा, "हे द्वारपाल, चंद्र तो आकाश में रहता है। तू किस चंद्र की बात कर रहा है ? मुझे इस नगर में एक बड़ा काम करना है। इसलिए मुझे मतरोक, मुझे तुरन्त जाने दे। इस तरह किसी अनजान पथिक को प्रवेशद्वारा में रोकना उचित नहीं है।" चंद्र राजा की बात सुन कर हाथ जोड कर द्वारपाल ने कहा, “हे आभानरेश, आप, अपने आपको क्यों छिपा रहे हैं ? क्या चिंतामणि रत्न को कहीं छिपाया जा सकता हैं ? क्या P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कस्तूरी की सुगंध छिप कर रह सकती है ? महाराज, मैं बिलकुल भ्रम में नहीं पड़ा हूँ। मैंने आपको अच्छी तरह पहचान लिया है। आप ही आभानरेश राजा चंद्र है।" इतना कह कर द्वारपाल ने राजा चंद्र का हाथ पकड़ा और कहा, “हे आभानरेश, आप __ मेरे साथ राजमंदिर में पधारिए।" पकड़ रहा हैं ? तुझे जो कुछ भी कहना हो, वह दूर रह कर कह दे। मुझे लगता है कि तू अवश्य भ्रम में पड़ गया है। मुझे चंद्र राजा समझ कर व्यर्थ ही तू मुझे राजमंदिर में ले जाने का दुराग्रह कर रहा है। देख भाइ। यदि तुझे पैसे की जरुरत हो तो बोल, मैं तुझे उतना पैसा दूँगा, जितना तू चाहेगा। लेकिन इस तरह गलत तरीके से मुझे रोक कर मेरा समय खराब मत कर / मेरी माँ मेरी बाट जोह रही होगी। मेरे भाई, मुझे जाने दे !" इस पर द्वारपाल ने कहा, “महाराज, आपकी माताजी, आभापुरी से 1,800 योजन दूर यहां कहाँ से और कैसे आएगी ? इसलिए झूठमूठ की मनगढन्त बातें मत कीजिए / राजाजी, कृपा कीजिए और मुझ पर गुस्सा मत कीजिए। यदि आप जैसे सज्जन असत्य बोलने लगे, तो यह धरती इतना बड़ा बोझ कैसे धारण करेगी ? महाराज, मेरा अबतक का सारा जीवन आप जैसे उत्तम पुरुषों की सेवा में ही व्यतीत हुआ है। आपको देखते ही मैंने आपको बहुत अच्छी तरह पहचान लिया है। मैं बिलकुल भ्रम में नहीं पडा हूँ, महाराज / हमारे महाराज आपके दर्शन के लिए अत्यंत उत्सुक हैं। इसलिए आप मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिए और मेरे साथ महाराज के पास चलिए। चलिए न महाराज, क्यों देर कर रहे हैं ?" पर व्यर्थ चला गया, तो वीरमती और गुणावली मुझसे दूर-दूर चली जाएँगी। फिर उन दोनों के आगे के कारनामें देखना कठिन होगा। इसलिए इस समय इस द्वारपाल के साथ-साथ चुपचाप जाना ही उचित है / “इस प्रकार विचार कर के चंद्र राजा द्वारपाल के साथ राजमहल की ओर चल पड़ा। रास्ते में राजा के जो कर्मचारी मिले वे सब चंद्र राजा की विनम्रता से प्रणाम कर रहे थे। यह सब देख कर चंद्र राजा मन में सोच रहा था कि मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही हैं कि ये लोग मानो मुझे बहुत दिनों से पहचानते हो, इस ढंग से मेरे प्रति इतना आदर क्यों प्रकट कर रहे हैं ? चंद्र राजा के आश्चर्य का पार नहीं था। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र द्वारपाल के साथ चलते हुए चंद्र राजा जब नगरी के दूसरे दरवाजे के पास आया, तो वहाँ होनेवाले द्वारपाल और अन्य कर्मचारियों ने चंद्र राजा को विनम्रता से प्रणाम कर कहा, "हे राजन्। आपका स्वागत हो! हमारे महाराज रास्ते में आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। जैसे चक्ररल के प्रकट होने से चक्रवर्ती के सभी मनोरथ सफल हो गए हैं।" लेकिन चंद्र राजा को द्वारपालों और कर्मचारियों की बातें पसंद नहीं आई। इसलिए चंद्र राजा ने आगबगूला होकर कहा, “तुम सब लोग मुझे 'चंद्र राजा, चंद्र राजा' क्यों पुकार रहे हो ? क्या तुम सबने आज मिलकर धतूरे के पत्तों का भक्षण तो नहीं कर लिया, जिसे सबको सब सोना ही सोना दिखाई दे रहा ही। तुम्हारे महाराज का मेरे बिना ऐसा कौन रूकअटका पड़ा है कि तुम सब लोग ‘चंद्र-चंद्र' कहते हुए मेरे पीछे पड़े हो ? इसपर सिंहलनरेश के सेवकों ने चंद्रराजा से कहा, "हे राजन. हम यहाँ के राज सेवक हैं / हमें हमारे महाराज ने आपका स्वागत करने के लिए नियुक्त किया है। रज बताए हुए परिचय के अनुसार हमने निश्चत रूप से पहचान लिना है कि आप ही मनरेश -चंद्र है। इसलिए हम आप का स्वागत कर रहे है।" राजा चंद्र ने पूछा, “तुम किस आधार पर मुझे चंद्र कह रहे हो. बताओ!" द्वारपालों के प्रमुख ने कहा, "हे राजन्, हमारे महाराज ने पहले ही हमें बताया पुरुष रात का पहला प्रहर बीतने के बाद पूर्व दिशा के प्रवेशद्वार से नगरी में भारत और के पहले दो स्त्रियाँ उसी दरवाजे से नगरी में प्रवेश करेंगी, सी को आभा-रे में चाहिए। उस पुरुष के आते ही तुम उसे प्रणाम करो और सम्मान के साथ के उसे मेरे पास राजसभा में ले आओ / महाराज को आप से एक माना है। इसलिए जहां हमारे महाराज आपकी प्रतीक्षा करते हुए बैठे हैं औ र चलिए / आपके महाराज से मिलने से उनके मन को शांति मिलेगा। स मय पर मालूम नहीं है कि महाराज को आपसे क्या जरूरी काम है। mir in Paree होने पर ही इस बात का निश्चित रूप से पता चलेगा।" द्वारपाल-प्रमुख की बातें सुन कर राजा चंद्रबकी निकोप . IN तक तो मुझे सिर्फ अपनी माताजी से भय था, लेकिन | Inf (र हो गया। सिंहलनरेश के पास पहँचने पर क्या होगा | मानो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र -ड़ से खिसक जाना भी बहुत कठिन दिखाई देता है / यहाँ मैं बिलकुल अकेला हूँ, न्य हूँ। यह नगर पराया है और ये सारे सैनिक भी मेरे लिए पराए है, अपरिचित हैं। इनमें मे समझाना भी कठिन काम है। इसलिए अब आगे जो होना हो, होगा, मैं एक बार इन के साथ सिंहलनरेश के पास चला तो जाऊँ ! हो सकता है कि इनके साथ जाने से कुछ . भी हो जाए।' __ इस तरह से मन में निश्चित करके राजा चंद्र ने द्वारपालों से कहा, "चलो, मैं तुम्हारे राजा स आता हूँ।" __जैसे-जैसे राजा चंद्र द्वारपालों के साथ सिंहलनरेश के पास जाने को चल पड़ा, तो रास्ते ब्यान-स्थान पर सिंहल के राजा के सेवक राजा चंद्र को झूक-झूक कर प्रणाम करते रहे। वे राजा चंद्र की जय जयकार के नारे भी लगाते जा रहे थे। उनके नारों की ऊँची आवाज से - का वातावरण गूंज उठा था। द्वारपालों के साथ राजा चंद्र के सिंहलनरेश के राजभवन तक चते-पहुँचते तो वहाँ एक भारी भीड इकट्ठा हो गई। रास्ता सँकरा प्रतीत होने लगा, आनेने को जगह ही नहीं मिल पा रही थी। इसलिए द्वारपालों ने बड़ी कठिनाई से मार्ग निकालकाल कर राजा चंद्र को सिंहलनरेश के राजभवन के भीतर पहुँचाया। इधर राजा चंद्र के सिंहलनेरश की ओर चल पडते ही सेवकों ने एक सेवक को भेज कर पने महाराज को संदेश दे दिया था कि आभानरेश चंद्र पधार रहे हैं। इसलिए सिंहलनरेश जा चंद्र का भव्य स्वागत करने की तैयारी में लगा था। राजा चंद्र के राजमहल में प्रवेश करते... विजयवाद्यों की ऊँची ध्वनियों से आकाश गूंज उठा। ताशे-बाजे के साथ सामने आकर . हलनरेश ने राजा चंद्र का स्वागत किया और उसने राजा चंद्र को राजभवन में ले जाकर उसे ... चा सुवर्णासन बैठने के लिए दिया। फिर सिंहलनरेश ने राजा चंद्र का स्वागत करते हुए . . "हे आभानरेश, आपके चरणकमलों के स्पर्श से आज हमारी जिंदगी धन्य-धन्य हो गई .. आपके पवित्र और दुर्लभ दर्शन पाकर मैं भी अपने आप को कृतार्थ समझ रहा हूँ। बहुत बे समय से आपके दर्शन करने की अभिलाषा मेरे मन में थी, आज वह पूरी हो गई है। यद्यपि .... पशरीर से मुझ से 1,800 योजन दूर थे, लेकिन मन से आप मेरे हृदय में ही बसे हुए थे। जैसे / में हजारों योजनों की दूरी पर होने पर भी कमलवन को उल्लासित करता है, वैसे ही आपका P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12318 51 राजर्षि चरित्र :: न और आपकी कीर्ति सुनकर हमारा हृदय-कमल विकसित होता था / आज प्रत्यक्ष पके दर्शन करने का सुनहरा अवसर मिलने से हमारे आनंद का कोई पार नहीं रहा है मारी-सारी आशाएँ सफल हो गई है / हे आभानरेश, आप सकुशल तो हैं न ? आप नर्यामी हैं, हमारे सिर के मुकुट हैं। जैसे मोर मेघों को देख कर नाच उठता है, चकोर देख कर प्रसन्न होता है, गाय अपने बछड़े को देख कर खुश होती है, वैसे ही आज र्शन से हमारा मन बहुत प्रसन्न हो गया है ! हम खुश हैं, बहुत खुश हैं ! आभानरेश, आपके आगमन से आज हमारा जीवन सफल हो गया है। प्रभुकृपा के पुरुषों के दर्शन दुर्लभ होते हैं। अब हम आपका कैसे स्वागत करें ? आपके सामने हम रणों की धूलि के समान हैं / महाराज, यदि आप हमारे राज्य में पधारे हैं तो, आपका स्वागत कर हम कृतार्थ हो जाते। लेकिन महाराज, यह तो विमलापुरी है। यह नगरी भी विदेश समान ही है / यहाँ हम अपने पुत्र कनकध्वज का विवाह यहाँ के राजा की पुत्री प्रेमलालच्छी के साथ करने के उद्देश्य से सपरिवार आए हुए हैं ! हमने जिस द्देश्य से आपको यहाँ इतने आग्रह से बुलाया है, उसके बारे में हमारे महामंत्री हिंसक वस्तार से बताएंगे।" - सना कह कर सिंहलनरेश ने अपने महामंत्री हिंसक को संकेत से अपने पास बुला सक मंत्री सामने आए और उन्होंने राजा चंद्र को प्रणाम किया और वे अपने आसन है। प्रसन्न मुद्रा से हिंसक मंत्री बोले, “हे चंद्र नरेश, आज आपके दर्शन हुए, परम गा। मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप कृपा कर हमारे महाराज की अभिलाषा पूरी अब समय व्यर्थ गँवाने का अवसर नहीं है। बहुत नाजुक समय आ गया है। ऐसे में आपकी सहायता की बहुत आवश्यकता है। हमें आशा है कि ऐसे कठिन समय पर मदद अवश्य करेंगे। आप परोपकारी पुरुष हैं। आप जैसे परोपकारी पुरुषों का यह = होता है कि स्वयं तकलीफ सह कर पराए लोगों का दुःख दूर करते हैं। ___SEE ACHARYA Phone : (079) 23276252, 23276204.00 koira, Chendhinagar-332009. THANKTACTREHDRA !!!ASSAGAPSURIGYANMANDIR महाराज, हम आपको यहाँ जबर्दस्ती नहीं लाए हैं। लेकिन देवी के वचनों से हमने इचान लिया और हमने आपका यहाँ स्वागत किया है। अब देखिए महाराज, कामर समय बहुत कम है। इसलिए कृपा कर के आप हमारी प्रार्थना को मत ठुकराइए। - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरिआधी रात बीत जाने के बाद आपको यहाँ एक बहुत महत्वपूर्ण काम करना है। यदि आ स्वीकृति दे दें, तो फिर मैं बता दूं कि हमें आपसे कौन सा काम करवाना है। राजा चंद्र दुविधा में फँस गया कि अब क्या किया जाए। मंत्रो की प्रार्थना स्वीकार कर चाहिए या नहीं ? कुछ देर विचार कर राजा चंद्र ने मंत्री की प्रार्थना स्वीकार कर ली और कह "मंत्री, बताइए आप लोग मुझ से कौन-सा काम करवाना चाहते हैं ?" . राजा चंद्र की स्वीकृति जानकर सिंहलनरेश अत्यंत खुश हुआ और उसने अप महामंत्री हिंसक को काम बताने के लिए संकेत किया। .. __अपने राजा से संकेत पाकर महामंत्री हिंसक ने राजा चंद्र से कहा, “हे चंद्र नरेश, छालेने जाने पर बरतन छिपाना मूर्ख का काम है। आपके सामने बात करते समय लज्जा . संकोच करना हमें उचित नहीं लगता है।" ... चंद्र राजा समझ नहीं पा रहा था कि इन लोगों का कौनसा काम मुझे करना होगा ? व काम मुझसे हो सकेगा या नहीं, यह भी पता नहीं हैं। मैंने पहले इन लोगों से पूछा भी नहीं दि आप लोग मुझसे कौन-सा काम करवाना चाहते हैं / अब मैंने राजा और मंत्री दोनों को सब सामने काम करने का वचन भी दे दिया है। अब मेरी स्थिति शिकारी के जाल में फंसे हुए पंछ के समान हो गई है। अब यहाँ से छूटने का दूसरा कोई रास्ता भी दिखाई नहीं देता है / देवी / वचनों से जब इन लोगों ने मुझे राजा चंद्र के रूप में पहचान लिया है, तो अब मैं कितनी ही बा बना-बना कर कहूँ तो इन लोगों को मेरी बातों की सच्चाई पर विश्वास नहीं होगा। मैं आभानरे: राजा चंद्र के रूप में पूरी तरह पहचान लिया गया हूँ। अब किसी तरह से ऐसा नहीं लगता दि ये लोग मेरा पीछा छोडेंगे। ... इस तरह मन में सोच कर चंद्र राजा ने हिंसक मंत्री से कहा, "हे मंत्री, जी कुछ भी का हो, स्पष्ट रूप में बता दीजिए / यदि मुझसे बनसके तो मैं आपके राजा का काम अवश्य क दूंगा।" राजा चंद्र की बात से प्रभावित हुए सिंहलनरेश ने कहा, "हे आभानरेश, आप जै परोपकारी पुरुषों को जन्म देनेवाली माताएँ विरली ही होती है ! जहाँ अपना स्वार्थ सिद्ध हो की स्थिति होती है, वहाँ मनुष्य दूसरे की खुशामद करने में चाटुकारिता में मीठी-मीठी बातें कर में बिलकुल संकोच नहीं करता है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust'. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हम लोग तो यहां आपकी कृपा की अपेक्षा करते बैठे हैं। हमारे मन में पूरा विश्वास हैं कि आप हमारी आशा अवश्य पूरी करेंगे।" जब यह वार्तालाप चल रही थी, तब राजमहल के उस कक्ष में सिंहलनरेश, उनकी , रानी, पुत्र कनकध्वज और महामंत्री हिंसक को छोड कर अन्य कोई नहीं था। एकांत जान कर चंद्र राजा ने सिंहलनरेश से स्पष्ट शब्दों में कहा, 'महाराज, आपका जो काम हो, वह स्पष्ट शब्दों में कह दीजिए। आपके स्पष्ट रूप में काम बताए बिना मुझे कैसे पता चलेगा कि मुझे आपका कौन-सा काम करना है ? उधर बाहर विवाह-महोत्सव का काम चल रहा है और इधर आप सब लोग यहाँ चिंतातुर दिखाई दे रहें है इससे आपके काम का स्वरूप जाने बिना में आपका काम कैसे कर सकुँगा ? इसलिए आपका जो काम हो वह तुरन्त बता दीजिए, क्योंकि मुझे सुबह होने से पहले आभापुरी वापस पहुँच जाना आवश्यक है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह कि आप मुझे यह भी बता दीजिए कि आपको मेरा नाम, खानदान आदि की जानकारी कैसे और कहाँ से मिल गई ?" चंद्र राजा के प्रश्न सुन कर सिंहलनरेश ने अपने महामंत्री हिंसक को इन प्रशनों के उत्तर में देने का संकेत किया। राजा से संकेत पाकर महामंत्री हिंसक ने कहा, “हे आभानरेश, आप हमारे रक्षणकर्त हैं। आप ही हमारी आशा के एकमात्र स्थान हैं। इसलिए हम आपसे कोइ बात | छिपाना नहीं चाहते हैं। पाँवों में धुंधरु बाँधने के बाद नाचना तो पडता ही हैं। किर आनाकानी करने से क्या लाभ ? आपके सामने सारी बातें सच-सच कहने में हमें बिलकुल संकोच नहीं है। "महाराज, आप हमारे राजकुमार कनकध्वज के लिए बहाना बनाकर राजकुमारी प्रेमलालच्छी -से विवाह कर लीजिए / बस, इसी विशेष काम के लिए हमने आपको यहाँ बुला लिया है। हमें पूरा विश्वास है कि आप हमारी यह प्रार्थना अवश्य स्वीकार कर लेंगे। यह काम करने की कृपा कीजिए, महाराज।" हिंसक मंत्री की कही हुई बातें सुन कर चंद्र राजा ने पूछा, “आप लोग राजकुमार कनकध्वज के लिए मुझे राजकुमारी प्रेमलालच्छी से विवाह करने को क्यों कह रहे हैं ? हम तो राजकुमारी प्रेमलालच्छी का राजकुमार कनकध्वज के साथ विवाह होनेवाला है यह जान कर तो यह विवाह महोत्सव देखने के लिए ठेठ आभापुरी से यहाँ 1,800 योजन दूरी पर विमलापुरी आ पहुँचे है। मेरी तरह अन्य भी अनेक लोग आभापुरी से यह विवाह-महोत्सव देखने के लिए आए हैं। सब लोगों से यही सुनाई दे रहा हैं कि सिंहलनरेश के पुत्ररत्न कनकध्वज के साथ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 श्री चन्द्रराजा अभी प्रेलालच्छी का विवाह संपन्न होनेवाला है / हम भी इस विवाह महोत्सव = मिलने से ही उसे देखने के लिए यहाँ आ पहुंचे हैं। फिर राजकुमार कनकध्वज प्रेम साथ विवाह क्यों नही करता है ? यह क्या रहस्य है ? कृपा कर मुझे इसके बारे / कनकध्वज राजकुमार को राजकुमारी प्रेमलालच्छी से विवाह करने में क्या कठिन। यह विवाह करने का भार मुझ पर क्यों लाद रहे है ?'' चंद्र राजा की बात सुन कर इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए महामंत्री हिर रूप में कहा, "महाराज, क्या बताएँ ? कुमार कनकध्वज अपने पूर्वजन्म के किसी के उदय से जन्म से ही कोढ़ी हैं। यह बात हमने अभी तक कभी किसी से नहीं कही गुप्त रखी हुई यह बात आपको परदुःखभंजक जान कर आपके सामने ही पहली अब हमारी इज्जत-लज्जा-आबरु सब आपके करकमलों के अधीन है।" समुद्र के मध्य में आया हुआ यह जहाज कहीं डूब न जाए। हम आप से हा प्रार्थना करते हैं कि आप इस लड़खडाने वाले-डूबने वाले जहाज के नियामक बनक से बचा लीजिए / महाराज, सिंहलनरेश की लाज रखना अब आपके हाथ में हैं।' ___ मंत्री की बात बीच में ही काट कर चंद्र राजा ने पूछा, “जब राजकुमार कनव से कोढ़ी है, तो आप लोगों ने राजकुमारी प्रमलालच्छी से उसकी सगाई क्यों की लोगों को राजकुमारी प्रेमलालच्छी से कोई शत्रुता थी ? आप कोढ़ी राजकुमार र राजकुमारी से विवाह कराने कैसे आए हैं ? आप लोग जानबूझकर बेचारी राज जीवन बरबाद करने पर क्यों तुले हैं ? आप मुझ से यह धोखा देने का पाप कराने हैं ? क्या आप मेरे सिर पर पाप का बोझ बढ़ाना चाहते हैं ? देखिए ऐसा पापपूर्ण ॐ कभी नहीं होगा और यदि आप लोगों के कहने में आकर, आपके दबाव से, शर्म से प्रेमलालच्छी से हो भी जाए तो फिर राजकुमारी को राजकुमार कनकध्वज को कै सकेगी ? क्या राजकुमारी प्रेमलालच्छी आँखें बंद कर के मुझसे विवाह करेगी ? क्य समय वह मेरे रंग, रूप, सौंदर्य आदि को देख नहीं लेगी ? इसलिए मुझसे तो यह नि का महापाप कदापि नहीं होगा। किसी को विश्वास से रस्सी के सहारे कुएँ में नीचा उपर से रस्सी काट डालना क्या इच्छा है ? मैं ऐसा काम हरगिज़ नहीं करूँगा, नहीं आभानरेश चंद्र को ऐसी कटु लगनेवाली लेकिन सत्य बातें सुनने पर भी स हुए सिंहलनरेश और उसके महामंत्री हिंसक अपनी योजना पर अटल बने रहे। P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र - - दिल टस से मस नहीं हुए, राजा और मंत्री अपनी ही बात पर डठे रहे। उन्होंने पहले =:: प्रार्थना का स्वर बनाए रखा। - आखिर चंद्र राजा हिंसक मंत्री को एकांत में ले गया और उसने मंत्री से पूछा, “मंत्री सचमुच बात क्या है यह मुझे बिना कुछ छिपाए आदि से अंत तक बता दीजिए / यदि अ * सच्चे अंत: करण से सबकुछ सच-सच बता दिया, तो शायद अब भी आप का काम बन सब - बताओ, ऐसा अनुचित विचार तुमने क्यों किया ? मुझसे कुछ भी मत छिपाओ।" - चंद्र राजा की बात सुन कर हिंसक मंत्री ने कहा, "हे राजन्, सिंघ नाम के देश में अत्यंत रमणीय सिंहलपुरी है। यहाँ जन्म लेनेवाले लोग भाग्यवान् समझे जाते है / इस न के राजा सिंहल हैं। इस राजा की रानी का नाम कनकवती है / मैं सिंहल राजा का अत विश्वत सेवक हिंसक नाम का महामंत्री हूँ। राज्य संचालन का लगभग सारा काम मेरे अ है। मेरी आज्ञा के बिना सिंहलनगरी में पत्ता भी नहीं हिल सकता है। हमारे महाराज के प विशाल मात्रा में चतुरंग सेना और सभी प्रकार का वैभव है। प्रजा धनधान्य की दृष्टि मे बिल सुखी है। इस सिंहलनगरी में गरीबी का नामोनिशान नहीं है। इस नगरी में अनेक विद्वान पनि रहते हैं। यहाँ बसनेवाली स्त्रीयाँ देवांमनाओं के समान सुंदर अत्यंत सुशील पतिभक्तिपरान और शांत प्रकृति की हैं। एक बार हमारी महारानी कनकवतीजी अपने महल की अटारी में बैठी हुई पुत्र के दि चिंता करने लगी। राजारानी को अन्य सभी प्रकार का सुख था, लेकिन संतान की कमी रानी संतान के अभाव में अत्यंत शोकमग्न होकर पानी से बाहर निकाली गई मछली की त तिलमिला रही थी। उसकी आँखों में से आँसुओं की झड़ी-सी लग गई थी। आँशुओं के ब रहने से रानी के शरीर पर के वस्त्र भी तरबतर हो गए। __. अचानक अपनी स्वामिनी की ऐसी अवस्था देख कर उसके साथ जो दासी थी, वह ब. घबरा गई। उसने दौड़ते हुए जाकर राजा को रानी की अवस्था का समाचार सुनाया। र समाचार मिलते ही रानी के पास चला आया। उसने रानी कनकवती को समझाते हुए कहा, चंद्रमुखी, तुम आज इतनी शोकातुर क्यों बन गई हो ? क्या किसी ने तुम्हारी आज्ञा का उल्लं किया है ? यदि ऐसा हुआ हो, तो मुझे उसका नाम बता दो, मैं अपराधी को कड़ी-से-कड़ी दूंगा।" - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 . श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र __राजा की सांत्वनाभरी बातें सुन कर रानी कनकवती ने राजा से कहा, “हे प्राणनाथ, आपकी कृपा से मुझे किसी चीज की कमी नहीं है। किसी ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन भी नही किया है / आप जैसा पति पाकर मैं तो यहाँ रोज़ नई-नई वस्तुओं का उपभोग करती हूँ। वैसे तो मैं सभी तरह से सुखी हूँ, लेकिन संतानहीनता से मुझे अपना सारा सुख दु:खमय लगता है। नि:संतान धनवान का मुखदर्शन प्रात:काल में अशुभ माना जाता है। सुपुत्र के होने से यश, किर्ति और वंशपरंपरा की वृद्धि होती है। सुपुत्र के बिना मुझे अपनी गोद और अपना महल दोनों शून्यवत् लगते हैं। . हे प्राणनाथ ! मैं इसी संतानहीनता की चिंता से इतनी उदास-निराश हो गई हूँ। मेरे दुःख का अन्य कोई कारण नहीं है। क्या करूँ, महाराज, अब मुझसे यह दुःख सहा नहीं जाता।" / राजा ने रानी को समझाया, “दैवाधीन वस्तुनि किं चितया ? अर्थात्, जो वस्तु भाग्य के अधीन है, उसकी चिंता करने से क्या होगा ? फिर तुम यह चिंता अपने चित्त से निकाल दो। मैं पुत्रप्राप्ति के लिए कोई मंत्रतंत्र यंत्र की आरधना करूँगा ! पुरुषार्थ करना मनुष्य के बस में हैं, लेकिन फलप्राप्ति भाग्याधीन है !" . “हे राजन्, इस तरह राजा ने अपनी कनकवती को दिलासा दिया और फिर मुझे बुलाया। राजा ने मुझसे सारी बातें सच कह दी। मैंने राजा को अष्टम तपस्या करके कुलदेवी की आराधना करने और उसे प्रसन्न कराके उससे पुत्रप्राप्ति के लिए प्रार्थना करने की सलाह दी / राजा को मेरी सलाह पसंद आई। इसलिए राजा ने अगले ही दिन से कुलदेवी की आराधना प्रारंभ की। स्वार्थ के काम में मनुष्य आलस्य या विलंब नहीं करता है। राजा की आराधना के फलस्वरूप तीसरे दिन कुलदेवी राजा के सामने प्रकट हुई। राजा की कुलदेवी के चरम जमीन से चार अंगुल ऊपर ही थे। उसके गले में सुगंधित, ताजा फूलों की माला थी। उसकी आँखें स्थिर थीं। उसका मुख अत्यंत प्रसन्न था और वह दिव्य वस्त्रालंकारों से विभूषित थी / देवी ने राजा से कहा, ___"हे राजन्, मैं तेरी आराधना से प्रसन्न हो गई हूँ / तू अपनी खुशी से वरदान माँग ले / मैं तेरी मनोकामना अवश्य पूरी कर दूंगी।" - कुलदेवी की ऐसी वात्सल्य और सहानुभूति से युक्त बातें सुन कर राजा मन में बहुत खुश हुआ और उसने कुलदेवी से प्रार्थना की. 'हे माता, तुम कुलवृद्धि करनेवाली हो / समृाड P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 57 देनेवाली हो, दु:ख हरण करनेवाली हो और सबकी आशाओं को पूर्ति करनेवालो हो / हे माता, मुझे पुत्र का दान दो। पुत्रप्राप्ति के लिए ही मैं ने तुम्हारी आराधना की है। इसलिए पुत्रप्राप्ति के लिए मेरी प्रार्थना अवश्य स्वीकार करो. हे माता, यदि तुम इस सेवक पर प्रसन्न हुई हो तो मुझे पुत्ररत्न दे दो। मुझे और कोई चीज नहीं चाहिए। रानी के अत्यंत आग्रह के कारण मैंने तुम्हारी आराधना की है / हे माता, मुझे पूरा विश्वास है कि तुम मेरी रानी की आशा अवश्य पूरी करोगी।" राजा की बातें सुन कर, कुलदेवी ने प्रसन्न होकर कहा, “हे राजन्, तेरे पुण्य के बलपर तेरा मनोरथ पूर्ण होगा। तुझे जल्द ही पुत्र की प्राप्ति होगी, लेकिन तेरा पुत्र कोढ़ी होगा।" . - कुलदेवी की बात सुन कर राजा ने हाथ जोड़ कर कुलदेवी से कहा, "हे पालक माता, यदि तुम मुझ पर प्रसन्न होकर पुत्र देने को तैयार हुई हो, तो मुझे जगत् में निंदा का पात्र होनेवाला कोढ़ी पुत्र क्यों देती हो ? यदि देना ही हो, तो सुलक्षणों से युक्त निर्दोष पुत्र दे दो।" इसपर कुलदेवी ने कहा, “हे राजन्, तू चतुर होकर मूर्ख जैसा आचरण क्यों करता है ? इस संसार में जो मनुष्य जैसा काम करता है, उसको अपने कर्म के अनुसार फल भोगना ही पड़ता है। शास्त्रों में कहा गया है - 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।' किए हुए कर्म का फल अवश्य भोगना पडता है। चाहे कोई जिनेश्वर हो चाहे चक्रवर्ति, चाहे कामदेव हो चाहे वासुदेव - इन सबको भी जब किए हुए कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है, तो फिर सामान्य मनुष्य की बात ही क्या है ? जो सत्कर्म करता है उसे सुखोपभोग मिलता है, लेकिन पुण्य का क्षय होते ही सुख का भी क्षय हो जाता है। पुण्य का उदय होने पर संपत्ति, यश, कीर्ति, विजय प्राप्त होते हैं, लेकिन पुण्य का क्षय होने पर वे सब के सब नष्ट हो जाते हैं। इसलिए मैं ने तुझे तेरे कर्म के अनुसार वरदान दिया है। उसमें हेरफरे होना संभव नहीं है।" कुलदेवी की बात सुनकर राजा ने कहा, “हे माताजी, जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा करो। लेकिन मुझे यह कारण तो बता दो कि तुम मुझे कोढ़ी पुत्र क्यों दे रही हो ?' ___राजा के प्रश्न पर देवी ने कहा, “अवश्य, मुझे यह कारण बताने में कोई संकोच नहीं है। हे राजन्, मेरे महद्दिक नाम के पति हैं। उसकी दो पत्नियाँ-देवियाँ हैं। हम दोनों हिलमिलकर रहती थीं और सुखपूर्वक अपना समय व्यतीत करती थी। एक बार मेरे पति ने मुझ को बताए P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 न श्री चन्द्रराजति - बिना मेरा हार मेरी सौत को दे दिया। यह जान कर मेरे हृदय में क्रोध की आग भड़क---- दोनों सोते इस बात को लेकर आपस में झगड़ रही थी कि हमारे पतिदेव आ पहुँचे -.-: हमारे झगड़े में अपने को अधिक प्रिय होनेवाली मेरी सौत का पक्ष ले लिया। इससे :: नाराज हो गई। ... जब में नाराज थी, उसी समय तूने मेरी आराधना कर मुझे आकर्षित कर लेने= किया। इसलिए मुझे चिंतातुर हृदय से यहाँ आना पड़ा। जिस समय मैंने तुझे वरदान .. समय मेरा चित्त ठिकाने पर नहीं था। इसलिए मुझ से कोढ़ी पुत्र का वरदान दे दिय= - अचानक मेरे मुंह से जो वचन एक बार निकल गया, उसमें अब हेरफेर नहीं हो सकता के भाग्य में जो लिखा हुआ होता है, उसी के अनुसार देवताओं के मुँह से अनायास वै- - निकल जाते हैं। मनुष्य ने अपने पूर्वजन्म में जैसा शुभ या अशुभ कर्म किया हो, उसके : -----: विफल करने में देव भी सफल नहीं हो सकते हैं। इसलिए हे राजन्, मन में व्यर्थ ही हि - . करो। चतुर और विवेकी मनुष्य कर्म के उदय होने पर व्यर्थ चिंता नही करता है / बलि ___- से नए कर्म का बंधन बाँधते समय बहुत सावधान बन जाता है। कवि ने कहा ही है कि : : 'कर्म बंधन कराते समय सावधान होइए, कर्मोदय पर संतप्त होने से क्या - यह कह कर देवी वहाँ से अंतर्धान हो गई। राजा ने मन में सोचा, नि:संतान होने - पुत्र का होना कई गुना उचित हैं। ... - हिंसक मंत्री ने चंद्र राजा को आगे बताया, 'हे आभानरेश, देवी की आराधन वरदान प्राप्ति के बाद राजा मेरे पास आए और उन्होंने वरप्राप्ति तक का सारा समाच कह सुनाया / मैंने राजा से सारा वृत्तांत सुनने के बाद राजा को आश्वस्त करते हुए "महाराज, पहले पुत्र तो पा लीजिए। यदि वह सचमुच कोढी उत्पन्न होगा, तो उसके का उपाय बाद में करेंगे।। - मेरी बात से राजा-रानी दोनों के मन को शांति मिली। उसी रात रानी कनकवता धारण किया। राजा ने रानी के निवास का प्रबंध एक गुप्त स्थान पर किया। इससे किसी पता ही नहीं चला कि रानी गर्भवती है। नौ महीने पूरे होने पर रानी कनकवती ने सूखपूर्व कोढ़ी पुत्र को जन्म दिया। देवी के वरदान के अनुसार पुत्रजन्म का अवसर आया और खुश हुआ। उसने पुत्रजन्म की खुशाली में एक महोत्सव भी किया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - - श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र / .. राजा के घर पुत्र का जन्म होने का समाचार सारी नगरो में वायु की गति से फैल ... सारी प्रजा ने राजपुत्र के जन्म का आनंद मनाने के लिए घरों के दरवाजों पर वंदनवार सारी नगरी सजाई गई / नगरजनों ने राजसभा में आकर राजा को प्रणाम करके = दिए / राजा ने भी प्रतिदान में नगरजनों को यथोचित सत्कार-पुरस्कार देकर सभी को किया / पुत्रजन्म के बाद बारहवें दिन राजपुत्र का नामकरण किया गया / राजपुत्र क 'कनकध्वज' रखा गया। स्वकर्म के उदय से कनकध्वज अपने जन्म के दिन से ही कुष्ट परेशान हो गया। राजपुत्र की कुष्ठ रोग की पीडा को मिटाने के लिए राजा ने खानगी में अनेक ब .. और कुशल राजवैद्यों को बुलाया, उपचार कराया। अनेक मांत्रिकों को बुला कर मंत्रप्रय कराए। लेकिन पापकर्म के उदय के फलस्वरूप राजकुमार को इन भिन्न-भिन्न उपायों में लाभ न पहुँचा / उसका कोढ़ बढ़ता ही रहा। कर्मगति रोकने में कौन समर्थ है ? . राजा ने कनकध्वज की कोढ की पीड़ा मिटाने के लिए जो-जो उपाय किए, है विफल सिद्ध हुए। कर्म अनुकूल हो तो एक चुटकी राख लगाने पर कोई बड़ी बीमारी न सकती है, लेकिन कर्म प्रतिकूल हुआ तो लाख रुपयों की दवा भी कारगर सिद्ध नहीं बीमारी बनी रहती है। सर्वत्र भाग्य ही प्रबल होता है / भाग्य अनुकूल हो, तो उल्टा द सीधा पडता है, लेकिन भाग्य प्रतिकूल हो, तो सीधा दाँव भी उल्टा पड़ता है। शास्त्रकरों ने भी है - कर्मणां गति विचित्रा अर्थात्, कर्म की गति बड़ी विचित्र होती है। रत्नों की खान में जैसे निरंतर रत्न बढ़ते जाते हैं, वैसे ही एक गुप्त भूमिग राजकुमार का बडी सावधानी से लालन-पालन किया जा रहा था / कुमार के पास जा अनुमति सिर्फ कपिला नाम की उपमाता (दाई) को थी / राजा ने ही कपिला को कुमा देखमाल का काम सौंपा था और कपिला यह काम बडे प्रेम से करती थी। ... नगरजनों ने राजकुमार को उसके जन्मसमय से कभी देखा नहीं था। इसलिए नग के मन में राजकुमार को देखने की बडी प्रबल इच्छा होती थी। इसलिए कई बार नग राजकुमार के लिए उत्तम वस्त्र और अलंकार लेकर राजसभा में आते थे। और राज राजकुमार के दर्शन कराने के लिए प्रार्थना करते थे। लेकिन राजकुमार की कोढ की बीमा पोल खुल जाने के भय से राजा सभी नगरजनों को निराश कर लौटा देता था। 'राजह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कोई नहीं जानता था। ये पाँच लोग थे - राजा, रानी, उपमाता कपिला, महामंत्री हिंसक और स्वयं राजकुमार कनकध्वज। . राजा ने नगर में यह बात प्रचारित कर दी थी कि राजकुमार का रूपसौंदर्य ऐसा अद्भुत और अद्वितीय है कि उसको किसी की बुरी नजर न लग जाए, इसलिए उसे राजमहल से बाहर नहीं निकाला जाता है। मनुष्य को एक झूठ छिपाने के लिए कितने और नए-नए झुठ बोलने पडते है। यह प्रपंच-माया-ही सभी पापों का मूल है ' लेकिन एक-न-एक दिन प्रपंच-झूठ की पोल खुले बिना नहीं रहती है / जब तक पुण्य का पीठबल होता है, तब तक ही प्रपंच गुप्त रह सकता है / लेकिन जैसे ही पुण्ण का पीठबल समाप्त होता है वैसे ही प्रपंच जगत के समाने प्रकट हुए बिना नहीं रहता है। . हे आभानरेशजी, मैं लोगों के सामने कहता, जब राजकुमार बड़ा हो जाएगा, तब वह राजमहल के बाहर निकलेगा और आप सब लोगों को देखने को मिल जाएगा। मेरी इस बात पर विश्वास करके नागरिक राजा के भाग्य की प्रशंसा करने लगे। कहने लगे, जिसे देखने में सूरज भी शक्तिमान् नहीं है, तो फिर हम कौन होते हैं ? हमारे महाराज धन्य-धन्य हैं कि उनको ऐसा अद्भूत रूपगुण-सौंदर्य-सौभाग्य आदि से युक्त पुत्र मिला। 'राजकुमार कनकध्वज चिरंजीवी हो' यह आशीर्वाद देकर लोग चले जाते थे। 'जब हमारा पुण्योदय होगा तभी हमें राजकुमार के | दर्शन होंगे' यह समझ कर संतोष मान कर लोग शांति से अपने काम में लग जाते थे। कनकध्वज राजकुमार के अद्भूत गुण और और रुपसौंदर्य आदि की बात धीरे-धीरे = फैलती हुई विदेशों तक पहुँची। लेकिन इस बात के रहस्य का किसीको कैसे पता चलता ? _ ऐसे ही एक बार सिंहलपुरी के कई व्यापारी व्यापार के उद्देश्य से विमलापुरी में आए। = विमलापुरी के राजा मकरध्वज से मिलने के लिए वे राजसभा में गए / राजा ने विदेशी व्यापारियों का उचित रीति से स्वागत किया और उन्हें बैठने के लिए आसन दिए / राजा ने व्यापारियों से उनका क्षेमकुशल पुछा / उस समय राजकुमारी प्रेमलालच्छी अपने पिता के पास ही बैठी हुई थी। राजकुमारी प्रेमलालच्छी का अद्भूत रूपलावण्य और चतुराई आदि देख कर वे सब व्यापारी अत्यंत आश्चर्यचकित हुए। कनकर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र .. राजा मकरध्वज ने न व्यापारियों से उनके देश का तथा राजा का नाम पूछा। व्यापारियों ने बताया, “महाराज, हम लोग सिंधु देश के निवासी हैं / सिंधि देश में अल्कापुरी का तरह सिहलपुरी नगरी है। वहाँ कनकरथ नाम का राजा राज्य करता है। राजा के कनकध्वज नाम का कामदेव की तरह सुंदर पुत्र है। इस राजपुत्र को जन्म से ही गुप्त महल में रखकर लालनपालन किया जा रहा है। नगरजन प्रतिदिन उसके दर्शन के लिए लालयित रहते हैं। लेकिन राजकुमार को गुप्त महल में से बाहर निकाला जाए तो शायद किसी की कुद्दष्टि उस पर पड़ेगी, इस आशंका के कारण राजा निरंतर राजकुमार को गुप्त महल में ही रखता है। इस कारण से अब तक किसी ने भी उस राजकुमार को देखा नहीं है, लेकिन सुना जाता है कि वह सौंदर्य की दृष्टि से कामदेव के समान है।" विदेशी व्यापारियों की कही हुई ये बातें सुनकर राजा मकरध्वज बहुत खुश हुआ। राजा ने व्यापारियों को वस्त्रादि देकर उनका सम्मान किया और उन्हें विदा किया। फिर राजा मकरध्वज ने अपने मंत्री को बुलाया और उसको विदेशी व्यापारियों से सुना हुआ राजकुमार कनकध्वज के रूपसौंदर्य का वर्णन सुनाया। राजा मकरध्वज का मंत्री बुद्धिमान् और चतुर था इसलिए उसने राजा से कनकध्वज के सौंदर्य का वर्णन करने के बाद पूछा, “महाराज, आप यह वर्णन मेरे पास क्यों कर रहे हैं ?' राजा मकरध्वज ने अपने मंत्री को बताया, 'मंत्रीजी, बहुत दिनों से हम लोग राजकुमारी प्रेमलालच्छी के लिए योग्य वर की खोज कर रहै हैं, लेकिन अभी तक हमें कोई योग्य वर नहीं मिला है। लेकिन आज सिंहलपुरी के इन विदेशी व्यापारियों के मुँह से राजकुमार कनकध्वज के रूपसौंदर्य की बात सुन कर मेरे मन में यह विचार आया है कि यदि इन व्यापारियों की कही हुई बातें सच हों, तो हम कनकध्वज राजकुमार के साथ अपनी राजकुमारी प्रेमलालच्छी की सगाई कर दें। ऐसा दूसरा वर मिलना बहुत कठिन ही / यदि तुम्हारी अनुमति हो, तो हम यह विवाहसंबंध निश्चित करना चाहते हैं। बुद्धिनिधान मंत्री ने राजा से कहा, “महाराज राहगीरों के वचनों पर कैसे विश्वास किया जाए ? सभी विदेशी लोग अपने-अपने देश की प्रशंसा करते ही हैं। महाराज, क्या कोई अपनी माँ को डाकिनी कहता है ? कोई भी सास अपना दामाद कुरुप और काना हो, तो भी उसके रूप की प्रशंसा ही करती है न ? यहाँ आए हुए इन विदेशी व्यापारियों की बातों में मुझे बिलकुल विश्वास नही होता है। मेरी राय तो यह है, आगे अब आपकी मर्जी।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मंत्री की बात सत्य मान कर और उसे स्वीकार कर राजा ने राजसभा विसर्जित की। :: राजा जंगल में पशुओं का शिकार खेलने को गया। उस समय वह मंत्री राजा के पास ... / राजा थका हुआ था। इसलिए राजा और मंत्री दोनों जंगल में होनेवाले सरोवर के . गरे पर बैठ कर विश्राम करने लगे। उसी समय उसी मार्ग से जानेवाले कुछ व्यापारी प्यास ने से पानी पीने के लिए उसी सरोवर के किनारे पर आए। व्यापारियों ने पानी पिया और वे | को तैयार हुए। तब राजा ने व्यापारियों को अपने पास बुलाकर पूछा, “तुम लोग देशतर में घूमनेवाले व्यापारी लगते हो। अपने देशाटन में यदि तुम लोगों ने कोई आश्चर्य . . -सुना हो, तो मुझे बताइए।" राजा की बात सुन कर व्यापारी राजा के पास बैठे और देशतर की बातें कहने लगे। व्यापारियों ने बताया, __"महाराज, कई दिन पहले हम लोग सिंध देश में गए थे। वहाँ की नगरी सिंहलपुरी पर | कनकरथ राज्य करता है। उसके पुत्र राजकुमार कनकध्वज के रुपसौंदर्य की बात चारों - ... / फैली हुई है। राजकुमार अत्यंत सुंदर है, इसलिए राजा उसे गुप्त महल में रखकर उसका निपालन कराता है। राजकुमार को उस गुप्त महल से निकालने में राजा बहुत धबराता हैं, के वह सोचता है कि अगर उसके पुत्र को किसी की बुरी नजर लग जाए, तो उसके . नौता पुत्र बीमार पड़ जाएगा, ओर फिर न जाने उसका क्या होगा। इसलिए राजा अपने कुमार को कभी उस गुप्त महल से बाहर नहीं निकालता है / महाराज, हमने अपने भ्रमण ह बड़ी आश्चर्यकारक बात देखी है।" " / इन विदेशी व्यापारियों से भी कनकध्वज के रूपसौंदर्य का वर्णन सुन कर राजा के मन सके रूपसौंदर्य के बारे में अब कोई आशंका नहीं रही। इसलिए राजा ने उसी समय ..... कुमार कनकध्वज के साथ अपनी इकलौती कन्या प्रेमलालच्छी का विवाह कराना निश्चत लिया। राजा के पास बैठे हुए चतुर मंत्री ने राजा के मन की बात जान कर राजा से कहा, राज, आँखों देखी और कानों सुनी में बहुत अंतर होता है / अपनी आँखों से राजकुमार (खे बिना आप निर्णय मत कीजिए। जब आपके सेवक उस राजकुमार को अपनी आँखों से कर कहेंगे कि विदेशी व्यापारियों की कही हुई बात सत्य हैं, तभी आप इस सबंध के बारे में --- कीजिए / महाराज, यह कोई सामान्य बात नहीं है, राजकुमारीजी के पूरे जीवन का प्रश्न P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 न्द्रराजर्षि चरित्र लिए यह विवाहसंबंध निश्चित करने से पहले आप मन में पूरा विचार कीजिए। इस काम वल करना उचित नहीं लगता है।" .. मंत्री की सलाह मान कर राजा ने उन विदेशी व्यापारियों को फिर अपने पास बुला कर "देखो, तुम सब लोग मिल कर मेरा एक काम करो। तुम सब हमारे मंत्रियों के साथ पुरी चले जाओ और राजकुमार का रूपसौंदर्य अपनी आँखों से देख कर फिर राजकुमार वज और राजकुमारी प्रेमलालच्छी का विवाहसंबंध निश्चित कर लो। यदि तुम मेरा सा काम करोगे, तो मैं तुम्हारा हमेशा ऋणी रहूँगा।" व्यापारियों ने राजा की बात सुन कर कहा, “महाराज, इतना काम तो आपके न कहने - .. हमें करना ही चाहिए। आप खुशी से अपने मंत्रियों को हमारे साथ सिंहलापुरी के लिए / यदि कार्यसिद्धि हो गई और यह विवाहसंबंध निश्चित हो गया, तो हमें बड़ी खुशी - हम अपनी ओर से हर संभव कोशीश करेंगे।" .. व्यापारियों की बात सुन कर खुश हुए राजा ने अपने चार चतुर मंत्रियों को उन विदेशी रयों के साथ सिंहलपुरी भेज दिया। सिंहलपुरी पहुँच कर मंत्रीगण सिंहलनरेश के सम्मानित न बने / राजा ने मंत्रियों का आदरातिथ्य कर उनका बहुत सम्मान किया। फिर मंत्री त मे राजा के पास गए और उन्होंने राजा को अपने आने का प्रयोजन बताया। . चार मंत्रियों में सब से कुशल मंत्री ने राजा से कहा, "महाराज, हम सोरठ देश से आए मारे महाराज मकरध्वज ने अपनी इकलौती पुत्री प्रेमलालच्छी की सगाई आपके सुपुत्र मार कनकध्वज के साथ करने के उद्देश्य से हमें यहाँ भेजा हैं। हमारे महाराज की सुपुत्री . रूपवती और विदूषी है। हमने सुना है कि राजकुमार कनकध्वज भी कामदेव के समान हैं। इसिलिए यह सगाई हो सकी तो वह मणिकांचन योग होगा। आप इस काम के लिए स्वीकृति दे दे, तो हमारा यहाँ आना सार्थक हो जाएगा।" : मंत्री की बात सुन कर राजा ने कहा, “देखिए, ऐसे काम में उतावली करना उचित नहीं रज का फल हरदम मीठा होता है / आप लोग कुछ दिन यहाँ रहिए, हमारा आतिथ्य र कीजिए। फिर मैं सम्यक विचार कर आप लोगों को मेरा निर्णय बता दूंगा।" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र इस पर विमलापुरी से आए हुए चारों मंत्री बोले, “महाराज, इस संबंध के बारे में हमारे महाराज अत्यंत उत्सुक हैं। इसीलिए तो उन्होंने इतनी दूर हमें यहाँ आपके पास भेजा है। आप हमारीप्रार्थना को अस्वीकार कर हमें निराश मत कीजिए, यही हमारी विनम्र प्रार्थना हैं।" सिंहलनरेश ने कहा, "अभी हमारा पुत्र बहुत छोटा है। इसलिए इतनी जल्द उसके विवाहसंबंध की चर्चा करना हमें समयोचित्त नही लगता है। अभी हमारे राजकुमार ने राजमहल भी नहीं देखा है। हमने उसे अपने पास बीठा कर खिलाया भी नहीं है। दूसरी बात यह है कि अभी हमने राजकुमारी को देखा भी नहीं है। कन्या को देखे बिना विवाह संबंध निश्चित कैसे किया जा सकता है ? यदि आपके महाराज अपनी कन्या का विवाह करने को इतने उतावले है तो आप लोग अपने महाराज को राजकुमारी के लिए कोई दूसरा वर ढूँढ लीजिए। आपके ऐसा करने पर मुझे कोई आपति नहीं है।" राजा की बात सुन कर मंत्री बोले, “नहीं, नहीं महाराज। ऐसा मत कहिए। अगर ऐसा हो, तो हम यहाँ कुछ दिन और रूकने को तैयार हैं। आप अवश्य विचार कीजिए और फिर हमें - अपना निर्णय बताइए।" अब कनकरथ राजा ने अपने मंत्री को अपने पास बुलाया और उससे पूछा, “मंत्री, इस काम में हमें क्या करना चाहिए ? विदेशी लोगों को यहाँ कितने दिन रोक कर रखेंगे ? कोढी पुत्र के साथ रूपवती कन्या का विवाह कराना गलत है, मुझे यह बिलकुल उचित नहीं जान पड़ता है। अपने स्वार्थ के लिए किसी को प्रिय कन्या का सारा जीवन क्यों बिगाड़ा जाए ? इस संसार में कपट से बढ़ कर बड़ा पाप अन्य नहीं है / कपट पुण्यरूपी वृक्ष का उन्मूलन कर डालनेवाली कुल्हाड़ी है। इसलिए जानबूझ कर किसी की देवकन्या जैसी सुंदर पुत्री का अपने कोढ़ी पुत्र से विवाह कराना मुझे बिलकुल उचित नहीं झुंचता है। यदि मैं कपट कर के किसी कन्या का जीवन बिगाड़ दूँ तो अगले जन्म में मुझे इस पापकर्म का कटु फल अवश्य भोगना पड़ेगा। यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूँ। अनिष्ट कार्य करके इष्ट लाभ भले ही किसीको मिलता हो, लेकिन वह कार्य करनेवाले की गति कभी शुभ नहीं हो सकती। विष के संसर्ग से युक्त अमृत मृत्यु लानेवाला ही तो होता है। इसिलिए इस दुष्ट कार्य से दूर रहने में ही भलाई हैं।" L P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र _ इतना कह कर राजा ने मुझे मेरी सलाह क्या है यह पूछा। मैंने राजा को बताया, “कुमार क कुष्ठ रोग की जानकारी अभी तक किसी को नहीं है। फिर यदि यह बात अगोपनीय थी तो फिर अब तक कुमार को गुप्त गृह में रख कर उसकी रक्षा ही क्यों की ? आपको पहले से ही मिथ्या बातें प्रचारित नहीं करनी चाहिए थी ! मिथ्या प्रचार करते रहने के बाद अब घबराने से क्या लाभ होगा ? दूसरी बात यह है महाराज, कि जब तक मनुष्य का पुण्योदय होता है, तब तक उसका अयोग्य कार्य भी संसार में योग्य ही माना जाता है। जबतक भाग्य अनुकूल होता है, तब तक शांति के उपाय अपने आप मन में आ जाते है। इस समय आपका भाग्य अनुकूल जान पड़ता है, इसलिए कुमार के कृष्ठ रोग की शांति का उपाय भी मिल सकेगा। बेचारे मकरध्वज राजा के मंत्री इतनी दूर से यहाँ कनकध्वज कुमार से अपने राजा की राजकुमारी के विवाह का प्रस्ताव लेकर आए है; उनको निराश कर लौटा देने में मुझे बुद्धिमानी नहीं दिखाई देती। यह संबंध उत्तम है। फिर से ऐसा अवसर आना कठिन हे / कुमार के कुष्ठ रोग के निवारण के लिए फिर एक बार कुलदेवी की आराधना करनी चाहिए। देवी के प्रसन्न होने से कुमार का कुष्ठ रोग से मुक्त होना संभव है। इसलिए महाराज, ज़रा हिंमत से काम लीजिए / फ़िर ऐसे अवसर पर झूठ बोलना पड़े तो कोई दोष नहीं है / जैसे चोरों को भी सहायता करने वाले मिल जाते है, वैसे हमें भी इस काम में कोई-न-कोई मददगार अवश्य मिल जाएगा। इसलिए यह संबंध निश्चित करने में आप बिलकुल चिंता मत कीजिए। सब ठीक हो जाएगा, महाराज!" मेरी बातें सुन कर राजा ने मुझसे कहा, “मंत्रीजी, यद्यापि इस अनुचित कार्य के लिए मरा बिलकुल अनुमति नहीं है, फिर भी मैं इस काम में बाधक नहीं बनता। तुम्हें जैसा उचित लगे, वैसा करो। जो जैसा कर्म करेगा, उसे उसका फल अवश्य भोगना पड़ेगा।" अंत में राजा ने इस विवाह के बारे में सबकुछ मुझको सौंपा। कुछ दिन बीत गए। मकरध्वज राजा के मंत्री फिर एक बार राजा की सेवा में राजसभा में उपस्थित हुए। उन्होंने हमारे राजा से कहा "हे प्रभो, इतने सारे दिन विचार करने में बिताने के बाद भी, आपने अब तक हमें अपनी कोई निर्णय नहीं बताया। महाराज, विवाह की बातों में दोनों पक्षों की इच्छा से ही काम होता है, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि च=ि किसी एक ही पक्ष की इच्छा से नहीं / जब आप आज नहीं तो कल, कहीं-न-कहीं कनकध्= कुमार का विवाह कराने ही वाले हैं तो फिर 'सोने में सुगंध' जैसा लगनेवाला यह संबध जो= __ में और सगाई कराने में आप इतना विलंब क्यों कर रहे है ? अपने घर के आँगन में स्वयंवरा आई हुई लक्ष्मी को अस्वीकार कर वापस लौटाना ह– उचित नहीं लगता है। यदि आप हमें निराश करके लौटा देंगे, तो आपकी यह भूल होगी औ= इस भूल के लिए बाद में आपको पछताना पड़ेगा। हम तो आपसे हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर हैं कि आप हाथ में आया हुआ यह अवसर व्यर्थ मत जाने दीजिए।" "हे आभानरेश, मैं उस समय अपने राजा के साथ बैठ कर परामर्श कर रहा था। मैं अपने राजा से पूछा, “महाराज, विमलापुरी से आए हुए मंत्रियों को आप कब तक यहाँ रोक रखेंगे ? शीघ्र ही उनके विवाहप्रस्ताव को स्वीकार कर विवाह संबंध निश्चित कर डालिए / इस विवाहसंबंध से सिंहलपुरी और विमलापुरी के बीच संबंध धनिष्ठ बन जाएँगे।" इस तरह मैंने अपने महाराज से कहा और राजा के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना है मैंने राजा की ओर से मकरध्वज राजा की कन्या प्रेमलालच्छी का अपने देश के राजा के राजकुमार कनकध्वज के साथ विवाहप्रस्ताव स्वीकार कर लिया। श्रीफल लिया गया। आचार के अनुसार वहाँ उपस्थित लोगों को पान-सुपारी दी गई। अपने इच्छित कार्य में सफलता पाने से विमलापुरी से आए हुए चारों मंत्रियों के मनरूपं महोधि में आनंद की लहरें लहराने लगीं / मैं ने स्वीकार किया हुआ यह विवाहसंबंध हमारे महाराज के सिवाय सबको बहुत पसंद आया। राजा मकरध्वज के मंत्री यह विवाहसंबंध निश्चित होने से बहुत खुश हुए। उन्होंने मुझे बार-बार धन्यवाद देकर मेरे प्रतिकृतज्ञता व्यक्त की। फिर अतिथि बन कर आए हुए मकरध्वज के मंत्रियों ने मुझे उनका एक और काम करने के लिए प्रार्थना की और कहा कि इससे हमें पूरा संतोष मिलेगा। विमलापुरी से आए हुए इन चार मंत्रियों से मैंने कहा, “बताओ, क्या काम है ?" मंत्रियों ने कहा, “कृपा कर हमें एक बार राजकुमार कनकध्वजं के दर्शन कराइए / " इसपर मैंने झूठमूठ की बात कही, “देखो, राजकुमार इस समय तो अपने ननिहाल में अपने मामा के पास चला गया है। राजकुमार का ननिहाल यहाँ से 50 योजन दूर है, इसलिए उसे तुरन्त यहाँ बुला लेना संभव नहीं है। दूसरी बात यह हैं कि उसकी ननिहाल में भी उसके मामा उसे एक गुप्त गृह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र में रखते हैं / उसकी सेवा में एक उपमाता दी गई है। वही उसका लालनपालन करती हैं। राजकुमार को पढ़ाने के लिए एक पंडितजी आते हैं। लेकिन वे भी राजकुमार से दूर बैठते हैं और एक पर्दा बीच में रखकर कुमार को पढ़ा कर जाते हैं। पंडितजी ने भी अब तक कुमार के दर्शन नहीं किए हैं / इसलिए तुम लोग इस समय कुमार के दर्शन के बारे में आग्रह मत रखो / अब कुछ ही समय के बाद जब हम बरात लेकर विमलापुरी आएँगे, तो क्या तुम सबको उसके दर्शन नहीं होंगे ?" इतना समझाने के बाद भी मंत्रियों के मन को संतोष नहीं हुआ। इसलिए उन सबने कुमार के दर्शन का आग्रह बनाए रखा। _ मैंने सोचा, अब यदि मंत्रियों को कुमार के दर्शन कराए जाए, तो सारा भेद खुल जाएगा और जगत में बडी फजीहत होगी। इसलिए मैंने विमलापुरी के चारो मंत्रियों को अपने महल में बुला लिया। मैंने उनका खूब खुल कर स्वागत किया, उनको मिष्टान्नों का भोजन कराया। उनको प्रसन्न करने के लिए मैंने अपनी और से भरसक कोशिश की, लेकिन व्यर्थ ! मंत्री तो जिद पकडकर बैठे कि राजकुमार के दर्शन किए बिना हम यहां से नहीं जाएँगे। हमारे महाराज ने हमें यह आदेश दिया था कि राजकमार को प्रत्यक्ष देख कर ही राजकमारी प्रेमलालच्छी से उसका विवाहसंबंध निश्चित कीजिए / अब हमने विवाहसंबंध तो निश्चित कर लिया, लेकिन राजकुमार के दर्शन करना अभी बाकी है। यदि हम राजकुमार के दर्शन किए बिना विमलापुरी लौट जाएँ और यदि महाराज हम से पूछे कि 'क्या राजकुमार का रुपसौंदर्य जैसा हमने सुना था, वैसा ही हैं न / तुम उसको प्रत्यक्ष रूप में देखकर आए हो न ?' तो हम क्या उत्तर देंगे ? इसलिए आप चाहे जिस प्रकार से हो, लेकिन हमें एक बार राजकुमार के दर्शन अवश्य कराइए / _आखिर कोई उपाय बचा हुआ न देख कर मैं ने विवश होकर अंतिम उपाय किया। मैं ने दिखाई। फिर मैंने उन मंत्रियों से बिनती की कि अब तुम लोग राजकुमार को देखने का आग्रह छाड़ कर विमलापुरी लौट जाइए। मैने सचमुच उन चारों मंत्रियों को एक-एक करोड़ सुवर्णमुहरे गिन कर दे दी। इतना सारा धन अनयास मिलता देख कर चारों मंत्री बहुत खुश हो गए / अब उनके मुँह पर ताला-सा लग गया। अब वे सब-के-सब राजकुमार को देखने का आग्रह छोड कर शांत हो गए। इस जगत् में लोभ से वश न होनेवाले जीव विरले ही होते हैं / वास्तव में लगभग सारा जगत् लोभरुपी समुद्र में डूबा हुआ है। लोभ ही सभी पापों का बाप है। माया सभी पापों को जन्म देनेवाली माँ है। सभी अकार्यो के मूल में यह माया लोभ की जोड़ी हो होती हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun.Gun Aaradhak Trust. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र अब मैंने अपने राजा सिंहलनरेश को मंत्रियों को दी गई रिश्वत की बात बताई / राजा ने इस पर कहा, "ठीक ! तुम्हें जो उचित लगे वह करो। मैंने तो यह काम पहले से ही तुमको सौंप दिया हैं।" __ एक-एक करोड़ सुवर्ण मुहरों के मालिक बने हुए चारों मंत्रियों ने राजा से कहा, "हे सिंहलनरेश, आप कनकध्वज प्रेमलालच्छी के विवाह का शुभ मुहूर्त भी निश्चित कर लीजिए। " राजा ने तुरन्त राजज्योतिष को बुला कर राजकुमार-राज-कुमारी के विवाह का मुहूर्त भी निश्चित करा लिया / ज्योतिषी ने राजा को बताया, “महाराज, आनेवाले छ: महीनों में अमुक दिन अमुक समय इन दोनों के लिए शुभ मुहूर्त हैं।" विवाह का मुहूर्त निश्चित हुआ। विमलापुरी से आए चारों मंत्रियों को सिंहलनरेश और उनके मंत्रियों ने भावभीनी विदा दी। खुश होकर मंत्री सिंहलनगरी से रवाना हुए और कुछ ही समय के बाद विमलापुरी लौट आए / मंत्रियों ने विमलापुरी के राजा के पास जाकर राजा को सारा वृत्तान्त कह सुनाया। राजा ने मंत्रियों से कनकध्वज राजकुमार ने रुपसौंदर्य के बारे में पूछा। मंत्रियों ने मनगढन्त झूठा उत्तर दिया कि आपने राजकुमार के रुप(दर्य के संबंध में जैसा | सुना था, वैसा ही राजकुमार का रुप हमने देखा / हम प्रेमला राजकुमारी की सगाई भी राजकुमार - के साथ करके आए है। मंत्रियों के कार्य से राजा बहुत खुश हुआ। उसने राजसभा में मंत्रियों को बुलाया और सबके सामने प्रत्येक मंत्री को एक-एक लाख सुवर्ण-मुहरें पुरस्कार के रूप में देकर उन सबका सम्मान किया।" . अब सिंहलनरेश के महामंत्री हिंसक ने चंद्रनरेश को आगे बताया, "फिर मैंने कनकध्वज राजकुमार के विवाह की तेजी से तैयारी प्रारंभ की। नगरजन मुझ से पूछताछ करने लगे, "किसका विवाह होनेवाला है ? कब होगा ?" इस पर मैंने नगरजनों को बताया / “हमारे महाराज के पुत्ररत्न कनकध्वज राजकुमार का विवाह निश्चित हुआ है। वधू के रूप में विमलापुरी के राजा कनकध्वज की कन्या प्रेमलालच्छी को चुना गया हैं / यह विवाह समारोह अब से लगभग पाँच-छ महीनों में होगा। विमलापुरी के राजा के मंत्री यहाँ आए थे। वे विवाहसंबंध निश्चित कर गए हैं। अब विवाह समारोह की तैयारी करनी है। -- P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र धीरे-धीरे राजकुमार के विवाह की बात सारी नगरी में फैल गई। सबके मन में एक ही बात की जिज्ञासा थी कि अब राजकुमार का विवाह होनेवाला है, तो महाराज सिंहलनरेश अब राजकुमार को गुप्तगृह में से बाहर निकालेंगे और अब हमें राजकुमार के दर्शन करने का अवसर मिलेगा। हिंसक मंत्री ने चंद्र राजा को आगे बताया कि इधर जब मैं राजकुमार के विवाह की तैयारी कर रहा था, तब सिंहलनरेश ने मुझ से कहा, “मंत्री, तुम क्यों यह सारा अनर्थ कर रहे हो ? एक सुशील और सुंदर कन्या का जीवन बरबाद करने के लिए तुम क्यों तैयार हो गए हो ? कुमार कोढ़ रोग से ग्रस्त है यह बात आखिर कब तक छिपी रहेगी ? अंत में पाणिग्रहण के समय तो यह बात प्रकट हुए बिना नहीं रह सकेगी न ? जब राजकुमार का कोढ़ी रुप देख कर राजकुमारी विवाह करने से साफ इन्कार कर देगी, तब मुँह छिपाना पडेगा, नाक कट जाएगी और राजकुमार का विवाह हुए बिना बरात को लौट आना पड़ेगा, तब हमारे शत्रु हमारी हँसी उड़ाएँगे, हमारा मुँह नीचा हो जाएग; / क्या इस बात की तुम्हें खबर भी है ? अपने ही राज्य में अपनी जनता को मुँह दिखाना कठिन ही जाएगा। हमारा सारा भंडाफोड़ हो जाएगा। देखो मंत्री, अब भी कुछ नहीं बिंग़ड़ा हैं / विमलापुरी के नरेश को कोई बहाना बना कर हम कहलवा सकते हैं कि हमने विवाहसंबंध निश्चित तो किया था, लेकिन अमुक कारण निकला है, इस लिए विवाह कराने का हमारा विचार नहीं है।" सिंहलनरेश की बात सुन कर मैंने उनसे कहा, “महाराज, आप बिलकुल चिंता मत कीजिए। जैसे आपने पहले पुत्रप्राप्ति के लिए कुलदेवी की आराधना की थी, वैसे ही फिर एक बार कुलदेवी की आराधना कीजिए / देवी प्रसन्न होकर अवश्य ही कोई-न-कोई उपाय सुझाएगी। आप कोशिश तो कीजिए, महाराज ! चिंता मत कीजिए। सब ठीक हो जाएगा।" __मेरी बात सुनकर राजा ने कुलदेवी की आराधना फिर एक बार प्रारंभ की। कुछ दिनों की आराधना के बाद देवी ने राजा के सामने प्रकट होकर कहा, “हे राजन्, तू मुझे बार बार अपने पास क्यों बुलाता हैं ? बोल, तू मुझसे क्या चाहता है ?" ... इसपर राजा ने देवी से कहा, 'हे माताजी, मेरा पूर्ण विरोध होते हुए भी हिंसक मंत्री ने राजकुमार कनकध्वज का विवाह विमलापुरी के राजा की कन्या प्रेमलालच्छी के साथ निश्चित P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ... श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र किया है। मंत्री ने अब राजकुमार के विवाह की तैयारी भी प्रारंभ कर दी है। तुम्हे तो मालूम ही है कि राजकुमार जन्म से कोढ़ी है। अब तक ‘राजकुमार कोढ़ी है' यह बात सबसे छिपा रखी है, लेकिन अब राजकुमारी के साथ पाणिग्रहण कराते समय यह बात थोडे ही छिपी रह सकेगी ? राजकुमार कोढ़ी है यह बात जानकर राजकुमारी उसके साथ विवाह करने से इन्कार कर देगी और यह अपमान देख कर मुझे तो ज़हर खाकर मर जाना पड़ेगा। हे माता, उस स्थिति में मेरी नाक कटजाएगी, संसार में मेरी फजीहत हो जाएगी। इसलिए माँ, मेरी लाज रखना अब तुम्हारे ही हाथ में है / तुम राजकुमार को स्वस्थ कर दो, उसका कोढ़ नष्ट कर दो, माँ ! राजकुमार के कोढ़निवारण के लिए प्रार्थना करने के उद्देश्य से ही मैंने तुम्हें यहाँ बुलाने का कष्ठ दिया है। हे देवी, तुम हमारी कुलमाता हो / कुल की लाज रखना तुम्हारा पवित्र कर्तव्य है।" ____राजा की बात सुन कर देवी ने कहा, “हे राजन्, पूर्वजन्म के वेदनीय कर्म के उदय के कारण तेरा पुत्र जन्मजात कोढ़ी है। उसके कोढ़ का निवारण करने में मैं समर्थ नहीं हूँ / इस संसार में प्रत्येक जीव को अपने किए हुए कठिन कर्म का फल भुगतना ही पड़ता है। दूसरी बात यहा है कि मैं कोई ऐसी शक्तिशाली देवी नहीं हूँ कि किसी के जीवन में बहुत बड़ा हेरफेर कर सकूँ। हे राजन्, क्या तू यह कर्मसिद्धान्त नहीं जानता है कि - "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।' लेकिन हे राजन्, फिर भी मैं तुम्हारी चिंता के निवारण का एक उपाय बताती हूँ। वह तू ध्यान से सुन ले। राजकुमार कनकध्वज के विवाह की रात को पहला प्रहर बीत जाने के बात विमलापुरी की पूर्व दिशा के दरवाजे से आभानरेश चंद्र, उसकी सौतेली माता वीरमती और रानी गुणावली यो तीनों आभापुरी से तेरे पुत्र का विवाहमहोत्सव देखने के लिए आएँगे। आभानरेश चंद्र गुप्त वेश में अपनी सौतेली माँ और रानी के बाद उसी पूर्व दिशा के दरवाजे से प्रवेश करेगा। चंद्रराजा के उस दरवाजे से अंदर प्रवेश करते ही तू उसे अपने पास बुला ले और उससे प्रार्थना कर कि, 'हे राजन्, आप राजकुमार कनकध्वज़ के लिए उसके स्थान पर वर बन कर प्रेमलालच्छी से विवाह कर लीजिए।' ऐसा करने से, हे राजन्, तेरी चिंता दूर हो जाएगी।'' इतना कह कर देवी अदृशय हो गई। कुलदेवी के बताए हुए उपाय के बाद राजा खुश हुआ और वह भी अब अपने राजकुमार के विवाह की तैयारी में जुट गया। धीरे-धीरे राजकुमार कनकध्वज की बरात के प्रस्थान का दिन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 71 निकट आता गया। बरात लेकर प्रस्थान करने से पहले हमने राजकुमार कनकध्वज को वस्त्रों से चारों ओर से आच्छादित शिविका में सजाए हुए गजराज पर बिठाया और फिर ताशो बाजे के साथ विमलापुरी की ओर प्रस्थान किया। सौभाग्य से हमारी यह कपटलीला किसी की समझ में नहीं आई। हम लोगों ने पूरे ठाटबाट से विमलापुरी में प्रवेश किया। राजा मकरध्वज ने हम सब का बहुत शानदार स्वागत किया। राजा ने बरात के निवास के लिए पहले से ही सुंदर प्रबंध कर रखा था। हमें एक भव्य महल निवास के लिए दिया गया था। अनेक दिनों तक यहाँ रह कर हमने राजा मकरध्वज के आदरातिथ्य का उपभोग किया / इन दिनों में हमारे सामने कोई कठिनाई उत्पन्न नहीं हुई। लेकिन हे आभानरेश, आज तो विवाह का मुहूंत निकट आ गया है / अब हमारी लाज रखना सिर्फ आप ही के हाथ मे हैं। आप बुद्धिनिधान और परोपकारी राजा हैं / मैंने सारी हकीकत यथातथ्य रूप में आपके सामने अथ से इति तक कह सनाई है / मुझे पूरी आशा है महाराज, कि आप इस कठिन प्रसंग में हमारी सहायता करेंगे।" / इस पर राजा चंद्र ने हिंसक मंत्री से कहा, "हे मंत्री, यह सारा प्रपंच तुम लोगों ने ही जानबूझकर खड़ा किया है। अब तुम लोग इस षड़यंत्र में मुझे भी धसीटना चाहते हो, लेकिन मुझे यह बिल्कुल उचित नहीं लगता है।" हिंसक मंत्री ने आभानरेश की बात पर कहा, “हे राजन, कुलदेवी के आदेशानुसार कार्य करने में हमें या तुम्हे कोई दोष नहीं है। अब कृपा कीजिए और समय बिगाड़े बिना हमारी प्रार्थना स्वीकार कर हमारी चिंत्ता दूर कीजिए।" आभानरेश ने हिंसक मंत्री की बात सुन कर कहा, "राजकुमारी के साथ विवाह करके बाद में वह कन्या तुम्हारे कोढी राजकुमार को सौंप देना बाज़ार में से बकरी खरीद कर, कशाई को सौंप देने के समान निर्दय कार्य है। यह ऐसा विश्वासघात पूर्ण काम है जैसे कमर में रस्सी बाँधकर कोई किसीको किसी कार्यवश गहरे कुएँ में उतार कर फिर उपर से रस्सी काट दें ! इसलिए तुम ऐसा अनुचित कार्य करने के लिए मुझसे बार बार बिनती मत करो। मैं ऐसा लोकनीति के विरूद्ध, सदाचार से रहित और दुर्गति का मार्ग बताने वाला काम हरगीज़ नही करूँगा। चाहे दु:ख क्यों न आए, जहर क्यों न खाना पड़े, मूर्खता क्यों न करनी पड़े, बीमारी क्यों न आए, भले ही मृत्यु ही क्यों न आ जाए, लेकिन सद्गति को सुलगा देनेवाला यह सदाचार रहित काम अच्छा नहीं है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 श्री चन्द्रराजर्षि चरि चंद्र राजा ने सिंहलनरेश और हिंसक मंत्री से अपनी पीड छुड़ा लेने के लिए बहु कोशिश की, लेकिन स्वार्थान्ध बने हुए सिंहलनरेश और महामंत्री हिंसक अपने विचार से ट से मस न हुए। उन दोनों को अपने विचार पर मजबूत जान कर परो.पकार-परायण चंद्र राज ने मन में सोचा, यह कार्य किए बिना यहाँ से छूटना संभव नहीं लगता है / इसलिए कुछ दे विचार करके मजबूर होकर चंद्र राजा ने इस कार्य के लिए अनुमति प्रदान कर दी। चंद्र राज से स्वीकृति पाकर सिंहलनरेश हिंसक मंत्री के हर्ष का पार न रहा। अब राजा ने तुरंत अपने बरातियों और कर्मचारियों को वरराजा की वरयात्रा (जुलूस के लिए तैयारी करने का आदेश दिया। विविध वाद्यों की आवाज से आकाश गूंज उठा। हाई घोड़े और सेना सज्ज हो गई। विवाह के लिए वचनबद्ध हुए चंद्र राजा को सुगंधित जल से स्नान कराया गया / ऊ मूल्यवान् वस्त्रालंकार पहनाए गए और उत्तम रीति से सजाए हुए अश्वरत्न पर चंद्र राजा वर के रूप में और वेश में बिठा कर वाद्यों की मधुर ध्वनि के साथ, ताशे-बाजे बजाते हुबरातियों के साथ राजमंदिर की ओर ले जाया गया। रास्ते में वरराजा को देखने के लिए लो की बहुत बड़ी भीड इकट्ठा हो गई थी। वरराजा का अलौकिक रुपसौंदर्य देख कर सब लो मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा कर रहे थे ! उस समय आकाश में चंद्रमा दुगुनी शोभा घारण क इस संसार के इस अद्वितीय ‘चंद्र'की अद्भुत शोभा देखने के लिए क्षणभर के लिए रूक ग / आकाश में स्थिति चंद्रमा को लगा कि धरती पर मुझ से अधिक उज्जवल यह चंद्रमा कहाँ आया ? यद्यपि वरराज का स्थान चंद्र राजा ने ग्रहण कर लिया था, लेकिन बरातियों में आई स्त्रियाँ राजकुमार कनकध्वज का नाम ले-लेकर ही नृत्य कर रही थी और गीत गा रही थी अश्वरत्न पर वरराजा बन कर बैठे हुए चंद्र राजा पर रास्ते में और अटारियों में दर्शकों की दृष्टि सबसे पहले पडती थी। जुलूस चल रहा था कि रास्ते में खड़े एक दर्शन अचानक कहा, “हैं, यह क्या बात हैं ! यह वरराजा तो कोई दूसरा ही लगता है। यह सिंहलका पुत्र राजकुमार कनकध्वज नहीं लगता है।" इस दर्शक की बातें सुन कर एक चतुर दर्शक बोल उठा, "तूं तो मूर्ख लगता है। हम लोगों ने अब तक कभी राजकुमार कनकध्वज को अपनी आँखों से देखा है ? फिर तू मूर्खताभरी बात क्यों कहता है ? राजकुमार कनकध्वज के रुपसौंदर्य के संबंध में अब तक m Aaradhak Trust Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 73 सुना था, वैसा ही यह राजकुमार है। राजकुमारी प्रेमलालच्छी बड़ी सौभाग्यशाली है कि उसे एसा कामदेव के समान वर मिला है। इस वरराजा की माता भी धन्य है कि उसने ऐसे दिव्यअलोकिक रुपधारी पुत्र को जन्म दिया है। इस वरराजा का रूपसौंदर्य तो देवताओं को भी शरमानेवाला है। इस तरह रास्ते में खड़ी भीड़ बरातियों में वरराजा के रूपसौंदर्य की ही चर्चा चल रही थी। धीरे-धीरे वरराजा की वरयात्रा मकरध्वज राजा के राजमहल के पास आ पहुँची। जोरशोर से बजते जानेवाले विविध वाद्यों की मधुर ध्वनियों से आकाश गूंज उठा। राजमहल के पास पहुँचते ही वरराजा की सास बननेवाली मकरध्वज की रानी ने सच्चे मोतियों से वरराजा की आवभगत की-पूजा की। उसके कपाल पर कुंकुम तिलक किया, उपर से अक्षत लगाए और उसका स्वागत किया। वरराजा को पूरे सम्मान के साथ विवाह मंडप मे लाया गया। मुहूर्त निकट आते हो देवांगना के समान सुंदर प्रेमलालच्छी को उसकी सखियाँ उसका सोलहशृंणगार कर हाथ पकड़ कर विवाहमंडप में ले आई और उन्होंने राजकुमारी प्रेमला को वधू के रूप में वरराजा के सामने बिठा दिया। वधूवर की सुंदर जोड़ी देख कर विवाह अवसर पर उपस्थित सभी लोगों को ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो रति और कामदेव का ही यहाँ साक्षात् मिलन हो रहा है। सभी उपस्थितों की दृष्टि बार-बार वरवधू पर पड़ती थी और उनकी अनुपम जोड़ी देख कर सब मन ही मन खुश हो रहे थे। इस समय रानी वीरमती और गुणावली ने विवाहमंडप में प्रवेश किया। वरवधू की सुंदर जोड़ी देख कर सास-बहू दोनों के मन आनंद से नाच-नाच उठे। __ हस्तमिलाप की घड़ी निकट पहुँचते ही ब्राह्मण पुरोहितों ने वेदों का मंत्रोच्चारण किया, मंगलाष्टक गाए गए और विधिपूर्वक वर ने वधू का पाणिग्रहण किया। दोनों को पुरोहित ने अग्नि के चार फेरे कराए। क्या यह विधि चार गतियों के फेरों में भ्रमण करने की बात सूचित नहीं करती ? जब पुरोहित 'वरवधू सावधान' कहता है, तो ये शब्द बहुत रहस्यपूर्ण लगते हैं। समर्थ रामदास स्वामी का जीवन अपने बचपन से ही विरत्ति वैराग्य की भावना से परिपूर्ण था। उनके मन में विवाह करने की बिलकुल इच्छा नहीं थी। लेकिन अपनी माता के आग्रह के सामने विवश P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र होकर वे विवाह करने को तैयार हो गए। विवाह के समय पुरोहित ने जब 'वरवधू सावधान' शब्दों का उच्चारण किया तभी उसी क्षण विवाहमंडप में से उठकर रामदास भाग निकले और उन्होंने संन्यास दीक्षा ग्रहण कर ली। 'सावधान' शब्द ने उनकी मोहनिद्रा समाप्त कर दी और . उन्हें जगा दिया। विवाह की विधि पूरी होने के बाद रानी गुणावली ने अपनी सास वीरमती से कहा, 'हे माताजी, क्या आपने वरराजा को पहचाना नहीं ? मुझे तो ऐसा लगता है कि प्रेमलालच्छी के साथ अभी जिस वरराजा का विवाह हुआ, वे आपके ही पुत्ररत्न हैं।" वीरमती को गुणावली की बातों पर विश्वास नहीं हुआ। इसलिए उसने गुणावली की बात सुनकर भी कुछ नहीं कहा। लेकिन गुणावली का चित्त चिंता से घिर गया / इसलिए उसने फिर से अपनी सास से कहा, "माताजी, जरा सावधानी से देखिए। आपको मेरी बात की सच्चाई मालूम पड़ जाएगी। मेरे पतिदेव आभानरेश ने ही यहाँ आकर इस राजकन्या से विवाह कर लिया है। अब मेरे पतिदेव प्रेमलालच्छी को मेरी सौत बनाकर राजमहल में ले आएँगे। : हमारी तरह वे भी चाहे किसी भी तरह से क्यों न हो, लेकिन यहाँ आ पहुंचे हैं। माताजी, इस कारण से मेरे मन में बहुत चिंता और भय उत्पन्न हो रहा है।" बहू गुणावली की बात सुन कर सास वीरमती ने उससे कहा, “बहू, तू तो भोली की - भोली ही बनी रही। तेरा पति यहाँ कहां से और कैसे आ सकता है ? अरी, वह तो आभापुरी में - अपने महल में गाढ़ी नींद सो रहा है। वहाँ से जागकर यहाँ आने की उसकी हिम्मत नहीं है। मैंने तो तुझ से पहले ही कहा था कि चंद्र से भी अधिक रुपसुंदर पुरुष इस धरती पर अनेक हैं। इसी का प्रमाण यह राजकुमार कनकध्वज हैं / तू बार-बार ‘चंद्र चंद्र' क्या कहती जा रही है ? लगता है कि तुझे तो सभी पुरुष तेरा पति चंद्र ही दीखते हैं। बहू, मैंने तो तेरे पति चंद्र को अपनी मंत्र शक्ति से ऐसे निद्राधीन कर दिया है कि वहाँ से जागने की तो बात ही छोड़ी, लेकिन आँखें खोलने की भी उसमें ताकात नहीं हैं। जब हम यहाँ से आभापुरी लौट जाएँगी और जब मैं अपने दूसरे मंत्र का प्रयोग करूँगी, तभी तेरा पति चंद्र और रास्ते पर ही निद्राधीन हुए नगरजन निद्रादेवी के पंजे से छूट सकेंगे। - इसलिए बहु, मेरी बात पर विश्वास रख ले और अपने चित्त में से चंद्र की चिता हटा। -दे। इस भूतल पर अनेक रुपवान् पुरुष होते हैं।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 75 सी वीरमती के सामने अपनी हार मान लेने के सिवाय गुणावली के पास अन्य कोई रास्ता नहीं था इसलिए वह मौन तो हो गई, लेकिन उसके चित्त में से चिंता नष्ट नहीं हुई / इसके विपरीत वह जैसे-जैसे ध्यानपूर्वक देखती गई, वैसे-वैसे उसके मन की आशंका द्रढ़ होती गई। उधर विमलापुरी-नरेश मकरध्वज वरराजा को देखकर अपने भाग्य की प्रशंसा करने लगा। ऐसे कामदेव के समान रुपसुंदर दामाद को पाकर वह फूला न समाया। राजा मकरध्वज अपने मन में सोचने लगा कि ऐसे सुंदर पुरुष का निर्माण विधाता ने कैसे किया होगा ? मेरी पुत्री को अत्यंत अनुरुप वर प्राप्त हुआ है। मेरे मन में बस यही एक अभिलाषा है कि परमात्मा इस नवदंपती को निरंतर सुखी रखे। प्रसन्नचित हुए राजा मकरध्वज ने 'करमोचन' विधि के अवसर पर वर को विविध मूल्यवान् वस्तुएँ उपहारस्वरुप समर्पित कर अपनी उदारता का परिचय दिया। इस तरह विवाहविधि संपन्न हो गई। प्रेमलालच्छी राजकुमारी ने कब पहली बार अपने पति के सुखारविंद का अवलोकन किया और वह अत्यंत खुश हो गई / ऐसा अनुपम पति दिलाने के लिए उसने परमात्मा के प्रति कृतज्ञ भाव प्रकट किया। इस संसार में मनुष्य के जीवन में सुख निरंतर बना नहीं रहता। घड़ी में सुख होता है, तो घडी में दु:ख / सुख-दु:ख की धूपछाँह का यह खेल बराबर चलता रहता हैं / नवविवाहिता प्रेमलालच्छी की अचानक दाहिनी आँख फरक उठी। उसके मन में तुरन्त किसी अशुभ घटना की आशंका निर्माण हुई / लेकिन यह बात उसने किसी से नहीं कही। विवाह समारोह निविंधन रीति से संपन्न होने के कारण सिंहलनरेश मकरध्वज ने याचकोंको मुक्तहस्त से दान दिया, स्वजनों को पुरस्कार प्रदान किए और सबको प्रसन्न कर दिया। फिर विवाह समारोह के उपलक्ष्य में आनंदोत्सव प्रारंभ कराया गया। विवाहविधि समाप्त हो जाने के बाद नवदंपती को विशेष रीति से तैयार किए और सजाए हुए विशाल विलासभवन में मनोरंजन के लिए भेजा गया। वहाँ सुवर्ण के पाँसे सज्जित करके रखे गए थे। वर वधू अब एक दूसरे के साथ पाँसे से खेलने लगे। यह खेल खेलतेखेलते चंद्रराजा ने समस्या के एक पद का उच्चारण किया - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र आभापुरी के चंद्र का, संयोग ही से साथ है। इस अचानक प्रेम का, निर्वाह किसके हाथ है ? बेचारी राजकुमारी प्रेमलालच्छी उसके विवाह के बारे में घटित सारी घटनाओं से अनजान थी, इसलिए आभानरेश की बताई हुई समस्या का सही अर्थ वह नहीं समझ सकी। इसलिए उसने आकाश और चंद्रमा के संयोग की बात समझकर चंद्रराजा की बताई हुई समस्या का उत्तर इस प्रकार दिया - आकाश से इस चंद्र का, जिसने मिलाया साथ है। उस पथ का निर्वाह करना, बस उसीके हाथ है। राजकुमारी का दिया हुआ उत्तर सुनकर चंद्रराजा ने सोचा कि यह प्रेमलालच्छी चतुर होते हुए भी मेरी सांकेतिक बात को समझ नहीं सकी। इसलिए इसे स्पष्ट शब्दों में नाम-ग्राम बताना उचित होगा। इसलिए बहुत देर तक पाँसों का खेल प्रेमलालच्छी के साथ खेलते-खेलते अंत में अपना अभिप्राय प्रकट होते हुए चंद्र राजा ने कहा - पूर्व दिशा में आभानगरी, चंद्र नृपति का राज्य जहाँ / क्रीड़ा योग्य भवन हैं उनके, पाँसे भी है रम्य वहाँ // वैसी यहाँ सजावट हो तो, जी अपना बहलायें हम / नीरस खेल में कही सुंदरी, कैसे रात बिताएँ हम ? राजा चंद्र के मुख से ऐसी बातें सुन कर प्रेमलालच्छी विचारसागर में डूब गई और अपने मन में विचार करने लगी कि मेरे पतिदेव ऐसे आनंद के अवसर पर ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं ? ये तो सिंहलपुरी से मेरा पाणिग्रहण करने आए हैं, फिर सिंहलपुरी के स्थान पर ये आभापुरी और वहाँ के भवनों की प्रशंसा क्यों करते जा रहे हैं ? ऐसा लगता है कि सिंहलपुरी के राजकुमार के स्थान पर आभानरेश ही मुझसे विवाह करने को आए हैं / इसीलिए उनकी बातें बड़ी रहस्यमय लग रही हैं / अन्यथा, वे ऐसी अप्रसंगिक लगनेवाली बातें क्यों करते ? लम्बे समय तक प्रेमलालच्छी के साथ पाँसों का खेल खेलने के बाद खेल पूरा कर चंद्रराजा भोजन करने के लिए बैठा / भोजन करते-करते चंद्र राजा ने पीने के लिए पानी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मागा। निकट हो शीतल पानी से भरा हुआ सुवर्ण का घड़ा पड़ा था। उसमें से पानी लेकर प्रेमला ने बड़े प्रेम से पति की पिलाया। पानी पीते-पीते चंद्र राजा ने प्रेमला से कहा, “हे प्रिये, क्या तूने कभी गंगा का पानी पिया है ? गंगा के पानी की तुलना में मुझे वह पानी फीका स्वादरहित लगता है।" पति की बात सुनकर प्रेमला फिर एक बार विचारसागर में डूब गई। वह सोचने लगी, सिंहलपुरी तो सिंधु नदी के किनारे पर स्थित हैं और गंगा नदी तो पूर्व दिशा में आती है। फिर मेरे पति गंगा का और गंगा के पानी का वर्णन कैसे कर रहे है ? उनकी बातों में अवश्य ही कोईन-कोई रहस्य छिपा हुआ है। इसलिए प्रेमला ने पति के हृदय का भाव जानने के उद्देश्य से आखें उठा कर पति की ओर देखा। पति के मुख पर दिखाई देनेवाले भावों को समझ कर प्रेमला को लगा कि पति का चित्त अत्यंत चिंता में डूबा हुआ है। यह देख कर प्रेमला फिर से चिंता में डूब गई / वह पति के चित्त की चिंता जानने के लिए फिर से कुछ पूछना ही चाहती थी कि सिंहलनरेश अचानक वहाँ आ धमके। उन्होंने चंद्रराजा को एकान्त में बुलाया और कहा, “हे महाश्य, अब रात बहुत थोड़ी बाकी है। रात का अंतिम प्रहर चल रहा है। मैं यह जानता हूँ कि इस स्थान का त्याग करना आपको प्रिय नहीं लग रहा है। लेकिन दूसरा कोई उपाय ही नहीं है / इसलिए अब आप यहाँ से जल्दी चलेंगे, तो अच्छा होगा।" इस समय सिंहलनरेश का वर्ताव स्वार्थ पूरा होने पर वैद्य क्यों न मर जाए, जैसा था। सिंहलनरेश की कही हुई बात चंद्रराजा को अत्यंत अरुचिकर लगी। लेकिन पहले से ही शर्त से बँधे हुए चंद्रराजा को यहाँ से अपनी प्रिय विवाहिता पत्नी को छोड़कर जाने के सिवाय मुक्ति का कोई उपाय भी दिखाई नहीं दे रहा था। - बुद्धिमान् चंद्रराज सिंहलनरेश के किए हुए छोटे-से इशारे से सबकुछ समझ गया / इसलिए उसने तुरन्त विलासभवन का त्याग किया और वह बाहर पहले ही तैयार रखे गए रथ में अपनी पत्नी प्रेमला के साथ बैठकर चल निकला। उसने अपना निवासस्थान बदल दिया। दोनों रथ में बैठकर उसी स्थान पर आ पहुँचे जहाँ बराती लोग ठहरे हुए थे। वहाँ महल में एकान्तस्थान में दोनों आ पहुँचे और प्रेम से साथ-साथ बैठे / प्रेमला ने देखा कि पति का मन उदास है। - प्रेमला ने यह अनुभव किया कि मेरा पाणिग्रहण करते समय पति को जितना उल्लास था उतना मेरे साथ पाँसों का खेल खेलते समय नहीं था। अब तो पाँसों के खेल के समय था, उतना भी उल्लास दिखाई नहीं पड़ता है। प्रतिक्षण उनके मन का उल्लास घटता जा रहा है। Jun Gun Aaradnak Trust P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 श्री चन्द्रराजर्षि चरि= जब प्रेमला इस प्रकार विचार कर रही थी, उसी समय अचानक हिंसक मंत्री वहाँ अ पहुँचे और उन्होंने चंद्रराजा को सांकेतिक भाषा में उस स्थान का त्याग करने को कहा। हिंसक मंत्री का संकेत चंद्र राजा को समझ में तुरन्त आ गया और वह बहुत बड़ी चिंता में पड गया वह सोचने लगा कि एक ओर नवविवाहिता प्रेमला का मेरे प्रति गहरा स्नेह भाव है, दूसरी ओमैं कनकध्वज राजकुमार के लिए शर्त के साथ प्रेमला का पाणिग्रहण कर चुका हूँ और तीसरी ओर यदि वीरमती और गुणावलो मुझसे पहले आम्रवृक्ष पर बैठकर विमलापुरी पहुँच गई, ते मेरी क्या स्थिति होगी ? इन तीन बातों से चंद्रराजा का चित्त चिंता की उलझन में फँसा हुआ था। फिर भी, झठ से अपने मन में निर्णय कर, जैसे साँप अपनी केंचुली का त्याग कर चल जाता है, वैसे ही चंद्रराजाप्रेमला के प्रेम का त्याग कर वहाँ से जल्द उठ खड़ा हुआ। वह वह से चला ही जानेवाला था कि चंट और सावधान प्रेमला ने तुरन्त उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, “हे नाथ, मुझे छोड़ कर आप कहाँ चल निकले हैं ?" ___ चंद्रराजा ने इसपर बनावटी उत्तर दिया, “मैं मलविसर्जन के लिए जाकर अभी लौट आता हूँ।" मलविसर्जन की बात सुन कर प्रेमला हाथ में पानी का कलश लेकर पति के साथ जाने को तैयार हो गई। चंद्रराजा ने उसे बार-बार लौट जाने को कहा, लेकिन शंकाशील बन प्रेमला वापस नहीं गई। अंत में चंद्रराजा को तुरन्त लौट आना पड़ा। ___ महामंत्री हिंसक फिर से वहाँ आया। उसने इस युक्ति से चंद्रराजा को संकेत किया - 'हे रात्रिनृप ! चंद्र ! पक्षे-हे निशाटन अर्थात् यहाँ से चले जाने की जल्दी करो। यदि तुम्हें सूर्य ने देखा तो तुम्हारा स्वरूप प्रकट हो जाएगा। चंद्रराजा हिंसक मंत्री का संकेत तो जान गया लेकिन वह कर ही क्या सकता था - प्रेमला की चतुराई के सामने उसका भाग जाने का कोई उपाय सफल सिद्ध नहीं हो रहा था। चंद्र राजा अनेक बार महल के दरवाजे से बाहर आने की कोशिश करता था और हर बार प्रेमल पति का हाथ पकड़ कर उसे अपने साथ महल में ले आती थी। चंद्रराजा के बर्ताव से प्रेमला अच्छी तरह समझ गई कि ये मेरे पति मुझे छोड़ कर कह भाग जाना चाहते हैं। लेकिन उसने निश्चित किया कि मैं अपने पति को जाने नहीं दूंगी, में उन्ह अपने बाहुपास में जकड़ कर रखूगी। हाथ में आए हुए चिंतामणि को कैसे जाने दूं? इस ससा में पुण्य के बलपर ही प्रिय का संयोग प्राप्त होता है। बाद में फिर पाप के उदय से प्रियता SIELITEEEEEEEE: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 79 वियोग की आशंका निर्माण होती है और फिर जीव की व्यथा का कोई पार नहीं रहता है। प्रिय के संयोग के आनंद की तुलना में प्रिय के वियोग का दु:ख असीम होता है। अज्ञान जीवों ने इष्ट के संयोग में सुख की कल्पना की है। लेकिन यह काल्पनिक सुख का महल कब तक टिक सकेगा ? यह महल तो ताश के पत्तों के महल के समान फूंक मारते ही टूट जाएगा। जो संयोग में सुख मानता है उसे उसके वियोग में दुःख (विलाप) करना ही पड़ता है / यहाँ प्रेमला के मन में भी अपने अत्यंत प्रिय पति के वियोग की आशंका उत्पन्न हुई, इसलिए वह दु:ख से महल के एक कोने में बैठ कर सिसकसिसक कर रोने लगी। उसे अब अपना भावि जीवन अंधकारमय दिखाई देने लगा। चंद्रराजा वहाँ से भाग जाने के लिए महल के दरवाजे तक कई बार गया, लेकिन जैसे भ्रमर सुवासित पुष्प को नहीं छोड़ता है, वैसे ही प्रेमला ने चंद्रराजा का पीछा नहीं छोडा। वह बार-बार पति के पीछे-पीछे जाती थी। प्रेमला को धोखा देकर भाग जाना चंद्रराजा के लिए आसान नहीं था। प्रेमला पति के प्रेम में उन्मत्त-सी हो गई थी। वह चंद्र राजा का हाथ पकड़ कर उसे पलंग के पास खींच कर ले आई। उसने चंद्र राजा को पलंग पर बिठाया और फिर उसके पास बैठ कर कहने लगी, "हे प्राणनाथ ! आप बार-बार ऐसा क्यों कर रहे हैं ? इस घड़ी बाहर जाते हैं तो उस घड़ी अंदर चले आते हैं। इसका आखिर क्या कारण है ? पहली भेंट में ही आप मेरे साथ यह कपटपूर्ण व्यवहार क्यों कर रहे हैं ? आप ऐसा करेंगे तो हमारे बीच होनेवाली प्रेमलता कैसे विकसित होगी ? 'प्रथम ग्रासे मक्षिका पता:' होने से भोजन का सारा मजा किरकिरा हो जाता है, क्या आप यह बात नहीं जानते है ? इसलिए आप सभी प्रकार की चिंता छोड़ कर कृपा करके मेरे पास सुख से बैठिए / मैं आपकी सेवा में कोई कसर नहीं रदूंगी। मैंने तो अपना तन-मनप्राण, सबकुछ आपके चरणों में समर्पित कर दिया है। आप ही मेरे एकमात्र आराध्य देवता हैं। मआपके चरणों की दासी हूँ। मेरे बहुत बड़े पुण्योदय से आपके साथ मेरा संयोग हुआ है। अब मैं आपके चरणकमलों का त्याग कभी नहीं कर सकती हूँ, कभी नहीं कर सकती ! हे नाथ, आप ही मेरी रक्षा करनेवाले ईश्वर है ! मुझे अब सिर्फ आप ही की शरण है। इसलिए मेरा विश्वासघात मत कीजए / हे प्रिय, प्रेम कर के प्रेम का पूर्ण निर्वाह करना ही सत्पुरुष का लक्षण होता है। इसलिए मैं आप से हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती हूँ कि आप इस इष्ट और मधुर संबंध में कटुता मत उत्पन्न कीजिए। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हे नाथ, आपकी बातों से आपका रहस्य मुझ पर अच्छी तरह खुल गया है। इसलिए अब मैं भी देखूगी कि आप मुझे छोड़ कर यहाँ से कैसे जाते हैं / मैं आपके जाने के रास्ते में दीवार बन कर खड़ी रहूँगी। हे प्राणनाथ, मुझे निराश करके जाना आपके लिए बिलकुल उचित नहीं है / मैं तो आजीवन आपकी दासी बन कर रहूँगी और आपकी सेवा करूँगी / हे प्राणाघार ! हे शिरोभूषण ! यदि अनजाने में मुझसे कोई अपराध हुआ हो, तो मुझे क्षमा कीजिए / आप अपने मन की चिंता का कारण मुझे बता दीजिए। आपका उज्जवल मुख चंद्रमा आज म्लान-मलिन क्यों लगता हैं ? हे प्रिय, कहाँ विमलापुरी और कहाँ आभापुरी ? सत्पुण्य के संयोग के कारण ही विधाता ने हम दोनों का संयोग कराया है। आपकी सारी बातें मैं जान चुकी हूँ। इसलिए मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मेरे साथ कभी कपट व्यवहार मत कीजिए। यदि आप ऐसा व्यवहार करेंगे तो आपकी प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचेगा। दूसरी बात, मेरे पिता ने 'करमोचन' विधि के समय आपको मूल्यवान् वस्तुओं का उपहार देने में और आपका अतिथ्य करने में कोई कसर नहीं रखी है फिर भी आपकी उसमें कोई कमी महसूस हुई हो, तो आप मुझे बताइए। में अपने पिता को बता कर आपकी सारी अभिलाषाएँ पूरी करवा दूंगी। लेकिन इस प्रकार बिना किसी कारण के मेरे प्रेम का त्याग कर चले जाना और मेरे साथ हँसींविनोद में अपना मन न लगाना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता है। प्रिय, अब इससे अधिक मैं आपसे क्या कहूँ ? लेकिन हे नाथ, एक बात ध्यान में रखिए कि फिर भी यदि आप मेरी प्रार्थना का अनादर कर मुझे छोड़ कर आभापुरी चले जाएँगे, तो मैं आभापुरी खोज निकाले बिना नहीं रहूँगी और अवश्य आभापुरी आ जाऊँगी। मैं वहाँ आपके चरणकमलों की दासी बन कर आजीवन रहूँगी और आपके चरणकमलों की सेवा करने में अपना सारा जीवन व्यतीत कर दूँगी। हे नाथ, यह मेरा अटल और अंतिम निर्णय है।" .4 अपनी प्रिय पत्नी के मुँह से ऐसी प्रेम से सराबोर बातें सुनकर चंद्र राजा ने कहा, “हे प्रिये, तेरे प्रति मेरे मन में संपूर्ण और अखंडित प्रेम का भाव है / यदि मैं आभापुरी में भी बैठा होऊँ तो भी तू मेरे हृदयमंदिर में ही बैठी हुई होगी। मेरे हृदय में तेरे लिए हरदम के लिए स्थान है। यह सब जान कर अब तू मुझे यहाँ से जाने के लिए खुशी से अनुमति दे दे। हे प्रिये, इस समय तू मुझे यहाँ रोक रखने का दुराग्रह मत कर / आज मेरी स्थिति ‘इधर कुआँ उधर खाई' जैसी हो गई है। इस समय तो मेरे लिए यहाँ से चले जाने को छोड़ कर अन्य कोई रास्ता नहीं है। हे प्रिये, मेरे मुँह में ताला लगा हुआ है, मेरे हाथ-पाँव बेडियों से जकडे हुए है / मैं वचन स. . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Trust Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र बंधा हुआ हूँ और तू तो जानती ही है कि क्षत्रिय के लिए “प्राण जाए पर वचन न जाए, इस परंपरा का पालन करना कैसा महत्त्वपूर्ण होता है / हे प्रिये, तू चतुर है, समझदार है। समझदारों के लिए इशारा काफी होता है। तू मुझे अब यहां से जाने दे।" जब इस प्रकार से चंद्र राजा और प्रेमला के बीच वार्तालाप चल रहा था, तभी वहाँ झुंझलाया हुआ दुष्ट हिंसक मंत्री अपशब्द बकता हुआ घमका . हिंसक मंत्री को अचानक आया हुआ देख कर प्रेमला शरमा गई और एक ओर जाकर खड़ी हो गई। उसी समय हिंसक मंत्री ने चंद्रराजा को संकेत से बाहर बुला लिया। चंद्रराजा ने भी सारी परिस्थिति अच्छी तरह जान ली और वह वहाँ से निकल कर सिंहलनरेश के पास चला गया और उसने सिंहलनरेश से आभापुरी लौट जाने को अनुमति माँगी। उसने नरेश से कहा, "हे राजन्, मैंने आपकी इच्छा के अनुसार और आपका बताया हुआ सारा काम कर दिया हैं / अब मैं अपनी नगरी लौट जाता हूँ। मैं नवविवाहिता प्रेमला को रोती हुई छोड़ कर चला आया हूँ। अब उसकी लाज रखना आपके ही हाथ में है। जैसे मैंने आपकी लाज रखी, वैसे ही आप भी प्रेमला को लाज रखिए।" ऐसी विनती भरी सिफारिश कर के चंद्र राजा वहाँ से तुरन्त चल निकला और उद्यान में वीरमती ने आम्रवृक्ष को जहाँ खड़ा रखा था, वहाँ जा पहुँचा। इधर-उधर देख कर वह तुरन्त आम्रवृक्ष के . कोटर में छिप गया। रात लगभग बीतने को थी, इसलिए वीरमती और गुणावली भी चंद्रराजा के वृक्ष के कोटर में छिप जाने के कुछ ही क्षण बाद आम्रवृक्ष के पास आ पहुँची। सास-बहू दोनों तुरन्त वृक्ष को डाली पर चढ़ कर बैठ गई। वीरमती ने पहले को तरह कनेर की छड़ी से तीन बार वृक्ष पर प्रहार किया। क्षण में ही वह आम्रवृक्ष उन तीनों को लेकर किसी राकेट को तरह आभापुरी की ओर आकाश मार्ग से चल निकला। सौभाग्य से इस बार भी सास-बहू में से किसी की भी द्दष्टि .. चंद्रराजा पर नहीं पडी। ... आकाशमार्ग से जाते-जाते रास्ते से वीरमती ने गुणावली से कहा। "प्रिय बहू, यदि तू मेरे कहने के अनुसार मेरे साथ न आती तो क्या तुझे यह विमलापुरी, वह कनकध्वज राजकुमार और ऐसा भव्य विवाह समारोह देखने को मिलता ? अब मैं ही तुझे प्रतिदिन नए-नए कौतुक दिखा कर तेरी अभिलाषा पूरी कर दूँगी। लेकिन इसके लिए तुझे भी मेरे साथ प्रेम का भाव निभाना पड़ेगा और मेरे कहने के अनुसार बर्ताव करना पड़ेगा। बहू, मेरे सिवाय इस संसार में ऐसी सामर्थ्य किसके पास हैं कि अल्प समय में तुझे इतनी दूरी पर ले आए और फिर लौटा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 श्री चन्द्रराजर्षि च लाए ? शास्त्रों में चारण मुनि को छोड़ कर ऐसी द्रुतगति अन्य किसी की भी नहीं है, समझ पंछी भी आकाश में ऊँची उड़ान भर कर अधिक से अधिक बारह योजन दूर ही जा सकते हैं जहाँ वायु जा सकता है वहाँ जाने की शक्ति मुझ में भी है। इसके साथ ही अन्य पुरुषों के लि असाध्य सा होनेवाला कार्य मैं बहुत कम प्रयास से करने में समर्थ हूँ।" वीरमती ने ऐसी आत्मप्रशंसा गुणावली के सामने की। गुणावली अपनी सास की ऐ मिथ्या बड़प्पन की बातें सुन कर बोली, “हे पूज्य माताजी आपका कहना बिलकुल सच है आपकी शक्ति के बारे में मेरे मन में बिलकुल आशंका नहीं रही है। उसका प्रमाण तो = प्रत्यक्ष देख ही लिया हैं / लेकिन माँजी, विमलापुरी में आपने जिसे कनकध्वज राजकुमार म लिया, वह आपका भ्रम है। वह राजकुमार कनकध्वज नहीं था, बल्कि आपका पुत्र ही था। * आपके पुत्र ने ही राजकुमारी प्रेमला से विवाह किया है। इस संबंध में मेरे मन में बिलकुल संदै नहीं है। यदि मेरी कही हुई बात झूठ निकले तो आप मुझे सख्त से सख्त सजा दे सकती है। मेरा तिरस्कार कर सकती है।" गुणावली की बात सुन कर मुँह बनाते हुए वीरमती ने कहा, “अरी बहू, क्या तू मुझ भी अधिक चतुर है ? जो बात मेरी समझ में नहीं आई, क्या वह बात तूने जान ली है ? क्या मुझ से बढ़ कर सयानी है ? तू व्यर्थ ही आशंकाएँ उठा रही है। बस, तू तो जिस रूपवान् पुरस् को देखती है, उसे चंद्र ही समझ लेती है। तेरी नजर को तो सब चंद्र चंद्र ही दिखाई देता है लेकिन बहू, देख, वह तेरी मूर्खता हैं इसलिए मेरी बात पर विश्वास रख ! मामा का घर का तक होता हैं ? जब तक दिया जलता है तब तक ही न ? वैसे ही आभापुरी में राजमहल पहुँचने के बाद तुझे पता चल जाएगा कि किसकी बात सच है ? तेरी या मेरी ? इस समय अ तू व्यर्थ का विवाद बंद कर दे।" आम्रवृक्ष के कोटर में बैठा हुआ चंद्रराजा सास-बहू का यह वार्तालाप ध्यान से सुन रह था / आम्रवृक्ष आकाशमार्ग से उडता हुआ आभापुरी के उद्यान में उतर गया / उद्यान में पहु कर वह स्थिर हो गया। फिर सास और बहू दोनों वृक्ष की डाली पर से उतर पडी और निकः में होनेवाली बावड़ी में शरीरशुद्धि के लिए चली गई। अवसर पाकर चंद्रराजा भी धीरे से वृद्ध के कोटर मे से बाहर निकल आया और तुरन्त महल में चुपचाप पहुँच कर अपने पलग प रजाई ओढ़ कर सो गया। सास और बहू दोनों हँसते-हँसते महल में प्रवेश कर गई और अप अंत:पुर में आ पहुँची। वीरमती ने गुणावली के हाथ में कनेर की छड़ी देखकर कहा, “बहू, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र यह छड़ी और अपने महल में चली जा। इस छड़ी से तेरे पति के शरीर को तीन बार स्पर्श कर, इससे तेरा पति चंद्र निद्रा में से जाग उठेगा। मैं अब मंत्रप्रयोग से नगरजनों को निद्रामुक्त करती वीरमती ने मंत्रप्रयोग किया और उसके प्रयोग से सारे नगरजन तुरन्त निद्रामुक्त होकर - अपने अपने नित्यकर्म में जुट गए। इधर गुणावली भी सास की दी हुई, मंत्रित कनेर की छड़ी लेकर अपने महल में चली आई। उसने देखा कि पति राजा चंद्र रजाई ओढ़ कर गाढ़ी नींद सो रहा है। राजा ने तो नींद का बहाना बनाया था, इसलिए उसने भी गुणावली को आते हुए जान लिया। रानी ने अपने पति को पूर्ववत् सोता हुआ देखा, तो उसके मन की आशंका दूर ही गई / वह बहुत खुश हो गई। उसने धीरे धीरे कनेर की छड़ी से तीन बार राजा के शरीर को स्पर्श किया। राजा ने भी मानो गाढी नींद में से जाग रहा हो, इस प्रकार का बहाना बनाते हुए बार-बार करवटें बदल कर आलस्य झटकना प्रारंभ किया। उसे जागते हुए देख कर अंदर ही अंदर प्रसन्न हुई रानी गुणावली ने अपने पति राजा चंद्र से बड़े प्रेम से कहा, - "हे प्राणनाथ, जागिए। प्रभात हो गया है। आज तो आप बहुत देर तक सोते रहें। मानो एक महीने तक लगातार जागना पड़ा हो, इस तरह से आप सारी रात गाढी नींद सो रहे है। रात को मैंने हँसी-विनोद के लिए आपको जगाने की कई बार कोशिश की लेकिन आपने तो पलकें भी नहीं उठाई / क्या आप रात को सपने में किसी रमणी के प्रेमसागर में डूब गए थे। हे प्रियतम, जल्द उठिए और मुझे आपके दर्शन करके कृतार्थ होने दीजिए। राजसभा में पहुँच जाने का समय निकट आ पहुँचा है। महाराज, जल्द जागिए। यदि आपकी माताजी को इस बात का पता चला कि आप अभी तक नहीं जागे हैं, तो वे बिना कारण आगबबूला हो जाएँगी। चंद्रराजा कपटनिद्रा को त्याग कर जाग गया। उसने बहाना बना कर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा, “अरे / कैसे इतनी देर तक नींद आ गई मुझे ? सूर्योदय भी हो गया। रात के झंझावात से मेरा मन अस्वस्थ ही गया था, इसीलिए जागने में इतनी देर हो गई। लेकिन हे प्रिये, तेरी आँखों की और देख कर तो ऐसा लगता है कि तू सारी रात जागती रही है। सच-सच बता तू कहाँ चली गई थी ? तेरी आँखें और चेष्ठाएँ देख कर ऐसा लगता है कि तू रात को कहीं जाकर अभी-अभी लोटी है।" राजा की बात सुन कर रानी गुणावली चकित रह गई। लेकिन सत्य छिपाते हुए वह बोली, "हे प्रियतम, आज आप ऐसा क्यों बोल रहे है ? क्या मैं आपके चरणकमल छोड़ कर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कहीं अन्यत्र जा सकती हूँ ? मैं तो कहीं नहीं गई थी। लेकिन लगता है कि आप जरुर कहीं-नकहीं गए थे। मैं तो आपसे आज्ञा लिए बिना महल के बाहर कदम भी नहीं रखती हूँ।" गुणावली की ये बनी-बनाई बातें सुन कर आश्चर्यचकित हुआ राजा सोचने लगा कि इसमें गुणावली का कोई दोष नहीं है। वीरमती की कुसंगति के प्रभाव से ही यह ऐसी कटु और कपटपूर्ण बातें बोल रही है। सारा दोष तो मेरी सौतेली माँ का ही है। अच्छा मनुष्य बुरे मनुष्की संगति से वैसे ही बिगड़ जाता है, जैसे नारियल का पानी कपूर के संग से विषमय हो जात है। 'जैसा संग वैसा रंग' यह कहावत बिलकुल सार्थ और सच है ! दुष्ट की सगति अग्नि के समान जलानेवाली और दुःखदायी होती है। दुष्टों कि संगति ही सभी दुर्गुणों की जड़ है / मीट गंगाजल भी समुद्र के खारे पानी की संगति से खारा बन जाता है। कस्तूरी भी लहसुन क संगति में रह कर दुर्गधियुक्त हो जाती है। कहावत है कि स्त्री, जल, आदी, आँख और राजा. इन पाँचों को जैसा झुकाओ, झुकते हैं' और यह बिलकुल सच ही है। इस प्रकार विचार करते-करते आभानरेश चंद्र ने अपनी रानी गुणावली से कहा, " प्रिये, उल्टी-सीधी और बनावटी बातें बताना बंद कर के जो सच है वही कह दे / यदि तून सबकुछ सच-सच बताया, तो मैं तुझे तेरे अपराध के लिए क्षमा करूँगा और मेरा प्रेम तेरे प्रति पहले जैसा और अखंडित रहेगा।" लेकिन सास के कहने से गुमराह हुई और सास की शक्ति से भयभीत गुणावली ने राज चंद्र को सत्य बातें न कह कर एक के बाद एक अनेक मनगढन्त, कल्पित बातें बताई / राज ने शांति और धीरज से रानी की सारी बनावटी बातें सुनी और फिर रानी को बताया, "हे प्रिय कल रात मैंने भी एक आश्चर्यजनक स्वप्न देखा / यदि मैं उस स्वप्न की बात तुझसे कहूँ, तो शायद विश्वास भी नहीं कर सकेगी। लेकिन मुझे तो वह स्वप्न बिलकुल सत्य लगता है / ' . इसपर आश्चर्य से उत्कंठित हुई रानी ने राजा चंद्र से पूछा, “हे स्वामिनाथ , आप कैसा स्वप्न देखा ? कृपा कीजिए और मुझे बताइए कि आपने स्वप्न में क्या देखा था ?" / रानी की उत्सुकता जान कर राजा ने कहा, “हे प्रिये, मैंने कल रात स्वप्न में वह देर कि तू अपनी सास राजमाता वीरमती के साथ यहाँ से 1,800 योजन दूरी पर विमलापुरी गई / तुम दोनों ने वहाँ की राजकुमारी प्रेमला और सिंहलनरेश के पुत्र कनकध्वज का विवाहमहोत्र देखा और रात को ही तुम दोनों वहाँ से वापस लौट आई।' P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र - राजा के मुँह से स्वप्न की बात सुन कर रानी गुनावली चौंक उठी और उसने राजा से कहा, “हेप्राणनाथ, वह तो बस, आपके मन का भ्रम है। स्वप्न में देखी हुई बातें सिर्फ मनुष्य के मन का भ्रम होती हैं। स्वप्न की बातों को सत्य नहीं माना जा सकता। हे नाथ, मेरी एक बात सुनिए। एक गाँव में शिवजी का एक पुजारी रहता था। उसने स्वप्न में देखा कि शिवजी का मदिर मिठाइयों से खचाखच भरा हुआ है। सुबह जाग कर शिवजी का यह पुजारी गाँव में गया और उसने ग्रामवासियों से कहा, “देखो भाइयो और बहनो, आज सब ग्रामवासी शिवमंदिर में भोजन के लिए आ जाओ।" पुजारी से न्योता पाकर दोपहर को सचमुच सभी ग्रामवासी शिवमंदिर में भोजनकरने के लिए आ पहुँचे। ग्रामवासियों को शिवमंदिर में कहीं भी मिठाइयाँ -दिखाई नहीं दी ! इसलिए कुछ ग्रामवासी पुजारी के पास आकर बोले, 'पुजारीजी, क्या बात है ? आपने तो सभी ग्रामवासियों को मिष्टान्न-भोजन का निमंत्रण देकर यहाँ बुलाया। लेकिन यहाँ तो मिठाई का एक टकड़ा भी दिखाई नहीं देता। यह क्या चक्कर है ? क्या तुमने हम सबका मजाक उडाया है ?'' इसपर पुजारी ने ग्रामवासियों को बताया, 'भाइयो, मैं क्या करूं ? सारी मिठाइयाँ तो शिवजी खा गए। अब फिर से जब स्वप्न में मैं मिठाइयाँ देखूगा, तो आप सबको अवश्य मिठाइयों का स्वाद चखाऊँगा।' शिवजी के पुजारी की मूर्खताभरी बात सुन कर ग्रामवासियों ने कहा, 'बेवकूफ, क्या तूने हम सबको स्वप्न में देखी हुई मिठाइयाँ खाने के लिए निमंत्रण दिया था ? तू कैसा मूर्ख मनुष्य है ? क्या स्वप्न की मिठाइयों से भी कभी किसी का पेट भरता है ? क्या उससे पेट की बूख मिट सकती है ? क्या उससे भी कोई स्वाद मिल सकता है ? निरा मूर्ख मनुष्य है तू!' इतनी कड़ी बातें सुना कर ग्रामवासी जैसे आए, वैसे हो गाँव की ओर लौट गए। शिवजी का पुजारी भी बाद में अपने किए पर बहुत पछताने लगा। हे स्वामिनाथ, आपके स्वप्न की बात भी बिल्कुल शिवजी के उस पुजारी की बातों के समान है। इसलिए आप स्वप्न में देखी हुई यह बात अपने मन से निकाल दीजिए कि मैं अपनी सास के साथ यहाँ से 1,800 योजन की दूरी पर रात को विमलापुरी गई और सुबह से पहले हो लौट आई! हे प्रियतम, मैं तो आपकी आज्ञा के बिना महल से बाहर कदम रखने में भी असमर्थ हूँ फिर रात के समय आपकी आज्ञा के बिना इतनी दूर जाकर लौट आना कैसे संभव है ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हे नाथ, आप ऐसी बातें कह कर क्यों व्यर्थ ही मेरा दिल दुखा रहे हैं ? मेरे साथ आपकऐसा व्यवहार उचित नहीं लगता है। आप ऐसी व्यर्थ आशंका मत कीजिए, नाथ !" रानी गुणावली से ऐसी लम्बी चौड़ी और बहाने बनानेवाली बातें सुन कर राजा चद्रन रानी से कहा, "अच्छा, तो स्वप्न की बात तुझसे करने से तेरे दिल को दुःख पहुँचा है ? खर. जाने दे यह बात ! लेकिन यह बात तू अवश्य समझ कर रख लें कि मेरा स्वप्न भ्रम नहा है, बल्कि बिलकुल सत्य है / समझी ? सचमुच तुम दोनों सास-बहू की जोड़ी का विघाता ने इस सुंदर रीति से निर्माण किया है कि तुम मुझसे बिना किसी प्रकार का संकोच किए अपनी मर्जी से विहार-विनोद करो, नए-नए स्थान और कौतुक देखो।" इसपर रानी गुणावली ने कहा, "आप इतना अवश्य ध्यान में रखिए कि मैं कोई इधरउधर भटकती रहनेवाली कुलटा नहीं हूँ। इसलिए हे नाथ, मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप हमारा आपस का प्रेम भंग करनेवाली बातें मत बोलिए। इसपर आपकी मर्जी है ! मैं कर भी क्या सकती हूँ अबला नारी !" यह बात कहते-कहते गुणावली ने अपने पति की ओर देखा, तो उसे राजा चंद्र के शरीर पर विवाह के चिन्ह दिखाई दिए। इससे गुणावली को पक्का विश्वास हो गया कि कल रात विमलापुरी में प्रेमलालच्छी राजकुमारी से विवाह करते हुए मैंने जिस वर को देखा था, वह यहा मेरा पति था। मुझे तो उसी समय पक्को आशंका निर्माण हुई थी कि वह वर मेरा पति ही है, लेकिन मेरी सास ने मेरी बात हँसी में उड़ा दी और मुझे ही भला-बुरा सुनाया था। लेकिन अब बिगड़ी हुई बाजी सुधारने के लिए सास की शरण लेने के सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं दिखाई देता है / मेरी सासजी ही अब मेरे पति को सबक सिखाएँगी। एक झूठ-एक अपराध-छिपाने के लिए मनुष्य को कितने और झूठ बोलने पड़ते हैं - कितने और अपराध करने पड़ते हैं ? गुणावली के उदाहरण से यह बात कितनी स्पष्ट हो जाता है ! गुणावली सीधी तरह से अपनी भूल स्वीकार कर अपने पति से क्षमा माँग लेती, तो यह =सारी रामायण क्यों खड़ी हो जाती ? लेकिन होनी को रोकने में कौन समर्थ हैं ? भाग्य में जो जैसा लखा हुआ होता है, मनुष्य की वैसी ही बुद्धि हो जाती है, वैसे ही सलाहकार उसे मिलते हैं और वैसे ही संयोग उत्पन्न हो जाते हैं ! P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को चन्द्रराजर्षि चरित्र 87 - अपने पति को नाराज हुआ जान कर गुणावली समय मिलते ही शीघ्र अपनी सास रमता के पास जा पहुँची और उसने पति को जगाने की कोशिश करने के बाद जो कुछ भी टेत हुआ था, उन सबकी विस्तृत रिपोर्ट अपनी सास को दे दी। गुणावली को कही हुई बातें नते ही वीरमती क्रोधावेश से काँप उठी। गुणावली ने वीरमती से कहा, "हे पूज्य माताजी. ऐसा लगता है कि आपकी विद्या से भी इकर बलवान् विद्या मेरे पति के पास है / मैंने तो आप से पहले भी कहा था कि उन्हें ठगना हुत कठिन है / जो इतने बड़े राज्य का बोझ वहन करता है और संग्राम में शत्रु के वज्र जैसे हार भी सहन करता है, क्या ऐसा धीर-वीर पुरुष स्त्रियों से धोखा खा सकता है ? मैं तो आपके ग्जाल में फँस कर बहुत बड़ी विपत्ति में पड़ी हूँ। अब मेरी लाज रखना आप ही के हाथ में / कौतुक देखने जा कर मैं अपने प्रिय पति का प्रेम खो बैठी हूँ। 'लेने गई पूत और खो आई सम' जैसी स्थिति हो गई है मेरी। माताजी, मैंने तो जितना हो सकता था, अपनी बचाव करने का प्रयत्न किया। लेकिन न्होंने जो बातें अपनी आँखों से स्वयं देख ली थी, उसके सामने मेरी बातें उनके गले कैसे तरती ? असत्य को छिपाने की लाख कोशिश करने पर भी अंत में असत्य छिपा नहीं रह कता है। असत्य की पोल खुल ही जाती है। आखिर पीतल पीतल होता है और सोना सोना होता है। जल्द या देर से, लेकिन झूठ का रहस्य प्रकट हो ही जाता है। ___माताजी, बताइए, अब मैं क्या करूँ ? मेरे पति के मर्मस्पर्शी वचनों को सुन-सुन कर मेरे दय में जो दु:ख हा है, उसका कोई पार नही है। मुझे ऐसा लग रहा है कि अब मैं या तो उनके मने अपना अपराध स्वीकार कर क्षमायाचना करूं या फिर किसी कुएँ में कूद कर मर Tऊँ। इसके सिवाय मुझे बचने का कोई और उपाय नहीं दिखाई देता है।" गुणावली की बातें सुनते ही वीरमती की आँखें क्रोध से लाल हो गई, उसका खून लने लगा और वह उसी क्षण हाथ में तलवार लेकर चंद्रराजा के पास चली आई। उस समय जा चंद्र स्नान करने के बाद ध्यान करने के लिए अपने पलंग पर आँखें मूंद कर बैठा हुआ था राजा को ध्यानस्थ अवस्था में बैठा हुआ देख कर वाग्मता ने उसे धक्का मार कर पलंग पर रा दिया और वह उसकी छाती पर जा बैठी और क्रोध से तमतमाती हुई बोली, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चणि "हे दुष्ट, पापी ! दूसरों के छिद्र और दोष ही देखनेवाले बदमाश ! बोल, तूने बहू सेवा कहा ? इसी अवस्था में जब तू मेरे दोष देखने लगा है तो मेरे बुढ़ापे में तू मेरी क्या से करेगा? अरे दुष्ट, मुझसे जब देवता भी डरते हैं, तब तू किस झाड की पत्ती है रे, क्या राड प्राप्त होने से तेरे मन में घमंड उत्पन्न ही गया है। लेकिन याद रख, यह राज्य तो मैंने तुझे दिहै। मैं स्वयं राज्य का बोझ ढोने में समर्थ हूँ, राज्य चला सकती हूँ। मुझे अब तेरी जरूरत न है। तू अपने इष्ट देवता का अंतिम बार स्मरण कर ले, अब मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगी। चल हो जा मरने को तैयार !" अपनी सौतेली माँ से ऐसे क्रोध से भरे वचन अचानक सुनकर चंद्रराजा तो भौंचक्क रह गया, डर-सा गया। वह किंकर्तव्यविमूढ हो गया। उसी समय गुणावली ने वीरमती के सामअपना आँचल फैला कर और हाथ जोड़ कर विनम्रता से सास वीरमती से कहा, _. “माताजी, मैं आपसे अपने पति के जीवन की भीख माँगती हूँ . मेरे दुर्भाग्य से मैंने है आपको पति की कही हुई बातें बता दीं और अपने स्वामी के प्राण विपत्ति में डाल दिए / माँजी इस बात पर मुझे बहुत पछतावा हो रहा है / हे माताजी, पुत्र शायद कुपुत्र भी हो सकता है लेकिन माता कभी कुमाता नहीं होती है। माताजी, हम लोगों की उम्र ही कितनी है ? सांसारिव बातों का अनुभव हमें कहां से और कैसे हो सकता है ? और अगर होगा भी तो आखि - कितना ? ऐसा विचार कर आप इन्हे छोड़ दीजिए। इन्हें क्षमा कीजिए। अगर ये हो नहीं रहेंगे तो इतनी सारी राज-संपत्ति का उपभोग कौन करेगा ? इसलिए मुझ पर दया कीजिए और में पति को जीवनदान दीजिए / इनको इनके अपराध के लिए क्षमा कीजिए और जो कुछ भ आपको कहना हो, मुझसे कहिए। जो दंड देना ही, मुझे दीजिए। लेकिन इन्हें क्षमा कर दीजिए माँजी ! इन्हें क्षमा कर दीजिए ! ! मुझे इतनी भीख अवश्य दीजिए माँजी !!" .. अपनी बहू के मूंह से ये बातें सुन कर भी वीरमती का हृदय नहीं पिघला / उसकठोरता से बहू को दूर ढकेल कर कहा, “बहू, तू यहाँ से उठ और दूर जा कर खड़ी हो जा ऐसा पुत्र होने की अपेक्षा नि:संतान रहना अच्छा है। राज्य प्राप्ति के घमंड से अंधे हुए इस चं की आज मैं दंड दिए बिना नहीं रहूँगी। तू बीच में मत आ बहू !" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र / इतना क्रोध से कहते-कहते ही जब निर्दय वीरमती चंद्र राजा के गले पर अपनी तलवार का प्रहार करने लगी, तो एकदम गुणावली बीच में पड़ गई। उसने वीरमती से गिडगिडा कर कहा, “नहीं, माँजी, नही ! आप चाहे तो मेरे गले पर अपनी तलवार चला कर मेरे प्राण ले लीजिए, लेकिन मेरे पति के प्राणों को भिक्षा मुझे दीजिए। मैं आपको वचन देती हू" कि वे फिर एसा काम कभी नही करेंगे। उन्हें क्षमा कीजिए माँजी, क्षमा कीजिए।" गुणावली की आँखों से आसुओं की झडी-सी लग गई थी और इसका स्वर इतना गदगदित था कि वीरमती का पत्थर जसा कठोर हृदय भी पिघल गया। उसने चंद्र राजा को मार डालने का विचार छोड दिया और उसने अपनी तलवार दूर रख कर उसी समय एक घागे में मंत्र डाल कर वह मंत्रित धागा राजा क पाव में बाँध तिया। घागा पाँव में बँधते ही राजा का मनुष्य रूप नष्ट ही गया और वह मुर्गा / बन गया। __ अपने पति की यह दयनीय स्थिति देख कर अत्यंत दु:खी हुई गुणावली ने अपनी सास / वरिमती से कहा, “माँजी, आपने उन्हें प्राणदान तो दिया, लेकिन उनका जीवन ऐसा व्यर्थ क्यों बना दिया ? मुझ पर दया कीजिए माँजी, क्रोध को त्याग दीजिए और फिर उन्हें मुर्गे से मनुष्य का रुप दे दीजिए। माँजी, हम दोनों के बीच रक्षक एकमात्र ये ही है। इनके बिना राज्यकारोबार कौन चलाएगा ? मनुष्य को छोड कर अन्य प्रकार का जीवन व्यर्थ ही है। इसलिए माँजी, मेरे पति को फिर से मुर्गे से मनुष्य बना दीजिए / मैं आपका उपकार आजीवन नहीं भुलूंगी, माँजी / मैं आपकी आज्ञा का उल्लंधन कभी नहीं करूँगी। दया कीजिए, माँजी।" गुणावली इसी तरह से गिड़गिड़ाती रही, अनेक प्रकार से उसने अपनी सास को मनाने / की कोशिश की, लेकिन व्यर्थ ! निर्दय वीरमती टस से मस नहीं हुई। इसके विपरीत वीरमती ने / कडक कर गुणावली से कहा, “देख बहू, अगर तू इस संबंध में इसी तरह बकती रही और फिर से तूने इस बारे में कुछ कहने को मुँह खोला, तो तुझे भी मुर्गी बना दूंगी। समझी ? इस प्रकार क्रोधभरी बातों से गुणावली को डरा कर वीरमती अपने महल में चली गई / क्रोध कार्य-अकार्य को नहीं देखता, हित-अहित का विचार नही करता है ! क्रोध के कारण मनुष्य की बुद्धि मारी जाती है, सन्मति नष्ट हो जाती है ! इससे मनुष्य भले-बुरे का भेद नहीं कर सकता है, कार्य-अकार्य का फर्क नहीं कर सकता है। क्रोध अपने और पराये को संत्रस्त कर देनेवाला चंडाल है / क्रोधी का अपना कोई नहीं होता है / क्रोधी का विवेक नष्ट हो जाता हैं। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कोध की आग में मनुष्य का धर्म भी जल कर राख हो जाता है / क्रोधी मनुष्य क्रोध करते समय उसके परिणाम का भी विचार नहीं कर सकता है। विधाता का चरित्र सचमुच बड़ा विचित्र है / भाग्य का खेल बड़ा अजीब होता है / जो आज सुबह जागते समय राजा था, बहुत बड़े राज्य का मालिक था, लाखों-करोडों लोगों पर जिसका हुकम चलता था और जिसके लिए सभी प्रकार के सुखोपभोग निरंतर उपलब्ध होते थे, वह जागने के कुछ समय बाद एक क्षण में राजा से मुर्गा बन गया, मनुष्य से पंछी हो गया। मनुष्य के कपाल पर लिखे हुए विधाता के लेख को पोंछ डालने का सार्मथ्य किसमें है ? चंद्र और सूर्य को भी अहों की पीड़ा सहनी ही पड़ती है। बहुत बडे-बडे बुद्धिमानों को भी दरिद्रता का दु:ख भोगना पड़ता है। संसार में रहनेवाले जीवों के सुख-दुःख में उनके किए हुए शुभाशुभ कर्म ही कारण रुप होते है। अन्य बातें तो सिर्फ निमित्त बनती हैं। वीरमती के चले जाने के बाद, अपने पति के प्रति अत्याधीक स्नेहवश, मुर्गे के रूप में बदले हुए अपने पति राजा चंद्र को अपनी गोद में लेकर गुणावली उसे आँसुओं की धारा से नहलाने लगी और उसकी पीठ पर प्रेम से हाथ फेरते हुए बोली, "हे प्राणनाथ ! यह क्या हो गया ? पाप के जिस मस्तक पर अभी-अभी मूल्यवान् रत्नजडित राजमुकुट शोभित होता था, . उसी मस्तक पर इस समय लाल रंग का तुर्रा दिखाई दे रहा है / अभी तक प्रतिदिन सुबह आपको मंगलपाठको के मधु स्वर निद्रा से जगाते थे, लेकिन अब आपके 'कुक्कडकु' शब्दों को सुनकर नगरजन निद्रा से जागेंगे। जो रत्नमय झूलों पर बैठ कर झूलने का सुख अनुभव करता / था, उसे अब लोहे के पिजड़ में हिलने-डुलने में सुख मानना पड़ेगा। क्या-से-क्या हो गए आप, हे प्राणनाथ / " इस प्रकार पति के पूर्व जीवन की सुख-साहिबी को याद करते हुए गुणावली ' शोक करती जा रही थी। अपने दैव को कोसते हुए गुणावली कह रही थी, “हे देव ! तूने अचानक यह सब क्या कर डाला ? इस प्रकार अचानक तूने मेरा और मेरे पति का सुख क्यों छीन लिया ? हमने तेरा | ऐसा कौन सा अपराध किया था, जो तूने हमें ऐसी निराधार स्थिति में डाल दिया ? दु:ख के सागर में तूने हमें इस तरह क्यों फेंक दिया ? क्या तुझे हमारी जरा भी दया नहीं आई ? लगता / है कि तू भी बड़ा निर्दय है, क्यों कि तूभी बीना सोचे-समझे सज्जनों को भी संकटों के समुद्र में फेंक देता है।" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ री चन्द्रराजर्षि चरित्र 91 __ इस तरह दैव को भी उपालंभ देती हुई गुणावली मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। का प्रम प्रेमी का दु:ख नहीं देख सकता है। प्रेम निरंतर प्रेमी का सुख, कल्याण और उन्नति देखना चाहता है। गुणावली को मूर्च्छित होकर धरती पर गिरते हुए देखते ही उसकी दासियाँ दौडती हुई हां आ पहुँची। उन्होंने शीतोपचार कर के गणावली को फिर से होश में लाने की कोशिश ' गुणावलो होश में तो आई, लेकिन वह बार बार जोर जोर से विलाप करती जा रही थी। अपनी स्वामिनी की ऐसी विषम-दुखमय स्थिति में देख कर दासियों ने उसे आश्वस्त करते हुए ", "ह स्वामिनी, जो कुछ भी हुआ, उसमें किसी का दोष नहीं है। कर्म के अधीन रह कर यह तब होता ही रहता है। 'देवाधी ने वस्तुनि किम् चिंताभि ? अर्थात् दैवाधीन होनेवाली वस्तु और परिस्थिति में व्यर्थ ही चिंता करते रहने से क्या मिल सकता है ? गुणावली रानी की दासियाँ भी कर्मविज्ञान की कैसी अच्छी जानकार हैं ? इसी कर्मविज्ञान : फलस्वरुप मनुष्य महासंकटों, व्याधियों में इष्ट के वियोग और अनिष्ठ के संयोग में भी चित्त को समाधि-शांति बनाए रख सकता था; दु:ख में धैर्य और सुख में नम्रता-लघुता रख सकता या। कर्मविज्ञान एक ऐसी औषधि है जो चाहे जैसे दु:ख या संकट में भी मनुष्य को शांति, समाधि प्रदान कर आश्वस्त कर सकती है. उसके दान का विनाश कर उसे परमस्वास्थ्य प्रदान कर कता है / यह कर्मविज्ञान की संजीवनी जिनके पास नहीं है, या है, तो सिर्फ चर्चा करने योग्य या कर्मसिद्धान्तवेत्ता कहलाने के लिए आवश्यक जितनी ही है, वे बात-बात में दुर्ध्यान का शकार बन जाते हैं, बार बार अशांति और असमाधि का अनुभव करते हैं और अपना सारा जीवन अपना दु:खडा रोते रहने में ही व्यतीत करते हैं। आज के युग में चिंताअस्त मानव जाति को चिंतामुक्त करने के लिए भारत वर्ष की सभी पाठशालोओं, विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में जैनदर्शन के कर्मविज्ञान का पाठयक्रम अवश्य और जल्द से जल्द लगाना चाहिए और हर एक विद्यार्थी के लिए उसका अध्ययन आनवार्य कर देना चाहिए। यदि यह संभव न हो सका, तो हमारे जैन संघों में जहाँ-जहाँ गुजराती धार्मिक पाठशालाएँ चलती हैं, वहाँ बालकों को यह कर्मविज्ञान का दर्शन सिखाने का बबंध अवश्य कर देना चाहिए। आज का मनुष्य कठिनाइयों बीमारियों और मानभंग के सामने टिक नहीं पाता है। उसका मनोबल बहुत जल्द नष्ट हो जाता है। उसका सत्त्व धैर्य बना नहीं रह पाता है। इसलिए P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वह बार बार अशांति, असमाधि और दुर्ध्यान का शिकार बन जाता है, और जीवन की शांति, समता, समाधि और शुभ ध्यान को खो बैठता है / मनुष्य के जीवन में आनेवाली हर एक कठिनाई, बिमारी और मानभंग के मूल में उस मनुष्य का पूर्वजन्म में स्वयं किया हुआ कोई-नकोई अशुभ पापकर्म ही कारण स्वरूप होता है। - इस बाँधे हुए अशुभ कर्म का उदय होने पर संकट आता है। संकट के समय समाधिशांति देनेवाला एक मात्र यह कर्मविज्ञान ही है / जीवन संग्राम में जीव को विजयी बनानेवाला और फिर से उन्नति के शिखर पर चढ़ानेवाला भी यह कर्मविज्ञान ही है। कहते हैं कि समय ही दुःख की औषधि है। दु:ख के दिन हरदम बने नहीं रहते हैं। दु:ख की अंधेरी रात बीत जाने के बाद सुख का सूरज अवश्य उदित होता है। यही आश्वासन कर्मविज्ञान मनुष्य को प्रदान करता है। गुणावली की दासियाँ कर्मविज्ञान से परिचित थीं, इस प्रकार की समझदारी उनके पास थी, इसीलिए उन्होंने अपनी स्वामिनी गुणावली को समझाया, "स्वामिनी, इसमें वीरमती का कोई दोष नहीं है। दोष तो तुम दोनों के पूर्वजन्म में किए हुए कर्म का है। इसलिए है, स्वामिनी आप इस मुर्गे को ही अपना पति मान कर और प्रेम से उसका पालन करते हुए भगवान की भक्ति में अपना शेष जीवन बिताइए / व्यर्थ शोक करते रहने से कोई लाभ नहीं होगा। पूर्वकृत कर्म का फल भोगी बिना मनुष्य को छुटकारा नहीं मिल सकता है। पूर्वकृत कर्म ने जब तीर्थकर देवा और चक्रवर्ती राजाओं को भी नहीं छोड़ा तो फिर उनकी तुलना में आपकी गिनती ही क्या है ? जिसने जैसा कर्म किया हो। उसको उस कर्म का फल उसी रीति से भोगना ही पड़ता है / इसलिए हे स्वामिनी, रोना निरर्थक है। धैर्य धारण कीजिए। हर एक प्राणी के जीवन में सुखदुःख तो आता जाता ही रहता है। इस जगत् में सिर्फ सुख ही सुख किसके भाग्य में होता है ? फिर दूसरी बात यह है कि यदि माताजी प्रसन्न हो गई, तो तुम्हारे मुर्गे के रूप में होनेवाले पति को शायद फिर से मनुष्य बना देंगी।" गुणावली की सखियों ने इस तरह अनेक प्रकार से उसे समझाया, सांत्वना दी और धीरज भी बंधाया। इसलिए दासियों से आश्वासन पाकर गुणावली अपने पति मुर्गे को अपन प्राणों के समान मान कर पालन करने लगी और अपने दिन व्यतीत करती रही। गुणावली अब प्रतिदिन अपने प्रिय पति मुर्गे को विविध प्रकार के स्वादिष्ट फल खिलाती थी। कई दिन ऐसे ही बीत गए। फिर एक दिन गुणावली अपने पति मुर्गे को साथ लेकर अपनी सास वीरमती के पास चली गई। गुणावली अपने मन में यह सोचती रहती थी कि शायद P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मरा सास का क्रोध अब शांत हुआ होगा। मैं जाकर अपनी सास से विनम्रता से प्रार्थना करूंगी आरव प्रसन्न होकर मेरे पति को मुर्गे से फिर मनुष्य बना देगी। इस प्रकार का विचार मन में रख कर गुणावली सास के पास गई. उसने सास के चरणों में झुक कर उसे प्रणाम किया और उसके सामने दीन मुद्रा कर बैठ गई। लेकिन क्रूर वीरमती मुर्गे को देखते ही गुस्से से भर उठी। उसने क्रोध से गुणावली से कहा, 'तू इस दुष्ट मुर्गे को लेकर मेरे पास क्यों आई ? उसे तुरन्न मेरी आँखों से दूर ले जा। जा, चली जा यहाँ से!'' मनुष्य का यह स्वभाव ही है कि उसके मन में जिसके प्रति द्वेष का भाव होता है, उसके दर्शन उसे दु:ख देनेवाले होते हैं। इसके विपरीत मनुष्य के मन में जिसके बारे में स्नेह का भाव होता है, उसके दर्शन मनुष्य को सुखदायी लगते है / वीरमती ने गुणावली से कहा, क्या अब भी तुझे यह गुर्णा चंद्र राजा जैसा प्रिय लगता ह? तर इस बर्ताव से तो तू मुझे बिलकुल बेवकूफ लगती है। जरा देख तो सही। क्या इसके ललाट पर राज्ययोग लिखा हुआ दीखता है ? इसके दर्शन से तो मेरे शरीर मेंआग-सी लग गई है। इसलिए इसे तू यहाँ से तुरन्त ले जा और पिंजड़े में डाल दे। इसके बाद तू कभी भूल कर भी इसे मेरे सामने लाने का साहस न कर / जा, चली जा यहाँ से, अभी!" सास के सनसनाते वचनबाणों से घायल हृदय लेकर गुणावली दु:खी मन से अपने पति मुर्गे को लेकर अपने महल में लौट आई। जब भाग्य रूठ जाता हैं, तब जगत् भी रूठ जाता है। जब भाग्य रीझ उठता है, तो जगत् भी रीझता है। मनुष्य का भाग्य जब प्रतिकूल होता है, तब अपने माने हुए भी पराये बन जाते है, और भाग्य जब अनुकूल होता है, तब दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं। गुणावली ने अपने पति मुर्गे के लिए सोने का पिंजडा और रत्नजड़ित सोने की एक कधी बनवा ली। वह अपने प्रिय पति मुर्गे को अच्छा भोजन खिलाती थी, अच्छा पानी पिलाती थी और प्रिय वचनों से अपने पति को आश्वस्त करते हुए कहती थी, 'हे प्राणनाथ, मैं आपको एक क्षण के लिए भी छोड़ कर नहीं जाऊँनी। मैं तन-मन से आपके पास ही हूँ। मैं अपने प्राण देकर भी आपकी रक्षा करूँगी। यद्यपि आप इस अवस्था में है, फिर भी मैं आपकी हर संभव तरीके से सेवा करूँगी। हे नाथ, आप ऐसी चिंता मन में बिलकुल मत लाइए कि 'अब मैं एक पंछी बन गया हूँ, अब मेरा भविष्य क्या होगा ?' ऐसी P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र चिंता मन में हो, तो उसे निकाल डालिए। यह दु:ख निरंतर नहीं रहनेवाला है। आज दु:ख की रात अवश्य है, लेकिन कल सुख का सूर्य अवश्य उदित होगा। अस्त के बाद उदय होना प्रकृति का नियम ही है. इसलिए आया हुआ कर्म का यह बादल बरस जाने के तुरन्त बाद सुख के सूर्य का उदय निश्चय ही होनेवाला है। इसलिए है नाथ, आप बिलकल चिंता मत कीजिए। मैं और हमारी आभापुरी की सारी प्रजा आपके साथ है। अंत में अगर कोई न भी रहा तो दयासागर ईश्वर तो हमारे साथ अवश्य ही रहेगा। ईश्वर का पीठबल हमें अवश्य मिलता रहेगा। कृष्ण पक्ष में क्षीण बना हुआ चंद्रमा जैसे शुक्ल पक्ष को पाकर फिर से बढ़ता है और पूर्ण चंद्र बन जाता है, पूरा प्रकाशमान् बन जाता है, वैसे ही आप 'चंद्र' भी पुण्यरूपी शुक्ल पक्ष का उदय होते ही फिर से अपनी पूर्ण कला से प्रकाशमान हो जाएँगे। हे नाथ, मुझे पूरा विश्वास है कि मेरा सुहाग अखंडित रूप में बना रहनेवाला है। इस संसार में किसी के पास न संपत्ति कायम बनी रहती है, न ही विपत्ति ! जब तक प्रतिकूल भाग्य अनुकूल नहीं बन जाता है, अर्थात् भाग्य में परिवर्तन नहीं बन जाता है, अर्थात् भाग्य में परिवर्तन नहीं हो जाता है, तब तक धीरज से रहना चाहिए और परमात्मा के नामस्मरण में समय व्यतीत करते जाना चाहिए। बड़ों के लिए सुख जैसे बड़ा होता है, वैसे ही उनके लिए दु:ख भी बड़ा ही होता है। देखिए न नाथ, राहू अन्य तुच्छ ग्रहों की छोड़ कर चंद्र और सूर्य को अस्त कर देता है और उनको ग्रहण लगता है। कोदो जैसे तुच्छ अनाज में कीड़े नहीं होते हैं, लेकिन गेहूँ जैसे अच्छे अनाज में ही कीड़े होते हैं / है न यह बात, नाथ ? इसलिए आप अन्य सभी प्रकार की चिंताओं को त्याग दीजिए और मंगलमय प्रभू का बार बार स्मरण कीजिए / हे नाथ, विश्वास रखिए कि ईश्वर सब ठीक करेगा।" गुणावली और मुर्गा बने हुए राजा चंद्र के दिन ऐसे ही व्यतीत हो रहे थे। एक दिन की बात है। उस दिन एक साधु महाराज गुणावली के महल में भिक्षा के लिए पधारे / त्यागी साधु महाराज को देखकर गुणावली का मनमयूर नाच उठा / गुणावली ने साधु महाराज को विनम्रता पूर्वक बंदना की, उनका क्षेमकुशल पूछा और अत्यंत सम्मान से उन्हें आहार-पानी परोसा। ___ आहार-पानी ग्रहण करते समय साधु महाराज की दृष्टि अचानक गुणावली के पास ही पड़े हुए सोने के पिंजड़े पर पड़ी। सहज ही गुणावाली को एक श्राविका जान कर उपदेश देते हुए साधु महाराज ने कहा, "हे श्राविका ! इस संसार में बंधन किसी को भी अच्छा नहीं लगता है। तुमने इस मुर्गे को सोने के पिंड़े में क्यों बंद कर रखा है ? पिंजड़े में कैद होने से उस बेचारे को कितना दु:ख होता होगा ?' P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र साधु महाराज की बातें सुन कर गुणावली ने विनम्रता से साधु महाराज से कहा, "हे मुनिराज, आपका दिया हुआ उपदेश बिलकुल यथार्थ है / मैं जानता हूँ कि अपने मनोरंजन के लिए किसी पंछी को पिंजड़े में बंद करके रखना महापाप है। लेकिन हे गुरूदेव, यह मुर्गा कोई सामान्य पछी नहीं है, लेकिन यह तो मेरा पति राजा चंद्र है। मेरी सास ने द्वेष भाव से मेरे पति का मुर्ग का रुप दे दिया है। इसलिए मैं उसे सोने के पिजड़े में रख कर उसको प्राणों से बढ़कर मानत हुए पालन कर रहो हूँ। हे मुनिराज, यह कोई सामान्य पंछी होता, तो मैं आपका उपदेश सुनकर तुरन्त उसे पिंजड़े से मुक्त कर देती। लेकिन मैं क्या करूँ गुरुदेव, मैं इस पंछी के बारे में ऐसा नहीं कर सकती!" गुणावली के मुँह से यथार्थ स्थिति समझ लेने के बाद मुनिराज ने गुणावली से कहा, “हे श्राविका, वीरमती रानी ने अनुचित कार्य किया है। चंद्र तो चंद्र ही था। उसके जैसा राजा इस संसार में मिलना बहुत कठिन है। खैर, जो होना था, सो हो गया। भविष्यत् को और कर्म की रखा को बदलने की सामर्थ्य किसमें है ? तुम्हारे सतीत्व और पतिव्रत्य से सारा संकट टल जाएगा। इस संसार के सभी जीव कर्माधीन हैं। कर्म की गति को रोकने की ताकत किसी में भी नहीं है। किए हुए कर्म का फल तो सबको भोगना ही पड़ता है। वीरमती तो इसमें सिर्फ निमित्त बनी हुई है। लेकिन मनुष्य को निमित्त से नाराज नहीं होना चाहिए, न उसका द्वेष करना चाहिए, न उस पर क्रोध करना चाहिए और न ही उससे तिरस्कार ही करना चाहिए। अपने किए हुए | कर्म का ही दोष देखना चाहिए। प्राणी के द्वारा स्वयं किए हुए शुभाशुभ कर्म ही सुख-दु:ख देनेवाले होते हैं। और कोई यह सुख-दुःख नहीं दे सकता है ! दुख आए, तो मनुष्य को अन्य / किसा को नहीं, बल्कि अपने किए हुए पापकर्म को ही दोष देना चाहिए। फिर से ऐसा दुष्कर्मपाप-कर्म करते समय मनुष्य को खूब सोचना चाहिए / 'कर्मबंध के समय ही सावधान होना चाहिए, पाप-कर्म का उदय होने पर संताप करने से लाभ नहीं हैं ' यह सूत्र मनुष्य के लिए शांति का दूत है। इस महत्तवपूर्ण सूत्र को तुम अपने जीवन के साथ जोड़ दो; पल-पल उसको याद रखो। इस सूत्र की सहायता से अनेक महापुरुष संकटरूपी समुद्र पार कर गए है। जो बात कर्म के अधीन है, उसमें मनुष्य के शोक या चिंता करने से कुछ नहीं होता है। शांति के साथ कर्म का फल भोग लेने से सुखसमृद्धि फिर से प्राप्त हो जाती है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र शायद अचल मेरू पर्वत चलायमान हो सकता है, अग्नि शायद शांत हो सकती है, सूर्य कदाचित् पश्चिम में उदित हो सकता है, कदाचित् पत्थर पर कमल उग सकता है, लेकिन एक बार पक्की हुई कर्मरेखा को कदापि बदला नहीं जा सकता हैं। इसलिए मनुष्य की कर्माधीन होनेवालो बातों में बिना कारण चिंता कर नया कर्मबंधन नहीं बाँध लेना चाहिए। जीव नए कर्मो का बंधन बाँध लेने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन बाँधे हुए कर्मो के उदय की दृष्टि से वह बिल्कुल परतंत्र है। इसलिए हे श्राविका, सावधानी से अपना जीवन व्यतीत करो!" इतना उपदेश देकर साधु महाराज अपने निवास की ओर चल दिए। इस घटना के बाद गुणावली मन-वचन-काया से धर्म का पालन करने लगी। अपने किए हुए दुष्कर्म के लिए वह पश्चात्ताप करने लगी और दान देने तथा अतिथि-सत्कार में तत्पर बन गई। एक बार गुणावली आभापुरी में नगरजन क्या चर्चा करते है यह सुनने के उद्देश्य से और मुर्गे पर लोगों की दृष्ठि पड़े इस तरह से पिंजडा लेकर महल की अटारी में आकर बैठी। इधर चंद्रराजा को बहुत लम्बे समय से न देख सकने से सारी आभापुरी के नगरजनों में बड़ा हाहाकार मच गया था। महल की अटारी में मुर्गे का पिंजडा ले कर आ बैठी हुई गुणावला ने नगरजनों को आपस में यह कहते हुए सुना - "हे बंधु, लम्बे समय से हमारे महाराज दिखाई क्यों नहीं देते है ? उनके बिना यह सारी आभापुरी चंद्रमा के बिना होनेवाली रात की तरह फीकाफीकी-सी लगती है।" दूसरे ने इस पर कहा, "अरे भाई, क्या तुमने अभी तक यह नही सुना कि चंद्र राजा को उसकी माता ने किसी मंत्रप्रयोग से मुगाँ बना दिया है ? इसलिए हमारा इतना सौभाग्य कहां कि हम महाराज के दर्शन कर सके ! लोगों के बीच चल रही ऐसी बातें सुन कर गुणावली का हृदय गद्गदित हो गया और उसकी आँखों से आँसुओं की झडी झरने लगी। इधर रास्ते पर से जानेवाले कुछ नगरजनों की द्दष्टि जब पिंजड़े में पड़े हुए मुर्गे पर पड़ो, तो किसी ने कहा, 'अरे, यही हमारे राजा चंद्र है।" देखते ही देखते मुर्गे को देखने के लिए वहाँ एक बडी भीड़ इकट्ठा हो गई। लोगों ने मुर्गों के रूप में होनेवाले अपने राजा को अत्यंत श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। चारों ओर नगरजनों में ये ही बातें सुनाई दे रही थीं कि हमारे राजा कितने प्रजावत्सल, न्यायी और गुणवान थे, लेकिन उनकी माता वीरमती ने उनकी कैसी दुर्दशा कर डाली है ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 97 __ लागी के बीच चल रही इस चर्चा की खबर कुछ ही क्षणों में वीरमती तक पहुँची। वह काधाविष्ट होकर दौड़ती हुई वहाँ आई जहाँ गुणावली मुर्गे के पिजडे के साथ बैठी थी और उसने Sोटफटकार सुनाते हुए गुणावली से कहा, "हे दुष्टा, क्या तू आज यहाँ लोगों को कौतुक दखाने को बैठी है ? यदि तू अपने इस पति मुर्गे को जिंदा देखना चाहती है तो अभी, इसी वक्त पहा स उठ कर और इसे ले कर अंदर चली जा। घर की बात इस तरह सबके सामने प्रकट करते हुए तुझे शर्म नहीं आती ? याद रख, आज मैंने तेरा यह अपराध सहन कर लिया है, लेकिन फिर से तूने ऐसा अपराध किया तो मैं सहन नहीं करूँगी, समझी ? तू शायद सोचती होगी कि तू ऐसा करेगी, तो लोग मेरी निंदा करेंगे, लेकिन में लोगों की निंदा से नहीं डरती हूँ। क्या तू दावानल को अंजलि भर पानी से बुझाना चाहती है ? शायद तू यह भी सोचती होगी कि तू ऐसा करेगी, तो तेरी सास का नगरी में बहुत निंदा होगी और लोगों की निंदा से डर कर तेरी सास तेरे मुर्गा बने हुए पति का फिर मनुष्य बना देगी, लेकिन तेरी यह गंदी इच्छा कभी सफल नहीं हो सकेगी, यह बात बराबर ध्यान में रख ले। याद रख कि तू सिर्फ अपने प्रिय मुर्गे को उत्तम भोजन दे सकती है, उसमें मैं बाधा नहीं डालूगी। लेकिन यदि तू फिर कभी ऐसे महल की अटारी में तेरे पति मुर्गे को लेकर बैठी हुई -दखाई दी तो मैं तुझे भी मुर्गी बना डालूँगी। फिर मुझे दोष मत देना। अगर तू अपने पति मुर्गे के साथ जिदा रहना चाहती है, तो मेरी आज्ञा का ध्यान से पालन करती जा, अन्यथा, न तेरे मुर्गे की न तेरी खैरियत है / जा, चली जा।" वीरमती के तीखे और तीक्ष्ण वाग्बाणों से गुणावली का हृदय बिंद्ध हो गया। सिसकससक कर रोती हुई वह सोने का पिंजड़ा लेकर अपने महल में लौट आई। वीरमती के डर के कारण उसने फिर से अपने पति मुर्गे को लेकर महल की अटारी में बैठना बंद कर दिया। पति का आशा के आश्रय से रहनेवालो गुणावली को पति के बिना सारा जगत् शून्यवत् लगता या। इसलिए अब उसे भोजन-भूषण भी अच्छा नहीं लगता था। जीव को भगवान के बिना यह संसार शून्य कब लगेगा ? जिस मनुष्य के मन में भगवान के प्रति प्रेमभाव उत्पन्न होता है, उसे मिष्टान्नों का भोजन और मनभावन उपभोग्य चीजें और अलंकार आदि नहीं भाते हैं। जिसको भगवान अच्छा लगता है, उसको भोग-भोजन-भार्या-भूषण अच्छे नहीं लगते हैं। जिसे 'जिन' भाते हैं, उसे 'जगत्' नहीं भाता है। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 श्री चन्द्रराजर्षि चरि गुणावली के हृदय में जैसा स्थान उसके पति चंद्रराजा के लिए था, वैसा स्थान परमात के लिए मनुष्य के हृदय में होगा, तो मनुष्य का उद्धार हो जाएगा। जब तक मनुष्य के हृदय कंचन, कामिनी, कुटुंब, काया और कीर्ति के प्राचीन मूल्य स्थापित रहेंगे, तब तक उसके हट में सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के नए मूल्य स्थापित नहीं होंगे। जब सत्ता, संपत्ति, स्त्री, संसार अ सुख मूल्यहीन लगेंगे तभी सुदेव, सुगुरू और सुधर्म मूल्यवान् लगेंगे। मनुष्य जिसका मूल समझता हैं उसे वह अपने मनमंदिर में स्थापित करता है और दिनरात उसका मनन-चितध्यान करता है। इसके बिना उसे चैन नहीं मिलता है। गुणावली अपनी सास के डर से कभी सास के साथ आम्रवृक्ष की डाली पर बैठकर दू देशान्तर में जाकर वापस आई थी, लेकिन उसने यह सब सास के चित्त को प्रसन्न रखन' लिए किया था, वह अंत:करण की इच्छा से नहीं थी। अब गुणावली पति के प्रति होनेवाले प्रेम के कारण पति पर आए हुए संकटों को ना करने के उद्देश्य से व्रत, नियम, जप, तप, आदि करने लगी। संकट का साथी सिर्फ धर्म है। ध की शरण में गए बिना आया हुआ संकट निवारण नहीं होता है। संकट में एकमात्र शरणध की ही है। इस बात को आर्यावर्त के पुराने सभी निवासी जानते थे। उधर विमलापुरी में चंद्र राजा के साथ जिसका विवाह संपन्न हुआ था, उस प्रेमलालच राजकुमारी का क्या हुआ यह जानने की उत्सुकता पाठकों में अवश्य निर्माण हुई होगी। पाठ को स्मरण होगा कि हिंसक मंत्री की कटु और कर्कश वाणी सुन कर, चंद्र राजा अपनी नवपरिणा | पत्नी प्रेमलाल्चछी को विमलापुरी में छोड़ कर आभापुरी लौट आया था। चंद्र राजा के महल से निकल पड़ते हो, हिंसक मंत्री की प्रेरणा से कोढ़ी राजकुम कनकध्वज तुरन्त प्रेमलालच्छी के महल में दाखिल हुआ। अपने महल में किसी को आते / देखकर पहले तो प्रेमलालच्छी को ऐसा लगा कि मेरे पतिदेव ही लौट आए हैं। इसलिए उस स्वागत करने के लिए वह आगे आकर खड़ी हुई और उसने आए हुए व्यक्ति की ओर देख उसने तुरन्त जान लिया कि ये मेरे पतिदेव नहीं, बल्कि कोई परपुरुष है। इसलिए वह वहा चल निकली और दूर जाकर खड़ी हो गई। सती सत्री परपुरुष की छाया में खड़े रहने को पाप समझती है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99 : श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र ____99 - अपने महल में किसी अनजाने मनुष्य को आया हुआ देख कर प्रेमलालच्छी ने उससे - पूछा, “हे पुरुष, आप कौन है ? यहाँ क्यों आए हैं ? यहाँ से तुरन्त चले जाइऐ अन्यथा द्वारपाल : आकर आपको यहाँ से बाहर निकाल देगा। बिना कारण ही आपका अपमान हो जाएगा।" . इस पर आए हुए मनुष्य ने हँस कर कहा, “हे प्रिये, क्या तू मुझे इतने कम समय में भूल गई ? क्या कुलीन स्त्री कभी अपने पति को भूल सकती है ? यदि तू सभी से ऐसा बर्ताव करने लगी, तो न जाने भविष्य में क्या होगा ? तू रुपवती अवश्य दीखती है, लेकिन ज्ञान की दृष्टि से बिलकुल शून्य-सी है / यदि तुझे कुछ ज्ञान होता, तो तू अपने पति को कदापि भूल न : जाती।" इतना कहते-कहते वह मनुष्य अंदर आकर पलंग पर बैठ गया। आए हुए मनुष्य का / ऐसा बर्ताव देख कर डरी हुई प्रेमला दौडते हुए महल के एक दूर के कोने में जाकर वैसे ही / खड़ी रह गई, जैसे किसी शेर के दर्शन से डर कर कोई गाय भागती है। पतिव्रता स्त्री के शरीर की दो गतियाँ होती हैं / उसके शरीर को या तो उसका पति स्पर्श कर सकता है, या फिर अग्नि स्पर्श कर सकती है। परपुरुष उसके शरीर को नहीं छू सकता है। __डर से दूर जाकर खड़ी हुई प्रेमला को देख कर राजकुमार कनकध्वज ने उससे कहा, "प्रिये, तू मुझेसे इतनी दूर जाकर क्यों खड़ी हुई है ? यहाँ मेरे पास आकर बैठ और मेरे साथ भागविलास का अनुभव कर ले। ऐसा अवसर क्या बार बार आता हैं ? यौवन तो नदी की बाढ के समान जल्द ही चला जाता है। एक बार गया हआ यौवन लौट कर नहीं आता है। आज हमारी पहली ही भेंट में तू मुझसे इतनी दूर जाकर क्यों खडी हो गई है ? हे सुंदरी, तू सौराष्ट्र के राजा की कन्या है और मैं सिंहलदेश के राजा का पुत्र हूँ। तेरेमेरे बीच यह विवाहसंबंध तो पुण्यबल के कारण ही विधाता ने कर दिया है।" इस तरह मीठी-मीठी बातें करते हुए जब कनकध्वज पलंग पर से नीचे उतर कर प्रेमला के पास गया और उसका हाथ पकडने लगा, तब प्रेमला सिंह की तरह गर्जना करते हुए बोली, "हे पापी, तू मेरे पास मत आ, मुझसे दूर ही खडा रह / यदि तू अपनी जगह से थोडा भी आगे पीछे हिला, तो तेरी खैरियत मत समझ। मैंने तेरा सारा रहस्य जान लिया है। तू मेरा पति नहीं है। मैं अच्छी तरह से जानती हूँ कि मेरे पति कौन हैं / तू यों ही मेरे गले पड़ने की कोशिश P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मत कर / क्या कभी परस्त्री स्वस्त्री हो सकती है ? तेरे अज्ञान से भरे हुए ऐसे आचरण को देख कर मेरे मन में तेरे प्रति दया निर्माण होती है। मेरी समझ में ही यह बात नहीं आती है कि जब तू जन्म से ही कोढी था, तो तेरे बाप ने तुझे गुप्त महल में रख कर तेरी रक्षा क्यों की ? आज मैंने तेरा सौंदर्य अपनी आंखों से देख लिया / जैसे किसी कौवे की अपने गले में मणियों की माला पहनने की इच्छा वृष्टतापूर्ण और मूर्खताभरी होती है, वैसे ही तेरी यह कोशिश है। तू स्वयं जन्म से कोढी होते हुए भी मुझसे विवाह करने की बातें कर रहा है, यह तेरी धृष्टता की पराकाष्टा है। अब इसी क्षण यहाँ से चुपचाप चले जाने में ही तेरी खैरियत है। मेरे पलंग पर आकर बैठने से तू मेरा पति नहीं बन जाता है। क्या किसी मंदिर के शिखर पर होनेवाले सुवर्ण कलश पर जाकर बैठ जाने से कोई कौवा पक्षिराज गरूड बन जाता हैं ? मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपनी पत्नी बनाने की इच्छा रखनेवाले हे मूर्ख युवक, जरा दर्पण में अपना मुँह तो देख ले।" जब प्रेमला और कनकध्वज के बीच इस प्रकार वाद-ववाद चल रहा था, तब अवसर पाकर राजकुमार कनकध्वज की उपमाता (दाई) कपिला, जो बाहर खड़ी थी, अंदर आई और उसने प्रेमला से कहा, "हे प्रिय बहू, तू ऐसी दूर क्यों खड़ी है ? यहाँ आजा और अपने पति के साथ इस पलंग पर बैठ जा / तुम दोनों नए पति-पत्नी प्रेमभाव बढ़ानेवाली बातें करो और मुक्त मन से दोनों सांसारिक सुखों का उपभोग करो। मुझसे तुम दोनों को संकोच मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। बहू, तू अभी क्या कह रही थी ? क्या यह तेरा पति नहीं है ? विवाह होने के बाद क्या नववधू के मुंह में ऐसी बातें शोभा देती हैं ? यदि किसी ने तेरी ये बातें सुन ली, तो तुम दोनों के कुल बदनाम हो जाएँगे, कलंक लगेगा, समझी ? कनकध्वज की उपमाता की ऊपर से सुंदर लगनेवाली यह बात सुन कर प्रेमला बोली. "हे बुढ़िया, तेरे मुँह में एक भी दाँत बाकी नहीं है, तेरा मुँह पोपला है, फिर तू ऐसी अनुचित बातें क्यों करती हैं ? क्या तुझे ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती ? तेरी ऐसी छलकपटभरी बातों का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मुझे ठगने का तेरा कोई प्रयास सफल नहीं होगा। E हिंसक मंत्री ने पहले से ही यह षड़यंत्र रचा है। उसके कहने के अनुसार तूने यह सारा बनावट नाटक शुरु किया है, यह मैं अच्छी तरह जानती हूँ। लेकिन यह बराबर जान रखना कि तेरी यह गंदी इच्छा मिट्टी में मिल जाएगी, पूरी नहीं होगी।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कपिला को जब प्रेमला से ऐसी कड़ी हाँटफटकार सुननी पड़ी, तो वह आगबगूला किर महल के बाहर आई और उसने जोरशोर से पुकारना, शुरू किया - "दौड़ो, दौड़ो, किसी नष्णात वैघराज को तुरन्त बुला लाओ। नई बहू के स्पर्श से कुमार कनकध्वज कोढ़ी हो गया / / उसके सारे शरीर में कोढ फैल गया है, राजकुमार की कंचनवर्णी काया जस्ते की तरह ष्टिभ्रष्ट हो गई है। अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? अरे कोई आओ हमारी मदद करो।" कपिला जब यह 'नाटक' कर रही थी, तभी सुबह हुई, पूर्व दिशा में सूर्यनारायण उदित हुए। नगरजन अभी नींद से जाग कर प्रात:विधि परी करने को तैयार हो रहे थे कि कटिल कापला के रोनेचिल्लाने की आवाज सुन कर लोग क्या हुआ है यह जानने के लिए महल के वाहर इकट्ठा होने लगे। तमाशा देखने के लिए किसीको निमंत्रण थोड़े ही देना पड़ता है ? इतने पहले से ही बनाई गई योजना के अनुसार वहाँ हिंसक मंत्री, कनकरथ राजा, उसकी रानी और अन्य अनेक दर्शक भी आ गए वहाँ बड़ा हाहाकार मच गया। . कोढ़ी कनकध्वज कुमार की माँ जोरशोर से रोती-चिल्लाती हुई बोली, "हे पुत्र, तुझे यह क्या हो गया ? तेरी कंचनवर्णी काया अचानक ऐसी जस्ते जैसी कैसे हो गई ? पुत्र, मुझे तो ऐसा लगता है कि तेरी यह पत्नी कोई विषकन्या है !" राजा कनकरथ भी बोले, "हाय रे दैव ! मेरे पुत्र के अलौकिक रुप को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते थे। हे पुत्र, तेरा वहा अद्भुत सुंदर रूप कहाँ गया ? हे पुत्र, तेरी यह पत्नी तो मुझे तेरी शत्रु ही लगती है। यदि पहले मुझे यह बात मालूम होती, तो मैं अपने पुत्र का विवाह इस विषकन्या से कभी न करता।" राजा, रानी और कपिला को ये सारी बनावटी और मनगढन्त बातें प्रेमला चुपचाप खड़ी रह कर सुन रही थी। वह अपने मन में सोच रही थी कि इस समय यदि मैं सच्ची बात कहने जाऊँ तो वह अरण्य रुदन ही होगा / मेरी कही हुई सत्य बात को भी ये लोग झूठ मानेंगे। इसलिए कुछ समय ऐसे ही जाने देना ही ठीक है। आखिर विजय सत्य की ही होगी, क्योंकि कहा भी गया है कि 'सत्यमेव जयते!' महल के बाहर मचे हुए इस हाहाकार की बात प्रेमला के पिता राजा मकरध्वज के कानों तक बिजली की गति से पहुँची। राजा मकरध्वज दौड़ता हुआ घटनास्थल पर पहुँच गया। दामाद कनकध्वज कुमार के शरीर पर फैला हुआ कोढ़ देख कर वह दंग रह गया / राजा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मकरध्वज सरल स्वभाव का व्यक्ति था, इसलिए जो कुछ भी हुआ था, उसे सच मान कर राजा ने सबको सांत्वना दी। राजा ने हिंसक मंत्री से इस दर्घटना के बारे में पछा. "मंत्रीजी, यह सब कैसे हुआ ?" हिंसक मंत्री ने कहा, “महाराज, ऐसा मालूम होता है कि आपकी कन्या विषकन्या है। इसके स्पर्श मात्र से हमारे कुमार की ऐसी दुर्दशा हो गई है। कल विवाह के समारोह में आपने तो हमारे राजकुमार का रूपसौंदर्य स्वयं ही देखा था। उसके रुपसौंदर्य के सामने कामदेव भी शरमा जाता था। लेकिन उसके रुप की आज ऐसी दुर्दशा हो गई है ! .. खैर, महाराज, अब आप अपनी कन्या को अपने घर ले जाइए और उसका जो कुछ भी करना हो वह कीजिए। हमें तो अब यह विषकन्या नहीं चाहिए, नहीं ही चाहिए। हम तो आपकी पुत्री के साथ हमारे राजकुमार का विवाह रचा कर बड़ी विपत्ति में फंस गए हैं।" यह दुःखदायक समाचार सुन कर राजा मकरध्वज की आँखों से आँसू बहने लगे। राजा मंकरध्वज अपनी कन्या प्रेमला पर इतने क्रुद्ध हो गए कि उसी समय अपनी म्यान से तलवार निकाल कर पुत्री की हत्या करने के लिए दौड़ पड़े। राजा को प्रेमला पर प्रहार करने के लिए जाते हुए देख कर राजा के दामाद कनकध्वज कुमार ने आगे आकर विनम्रता से राजा से कहा, “पूज्य ससुरजी, ऐसा क्रोध करना आपके लिए उचित नहीं है। इसमें आपकी कन्या का कोई दोष नहीं है, वह निरपराध है। सारा दोष तो मेरे ही पहले किए हुए दुष्ट कर्म का है। आपकी पुत्री तो मेरे कोढ़ रोग के लिए सिर्फ निमित्त मात्र है। मनुष्य के जीवन में जो कुछ भी अशुभ होता है, वह उसके अशुभ कर्म के उदय से ही होता है। इसमें किसी दूसरे को दोष देना सरासर दुष्टता है। सुख दुःख को देनेवाला दूसरा कोई नहीं, बल्कि मनुष्य का अपना पूर्वकृत कर्म ही होता है। लेकिन आप स्त्रीहत्या का पाप अपने सिर पर मत चढ़ा लीजिए।" राजकुमार कनकध्वज के वचनों को सुन कर राजा मकरध्वज का क्रोध शान्त हो गया। उसने कुमार से कहा, "हे कुमार, तुम्हारे कहने से मैं इस समय प्रेमला को जीवित छोड़ता हूँ। अन्यथा, मैंने इसी क्षण उसे यमसदन के लिए भेज दिया होता!" लेकिन अचानक हुई इस घटना के कारण राजा मकरध्वज का चित्त बेचेन हो गया। इस समय मुझे क्या करना चाहिए, इस विचार में राजा फँस गया। राजा तुरन्त राजसभा में चला आया और उसने अपने सुबुद्धि नामक मंत्री को बुला कर उसे सारी घटना कह सुनाई। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 चन्द्रराजर्षि चरित्र सुबुद्धि मंत्री तो बुद्धि का भंडार ही था। राजा से सारी बातें सन कर मंत्री ने राजा से हा, "हे राजन्, आप अपनी महासती, महाधार्मिक, गुणवान और बुद्धिमान कन्या पर इतना धि क्यों कर रहे हैं ? मैं भी अभी-अभी यह सारा कोलाहल सुन कर आपके दामाद का कुष्ठ ग देख कर लौट आया हूँ। महाराज, मुझे तो आप के दामाद का यह कोढ़ अभी-अभी आया आ नहीं लगता है। कनकध्वज कुमार के शरीर में से जो दुर्गन्ध निकल रही है वह ताजा नहीं गती है। मुझे तो, महाराज, ऐसा लगता है कि यह सब एक बहुत बडा षडयंत्र है। यह सब र्वनियोजित-सा लगता है।" सुबुद्धि मंत्री ने राजा को यद्यपि यह समझाया, फिर भी राजा के क्रोध की आग शान्त नहीं 2 / इसलिए मंत्री ने राजा से फिर से कहा, “महाराज, आप सर्वसत्ताधीश है। सत्ता के आगे रा सयानापन निरर्थक है। लेकिन आप जो भी कदम उठाएँगे, वह बहुत सोच समझ कर ठाइए। बाद में पछताना न पडे, इतना ध्यान अवश्य रखिए, महाराज! नीतिशास्त्र में बताया गया है कि कोई भी काम विचार किए बिना उतावली में नहीं करना . . वाहिए। आगे-पीछे के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाहिए, स्वस्थ चित्त से विचार करना चाहिए और होनेवाले परिणाम का विचार करके ही कोई काम करना चाहिए। आपने अपने समया का पक्ष सुन लिया और प्रेमला को विषकन्या मान कर उतावली में यह कदम उठाने को आप तैयार हो गए हैं। आप का यह निर्णय बिलकुल अवास्तविक, अन्यायी और अनुचित है। क्या आपने इस संबंध में अपनी प्रिय कन्या से पूछताछ की ? आप जैसे बुद्धिमान और न्यायी राजा का कर्तव्य है कि आप दोनों पक्षों की बात शांतिपूर्वक सुने, योग्य-अयोग्य, उचित-अनुचित का पूरा विचार करें और सच्चे अपराधी को समझ ले कर उसे दंड दे। महाराज, जब तक आपका पुत्री प्रेमला अपराध सिद्ध नहीं होती, तब तक आप उसे सामान्य सजा भी नहीं दे सकते, कर मृत्युदंड देने की बात तो दूर ही रही ! इसलिए पूरा विचार करके काम करना ही अच्छा हैं - आपने मेरी सलाह पछी. तो अपनी बद्धि की शक्ति के अनुसार आपको उचित सलाह देना मेरा परमकर्तव्य है।" जब राजा मकरध्वज और सुबुद्धि मंत्री के बीच यह वार्तालाप चल रहा था, उसी समय राजकुमारी प्रेमला की माता सारी बातें सुन कर वहाँ आ पहुँची। प्रेमला की माता के मन में पूरा विश्वास हो गया था कि मेरी कन्या विषकन्या ही है। इसलिए उसने अपनी पुत्री से इस घटना के संबंध में कुछ पूछताछ भी नहीं को इतना ही नहीं बल्कि उसने उसे प्रेम से बुला कर उसका P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र क्षेमकुशल भी नहीं पूछा। जब भाग्य प्रतिकूल हो जाता है, तब मनुष्य के अपने स्नेही जन भी प्रतिकूल हो जाते हैं और शत्रु जैसा बर्ताव करने लगते हैं। अभी कल रात जिस प्राणप्रिय पुत्री का अत्यंत उल्लास उमंग और उत्साह से विवाह रचाया उसी पुत्री के प्रति होनेवाला माता-पिता का प्रेम अचानक कहाँ गायब हुआ, इसका किसी को पता नहीं चला। जब तक मनुष्य का भाग्य उसके लिए अनुकूल होता है, तभी तक उसके प्रियजनों का प्रेम उसके साथ होता है। प्रेमला के माता-पिता ने सोचा कि इस पुत्री ने तो हमारी नाक कटवाई / दुनिया में हम किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहे हैं / हमारी बदनामी करानेवाली यह पुत्री हमें नहीं चाहिए। राजा मकरध्वज के मन में पुत्रि प्रेमला के प्रति इतनी वृणा घृणा निर्माण हुई कि उसने चंडालों को बुलाया और कहा, “मेरी इस पुत्री को श्मशान में ले जाओ और तलवार से उसका सिर धड़ से अलग कर दो।" चंडाल तो बेचारे राजाज्ञा के गुलाम थे। इसलिए राजा की आज्ञा मिलते ही उन्होंने प्रेमला को पकड़ा और वे उसे श्मशान की ओर ले जाने लगे। राजा का ऐसा अन्यायी और अनुचित आदेश सुन कर राजदरबार के सारे सदस्य और नगरजन भी आश्चर्य में डूब गए। लेकिन राजा के कड़े आदेश के कारण कोई कुछ बोल भी न सका। मंत्री सुबुद्धि ने राजा को अपना आदेश वापस लेने के लिए तरह-तरह से समझाया, / लेकिन राजा टस से मस नहीं हुआ। अतिक्रोधी मनुष्य किसी की बात नहीं सुनता है / क्रोधांध मनुष्य के कान सुनने की शक्ति खो बैठते है / कानों के होते हुए भी ऐसा मनुष्य बहरा हो जाता | है। उसकी बुद्धि काम नहीं देता है। जब चंडाल प्रेमला को लेकर राजमार्ग पर से होकर जाने लगे, तो नगर के प्रतिष्ठित लोगों ने चंडालों को राजमार्ग पर ही रोका और कहा, 'तुम लोग अभी यहीं खड़े रहो। हम राजा के पास हो आते हैं, तब तक यहीं रूको / आगे मत जाओ।" नगर का महाजन राजा के पास आया और उसने राजा को प्रणाम कर के कहा, “हे / राजन् आप ऐसा अनुचित और अन्यायपूर्ण काम मत कीजिए। आप अपनी क्रोधाग्नि को शांत : कर लीजिए। अपनी पुत्री प्रेमला को आप जीवनदान दीजिए। आपके दामाद को कुष्ठ रोग हो = गया, इसमें बेचारी प्रेमला का क्या अपराध हैं ? हो सकता है कि इसके पीछे कोई दूसरा ही कारण P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 105 / / इसलिए महाराज, हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए और राजकुमारी को जीवनदान देकर हम अनुग्रहीत कीजिए / महाराज, पुत्री चाहे सुशीला हो, चहि कुशीला, लेकिन पिता उसके अपराध के लिए उसे क्षमा करता ही है। विदेशी दुर्जनों की बातों का विश्वास कर के आप अपनी राजपुत्री पर अन्याय मत कीजिए. उसके प्राण मत लीजिए, महाराज!" महाजन से राजा को समझाने की भरसक कोशिश की, लेकिन व्यर्थ ! राजा की क्रोधाग्नि तनहा हुई / निराश होकर महाजन लौट गया। फिर क्रोधांध राजा ने चंडालों को फिर से सापा, "इस दुष्ट पुत्री को इसी क्षण श्मशान में ले जाकर उसका काम तमाम कर दो। मैं इस दुष्टा का मुँह भी नहीं देखना चाहता हूँ। जाओ।" कम के कोप को शांत करने की शक्ति जहाँ इंद्र में भी नहीं होती, वहाँ बेचारे राजा या महाजन की क्या बिसात ? राजा की आज्ञा पाते ही चंडाल प्रेमला को लेकर तेजी से श्मशान की ओर चल पड़े। सारे नगर में बड़ा हाहाकार मच गया। श्मशान में पहुँचने के बाद चंडालों ने हाथ जोड़ कर प्रेमला से कहा, "हे राजकुमारीजी, सापकापताजी ने हमें यहीं इसी समय आपका वध करने का आदेश दिया हैं। आदेश का पालन तो हमें करना ही पड़ेगा। हमारे इस जीवन और व्यवसाय को धिक्कार हैं। पूर्वजन्म में संचित किए पाप के उदय से हमें यह निंध कर्म करना पड़ रहा है। इस जन्म में फिर से परवधरूपी कार्य रह, अगले जन्म में नरकादि की दुर्गति में न जाने कितना दुख भोगना पड़ेगा ?" यहाँ यह दखने को मिलता है कि उस काल में आर्यदेश के चंडाल में भी पालभीरुता और परलोक की 'पता कितनी बड़ी मात्रा में थी। आज के तथाकथित विज्ञानयुग में मानवजाति में यह पापभीरुता और परलोक की चिंता बहुत कम मात्रा में देखने को मिलती है। मनुष्य भले ही परिवार, देश चा शरार के लिए पाप करे, लेकिन किए हुए पाप का सारा फल नरकादि गति में उसको अकेले को भी भोगना पड़ता है। चंडालों ने प्रेमला से आगे कहा, “हे बहन, यह पेट ही सारे पापों का कारण है . यह पापी पट ही मनुष्य से सारे पापकर्म कराता है। इसलिए राजकुमारीजी, हमारे इस अपराध के लिए आप हमें क्षमा कीजिए। आप अपने इष्टदेवता का स्मरण कीजिए और हमें अपना कर्तव्य पालन करने की आज्ञा दीजिए।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र राजकुमारी प्रेमला आखिर एक वीर राजा की पुत्री थी। इसलिए चंडालों की बातें सुन कर और उनके हाथों में होनेवाली तीखी धार तलवारें देख कर वह बिलकुल नहीं धबराई / अपने कर्म की विचित्र लीला का विचार करते हुए वह खिलखिला कर हँस पड़ी और उसने चंडालों से कहा, "भाईयों, आप राजा के आदेश का शीघ्र पालन कर लीजिए / इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं है।" राजकमारी का धैर्य देख कर चंडालों ने मन में सोचा, हैं ! यह कैसा आश्चर्य है कि मृत्यु के समय भी यह राजकुमारी हँस रही है ? इसकी हँसी के पीछे अवश्य ही कोई-न-कोई रहस्य है।' इसलिए चंडालों ने राजकुमारी से पूछा, "हे राजकुमारी, आपके सामने मृत्यु साक्षात् खड़ी है, फिर भी आप हँसती हैं ? यह क्या बात हैं ? हमारी समझ में कुछ नहीं आता है !" चंडालों की जिज्ञासा जान कर राजकुमारी ने कहा, “हे बंधुओ, मेरे हास्य का कारण आपको बताने से क्या लाभ होगा ? यदि इस हँसी का कारण मेरे पिता ने मुझसे पूछा होता, तो मैं अवश्य बता देती। लेकिन महाराज ने मुझसे कुछ पूछा ही नहीं और मेरी कही हुई बातों को सुन कर भी अनसुना कर दिया, उसपर ध्यान नहीं दिया / कपटी विदेशियों की कपटपूर्ण बातों के चक्कर में पड़कर महाराज भ्रमित हुए हैं। इसलिए मुझे हँसी आ रही है। अब भी यदि वे मेरी सारी सच्ची बातें सुनने को तैयार हो, तो मैं सबकुछ बता कर उनकी बंद आँखें खोलने को तैयार प्रेमला की बातें सुनकर चंडालों ने विचार किया कि हमें एक बार तो इस राजकुमारी की | सारी बातें महाराज को बतानी ही चाहिए। अन्यथा, महाराज बाद में हमें दोष देंगे कि यदि ऐसा बात थी, तो मुझे तुम लोगों ने पहले ही क्यों नहीं बताया, चुपक्यों रहे ? चंडालों ने इस प्रकार आपस में विचारविमर्श किया और उन्होंने अपने में से एक की राजकुमारी के पास श्मशान में उसकी रक्षा करने के लिए रखा और बाकी सभी चंडाल श्मशान में से सुबुद्धि मंत्री के पास आए और उन्होंने मंत्री की श्मशान में घटित सारी घटनाएँ बता डाली / अंत में चंडालों ने मंत्री से कहा, "हमें तो ऐसा लगता है कि राजकुमारी बिलकुल निरपराध है। इसलिए एक बार राजकुमारी की कही हुई सारी बातें महाराज को बतानी चाहिए / राजकुमारीजी भी मरने से पहले अपने मन की बात राजा को ही बताने की इच्छा रखती हैं . P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 107 राजकुमारी का कहना है कि मेरी बात मेरे पिता सुनेंगे तो उनके सामने सारे रहस्य का भंडाफोड़ हो जाएगा। इसलिए आप कृपा करके राजा के पास जाइए और यह बात राजा से कह कर उन्हें प्रसन्न कीजिए।" चंडालों की बात सुनकर सुबुद्धि मंत्री उसी क्षण उठकर राजा के पास चले गए और उन्होंने राजा से कहा, "महाराज, राजकमारी मरने से पहले आप से कुछ कहने की इच्छा रखती 9 / मरनवाले की अंतिम इच्छा पूरी करना राजधर्म है। जब सामान्य अपराधी को भी अपनी निरपराधिता सिद्ध करने का अवसर दिया जाता हैं. फिर यह तो आपकी अपनी प्रिय पुत्री है। सता अपनी निरपराधिता सिद्ध करने का अवसर अवश्य दिया जाना चाहिए। इससे आपकी मायाप्रयता में भी चार चाँद लग जाएँगे और भविष्य में आपको पछताना भी नहीं पडेगा। महाराज, मैंने तो पहले ही आपसे कहा था कि विदेशियों पर कभी विश्वास नहीं रखना चाहिए। नितिकारों ने स्पष्ट ही कहा है कि 'इन तीनों पर विश्वास मत रखो-धूर्त, वेश्या और विदशा!' दूसरी बात यह है महाराज. कि यदि आपको ऐसा लगता है कि आपकी पत्री विषकन्या है और इसका मुँह देखना भी पाप है, तो आप यहाँ बीच में रहिये, उसे परदे के पीछे बिठाइए भार वहा से उसका कहना सुन लीजिए। महाराज, मझे पूरा विश्वास है कि न्यायी राजा होने से आप मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कर मुझे उपकृत करेंगे।" राजा ने अपने सुबुद्धि मंत्री की प्रार्थना स्वीकार कर ली। उन्होंने दरबार में बीच में परदे का प्रबंध कराया। परदे के इस ओर राजा स्वयं बैठ गए और उस ओर श्मशान में से वापस बुलाई गई राजकुमारी प्रेमला को बिठाया गया। जब सुबुद्धि मंत्री ने प्रेमला राजकुमारी से अपनी बात राजा के सामने बताने को कहा, तब प्रेमला बोली, "पूज्य पिताजी, आप मेरी सारी बातें अथ से इति तक शांति से सन लेने की कृपा कीजिए। आपके सामने मैं एक अक्षर भी असत्य नहीं बोलूँगी। मेरे विवाह के बारे में जो घटनाएँ धटित हुई उसके बारे में जब आपको पूरी बात मालूम हो जाएगी, तब आपके मन में मेरी निर्दोषता पर पूरा विश्वास हो जाएगा। यद्यपि यह बात कहते समय मुझे बड़ी लज्जा उत्पन्न हो रही है, फिर भी इस बात का स्पष्टीकरण किए बिना छुटकारा नहीं है / यदि मैं यह बात अपने मन में ही रख लूँ, तो इसका कटु फल मुझे ही भुगतना पड़ेगा। इसलिए हे पूज्य पिताजी, मैं चाहती हूँ कि बिलकुल प्रारंभ से जो कुछ हुआ वह सब आपको यथातथ्य रुप में बता दूं। कृपा करके आप मेरी बातें सावधानी से सुन लीजिए। पिछली P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र रात आपने जिस महापुरूष के साथ मेरा विवाह करा दिया और जिसको हस्तमोचन के समय आपने हाथी, धोड़े, कीमती वस्त्र-आभूषण आदि प्रदान किए वे मेरे पति और आपके सम्मान्य दामाद और कोई नहीं, बल्कि आभापुरी नरेश, सात्विकशिरोमणि, कामदेव के समान रूपवान् महाराज चंद्र ही थे। विवाह संपन्न होने के बाद हम दोनों पति-पत्नी विलासभवन में गए और सोने के पासों से खेलने लगे। कुछ समय तक खेलने के बाद हम भोजन करने के लिए बैठे। भोजन करते-करते उन्होंने मुझको पानी देने को कहा और मुझे अपना परिचय भी दिया। इसीके आधार पर मैं सबकुछ स्पष्ट रुप में जानकर आपके सामने कहने में समर्थ हो गई हूँ। आपके वास्तविक दामाद आभानरेश चंद्र की तुलना में ये सिंहलेश आदि तो तिनके को तरह तुच्छ हैं। सिंहलेश कनकरथ का पुत्र कनकध्वज जन्म से हो कोढ़ी है, इसीलिए कनकरथ उसे निरंतर एक गुप्त महल में रखते थे। विवाह की रात को संयोगवश आभानरेश चंद्र यहाँ पघारे थे। वे युवक और कापदेव के समान सुंदर होने के कारण सिंहलनरेश और उनके मंत्री हिंसक ने गुप्त परामर्श की कि 'आप इस विमलापुरी के राजा की पुत्री प्रेमला के साथ हमारे कुमार कनकध्वज की ओर से विवाह कीजिए। मेरे पति आभानरेश चंद्र की बिलकुल इच्छा न होने पर भी उस परोपकारी महापुरुष ने सिंहलनरेश और हिंसक मंत्री की प्रार्थना स्वीकार की। उसके अनुसार उन्होंने उस रात को मेरे साथ विवाह किया, मेरा पाणिग्रहण किया और उसी रात वे आभापुरी लौट गए। पिताजी, मैंने उसी समय अपने पति आभानरेश से कहा था कि भले ही आप मुझे यहाँ | अकेली रोती छोड़ कर आभापुरी जाइए, लेकिन मैं आपको खोजते हुए अवश्य आभापुरी चली आऊँगी / मैं आपका पीछा नहीं छोडूंगी। जैसे चंद्रमा की चाँदनी चंद्रमा को छोड़कर कहीं नहीं जाती है, वैसे ही आप चंद्र को छोड़ कर मैं कहीं नहीं जाऊँगी। कहीं भी नहीं जाऊँपी। पिताजी, आपके दामाद के मन में मुझे छोड़ कर जाने की बिलकुल इच्छा नहीं थी, / लेकिन हिंसक मंत्री के तिरस्कारपूर्ण कठोर वचन सुन कर और स्वयं पहले से ही वचन बद्ध होने के कारण उन्हें मुझे छोड कर जाना ही पड़ा। पिताजी, मैंने जो कुछ भी आपको अभी सुनाया, वह शब्दश: सत्य है / आप फिर से पूछताच कीजिए और मेरी कही हुई बातों में थोड़ासा भी असत्य का अंश आपको मिला, तो आप खुशी से अपनी मनचाही सजा मुझे दीजिए। पिताजी, यह सारा षड़यंत्र सिंहलनरेश के मंत्री हिंसक का रचा हुआ है।" HTTTTTTTE P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र ___109 राजकुमारी प्रेमला के पिता राजा मकरध्वज अपनी पुत्री की सारी बातें सुन कर बहुत आश्चर्य में पड़ गए। प्रेमला ने अपने पिता को आगे बताया, "पिताजी, जब मेरे पति आभानरेश मुझे और महल को छोड़ कर बाहर जाते थे, उसी समय मेरे मन में दृढ़ आशंका निर्माण हुई थी कि दाल में कुछ काला है। इसलिए मैं उनके पीछे-पीछे जा रही थी कि यमराज के दूत के समान दुष्ट हिंसक मंत्री वहाँ आया और मुझे जबर्दस्ती वहीं रोक कर रखा / यदि उस समय मैं हिंसक मत्रा के रोकने पर लाजशर्म मान कर न रूकती. तो यह स्थिति कदापि न आती। लेकिन भाग्य मालखी हुई घटनाओं को झूठ सिद्ध करने की या उन्हें रोकने की सामर्थ्य किसमें है ? अब मेरे पति के महल से चले जाने के बाद जो कुछ भी हुआ, वह भी ध्यान से सुन लीजिए। मेरे पति चंद्र राजा के महल से जाते ही तुरन्त हिंसक मंत्री द्वारा बनाई गई योजना के अनुसार कोढ़ी कनकध्वज मेरे महल में मेरा पति बनने की इच्छा लेकर राया। वह मुझे अपने जालम फसाने के लिए तरह-तरह की बनावटी बातें मुझसे कहने लगा। मैंने तो अपने महल में एक अपरिचित और प्रेत को तरह दीखनेवाले कोढ़ी मनुष्य को आते हुए देख कर तिरस्कार सकहा, "तू कौन है ? यहाँ क्यों आया है ? यहाँ से तुरन्त चला जा।" लेकिन हिंसक मंत्री ने काढ़ा कनकध्वज को बराबर सिखा कर ही मेरे पास भेजा था। इसलिए वह कोढ़ी कनकध्वज मेरे अपमानजनक वचनों की उपेक्षा करके मेरे महल में चला आया और वहाँ खाली पड़े हुए पलंग पर जा बैठा। उसे ऐसा करते हुए देख कर मैं वहाँ से भागी और दूर महल के कोने में जाकर खड़ी हो गई / कोढ़ी कनकध्वज ने मुझसे कहा, "हे प्रिये ! इस तरह मुझसे दूर जाकर क्या खड़ी हो गई है ? क्या तू मुझसे विवाह करके मुझे इतनी जल्द भूल गई ? आज तो हमारी सुहाग रात है। मेरा और तेरा मिलन प्रबल पुण्य के उदय के कारण हुआ है / ऐसा अवसर जीवन में बार-बार नहीं आता है। इसलिए मेरे पास आ जा और पलंग पर मेरे पास बैठ और विवाह से प्राप्त लाभ ले ले।" कोढ़ी कनकध्वज मुझे ठगने और अपनी पत्नी बनाने के उद्देश्य से ऐसे विविध वचनायक्त वचन बोलने लगा-बकने लगा ! लेकिन मुझे तो वह प्रेतात्मा से भी बदतर प्रतीत हुआ। मुझे वश में न होते देख कर हिंसक मंत्री ने कनकध्वज की दाई कपिला को मेरे महल में भज दिया। वह दुष्टा आकर मुझे बताने लगी, 'बहू, तुझे अपने पति के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। तू अपने पति के साथ यथेच्छ विलासोपभोग कर और अपना यौवन सफल बना P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र ले। इस तरह अपने पति से दूर जाकर एक कोने में खड़ा रहना तुझ जैसी नववधू के लिए उचित नहीं है। कपिला की बातें सुनकर मैंने आगबबूला होकर उससे कहा, “री दुष्टा, पाप की सौदागर, मुझे पूरा पता है कि मेरे पति कौन हैं ! मुझे तो यह कोई तोहमती और झूठा व्यक्ति लगता है ! इसलिए तू ये सारी बातें मुझसे मत कह !" मेरे वचनों के कारण तिरस्कार होकर मुझ पर आगबबूला हुई कपिला महल के बाहर आई और जोरशोर से रोने का ढोंगे रचा कर वह मुझ पर विषकन्या होने का आरोप लगाकर कोलाहल मचाने लगी। कुछ देर बार कोढ़ी कनकध्वज की माता सिंहलनरेश की रानी भी वहाँ आ पहुंची और कपिला की बातों का समर्थन करते हुए उसने भी मुझ पर विषकन्या होने का आरोप लगाया। फिर कनकध्वज के पिता सिंहलनरेश भी नाटक का अपना पार्ट अदा करने का आ पहुँचे। आपके कानों पर भी यह खबर वायु की गति से पहुँची और आप भी कुछ ही समय बाद घटनास्थल पर आ पहुँचे। उन महाकपटी और महाचालाक लोगों के वाग्जाल में फँस कर आपने भी मान लिया कि 'मेरी पुत्री प्रेमला निश्चय ही विषकन्या है।' आपने इस संबंध में पूछताछ तक नहीं को और सीधा चंडालों को बुला कर आपने उन्हें मुझे श्मशान में ले जाकर मार डालने का आदेश दिया। लेकिन पिताजी, यह कनकध्वज पहले से ही कोढ़ी था और यह सारा षड्यंत्र पूर्वनियोजित था। उन लोगों ने आपको अंधकार में रख कर आपको घोखा दिया और मेरे साथ कनकध्वज का विवाहसंबंध निश्चित कर लिया। फिर वे लोग बन ठन कर बरात लेकर यहाँ आ पहुँचे। लेकिन कोढ़ी कनकध्वज को वे विवाह के लिए महल से बाहर कैसे निकाल सकते थे ? यदि वे उसे बाहर निकालते तो उनका सारा भंडाफोड़ हो जाता, सबको पता चल जाता कि राजकुमार कनकध्वज कोढ़ी है और फिर सिंहलनरेश को अपने पुत्र का विवाह किए बिना ही काला मुँह लेकर वापस अपनी सिंहलनगरी की ओर जाना पड़ता। इसीलिए संयोग वश उसी रात अचानक वहाँ पधारे हुए सात्विक शिरोमणि, परोपकारी महापुरुष और आभापुरी के युवा राजा चंद्र को सिंहलनरेश ने मंत्री हिंसक की सहायता से खानगी में अपने महल में बुला लिया और उनसे कहा, “हे आभानरेश चंद्र, यदि आप हमारा एक महान कार्य कर दोगे, तो हम आपका उपकार जीवनपर्यंत नहीं भूलेगे। संकटरूपी सागर में फंसे हुए हम लोगों के लिए आप श्रेष्ठ नौका के समान हैं / आप हमारे कोढ़ी पुत्र राजकुमार E कनकध्वज की ओर से विमलापुरी नरेश की कन्या प्रेमला से विवाह कीजिए और विवाह के बाद P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 111 कन्या कनकध्वज को सौंप कर अपनी नगरी लौट जाइए। इसी षड्यंत्र के अनुसार इच्छा न होते हुए भी आभानरेश चंद्र ने कनकध्वज के लिए उसके स्थान पर मुझसे विवाह किया और वे चले गए। पिताजी, मैने न विवाह के समय, न करमोचन की विधि के समय ही इसी कोढ़ी कनकध्वज का दखा है। इसलिए हे पूज्य मेरे साथ विवाह किए हुए मेरे सच्चे पति तो आभानरेश चंद्र ही 9, काढा कनकध्वज उसके स्थान पर मुझसे विवाह किया और वे चले गए। मेरा पति नहीं है, मैंने उससे विवाह नहीं किया है। पिताजी; सिंहलनरेश ने आपकी आँखों में धूल झोंकी और मैं दु:ख के समुद्र में गिरकर बता-उतरती रही हूँ। मैंने जो कुछ भी धटित हुआ था वह सब यथातथ्य आपको बता दिया है। इतना सब सुनने के बाद भी यदि आपको मेरी कही हुई बातों पर विश्वास न आता हो, तो आप वही कीजिए जो आपको उचित लगता हैं। हे पूज्य, मेरा भाग्य तो आपही के हाथों में है। आप मुझे जो आज्ञा करेंगे, मैं उसका पालन करने के लिए बिल्कुल तैयार हूँ। लेकिन कृपा करकआप सिंहलनरेश और उनके साथियों की मनगढन्त बातों पर विश्वास मत कीजिए। यह मेरी विनम्र प्रार्थना है। पूज्य पिताजी, मेरा यही अंतिम निवेदन है / " राजकुमारी प्रेमला का यह दंभरहित निवेदन सुन कर राजा के मंत्री बोले, "हे स्वामी, मुझे तो राजकुमारी का निवेदन शब्दशः सत्य प्रतीत होता है / महाराज, वह कोढी कनकध्वज आपकी कन्या का पति नहीं है। इसलिए महाराज, इस समय आप राजकुमारी को राजमंदिर में निवास करने की आज्ञा दीजिए और आपक महान् बुद्धिमान् मंत्री को आभापुरी रवाना कीजिए और राजा चंद्र के बारे में पूछताछ कराइए / चंद्र राजा से आपको सारी वास्तविक बातें मालूम हो सकेंगी। सत्य बात पूरी तरह जानलिए बिना राजकुमारी को मृत्युदंड देना मुझे बिल्कुल उचित और न्यायसंगत नहीं लगता बी मंत्री की सलाह सुनकर राजा ने मंत्री से कहा, “मंत्रीजी, राजकुमारी को सारी रामकहानी सुनने के बाद मुझे भी ऐसा लगता है कि सिंहल नरेश ने हमें धोखा देकर हमारे साथ छलकपट किया है। इसलिए मेरा मन तो इस समय राजकुमारी को राजमंदिर में रखने को तैयार नहीं होता / इसलिए जब तक सत्य क्या है इस बात का निर्णय नहीं हो जाता, तब तक तुम राजकुमारी को अपने घर में रखो।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र राजा का निर्णय सुनकर मंत्री को बहुत खुशी हुई। उन्होंने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया / वे राजकुमारी को उसी समय अपने साथ अपने घर ले गए। उन्होंने अपने घर में राजकुमारी के नहाने-घोने और खाने-पीने का उचित प्रबंध किया और फिर उसे दिलास देते हुए मंत्री ने कहा, “राजकुमारीजी, अब तुम्हें चिंता करने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है / आप समझ लो कि तुम्हारे जीवन का मृत्यु का प्रसंग टल गया। अब तुम्हें तुम्हारे पति के समागम का अवसर अवश्य मिलेगा। तुम अखंड सुहागिन हो / याद रखो कि, 'जाको राखे साइयाँ, मार न सके कोय / ' ईश्वर जिसका रक्षक होता है, उसका दुनिया में कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता है! हे पुत्री, अब जान लो कि तुम्हारे दु:ख के दुर्दिन बीत गए और सुख के सुदिन आ गए। अब मैं यथाशीघ्र तुम्हारे पति की खोज कराऊँगा और तुम्हारे पिताजी की अप्रसन्नता दूर करा दूंगा। इसलिए अब किसी बात की चिंता मत करो। आराम से रहो ! यह अपना ही घर समझ लो।" मंत्री के वात्सल्यपूर्ण वचनों से राजकुमरी के मन को बहुत शांति मिली / वह अपना सारा दुःख भूल गई / संकट में फंसे हुए व्यक्ति को सांत्वना देना, धीरज बँधाना यह मनुष्य के लिए महान् धर्म है। दु:ख में दिलासा देने से दुर्ध्यान दूर हो जाता है और शुभष्यान की प्राप्ति हो जाती है। अपनी शक्ति के अनुसार दूसरे के दुःख दुर्ध्यान, चिंता और भय को दूर करने की कोशिश करना महान् पुण्यकर्म है / राजा के मंत्री सहृदय और सत्पुरुष-सज्जन व्यक्ति थे। इसलिए उन्होंने संकट में फँसी राजकुमारी को राजा के कोप से बचाया, उसे सांत्वना दी और उसकी सहायता यथासंभव ढंग से करते ही रहे। - अब राजा मकरध्वज ने प्रतिदिन शाम के समय राजसभा में बैठने का नियम-सा बना लिया। एक बार योग्य अवसर पाकर मुख्यमंत्री ने राजा से कहा, “महाराज, आपको याद होगा कि राज कुमारी प्रेमला का विवाहसंबंध सिंहलनरेश के पुत्र कनकध्वज से निश्चित करने के लिए आपने अपने चार मंत्रियों को सिंहलपुरी भेजा था। हे स्वामी, आपको यह भी याद होगा कि उन चार मंत्रियों ने सिंहलपुरी से लौट आने के बाद आपके सामने कनकध्वज के रूपसौंदर्य की जो खोल कर प्रशंसा की थी। इसलिए महाराज, अब आप उन चारों मंत्रियों को बुलाइए और उनसे पूछिए कि उन्होंने सिंहलपुरी जाकर राजकुमारी का विवाहसंबंध कनकध्वज के साथ निश्चित किया, उससे पहले उन्होंने अपनी आँखों से कनकध्वज का रूपसौंदर्य अवलोकन किया था या / उन्हें देखे बिना ही संबंध निश्चित किया था ? P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 ती चन्द्रराजर्षि चरित्र महाराज, मुझे तो निश्चय ही ऐसा लगता है कि कनकध्वज की कोढ़ की बीमारी बहुत राना है / यह कोई अभी-अभी हई बीमारी नहीं लगती है। इसलिए महाराज, आप अपने चारों त्रियों की ईमानदारी की अवश्य परीक्षा कर लीजिए।" बुद्धिनिधान मंत्री की बात सुनकर राजा ने मंत्री से कहा, "हाथ कंगन को आरसी क्या ? अभी उन चार मंत्रियों को बुलाकर उनकी परीक्षा करता हूँ। अभी तुम ही जाकर उन चारों त्रियों को यहाँ बुला लाओ। मैं उनसे सारी बातें पूछ लेता हूँ।" मत्री के बुलाने पर चारों लोभी मंत्री राजसभा में राजा मकरध्वज के सामने आ पहुंचे। जा ने चारों मंत्रियों से सीधा प्रश्न किया, "हे मंत्रियो, बताओ, तुमने सिंहलपुरी में जाकर सारा पुत्री का विवाहसंबंध निश्चित करने से पहले राज कमार कनकध्वज को अपनी आँखों से खा था या नहीं ? मंत्रियों मैं तुम से सत्य बात जानना चाहता हूँ। यदि तुम झूठमूठ की बातें बना मुझ ठगने की कोशिश करोगे, तो मैं तुम सब को कठोर से कठोर सजा दूँगा, मृत्युदंड देने से भी नहीं हिचकिचाऊँगा!" राजा का प्रश्न सुनते ही चारों मंत्रियों के मुँह काली स्याही की तरह.स्याह पड़ गए। चारो मंत्री एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। राजा जिसके मंह की ओर देखता, वह मंत्री कहता, महाराज, पहले उनसे (दसरे मंत्रियों से पछिए।" राजा जब उन मंत्रियों से पछने जाता. तो वे मंत्री कह उठते, “महाराज, मुझ से नहीं, पहले अन्य मंत्रियोंसे पूछिए।" मुख्य मंत्री ने इन चारों मंत्रियों की स्वयं को बचाने की यह कोशिश देख कर धीरे से राजा क कान में कहा, "हे राजन् ! मुझे तो यह सारा एक बहुत बड़ा पड्यंत्र-सा लगता है / ये चारों के चारों मंत्री सबसे पहले उत्तर देने को घबरा रहे हैं। इसलिए महाराज, इनमें से प्रत्येक को कात म अलग-अलग बुला कर पूछना चाहिए। इससे सारा रहस्य खुल जाएगा।" राजा को मुख्यमत्री की बात युक्तिसंगत लगी, इसलिए उसने चारो मंत्रियों में से एक मंत्री को एकान्त में बुलाया और उसे सबकुछ सत्यरूप में बताने का आदेश दिया। वह मंत्री हाथ जोड़ कर बोला, "महाराज, मैंने आपका नमक खाया है। इसलिए मैं आपके सामने कदापि झूठ नहीं बोलूँगा। आपन मुझे अन्य तीन मंत्रियों के साथ जो काम सौंपा था, इसमें मेरी भूल हो गई है और मैं अपनी मूल स्वाकार करता हूँ। जब हम चारों मंत्री राजकुमार कनकध्वज को देखने के लिए सिंहलपुरी गए, उस समय मैं हमारे निवासस्थान में ही अपनी अंगूठी भूल गया था। इसलिए अपनी वह P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 श्री चन्द्रराजर्षि चा. भूली हुई अँगूठी लेने को मैं निवासस्थान की ओर वापस चला आया। मेरे लौट आने के बाद तीनों मंत्रियों ने इकट्ठा होकर राजकुमार को देखा और फिर राजकुमारी के साथ उसका विवाहस भी निश्चित कर डाला / मैंने न तो सिंहलपुरी नरेश के राजकुमार कनकध्वज को अपनी आ. से देखा और न ही सगाई - विवाहसंबंध - के बारे में की गई बातों में हिस्सा लिया। इसलिम अपना अपराध स्वीकार कर लेता हूँ और आनी गलती के लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ। पहले मंत्री के साथ हुई इस मुलाकात से राजा को पता चला कि यह बात निर्विवाद है इस मंत्री ने राजकुमार कनकध्वज को देखा ही नहीं था। इसलिए राजा ने सोचा कि अब अ तीन मंत्रियों से पूछताछ कर निश्चित कर लूँ कि उनकी बातों में कितना सत्य है / फिर राजा ने अन्य तीन मंत्रियों को भी एक-एक करके एकांत में बुला कर उन पूछताछ की। दूसरे मंत्री को एकान्त में बुला कर पूछने पर उस मंत्री ने कहा, "हे राजन्, सा बाहर भले ही वक्र गति से चले, लेकिन बिल में धुसने पर उसे सीधा ही चलना पड़ता है इसलिए मैं आपको जो कुछ भी बताऊँगा, सच ही बताऊँगा, झूठ नहीं कहूँगा। महाराज, स बात वह है कि जिस दिन राजकुमार कनकध्वज के साथ राजकुमारी प्रेमला के विवाह संबंध व बात तय करनी थी, उसके पिछले दिन मैंने बहुत भोजन किया था, इससे मुझे अपच हो गट और मुझे उसी दिन से बार-बार टट्टी के लिए जाना पड़ने लगा। जिस समय कुमार-कुमारी विवाहसंबंध को निश्चित करने के उद्देश्य से सिंहलनरेश ने हम चारों को अपने मंत्रणाकक्ष' बुलाया, उसी समय मेरे लिए टट्टी जाना बहुत आवश्यक हो गया। मैं अपने आपको नियंत्रि रखने में असमर्थ हो गया। इसलिए मैं तुरंत मंत्रणाकक्ष से बाहर निकल गया / इसलिए मैं य देख भी नहीं सका कि होनेवाला वर काला है या गोरा / विवाहसंबंध निश्चित करने से पहले व को देखने की मेरी इच्छा मेरे मन में ही रह गई। अपने अपराध को मैं स्वीकार करता हूँ। मु माफ कीजिए, महाराज !" | दूसरे मंत्री की बातें सुन कर राजा ने उससे कहा, "ठीक है, तुम्हारी बात मैंने सुन ला ! अब तुम जा सकते हो।" राजा ने अब तीसरे मंत्री को एकांत में बुला कर जब उससे पूछताछ की, तो तीसरे में ने कहा, “महाराज, बात यह हुई कि जिस दिन और जिस समय विवाहसंबंध की बात तय कर थी, उसी समय दुर्भाग्य से सिंहलपति का भानजा किसी कारणवश रूठ कर कहीं भाग ग था। सिंहलपति के राजपरिवार ने उस भागे हुए भानजे को खोज कर और समझा-बुझा के P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वापस लाने का काम मुझे सौंपा। इधर मैं राजा के भागे हुए भानजे को खोजने गया और इन ना मात्रयों ने मिल कर विवाहसंबंध निश्चित कर डाला। इसलिए मुझे यह देखने का अवसर - हो नहीं मिला कि प्रेमलाजी का होनेवाला पति काला है या गोरा, सीधा हैं या कूबड़ा ! मैंने वहाँ वर को कभी अपनी आँखों से देखा ही नहीं। यदि मैं वहाँ उस समय उपस्थित होता, तो वर को अपना आखों से देख कर ही विवाहसंबंध निश्चित करता / इसलिए महाराज, इस संबंध में मेरी - कोई गलती नहीं है।" - राजा ने इस राजा ने इस तीसरे ठग मंत्री की बात सुन कर अपने मन में सोचा कि इसने भी वर की देखा नहीं है। लेकिन अपना अपराध छिपाने के लिए यह मनगढन्त उत्तर दे रहा है। अब चौथे मत्रा को भी एकान्त में बुला कर पूछ ही लूँ और जान तो लूँ कि वह क्या कहता है। मुख्य मंत्री का इशारा पाते ही चौथा मंत्री भी राजा के पास गप्त कक्ष में चला गया और राजा को प्रणाम कर खड़ा हो गया। राजा ने चौथे मंत्री को कड़क कर बताया, “महाशय, अब तुम्हारी बारी है। अगर तुमन झूठमूठ का उत्तर दिया तो उसके बदले में तुम्हें कठोर दंड भुगतना पड़ेगा। इसलिए = सबकुछ सच-सच बता दो।" राजा को कड़ी वाणी सुन कर चौथे मंत्री ने कहा, “महाराज, असत्य बहुत लम्बे समय तक छिपा नहीं रह सकता। इसलिए मैं जो कुछ भी कहूँगा, सत्य ही कहूँगा। झूठ बोलकर अपना अपराध छिपाने की अपेक्षा सत्य बोलकर उसके लिए दड भी सहना अधिक अच्छा है। महाराज, सिंहलनरेश के मन में कनकध्वज और प्रेमलाकुमारी का विवाह कराने की इच्छा बिलकुल नहीं थी। लेकिन हिंसक मंत्री ने ही यह विवाह निश्चित किया / हमारे मन में वर को खन की प्रबल इच्छा थी लेकिन हिंसक मंत्री ने जानबूझ कर विलंब करना प्रारंभ किया। वह कहने लगा, “इस समय तो कुमार अपने ननिहाल में है / इस समय वे वापस यहाँ आ नहीं सकत, यह कठिन है। जब हमने कमार को देख लेने का बहत आग्रह किया और कहा कि कमार को अपनी आँखों से देखे बिना हम यहाँ से नही जाएँगे, तब हिंसक मंत्री ने हम सबको एक-एक कराड स्वर्णमहरें देने का लालच दिखाया। इसलिए इस लालच में आकर हम सबने वर कुमार कारुपसौंदर्य आँखों से देखने का आग्रह छोड दिया। महाराज. सांसारिक प्राणियों के लिए लोभ का त्याग करना अत्यंत कठिन होता है। हमने भी लोभ के वश में होकर ही वर को देखे बिना हाविमलापुरी लौट आए और हमने आपको बताया कि “हम वर को देख कर आए हैं। वर के रूप-सौंदर्य के बारे में जैसी प्रशंसा सुनी थी वैसा ही सचमुच उसका रुपलावण्य है।" ऐसी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र झूठमूट की बात कह कर, महाराज, हमने आपका विश्वासघात किया है / इसलिए हम चारा कड़ा-से-कड़ा दंड पाने के लिए योग्य हैं। आप अपनी मर्जी के अनुसार हमें दंड दे दीजिए।" चौथे सत्यवादी मंत्री की कही हुई बात सुन कर राजा को पूरा विश्वास हुआ कि मेरी बेटा राजकुमारी प्रेमला निरपराध है, निर्दोष है। प्राणी का पुण्योदय होता है, तो सबकुछ अनुकूल हो जाता है ! चारों मंत्रियों की बातें एकान्त में अलग-अलग सुनने के बाद राजा ने अपने सुबुद्धि मंत्री से कहा, "मंत्रीजी, इन चारों मंत्रियों ने लोभ में पड़ कर अत्यंत अनुचित काम किया है / लोभ सभी अनुचित कार्यों का जनक होता है। लोभाधीन मनुष्य कोन-सा पाप नहीं करता ? इसलिए इस घटना में मुझे लोभ में अंध बने हुए ये चारों मंत्री उतने अपराधी नहीं लगते हैं; लेकिन इसमें सच्चा दोष तो सिंहलेश और उनके दुष्ट मंत्री हिंसक का ही है। इन दोनों-राजा और मंत्री न मिलकर जान-बूझ कर जन्मजात कोढ़ी राजकुमार को अपने स्पर्शमात्र से कोढ़ी बना देने का आरोप मेरी पुत्री-प्रिय पुत्री-प्रेमलालच्छी पर लगाया है। उन दोनों की यह कोशिश अत्यंत निम्न दर्जे की है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि अपने चारों मंत्रियों को निर्दोष मानकर छोड दूं / लेकिन तुम मुझे यह सुझाओ कि सच्चे अपराधी सिंहलनरेश और उनके दुष्ट हिंसक मंत्री को क्या दंड दिया जाए ? सुबुद्धि मंत्री ने सोच-समझकर राजा को बताया, “महाराज, इस संबंध में मेरी वह सलाह है कि आप सबसे पहले प्रेमला के सच्चे पति आभानरेश की चारों ओर खोज कराइए / और जब तक प्रेमला के सच्चे पति आभानरेश चंद्र के बारे में कोई समाचार न मिले, तब सिंहलनरेश, उनकी रानी, कोढ़ी राजकुमार कनकध्वज, उसकी उपमाता और दुष्ट हिंसक भत्रा को कैद में रखा जाए और बरात में आए हुए अन्य लोगों को विमलापुरी से उनके गाँवों की और रवाना कर दिया जाए।" = सुबुद्धि मंत्री से हुए गुप्त सलाह-मशविरे के बाद राजा ने सिंहलनरेश आदि पाँच लोग को पकड़ कर कैदखाने में रख दिया ! अत्यंत उग्र पुण्य या पाप का फल पहले यहीं प्राप्त होत / है / कैद में पड़े हुए पाँचों जन अपने कुकर्म का फल भोगने लगे। उन्हें अपने किए हुए = दुष्कर्मोका बहुत पश्चाताप हुआ। लेकिन अब पछताए क्या होत जब चिड़िया चुग गई खेत = देर से सूझा हुआ सयानापन किस काम का होता है ? P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रराजर्षि चरित्र 117 मकरध्वज द्वारा आभानरेश की खोज : जब राजकुमारी प्रेमला पूरी तरह निरपराध साबित हुई, तब राजा मकरध्वज ने आभानरेश खिोज कराने का निश्चय किया। इस दृष्टि से राजा ने एक दानशाला खोली और उसके वाधिकार अपनी पुत्री को सौंप कर उससे कहा, "हे प्रिय पुत्री, मेरी बात सावधानी से सुन / का पानशाला में जितने भी मुसाफिर आएँगे. उन सबको त अपनी मर्जी के अनुसार अन्न दवा आदि का दान करती जा और उनसे आभानरेश के बारे में पूछताछ कर / यदि कोई साफिर तुझे यह बताए कि 'आभानरेश को मैं जानता हूँ ' तो त उस मुसाफिर को तुरन्त मेरे स ले आ।" पिता के आदेश को शिरसा वंद्य मान कर प्रेमला हररोज दानशाला में बैठने लगी। मसाला म दान लेने के लिए आनेवाले मुसाफिरों को वह यथेच्छ दान देती थी और उनसे पूछती थी कि, "तुम देशदेशांतर में धमते हो। क्या तम में से किसी ने आभानगरी देखी है ? क्या उसआभानगरी के राजा चंद्र का नाम तमने सना हैं?" बेचारी प्रेमलाको मुसाफिरों से निराशाजनक उत्तर मिलता था, "नहीं राजकमारीजी हम कभी उस दिशा में नहीं गए / इसलिए न हम आभानगरी जानते हैं, न राजा चंद्र का नाम हपने कभी सुना है !" मुसाफिरों की ओर से ऐसा निराशाजनक उत्तर मिलने पर प्रेमला शोकसागर में डूब जाती थी। वह किसी एकान्त कमरे में चली जाती और आँखों से आँसू बहाते हुए अंत में शांति पा लेती थी। कर्मधीन जीवों के हाथ में इसके सिवाय और होता ही क्या है ? अपने मन के दुःख बात वह किसी से नहीं करती थी। अपना द:ख दसरे के सामने प्रकट करने में उसे बडी शर्म आती थी। इसी क्रम में एक बार विमलापरी के उद्यान में जंघाचारण ऋषि का आगमन हुआ / वनपालक ने आकर राजा को संदेश दिया, “महाराज, आपकी नगरी विमलापुरी के उद्यान में विविध प्रकार की कठोर तपश्चर्या के प्रभाव से जिन्होंने आकाश में उड़ान भर सकने सज शाक्त प्राप्त कर ली है, ऐसे साक्षात् तपोमूर्ति, धर्म मूर्ति, चारित्र्यमूर्ति और महाज्ञानी ऋषिराज पधारे है। उनके दर्शन-वंदन के लिए चलिए।" ऋषिराज जंधाचारण के आगमन का समाचार लानेवाले वनपालक को राजा मकरध्वज बहुत खुश होकर बड़ा इनाम दिया और उसे खुश कर दिया। फिर राजा मकरध्वज अपने परिवार के साथ प्रेमला को भी लेकर उद्यान में जा पहुँचे। जैसे मेघ को देख कर मयूर को, चंद्रमा का देख कर चकोर को आनंद प्राप्त होता है, वैसे या उससे भी अधिक आनंद धर्म प्रेमी राज P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र - नकरध्वज को ऋषिराज के दर्शन से हुआ। राजा ने अपने परिवार के साथ ऋषिराज की तीन बार प्रदक्षिण की और पूरी श्रद्धा से हर्षविभोर होकर ऋषिराज की वंदना की। राजा ने ऋषिराज से हाथ जोड़ कर विनम्रता से उनका क्षेमकुशल पूछा। ऋषिराज जंघाचारण ने राजा तथा उसके परिवार को 'धर्म लाभ' का आशीर्वाद दिया। 'धर्म लाभ' के आशीर्वाद से बढ़ कर इस संसार में अन्य कोई आशीर्वाद नहीं है / धर्म का लाभ यही सबसे बड़ा और श्रेष्ठ लाभ है। धर्म मय जीवन जीनेवाले ऐसे मुनिराज ही संसार के जीवों को सच्चे धर्म लाभ का आशीर्वाद दे सकते हैं। दर्शन-वंदन-आशीर्वाद के बाद राजा, उसका परिवार और नगरजन-सबके सब हाथ जोड़ कर विनम्रता से अपने-अपने स्थान पर बैठ गए। फिर मुनिराज जंधाचारण ने उन सबको धर्मोपदेश दिया। मुनिराज के धर्मोपदेश के परिणामस्वरूप अनेक भव्य (धर्म निष्ठ) जीवों को प्रतिबोध (जागरण) प्राप्त हुआ। उनके मन में जैन धर्म के प्रति अत्यंत आदर की भावना उत्पन्न हुई / इसलिए उनमें से अनेकों ने उसी समय वहीं ऋषिराज से यथाशक्ति व्रत नियम स्वीकार कर लिए। धर्म श्रवण की सच्ची सफलता व्रत-नियमों को सहर्ष स्वीकार कर लेने में ही है। ऋषिराज की धर्म वाणी से प्रभावित प्रेमला भी शुद्ध ‘समकित' धारिणी श्राविका बन * गई। समकित से मतलब है सच्चे और शुद्ध देव, गुरु और धर्म पर दृढ श्रद्धा रखना और उन्हीं को तारणहार मानकर उनकी यथाशक्ति सेवाटहल करना / यह समकित ही मोक्ष के मूल में है / मुनिजंघाचारण विमलापुरी में धर्मोन्नति करके अन्यत्र चले गए / मुनि के चले जाने के |बाद राजा मकरध्वज अपने परिवार और राजकुमारी प्रेमला के साथ अपने महल में लौट |आए / प्रेमला उसी दिन से जैन मंदिर मे जाकर प्रतिदिन जिनेश्वर देव के दर्शन-वंदन-पूजानामस्मरण आदि करने लगी। ‘नमस्कार-मंत्र के जप में वह विशेष प्रकार से तन्मय हो गई। वह जाग्रतावस्था में हरक्षण नमस्कार-मंत्र का जप करते हुए एक धर्मपरायण भक्त का जीवन जीते हुए अपने जीवन को सार्थक बना रही थी। नमस्कार-मंत्र यह एक अपूर्व कल्पवृक्ष और चिंतामणि रत्न के समान है / वह अपूर्व सुख का भंडार है। सभी प्रकार के दु:खों को हरण करनेवाले और सभी तरह का सुख प्रदान करनेवाले नमस्कार-मंत्र का पूरी श्रद्धा से तन्मयतापूर्वक जप करते रहने से शासनदेवी प्रेमला P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 इन्द्रराजर्षि चरित्र सन्न होकर उसके सामने प्रकट हुई और कहने लगी, “हे बहन, तू बिलकुल चिंता मत तेरा पति तुझे अवश्य मिलेगा। लेकिन पति के साथ तेरा मिलन होने में अभी थोड़ी देर / / तेरे विवाह के संपन्न होने के सोलह वर्ष बाद ही तेरा तेरे पति आभानरेश से समागम / इसलिए इस समय त अपना जीवन परमात्मा की भक्ति करते रहने में व्यतीत कर / त्मा की भक्ति यह सभी प्रकार के शुभों को प्राप्त करा देनेवाली दूती है। यह सभी अशुभों ाश करनेवाली श्रेष्ठ शक्ति है।" इतना समझा कर और प्रेमला को आशीर्वाद देकर नदेवी अंतर्धान हो गई। शासनदेवी की कही हुई बातें प्रेमला ने अपने माता-पिता को बता प्रेमला को कही हुई बातें सुन कर प्रेमला के माता-पिता को अत्यंत हर्ष हुआ। नमस्कार-मंत्र के जप का प्रत्यक्ष प्रभाव देख कर राजकुमारी प्रेमला की नमस्कार-मंत्र के श्रद्धा बहुत बढ़ गई। अब वह पहले से भी अधिक प्रेम, विश्वास और श्रद्धा से नमस्कारका जप करने लगी। प्रेमला प्रतिदिन बिना चूके जिनमूर्ति के दर्शन करती, वंदन-पूजनतगायन करती और साथ-साथ यथाशक्ति तपश्चर्या भी करती थी। जब जप के साथ तप की शक्ति मिल जाती है तो सहस्त्रगना अधिक शक्ति उत्पन्न हो ना है। इस शक्ति में अगर ब्रह्मचर्य की शत्ति मिल जाए तो फिर भीषण भवसागर पार कर ना बहुत आसान बन जाता है। जहाँ जप-तप और शील का त्रिवेणी संगम हो जाता है, वहाँ 2 स्वयाशवरूप बन जाता है। जो मनष्य विपत्ति में नमस्कार-मंत्र का जप, तपश्चर्या और (ब्रह्मचर्य) इन तीनों की शरण में जाता है वह विपत्ति से मुक्त होकर ही रहता है। दिन व्यतीत होते जा रहे थे। प्रेमला श्रद्धापूर्ण भक्ति, जप-तप-शील के आचरण में नय थी। एक बार विमलापुरी में किसी देश से एक योगिनी पधारी। योगिनी वीणाधारिणी थी, का गोरा और सुडोल शरीर अत्यंत आकर्षक था ।उसने गेरुए रंग के सुंदर वस्त्र परिधान थे। उसके मुख पर वैराग्य की प्रभा का प्रकाश फैला हुआ था। उसका कंठ कोयल के कंठ तरह मधुर था। इसलिए जब वह हाथ में वीणा लेकर मधुर कंठ से गीत गाती, तो लोगों की उसके गीत को सुनने इकट्ठा हो जाती थी। उसे देख कर और उसका प्रभावकारी मधुर गीत कर लोग श्रद्धा और भक्ति के साथ उसे प्रणाम करते थे। सौंदर्य की प्रतिमूर्ति और कलाकुशल होनेवाली इस विदेशी योगिनी की कीर्ति सारी मलापुरी में फैल गई। एक बार प्रेमला भी इस योगिनी का मधुर गीत सुनने गई। इस समय P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र योगिनी किसी आदर्श और श्रेष्ठ राजा का गुणगान कर रही थी। गीत पूरा होने पर योगिनी को प्रणाम कर प्रेमला ने उससे पूछा, “आप किसका गुणगान कर रही थीं ?" इसपर योगिनी ने उत्तर दिया, “पूर्व दिशा में स्थित आभापुरी नामक नगरी पर चंद्र नाम का राजा राज्य करता है। यह राजा सभी राजाओं में श्रेष्ठ है, सभी सद्गुणों का वह भंडार ही है। वह न्याय, नीति और प्रेम से अपनी प्रजा का पालन करता है। वह रूपसौंदर्य में कामदेव जैसा, तेज में सूरज के समान, पराक्रम में सिंह की तरह और परोपकार-रसिक है। मैंने उसका नमक खाया है और मेरे मन में उसके प्रति अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम है / उसी आभानरेश चंद्र का नित्य गुणगान करती हुई मैं इस धरती पर परिभ्रमण करती हूँ। इस समय पृथ्वी के लिए आभूषण समान होनेवाले इस चंद्र राजा को उसकी सौतेली माँ ने किसी कारण वश मुर्गे के रूप में बदल दिया है। इस घटना से मैं बहुत खिन्न हो गई हूँ और उस आभानगरी का त्याग कर घूमती हुई यहाँ आ पहुँची हूँ। अभी तक मैं अनेक देशों में घूम आई हूँ, लेकिन आभानरेश चंद्र के समान चरित्रशील सत्पुरुष मैंने अभी तक अन्य कोई नहीं देखा। इसलिए मैं दिनरात इसी चंद्र राजा का गुणगान करते रहने में अपना समय व्यतीत करती जा रही हूँ। अचानक योगिनी के मुख से आभानरेश चंद्र के गुणों का वर्णन सुन कर प्रेमला के हर्ष | का पार न रहा। अपने पति के बारे में पूर्ण समाचार देनेवाली योगिनी को साथ लेकर प्रेमला | अपने पिता राजा मकरध्वज के पास आई। राजा ने योगिनी का यथोचित सम्मान कर उससे पूछा, "हे योगिनी, तुम आभापुरी के राजा चंद्र के बारे में जो कुछ भी जानती हो, वह बता दो।" योगिनी ने चंद्र राजा के बारे में प्रेमला को जो कुछ भी बताया था, वह सब राजा मकरध्वज को कह सुनाया। यह सब सुन कर राजा मकरध्वज के हर्ष का कोई पार न रहा। राजा ने अपनी पुत्री प्रेमला से कहा, “हे प्रिय पुत्री, तेरी कही हुई बातें बिलकुल सत्य हैं / तेरा पति महान् और महाभाग्यवान् लगता है। लेकिन तेरे पति का देश यहाँ से बहुत दूर है। तेरे पति को उसकी सौतेली माँ ने मुर्गा बना दिया है। इसलिए इस समय तेरे पति से तेरा मिलन बहुत कठिन प्रतीत होता है। लेकिन चिंता मत कर, धैर्य धारण कर / शासन देवी ने तेरे सामने प्रकट होकर जो कहा है वह कदापि मिथ्या नहीं हो सकता है / तुझे तेरे पति का समागम अवश्यमेव मिलेगा, चिंता मत कर / हे पुत्री, जब भाग्य अनुकूल होगा, तब अनायास सब ठीक हो जाएगा।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 121 प्रेमला ने अपने पिता का उपदेश ध्यान से सुना और फिर वह योगिनी को अपने साथ ले गई और उसने बडी श्रद्धा के भाव से योगिनी को भोजन कराया। भोजन के बाद योगिनी अपने का आर चली गई / प्रेमला पहले की तरह परमात्मा की भक्ति करने में अपना समय व्यतीत करने लगी। वीरमती का भीषण छलकपट इधर आभानरेश चंद्र को मुर्गा बने हुए आभापुरी में लगभग एक महीना बीत गया / आभापुरी के नगरजनों को एक महीने तक अपने प्रिय राजा के दर्शन नहीं मिले, इसलिए सारी नगरा में कोलाहल मच गया। अभी तक लोगों को पता नहीं था कि राजमाता वीरमती ने राजा कामुगा बना दिया है। आभानरेश की पत्नी रानी गणावली ने भी अपनी सास के डर से अपने मुर्गा बने हुए पति को अपने महल में छिपा कर रखा था। . एक बार सभी नगरजन मिल कर मंत्री के पास जा पहँचे और उन्होंने मंत्री से प्रार्थना की, मात्रराज, कृपा करके हमें राजा के दर्शन कराइए। पिछले एक महीने से हमने महाराज को नहीं देखा है। इसलिए उनके दर्शन करने के लिए हम सब अत्यंत उत्सुक हैं। आपने महाराज के दर्शन हमें नहीं कराए, तो हम सब यह देश छोड़ कर चले जाएँगे, आभापुरी में नहीं रहेंगे। हाथी, मूर्ति से रहित मंदिर, बिना पानी की नदी और चंद्रमा के बिना रात्रि शोभा नहीं देती है, वैसे हो राजा के बिना राज्य भी शोभित नहीं होता है. अच्छा नहीं लगता है। सारी प्रजा के आधार, रक्षक और शरण राजा ही होते हैं। यदि राज्य मे राजा ही न हो तो फिर उस राज्य में - राजनगरी में निवास करने के क्या लाभ ? इससे तो वन में निवास करना अच्छा है !" मत्रा ने नगरजनों की कही हुई सारी बातें शांति से सुनीं और उन्हें दिलासा देते हुए मंत्री ने कहा, “हे नगरजनो, चिंता मत करो। तुम सबको अपनी प्रिय आभापुरी छोड़ कर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है / वैसे मैंने भी महाराज को पिछले एक महीने से नहीं देखा है। इसलिए तुम सबके समान मेरा मन भी महाराज के दर्शन करने को अत्यंत लालायित है / मैं अभी राजमाता वीरमतीजी के पास जाता हूँ और उनसे पूछ लेता हूँ कि 'हमारे महाराज कहाँ है ? कहाँ गए हैं ? वे पिछले एक महीने से दिखाई क्यों नहीं दे रहे हैं ?' राजमाता से इन प्रश्नों के उत्तर जानकर मैं लौट आऊँगा और फिर तुम्हें हमारे महाराज के संबंध में समाचार दूंगा। इस समय तुम सब अपने अपने घर जाओ। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र इस तरह से दिलासा देकर मंत्री ने सभी नगरजनों को अपने-अपने घर वापस भेज या। फिर सुबुद्धि मंत्री राजमाता वीरमती के पास गए। मंत्री ने वीरमती को वह सब बता दिया जो लोगों ने अभी-अभी कहा था। मंत्री ने वीरमती को बताया, “हे राजमाता, नगरजनों में तरह-तरह की चर्चा चल रही है। लोग कहते हैं कि राजमाता ने हमारे राजा को किसी गुप्त थान में रखा है। इसलिए मैं वस्तुस्थिति क्या है यह जानने के उद्देश्य से आपके पास आ पहुँचा हूँ। इसलिए हे राजमाताजी, बताइए कि आपके सुपुत्र और हमारी आभा नगरी के राजा चंद्र कहाँ हैं ? एक महीना हो गया, लेकिन वे एक बार भी राजसभा में नहीं पधारे / क्या आपने उन्हें कहीं रखा है, या कहीं भेजा है महाराज हमें कब दर्शन देंगे यह कृपा करके बताइए / आप राजमाता हैं, इसलिए आपको सभी बातों का अवश्य पता होगा। राजमाताजी, इस आभा नगरी का राज्य चलाना है और राज्य चलाना कोई छोटे बच्चों का खेल नहीं है। राजा की अनुपस्तिति के कारण प्रजा में बहुत असंतोष व्याप्त हो गया है / हो सकता है कि इस घटना से असंतुष्ट प्रजा बगावत कर बैठे। आग लगने से पहले ही कुआँ खोद रखना उचित है। पानी को बाढ़ आने से पहले ही उसे रोकने के लिए बाँध बनाकर तैयार रखना अच्छा है, योग्य है ! राजमाताजी, मैं इस आभा नगरी के राज्य का मुख्य मंत्री हूँ। राज्य की सुरक्षा के बारे में आपको सावधान करना मेरा परम कर्तव्य है। इसीलिए मैंने इतने विस्तार से सारी बातें आपके सामने स्पष्ट और सत्य रूप में कह दी हैं। सबकुछ जानते हुए भी यदि मैं आपको अंधेरे में रखू, कुछ न बताऊँ, और कल राज्य में कोई आँधीतूफान आ जाए तो आप मुझे दोष देंगी कि ये सारी बातें मालूम होते हुए भी तुमने पहले मुझे कुछ भी क्यों नहीं बताया ? इसीलिए राजमाताजी, मैं आपको यह सब इतना स्पष्ट रूप में बता रहा हूँ। आभानगरी के हर दो-राहे, चौराहे पर एक ही बात चर्चा का विषय बन गई है कि ‘राजमाता ने हमारे महाराज को कहीं छिपा कर रखा है।' इसीलिए माताजी, मेरी आपसे यही एकमात्र विनम्र प्रार्थना है कि आप मुझे तुरन्त बता दीजिए कि आपके सुपुत्र और हमारे महाराज आभानरेश कहां हैं ?' सुबुद्धि मंत्री की कही हुई इतनी युक्तियुक्त बातें सुन कर भी वीरमती के कानों की जू =क नहीं रेंगी। वीरमती पर इन सारी बातों को सुन कर कोई असर नहीं हुआ। इसके विपरीत, बुद्धि मंत्री की सारी बातें सुन लेने के बाद उसके कान उमेठते हुए क्रोधातुर होकर गर्जना P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रराजर्षि चरित्र 123 त हुए राजमाता वीरमती ने मंत्री से कहा, "ए मंत्री, तू प्रजा की दलाली करता हुआ मेरे पास आया हैं, यह मै अच्छी तरह जानती हूँ। हे दुष्ट, तूने ही तो मेरे पुत्र राजा चंद्र को मार डाला और अब तू बड़ा धूर्त बन कर अपना अपराध छिपाने के लिए मुझसे ये सारी सफाई की कर रहा है। ऐसा करके तू अपने किए हुए पाप पर परदा डालना चाहता है, लेकिन याद मतरी सारी चतुराई-चालाकी अच्छी तरह समझ गई हूँ।" इसीको कहते हैं 'उलटा चोर नवाल को डाँटे !' वास्तव में वीरमती ने ही अपने मंत्रप्रयोग से आभानरेश चंद्र को मुर्गा बना डाला था। 7वारमती ने अपना अपराध बड़ी चालाकी से यह कह कर मंत्री के माथे पर मार दिया कि, न ही मेरे पुत्र चंद्र को मार डाला है।' सब हो कहा है कि स्त्री के चारित्र का पार पाना महा उन है / स्त्री कपट की कोठरी है, माया का मंदिर है, सभी दु-खों को जन्म देनेवाली जननी है। वारमता ने फिर कड़क कर सुबुद्धि मंत्री से कहा, “मेरे प्रिय पुत्र के खूनी हे दुष्ट मंत्री, मैं यह पापमय षडयंत्र बहुत समय से जानती हूँ, लेकिन मैंने अभी तक तेरी इस काली करतूत र मकिसीसे कुछ नहीं कहा है। अब तू ही मुझे उल्टा पाठ पढ़ाने आया है, इसलिए मुझे से यह बात स्पष्ट कहनी पड़ रही है कि, 'तूने ही मेरे पुत्र का खून कर दिया है / मैं अच्छी - जानता हू कि तू इस समय बडे सत्यवादी हरिचंद्र का स्वाँग लेकर मेरे पास क्यों आया तू मुझे संसार में बदनाम करना चाहता है, लेकिन याद रख, मैं तुझे यों ही छोड़नेवाली नहीं मरा अपराध करके तू सुख से जीना चाहता है, लेकिन तेरी यह आशा कभी पूरी नहीं हो गी, समझा न तू!" राजमाता द्वारा अचानक किए हुए इस परमाणु बम के विस्कोट से बेचारा सुबुद्धि मंत्री विरा हो गया। एकदम क्षुब्ध होकर उसने राजमाता वीरमती से कहा, "हे राजमाता, आप ऐसी उल्टी-सीधी बातें क्यों कर रही हैं ? ऐसा सरासर झूठ बोल आपको क्या लाभ होगा ? मुझ पर राजा की हत्या करने का बिलकुल बेबुनियाद इल्जाम क्या लगा रही हैं ? मैं किसलिए राजा की हत्या करूँगा ? क्या राजा के साथ मेरी कोई 11 है ? राजाने मेरा ऐसा क्या बिगाड़ा है जो मैं अपने अन्नदाता राजा का स्वयं खून करूँया स खून कराऊँ ? क्या आपके पास इस इल्जाम के लिए कोई प्रमाण है ? हे राजमाता, वर इश्वर से तो थोड़ा बहुत डर रखिए। मैं तो राज्य के हित के लिए आपसे बात करने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र आया, तो आप मेरे ही गले पड़ गई ! लेकिन ऐसा करके आप मुझे उल्लू नहीं बना सकती !आपने इल्जाम ही लगाया है तो फिर बताइए कि मैंने किस कारण से और कैसे राजा चंद्र का खून किया ?" इसपर वीरमती मंत्री से बोली, “हे मंत्री, तू चतुर होकर भी क्या इतनी सामान्य-सी बात नहीं समझ सकता ? अब के बाद फिर कभी तू मुझसे चंद्र के बारे में बात करने का साहस मत कर / यदि तू फिर कभी मुझसे चंद्र राजा के बारे में पूछेगा, तो तुझे उसका भयंकर परिणाम भुगतना पड़ेगा। आज के बाद फिर कभी तू मेरे सामने चंद्र का नाम भी मत ले। आज से राजा चंद्र के स्थान पर मुझे ही राजा मान कर तुझे मेरी ही आज्ञाओं का पालन करना होगा। यदि तू मेरे इस कार्य में बाधा नहीं डालेगा, तो मैं तुझे मंत्री पद पर बना रखूगी। अन्यथा, मैं तुझे मंत्री पद पर से हटा दूंगी और तेरे स्थान पर नए मंत्री को नियुक्त कर दूंगी। तू सयाना है, बुद्धिमान है। इसलिए मेरी इस बात को सुनकर सबकुछ समझ गया होगा। राज्य का कारोबार चलाने में मैं स्वयं समर्थ हू" / इसलिए मुझसे किसी को कुछ कहने की या मुझे कुछ सुनाने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। मेरी आज्ञा का ठीक ढंग से पालन करने में ही तेरा खैरियत है।" सुबुद्धि मंत्री वीरमती के स्वभाव की विचित्रता से पूरी तरह परिचित था / इसलिए वीरमती की ये बातें सुन कर मंत्री ने विचार किया, "इस समय इस दुष्ट स्त्री के साथ हिलमिल कर रहने में ही मेरा, राज्य की प्रजा का और राजा चंद्र का भला है। यदि मैं इसका विरोध करने * लगूं, तो यह दुष्टा मुझ पर मिथ्या इल्जाम लगा कर शायद मुझे भृत्युदंड भी दे सकती है।" ऐसा विचार करके और वीरमती को कही हुई बात स्वीकार करके सुबुद्धि मंत्री ने | वीरमती से कहा, "हे राजमाता, आज से जैसा आप कहेंगी, वैसा ही होगा। आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरसा बंध है।" मंत्री के मीठे वचन और विनम्रताभरी बातें सुन कर वीरमती की खुशी का ठिकाना न | रहा / उसने सोचा, चलो, अच्छा हुआ, राज्य का मुख्य मंत्री तो मेरे पक्ष में आ गया। अब मेरा | बेड़ा अवश्य पार होगा। वीरमती मंत्री पर बहुत खुश हुई और बोली, “सारी आभा नगरी म / ढिंढोरा पीट कर प्रकट कर दो कि आज से राजा के सारे अधिकार राजमाता वीरमती ने. ग्रहण कर लिए हैं। इसलिए सभी प्रजाजनों को चाहिए कि वे राजमाता की आज्ञा का पालन करें। जो P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 125 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र जमाता की दी हुई आज्ञा का उल्लंघन करेगा उसका या तो वध किया जाएगा या उसे दशनिकाला कर दिया जाएगा। दूसरी घोषणा यह भी कर दो की जिन्हें आभापुरी में रहना अच्छा न लगता हो और यमपुरी में रहने के लिए जाने की इच्छा हो, वे ही राजमाता की आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस करें।" सुबुद्धि मंत्री ने राजमाता की आज्ञा शिरसा वंद्य मानकर तुरंत ही सारी आभा नगरी में डिडोरा पीट कर घोषणाएँ करा दी। मंत्री द्वारा कराई हुई घोषणाएँ सुन कर नगरजन आश्चर्यचकित होकर आपस में बोलने लगे, संसार में स्त्री पर परुष के आज्ञा की बात तो कई बार देखी थी और सुनी भी थी, लेकिन ऐसी विपरीत आज्ञा का ढंग न कभी देखा था, न सुना था / एक इस आभापुरी को छोड़ कर संसार में अन्यत्र कहीं भी स्त्री राजा नहीं बनी होगी। यह तो स्त्री-राज्य का गया। इस राज्य की इस स्थिति के बारे में कोई शत्रराजा अथवा मित्रराजा भी सनेगा तो वह सोच में पड़ेगा कि क्या आभापरी के राजपरिवार में राज्य-कारोबार के भार को वहन करनेवाला कोई पुरुष नहीं बचा है, जो एक स्त्री को राज्य चलाना पड़ रहा हैं ? कुछ ही समय में चारों दिशाओं में, देशविदेश में यह खबर तुरंत फैल गई कि आभापुरी में वीरमती नाम की एक स्त्री (रानी) राज्य कर रही है। आभापुरी पर एक स्त्री राज्य कर रही है यह बात आभापुरी के नगरजनों को बिलकुल पसंद नहीं आई, लेकिन वीरमती के भय के कारण कोई उसका विरोध करने को तैयार नहीं हुआ। लोग जानते थे कि वीरमती के पास कई दैवी बल विद्यमान हैं / बलवान् को चुनौती देने को आखिर कौन तैयार होगा ? वीरमती बिना किसी विघ्न-बाधा के राज्यकारोबार देखने लगी। वीरमती के शासनकाल मराजा चद्र के नाम का उच्चारण करना भी मृत्यु को निमंत्रण देने के समान था इसलिए अब पारमता के सामने कोई चंद्र राजा का नाम लेने का भी साहस नहीं करता था। जिस मनुष्य को किसी के प्रति द्वेषभाव होता है, उसे उस व्यक्ति का नाम सुनना भी अच्छा नहीं लगता है, बल्कि उसका नाम सुनते ही उस मनुष्य का मुख क्रोध से तमतमा उठता है, लाल-लाल हो जाता है। सुबुद्धि मंत्री बुद्धिमान् था। इसलिए उसने वीरमती को खुश रखने के लिए चंद्र राजा का नाम भी मुंह से लेना छोड़ दिया। एक बार सुबुद्धि मंत्री ने वीरमती से कहा, "राजमाताजी, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र आपकी राज्य-कारोबार चलाने की पद्धति अत्यंत उत्तम है। राज्य के संचालन में आपके जला सफलता राजा को भी प्राप्त नहीं हो सकती। राज्य में आपकी ऐसी धाक जम गई है कि पूर राज्य में कहीं चोर और चोरों का नाम भी सुना नहीं जाता है। शत्रु राजा भी अपनी शत्रुता छोड़ कर आपके साथ मित्रता का व्यवहार करने लगे हैं। हे माताजी, यदि आप कहीं चमड़े का सिक्का भी प्रचलित कर दें, तो सब लोग उसे चुपचाप स्वीकार कर लेंगे। राज्य का ऐसा सुदर प्र१५ इससे पहले न मैंने कभी देखा है, न सुना है। आप स्त्री होते हुए भी आपमें कोई कमी नहीं दिखाई देती है। पृथ्वी या धरती भी स्त्री जाति और इस पृथ्वी का राजा भी एक स्त्री ही ! बड़े-बड़ राजा भी आपकी आज्ञा शिरसावंद्य मान लेते हैं और उसका पालन करते हैं। इसलिए हे राजमाताज, आप राजवर्ग में अत्यंत पुण्यवान् हैं। आपकी महिमा का कोई पार नहीं पा सकता है।" वीरमती को खुश रखने के उद्देश्य से सुबुद्धि मंत्री ने खूब नमक-मिर्च लगा कर बात का, बहुत चापलूसी की। सुबुद्धि मंत्री का लगाया हुआ यह मख्खन वीरमती को बहुत पसद आया यह सब करते समय मंत्री के मन में एकमात्र यही विचार था, चाहे जो कुछ भी करके क्या नह' मैं वीरमती को प्रसन्न कर लूँ और मेरे राजा चंद्र को मुर्गे की योनि में से फिर मनुष्ययोनि मल / कर उन्हें फिर से राज्य करनेवाला राजा बना हुआ देखू / ___ लेकिन जब कर्मसत्ता का कोप होता है, तब उसके सामने किसीकी चतुराई और होशिया काम नहीं देती है। फिर सुबुद्धि मंत्री को चतुराई कैसे काम देती ? एक बार मंत्री सुबुद्धि के मुँह से अपनी भूरिभूरी प्रशंसा सुनकर अत्यंत प्रसन्न वीरमती ने मंत्री से कहा, "हे मंत्री, मैं तुझ पर प्रसन्न हो गई हैं। इसलिए अगर तू मुझस के काम कराना चाहे, तो वह काम खुशी से बता दे . मैं तुरन्त तेरा काम पूरा कर दूँगी / तूम कल्पवृक्ष ही समझ ले और जो माँगना हो, वह संकोच त्याग कर माँग ले।" राजमाता वीरमती के मुंह से निकली हुई यह बात सुनते समय मंत्री सुबुद्धि की / पिंजड़े में बंद पड़े हुए मुर्गे पर पड़ी। मंत्री ने अनजान जानकर वीरमती से पूछा, “हे राजमा पिंजड़े में यह कौन है ? कोई देवता है या कोई पालतू पंछो है ?'' इसपर वीरमती ने उत्तर दिया, “हे मंत्री, यह तो मेरी बहू गुणावली के मनोरंजन के नि मूल्य चुका कर खरीदा गया सुर्गा है।" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Truss Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र __इसपर मंत्री ने फिर से वीरमती से कहा, "हे राजमाता, यह मुर्गा मूल्य चुका कर खरीदा हुआ-सा नहीं लगता है। राज्य की हिसाब-किताब की बही में कहीं भी यह खर्च खुले रूप में बताया नहीं गया है। राज्य की ओर से जिन-जिन वस्तुओं को खरीदा जाता है, उनका खर्च राज्य की हिसाब की बहियों में लिखा जाता है। इसलिए यह समझ में नहीं आता है कि यह मुर्गा - यहाँ कहाँ से आया है ? माताजी, आवक-जावक का खाता तो मैं ही सँभालता हूँ।" मत्री सुबुद्धि की चतुराईपूर्ण बात सुन कर क्रोध से आँखें लाल करके कठोर वाणी से वारमती बोली, “हे मंत्री, तू एक सामान्य बात में मुझसे बार बार प्रश्न क्यों करता है। क्या इस राज्य में हमें इतना भी अधिकार नहीं है कि हम कोई मामूली चीज भी मंगवाए तो उसे तेरी बहियों में दर्ज कराना ही चाहिए ? इस मुर्गे को मैंने अपना आभूषण देकर खरीदा है, इसिलिए उसका खर्च तेरी बहियों में नहीं लिखा गया है / दूसरी बात यह है कि मुझे तेरी ऐसी बातें बिलकुल पसंद नहीं है, इसलिए इसके बाद बहत विचार करके बोलता जा, समझा ? यदि तू मुझसे फिर कभी इस मुर्गे के बारे में पूछा, तो तेरी अवस्था भी इस मुर्गे जैसी हो जाएगी!" कहा भी गया है कि 'मौन सर्वार्थ साधनम् !' इसलिए समय देख कर मंत्री सुबुद्धि सावधान हो गया। मंत्री ने जब महल में दूसरी ओर दृष्टि डाली तो उसने देखा कि वहाँ एक कोने में बैठी रानी गुणावली रो रही है। सास के भय के कारण गुणावली एक शब्द भी बोलने में असमर्थ थी। इसलिए गुणावली ने अपनी हथेली पर लिख कर मंत्री को बताया 'इस पिंजड़े में बंद मुर्गा अन्य कोई नहीं, बल्कि मेरे पति राजा चंद्र हैं।' . __ मत्रा सुबुद्धि पर सारा रहस्य खुल गया। इसलिए वह तुरन्त वहाँ से निकल कर अपने घरका और चला गया। इस घटना के बाद धीरे धीरे यह बात आभापुरी में चारों ओर फैल गई कि वारमती ने चंद्र राजा को मुर्गा बना दिया है।' लेकिन वीरमती के पास दैवी विधाऐं होने के कारण किसी में वीरमती के पास जाकर उससे कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। वीरमती के पास विद्यमान् होनेवाली अद्भुत विद्याओं की प्रशांस बार-बार सुन कर अनक राजाओं ने वीरमती की आज्ञा शिरोधार्य मान ली / लगभग सभी अन्य राजा-महाराजा उसका देवी विद्या से भयभीत होकर उसकी कृपापात्र बनने की कोशिश करते थे। वीरमती की कृपा पाने में ही वे अपनी खैरियत मानते थे। लेकिन हिमाचल प्रदेश के एक राजा हेमरथ का P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र आभानरेश चंद्र के साथ लम्बे समय से बैर था . इसलिए उस राजा ने अपने मन में विचार किया के इस समय आभापुरी में एक स्त्री का राज्य है। अपने पुराने बैर का बदला चुकाने के लिए यह बड़ा अच्छा अवसर है। इसलिए उस राजा हेमरथ ने आभापुरी पर चढ़ाई करने के लिए तैयारा शुरू कर दी। हेमरथ राजा ने आभापुरी की ओर अपना एक दूत रवाना कर दिया / राजा हेमरथ ने वीरमती के नाम एक पत्र भी लिख कर दूत के साथ दिया था। दूत बड़ी शीघ्र गति से आभापुरी की राजसभा में जा पहुंचा और उसने अपने राजा का पत्र रानी वीरमती को दिया। पत्र पढ़ते ही वीरमती की आँखें क्रोध से लालंलाल हो गई। सिंहनी की तरह गर्जना करते हुए रानी वीरमती ने हेमरथ राजा के दूत से कहा, "हे दूत, तेरे देश के राजा ने मेरा राज्य छीन लेने के लिए यहाँ आभापुरी आने की बात अपने पत्र में लिखी है। अब तू जल्द से जल्द अपने राजा के पास चला जा और उसे मेरा यह संदेश देदे कि "तुझे वीरमती ने यथाशीघ्र आभापुरी पधारने को कहा है। यदि तूने उत्तम रानी के पेट से जन्म लिया है, सच्ची माता का दूध तूने पिया हो और यदि तू सच्चे क्षत्रिय का बच्चा हो, तो बिना विलम्ब किए तू अपनी सारी सेना लेकर आभापुरा आ जा और तेरा पराक्रम दिखा दे। ऐसा लगता है कि तू अपना भूतकाल भूल गया है / हमने इससे पहले कई बार तुझे पराजित कर दिया है और तुझे काला मुँह लेकर हर बार यहाँ से भागना पड़ा है। शायद यह अनुभव तेरे मस्तिष्क में से निकल गया है। लेकिन अच्छी तरह याद रख कि आभापुरी का राज्य छीन लेना कोई बच्चों का खेल नहीं है। यह बात तुझे तभी समझ में आ जाएगी, जब तू अपनी सेना लेकर मेरे साथ युद्ध करने के लिए आभापुरी आएगा। इस | बात को ओर ध्यान दे कि आभापुरी का राज्य छीन लेने की कोशिश में कहीं तुझे हिमाचल प्रदेश का राज्य न खोना पड़े। जैसे पतिंगे को अपनी मृत्यु के समय पंख फूटते हैं, लगता है वैसे ही | तुझे भी मृत्यु के अवसर पर मेरे साथ युद्ध करने की इच्छा निर्माण हो गई है। “हे दूत, यथाशाघ्र | चला जा और अपने राजा को मेरा यह संदेश दे दे।" इस तरह अत्यंत तीखे और चटपटे वचन सुना कर रानी वीरमती ने हेमरथ राजा के | दूत को रवाना कर दिया। दूत तुरन्त हिमाचल प्रदेश में चला आया और उसने अपने राजा का | वीरमती का दिया हुआसंदेश कह सुनाया। दूत ने अपने राजा को अपना यह अभिप्राय मा | सुनाया कि, 'महाराज, आप वीरमती को एक सामान्य स्त्री मत मानिए। वीरमती तो वीर पुरुष को भी लाँघ जानेवाली वीर क्षत्रियाणी है। इसलिए बलवान के साथ झगड़ा मोल लेने से पहल खूब विचार कीजिए। आपसे मेरी यह विनम्र प्रार्थना है।" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / चन्द्रराजर्षि चरित्र 129 . लाकन घमंड़ी राजा हेमरथ ने दूत की कही हुई बातों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। नियुद्ध की घोषण कर दी। उसने अपनी चतरंग सेना को सुरज्जित किया और मन में सोचा कराना के हाथ से राज्य छीन लेना मेरे लिए बाएँ हाथ का खेल है। उस वीरमती में क्या स्त है कि वह मेरे सामने युद्ध करने के लिए आ जाए ! - एसा विचार करके और अपनी चतुरंग सेना साथ लेकर पूरी तैयारी के साथ राजा रथ ने आभापुरी की सीमा में प्रवेश किया। लेकिन आभापुरी की सीमा में प्रवेश करते ही का मनोबल टूट पड़ा और वह विचार करने लगा कि मैंने बहुत बड़ा दुःसाहस किया है / कनअब क्या हो सकता है ? लेकिन यदि मैं ऐसे ही बिना युद्ध किए वापस चला जाऊँ तो मेरी हुत बदनामी होगी। अब युद्ध करना ही होगा, भले ही परिणाम कुछ भी निकले। इधर वीरमती को भी समाचार मिला कि राजा हेमरथ अपनी सेना साथ लेकर युद्ध कालए आभापुरी के निकट आ पहुँचा है। इसलिए वीरमती ने अपने मंत्री को बुला कर ससे पूछा, “तुम्हें समाचार सुनने को मिला है या नहीं ? राजा हैमरथ अपनी सेना लेकर भापुरी पर आक्रमण करने के लिए आभापुरी के निकट आ पहुँचा है / मैं ऐसे सामान्य श्रेणी . राजा के साथ युद्ध करने के लिए स्वयं जाना उचित नहीं मानती हूँ। इसलिए हे मंत्री, तुम क्यं ही अपनी पराक्रमी सेना को साथ लेकर हेमरथ से युद्ध करने के लिए रणक्षेत्र पर चले / तुम्ह मेरा पूरा आशीर्वाद है कि विजयलक्ष्मी तुम्हारा ही वरण करेगी। तुम्हारा एक भी ण खाली नहीं जाएगा। इसलिए तुम्हें बिलकुल चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।" रानी वीरमती की आज्ञा सुनते ही सुबुद्धि मंत्री ने युद्ध की तैयारी के लिए सारे नगर में षणा कर दी। उन्होंने अपनी सेना को युद्ध के लिए सुसज्जित होने का आदेश दिया। मंत्री ने पना सना को संबोधित कर कहा, "आभापुरी के वीर सैनिको! आज अपनी मातृभूमि की रक्षा रने का सुनहरा अवसर आ गया है। यदि ऐसे समय पर हम हाथ पर हाथ घरे बैठे रहे और पने शत्रु राजा के दाँत खट्टे न किए तो हमारी क्षत्रियता लज्जित हो जाएगी। इसलिए आज अपना क्षात्रतेज बताने का अवसर आया है। इसलिए हमारी रानी की आज्ञा के अनुसार आप सबको मेरे नेतृत्व में हेमरथ और उसकी सेना से लड़ने के लिए जाना है। यद्यपि हमारे ताराज चद्र मुर्गा बन गए हैं, लेकिन वे अब भी हमारे राजा ही है। उनके प्रबल पुण्योदय से डम हमारी विजय निश्चित है। इसलिए हे वीर क्षत्रियों उठो और रणक्षेत्र पर अपना पराक्रम दखा कर शत्रु को पकड़ कर हमारी रानी के सामने हाज़िर करो।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 श्री चन्द्रराजर्षि चरि= सुबुद्धि मंत्री ने अपनी सेना में ऐसी हिम्मत भरी कि कुछ ही समय में आभापुरी का सन् सुरज्जित होकर राजा हेमरथ की सेना से लड़ने के लिए रणक्षेत्र की और चल पड़ी। रणदुदुभट बजने लगीं और उनकी ध्वनियों से सारा आकाश गूंज उठा। दोनों पक्षों की सेनाएँ आमसामने आ गई . दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध प्रारंभ ही गया हस्तिसेन से हस्तिसन् अश्वसेना से अश्वसेना और रथसेना से रथसेना जूझने लगी। दोनों पक्षों के सैनिक अपने जान की बाजी लगा कर लड़ रहे थे। राजा हेमरथ के मन में पराया राज्य छीन लेने की लालसा तो आभापुरी की सेना को सिर्फ अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता की रक्षा करने की तमन्ना था एक तरफ राज्य के प्रलोभन का प्रश्न था, तो दूसरी तरफ अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा की समस्त थी। प्राचीन शास्त्रों का टकशाली वचन है - यतो धर्मस्त तो जयः _ अर्थात् जहाँ धर्म होता है, वहाँ विजय भी होती है। आभापुरी की सेना का उद्देश्य श्रष था, उत्साह अदम्य था, इसलिए राजा हेमरथ की सेना आभापुरी की सेना के सामने लम्बे सम तक टिक नहीं सकी / हेमरथ की सेना रणक्षेत्र छोड़ कर भागने लगी। हेमरथ राजा को मुहक खानी पड़ी / मंत्री की आज्ञा के अनुसार आभापुरी के सैनिकों ने हेमरथ राजा को जावि अवस्था में कैद कर लिया। हेमरथ राजा के हाथपाँव बेड़ियों से जकड़ दिए गए। इस प्रका हेमरथ को बंदी बना कर और उसे अपने साथ लेकर विजयवाध बजाते हुए आभापुरा क विजयी वीर सेना राज्य की रानी वीरमती के पास आ पहुँची। सेना की ओर से सुबुद्धिमत्रा बंदी बनाए गए हेमरथ को रानी के सामने ला खड़ा किया। उन्होंने वीरमती से कहा, " / महारानी, हम आपके लिए एक अमूल्य भेंट ले आए हैं, उसे सहर्ष स्वीकार कर लीजिए। वीरमती ने अपने सामने हाथ जोड़ कर और मुँह नीचा करके खड़े हेमरथ राजा | बेड़ियों से जकड़ा हुआ देखा तो उसे जोरदार उपालंभ देती हुई बोली, “हे रणवीर ! कहा ग तेरा पराक्रम और अभिमान ? तूने आभापुरी का राज्य छीन लेने की घृष्टता क्यों का ? क्या पहले आभापुरी की सेना के पराक्रम का स्वाद नहीं चखा था ? क्या तू भूल गया कि तुझे प्रत्य बार आक्रमण करने के लिए आने पर पराजित होकर लौट जाना पड़ा था ? फिर तूने फिर / आभापुरी पर आक्रमण करने का दुस्साहस कैसे किया ? अरे, तुझे अपनी सामर्थ्य का तो विचार करना चाहिए था ! मेरे साथ लड़ाई की बात = रही, लेकिन तुझे तो मेरे मंत्री और मेरी बहादुर सेना से ही पराजय खानी पड़ी। बोल, कान P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 131 _ह? तूया मैं ? तू मुझे एक अबला समझ कर मुझसे युद्ध करने को आया, लेकिन तेरी गंदी मुराद मिट्टी में मिल गई। . हमरथ, तू निरंतर याद रख कि यदि तू हाथी है, तो मैं केसरी सिंह हूँ। यदि तो कबूतर 9 ताम श्येन (बाज) पंछी हूँ। यदि तू सर्प है, तो मैं नेवला हूँ। यदि तूने फिर कभी भूल कर भी = मेरे राज्य की सीमा में पाँव रखने की कोशिश की. तो मैं तझे जिंदा नहीं छोडूंगी। मेरे पुत्र चंद्र राजा ने तुझे कितनी बार जीवनदान दिया है, लेकिन मेरे पुत्र के किए हुए उपकारों को भूल कर - तू फिर युद्ध करने के लिए यहाँ आ पहँचा। ऐसा करते समय तुझे कोई शर्म नहीं आई ? क्या यही क्षत्रिय का कर्तव्य है ?" = इस तरह रानी वीरमती ने हेमरथ राजा को कडी डाँट-फटकार सनाई। वीरमती के मन = में राजा हेमरथ को आबापरी के कारगार में आजीवन कैद की सजा दिलाने को तीव्र इच्छा थी। लेकिन मंत्री सुबुद्धि ने रानी वीरमती को बताया, "हे राजमाता, किसी के साथ शश्वत शत्रुता रखने की अपेक्षा शत्रु को भी मित्र बना कर उसे अपनी आज्ञा में रखना अच्छा है।" वीरांगना वीरमती ने अपने मंत्री के आग्रह को स्वीकार कर लिया और तुरन्त कैदी राजा मरथ का बधनमुक्त करने का आदेश दिया। वीरमती की आज्ञा के अनसार कैदी हेमरथ को न सिर्फ बंधनमुक्त किया गया, बल्कि उसे बहुमूल्य वस्त्रालंकारों का दान भी दिया गया। राजा / हमरथ ने भी प्रसन्न होकर आभापुरी के साथ होनेवाली शत्रुता का त्याग किया और वीरमती की आज्ञा शिरसावंद्य मानना स्वीकार कर लिया। उसने निरंतर रानी वीरमती की आज्ञा का पालन करन की प्रतिज्ञा की। इससे खश होकर रानी ने हेमरथ का सारा राज्य उसे लौटा दिया और उसे सम्मान के साथ उसके देश की ओर रवाना कर दिया। दिन व्यतीत होते जा रहे थे। एक बार आभापुरी में विश्वविख्यात नटराज शिवकुमार आया। उसकी नाटकमंडली में उसकी पुत्री शिवमाला और अन्य पाँच सौ कलाकार थे। सबके सब नाटयकला में बहुत कुशल थे। सभी कलाकारों में शिवमाला सिरमौर थी। नाटकमंडली के प्रमुख शिवकुमार ने वीरमती की राजसभा में आकर रानी को प्रणाम कर कहा, "हे महारानीजी, यदि आप आज्ञा दें, तो हम अपनी नाटयकला दिखाएँगे।" वीरमती ने शिवकुमार से उसका नाम और वह कहाँ से आया है यह पूछा / इसपर नटराज शिवकुमार ने हाथ जोड़ कर कहा, “रानीजी, मेरा नाम शिवकुमार है। हम उत्तर दिशा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र से यहाँ आए हैं। हमने अब तक अनेक राजाओं को अपनी नाटयकला दिखाकर उनका मनोरंजन किया है और अनेक पुरस्कार भी प्राप्त किए हैं। हम आभापुरी की कीर्ति सुन कर यहा आ पहुँचे हैं। आपकी नगरी वैसी ही श्रेष्ठ और सुंदर है, जैसा हमने इसके बारे में सुना था।" नटराज शिवकुमार कि प्रशंसा से खुश होकर रानी वीरमती ने उसे अपनी नगरी म __ अपनी नाटयकला दिखाने की आज्ञा दी। आज्ञा मिलते ही शिवकुमार की नाटकमंडली के पांच सौ कलाकारों ने अपनी नाटयकला के अनेक रंग दिखाना प्रारंभ किया। नाटकमंडली के साथ होनेवाले विशिष्ठ वाद्यों की आवाजों से आकाश गूंज उठा। इस नाटकमंडली के बारे में सुन कर नाटक का खेल देखने के उद्देश्य से रानी गुणावली मुर्गे के पिंजड़े के साथ अटारी में आकर बैठ गयी। नाटकमंडली के सभी कलाकारों ने जब अपनी नाटयकला के विविध नमूने प्रस्तुत किए, तक शिवमाला नाटकमंडप में आकर अपनी अद्वितीय नाटयकला प्रकट करने के लिए सुसज्जित हुई। उसके लिए उसके साथ होनेवाले कलाकारों ने एक मोटा और ऊँचा बाँस भूमि पर स्थापित किया। चारों ओर से उसे रस्सी से मजबूत रूप में बाँध दिया गया। इससे थोड़ा-सा भा। आगेपीछे हुआ नहीं जा सकता था। शिवमाला ने वीरमती को प्रणाम किया और वह सुपारी का फल लेकर ऊँचे बॉस पर राजा चंद्र की जयजयकार करते हुए चढ़ गई। उसने बाँस के अग्र भाग पर सुपारी रखी और अपनी नाभि उस पर स्थापित करके वह अपने पेट के बल पर चारों ओर चक्कर लगाती हुई घूमने लगी। शिवमाला की अद्भुत कला देख कर वहाँ नाटक देखने के लिए आए हुए हजारों दर्शकों ने वाह-वाह की पुकार की और तालियों की गड़गड़ाहट करके अपनी पसंदगी प्रकट की। नीचे तरह-तरह के वाद्य बज रहे थे और सभी दर्शक सावधान होकर शिवमाला का कलाकुशलता को एकटक देख रहे थे। अब शिवमाला ने चारों और घूमते हुए चक्कर काटना बंद किया और अब वह सुपारी पर अपना उल्टा मस्तक रख कर और दोनों पाँव आकाश की और करके खड़ी रही। ऐसा होने पर भी सुपारी अपने स्थान से जरा भी इधर-उधर नहीं हुई / जब शीर्षासन करके शिवमाला P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 133 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र सुपारी पर खड़ी रही तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो कोई हठयोगी नीचे मस्तक और ऊपर पाँव _करके समाधि लगाकर ध्यान कर रहा हो / ___शिवमाला फिर वहाँ से कूदी और अपना एक पाँव सुपारी पर रख कर वह गोलाकार घूमने लगी। ये सारे द्दश्य देख कर वहाँ उपस्थित दर्शकों ने शिवमाला की कला की दिल खोल कर प्रशंसा की। अंत में शिवमाला अलग-अलग रंग के पाँच वस्त्र लेकर बाँस पर चढ़ी और उसने वे पाच वस्त्र एक दूसरे में ऐसे गूंथ दिए कि उन में से एक अद्भुत पंचरंगी पुष्य निर्माण हो गया। शिवमाला की यह अद्भूत कलाकुशलता देख कर दर्शक उसपर मुग्ध हो गए। अब शिवमाला ऊँचे बाँस पर से रस्सी पकड़ कर झट से नीचे उतर आई। उसके पिता - शिवकुमार ने उसकी पीठ थपथपाई और उसे मन से आशीर्वाद दिया। नाटक का खेल समाप्त होने के बाद सभी कलाकार वाद्य बजाते हुए और राजा चंद्र की जयजयकार करते हुए वीरमती रानी के सामने पुरस्कार की माँग करने लगे। रानी वीरमती राजा चंद्र का नाम और उसके नाम की जयजयकार सुनकर बहुत नाराज हो गई। एड़ी से चोटी तक उसका सारा शरीर चंद्र राजा के प्रति ईर्ष्या की आग में जलने लगा। उसके मुंह पर से प्रसन्नता गायब हो गई / इसलिए यद्यपि कलाकार शिवकुमार बार-बार पुरस्कार के लिए प्रार्थना करता रहा, फिर भी उसने शिवकमार. शिवमाला और अन्य कलाकारों को कोई पुरस्कार नहीं दिया। रानी ने शिवकमार की ओर देखा भी नहीं. देखकर भी अनदेखा किया। _ इस घटना से नटराज शिवकुमार सोचने लगा कि शायद हमारी नाटयकला से रानी / वारमती का चित्त पूरी तरह प्रसन्न नहीं हुआ है। अन्यथा, उन्होंने हमें तुरन्त बड़ा पुरस्कार प्रदान किया होता। इसलिए नटराज शिवकुमार ने अपने कलाकारों की सहायता से नाटक के अनेक नएनए अद्भुत खेल दिखाए, आश्चर्यजनक कला प्रकट की। फिर चंद्र राजा की जयजयकार करता हुआ शिवकुमार अपनी नाटकमंडली के साथ बड़ी आशा से रानी वीरमती के पास पुरस्कार पाने की प्रार्थना करता हुआ आया / लेकिन उन्हें निराश होना पड़ा। वीरमती को कलाकारों की नाटयकला तो बहुत पसंद आयी थी, लेकिन उन कलाकारों ने चंद्र राजा की जो जयजयकार की थी, इससे वह बहुत नाराज़ हो गई थी। इसलिए कलाकारों को पुरस्कार देना तो दूर, रानी ने इन कलाकारों की ओर देखा तक नहीं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 सा श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र आभापुरी के नगरजन तो इस नाटकमंडली के अद्भुत और आश्चर्यजनक खेल देख कर बहुत खुश हो गए। नगरजन इस बात की प्रतीक्षा कर रहे थे कि रानी वीरमती सबसे पहले पुरस्कार दे दे, जिससे बाद में वे भी इन कलाकारों पर अपनी ओर से इनामों की वर्षा करे और इन कलाकारों को खुश कर दें। लेकिन वीरमती से पहले इन कलाकारों को इनाम देने की किसा की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि वीरमती के नीच, क्रूर और ईर्ष्यालु स्वभाव से सारी आभानगरी सुपरिचित थी। इधर गुणावली की गोद में होनेवाले सोने के पिंजड़े में पड़े हुए राजा चंद्र यद्यपि इस समय मुर्गे के रूप में थे, लेकिन इनमें सब कुछ समझ लेने की शक्ति थी। इसलिए चंद्र राजा ने मुर्गे के रूप में पिंजड़े में पड़े-पड़े सोचा कि ये कलाकार लोग मेरी जयजयकार करके मेरीकीर्ति बढ़ा रहे हैं, इसीलिए मेरे प्रति अत्यंत ईर्ष्या का भाव रखने वाली यह वीरमती उन पर नाराज होकर उन्हें इनाम नहीं दे रही है। लेकिन ऐसा करने से देश देशान्तर में आभापुरी और उसके शासक की कंजूसी के लिए बदनामी होगी। इसके विपरीत इन कलाकारा को दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान आभापुरी और उसके शामकों की कीर्ति देशदेशांतर में फैलाएगा / अन्यथा, यहाँ से नाराज होकर जाने पर यह नाटकमंडली जहाँ भी जाएगी, वहाँ आभापुरी और उसके शासकों को निंदा करती हुई घूमेगी। ऐसा विचार मन में आने पर सोने के पिंजड़े में मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्र राजा ने | अपने पिंजड़ें में होनेवाली सुवर्ण की रत्नजडित कंधी अपनी चोंच में पकड़ कर इस तरह नीचे / फेंको जिससे वह सीधी नटराज शिवकुमार के हाथ में जा पड़ी। वह कंधी हाथ में पड़ने पर / नटराज शिवकुमार खड़ा हो गया और उसने बहुत खुशी से वह कंधी पुरस्कार रुप में ग्रहण करली। इस द्दश्य को वहाँ उपस्थित सभी दर्शक देखते ही रह गए। किसीको यह पता न चला कि सबसे पहले इनाम किसने दिया, लेकिन किसीने पुरस्कार-इनाम-देना प्रारम्भ किया है यह देख कर यह नाटक देखने के लिए आए हुए अन्य दर्शकों ने भी नटमंडली पर इनामों की झड़ी। सी लगा दी। - वहाँ उपस्थित दर्शकों में से किसीने नटमंडली को अपने पास होनेवाले सुवर्णलकार - दिए, तो किसीने चाँदी के आभूषण प्रदान किए। अनेक लोगों ने कलाकारों को उत्तम वस्त्र इनाम = के रूप में दे दिए। देखते-देखते कलाकारों की प्राप्त हुए इनामों की वस्तुओं का वहाँ बड़ा ढेर - लग गया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 135 अपनी कल्पना से भी बहुत अधिक वस्तुओं का दान पाने पर उस नाटकमंडली के "ख नटराज शिवकुमार के हर्ष को कोई पार न रहा। वह फलान समाया। लेकिन नगरजनों घ ओर से ऐसा और इतना दान दिया गया है, यह देख कर वीरमती क्रोधाविष्ट हो गई। . नटराज शिवकुमार ने फिर एक बार चंद्र राजा की जयजयकार की और उसने रानी "रमता के पास जाकर उसने रानी से विदा माँगी। उसने कहा, “महारानीजी, अब आप आज्ञा 'ता हम यहाँ से आगे चलेंगे। आपकी कपा से हमें यहाँ बहत बडे-बडे इनाम मिले हैं। हम सब त्यंत संतुष्ट हो गए है।" . वीरमती से इतना कह कर और विदा पाकर नटराज शिवकुमार अपनी मंडली के साथ पिन मुकाम के स्थान की ओर चला गया। नाटकमंडली के वहाँ से चले जाते ही वीरमती रानी मुख से क्रोध का ज्वालामुखी फूट निकला। वह क्रोध का गरमागरम लावारस उगलने लगी र बड़ी-बड़ी आँखें करके लोगों को डराते-धमकाते हए गर्जना करती हुई सी वह बोली, पहा कान ऐसा बड़ा धनपति है जिसने मेरे पहले नटराज को इनाम दान-देने का साहस न्या ? दान देनेवाले ने भयंकर बडा दस्साहस करके मेरा भयंकर अपमान किया है / यदि मैंने स बड़े दानवीर को अपनी आँखों से देखा होता, तो अच्छा होता। लेकिन वह महान् भाग्यवान् खाई देता हैं कि मैंने उसे अपनी आँखों से देखा नहीं। अगर मैंने उसे अपनी आँखों से देखा ता, तो मैने उसे कब का यमसदन में अपने दान का फल चखने के लिए पहुंचा दिया होता। इस समय मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्र राजा ने नटराज को पहली बार इनाम दिया था इ बहुत अच्छा हो गया कि वीरमती इसे जान नहीं सकी। अन्यथा, मुर्गे के रूप में होनेवाले जा चंद्र को वीरमती ने जिंदा न छोड़ा होता / लेकिन शास्त्रों में कहा गया है कि - 'धर्म: रक्षति रक्षति:'। अर्थात, जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा संकट के / नय में धर्म करता है। रानी वीरमती के पास बैठे हुए सुबुद्धि मंत्री ने वीरमती से कहा, "हे माता, आपको क्रोध रने का कोई कारण नहीं है। लगता है कि आप ही के किसी सेवक ने कलाकारों की कला से सन्न होकर भावावेश में आकर सबसे पहले इनाम दिया और फिर आप ही के जिन अन्य वकों ने नटराज और नाटकमंडली के कलाकारों को दान दिया, उन्होंने आपकी और आभापुरी कीर्ति में चार चाँद लगा दिए हैं। इसमें आपको नाराज होने का क्या कारण हैं ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 श्री चन्द्रराजर्षि चरि= जैसे युद्ध क्षेत्र पर राजा के स्वयं उपस्थित होते हुए भी राजा की सेना के वीर सैनिक शत्रुसेना को अपना पराक्रम दिखाने के लिए जान की बाजी लगा कर शत्रुसेना पर टूट पड़त। और युद्ध क्षेत्र पर लड़ते-लड़ते काम भी आ जाते हैं - वीरगति भी प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन उसके पराक्रम से, बलिदान से विजयलक्ष्मी तो राजा को ही जयमाला पहनाती है। उसी प्रकार भले ही आपके किसी दानशूर सेवक ने नटराज को सबसे पहले इनाम दिया लेकिन उससे कीर्ति आपकी ही बढ़ी हैं न ? इसलिए आप क्रोध त्याग दीजिए और शात ह जाइए। माता के स्थान पर यदि पुत्र किसी की दान दे तो कीर्ति तो उस सुपुत्र की माता की ही गाः जाती है न ? उसी प्रकार हे राजमाता, आप इस आभापुरी की सारी प्रजा की माता है / प्रज आपके पुत्र के समान है। इसलिए पुत्रों के दान से माता को नाराज होने का क्या कारण ह. उल्टा, पुत्रों के दान को देख कर माता को प्रसन्न होना चाहिए और पुत्रों के सत्कर्म को सवय उचित मान कर माता को उसका सम्मान करना चाहिए।" बुद्धिमान् सुबुद्धि मंत्री ने विविध युक्तियों से वीरमती को समझाने का प्रयत्न किया | लेकिन वीरमती का क्रोध शांत नहीं हुआ, बल्कि बढ़ता ही गया। वीरमती को अनंतानुबंधी आर तीव्रतम क्रोधकषाय मंत्री के समझदारी भरे वचनों से कैसे शांत होता ? वीरमती राजसभा से उठकर अपने महल में लौट भाई। वह आकर सुखशय्या परल तो गई, लेकिन क्रोधपिशाच ने उसके मन पर ऐसा अधिकार कर लिया था कि बहुत कोशि करने पर भी उसे नींद नहीं आई। चिंतातुर मनुष्य को नींद कहाँ से और कैसे आएगा ? वीरमती के दिमाग पर बस एक ही भूत सवार हो गया था कि मुझसे पहले नटराज के दान देने का साहस करनेवाला कौन था ? मुझे उस दानवीर को हर संभव कोशिश करके खोर निकालना पड़ेगा। इस तरह से विचार करते-करते सारी रात बीत गई और प्रातःकाल / गया। रानी वीरमती राजसभा में आई और उसने शिवकुमार को उसकी मंडली के साथ बुर कर अपना नाटक फिर से खेलने को और कला दिखाने की आज्ञा दी। मंत्री ने रानी की आप के अनुसार तुरंत नटराज को बुलाया और अपने नाटक का खेल फिर से दिखाने को उस कहा। नटराज बहुत बड़ा पुरस्कार मिलने की आशा से यह आमंत्रण मिलने पर आनंद साग में डूब गया। उसने तुरन्त अपने कलाकारों को नाटक दिखाने के उद्देश्य से तैयार होने को का P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 137 / भरत का नाटक दिखाने का निर्णय किया गया। नाटक के वाद्यों को ध्वनियों से आकाश गूंज = उठा। - वाद्यों की आवाज सुन कर रानी गुणावली भी सोने के पिंजड़े में बंद मुर्गे को लेकर महल क गवाक्ष में नाटक देखने के लिए आकर बैठी। नाटक का खेल समाप्त होने के बाद पहले की तरह नटराज शिवकुमार राजा चंद्र की जयजयकार करता हुआ और उनका गुणगान करता हुआ रानी वीरमती के पास आया और इनाम की याचना करने लगा। लेकिन चंद्रराजा की जयजयकार सुन कर नाराज हुई रानी वीरमती ने नटराज की कला की प्रशांसा भी नहीं की और - उस इनाम भी नहीं दिया। जब वीरमती ने इनाम नहीं दिया, तब उससे पहले इनाम देने की किसी = कि हिम्मत नहीं हुई। नाटक का खेल देखने के लिए आए हुए नगरजन सोचविचार में डूब गए कि रानी वारमतो बार बार ऐसा असंगत व्यवहार क्यों कर रही है ? इन कलाकारों को वह इनाम क्यों नहीं देती है ? समझ में नहीं आता कि आखिर उसके मन में क्या है ? नटराज शिवकुमार ने चारों ओर आशाभरी दृष्टि से देखा, लेकिन वहाँ उपस्थित सभी दर्शक मुँह नीचे करके बैठे थे। चंद्रमा के बिना होनेवाली अंधेरी रात का वातावरण सर्वत्र व्याप्त था। लेकिन इस निराशामय वातावरण में आशा की किरण की तरह सोने के पिंजड़े में बंद मुर्गे के रूप में राजा चंद्र था। चंद्रराजा पिंजड़े में मुर्गे के रूप में पड़ा हुआ था और वहाँ से नटराज का निराशा और उसाँसो का बरावर निरीक्षण कर रहा था / नटराज बार बार चंद्रराजा की जयजयकार करता हुआ खड़ा था। कल की तरह आज भी उसने अपने पिंजड़े में से अपनी चोच की सहायता से रत्नजडित कंधी और कटोरा नीचे फेंके। लाखों रुपए मूल्य को रत्नजडित की और कटोरा नीचे आते ही नटराज ने उन्हें अपने हाथों से पकड़ लिया और वह आनंदित होकर जोरशोर से चंद्रराजा का गुणगान करने लगा। यह दान दिया हुआ देखते ही अब अनेक दर्शकों ने भी नटराज पर दान की वर्षा कर दी। इतना सारा दान इनाम में पाकर अपने परिश्रम को सार्थक होता देखने से नटराज शिवकुमार बहुत खुश हो गया। लेकिन नटराज पर इनामों की वर्ष होते हुए देख कर रानी वीरमती एड़ी से चोटी तक __ अदर-बाहर जल उठी। वीरमती ने जिस उद्देश्य से नाटक के कार्यक्रम का दूसरी बार आयोजन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कराया था वह सफल हो गया। सबसे पहले इनाम का दान करनेवाले को वह खोजना चाहती थी, उसमें उसे सफलता मिल गई। क्रोधाविष्ट हुई रानी वीरमती अपने स्थान से उठ खड़ी हुई और हाथ में तलवार लेकर निकट ही पिंजड़े में बंद मुर्गे के पास आपहुँची। उसने क्रोध से भर कर कहा, “हे दुष्ट, तुझे अब भी शर्म नहीं आती है ? तूने मुझसे पहले इनाम क्यों दिया ? मुर्गा बनने के बाद भी तू अपनी धुष्टता नहीं छोड़ता ? खैर, ले अब मेरी तलवार की धार का स्वाद चख ले। अब मैं तुझे जिदा नहीं छोडूंगी, नहीं छोड़ेंगी!" इतना कह कर रानी वीरमती अपनी तलवार के प्रहार से मुर्गे के शरीर के दो टुकड़ करने ही वाली थी। प्रहार करने के लिए उसका हाथ ऊपर उठा और इतने में गुणावली ने बीच में पड़ कर अपनी सास का हाथ तुरन्त पकड़ लिया। उसने हाथ जोड़ कर अपनी सास से कहा, "हे माताजी, ऐसा क्रोध मत कीजिए। इस पंछी की भला दान देने की बुद्धि कहाँ से होगी ? दान देने में यह बेचारा पंछी क्या समझता है ? वह पिंजड़े में जब पानी पी रहा था तो कंधी और कटोरा नीचे गिर गए और उसी को अपनी कला के लिए इनाम समझ कर नटराज शिवकुमार ने ग्रहण कर लिया। इसमें उस बेचारे का क्या अपराध है, उसका क्या दोष है ? हे माता, पिंछियो के पास विवेकबुद्धि का अभाव ही होता है। इसलिए एक निराधार पंछी पर इस तरह क्रोध करना उचित नहीं है / हे माताजी, पंछी तो सिर्फ अपना पेट भरना ही जानते हैं।" .. सास और बहू के बीच जब यह विवाद प्रारभ हुआ, तो उसे सुनकर लोगों की भीड़ वहा - इक्कट्ठा ही गई। उन सबने बीच में पड़ कर मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्र राजा के प्राण बचा लिए। . / गुणावली का समयानुकूल कथन सुन कर रानी वीरमती का क्रोथ कुछ ठंडा पड़ गया। | रानी वीरमती गुणावली के पास आई थी, वहाँ से उठ कर वह चली और आकर राजसभा में सिंहासन पर बैठ गई / रानी वीरमती को खुश करने के लिए नटराज शिवकुमार ने फिर से अपनी नाटयकला दिखाना प्रारंभ कर दिया। इस नाटकमंडली की प्रमुख स्त्री पात्र शिवमाला पंछी की बोली जानती है, यह बात चंद्र राजा को ज्ञात थी। इसलिए मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्र राजा ने पिंजड़े में से जोर से पंछी की P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139 चन्द्रराजर्षि चरित्र माशवमाला को उद्देश्य कर कहा, "हे शिवमाला, तू सभी प्रकार की कलाओं में अत्यंत पुण है / इसके साथ ही तू पंछियों की भाषा भी जानती है / इसलिए मैं अपना रहस्य तुझे नाता हूँ। तू उसे सावधानी से सुन ले। . तूअपनी अद्भुत कला वीरमती के सामने प्रकट कर और अपना खेल दिखाने के बाद परसनाचे उतर कर वीरमती की जयजयकार करते हए इनाम माँगने के लिए उसके पास ना जा। भूल कर भी मेरे नाम की जयजयकार मत कर / अगर तू ऐसा करेगी तो वारमता मुहमांगा इनाम देगी। जब वह पूछेगी कि तुझे इनाम में मुझे माँग ले / यहाँ मुर्गे के रूप में ना जीवन बिताने में मुझे अपने प्राणों का भय नित्य सताता है। मेरे प्राण यहाँ सुरक्षित नहीं यदि तू मेरा इतना-सा काम करेगी, तो मैं तेरे उपकार आजीवन नहीं भूलूँगा। क्या तू मुझ यह उपकार करेगी ?" मुर्गे की कही हुई ये सारी बातें सन कर शिवमाला ने उससे पंछी की भाषा में कहा, कहन के अनुसार मैं वीरमती के सामने अपनी कला प्रकट कर इनाम में सिर्फ आपको माग लूंगी। अंत तक इनाम में आपको ही प्राप्त करने का आग्रह नहीं छोडूंगी। महाराज, पतो मेरे मस्तक पर के मकट हैं, विश्व के शंगार हैं. प्रजा के पालनकर्ता हैं, आप हमारे राजा / आप चिंता मत कीजिए। महाराज, मैं तो आपकी पुत्री के समन हूँ। अपने प्राण देकर भी मैं आपके प्राणों की रक्षा करूगा . आप जब मेरे यहाँ पधारेंगे तो मैं अपने प्राणों से भी बढ़ कर प्रेम के साथ नरात आपकी सेवा करूंगी। किसी भी तरह से आपको कोई कष्ट नहीं पडने दूंगी। महाराज, प हमारे सर्वस्व हैं। आप हमारे पास आएंगे तो मैं यहसमझ लँगी कि कल्पवृक्ष ही मेरे आँगन आ गया है / आपके होने से हमरे लिए धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं होगी। सबकुछ आपकी छा के अनुसार होगा, महाराज ! अब आप सबकछ मुझ पर छोड़ दीजिए और निश्चिन्त हो इए। मैं सब कुछ सँभाल लूंगी।" राजा चंद्र को इस प्रकार आश्वस्त करने के बाद शिवमाला ने अपने पिता शिवकुमार चद्र राजा का सारा रहस्य बता दिया। निर्लोभी शिवकुमार ने भी शिवमाला की बात सहर्ष कार कर ली। जो विपत्ति के समय में सहायता करता है, वही इस धरती पर सच्चा साधु पकहलाता है। 'परोपकारार्थमिदं शरीरम्' (परोपकार के लिए ही यह शरीर है) यही साधु प के जीवन का सूत्र होता है, उसके जीवन का मूल मंत्र होता है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र अंत में मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्र राजा ने शिवमाला से कहा, "तेरे पास आ जाने के बाद मैं अपने जीवन की सारी कहानी अथ से इति तक तुझे सुनाऊँगा। इस समय तो मैंने संक्षेप में ही बहुत महत्त्वपूर्ण बातें ही तुझसे कह दी हैं।" अब शिवमाला ने फिर एक बार अपनी कला रानी वीरमती के सामने प्रकट की। नाटक पूरा हुआ। शिवमाला बाँस पर से नीचे उतर आई। वह 'राजमाता वीरमती की जय पुकारता हुई वीरमती के पास गई और उसने वीरमती के सामने इनाम की याचना की। अपनी जयजयकार सुनकर बहुत खुश हुई वीरमती ने शिवमाला से कहा, “बोल, तुझे क्या चाहिए ?" शिवमाला ने कहा "हे राजमाता, यदि आप हम पर प्रसन्न हई हैं, तो हमें आपका बह गुणावली के पास सोने के पिंजड़े में पड़ा हुआ जो मुर्गा है, वह इनाम में दे दीजिए। हम पर इतनी दया कर के खुशी से हमें वह मुर्गा दीजिए। हमें इनाम में अन्य कोई चीज नहीं चाहिए।" शिवमाला के पिता शिवकुमार ने भी वीरमती से कहा, “हे राजमाता, इस समय मेरी पुत्री मुर्गे की गति ही सीख रही है। यह शिक्षा उत्तम जाति के मुर्गे को प्राप्त किए बिना संभव नहीं है। इसलिए कृपा करके हमें यह उत्तम जाति का मुर्गा अवश्य दे दीजिए। माताजी, आप अपन लिए दूसरा मुर्गा खरीद कर पालिए। आपकी कृपा से मुझे धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं है / यदि कभी उसकी जरूरत पड़ेगी, तो वह धन-संपत्ति अन्य राजाओं से भी प्राप्त की जा सकत है। इसलिए आप हमें यह मुर्गा ही दे दीजिए। इतनी कृपा अवश्य कीजिए।" | शिवकुमार की प्रार्थना सुन कर वीरमती ने उससे कहा, “हे शिवकुमार, तू मुझसे ऐस तुच्छ वस्तु क्यों मांग रहा है ? तुझे तो मुझसे हाथी, घोड़े, धन-धान्य-वस्त्र-आभूषण आदि मांगन चाहिए। ऐसी कोई कीमती चीज़ इनाम में देने से मेरे यश की वृद्धि होगी। सिर्फ मुर्गा ही इना में देने से मेरी कीर्ति नहीं बढ़ेगी। अब तक मैंने किसी को इनाम के रूप में मुर्गा देते हुए न देख है, न सुना है / यह मुर्गा तो मैंने अपनी बहू के मनोरंजन के लिए पाला है। यदि यह मुर्गा मैं तु इनाम के रूप में दे दूं, तो मेरी बहू का मनखिन्न हो जाएगा। इसलिए तू इस मुर्गे को छोड़ क कोई भी वस्तु माँग ले। मैं तुझे मुँहमाँगी चीज दे दूंगी।" / इसपर शिवकुमार ने कहा, “हे माताजी, यदि आप हमें अपना मुँहमाँगा इनाम इस मु के रूप में दे देती हैं, तो आपकी थोड़ी-सी भी अपकीर्ति नहीं होगी, बल्कि आपकी कीर्ति में वृनि ही होगी और हमें भी इस बात का संतोष होगा कि राजमाता ने हमें मुँहमाँगा इनाम दिया।" P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 141 शिवकुमार का इनाम में मुर्गा ही पाने का बहुत आग्रह देख कर अंत में शिवकुमार को इनाम के रूप में मुर्गा देने को वीरमती तैयार हो गई। उसने अपने मंत्री सुबुद्धि को गुणावली के पास मुर्गा लाने को भेज दिया। यह मुर्गा इस रूप में जाना वीरमती को पसंद ही था और वही अनायास हो रहा था। मंत्री सुबुद्धि वीरमती की आज्ञा के अनुसार तुरन्त गुणावली के पास जा पहुंचे। उन्होंने सारा समाचार गुणावली को कह सुनाया। उन्होंने यह बी बात गुणावली को बताई कि 'अपने स्वामी को इस रूप में अपने पास रखने को अपेक्षा उन्हें नटराज को सौंप देने में ही भलाई है। वारमती तो आपके पति की एक नंबर की शत्र है। वे तो आपके पति के प्राण हरण करने की ताक में ही है। आप इस बात से बहुत अच्छी तरह परिचित है। इसलिए हे रानी, मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है कि आप अपने स्वामी मुर्गे को नटराज के हाथों में खुशी से सोंप दीजिए। इसीमें आपकी अपने स्वामी की सच्ची सेवा होगी। नटराज शिवकुमार और उसकी पुत्री शिवमाला आपके पति मुर्गे की अपने प्राणों से भी बढ़ कर रक्षा करेंगी।" - मंत्री की सारी बातें सुनने के बाद गुणावली ने मंत्री से कहा, “हे मंत्रीजी, यद्यपि आपकी बात शब्दशः सत्य है, लेकिन अपने प्राणाधार को नटराज के हाथों में सौंपने को मेरा जी नहीं चाहता। वे मुर्गे के रूप में ही सही, लेकिन इस समय मेरे पास हैं, इसलिए उनको देख-देख कर / में अपनी आँखों को तृप्त करती हूँ। उनको देख कर मेरे हृदय को बहुत खुशी मिलती है। अगर वे नटराज के साथ जाएंगे, तो मेरा सर्वस्व ही लुट जाएगा। उनके वियोग में अपने दिन बिताना मेरे लिए बहुत कठिन होगा। इसलिए आप जाकर नटराज शिवकुमार को समझा दीजिए कि वह इनाम में मुर्गे को छोड़ कर अन्य कोई चीज माँग ले। मैं अपने प्रिय को अपनी आँखों से दूर करने की इच्छा नहीं रखती हूं। आप मुझ पर दया कीजिए और मेरे जीवनाधार को मुझसे दूर करने का प्रयत्न मत कीजिए।" यह बोलते-बोलते ही गुणावली सिसक-सिसक कर रो पड़ी। गुणावली को रोते देख कर मंत्री सुबुद्धि की आँखों में भी पानी भर आया। लेकिन आज्ञा का गुलाम होनेवाला नोकर मंत्री क्या कर सकता था ? वीरमती की आज्ञा के सामने उसका क्या चल सकता था ? उसे तो वीरमती को आज्ञा के अनुसार ही चलना चाहिए था। वह जानता था कि यदि मैं गुणावली से मुर्गा पाए बिना चला जाऊँ तो राजमाता मुझ पर कोपायमान होगी मुझे कठोर दंड करेगी। मंत्री की स्थिति दोनों ओर से बड़ी विचित्र हो गई थी। इसलिए मंत्री ने अत्यंत प्रेमभाव से रानी गुणावली से कहा, "हे रानी, मेरी आपसे यह विनम्र प्रार्थना हैं कि आप P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा के लिए पिंजड़े के साथ यह मुर्गा बड़े प्रेम से मुझे सौंप दीजिए। ज़िद मत कीजिए। इसमें आपकी और आपके पति की ही भलाई है।" अंत में गुणावली ने मंत्री के कथन और आग्रह पर बहुत गंभीरता से विचार किया और फिर मुर्गे को सोने के पिंजड़े के साथ मंत्री के हाथ में सौंप दिया। गुणावली बार बार अपनपात मुर्गे के कंठ का आलिंगन करते हुए कहने लगी, "हे नाथ, आप तो मुझे छोड़ कर दूर पर जा रहे हैं। आपकी इच्छा ही दूर देश में जाने की दिखाई देती है। लेकिन मैं तो अपने नायक जिंदा होते हुए भी अनाथ हो जाऊँगी। अब मेरा कोई आधार नहीं रहा है / में अपना दुख किससे कहूँ ? मैं अब अपने मन की बात किससे कहूँगी ? हे नाथ, आप जहाँ भी जाएँगे, मुझमत भूलिए / मुझ पर दया का भाव रखिए / मेरी ओर से आपके प्रति कोई अपराध हुआ तो मुझ क्षमा कीजिए / आप अपनी इस दासी को कभी मत भूलिए / अब आप मुझस फिर मिलेंगे? जिस दिन हमारा फिर से मिलन होगा, उस दिन मैं स्वयं को धन्य समयूंगी। अब जात जाते एक बार अपनी इस अभागिनी पत्नी पर स्नेह की दृष्टि डालिए। आपके विरह का भावना से मेरा हृदय तो भस्मोभूत हो रहा है। पुष्करावर्त मेघ से भी मेरे हृदय का दावानल शात नका हो सकेंगा। क्रूर दैव ने आपके ऊपर बड़े दुःख का पहाड गिराया है। ऐसा दु:ख ता शत्रु जीवन में भी कभी न आए। ऐसी अत्यंत दु:खमय अवस्था मे भी आपके पवित्र दर्शन करकर अपनेआपको धन्य मानती थी। लेकिन निर्दय दैव ने मुझसे मेरा यह सुख भी छीन लिया है। . हे नाथ, आप कृपा करके फिर से लौट आइए। आप ही मेरे जीवन हैं, मेरे प्राण हा 19 आपको इस स्थिति में अपने पास रख कर आप का पालन करने में आपके प्राणों का बड़ा भय है, इसलिए मैं मंत्रीजी के कहने से आपकीसुरक्षितता के लिए ही आपको नटराज को सापनक लिए तैयार हो गई हूँ।" सद्गतित कंठ से रोते-रोते इतना बोल कर गुणावली चुप ही गई / मुगे के पास म की तरह बोलने की शक्ति नहीं थी। और उधर मुर्गे की भाषा को समझने की शक्ति गुणावल के पास नहीं थी। इसलिए मुर्गे ने अपने पाँव के नाखून से भूमि पर लिख कर गुणावला र बताया, "हे प्रिये, तुझे बिल्कुल चिंता करने को आवश्यकता नहीं है। यदि मैं जिंदा रहू, ताह दोनों का फिर से मिलन होना संभव है। मैं शरीर से अवश्य तुझसे दूर देश में जा रहा हूँ लोक हृदय से मैं हरदम तेरे पास ही रहूँगा। P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र दूरस्थोऽपि न दूरस्थो, यो वै मनसि वर्तते। . जो अपने हृदय में निवास करता है, वह दूर रहने पर भी दूर नहीं होता। लेकिन जो दय से निकल गया है. वह पास रहने पर भी दर ही समझना चाहिए। इसलिए यह बात ध्यान में रख ले कि जब तक तेरे हृदय में मेरा स्थान है, तब तक मैं तुझे कभी नहीं भूलूँगा। है देवी, दूसरी बात यह है कि मुझे पूरा विश्वास है कि यह नटराज मुझे फिर से मनुष्य बना देगा। इसीलिए मैं उसके साथ जा रहा हूँ। यदि परमात्मा की कृपा से मेरी यह आशा सफल हुई तो मैं तुरन्त ही विदेश से लौट कर आऊँगा और तुझसे मिलूँगा।" भूमि पर मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्रराजा द्वारा लिखी गई ये बातें पढ़ कर गुणावली के हृदय को कुछ शांति मिली। उसने फिर एक बार मुर्गे को अपने हृदय से लगाया और फिर उसे पजड़ के साथ मंत्री सुबुद्धि के हाथ में दे दिया। मंत्री मुर्गे का पिंजड़ा लेकर तुरन्त वीरमती के पास आया और उसने वह पिंजड़ा वीरमती के हाथ में दे दिया। . वीरमती ने तुरन्त नटराज शिवकुमार की पुत्री शिवमाला को मुर्गा पिंजड़े के साथ इनाम करूप में दे दिया। मुर्गे को पिंजड़े के साथ इनाम के रूप में पाकर शिवमाला के आनंद का कोई पार नहीं रहा / इसका कारण यह था कि शिवमाला जानती थी कि यह मुर्गा ही महाराज चंद्र हैं। शिवमाला ने वीरमती को प्रणाम किया और मुर्गे को पिंजड़े के साथ लेकर वह अपने नवासस्थान की ओर चली आई। उसने अत्यंत आदर के साथ एक अत्यंत मूल्यवान शय्या पर मुग का पिजड़े के साथ रखा। फिर नटराज शिवकुमार और शिवमाला दोनों पिंजड़े में पड़े मुर्गे के सामने हाथ जोड़कर अत्यंत विनम्रता से बोले, "हे स्वामी, अभी तक हम सब बिलकुल अनाथ थे, लेकिन अब हमारे यहाँ आपके पधारने से हम सचमच सनात हो गए हैं। आजसे हम आपको अपना राजा मान कर तन-मन-धन से आपकी सेवा करेंगे। आपकी सेवा में हम अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखेंगे। हमारे प्रबल पुण्योदय के कारण ही हमें आपकी सेवा करने का सुनहरा अवसर प्राप्त हो गया है। आज से हम प्रतिज्ञा करते हैं कि सबसे पहले आपकोअभिवादन करके आपकी जयजयकार किए बिना हम किसीके सामने अपनी नाटयकला प्रस्तुत नहीं करेंगे। महाराज, आप सुखपूर्वक हमारे यहाँ रहिए। हमको अपने सेवक ही मानिए। आप नि:संकोच होकर हमें आज्ञा दीजिए कि हम आपकी क्या सेवा करें। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मुर्गे के सामने ऐसी विनम्रतापूर्ण बातें कहा कर उन दोनों ने उसके सामने विविध प्रकार के मेवे और मिठाइयाँ रखी और मुर्गे से उन्हें खाने के लिए प्रार्थना की। . नटराज के बार बार विनम्रतापूर्वक कहने पर मुर्गे ने अपने सामने रखी हुई मिठाइयाँ खाना प्रारंभ तो किया, लेकिन उसे बार बार अपनी विछूड़ी हुई पत्नी गुणावली की याद आ रहा थी, इसलिए मिठाइयाँ उसके गले से नीचे नहीं उतर रही थी। मिठाइयाँ गले में ही अटक कर रह जाती थी यह द्दश्य कुछ देर तक देख कर शिवमाला बोली, “महाराज, आप किसी भी तरह का चिंता मत कीजिए। कृपा कर आप ये मिठाइयाँ आनंद से खा लीजिए। उचित समय आने पर सब ठीक ही जाएगा।" शिवमाला की स्नेहपूर्ण बातें सुन कर मुर्गे के मन को कुछ शांति मिली। शिवमाला मुर्ग को अपने प्राणों से अधिक स्नेह प्रदान करते हुए पाल रही थी। इसलिए शिवमाला के साथ मुग के दिन अच्छी तरह बीतने लगे। इधर गुणावली ने अपने पति मुर्गे को मंत्री के हाथों में सौंप तो दिया, लेकिन मुर्गे के उसस | दूर होने के बाद उसकी दशा बड़ी विचित्र हो गई। मंत्री राजसभा का कामकाज समाप्त होने क / बाद गुणावली के महल में लौट आए। आकर उन्होंने देखा कि उनके मुर्गे को लेकर राजसभा / में जाते समय गुणावली जहाँ बैठी थी, वहीं पर वह इस समय भी बैठी हुई थी और निरतर ! आँसुओं की धारा बहाते हुए सिसक-सिसक कर रो रही थी। जो मनुष्य अपने प्रिय के संयोग में सुख मानता है, उसे उसी प्रिय व्यक्ति के वियोग म भारी दु:ख का सामना करना पड़ता है। अपने प्रिय व्यक्ति के विरह से होनेवाली वेदना बहुत - दुःखदायी होती है। ! संयोग में जो सुख मानता है उसे वियोग का दुःख भोगना ही पड़ता है। रानी गुणावली / को अपने पति मुर्गे के विरह में रोते हुए देख कर मंत्री का भी कंठ भर आया। मंत्री को अपने सामने पाकर गुणावली ने उनसे कहा, "हे मंत्रीजी, आप चाहे कुछ भी कीजिए, लेकिन मर प्राणाधार मुर्गे को वापस ला दीजिए। मैं उनके वियोग में जिंदा नहीं रह सकती हूँ। उनका वियोग मेरे लिए असह्य है।" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र _145 गुणावली की बात सुन कर मंत्री स्थिति सरौते में पड़ी हुई सुपारी जैसी हो गई / मंत्री ने गुणावला को सांत्वना देने के उद्देश्य से कहा. "हे रानी. आप इस तरह दखी मत होइए। आप अच्छा तरह से जानती हैं कि आपकी सास का स्वभाव कैसा कटिल है / यदि मैं मर्गे को शिवमाला से वापस ले आऊँ तो वह आग बगला हो जाएगी। वह क्रुद्ध वृद्धा नागिन फिर क्या कर बठगी, यह कहना बड़ा कठिन है। याद रखिए कि अब वह बहत लम्बे अरसे तक जिंदा नहीं रहनेवाली हैं। उसकी स्थिति तो विनाशकाले विपरीत बुद्धि' इस कहावत-सी हो गई है। अंत में आपके पतिदेव राजा चंद्र ही इस राज्य के स्वामी बननेवाले हैं। इसलिए आप इस संकटकाल में धैर्य धारण कीजिए। विश्वास कीजिए, इसका अंतिम फल मीठा ही होगा।" मत्रों की सांत्वना भरी बातें सुन कर गुणावली के विरहदग्ध हृदय को कुछ शांति मिली। इसलिए उसने मन में धैर्य धारण कर लिया और मंत्री की सलाह के अनुसार मुर्गे को शिवमाला से वापस लाने का अपना आग्रह छोड़ दिया / गुणावली ने मेवे, मिठाइयाँ और फलों से सजा एक थाल मंत्री को सौंप कर कहा, “हे मत्राजी, आप यह थाल सिवमाला के पास पहुँचाइए और उससे कहिए कि मैंने ये चीजें अपने पतिदेव के भोजन के लिए भेजी हैं।" गुणावली की इच्छा के अनुसार मेवों-मिठाइयों फलों से सजा हुआ थाल लेकर मंत्री शिवमाला के यहाँ जा पहुंचे। उन्होंने शिवमाला के पास वह थाल देकर कहा, “देखो, यह मुर्गा * अन्य नहीं, बल्कि हमारे महाराज राजाचंद्र हैं। उन्हें खाने के लिए उनकी पटरानी गुणावली यह मवा - मिठाइयों का थाल भेजा है और साथ में तुम्हारे लिए यह संदेश भी दिया है कि "शिवमाला, मेरे प्रिय प्राणाधार को उनकी सौतेली माँ ने मंत्रशक्ति के बल पर मुर्गा बना दिया हैं / इसालए मेरे प्रिय को अपने प्राणों के समान प्रिय मान कर उनकी रक्षा करो ओर उनका पालन करो। उनकी सेवा में कोई कसर उठा मत रखो। इस धरती पर परिभ्रमण करते-करते कभी कभा अवश्य हमारे पास आओ। तुम अपनेपरिभ्रमण में जिन-जिन दिशाओं में और जहाँ भी जाआगा वहाँ से पत्र के द्वारा मेरे पति के क्षेमकुशल का समाचार अवश्य भेजो। तुम्हारे इस उपकार का बदला मैं समय आने पर अवश्य चुकाऊँगी।" गुणावली द्वारा शिवमाला के लिए दिया गया संदेश उसे सुनाकर और अपने महाराजा राजाचंद्र को (मुर्गे को) विनम्रता से प्रणाम कर मंत्री अपने निवासस्थान की ओर लौट आए। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र इधर नटराज शिवकुमार ने भो वहाँ से अन्यत्र प्रयाण करने की तैयारी की और अपना सारा सामान इकट्ठा कर शिवकुमार शिवमाला तथा अपने अन्य साथियों को साथ लेकर तासबाजे बजाता हुआ राजमार्ग पर से होकर चल पड़ा। ताशे-बाजे की आवाज सुन कर अपन महल की अटारी में आकर खड़ी हुई गुणावली ने शिवमाला के सिर पर होनेवाले सोने के पिजड़ में अपने पतिदेव मुर्गे को देखा। जब तक उस मुर्गे को देखने के लिए द्दष्टि पहुँचती थी, तब तक गुणावली सुधबुध भूल कर एकटक द्दष्टि से देखती ही रह गई। हमारे मन में जिसके प्रति प्रेम का भाव होता है उसे देखते रहने से आँखें कभी तृप्त नहीं होती हैं / स्नेह का रास्ता सचमुच कुछ अनोखा ही होता है। कुछ देर बाद जब नट मंडली का यह काफिला आँखों से ओझल हो गया और मुगा दीखना बंध हुआ, तब गुणावली की दशा पानी से बाहर निकाली गई मछली की तरह हो गई। वह पति के विरह से तिलमिलाती रही, तड़पती रही, आँखों से आंसू बहाती रही, रोती रहा। जब कोई मांत्रिक शेषनाग के मस्तक पर होनेवाली मणि छिन लेता है, तब शेषनाग की जो दशा होती है, वही दशा इस समय गुणावली की हो गई थी। गुणावली के मस्तक की मणि राजा चद्र (इस समय मुर्गा) को वीरमती ने उससे छीन लिया था। पति के विरह की वेदना गुणावला क लिए असह्य हो रही थी। कुछ ही देर में वह मूर्च्छित धरती पर गिर पड़ी। सुध बुध भूल कर, होश खो कर वह कितनी ही देर तक वैसे ही पड़ी रही। गुणावली को बेहोश अवस्था में भूमि पर पड़ी हुई देख कर उसकी सखियाँ धबरा गई और उसके पास दौड़ते हुए आई। उन्होंने शीतोपचार से गुणावली की मूर्छा भंग की / अब गुणावली फिर स्वस्थ होकर उठ बैठी। सखियों ने गुणावली को तरह तरह से धोरज बंधा कर शांत किया। गुणवली के मूर्च्छित होने का समाचार जब वीरमती के कानों तक पहुँचा, तो वह भी गुणावली के महल में उसके पास चली आई / गुणावली के दुःख का कारण पूछ कर उसका सांत्वना देने की बात तो दूर रही, बल्कि वह तो गुणावली से विपरीत ढंग की बात कहने लगा, "आज नटराज शिवकुमार के साथ चंद्र भी चला गया, यह बड़ी आनंद की बात हुई। अब हमारे स्नेह और स्वेच्छाविहार में कोई बाधा नहीं पड़ेगी। अपनी इच्छा से अब हम जब और जहा चाहे, जा सकेंगी। बहू, मैं यह मानती हूँ कि अब तेरे और मेरे बीच स्नेहसंबंध बढ़ने के लिए अधिक अवसर मिलेगा।" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रराजर्षि चरित्र 147 ___ अपनी सास के मुँह से निकले हुए ऐसे निष्ठुर और निर्लज्ज वचन सुन कर गुणावली बहुत दुःख हुआ। लेकिन अवसर को जाननेवाली गुणावली ने सास की बातों के लिए मौन नुमति दे दी और फिर कहा, “माँजी, आपकी बातें बिलकुल सच हैं।" गुणावली की बात सुन कर वीरमती बहुत खुश हुई और इधर-उधर की बातें करती हुई महल की ओर लौट गई। इधर महल में से सब लोगों के चले जाने के बाद गुणावली के त्ति में दु:ख का महासागर उमड़ पड़ा। उसकी आँखों से गंगायमुना की निरंतर धारा बहने लगी जैसे-जैसे उसको अपने पति आभानरेश चंद्र का स्मरण होने लगा, वैसे-वैसे उसका दु:ख और बढ़ता हो गया लम्बी उसाँसे छीड़ती हुई वह जिस दिशा में नटराज शिवकुमार उसके पति "कालकर चला गया था, उसी दिशा की ओर देखती हुई न जाने कितनी देर तक बैठी रही। जिस दिशा की ओर वह देख रही थी, उसी दिशा से पवन का झोंका आया / गुणावली मन में यह विचार आया कि यह पवन अवश्य ही मेरे पति के शरीर को छू कर आई है। इस वन के स्पर्श से उसके मन को बहुत शांति मिली और वह आनंदित हो गई। जिसे जिसके प्रति प्रेमभाव होता हैं, उसे उस प्रेमी व्यक्ति की सभी वस्तुएँ बहुत प्रिय गती है। भले ही वह वस्तु कोई छबि हो, मूर्ति हो, पादुका हो, अँगूठी हो, वस्त्र ही या उस प्रिय [क्ति का कोई स्नेही-संबंधी या मित्र हो। इसीलिए रानी गुणावली को अपने प्रिय पति के शरीर को स्पर्श करके आई हुई पवन बड़ी भली और प्रिय लगी। ऐसे ही परमात्मा सीमंधर स्वामी आदिको या परमात्मा की किसी ते या मंदिर को स्पर्श कर आनेवाली पवन क्या कभी हमें प्रिय लगती है ? यदि मंदिर, मूर्ति, 2, संघ, तीर्थ और धर्मशास्त्र हमें अत्यंत प्रिय हो, तो उनको देख-देखकर हमें वास्तव में तनी खुशी होनी चाहिए! मनुष्य के मन में किसके प्रति प्रेम भाव है इसके आधार पर मनुष्य को उत्तमता या धमता निर्धारित होती है। यदि मनुष्य के मन में देव, गुरु, धर्म के प्रति प्रेम हो, तो ऐसे मनुष्य . उत्तम कहा जाएगा, इसके विपरीत अगर मनुष्य सिर्फ़ कंचन-कामिनी-कुटुंब से प्रेम रखता - तो ऐसे मनुष्य को अधम समझना चाहिए ! P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हमें मनुष्य का जन्म इसलिए प्राप्त हुआ है कि हम परमात्मा और उसके धर्म के साथ प्रेम करें। जरा सोचिए तो सही कि आपके मन में परमात्मा और उसके धर्म के प्रति कितना प्रेमभाव है। . पर वस्तु से प्रेम हो, तो उसमें पीड़ा होती है, दु:ख होता है, शोक, संताप, चिंता और भय होता है, उपाधि होती है। इसके विपरीत परमात्मा के प्रति प्रेम का भाव उपाधि रहित होता है, भव से रहित होता है। गुणावली महासती थी, इसलिए उसका अपने पति के प्रति नि:स्वार्थ प्रेमभाव स्वाभाविक ही था। सती के लिए उसका पति उसका सर्वस्व होता हैं, पति के बिना उसे सबकुछ शून्यवत् लगता है। पति के वियोग में उसको भोजन करना भी नहीं भाता है। वह सिर्फ पेट का किराया चुकाने के लिए ही थोड़ा-सा-रूखा-सूखा भोजन कर लेती है। पति के बिना उसे उत्तम वस्त्र, आभूषण और शंगार के सारे साधन बिल्कुल बोझ की तरह लगते हैं, अप्रिय प्रतीत होते है। पति के बिना न वह पलंग पर सोती है, न मखमली मृदुशय्या पर ही शयन करती है। पति के बिना न वह शरीर का शंगार करती है, न कपाल पर कंकम-तिलक लगाती है। वह प्राय: अपन दिन और अपनी रातें पति की याद करने में ही व्यतीत करती है। पति के क्षेमकुशल के लिए वह अपने शक्ति के अनुसार जप, तप और व्रत की साधना करती रहती है। जप-तप-व्रत की त्रिपृटी विपत्ति की साथी है। / गुणावली ने अपने पति से वियोग के कारण मन में हो रही असहय वेदना में अपने प्राणी 1 से उद्देश्य कर कहा, 'हे प्राण, मेरे प्राणाधार के न रहते हुए भी तुम अभी तक मेरे शरीर में क्यों वसे हुए हो ? तुम्हें तो मेरे शरीर का त्याग कर तुरन्त चला जाना चाहिए / यही वास्तव में | तुम्हारा धर्म है। जब मेरे प्राणाधार मुझे छोड़ कर चले गए हैं, तब तुम क्यों यहाँ मेरे शरीर में अड्डा जमाए हुए, मेरे शरीर से चिपक कर बैठे हो ? क्या तुम्हें शरीर में रहते हुए जरा भी शर्म नहीं आती हैं ? हे मेरे प्राणो बताओ, मेरे हृदय के स्वामी, मेरे प्राणाधार, मेरे प्रिय पति इस समय कहाँ होंगे? क्या करते होंगे ? वे सुख में होंगे या दुःख में होंगे ? वे मुझे स्मरण करते होंगे या भूल गए होंगे ? भले ही शायद वे मुझे भूल क्यों न जाए, लेकिन मैं उनको कभी नहीं भूल सकती, कभी - नहीं! P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 149 सच्चा प्रेम अपने प्रेमी को कभी भूल नहीं सकता। हे नाथ ! आपके जाने से मेरे मन की हा व्यथा हो रही है, मेरा मन पीड़ित है। लेकिन हे मेरे प्राणो, परमकृपालु परमात्मा से मेरी यही कमात्र विनम्र प्रार्थना है कि "हे ईश्वर, मेरे नाथ को निरंतर सुखी रखो, उनको चिरंजीवी नाआ और ऐसा कुछ करते रहो जिससे उनका नित्य सम्मान होता रहे। इस बात का नित्य यान रखो कि उन्हें किसी प्रकार का कष्ट न सहना पड़े।" गुणावली का मन कहता गया, “हे मेरे स्वामी, मेरे प्रिय, मेरी आप से एक ही विनम्र प्राथना ह कि आप इस दासी को कभी भल मत जाइए। इससे अधिक मैं आपसे क्या कहूँ ?" पति के विरह की वेदना के कारणरानी गुणावली को सारा राजमहल श्मशान की तरह शून्यवत् लगता था, डरावना लगता था। शृंगार के सारे साधन उसे जलते हुए अंगारे की तरह जलानेवाले लगते थे। यह संसार भी बाहर से भले ही बडा भयानक हैं, डरावना है। ऐसे संसार से जो डरता है वह संयम के आश्रय में चला जाता हैं / जो संयम की शरण में जाता है वह शिवसुंदरी से आलिंगन कर लेता है / जो शिवसुंदरी से आलिंगन करता है उसे अनंत, अव्याबाध सुख सदा के लिए प्राप्त हो जाता हैं। संसार से चिपक कर बैठे रहने से मोक्ष और मोक्ष का अक्षय, अचल और अनंत सुख कभी नहीं मिल सकता। क्या आपको शुद्ध देव, गुरु और धर्म के विरह में कभी संसार श्मशान की तरह भयंकर लगता है ? या चीनी की तरह मीठा ही प्रतीत होता है ? क्या आपको संसार त्यागने योग्य लगता है या पकड़ कर रखने योग्य लगता है ?' आप एकान्त में अपनी अंतरात्मा से यह प्रश्न अवश्य पूछ कर देखिए। जिसे संसार छोड़ने योग्य लगता है वही सच्चा जैन श्रावक है, वही समकिती नावह, बाकी सभी जीव मिथ्यात्वी हैं / छोडने योग्य चीज को न छोडना और पकड कर रखने योग्य वस्तु को न पकड़ना ही महाअज्ञान है / यही सभी दु:खों की जड़ है। निरंतर पति के प्राणों की रक्षा हो और उन्हें किसी भी तरह की तकलीफ का सामना न करना पड़े इसलिए गुणावली ने गुप्त रीति से अपने अधीन और आज्ञाकारी सात सामंत राजाओं को समझा कर उन्हें अपनी-अपनी सेना लेकर नटराज के साथ जाने के लिए कह दिया। . इधर अब नटराज शिवकुमार एक बड़े सम्राट के प्रभाव के कारण गाँव-गाँव में और नगर-नगर में धूमता हुआ अपनी नाटयकला प्रकर कर रहा था। अब राजा चंद्र मुर्गे के रूप में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 श्री चन्द्रराजर्षि चनि साथ होने के कारण उसके पुण्यप्रभाव से नटराज शिवकुमार को अब रुपए-पैसे भरपूर मात्रा। मिलते थे, उसे किसी चीज की कमी नहीं थी। गुणावली ने पति के विरह के दुःख में डूबने से अच्छा खाना, पीना, पहनना-आठ साजशृंगार सब त्याग दिया, इससे उसका शरीर म्लान और कांतिहीन हो गया / लाक् स्वभावत: धर्मप्रवृत्ति की होने से वह इस सारे विरहदु:ख का कारण अपने अशुभ कर्म का ता। उदय मानती थी। इस अशुभ कर्मोदय के क्षय (विनाश) के लिए वह निरंतर नए-नए व्रत करत थी और परमात्मा के ध्यान मेंतल्लीन रहती थी। अशुभ कर्मो के विनाश के लिए तप आ परमात्मा जिनेश्वरदेव का ध्यान यह अचूक उपाय है। ऐसा करने से अशुभ कर्म के उदय अवसर पर भी चित्त की समाधिशांति बनी रहती है। गुणावली ने पीछे से भेजे हुए सात सामंत राजा नटराज शिवकुमार की मंडली के साट ही लिए और उन्होंने मुर्गे के रूप में होनेवाले महाराज चंद्र से कहा, “महाराज, हमें आपकारान गुणावली ने आपकी रक्षा के लिए आपके पास भेजा है। इसलिए हम आपके पास आए ह आज से हम आपके साथ ही रहेंगे। आपको आपकी सौतेली मां ने मुर्गा बनाया तो क्या हुआ महाराज, अब भी आप ही हमारे स्वामी हैं। हम आपके आज्ञाकारी सेवक हैं। इसी को कहत तीव्र पाप के उदय में भी तीव्र पुण्य का उदय ! अगर ऐसा न होता,तो फिर अपना-अपना राज्य छोड़ कर अपनी सेना साथ लेकर विपत्ति के समय चंद्र राजा की सहायता करने के लिए एक नहीं, दो नहीं, बल्कि सात-सात सामंत राजा क्यों चले आते ? गुणावली की हिंमत भी सचमुच सराहनीय थी। अपनी भयंकर राक्षसी जैसी क्रूर सास वीरमती के भय की परवाह किए बिना उसने गुप्त रीति से सात सामंत राजाओं को अपने पार मुर्गे की रक्षा करने के लिए सेनासहित भेज दिया। उसका उठाया गया यह कदम सचमुच हिम भरा है ।एसा करके गुणावली ने अपने पति राजा चंद्र के प्रति होनेवाले अपने प्रेम का बहुत बहुत अच्छी तरह से परिचय दे दिया। ___ आए हुए सात सामंत राजाओं ने मुर्गे के सूप में पिंजड़े में पड़े हुए राजा चंद्र से कहा “महाराज, आप हमें पहले की तरह अपने सेवक मानकर हमें चाहे जो आज्ञा दीजिए / भल हमारे प्राण क्यों न चले जाए,लेकिन हम आपकी आज्ञा का पूरी तरह पालन करेंगे / सच्च सेवक स्वामी की सेवा में अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखता है। संकट के समय में तो संव को अपने स्वामी को विशेष रूप से सेवा करनी चाहिए। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 151 सात सामंत राजाओं ने अपने स्वामी चंद्र राजा से कहा, “महाराज, हम आपके सद्गुणों के प्रति होनेवाले अनुराग के कारण ही आपकी सेवा में आ पहुँचे हैं। इसलिए महाराज, अब कृपा कर आप हमें आपके साथ रहने की आज्ञा दीजिए।" सातों सेवक सामंत राजाओं की सारी बातें ध्यानपूर्वक सुन कर मुर्गे ने (राजा चंद्र ने) अपना मस्तक हिला कर उन सात राजाओं को अपने साथ रहने की आज्ञा दे दी। इन सात राजाओं और उनकी सेना के नटराज की मंडली के साथ मिलकर रहने से अब नटों का यह संघ बहूत बड़ा हो गया। . अब जब यह बहुत बड़ा संघ तरह तरह के वाद्य बजाता हुआ एक गाँव से निकलकर दूसरे गाँव में जा पहुँचता था, तो उनको देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ आती थी। इससे मार्ग सँकरा पड़ जाता था। नटों का यह संघ रास्ते पर से होकर इस तरह चलता था कि शिवमाला के सिर पर होनेवाला राजा चंद्र का (मुर्गे का) पिंजड़ा बराबर बीच में रहता। इसके फल स्वरूप सबको मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्र राजा के दर्शन भी आसानी से होते थे और मुर्गे की रक्षा भी अनायास हो जाती थी, उसकी रक्षा के लिए विशेष प्रबंध की आवश्यकता नहीं रहती थी। - मुर्गा हरदम शिवमाला के सिर पर होनेवाले सुवर्ण के पिंजड़े में पड़ा रहता था। उसके पीछे एक सेनापति दिव्य छत्र से उसके पिंजड़े पर छाया करता था। दोनों ओर दो अन्य सेनानायक पिंजड़े पर चामर ढलते हुए चलते रहते थे। इसके पीछे सभी लोग चंद्र राजा की जयजयकार के नारे लगाते हुए चलते रहते थे। गाँवगाँव के देखनेवालों को यह द्रश्य देखकर बड़ा आश्चर्य होता था / सब लोग इस मुर्गराज के ऐश्वर्य की प्रशंसा करते थे। जहाँ-जहाँ ठहर कर और डेरा डाल कर यह नट मंडली अपनी नाटयकला दिखाते हुए खेल करती थी, वहाँ अब इस नटमंडली को पहले की तुलना में चारगुना लाभ होने लगा। पुण्यवान् मनुष्य के पवित्र चरणों के परिणाम स्वरूप चारगुना तो क्या दसगुना लाभ होने लगे, तो वह भी कम ही है। पहले से अनेक गुना अधिक लाभ मिलने से बहुत खुश होकर यह नटमंडली गाँवगाँव में चारों दिशाओं में घूम-घूम कर अपनी अद्भूत नाटयकला दिखाते हुए लोगों का मनोरंजन करती थी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 श्री चन्द्रराजर्षि चरि= शिवमाला चंद्र राजा के (मुर्गे के) पिंजड़े को सिर पर रखकर देश-विदेश में घूमत हु - विपुल धनसंपत्ति कमाने लगी। इससे 'एक पंथ दो काज' वाली कहावत चरितार्थ होने लगा। शिवमाला प्रतिदिन अपने हाथों से मुर्गे को विविध प्रकार की स्वादिष्ट मिठाइयाँ खिलाता था। वह मुर्गे की अपने प्राणों से भी बढ़ कर रक्षा करती थी। एक बार नटराज शिवकुमार और शिवमाला की यह नटमंडली धरती पर भ्रमण करता करते वंग देश के पृथ्वीभूषण नामक नगर में आ पहुँची। उस समय इस पृथ्वीभूषण नगरप अरिमर्दन नाम का राजा राज्य कर रहा था। इस राजा के मन में चंद्र राजा के पिता के प्रति परप्रेम का भाव था। नटों ने इस नगर में एक अच्छा-सा स्थान देख कर वहाँ अपना डेरा डाला सुंदर वस्त्रों से वहाँ एक घर बना कर वहाँ उन्होंने सिंहासन की स्थापना की। इस सिंहासन पर उन्होंने बड़े सम्मान से मुर्गे का सोने का पिंजड़ा रख दिया। नट मंडली के इस समारोह का दर कर पृथ्वीभूषण नगरवासियों को ऐसा लगा कि यह तो किसी बड़े राजा का डेरा दिखाई देता। अरिमर्दन राजा को पहले ही यह पता चल गया था कि उसकी नगरी में नटमंडला के आगमन हो गया है। इसलिए राजा ने नटमंडली के प्रमुख शिवकुमार की संदेश भेज कर उस अपनी मंडली की नाटयकला दिखाने का आदेश दिया. आदेश मिलते ही शिवकुमार अपने पार होनेवाले मुर्गे के पिंजड़े के साथ राजदरबार में आ पहुँचा / उसने मुर्गे को प्रणाम किया आ अपनी नाटयकला राजा और अन्य दरबारियों के सामने प्रस्तुत की। नाटयमंडली की कला दर कर राजा अरिमर्दन के प्रसन्न होकर उसे बहुत बड़ा इनाम दे दिया। नटमंडली के साथ होनेवाले मुर्गे को और उसके अद्भुत सौंदर्य और एश्वर्य को दर कर आश्चर्यचकित हुए राजा अरिमर्दन ने नटराज शिवकुमार से पूछा, “नटराज, यह मु' कौन है ? तुम लोग उसे इतना बड़ा सम्मान क्यों देते हो ?" राजा का प्रश्न सुन कर नटराज शिवकुमार ने संक्षेप में सारी वस्तुस्थिति कह सुनाई मुर्गे के बारे में शिवकुमार से सारी बातें जान कर जब अरिमदन राजा को विश्वास हो गया। यही राजा चंद्र है, तो वह मुर्गे के चरणों पर गिरा, उसने मुर्गे को विनम्रता से प्रणाम किया अ उसने मुर्गे के सामने मूल्यवान् हीरे-माणिक-मोती और सुवर्ण के आभूषण, हाथी, घोड़े, पाल आदि का नजराना सादर प्रस्तुत किया और वह मुर्गे से संबोधित कर कहने लगा, “हे वीरशिरोमा P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 153 राजा चंद्र, मैं आपका दास हूँ। आप मेरे स्वामी और अतिथि हैं / यहाँ मेरी नगरी में आपका आगमन होने से मैं धन्य-धन्य हो गया हूँ। आप मेरी ओर से यह तुच्छ उपहार सहर्ष स्वीकार कर मुझे उपकृत कीजिए।" राजा अरिमर्दन के अत्यंत अनुरोध से और मुर्गे के रुप में होनेवाले राजा चंद्र की अनुमति से नटराज शिवकुमार ने इस उपहार में से कुछेक वस्तुएँ स्वीकार कर ली। इससे राजा अरिमर्दन अत्यंत संतुष्ट हुआ। कुछ समय तक वहाँ रूक कर जब नटमंडली आगे की ओर प्रस्थान करने के लिए / तैयार हुई, तब राजा अरिमर्दन ने अत्यंत सम्मान केसाथ अपने राज्य की सीमा तक इस मंडली को पहुँचाया और राज्य की सीमा पर उन्हें विदा देकर वह राज्य की ओर लौट आया। धरती पर के विभिन्न प्रदेशों में से होकर धूमती हुई यह नटमंडली एक बार सिंहलद्वीप / के निकट पहुँची। वहाँ समुद्र के किनारे पर 'सिंहला' नामक एक बड़ी नगरी स्थित थी। नगरी के बाहर इस नटमंडली ने अपना डेरा डाला। इस अद्भूत नटमंडली को देखने के लिए सिंहला नगरी में से लोगों के बड़े-बड़े समूहं आने लगे। इस नटमडली का खेल देखने के लिए सबके मन लालायित हो गए। सिंहल राजा को जब इस बात का समाचार मिला, तब उसने तुरंत नटराज शिवकुमार को उसकी नटमंडली के साथ अपने दरबार में बुला कर अपना खेल दिखाने के लिए कहा . राजा का आदेश मिलते ही नटराजा शिवकुमार अपनी नटमंडली और सुवर्ण पिंजड़े में मुर्गे को लेकर राजदरबार में आ पहुँचा / राजा से अनुमति पाकर नटराज की नटमडली ने अपना अद्भुत नाटक राजदरबार में प्रस्तुत किया। यह नाटक देख कर राजा और अन्य सब लोग बहुत खुश हुए। राजा ने भी खुशी से पाँच सौ जहाजों से जो शुल्क वसूल किया गया था वह सबका सब नटराज को इनाम के रुप में प्रदान कर दिया। राजा की उदारता से सब लोग बहुत प्रभावित हुए / नटमंडली खुशी से अपने डेरे की ओर लौट आई और उन लोगों ने पोतनपुर की ओर प्रस्थान करने के लिए तैयारी प्रारंभ की। इधर सिंहल राजा की रानी को यह अद्भूत सुंदर मुर्गा बहुत भा गया। इसलिए रानी ने अपने पतिराज से कहा, "महाराज, कुछ भी कीजिए, लेकिन अपने सौंदर्य से सारे विश्व को वश में करनेवाला वह अद्भुत मुर्गा मुझे ला दीजिए / इस मुर्गे के बिना मैं जीवित नहीं रह सकती हूँ।" मुर्गे के बिना रानी की हालत पानी से बाहर निकाली गई मछली की तरह हो गई थी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र रानी ने सिंहल राजा से फिर कहा, “हे नाथ, इस मुर्गे ने मेरा चित्त चुरा लिया है / मेरे प्राण इस मुर्गे में ही लगे हुए हैं। इसलिए यदि आप मुझे जिंदा देखना चाहते हैं तो नटराज का समझा कर या उसे बड़ा लालच दिखा कर वह मुर्गा मुझे ला दीजिए।" रानी की बात सुन कर राजा सिंहल ने कहा, "हे देवी ! एक पंछी के लिए तुझे इतना अधिक स्नेह और आग्रह नहीं दिखाना चाहिए। इस मुर्गे से ही तो इस नटमंडली का निर्वाह होता है। इस मुर्गे को मैं उनसे माँगू तो वे मुझे कैसे देंगे इसलिए तुझे मुर्गे के लिए जिद नहीं करनी चाहिए।" राजा की बात सुन कर रानी सद्गदित होकर बोली, “हे नाथ, यद्यपि आपका बात सोलहों आने सच है, लेकिन मैं क्या करूँ ? मुर्गे के बिना मुझे अपना जीवन बोझ की तरह लगता है। आप धन का लालच दिखाएँगे तो नटराज वह मुर्गा आपको अवश्य दे देगा। धन के बल पर इससंसार में कौन-सी बात असंभव है ?" / रानी का मुर्गे के लिए बहुत आग्रह देख कर राजा ने मुर्गा माँगने के लिए एक अत्यंत 'विश्वसनीय मनुष्य को नटराज के पास भेज दिया। उस मनुष्य ने नटराज के पास जाकर उसस मुर्गे की माँग की। इस पर नटराज शिवकुमार ने राजा से आए हुए मनुष्य से कहा, "हे भाई, यह कोई सामान्य मुर्गा नहीं, बल्कि हमारा राजा है। यदि यह कोई सामान्य पक्षा होता, तो हम उसे आपके महाराज को सहर्ष दे देते, लेकिन मुर्गा हमारा राजा होने से हम इस किसी भी तरह से आपके राजा को नहीं दे सकते हैं।" राजा के अंतरंग मनुष्य ने इस पर नटराज से कहा, "हे नटराज, हमारे महाराज यह मुर्गा नहीं चाहते है। उन्होंने अपनी रानी के लिए यह मुर्गा मँगाया है। हमारी नगरी की राना न जब से यह मुर्गा देखा है, उस समय से इस मुर्गे को पाने के लिए वे तिलमिला रही हैं / यदि तुम यह मुर्गा नहीं दोगे, तो रानीजी अपने प्राण त्याग देंगी।" राजा के निश्वस्त मनुष्य की बातें सुन कर सारे नट एक स्थान पर इकट्ठा हो गए आर उन सबने मिल कर राजा के मनुष्य को बताया, "भले ही तुम्हारे राजा की रानी अपने प्राण क्यों न त्याग दे, लेकिन हम किसी भी हालत में यह मुर्गा नहीं देंगे। जैसे तुम्हारे राजा को अपनी रान प्रिय है, वैसे ही हमें अपना यह मुर्गा प्रिय है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 155 नटों की ओर से स्पष्ट शब्दों में इन्कार सुन कर निराश हुआ राजसेवक म्लान मुख से राजा के पास लौट आया। उसने राजा से नटों के द्वारा कही गई सारी हकीकत कह सुनाई। राजसेवक की बात सुन कर राजा अत्यंत क्रुद्ध हो गया और उसने कहा, "मैं अभी अपने राज्य की सेना सुसज्जित करने का आदेश देता हूँ।" राजा ने रणदुंदुभि बजवाई / तुरन्त राजा की सेना युद्ध के लिए सुसज्जित ही गई और नटराज का मुकाबला करने को चल पड़ी। इधर नटराज शिवकुमार को जब यह पता चला कि राजा अरिमर्दन अपनी सेना लेकर / युद्ध करने के लिए आ रहा है, तब नटराज ने इशारा किया और तुरन्त उसके पास चंद्र राजा का रक्षा के लिए आकर रहे हुए सातों राजा अपनी सेना के साथ सुसज्जित होकर अरिमर्दन की सना की प्रतीक्षा करने लगे। इस प्रकार अरिमर्दन की सेना की प्रतीक्षा करने लगे। इस प्रकार अरिमर्दन की सेना का सामना करने के लिए शिवकुमार भी तैयार हो गया। __ आखिर दोनों पक्षों की सेनाएँ रणक्षेत्र पर एक दूसरे के आमने-सामने आी और घमासान लड़ाई प्रारंभ हो गई। नटराजा के पास अनगिनत मात्रा में और जान की बाजी लगानेवाली सेना थी। इसलिए कुछ ही समय में सिंहल राजा की सेना को मुँह को खा कर रणक्षेत्र को पीठ दिखा कर भागना पड़ा / सिंहल राजा को इस युद्ध में बुरी तरह से पराजित होना पड़ा। राजा पश्चात्तापदग्ध हो गया। उसने अपनी भूल के लिए जब नटराज से क्षमायाचना की तो उसने उदारता से राजा अरिमर्दन को प्राणदान दे दिया-मुक्त कर दिया। अरिमर्दन राजा को पराजित करने के बाद विजयी नटराज ने पिंजड़े के साथ नगाड़े बजाते हुए और चंद्र राजा की जयजयकार के गगनभेदी नारे लगाते हुए पोतनपुर की ओर प्रस्थान किया। कुछ ही दिनों में नटराज अपनी सारी मंडली के साथ पोतनपुर में पहुँच गया। अत्यंत विशाल, वैभवसंपन्न और आकर्षक पोतनपुर नगरी को देख कर नटों को ऐसा लगा मानो वे इंद्रपुरी पहुँच गए हों। पोतनपुर नगरी के राजा का नाम जयसिंह था। राजा के दरबार में सुबुद्धि नाम का मंत्री था। मंत्री की पत्नी मंजूषा अत्यंत सुंदर थी। इस दंपती के रूपगुणसंपन्न लीलावती नाम की एक कन्या थी, जो माता-पिता की बड़ी लाड़ली थी। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 - श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र सुबुद्धि और मंजूषा की लाड़ली कन्या लीलावती का विवाह उसी पोतनपुर नगरी के लीलाधर नाम के एक वणिकपुत्र से हुआ था / कामदेवरति की जोड़ी की तरह लगनेवाला लीलाधर-लीलावती की जोड़ी को देख कर नगरजन कहते, “सचमुच परमात्मा ने इस जाड़ा का मिलन 'मणिकांचन योग' की तरह कर दिया है। दोनों पतिपत्नी दोगुंदक देवता के समान विषयसुखप्राप्ति में अपना समय व्यतीत कर रहे थे। ऐसे ही एक दिन की बात है कि एक संन्यासी लीलाधर सेठ के यहाँ कोई वस्तु की याचना करने के लिए आ पहुँचा। सेठ लीलाधर ने उस संन्यासी का तिरस्कार करके उसको अपने यहाँ से निकाल दिया। सेठ के उदंड बताव से कोपायमान हुए संन्यासी ने कहा, "हे सेठ ! तुम इतना अधिक धमंड क्यों करते हो ? तुम मुझे कोई सामान्य संन्यासी मत समझो। बाप की कमाई पर इतना अभिमान करना तुम्हें शोभा नहीं देता है। खुद कमाई करक तुम धन प्राप्त करो और फिर ऐसा घमंड करो तो मैं तुम्हें मर्द का बच्चा मान लूंगा। अच्छा ह कि तुम्हारे माता-पिता अभी जिंदा है। इसलिए तुम निश्चिन्त होकर कठोर वचन कह कर मुझ इस प्रकार दुत्कार रहे हो। लेकिन सेठ, यहबात गाँठ बाँध कर रखना कि ये सुख के दिन बहुत लम्बे समय तक नहीं रहेंगे। क्या तुम्हें यह मालूम नहीं हैं कि सुख 'चार दिन की चाँदनी' का | तरह होता है ? इसलिए सुख के क्षणों में इतने उन्मत्त मत हो जाओ। धन, यौवन और सोदय पर कभी गर्व मत करो. हो सकता है कि कल तुम्हारी ऐसी दशा हो जाएगी, कि तुम्हें देख कर लोगा हँसेंगे। सेठ, इस संसार में बहुत सोच समझ कर बर्ताव करना आवश्यक है, समझे ?' संन्यासी की बातें सुन कर मन-ही-मन लज्जित हुए लीलाधर ने कहा, "हे भिक्षुराज, | आज से आप ही मेरे गुरु हैं। आपने मुझे अच्छी शिक्षा देकर सावधान कर दिया हैं / अब म विदेश जाऊंगा और धन कमा कर ही वापस आऊँगा। यह मेरा अंतिम निर्णय है।" . इस प्रकार मन में विदेश में जाने का दृढ़ संकल्प करके लीलाधर अपने घर में चला गया और वहाँ एक टूटी हुई खाट पर सो गया। कुछ देर बाद लीलाघर के पिता धनद सेठ घर में आ पहुंचे। उन्होंने टूटी हुई खाट पर अपने पुत्र को सोया हुआ देख कर उससे पूछा, “हे पुत्र, आज ऐसे क्यों सो गया है ? क्या किसीने तेरा अपमान किया है, जिससे तू रुठ कर इस तरह टूटी हुई - खाट पर सो गया है ? क्या बात है ?" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रराजर्षि चरित्र 157 . पिता का प्रश्न सन कर लीलाधर ने उत्तर दिया "पिताजी मेरा न किसीने अपमान किसान मुझे दु:ख दिया है। लेकिन पिताजी, मेरे मन में धन कमाने के लिए विदेश का प्रबल इच्छा जागी है। इसलिए आप मुझे विदेश जाने की आज्ञा दीजिए।" पुत्र के मुँह से अचानक विदेश जाने की बात सन कर धनद सेठ ने आश्चर्यान्वित होकर हा, "बेटा, क्या हमारे घर में धन की कोई कमी है तेरे मन में धन कमाने के लिए विदेश जाने २च्छा क्या उत्पन्न हुई है ? फिर तेरी उम्र ही कितनी है ? इसमें अभी-अभी तो तेरा विवाह हमार घर में धन-धान्य का कोई अभाव नहीं है। इसलिए इस समय तेरा विदेश जाना लकुल उचित नहीं है।" ___ पिता का उपदेश सुन कर लीलाधर ने शांति से संन्यासी के साथ हुई अपनी सारी तिचीत कह सुनाई। उसने पिता को बताया कि संन्यासी के टकसाली वचनों का मुझ पर गहरा माव हा गया है। मेरे हृदय पर संन्यासी के वचन अंकित हो गए हैं। इसलिए मेरे विदेश जाने 5 निर्णय में कोई हेरफेर होना संभव नहीं है। आप मुझे खुशी से आज्ञा दीजिए, पिताज ... बाद सठ ने अनेक युक्तियों से अपने पत्र लीलाधर को समझाने का प्रयत्न किया। नाकन उनके सारे प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हो गए। इसके बाद लीलाधर की माता, उसके ससुर तथा न भी अनेक प्रकारों से उसे समझाया लेकिन लीलाधर अपने दृढ़ संकल्प से जरा भी वचलित नहीं हुआ, इस विरोध से उसका संकल्प और दृढ़ हो गया। लीलाधर के इस संकल्प की तरह यदि मनुष्य संन्यास दीक्षा लेने और मोक्षप्राप्त का कल्प करे तो सचमुच उसका बेड़ा पार हो जाए। न लीलाधर ने अपने मन में धन कमाने के लिए विदेश जाने का दृढ़ संकल्प कर लिया पूसर दिन रात को वह अपने शयनगह में जाकर अपनी खाट पर बैठ कर विचारमग्न हो / स्तन में सोने का समय होने से उसकी पत्नी लीलावती सोलह शृंगार से सज कर, पाँवों [ पायलियाँ रुमझुम बजाती हुई, गजगामिनी गति से चलती हुई और विलास के लिए अपनी प्छा प्रकट करती हुई, हावभाव दिखाते हुए अपने पति लीलाधर के पास आ पहुँची। लेकिन बादश में जाने के विचारों में डूबे हुँ लीलाधर ने अपनी पत्नी की ओर आँखें उठा कर देखा भी ही। इससे लीलावती की हँसोविनोद की बातें करने की इच्छा पर पानी फिर गया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र लीलावती जिस विलासशृंगार को आशा से अपने प्रिय पति के पास आई थी वह आशा निराशा में बदल गई। लीलाधर तो अपने विचारों में ही खोया हुआ था। इसलिए उसका पता भी नहीं चला कि मेरी प्रिया यहाँ मेरे पास आई हुई है। . हम लोग भी लीलाधर की तरह, मंदिर में जाने के बाद यदि भगवान के गुणों में और मोक्षसुख के विचारों में डूब जाएँ, तो हमारे लिए मोक्षनगरी दूर नहीं होगी ! लेकिन वह दिन कब उदित होगा ? जिसको भगवान के गुणों और मोक्षसुख के विचारों में खो जाना भाता है - पसद आता है, उसके लिए संसार खो जाता है, नष्ट हो जाता है, छूट जाता है। पति की यह विचारमरत अवस्था देख कर मन में अत्यंत क्षुब्ध हुई लीलावती ने अपन पति लीलाधर से कहा, "हे स्वामी, मैंने आज यह सुना है कि आपके मन में विदेश जाने का प्रबल इच्छा जाग उठी है / लेकिन सारे परिवार को नाराज करके विदेश जाना आपके लिए : अच्छा नहीं है। दूसरी बात, है प्रिय, मेरी ओर से ऐसा कौन-सा अपराध हुआ जो आपको मेरा : ओर देखना भी अच्छा नहीं लग रहा है ? लेकिन हे नाथ, याद रखिए, मैं आपको कभी विदश नहीं जाने दूंगी। क्योंकि यह तो विदेश को बात है। आप मुझसे फिर कब मिलेंगे, यह कहा नहीं | जा सकता। आपके लौट आने के समय तक मैं आपका वियोग सहन नहीं कर सकती है। | इसलिए हे नाथ, आप विदेश मत जाइए।" आधी रात के समय तक अपने पति को विदेश न जाने के लिए लीलावती ने हर तरह से समझाया, लेकिन लीलाधर के विदेश जाने के विचार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अंत में लीलावधर के विदेश जाने की ज़िद की बात उसके ससुर मंत्री तक पहुँची। बुद्धिमान मंत्री सुबुद्धि ने सोचा कि इस समय दामाद को समझाने से कोई लाभ नहीं होगा। इसलिए मंत्री ने अपनी बुद्धिमानी से एक नया उपाय खोज निकाला और वे अपने समधा धनद सेठ के पास चले आए / घनद सेठ ने अपने समधी मंत्री सुबुद्धि का स्वागत किया . क्षेमकुशल को बातें हुई और बातों का सिलसिला चल पड़ा। मंत्री ने घनद सेठ से कहा, “सेठजी, मेरे दामाद और आपके सुपुत्र लीलाधर विदेश जाना ही चाहते है, तो उन्हें जाने दा, उन्हें जाने से मत रोको / लेकिन एक बात है कि विदेशयात्रा शुभ मुहूर्त देख कर करना चाहिए। इतना ध्यान अवश्य रखिए।" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र सुबुद्धि मंत्री की बात लीलाधर के पिता को उचित लगी! उन देनों ने चिकर उर ज्योतिषी को बुला कर उससे विदेशयात्रा के लिए शुभ मुहूर्त पूछने का निश्चय लिया जाने पता और ससुर के बीच हो रही ये बातें सुन कर लीलाधर को भी ऐसा लगा कि शुभ मुहर्त पर विदेश की ओर प्रस्थान करने पर ही इच्छित धन लाभ हो सकेगा। मंत्री ने गुप्त रीति से ज्योतिषियों को पहले ही सिखा रखा था कि तुम लोग हारे दामाद कपास जाओ और पत्रा (पंचांग) देखने का बहाना बना कर हमारे दामाद से कहो कि आनेवाले छ: महीनों में तो विदेश जाने के लिए कोई अच्छा मूहूर्त नहीं है लेकिन यदि विदेश जाने की बहुत उतावली हो, तो जिस दिन सुबह मुर्गे की आवाज सुनाई दे, उसी दिन सुबह को विदेश के लिए प्रयाण कर दो।' __ मंत्री की बनाई हुई योजना के अनुसार धनद सेठ ने लीलाधर और उसकी पत्नी लीलावती आर सारे परिवार के सामने नगर के विख्यात ज्योतिषी को बुलाया और विदेशयात्रा के लिए शुभ मुहूर्त पूछा / गुप्त रीति से पहले ही बनाई गई योजना के अनुसार ज्यतिषी ने कुछ देर तक पत्रा दिखाने का बहाना बनाया और उसको पहले सिखाया गया था, वैसे ही सबकुछ सुनाया। ज्योतिषी की बातें सुन कर लीलाधर ने अपने मन में यह निश्चय कर लिया आज भली सुबह मुर्गे की आवाज कानों में पड़ते ही मैं विदेश जाने के लिए प्रस्थान करूँगा। रात के समय विदेश जाने की और मुहूर्त साधने की चिंता के कारण लीलाधर को नींद भी नहीं आई। रात का अंतिम प्रहर बीता। भली सुबह का समय निकट आया . मुर्गा अभी कुकडकूँ करनेवाला ही था, इसलिए लीलाधर ने अपने कान और मन को बिल्कुल सतर्क कर दिए। लोकन किसी भी मुर्गे की आवाज लीलाधर के कानों में नहीं पड़ी। इसका कारण यह था कि लालाधर के ससुर सुबुद्धि मत्री ने अपने निजी सेवकों की सहायतासे नगर के सभी मुर्गो को पकड़वा कर नगर के बाहर भेज दिए थे। बेचारा लीलाधर मुर्गे की आवाज सुनने के लिए आकुल-व्याकुल हो गया था, लेकिन सब विफल हो गया। ज्योतिषी के कहने के अनुसार बर्ताव करने के सिवाय लीलाधर के सामने कोई उपाय नहीं था। सुबुद्धि मंत्री ने उपाय ही ऐसा निकाला था कि साँप भी मरे और लाठी भी न टूठे।' P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 . श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र सुबुद्धि मंत्री ने अपने दामाद को बराबर अपने शिकंजे में फँसा लिया था। वह दिन व्यर्थ चला गया। तब लीलाधर ने सोचा कि आज तो मैं विदेश के लिए प्रस्थान नहीं कर सका, लेकिन कल अवश्य जाऊँगा। लेकिन दूसरे दिन भी वही बात हुई। किसी मुर्गे की आवाज सुबह के समय सुनाई नहीं पड़ी। यही करते-करते छ: महीनी का समय बीत गया। लालाधर विदेश जान के लिए बहुत लालायित था, उतावला हो गया था। लेकिन मृर्गे की आवाज सुने बिना वह विदेश के लिए प्रस्थान कैसे कर सकता था ? ससुर मंत्री सुबुद्धि के मायाजाल में वह पूरी तरह फँस गया था। इधर पोतनपुर नगरी में जब मंत्री सुबुद्धि के घर दामाद का विदेश जाने से रोकने के लिए यह सारा प्रपंच किया जारहा था, तभी नटराज शिवकुमार की नटमंडली धरती के विभिन्न प्रदेशों में परिभ्रमण करते-करते एक दिन पोतनपुर नगरी में आ पहुंची। चंद्र राजा का यशोगान करते हुए और तरह-तरह के वाद्य बजाते हुए नटमंडली पोतनपुर नगर के राजा के पास आ पहुँची। नटराज शिवकुमार ने राजा के दरबार में जा कर राजा को प्रणाम किया और नगर में रहने के लिए उन्होंने स्थान माँगा। राजा ने शिवकुमार को | मंत्री सुबुद्धि के घर के निकट की ही एक जगह बताई / नटमंडली ने राजा की बताई हुई जगह | पर जा कर अपना डेरा जमाया। लेकिन नटमंडली के साथ होनेवाले सात सामंत राजाओं का | सेना के रहने के लिए नगर में पर्याप्त स्थान न होने से उन्हें नगर के बाहर तालाब के किनार / डेरा डालने को जगह प्रदान की गई। उस दिन संध्या समय मुर्गे के रुप होनेवाले चंद्र राजा से आज्ञा ले कर शिवकुमार अपनी मंडली के कुछेक सदस्यों को लेकर राजसभा में जा पहुँचा और उसने मधुर गीत सुना कर राजा और राजदरबार के सदस्यों को खुश कर डाला। फिर शिवकुमार ने राजा से कहा, “महाराज, - आज तो हम सब खूब थके हुए हैं। इसलिए आज हम आराम ही करेंगे। कल हम आपको / नाटक दिखाएँगे।" राजा ने शिवकुमार की ऐसा करने के लिए अनुमति दी, तो शिवकुमार में अपनी मंडली के साथ डेरे पर वापस चला आया / B नगरी में रहनेवाले एक मनुष्य को पता चल गया कि नटी शिवमाला के पास एक पिंजड़े = में एक मुर्गा है। उसने खानगी में नटराज शिवकुमार के पास आकर उसकी बताया, "देखो भाई। नटराज, तुम्हारे पास पिंजड़े में पड़ा यह मुर्गा सुबह के समय कुकडकूँ न करे इस बात का पूरा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 161 थान रखो / यदि तुम्हारा यह मुर्गा सुबह के समय कुकडकूँ करने लगा और मुर्गे की आवाज (बह के समय सुन कर सुबुद्धि मंत्री का दामाद विदेश चला गया, तो सारा दोष तुम्हारे शिर ढिगा। इसलिए तुम अपने मुर्गे को इशारे से समझा दो कि वह सुबह जागकर कुकडकूँ न करें, ल्कि मौन रहे / ऐसा करने में ही तुम्हारी भलाई है।" नटराज शिवकुमार ने अन्य लोगों को व्यर्थ दु:ख नहीं देना चाहिए यह विचार करके जिड़े में होनेवाले मुर्गे-चंद्र राजा-को इशारे से सारी बात समझा दी। लेकिन दूसरे दिन सुबह ति ही मुर्गा भूल से हरदिन की आदत के अनुसार कुकडः कुकडकूँ करने लगा। __ मुर्गे की कुकड़कूँ की मधुर ध्वनि प्रभात समय कानों में पड़ते ही यही शुभ मुहूर्त जानकर नीलाधर जहाज में बैठ कर विदेश जाने के लिए निकल पड़ा। लीलाधर को मुर्गे की आवाज मृत की तरह मीठी प्रतीत हुई तो वही ध्वनि लीलाधर की पत्नी लीलावती को जहर की तरह डुवी लगी। पति लीलाधर के चले जाने के कारण विरह व्याकुल लीलावती मूर्छित होकर मि पर गिर पड़ी। थोड़ी देर के बाद जब उसकी मूर्छा टूटी, तो विलाप करते हुए वह कहने नगो, “कौन है वह दुष्ट जिसने अपने घर में मुर्गा रख कर मेरे पति से मेरा वियोग कराया ? कसने मेरे साथ यह दुश्मनी की है ? इस नगर में कौन ऐसा साहसी मनुष्य निकला जिसने मेरे पता मंत्री की आज्ञा का उल्लंघन करके अपने घर में मुर्गा रखा ? हे विधाता, यदि तूने इस मुर्गे aa निर्माण ही न किया होता, तो मुझे पतिवियोग का दु:ख न सहना पड़ता।" विलाप करते-करते ही क्रुद्ध हुई लीलावती ने अपनेपिता मंत्री को अपने पास बुला कर हा, “पिताजी, मुझेमेरे पति के विरह का दु:ख सहने को विवश करनेवाले उस दुशमन मुर्गे को हे जहाँ से खोज निकाल कर मुझे सौंप दीजिए। वह मुर्गा न मिला, तो मैं अन्न पानी का त्याग र दूंगी।" कैसा गहरा अज्ञान है यह लीलावती का ! वास्तव में मनुष्य के जीवन में सुख-दु:ख नानेवाले उसके किए हुए शुभाशुभ कर्म ही होते है। लेकिन अज्ञानी मनुष्य अपने जीवन में :ख आते ही उसका दोष किसी दूसरे के माथे मढ़ता है। मनुष्य के सुख-दु:ख में वास्तव में अन्य तीव तो सिर्फ निमित्त मात्र होते हैं। लेकिन श्वानवृत्तिवाला मनुष्य दुःख-संकट-तकलीफ आते उसका दोषारोपण दूसरों पर करता है। __ अपनी प्रिय पुत्री की धमकी सुनते ही उसके पिता मंत्री सुबुद्धि ने मुर्गे की खोज करने के लए चारों दिशाओं में अपने सैकड़ों सेवक तुरन्त रवाना कर दिए / सेवकों ने सारे नगर को P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 श्री चन्द्रराजर्षि चरि= छान मारा, लेकिन इस मुर्गे का पता नहीं चल पाया। अंत में कस कर छानबीन करते-करत सेवकों को इस बात का पता चल गया कि नटमंडली के पास एकमुर्गा है। सेवकों ने यह खबर मंत्री सुबुद्धि को दे दी। मंत्री ने अपनी पुत्री को बुला कर उसे बताय "बेटी, वह मुर्गा कल यहाँ आई हुई नटमंडली के पास है। वे लोग मेरे अतिथि हैं / अतिथि के पास एक मुर्गे के लिए याचना करना मुझे बिलकुल उचित नहीं झुंचता है। दूसरी बात य है कि ये नट लोग बड़े दुराग्रही होते हैं। इसलिए मैं मुर्गा माँगूं, तो भी शायद वे देने से इन्का करेंगे। जो होना था, सो हो गया। किसी के भाग्य में लिखी हुई बातों को झूठ सिद्ध करने के सामर्थ्य किसमें है ? इसलिए बेटी, तू वह मुर्गा पाने का आग्रह-हठ छोड़ दे। यही तुम्हारे आ मेरे लिए उचित है।" इसपर लीलावती ने कहा, “पिताजी, उस मुर्गे ने मुझे अपने प्राणप्रिय पति का विया कराया है। इसलिए वह मुर्गा मेरा शत्रु है। उसके प्राण हरण किए बिना मेरे मन को चैन नह मिलेगा। मेरा मन शांत नहीं हो सकेगा। इसलिए चाहे कुछ भी कीजिए, लेकिन वह मुर्गा किस भी हालत में मुझे ला दीजिए / जब तक वह मुर्गा मेरे हाथ में नहीं आता, तब तक मेरे लिए / अन्नजल वर्ण्य है। इसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा।" पुत्री लीलावती की प्रतिज्ञा सुन कर मंत्री सुबुद्धि चिंता में पड़ गए / अंत में निरुपा 1. होकर मंत्री ने नटराज शिवकुमार को अपने पास बुलाया और उससे विनती की, "नटराज कृपा कर आपके पास पिंजड़े में पड़ा मुर्गा मुझे दे दीजिए।" ___ मंत्री की बिनती सुनकर नटराज ने स्पष्ट शब्दों में मंत्री को बताया, “हे मंत्रीजी, यह मुग | तो मेरे लिए प्राणस्वरूप है। यही मेरी आजीविका का एकमात्र आधार है। इतना ही नहीं, बाल्द यह मुर्गा ही हमारा राजा है, हमारा स्वामी है। आपकी पुत्री हमारे मुर्गे पर क्रोधायमान हुई है, यह मैंने सुना है / लेकिन जब तक में / शरीर में प्राण विद्यमान होंगे, तब तक हमारे लिए अपने प्राणों की तरह प्रिय होनेवाले इस मु का बाल भी बाँका करने को किसी में ताकत नहीं है। इस मुर्गे के प्राणों की रक्षा के लिए चोबार घण्टे सात सामन्त राजा अपनी हजारों को सेना के साथ सुसज्जित और सावधान रहते हैं। या नगर में मुकाम के लिए जगह की कमी होने के कारण ये सात राजा अपनी पूरी सेना के सा नगर के बाहर ठहरे हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 163 मंत्रीजी, यदि आप शक्ति के बल पर हमसे हमारा प्राणप्रिय मुर्गा छीन लेने की अधम चेष्टा करेंगे तो आपके राजा का यह राज्य भी सुरक्षित नहीं रह सकेगा। यदि हमारी शक्ति के बारे में आपके मन में कोई आशंका हो, तो सिंहल राजा से पूछ लीजिए। हमने सिंहल राजा को कैसे तहसनहस कर डाला था, उसकी चाहे तो खबर मँगा लीजिए। कौन है ऐसा माई का लाल जो हमारे मुर्गे के सामने आँख उठा कर उसे बुरी नजर से देखने की चेष्ठा भी करें ? मंत्रीजी, हम आपको एक सलाह देते है कि आप हमारे इस मुर्गे को पकड़ने की बात ही मन से निकाल डालिए। यह कोई सामान्य मुर्गा नहीं है। हम उसे सोने के पिंजड़े में रखते हैं और सिर पर वह पिंजड़ा लेकर गाँव-गाँव घूमते हैं। अपना कोई भी काम प्रारंभ करने से पहले हम उसकी जयजयकार करते हैं और उसकी आज्ञा लेकर ही अपना नाटक आदि प्रस्तुत करते हैं / यह हमारे लिए कोई सामान्य मुर्गा नहीं, बल्कि यह हमारे माथे का मुकुट है ! हमारा स्वामी है !! राजा है ! ! इसलिए इस मुर्गे को पाने की आशा आप छोड़ दीजिए।" - नटराज शिवकुमार की बात सुन कर आश्चर्यान्वित हुए मंत्री सुबुद्धि ने अपनी कन्या लीलावती से कहा, "बेटी. मैंने नटराज को हर तरह से समझा कर देखा, लेकिन वह किसी भी हालत में वह मुर्गा देने को तैयार नहीं है। इसलिए तू अब अपना हठ छोड़ दे, बेटी !' - - लीलावती वैसे तो समझदार युवती थी। पिता की कही हुई बातें उसके गले तो उतरी लेकिन उसने मुर्गा पाने के समय तक अन्नजल त्याग करने की प्रतिज्ञा की थी। इसलिए अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए एक बार वह मुर्गा उसके पास लाया जाना आवश्यक था। मंत्री ने अपनी बेटी की कठिनाई जान ली। लीलावती ने भी पिता को यह बताया। बार अपने पास बुलाया और उससे विनती की, “आप एक बार एक क्षण के लिए आपके पास होनेवाला मुर्गा मुझे दे दीजिए। मुर्गे के क्षेमकुशल की सारी जिम्मेदारी मेरे सिर रहेगी। कुछ ही देर में मेरी पुत्री की प्रतिज्ञा पूरी करके मैं मुर्गे को आपको वापस ला दूँगा। फिर भी यदि आपको मुझ पर विश्वास न आता हो, तो तब तक आप मेरा यह पुत्र आपके पास रखें। जब तक मैं मुर्गे को वापस ला न दूं, तब तक मेरा यह पुत्र आपके पास रहेगा।" .P.P.AC. GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र नटराज शिवकुमार ने मंत्री सुबुद्धि का अत्यंत आग्रह देखा, उसके उद्देश्य के बारे में विश्वास कर लिया और उसके पुत्र को अपने पास रख लिया और फिर उसने पिंजड़े केसाथ मुगा मंत्री को सौंप दिया। मंत्री ने मुर्गे को अत्यंत आदर से लाकर अपनी पुत्री लीलावती को सौपा। मुर्गे की आँखों का अत्यंत आनंददायक सौंदर्य देखते ही लीलावती का क्रोध अपने आप नष्ट ही गया और उसके मन में मुर्गे के प्रति प्रेम का भाव उत्पन्न हो गया। पुण्यवान् प्राणी का देख कर किसको प्रसन्नता नहीं होती है ? लीलावती ने मुर्गे को अपनी गोद में रखा और मुर्गे से उद्देश्य कर कहा, “हे पक्षिराज, तुमने मेरे साथ ऐसा शत्रुतापूर्ण व्यवहार क्यों किया ? तुमने प्रभातकाल में कुकडकूँ की आवाज मुँह से निकाली, इससे मेरे पति विदेश में जाने को चल पड़े। तुमने मुझे मेरे पति से अलग कर दिया। तुम प्रति दिन सोने के पिंजड़े में रहते हो और मन चाहा अन्नजल प्राप्त करते हो। तुम्ह - दूसरे के दुःख की क्या कल्पना हो सकती है ? हे पक्षिराज ! सती स्त्री के लिए उसके पति का - वियोग असह्य होता हैं। एक पक्षी भी अपनी प्रिय के विरह से बैचेन, आकुल-व्याकुल हो जाता है। फिर मैं तो मनुष्य जाति की स्त्री हूँ। एक विवाहिता युवती अपने पति के बिना कैसे रह सकती है, कैसे जीवन व्यतीत कर सकती है ? हे पक्षिराज, मुझे ऐसा लगता है कि तुमने अपन पूर्वजन्म में किसी दंपती का कपट के प्रयोग से वियोग कराया होगा ; इसी पाप के उदय से तुम्हें इस जन्म में पक्षी की योनि प्राप्त हुई है। ___ पशु-पंछी प्राय: विवेकशून्य होते हैं। इससे मुझे तुममें विवेक का अभाव जान पड़ता | है। यदि तुम में थोड़ा-सा भी विवेक का अंश बाकी होता, तो तुम प्रभात में कुकडकूँ न बोलते. | चुप रह जाते। तुमने कुकडकूँ की आवाज सुबह के समय मुँह से निकाली, इसीलिए मुझे अपने | पति से वियोग सहन करना पड़ा। हे पक्षिराज, क्या तुम्हारे मन में मेरे प्रति थोड़ा भी दया का | भाव निर्माण नहीं हुआ ? तुम्हें देख कर मेरे मन में तो बहुत दयाभाव उत्पन्न होता हैं।" : लीलावती की दुःखपूर्ण और मर्मवेधी बातें सुनकर मुर्गे को अपनी पूर्वावस्था का स्मरण हो आया। उसी समय उसकी आँखों से आँसुओं की धारा अखंडित रूप में बहने लगी और वह - लीलावती की गोद में ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 165 - अचानक यह घटना घटित होते देखकर लीलावती घबरा गई। उसने अपनी गोद में बेसुध अवस्था में गिर पड़े मुर्गे को शीतोपचार से होश में लाने का प्रयत्न प्रारंभ किया। कुछ देर के प्रयत्नों से मुर्गे को होश आया। उसने मुर्गे से कहा, "हे पक्षिराज ! मैंने तो सरल हृदय से अपने हृदय के दुःख की बात तुमसे कही थी। लेकिन ऐसा लगता है कि मेरी बातें सुनकर तुम्हारे मन को गहरा दु:ख हुआ हो, तो मुझे क्षमा कर दो। लेकिन हे पक्षिराज, मैं यह जानना चाहती हूँ कि तुम्हें मेरी बातें सुन कर ऐसा क्या दुःख हुआ कि तुम एकदम रोने लगे और होश भी खो बैठे-बेसुध हो कर गिर पड़े ? कृपा करके मुझे तुम्हारे दुःख का, रोने का और बेसुध हो जाने का कारण बताओ। हे पक्षिराज मैं तो यह समझती थी कि तुम यहाँ आकर मुझे मेरे पतिवियोग के दुःख में कुछ शांतिप्रदान करोगे, लेकिन यह तो उलटा ही हो गया। मुझे ही तुम्हें शांति प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील होना पड़ रहा है ! मुझे ऐसा लगता है कि तुम मुझसे भी अधिक दु:खी हो। इसलिए कृपा करके मुझे यह बताओ कि तुम्हारे दु:ख का कारण क्या है ? इस समय मैं तो तुम्हारा दुःख देखकर अपना दु:ख भूल गई हूँ। तुम्हारे दु:ख का कारण जानने के लिए मेरा मन बहुत उत्कंठित है। इसलिए तुम मुझे अपने दु:ख का कारण अवश्य बताने की कृपा करो।" लीलावती की अपने प्रति गहरी सहानुभूति और प्रेम का भाव देखकर मुर्गे ने अपने पाँव के नाखून से भूमि पर लिखकर बताया “हे युवती, मैं आभापुरी का राजा चंद्र हूँ। मेरी सौतेली माँ वीरमती ने मुझे बिना किसी कारण के ही अपनी मंत्रशक्ति की सहायता से मुर्गा बना दिया है / अपनी प्रिय रानी गुणावली के वियोग के कारण मैं दु:खसागर में डूबता-उतराता हूँ और रातदिन प्रिय के विरह की आग में जलता रहता हूँ। मेरे इस प्रकार मुर्गा बने हुए कई वर्षों का समय व्यतीत हो चुका है। मेरे दुःख का यही मुख्य कारण है। हे युवती, मेरे जीवन में अन्य अनेक प्रकार के दु:ख हैं। मुझे तो अपने इन दुःखों का कोई अंत ही नहीं दीखता है। दूसरी बात यह है कि मुझे इस नटमंडली के साथ सर्वत्र भटकना पड़ता कहाँ मेरी वह इंद्रपुरी के समान आभानगरी ? कहाँ वह मेरा स्वर्ग के समान राज्य ? कहाँ वह मेरी प्राणप्रिय रानी गुणावली ? कहां वह मेरा एक महान् सम्राट जैसा ऐश्वर्य और कहाँ वह मेरा कामदेव जैसा सौंदर्य ? इधर आज एक पंछी बना हुआ मैं कितने सारे कलेश और दुःख P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 श्री चन्द्रराजर्षि चरि= वर्षो से भोग रहा हूँ ! यह सब देख कर मुझे ऐसा लगता है कि मेरे दु:ख का कहीं कोई अत नहीं है ? हेलीलावती, तेरा पति तो विदेश में चला गया है। उसके साथ तेरा पुनर्मिलन अवर होगा। लेकिन मुझे फिर से अपना मनुष्य का रूप कब मिलेगा और अपनी रानी गुणावला मेरा पुनर्मिलन कब होगा, यह तो सिर्फ भगवान ही जानता है। मुझे ऐसा लगता है कि तुम दु:ख के समान गहरा दु:ख तो नहीं है। तेरे और मेरे दु:ख के बीच आकाश-पाताल का अत मेरी रानी गुणावली मुझसे कई वर्षों से बिछुड़ी हुई है और पति-वियोग का दुःख सह" जा रही है। मेरी रानी गुणावली महासती है। वह मुझे नटमंडली को सौंपने को बिलकुल तयार नहीं थी। लेकिन वहाँ मुर्गे के रूप में गुणावली के पास रहने में वीरमती को ओर से मर प्राण को भय था। इसलिए मैंने ही पंछियों की भाषा के जानकार शिवकुमार और शिवमाला से कहा कि तुम लोग मुझे वीरमती के पास अपनी नाटयकला की कुशलता के लिए इनाम के रूप माग लो। गुणावली तो मुझे नटराज को सौपने के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी, लेकिन अपना सास से मेरे प्राणों को भय है यह जान कर उस सती ने मुझे रोते-रोते ही पिंजड़े के साथ नटराज के हाथ में सौंप दिया। हे लीलावती, अब तुम अपने मन में सोचो कि जब तुम्हें अपने पति से एक दिन का वियोग होने से इतना दु:ख होता है, तब मेरी रानी गुणावली को वर्षों से मेरा वियोग सहना पड़ रहा है, उसे कितना दुःख होता होगा ? वास्तव में हमारे दु:ख का कोई अंत नहीं दिखाई दता है। हम दोनों के दुःखरूपी पर्वत के सामने तुम्हारा दुःख तो एक कंकड़ के समान छोटा है। मुर्गे ने भूमि पर लिखी हुई यह अक्षरमाला पढ़ कर और समझ कर लीलावती का वयोग दु:ख थोड़ा-सा शांत हो गया। उसे ऐसा लगा कि इस चंद्रराजा (मुर्गे) के दु:ख के सामन जरा दु:खतो सचमुच कुछ भी नहीं है। इसलिए अब मुर्गे को सांत्वना देते हुए लीलावती ने कहा, -हे राजन्! हे धर्मबंधु ! आप अपने मन में बिलकुल दु:ख मत कीजिए। क्रूर कर्मसत्ता के सामन कसी का भी बल, बुद्धि और ऐश्वर्य काम नहीं करता है। जब आपके अशुभ कर्मो का यह उदय P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 167 समाप्त होगा और शुभ कर्मो का उदय होगा, तब आपकी अपनी आभानगरी का राज्य और रानी गुणावली अवश्य वापस मिलेंगे। जैसे अच्छे दिन लम्बे समय तक नहीं टिकते हैं, वैसे ही बुरे दिन भी बहुत समय तक नहीं टिक सकते हैं / इसलिए इस समय आप परमात्मा का नामस्मरण करने में ही अपना समय काटते रहिए। राजन्, आप अपने मन में किसी भी बात की चिता मत कीजिए। इस दुखमय संसार में किसके भाग्य में एकमात्र सुख ही आता है ? भाग्य का चक्र तो निरंतर घूमता ही रहता है, वह कभी रुकता नहीं है। हे राजन्, आज से मैंने आपको अपना भाई मान लिया / आप भी मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि विधाता ने हम दोनों के बीच भाई-बहन के इस संबंध की स्थापना करने के लिए ही .. आपको यहाँ भेज दिया है। लेकिन हम दोनों के बीच यह भाई-बहन का संबंध क्षणिक है। इसलिए जब आपको फिर से मनुष्यत्व की प्राप्ति हो जाएगी, तब आप यहाँ पधारिए और अपनी इस बदनसीब बहन को अवश्य दर्शन दीजिए / अनजाने में मैंने आपसे जो भली-बुरी बात कही, उसके लिए मुझे क्षमा कर दीजिए / हे राजन्, आप आपके साथ हुई भेंट से मेरा जीवन सार्थक हो गया, धन्य हो गया। फिर अवसर मिलने पर अपनी इसी निर्गुणी बहन को अवश्य याद कीजिए। आपकी यह गरीब बहन इच्छा करती है कि आपका पुण्यपुंज अवश्य उदित हो और आपके मन की आशा यथाशीघ्र पूरी हो जाए।" . मुर्गे से इतना कह कर लीलावती ने उसका मुँह मीठा किया और उसे सम्मान से नटराज के पास वापस भेज दिया। नटराज ने भी मुर्गा पाते ही सुबुद्धि मंत्री के अपने पास रखे हुए पुत्र को मंत्री के घर वापस भेज दिया। नटमंडली को अब इस नगरी में कोई काम नहीं बचा था। इसलिए उन्होंने अब यहाँ से आगे की ओर प्रयाण करने की तैयारी की। वहाँ से निकल कर घूमते-घूमते नटमंडली विमलापुरी के उद्यान में आ पहुँची। उद्यान में जिस स्थान पर वीरमती ने आम का पेड़ स्थापित किया (रखा) था, उसी जगह पर नटराज को मंडली ने अपना डेरा डाला। मुर्गे ने (चंद्रराजा ने) यह स्थान देखते ही पहचान लिया। चंद्र राजा को स्मरण हो आया के विमाता वीरमती और रानी गुणावली के साथ मैं आम के पेड़ के कोटर में प्रवेश कर छिपकर) सोलह वर्ष पहले आभापुरी से इस विमलापुरी में आया था। उसी रात मेरा विमलापुरी की राजकुमारी प्रेमलालच्छी से विवाह हुआ था। प्रेमला के साथ मैंने अपूर्व वार्ताविनोद किया था P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 श्री चन्द्रराजर्षि चरि और कुछ ही देर बाद मैं प्रेमलालच्छी से बिछुड़ गया था और फिर उसी कोटर में छिपक वीरमती और गुणावली के साथ आभापुरी लौट आया था। चंद्रराजा के मन में यह बात भी आ बिना नहीं रही कि यह वही नगरी है जहाँ आने के कारण मुझे अपने मनुष्य रुप को त्याग कमुर्गा बनना पड़ा था। आज सौभाग्य से फिर उसी नगरी में आ पहूँचा हूँ। इससे ऐसा निश्चितरू से लगता है कि इसी नगरी में मेरे दुःख का अंत होगा। कहाँ आभापुरी और कहाँ विमलापुरी ? कितनी दूर हैं ये दोनों नगरियाँ ? सामान्य रुपम तो आभापुरी से इतनी दूर विमलापुरी में आना आसान नहीं है। लेकिन सामान्य स्थिति में जा बात असंभव लगती है वही अवसर आने पर संभव बन जाती है। मेरे मन में यहाँ आने के प्रबल इच्छा थी। शायद इसीलिए विधाता ने मुझे पंछी बना कर यहाँ भेज दिया है। मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्रराजा के मन में जब विमलापुरी के उद्यान में ये बातें आ रही थी, उसी समय इधर राजमहल में प्रेमलालच्छी की बाँई आँख फड़क उठी। जब स्त्री की बाई आँख फड़क उठती है, तो वह उसके लिए शुभ शकुन होता है। इसके विपरीत जब पुरुष का दाई आँख फड़क उठती है, तो वह शुभ शकुन माना जाता है। जब प्रेमलालच्छी अपने महल में अपनी सखियों के साथ बैठी हुई था तो उसकी बाइ आँख जोर जोर से लगी। इसलिए प्रेमला ने अपनी सखियों से कहा, “हे बहनो, आज मेरी बाई आँख बहुत जोर से फड़क रही है। इससे आज मुझे मेरे प्रिय पतिदेव के दर्शन अवश्य होन चाहिए / आज मुझे निश्चय ही लग रहा है कि मेरे जीवन का पतिविरह का दु:खदायी समय समाप्त होगा। मेरा विवाह होने के बाद पूरे सोलह वर्ष बीत गए हैं। शासनदेवी ने भी मुझ आश्वस्त किया था कि विवाह के बाद सोलह वर्ष बीत जाने पर मेरे पतिविरह के दु:ख का अत अवश्य आएगा। अब शासनदेवी को बताई हुई वह लम्बी अवधि भी समाप्त हो गई हैं / लोकन अब तक मुझे इस बात का पता नहीं है कि मेरे जीवन में वह इष्ट योग कैसे आएगा ? कहाँ होंगी आभापुरी और कहाँ होंगे मेरे प्राणनाथ आभानरेश चंद्र ? विवाह करक सीलह वर्ष पहले वे जबसे यहां से आभापुरी गए हैं, तब से उनकी ओर से न कोई संदेश आया, न ही कोई पत्र ही आया। विवाह करके वे जबसे चले गए हैं, तबसे एक बार भी लौट कर यहा नहीं आए। अब तक तो उनका एक बार भी कोई संदेश तक नहीं आया। लेकिन मेरी बाई आँख फड़क रही है। समझ में नहीं आता कि वे मुझे दर्शन देने की कृपा कैसे करेंगे ? P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 169 - लेकिन शासनदेवी का दिया हुआ वचन भी कभी मिथ्या नहीं हो सकता। क्योंकि कंहा भी गया है कि 'अमोधं देवभाषितम् !' अर्थात, देवता की कही हुई बात सच ही निकलती है, कभी मिथ्या नहीं हो सकती है। अब तो प्रत्यक्ष रूप में शासनदेवी के दिए हुए वचन की परीक्षा होगी। जब मैं यह विचार करती हूँ कि मेरे प्राणनाथ तो मुझसे सहस्त्र कोस दूरी पर बैठे हैं, तब मरा हृदय निराशा से भर जाता है। लेकिन दूसरी ओर जब मैं शासनदेवी का वचन याद करती चिरकाल का वियोग-दु:ख दूर होना ही चाहिए। __ अब मैं देखू कि क्या होता है ? ईश्वर पर मेरा पूरा विश्वास है।" प्रेमलालच्छी की कही हुई ये सारी बातें सुन कर उसकी सखियों ने उससे कहा, "हे स्वामिनी, तुम्हारी पुण्यराशि तुम्हारे मन को धारण अवश्य पूरी कर देगी . विवाहित कन्या को पिता के घर में भले ही अन्य सभी प्रकार का सुख प्राप्त होता हो, लेकिन वास्तविक सुखशांति देनेवाला तो पति का घर ही होता है। _ हे सखी, तुम्हें तो चंद्रराजा जैसा गुणों का भंडार और कामदेव के समान सुंदर पति मिला है। फिर तुम तो ऐसी सुंदरी हो कि तुम्हें जो एक बार देखेगा, वह तुम्हें कभी भूल नहीं सकेगा। और फिर तुमने तो पति से मिलन के लिए कितना जप-तप-व्रत किया है / इसपर शासनदेवी द्वारा बताई गई अवीधि भी समाप्त हो गई है। इसलिए हे स्वामिनी, अब तुम्हें अपने प्राणवल्लभ के दर्शन अवश्य होने चाहिए। जैसे सूखा हुआ सरोवर भी वर्षा ऋतुआने पर पानी से भर जाता है, वैसे ही अब तुम्हारे मन की पतिमिलन की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होकर ही रहेगी।" जब प्रेमलालच्छी का उसकी सखियों के साथ यह वार्तालाप चल रहा था, तभी सोने के पिंजड़े में मुर्गे को लेकर नटराज शिवकुमार की नटमडंली विमल पुरी के राजा के राजदरबार म आ पहुँची। विमलापुरी के राजा मकरध्वज को प्रणाम कर नटराज शिवकुमार ने कहा, "हे राजन्, सौराष्ट्र देश की यह विमलापुरी और उसके राजा को देखने की लम्बे समय से हमारे मन म बहुत प्रबल इच्छा थी। आज हमारी यह इच्छा बहुत समय के बाद पूरी हो गई है। महाराज, वैसे तो हम अनेक देशों में घूमे हैं / हमने अब तक अनेक नगरियाँ देखी हैं / लेकिन एक आभापुरी और दूसरी विमलापुरी से प्रतिस्पर्धा करनेवाली कोई अन्य नगरी अब तक हमारे P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र देखने में नहीं आई। हमारी दृष्टि में ये दो नगरियाँ-मृत्युलोक की इंद्रपुरियाँ हैं।" इस तरह से विमलापुरी की जी खोल कर प्रशंसा करते हुए नटमंडली ने राजा से अपनी नाट्यकला प्रस्तुत करने के लिए अनुमति माँगी। राजा की अनुमति मिलते ही उन्होंने अपनी नाट्यकला दिखाना प्रारंभ किया। नटराज शिवकुमार ने सबसे पहले पवित्र स्थान देख कर उसका प्रमार्जन किया। फिर उस स्थान पर उसने विविध सुगंधित फूलों की एक शय्यासी बनाई। इस शय्या पर फिर उसने अपने पास होनेवाले मुर्गे के पिंजड़े को रखा। फिर उसने एक ऊँचा बाँस जमीन खोद कर खड़ा / किया और उसे चारों ओर से मजबूत रस्सी से बाँध दिया। इस प्रकार अब सारी पूर्वतैयारी हो गई। अब शिवमाला दिव्य वस्त्रालंकारों से सजकर पुरुष वेश में उस ऊँचे बाँस के पास आकर खड़ी हो गई। इस समय वह ऐसी सुंदर लग रही थी मानो स्वर्गलोक में से कोई अप्सरा ही मृत्युलोक पर आ उतरी हो। शिवमाला के अद्भूत रूपलावण्य को देख कर राजदरबार में उपस्थित सारे सदस्य और दर्शक दंग रह गए। राजा मकरध्वज ने इस नटमंडली के अद्भुत और आश्चर्यकारक खेल देखने के लिए अपनी पुत्री प्रेमलालच्छी को भी दरबार में बुला लिया। प्रेमलालच्छी ने पहले ही यह सुन रखा था कि आभापुरी से कितने ही नटों की मंडला | विमलापुरी में आई है। यह मंडली देश-विदेश में घूम-घूम कर अपनी नाट्यकला प्रस्तुत करता सार अपने पिता के बुलाने पर प्रेमलालच्छी अपनी सखियों के साथ राजा के पास दरबार में | आई। नटमंडली द्वारा खेले जानेवाले खेल देखने के लिए वह अत्यंत उत्सुकता से बैठी / सब / दर्शक बड़ी उत्कंठा से नटमंडली का खेल देखने को तत्पर हो गए थे। / नटराज से संकेत मिलते ही पक्षिराज मुर्गे से आज्ञा लेकर शिवमाला ने अपनी आर्यचकित / कर देनेवाली कला दिखाना प्रारंभ किया। वह रस्सी पकड़ कर ऊँचे बाँस पर चढ़ गई आर : नृत्यु-नाटक-गायन की कला दिखाने लगी। शिवमाला का अद्भुत कलाकौशल देख कर राजा P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 171 और राजदरबार के सदस्यों ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। अब शिवमाला बाँस पर से नीचे उतर आई। राजा के सामने आकर वह इनाम की याचना करते हुए खड़ी रही। राजा ने शिवमाला का सम्मान करके उसे बड़ा इनाम दिया। राजदरबार में उपस्थित अन्य दर्शकों ने भी शिवमाला पर विविध इनामों की वर्षा कर दी और सबने अपनी उदारता और कलारसिकता का परिचय दिया। संयोग से इसी समय सोने के पिंजड़े में होनेवाले मुर्गे की दृष्टि राजा के पास बैठी हुई प्रमला पर पड़ी। देखते ही उसने पहचान लिया। पूरे सोलह वर्ष बीत जाने के बात अपनी प्रिय प्रमला को देखकर मुर्गा फुला न समाया। अब मुर्गा अपने मनसे कहने लगा, “अब मैं क्या करूँ ? इस समय तो मैं एक पक्षी के रूप में हूँ। यदि इस समय मैं पक्षी न होता, तो तुरन्त प्रेमला से जा मिलता / लेकिन यह भी सच है कि मेरी सौतेली माँ वीरमती ने मुझे मुर्गे का रूप न दिया हाता, तो मैं यहाँ कैसे आता और फिर मेरी प्रिय प्रेमलालच्छी से मेरा मिलन कैसे हो पाता ? ईश्वर इस नटमंडली का भला करे, जो सर्वत्र मेरा यशोगान गाती-गाती मुझे यहाँतक ले / आई / मुझे लगता है कि आज सुबह मैंने अवश्य ही किसी पुण्यवान् आत्मा का मुँह देखा होगा / इसीसे आज मुझे अकस्मात् अपनी प्रिया के दर्शन का सुनह अवसर मिला। ऐसा लगता है कि आज मेरे अशुभ कर्म का क्षय होने से विरहदुःख का अंत प्रारंभ हो गया है। आज का दिन मेरे लए सचमुच सर्वोत्तम है। यदि आज से प्रेमलालच्छी मुझे अपने पास रख ले, तो लगता है कि जल्द ही मुझे फिर से मनुष्यत्व की प्राप्ति हो जाए। आज ऐसा निश्चित लग रहा है कि मेरे मनोरथ पूरे हो जाएंगे। लेकिन मेरा मनोरथ तभी सफल होगा जब शिवमाला मुझे खुशी से प्रेमला को अर्पण कर देगी।" जब प्रेमला पर नज़र जाने के बाद मुर्गा बने हुए चंद्र राजा के मन में ये विचार आ रहे है, तभी संयोग से प्रेमला की भी नज़र मुर्गे पर पड़ी। नटों को मुर्गे के सामने बार बार प्रणाम रते हुए देख कर प्रेमला के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। इसलिए प्रेमलालच्छी अब एकटक ष्टि से मुर्गे को बारीकी से देखने लगी और मुर्गे के मुँह की ओर उसकी दृष्टि बार बार जाने गी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र शा उधर मुर्गा भी प्रेमला को एकटक दृष्टि से बार बार देखता था / अचानक एक क्षण प्रेमला और चंद्रराजा (मुर्गे) की आँखें एक दूसरे से मिलीं। दोनों की आँखों से प्रेम का अमृत टपकता जा रहा था। उधर नाटक का खेल समाप्त होने के बाद नटराज शिवकुमार ने राजा को अनेक गात सुना कर खुश कर दिया। राजा की भी नज़र मुर्गे पर पड़ी। राजा के मन में मुर्गे के प्रति हादिक प्रेमभाव उत्पन्न हो गया। इसलिए राजा ने शिवकुमार से सोने का पिंजड़ा अपने पास मगा लिया और पिंजड़े से मुर्गे को बाहर निकाल कर अपनी गोद में बिठाया और फिर राजा मुगेक प्रति लाड़प्यार प्रकट करने लगा। अपने पिता राजा के निकट ही बैठी हुई प्रेमला के हृदय में भी मुर्गे के प्रति प्रेम का सागर हिलोरें मारने लगा। इसलिए उसने मुर्गे को अपने पिता से माँग लिया। उसने मुर्गे को अपना गोद में बिठा लिया और वह मुर्गे के शरीर पर अपना कोमल हाथ फेरने लगी। प्रेमला का करस्पर्श शरीर को होते ही वियोगव्यथा से अत्यंत पीड़ित मुर्गे के मन को बहुत शांति मिला। लेकिन उसके मनको इस बात का बड़ा दु:ख भी हुआ कि मैं अपने अंत:करण में होनेवाला विरह दुःख प्रेमला को बताने में असमर्थ हूँ। 1 इस संसार में जीव को जब सुख की सुखड़ी देखने को मिलती भी है तो उसमें दुःख का कंकड़ियाँ भी मिली हुई ही होती हैं। दु:ख के मिलावट के बिना होनेवाला सुख इस संसार में कहा भी नहीं है। सुखरूपी चंदन का वृक्ष सैकडों दुःखरूपी जहरीले सर्पो से घिरा हुआ होता है। मुर्गा प्रेमला के हृदय में प्रवेश करने के लिए अत्यंत उत्सुक था / इसलिए वह प्रेमला :के हृदय पर अपनी चोंच से जैसे-जैसे प्रहार करता गया, वैसे-वैसे प्रेमला अपने हाथ से उसका | पीठ थप-थपाती रही / पिंजड़े से बाहर निकाला गया होने पर भी मुर्गा प्रेमला के हृदयरूपा पिंजड़े में बंद हो ही गया था। प्रेमला ने भी उसे प्रेम की वर्षा से भिगो दिया। प्रेमला के पास हात हुए भी मुर्गे में मनुष्य की भाषा में बोलने की शक्ति नहीं थी, इसलिए वह प्रेमला के साथ अनक प्रकार की प्रेमचेष्टाएँ करते हुए उसका चित्त चुरा रहा था। / पर्याप्त समय बीत जाने के बाद राजा मकरध्वज ने मुर्गे को प्रेमला से लेकर पिंजड़े म = चंद कर दिया और वह पिंजड़ा बड़े स्नेह से नटराज को सौंप दिया। फिर राजा ने नटराज स ___ पूछा, 'नटराज, यह मुर्गा तुम्हें कहाँ मिला ?" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 173 ____ नटराज शिवकुमार ने बताया, “हे राजन् ! यहाँ से 1,800 योजन की दूरी पर इंद्रपुरी की तरह लगनेवाली आभापुरी नाम की नगरी है। इस नगरी पर राजा चंद्र राज्य करता था। लेकिन राजा चंद्र की सौतेली माँ वीरमती ने किसी कारणवश राजा चंद्र को कहीं छिपा दिया था / इसलिए हमने प्रत्यक्ष रूप में राजा चंद्र को अपनी आँखों से नहीं देखा है। हमने आभापुरी में वीरमती को राज्य करते देखा / हमने रानी वीरमती के सामने अपनी नाट्यकला प्रस्तुत की। हमारी कला पर प्रसन्न होकर रानी वीरमती ने हमें यह मुर्गा इनाम के रूप में दे दिया। राजा चंद्र की पटरानी गुणावली ने यह मुर्गा पाला था। रानी का इस मुर्गे पर ऐसा गहरा स्नेहभाव था कि वह किसी भी तरह से यह मुर्गा हमें देने के लिए तैयार ही नहीं थी। एक बार रानी वीरमती अत्यंत क्रुद्ध हो गई थी और क्रोधावेश में अपनी तलवार से इस मुर्गे को काट डालने के लिए उद्यत होगई थी। लेकिन पटरानी गुणावली और नगर के महाजनों ने बीच में पड़कर उस समय मुर्गे को मरने से बचा लिया था। फिर मुर्गे को ऐसा लगा कि यहाँ गुणावली के पास रहने में मेरे प्राणों को खतरा है। इसलिए उसने मेरी पुत्री शिवमाला के पास पंछी की भाषा में विंनती की 'हे शिवमाला, तू वीरमती से इनाम में मुझे माँग ले / पैसे के लालच में मत पड़।' मेरी पुत्री शिवमाला पक्षी की भाषा जानती थी, इसलिए वह सारी स्थिति समझ गई और उसने मेरे पास आकर बात की। मैंने शिवमाला की बात को तुरन्त स्वीकार कर लिया। फिर अपनी नाट्यकला दिखाने के बाद हमने वीरमती से उसे (मुर्गे को) इनाम के रूप में माग लिया। तब से बराबर हम उसका लालन पालन अपने प्राणों को तरह कर रहे हैं। हमने इस मुर्गे को अपना स्वामी-राजा-मान लिया है और हमने उसका दासत्व स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया है। इस घटना के बाद आज पूरे सोलह वर्ष बीत चुके है। पिछले सोलह वर्षों से हमारे साथ होनेवाले इस मुर्गा राजा को लेकर हम अपनी नटमंडली के साथ देश-विदेश में घूम रहे हैं और घूमते-घूमते आपकी नगरी में आ पहुँचे है। नटराज शिवकुमार के मुँह से मुर्गे के बारे में यह सारी असलियत जान कर राजा मकरध्वज बहुत प्रसन्न हो गया। प्रेमला ने जब अपने पति का, उनकी नगरी का नाम सुना और पति के घर के पक्षी के आगमन की बात सुनी, तो उसके भी हर्ष का कोई पार न रहा। हमारे मन में जिसके प्रति प्रेमभाव : होता है, उससे संबंध रखनेवाली सारी बातें हमें अच्छी ही लगती है। नरम P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र जिसके मन में भगवान जिनेश्वरदेव के प्रति सच्चा प्रेम है, उसे भगवान जिनेश्वरदव का नाम, मूर्ति, मंदिर, पादुका, उसके शास्त्र (आगम), उनका मार्ग, उनकी वाणी, उनके बताए हुए मार्ग के अनुसार चलनेवाले साधु-साध्वी, उनका संघ, उनके तीर्थस्थल सबकुछ पवित्र, पूजनीय लगते है और उसके लिए वही आराध्य और आदरणीय हो जाता है। प्रेमी से संबंध रखनेवाली हर चीज प्रिय ही लगती है ! फिर प्रेमला को अपने प्रिय पात के घर का मुर्गा प्रिय क्यों न लगे ? प्रेमला को यह मुर्गा बहुत भा गया। लेकिन बेचारी प्रेमला का क्या पता था कि यह मुर्गा ही स्वयं उसका प्रिय पति है ? यह नटमंडली जब विमलापुरी में आ पहुँची थी, तब वर्षा ऋतु बहुत निकट थी। "इसलिए नटराज शिवकुमार ने विचार किया कि यदि राजा आज्ञा दे तो वर्षा ऋतु यहीं बिता कर बाद में आगे की ओर प्रस्थान किया जाए। वर्षा ऋतु में यात्रा करने से अनेक जीवों की हिंसा हान की संभावना थी। यह नटमंडली अत्यंत सरल स्वभाव की और पापभीरू थी। राजा ने उनके यहा क। वास्तव्य में उनका यह रूप देख लिया था। इसलिए जब नटराजा राजा के पास वर्षा ऋतु म विमलापुरी में रहने की अनुमति माँगने गया, तो राजा ने नटराज की बात तुरन्त स्वीकार कर उसे कह दिया, "शिवकुमार, तुम अपनी मंडली के साथ चातुर्मास के महीनों में खुशी से यहा रहा / मेरे करने योग्य तुम्हारा कोई काम हो तो मुझे नि:संकोच रुप में बताते जाओ। तुम यहाँ चार माह तक रहोगे, तो तुम्हारे नित नए खेल देखकर मुझे और विमलापुरी वासियों को भी बहुत आनंद मिलेगा। दूसरी बात, मेरे और मेरी पुत्री प्रेमला के मन में तुम्हारे मुर्गे के प्रति गहरा स्नेहभाव उत्पन्न हुआ है। तुम यहाँ रहोगे, तो हमें तुम्हारे मुर्गे की संगति भी मिलेगी। तुम्हार इस मुर्गा-राजा की देखकर तो हमारे हृदय में प्रेम को लहरें उठने लगती हैं / नटराज, तुम अवश्य यहां रहो। राजा की अनुमति इतनी आसानी से मिलने से नटराज मन-ही-मन बहुत खुश हुआ। अब उसने अपनी नटमंडली के साथ चातुर्मास का चार माह का समय इसी विमलापुरी में व्यतात करने का निश्चय कर लिया। अब नटराज प्रतिदिन अपनी नटमंडली के साथ राजदरबार म आकर विविध प्रकार के संगीत-नृत्य से राजा के चित्त का रंजन करने लगा। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 175 कालचक्र घूमता जा रहा था। ऐसे ही एक दिन मकरध्वज राजा ने अपनी पुत्री प्रेमला से कहा, "प्रेमला बेटी, पहले तो मैं तेरी बात को झूठ मान कर ठुकरा देता था, लेकिन अब मुझे तेरी बात अक्षरश: सत्य मालूम होने लगी है / यह शास्त्रवचन सनातन सत्य है कि - "जो कर्म करता है, वह कोई नहीं कर सकता है।" प्राणीमात्र को सुख-दुख देनेवाला उसका कर्म ही होता है। इस बात में कोई आशंका नहीं होनी चाहिए। हे बेटी, दूसरी बात यह है कि तेरा पति चंद्रराजा तो यहाँ से बहुत दूर आभापुरी में है। इसलिए इस समय तेरा उससे मिलना संभव नहीं दिखाई देता है। लेकिन अगर तू कहे तो तेरे पति के घर का मुर्गा मैं तुझे नटराज से माँग कर लाकर दे दूँगा। यह मुर्गा तू अपने पास रख कर उसका लालन-पालन करेगी, तो तेरा समय आनंद से बीतेगा। बेटी, इसको छोड़ कर इस समय हम तेरे लिए और कर ही क्या सकते हैं ? कर्मसत्ता के सामने किसी का बस नहीं चलता हैं। किए हुए कर्म को तो हर किसीको भोगना ही पड़ता है। कर्म की गति बड़ी विचित्र है। कर्म की गति एक क्षण में राजा को रंक और रंक को राजा बना डालती है। प्रेमलालच्छी को उसके पिता द्वारा कही गई ये बातें बहुत अच्छी लगीं। जो पसंद था / वही वैद्य न कहा जैसी बात होगई / इसलिए प्रेमला ने अपने पिता राजा मकरध्वज से कहा, पूज्य पिताजी, मैं तो स्वयं अपनी ही ओर से नटराज से वह मुर्गा माँग कर मुझे देने की बात आप से कहनेवाली थी। यह तो बहुत अच्छा हुआ कि आपके मन में भी वही विचार था। इसलिए पिताजी, जितनी जल्द हो सके, वह मुर्गा नटराज से लाकर मुझे दे दीजिए। यह पक्षी तो मेरे पति के घर का होने से मुझे बहुत प्रिय लगता है। इस मुर्गे को अपने प्रिय पति के घर का मेहमान / मानकर मैं बराबर उसकी सेवा और रक्षा करूँगी। प्रेमला के मन की प्रबल इच्छा जान कर राजा मकरध्वज ने तुरंत अपने एक सेवक को नटराज को बुला लाने के लिए भेज दिया। राजा का संदेश मिलते ही कुछ ही समय में नटराज शिवकुमार राजा के सामने आकर उपस्थित हुआ। उसने राजा को विनम्रता से प्रणाम किया। राजा ने नटराज का प्रणाम स्वीकार कर उससे कहा, हे शिवकुमार, देखो, तुम्हारे पास जो मुर्गा है वह मेरी बेटी प्रेमला के पति के घर का है। यह बात हमने अत्यंत गुप्त रखी है कि आभापुरी के चंद्र राजा मेरे दामाद हैं / आज से सोलह वर्ष पहले मेरी पुत्री प्रेमला का विवाह इसी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र विमलापुरी में चंद्र राजा के साथ बड़ी धामधूम से संपन्न हुआ था। यह बात आज मैं तुम्हार सामने ही स्पष्ट रूप में कह रहा हूँ। मेरी पुत्री का उसके पति चंद्र राजा से मिलन कब होगा, भगवान जाने ! लेकिन तुम्हारे पास होनेवाला यह मुर्गा मेरी पुत्री के पति के घर का होने से उस बहुत पसंद आया है। इसलिए यदि तुम यह मुर्गा मुझे दे दोगे, तो मैं तुम्हारा उपकार आजीवन नहीं भूलूँगा। इतना ही नहीं, बल्कि तुम्हें मुँह माँगी चीज मैं दे दूंगा। हे नटराज, वैसे मेरा तुम पर कोई अधिकार नहीं है / इसलिए मैं तुमसे यह मुगा जबर्दस्ती नहीं लेना चाहता हूँ। लेकिन तुम एक भले आदमी हो इसलिए मुझे पूरा विश्वास ह कि तुम मेरी बात मान कर मेरी माँग पूरी कर दोगे और मेरी बेटी की खुशी के लिए यह मुगा मुझ दे दोगे। नटराज शिवकुमार ने राजा की कही हुई सारी बातें शांति से सुन लीं और फिर राजा स कहा, हे नराधिप ! यह मुर्गा तो हमारा सर्वस्व है। इसलिए हम किसी भी हालत में यह मुगा ता आपको नहीं दे सकते हैं। फिर भी मैं आपकी ओर से हमारे मालिक मुर्गे से प्रार्थना करूँगा। यदि | हमारे मालिक मुर्गे की आपके पास रहने की इच्छा हो, तो हम खुशी से वह मुर्गा आपको अवश्य सौंप देगे। मैं अभी जाकर अपने मालिक मुर्गे से पूछ लेता हूँ। न राजा से इतना कह कर नटराज शिवकुमार अपने मुकाम के स्थान पर आया। उसने | अपनी पुत्री शिवमाला से राजा के यहाँ मुर्गे के बारे में हुई सारी बातें कहीं। जब मुर्गे के कानों में | यह बात पड़ी, तो वह मन में बहुत खुश हुआ। उसने सोचा, चलो, रोगी को जो बात पसंद है, वही खाने को वैद्य ने कहा। उसके मन में यह भी विचार आया कि वैसे इस मुर्गे के रूप में होते हुए, मेरे लिए इस विमलापुरी में आकर राजा और प्रियतम प्रेमलालच्छी से मिलना कैसे संभव हो सकता था ? पूर्वजन्म में किए हुए किसी पुण्य के फलस्वरूप ही यह सारी अनुकूल स्थिति निर्माण हो गई है। अब वास्तव में यह नटराज शिवकुमार मुझे यहां मेरी प्रियतमा प्रेमला को सौंप कर यहाँ / से जाएगा तो बहुत अच्छा होगा। = मुर्गे को अत्यंत प्रसन्नचित देखकर और उसके मन के भाव जान कर शिवमाला बहुत : खिन्न हो गई और मुर्गे से कहने लगी, हे स्वामी, मेरा ऐसा कौन-सा अपराध हुआ है, जो आप = मुझ पर ऐसे नाराज हो गए है। मैंने आपकी सेवा करने में कोई कसर नहीं रखी हैं ? मैंने अपने P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / चन्द्रराजर्षि चरित्र 177 गों की तरह आपका लालन पालन किया है। अनजाने में भी मैंने आपके प्रति कोई अपराध किया हैं / आपके कारण तो हमने अनेक राजा-महाराजाओं को नाराज भी किया है। मैं तो फ्को निरंतर अपने सिर पर लेकर ही घूमती हूँ। फिर भी यह बात मेरी समझ में ही नहीं ता है कि आप सोलह वर्षों के हमारे प्रेम के संबंध को त्याग कर यहाँ विमलापुरी में प्रेमला के च रहने के लिए एकदम कैसे तैयार हो गए ? : हे स्वामी, आप ही के आदेश से मैंने वीरमती से अन्य कोई इनाम न माँग कर आपको पलिया था। आपने भी अभी तक हमारे प्रति गहरे स्नेहभाव का संबंध बनाए रखा / अब ज ही आप हमसे अलग होने के लिए क्यों उत्सुक हो गए हैं ? आपके चले जाने के बाद मैं सकी सेवा करके अनुपम सुख पाऊँगी ? आप किसी ठग के मायाजाल में तो नहीं फँस गए हैं ? आज आपअचानक हमारे प्रति इतने नि:स्पृह क्यों बन गए हैं ? यदि आपको एक दिन हमसे तरह दूर ही होना था, तो हमारे प्रति इतना स्नेहभाव बताने की आवश्यकता ही क्या थी ? __ शिवमाला के अत्यंत तिलमिला कर कहे हुए इन दुःखपूर्ण वचनों को सुन कर चंद्र राजा ग) ने कहा, हे शिवमाला, तू ऐसा क्यों बोलती है ? देख, मैं कोई अज्ञानी जीव नहीं हूँ। मैं बकुछ जानता हूँ। मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ कि सज्जन की संगति समाप्त होना ष्यको काँटा चुभने की तरह दुःखदायी होती है। हे शिवमाला, तेरा मेरे प्रति जो स्नेह है वह आद्वितीय है, अवर्णनीय है। इस संबंध में मेरे मन में कोई आशंका नहीं है। तने प्राणघाती पत्ति में मेरी न केवल रक्षा ही की है, बल्कि दिनरात गहरे स्नेहभाव से मेरी सेवाटहल की है, लालनपालन किया है। तेरी सेवा में मैंने कभी स्वार्थभाव नहीं देखा। अब तक तूने अपने व का विचार तक नहीं किया। तूने हरदम मेरे ही सुख और सुरक्षा की चिंता की है, विचार या है। इसलिए हे शिवमाला, तेरी वर्षों की नि:स्वार्थ सेवा का बदला चुकाना तो मेरे वश को त नहीं है / इस दृष्टि से मैं बिलकुल असमर्थ हूँ। लेकिन मैं तुझे वचन देता हूँ कि अवसर इन पर मैं तेरी और तेरे पिता की अवश्य कद्र करूँगा। तेरा और तेरे पिता का दिया हुआ प्रेम आजीवन नहीं भूल सकूँगा / मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ कि सोलह वर्षों के स्नेह को ड़ना महा कठिन काम है। वैसे शिवमाला, तेरी संगति तो मुझे मेरे सौभाग्य के कारण ही मिली / ऐसी संगति का . त्याग करने की इच्छा तो वास्तव में किसी मूर्ख के मन में भी नहीं आ सकती। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 श्री चन्द्रराजर्षि चरि= लेकिन शिवमाला, ये सारी बातें जानते हुए भी मैं तेरा त्याग करने के लिए क्यों तैया हो गया, इसका रहस्य तुम पर प्रकट करने में मुझे कोई संकोच नहीं है। मैं खुले अंत:करणE सारी वस्तुस्थिति तुझे बताता हूँ, उसे तू ध्यान से सुन ले। हे शिवमाला ! विमलापुरी के राजा मकरध्वज की पुत्री प्रेमलालच्छी से सोलह वर्ष पहल मेरा विवाह हो चुका है। इस विवाह के कारण ही मेरी सौतेली माँ ने मुझे अपनी मंत्रशक्ति के बल पर मनुष्य से मुर्गा बना दिया। इस समय यह बात याद आते ही मेरा मन काँप उठता है, मर हृदय के टुकड़े हो जाते हैं। लेकिन कर्म के द्वारा दिया गया दुःख भोगे बिना किसको इस संसार में छुटकारा मिल सकता है ? कहा भी गया है - नाभुक्तं क्षीयते कर्मः। मेरी सौतेली माँ तो मेरे दुःख में सिर्फ निमित्त बनी है। मेरे दुखों का मुख्य कारण तो मेरे पूर्वजन्म में किए हुए कुकर्म ही हैं। हे शिवमाला, तू मुझे वीरमती के क्रूर पंजे में से छुड़ा कर यहाँ तक ले आई है / तरा उपकार तो मैं कभी नहीं भूल सकता। लेकिन मैं प्रेमला के वियोग से बहुत दु:खी हूँ। वह भी मेरे लम्बे विरह के कारण अत्यंत दु:खी है। मेरी प्रिया प्रेमला के मन में तो यह बात आती है कि अपने पति से मेरा पुनर्मिलन कभी होगा भी या नहीं? शिवमाला, इस प्रेमला के लिए ही में यहा / रहने का इच्छुक हूँ। मेरे यहाँ रहने का अन्य कोई कारण नहीं है। मेरी यह इच्छा तभी पूरी हा सकती है जब तू खुशी से मुझे प्रेमला को सौंप दे। तुझे दु:खी करके या तेरे दिल को दुखा कर ___ मैं यहाँ नहीं रहना चाहता हूँ / तू ही निर्णय कर ले! मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्रराजा की कही हई ये बातें सुन कर शिवमाला का मन आर | मुँह म्लान हो गया। उसके तनमन में उदासी व्याप्त हो गई। उसे ऐसा लगा कि मेरा सर्वस्व हा i लुट गया / शिवमाला की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वह सिसक-सिसक कर रा _पड़ी। शास्त्रकार कहते हैं - स्नेहमूलानि दुःखानि ! अर्थात्, दुःख का मूल स्नेह ही है। शिवमाला भी इसी चिरंतन सत्य का अनुभव कर रही थी। जो स्नेह करने में सुख मानता है, उसे स्नेह का नाश होने पर दु:ख अवश्य होता है। इस संसार की वस्तुओं से स्नेह करके कौन सुखी हुआ है ? मन का दुःख बहुत संयम से मन में ही छिपाते हुए और अपने आप पर नियंत्रण पाकर, हृदय को मजबूत बना कर सद्गदित कंठ से शिवमाला ने मुर्गे से कहा, हे आभानरेश, मुझे इस P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 179 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र बात का पता ही नहीं था कि आप प्रेमला के प्राणाधार पतिदेव हैं। अभी आपकी बातों से ही मुझे यह रहस्य पहली बार मालूम हुआ है। मैं चाहती हूँ कि यहाँ रह कर आपका और प्रेमला का कल्याण हो / मैं आपके सुख में बिलकुल बाधा नहीं बनना चाहती हूँ। मैं आपको यहाँ प्रेमला को खुशी से सौंप कर चली जाऊँगी / हे आभानरेश, मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि मेरे साथ रहने से आपको अपनी प्रिया की प्राप्ति हो गई। मेरे लिए यह बात कम आनंद देनेवाली नहीं है / मुझे तो ऐसा लग रहा है कि मेरी अब तक की सेवा और परिश्रम सफल हो गए। अपनी सेवा को सफल होते देखकर मैं अपना जीवन सार्थक मानती हूँ। मैं कृतार्थता का अनुभव करती हूँ। मुर्गा और शिवमाला इन दोनों के बीच जब यह वार्तालाप चल रहा था, तब अचानक राजा मकरध्वज अपनी पुत्री प्रेमलालच्छी के अनुरोध से वहाँ आ पहुँचा / शिवकुमार ने राजा को अपने डेरे में आते देखकर उसका स्वागत किया और उसे बैठने के लिए सुवर्ण का सिंहासन दिया / शिवकुमार की विनती स्वीकार कर राजा सिंहासन पर बैठा / शिवकुमार ने पूछा, महाराज, आप अचानक यहाँ कैसे आए ? यदि जरूरत थी तो मुझको बुला लिया होता ! आपने क्यों कष्ट किया, महाराज ? राजा मकरध्वज ने कहा, शिवकुमार, मैं तुम्हारे पास मुर्गा लेने आया हूँ। यदि तुम खुशी से मुर्गा दे दोगे तो मैं मानूँगा कि तुमने मेरी बात मान ली और मेरी पुत्री प्रेमला को जीवनदान दे दिया। नटराज, यदि तुम मुर्गा दे दोगे तो मैं आजीवन तुम्हारा उपकृत रहूँगा। अब मैं और क्या कहूँ ? . नटराज शिवकुमार ने राजा की बात सुन कर कहा, हे राजन्, इस मुर्गे को आप कोई सामान्य पक्षी मत समझिए / यह मुर्गा याने स्वयं आभानरेश ही हैं। इसीसे अभी तक उन्हें आपको सौंपने में मेरा मन हिचकिचा रहा था। लेकिन महाराज, जब आप स्वयं हमारे महाराज को ससम्मान ले जाने को आए हैं, तो मुझे उन्हें आपको सौंप कर ही आपका स्वागत करना चाहिए। इस समय मेरी स्थिति सरौते के बीच पड़ी हुई सुपारी जैसी हो गई है। शिवकुमार की बात बीच ही में रोक कर शिवमाला बोली, हे देव ! हमारे इन्हीं महाराज कारण हमने अभी तक अनेक राजाओं की नाराजगी मोल ली है। इन्हीं के कारण अनेक राजा हमारे शत्रु भी बन गए हैं। इनके लिए हमने बहुत कष्ट सहन किए हैं, दु:ख भोगा है। सलिए आपको इन्हें सौंपते हुए हमारा मन हिचकिचा रहा है और यह स्वाभाविक ही हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र लेकिन महाराज, आपकी कन्या प्रेमला मेरी सच्ची और अच्छी सखी है। इसलिए उसके सुखसंतोष और आनंद के लिए हम लोग आपकी प्रार्थना अस्वीकार नहीं कर सकते हैं। . हे राजन, आप खुशी से हमारे मस्तक के मुकुट स्वरूप होनेवाले मुर्गा राजा काला जाइए। मैं चाहती हैं कि हमारे महाराज आभानरेश और प्रेमला दोनों का कल्याण हो / लोकन महाराज, मेरी एक ही प्रार्थना है कि आप हमारे प्राणप्रिय महाराज की रक्षा अपने प्राणी सभा अधिक सावधानी से कीजिए। यह भी निश्चय ही मान जाइए कि ये आभानरेश ही हैं। उन्हें एक सामान्यपक्षी मान कर उनकी सेवा में बिलकुल प्रमाद मत कीजिए। प्रेम हरदम अपने प्रेमी को सुखी देखना चाहता है। सच्चा प्रेम वही है जो अपने प्रेमी के सुख से सुखी और दुःख से दु:खी होता है। इसी लिए शिवमाला राजा मकरध्वज को बार बार समझा रही थी। शिवमाला ने राजा मकरध्वज को आगे बताया, महाराज, इस मुर्गे से आपकी पुत्री का सकल मनोरथ पूर्ण होंगे। आपकी पुत्री के मनोरथों की पूर्ति केलिए ही मैं यह कल्पवृक्ष आपके करकमलों में सौंप रही हूँ / इतना कह कर शिवमाला ने पिंजड़े के साथ मुर्गे को आदर से महाराज मकरध्वज के हाथ में सौंप दिया। इच्छित बात इस तरह पूर्ण होते देख कर राजा मकरध्वज के आनंद का पार न रहा। नटराज शिवकुमार और शिवमाला के प्रति अत्यंत कृतज्ञता का भाव बार बार व्यक्त करते हुए राजा सोने के पिंजड़े में मुर्गे को लेकर अपने राजमहल में आ पहुँचा और उसने तुरंत अपनी पुत्री प्रेमलालच्छी के महल में पहुँच कर पिंजड़े के साथ मुर्गे को प्रेमला के हाथ में रख दिया। राजा मकरध्वज ने प्रेमला से कहा, देख बेटी, इस मुर्गे की बहुत सावधानी से देखभाल = कर / किसी तरह से इसे परेशानी न हो, समझी। किसी निर्धन को रत्नचिंतामणि हाथ में आए तो जितना आनंद होगा, उससे भी अधिक आनंद प्रेमला को मुर्गा हाथ में पड़ते ही आया। इस अनोखे मुर्गे को पाकर प्रेमला नटराज शिवकुमार और उसकी पुत्री शिवमाला को बार बार धन्यवाद दे रही थी और मन-ही-मन बहुत खुश हो रही थी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 181 राजा ने जैसे ही मुर्गे का पिंजड़ा प्रेमला के हाथ में दिया, वैसे ही प्रेमला ने मुर्गे को पिंजड़े में से बाहर निकाला और उसे अपने हाथ पर बिठा कर वह उसके सामने अपना दुःख प्रकट करने लगी। हे कुक्कुट ! तु मेरे ससुराल का सर्वोत्तम पक्षी है। आज सोलह वर्षों के बाद मेरी अपने ससुराल के प्राणी से मुलाकात हो रही है। तेरे नगर के राजा मेरे पति हैं। लेकिन जैसे कोई भिखारी हाथ में आया हुआ रत्न खो देता है, वैसे ही मैंने भी अपने हाथ में आए हुए अपने पति को खो दिया है। पतिवियोग के दु:ख और संताप से मेरे शरीर में कमजोरी आई है और मैं सिर्फ हड्डियों का कंकाल रह गई हूँ। मेरे इस दुर्बल शरीर को तू भी देख सकता है। मैंने पति के छोड़ जाने के बाद पिछले सोलह वर्षों से सारा साज-शृंगार त्याग दिया है। मैं प्रतिदिन भूमि पर ही सोती हूँ ।पति से मिलने के लिए मैं निरंतर जप-तप-व्रत और प्रभु भक्ति करती हूँ। लेकिन इतनी तपश्चर्या करने के बाद भी अब तक मुझे अपने पतिराज के दर्शन नहीं मिले हैं। न जाने मैंने उनका ऐसा कौन-सा अपराध किया है कि अभी तक उन्होंने मेरी खबर नहीं ली है, मेरी याद नहीं की है ? मेरे पतिराज ने रात के समय मेरे साथ विवाह किया और तुरंत एक कोढ़ी पुरुष के हाथ ने मुझे सौंप कर वे तो चले गए, वे वापस नहीं आए ! लेकिन मैं नहीं मानती कि ऐसा बर्ताव मेरे साथ करने से उनकी प्रतिष्ठा में कोई वृद्धि हुई होगी। इसके विपरीत, ऐसा वर्ताव करके उन्होंने मेरा जीवन नष्ट कर डाला। भगवान जाने, उनको ऐसा करने को किसने सिखाया ! यदि उन्हें तुझे छोड़ कर तुरंत ऐसे दूर-दूर जाना ही था, तो फिर उन्होंने मेरे साथ विवाह क्यों किया ? हे पक्षिराज ! मैंने तो तेरे राजा जैसा बिलकुल स्नेहरहित और नीरस पुरुष कोई दूसरा नहीं देखा। विवाह के बाद सोलह वर्ष बीत गए, वे एक बार भी मुझसे मिलने के लिए तो नहीं भाए, लेकिन एक बार पत्र भेज कर भी उन्होंने मेरा क्षेमकुशल तक नहीं पूछा / न उन्होंने पत्र ने न हो किसी दूत के साथ मुझे अपना समाचार भेजने का ही कष्ट किया। कहाँ आभापुरी और हाँ विमलापुरी ? पूरब-पश्चिम का अंतर है। मैं इतनी दूरी पर होनेवाली आभापुरी जाऊँ तो से ? ___हे पक्षिराज ! ऐसा काम तो कोई शत्रु भी नहीं करता है / मैं इतनी दूरी पर जा नहीं कती हूँ और वे यहाँ आ नहीं सकते हैं। ऐसी स्थिति में मैं अपने दिन किस तरह व्यतीत करूँ पति के जीवित होते हुए भी मैं पिछले सोलह वर्षों से एक विधवा का जीवन जी रही हूँ। P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र . हे पक्षिराज, क्या इस दुनिया में ऐसा कोई परोपकारी पुरुष नहीं है जो आभापुरी में जाकर मेरे पतिराज कोसमझा कर उनके कठोर हृदय को कोमल बनाए ? सोलह-सोलह वर्षों की लम्बी अवधि बीत जाने के बाद भी उनके हृदय में मेरे प्रति प्रेम का भाव उत्पन्न नहीं हुआ / ऐसा लगता है कि मेरे पतिराज का हृदय वज्र जैसा कठोर है। मुझसे विवाह करके आभानरेश के चले जाने के बाद मेरे पिता ने मुझे बहुत परेशान किया। मेरे और उनके प्रबल पुण्य के प्रताप से ही मैं प्राणाघाती कष्टों से भी बच गई। अन्यथा, मैं कब की परलोक सिधार गई होती! लेकिन हे पक्षिराज, मेरे पिताने मेरे साथ किए हुए अन्याय के विरुद्ध मैं किसके पास शिकायत करूँ ? मुझे न्याय कैसे मिलेगा ? कौन देगा ? . हे पक्षिराज, इस जगत् में प्रेम करना आसान है, लेकिन प्रेम करके उसे निभाना बहुत कठिन है। सचमुच, जिनके हृदय में प्रेम ही नहीं होता, उनके साथ प्रेम करना याने दु:ख को निमंत्रण देने के समान है। तू मेरे स्वामी के घर का पक्षी है इसलिए तुझे देख-देखकर मेरे हृदय को शांति मिलती है। तुझे देखकर आज मुझे उतना ही आनंद प्राप्त हो रहा है.जितना प्रत्यक्ष | रुप में मेरे पति को देखकर और उनसे मिलकर मिल जाता! . हे पक्षिराज, ऐसा लगता है कि तू मेरे पूर्वजन्म का कोई मित्र है। ऐसा न होता, तो मेरे हृदय में तुझे देख कर ऐसा स्नेह का सागर क्यों उमड़ आता ? तेरे प्रति मेरे मन में गहरा स्नेहभाव उत्पन्न हुआ है। इसीलिए मैं तेरे सामने अपना सारा दुखड़ा रो रही हूँ। तुझे अपने मन की सारी गुप्त बातें बता रही हूँ। हे कुक्कुट, तुझे देख कर आज मेरे मन को परम शांति मिल रही है / मेरे मन में ऐसा आ रहा है, मानो मैं एक पक्षी को नहीं बल्कि प्रत्यक्ष रूप में अपने पति को ही देख रही हूँ। लेकिन हे पक्षिराज! तू उनके समान निष्ठूर मत बन। डूबते हुए को नौका मिलने से जैसे उसका डूबने से बचाव होता है, उद्धार होता है, वैसे ही मुझे तू मेरे महाभाग्य से मिला है और मेरा उद्धार ही हो गया है। प्रेमला को प्रेम की पुष्टि करनेवाली ये सारी बातें सुन कर मुर्गे के हृदय पर गहरा असर हुआ। लेकिन इस समय वह पक्षी के रुप में था, इसलिए वह मनुष्य की भाषा में प्रत्युत्तर न दे सका। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रराजर्षि चरित्र 183 प्रमला को सोलह वर्षों के बाद उसका पति तो मिला लेकिन वह पक्षी के रूप में था। जब मान्मत्त होकर मुर्गे के सामने अपना दुखड़ा रो रही थी, तभी शिवमाला वहाँ आ पहुँची। शिवमाला ने आते ही मुर्गे को बड़े प्रेम से अपनी गोद में बिठाया और वह उसके सारे पर सुगधित द्रव्य का लेप करने लगी। उसने मुर्गे को खाने के लिए सुखड़ी, मेवा, मिठाई परखा। फिर उसने मुर्गे के मनोरंजन के लिए एक गीत मधुर कंठ से गाकर उसे सुनाया। 'प्रकार मुर्ग को खुश कर के शिवमाला ने प्रेमला से कहा, देखिए प्रेमला जी, आपकी तुर्मास के इन चार महीनों के लिए ही इस मर्गे को अपने पास रखना है। चातुर्मास पूरा होने बाद तुरन्त हम अपने महाराज को अपने साथ लेकर ही यहाँ से आगे जानेवाले हैं। प्रेमला जी, इन चातुर्मास के चार महीनों में आप इस मुर्गे से प्रेम कीजिए, उसका लालनलन कीजिए / लेकिन, मैं हररोज यहाँ उनके दर्शन करने के लिए नियमित रूप से ॐगा। चातुर्मास के इन चार महीनों में तम्हारी मनोकामना परी हई. तो मैं हरदम के लिए इस का आपके पास रख कर यहाँ से चली जाऊँगी। फिर कभी उसे वापस नहीं माँगूंगी। क्यों बहन, मैं ठीक कह रही हूँ न ? इतना कह कर शिवमाला तो वहाँ से चली गई। लेकिन शिवमाला को रहस्यगर्भित तों का भावार्थ प्रेमला की समझ में नहीं आ पाया। बेचारी प्रेमला को अभी इस बात का पता था कि यह मुर्गा ही सोलह वर्ष पहले उससे बिछुड़ा हुआ उसका पति है, आभानरेश राजा द्र है। प्रेमला तो पहले की तरह मुर्गे को अपनी गोद में बिठा कर उसका लालन पालन करने / तल्लीन हो गई। उसका यही क्रम लगातार कितने ही दिनों तक बराबर चलता रहा। / वर्षा ऋतु के दिन थे। आकाश में काले-काले बादल उमड़ कर आए थे। बादलों की जना सुनाई दे रही थी। बीच बीच में बिजली का चमकना भी प्रारंभ हो गया था। थोड़ी ही देर मूसलाधार वर्षा प्रारंभ हो गई। चारों ओर पानी ही पानी भर गया / ग्रीष्म ऋतु के ताप में लता हुई संतप्त धरती की आग शांत हो गई। लेकिन पतिविरह के ताप में जलती हुई प्रेमल न हृदय शांत न हुआ, बल्कि उसकी जलन और बढ़ गई। शिवमाला जो रहस्यगर्भित वचन बोल कर उस दिन चली गई थी, उसपर बार बा बतन करते हुए प्रेमला को ख्याल आ गया कि यह मुर्गा ही मेरा पति आभानरेश चंद्र है P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 ___ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र इसलिए अब मुर्गे को अपना पति जान कर और आँखों में आँसू भर कर प्रेमला मुर्गे से कहन। लगी, हे प्राणनाथ ! आप आए, बहार आ गई ! मैं आपका हार्दिक स्वागत करती हूँ। अबकृपा कीजिए और मुझे छोड़ कर फिर कभी दूर मत जाइए / अब फिर कभी इस दासी को भूल मत .. जाइए। अब से मैं आपकी सेवाभक्ति में अपनी ओर से कोई कसर नहीं रखूगी। आपकेप्रत्यक्ष रूप से मिलने से आज मुझे ऐसा लग रहा है कि साक्षात् परमात्मा के दर्शन कर रही हूँ। अब से मैं कभी आपको नहीं छोडूंगी। आप भी कृपा करके मुझे छोड़कर मत चले जाइए। समय बीतता गया। चातुर्मास के चार महीने समाप्त हुए / वर्षा ऋतु बीत गई / अब प्रेमला ने सर्वसुखदाता सिद्धाचलजी की यात्रा करने क निश्चय किया। विमलापुरी सौराष्ट्र में हा स्थित थी। इसलिए विमलापुरी से सिद्धाचलजी तीर्थक्षेत्र निकट ही पढ़ता था। प्रेमला ने अपना सभी सखियों को भी अपने साथ सिद्धाचलजी की यात्रा के लिए चलने का निमंत्रण दिया। इसी समय अचानक विमलापुरी में एक ज्योतिषी आया / ज्योतिषी जब राजमहल म आया सो प्रेमला ने ज्योतिषी के पास जाकर प्रश्न किया, ज्योतिषीजी, क्या आप बता सकेगाक | मुझे मेरे पति के दर्शन फिर कब होंगे ? क्या मेरे पति से मेरा मिलन होगा ? ज्योतिषी ने विनम्रता से कहा, हे राजकुमारी जी, मैं आपके लिए ही ज्योतिषशास्त्र सीखने को कर्णाटक देश में गया था। वहाँ अनेक ज्योतिषशास्त्रों का अध्ययन करके मैं आज हा विमलापुरी लौट आया हूँ। आपके निमंत्रण के बिना ही, आपके पूछे हुए इस प्रश्न का उत्तर दन के उद्देश्य से ही में यहाँ आया हूँ। हे राजकुमारी, आपको अपने पति के दर्शन कल या आज हा हो जाएँगे। यदि मेरा भविष्यकथन सत्य सिद्ध हो गया तो आपको मुझे धन्यवाद और बड़ा इनाम देना होगा और मेरी ज्योतिषीविद्या की प्रशंसा करनी होगी। ठीक है न ? . प्रेमला ने ज्योतिषी के कथन की हामी भरी। तब ज्योतिषी ने फिर से कहा, ऽहे राजकुमारी, मैं छाती ठोंककर निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि मेरी कही हुई भविष्यवाणी कभी झूठ सिद्ध नहीं हो सकती है। मुझ जैसे ज्योतिषी की वाणी पर आपको आशंका नहीं करनी चाहिए।रु .. ज्योतिषी की निश्चयपूर्ण बातें सुन कर प्रेमलालच्छी मन में अत्यंत हर्षित हुई / इस हर्ष = में प्रेमला ने ज्योतिषी को अच्छा-सा पुरस्कार दिया और उसे ससम्मान रवाना कर दिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 185 प्रेमला ने अब अपने निश्चय के अनुसार सिद्धाचलजी की यात्रा के लिए जाने को अपने पिता से आज्ञा ले ली। उसने अपनी अनेक सखियों को अपने साथ ले लिया और एक दिन शुभ मुहूर्त देख कर उसने शत्रुजय की ओर प्रस्थान किया। उसने अपने साथ सोने के पिंजड़े में मुर्गे को भी ले लिया था। सिद्धगिरि की चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते प्रेमला ने मुर्गे को पिंजड़े में से बाहर निकाला और उसे हार्दिक प्रेमभाव के साथ अपने हाथ पर बिठाया / जब मुर्गे ने तीर्थधिराज सिद्धचलजी का प्राकृतिक सुंदरता से घिरा हुआ द्रश्य देखा, तो वह आनंद विभोर हो गया। इस महा तीर्थक्षेत्र का दर्शन करने का अवसर प्राप्त होने से वह अपने जीवन को सार्थक मानता रहा। सिद्धगिरि ऐसा महान् तीर्थाधिराज है कि उसे देखते ही पाप का पुंज पलायन कर जाते हैं। उसे प्रणाम करने से दुर्गति के दरवाजे बंद हो जाते हैं। अनंत मुनियों ने इस तीर्थक्षेत्र पर आकर अनशन किया और शाश्वत सुख का धाम ही होनेवाली मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कर लिया। प्रेमला ने सिद्धगिरि पर ऊपर और ऊँचाई की ओर चढ़ते-चढ़ते शिवपद के शिखर के समान होनेवाला श्री ऋषभदेव भगवान का मंदिर देखा / मानो मोक्षमंदिर में प्रवेश कर रही हो, ऐसी रीति से प्रेमला ने अपनी सभी सखियों और मुर्गे के साथ भगवान ऋषभदेव के मंदिर में तीन बार निसीहि कह कर हर्ष के साथ प्रवेश किया। मंदिर में प्रवेश करने के बाद उसने युगादिदेव ऋषभदेव भगवान की तीन परिक्रमाएँ की। फिर भगवान के दर्शन वंदन-स्तुति का गान करके उसने प्रथम तीर्थकर भगवान की अष्टम प्रकारी पुजा की / मुर्गा भी ऋषभदेव के दर्शन के हर्ष से नाच उठा / मूलनायक ऋषभदेव भगवान की भक्ति कर प्रेमला मुख्य मंदिरों से बाहर निकली। मुर्गे के साथ वह अन्य-अन्य मंदिर में गई और वहाँ दर्शन-वंदन-स्तुति करके सब मिल कर खिरनी के पेड़ के पास आई। ऋषभदेव भगवान के चरणरज से पवित्र हुए इस वृक्ष की तीन परिक्रमाएँ करके उन्होंने वृक्ष को वंदन की। फिर ऋषभदेव भगवान की पादुकाओं को प्रणाम कर प्रेमला अपनी सखियों के साथ मुर्गे को लेकर घूमते-घूमते सूरजकुंड देखने के लिए चली गई। सब सखियाँ सूरजकुंड के पास पहुंच गई। निर्मल जल से भरपूर, कमलपुष्पों से सुशोभित होनेवाले सूरजकुंड को देख कर प्रेमला को प्रतीत हुआ कि यह तो समतारस से भरपूर होनेवाला कुंड है। सुंदर सूरजकुंड के पवित्रजल को स्पर्श कर प्रसन्न हुई प्रेमला वहाँ सूरजकुंड के किनारे पर अपनी सखियों के साथ बैठी। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ 186 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र उस समय सूरजकुंड पर शीतल और मंद-मंद गति से बहनेवाली सुगंधिक वायु की तरंगे आ रही थी। प्रेमला के हाथ में कुक्कुटराज आराम से बैठे थे / वहाँ बैठे-बैठे सब को स्वर्गीय सुख का अनुभव प्राप्त होने लगा। सूरजकुंड को देख कर बहुत प्रसन्न लगनेवाले मुर्गा राजा को यकायक अपने भूतकाल और वर्तमानलकाल का स्मरण हो आया और उसके मन में एक के बाद एक पूर्वजन्म की स्मृतियाँ आने लगी। इससे खिन्न होकर वह मन में सोचने लगा। हाय ! इस प्रकार मैंने तिर्यच (पक्षी) की अवस्था में अपने जीवन के सोलह वर्ष बिता दिए, अनेक प्रकार की कठिनाइओं का मैंने सामना किया। लेकिन अबतक मुझे सुख के सूर्य के दर्शन नहीं हुए। ऐसी ही कठिनाइयों में जाने और कितने वर्ष व्यतीत करने पड़ेगे ? कहाँ मेरी पटरानी गुणावली ? कहाँ मेरी आभापुरी का राजमहल ? कहाँ मेरे स्वजन संबंधी ? कहाँ मेरी सेना ? कहाँ मेरा राज्य ? इन सबके होते हुए भी इस समय इनमें से कोई मेरे काम का नहीं रहा हैं। मेरी सौतेली माँ वीरमती तो मेरी बैरिन ही है। वह तो मुझे जान से जान से मार डालने की ही इच्छा निरंतर रखती है। उसीने तो मेरी यह दुर्दशा कर दी है। यह सारा संसार स्वार्थ से भरा हुआ है। सबको अपना-अपना स्वार्थ प्रिय है। यह संसार असार है ! इस संसार में कोई सुख नहीं है / कोई सार नहीं है। इन नटों ने मुझे देश-विदेश में बहुत बहुत घुमाया। लेकिन अभीतक मेरे अशुभ कर्म का ___ अंत नहीं आया। मैं मनुष्य नहीं रहा, बल्कि एक हतभागा मुर्गा हो गया। इस समय मुझे दूसरों की दया पर जीना पड़ रहा है। एक समय था, जब मेरी दया पर लाखों जीते थे ; मैं लाखों को मुँहमाँगा दान देता था। आज मुझे दूसरों से अन्नदान, वस्त्रदान स्थानदान लेना पड़ता है ; अपने हर काम के लिए दूसरों का मुँहताज होना पड़ता है। .. आज सबको देनेवाला ही लेनेवाला बन गया है, लाचार बन गया है / दाता ही याचक बन गया है। एक समय मैं लाखों का रक्षक था, आज मेरी रक्षा दूसरों को करनी पड़ रही है / पहले मैं सब पर हुक्म चलाता था, आज मुझे दूसरों के हुक्म के अनुसार चलना पड़ रहा है / अब तक मैं स्वाधीनता का स्वामी था, स्वतंत्र था, लेकिन आज मुझे दूसरों की पराधीनता स्वीकार करनी पड़ रही है, मैं प्रसन्न हो गया हूँ। राज्यसंपत्ति का स्वामी था मैं, लेकिन आज मुझे कदम कदम पर विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 187 मेरे जीवन की युवावस्था के इतने वर्ष पक्षी के रूप में बीत गए, लेकिन आज भी मुझे फिर से मनुष्य का रूप प्राप्त होने की आशा नहीं दिखाई देती है / आशा करते हुए-उसी पर विश्वास रख कर अब मैं कब तक जीऊँगी ? यह प्रेमलालच्छी मेरी पत्नी है। लेकिन उसीके / पास लाचार पंछी के रूप में रहने मुझे जहर जैसा लग रहा है। __. जब-जब मैं प्रेमला को देखता हूं, तब-तब मेरे हृदय में विरह का दाह उत्पन्न होता है। मैंने अपना सारा यौवन व्यर्थ ही खो दिया है। अपने जीवन में भोगे हुए दुखों की यादें मेरे हृदय के सौ-सौ टुकड़े कर डालती है। ऐसी अवस्था में लाचारी का जीवन जीने से मरना अच्छा है ! पक्षी बन कर जिंदा रहने की अपेक्षा मृत्यु का आलिंगन करना हजार गुना अच्छा है। क्या मैं इस महापवित्र पानी से भरे हुए सूरजकुंड में जलसमाधि ले लूँ ? इससे मेरे जीवन के सभी दु:खों का अंत आ जाएगा और कल्याण होगा। इस जगत् में कौन किसका हैं ? किसकी माता ? किसका पिता ? किसकी पत्नी ? किसका पति ? किसकी नगरी ? किसका राज ? यह सब तो बस मोहराजा का फैला हुआ माया जाल ही है ! अब ऐसी अवस्था में कबतक जिंदा रहूँ ? सि असार संसार में सब लोग स्वार्थ के सगे हैं। कोई अपना नहीं है, सब पराए हैं, पराए हैं। . इस प्रकार चिंतन करते-करते मुर्गे के मन में विरक्ति की भावना ने जोर पकड़ लिया। उसके मन में सूरजकँड में कुद कर, जलसमाधि लेकर मृत्यु का आलिंगन करने का विचार पक्का हो गया। उसने आव देखा न ताव, वह प्रेमला के हाथ में से छूटा और सीधा सूरजकँड में कूदा। अचानक हुई घटना के कारण प्रेमली तो एकदम घबरा गई। वह जोरजोर से चिल्लाने लगी। सिसक-सिसक कर रोते हुए वह कहने लगी, हे प्राणनाथ / आपने ऐसा क्यों किया / अब मैं विमलापुरी लौट कर शिवमाला और उसके पिता शिवकुमार को अपना मुँह कैसे दिखाऊ ? वे मुझे कितना दोष देंगे, कैसे भला-बुरा कहेंगे ? . हे नाथ, में ने आपको बिलकुल कष्ट नहीं दिया। मैं ने तो जब से आप मेंरे पास आए, तब से आपकी तन-मन-धन से पूरी लगन से सेवा की मैं ने तो आपको अपने हृदय का हार मान लिया था। फिर हे स्वामी, ऐसा अचानक क्या हो गया, जो आप एकदम सबका स्नेह त्याग कर पानी से भरे हुए कुंड में कूद गए ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हे नाथ, मुझे तो लगता है कि आपने मेरे प्रेम की परीक्षा करने के लिए ही ऐसा किया। तो में भी आपकी प्रेम की परीक्षा मे उत्तीर्ण होने के लिए आपके पीछे आती हूँ। इतना कह कर पति मुर्गे के पीछे प्रेमला भी सूरजकुंड के अथाह जल में कूद पडी। उसने ऐसा करते समय मन में यही निश्चय किया था कि जो गति उनकी, वही मेरी हो। प्रेम की परीक्षा संकट के समय में ही होती है। सुख और वैभव की स्थिति में तो सभी प्रेम व्यक्त करने के लिए आ पहुँचते हैं, लेकिन संकट के समय में कोई विरला ही प्रेमी के पीछे उसकी मदद के लिए दृढ़ता से खड़ा रहता है। ... मुर्गे के पीछे प्रेमला के भी सूरजकुंड में कूद पड़ने की दुर्घटना देख कर प्रेमला की सखियाँ अत्यंत भयभीत हो गई। उनके रोने-चिल्लाने से सूरजकुंड के किनारे पर कोलाहल मच गया। रोने चिल्लाने की आवाजें सुनकर अड़ोस-पड़ोस के लोग वहा दौडते हुए आए। सारे वातावरण में हाहाकार मच गया। लोग तरह-तरह से बातें करने लगे। इधर मुर्गे के पीछे सूरजकुंड में कूद पड़ी प्रेमला ने मुर्गे को बचाने के लिए जीतोड मेहनत शुरू कर दी। जब प्रेमला पुर्गे को पकडने लगी। तब वीरमती ने उसके पाँव में मंत्र डालकर बाँधा हुआ धागा प्रेमला के हाथ के धर्षण से टूट गया। इसी के हाथ मूर्गे की अशुभ कर्म की बेडियाँ भी टूट गई / वह मूर्गे से एकदम मनुष्य बन गया। चाहे सूरजकुंड के पवित्र जल का प्रभाव कहिए, या विमलाचल महातीर्थ के पावन स्पर्श का प्रभाव कहिए, लेकिन यहाँ चंद्रराजा / के दुःख का अंत आ गया। | अचानक मुर्गे का मनुष्य बनने का चमत्कार देख कर वहाँ उपस्थित सब लोग दंग रह गए / इसी समय लोगों ने एक ओर चमत्कार देखा। शासनदेवी अचानक वहाँ प्रकट हुई। उसने प्रेमला और उसके पति आभानरेश राजा चंद्र को सूरजकुंड में से सही सलामत बाहर निकाला / उन दोनों ने जब शासनदेवी को झुक कर प्रणाम किया, तो शासनदेवी ने दोनों को आशीर्वाद देकर उन पर पुष्पवृष्टि की। सूरजकुंड में से बाहर आते ही प्रेमला ने यह पहचान लिया था कि मुर्गे में से रूपांतरित हुआ मनुष्य अन्य कोई नहीं, बल्कि सोलह वर्ष पहले रात के समय जिससे उसका विवाह हुआ था, वेही आभानरेश राजा चंद्र हैं / सुधबुध भूल कर वह अपने प्राणनाथ को एकटक दृष्टि से देखती ही रही। पति से पुनर्मिलन का ऐसा आनंदसागर उसके हृदय में उमड़ पड़ा कि पति के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र ___189 ! साथ बातें करने का साहस भी वह न कर सकी, चुपचाप पति को अपनी आँखों से पीती ही / रही ! देखती ही रही !! प्रेमला की प्रेमोन्मत्तता देख कर वहाँ विद्यामान लोगों को ऐसा लग रहा था मानो यह प्रेमला किसी भी क्षण अपने पति राजा चंद्र के हृदय में प्रवेश कर जाएगी। प्रेमला ने पिछले सोलह वर्षों से जो जप-तप-व्रत किया था, जो कड़ी साधना की थी, वह आज फलवती हो गई। आज उसकी सभी आशाएँ पूरी हुई, सभी मनोकामनाएँ फलद्रुप हुई। इधर सोलह वर्षों की लम्बी अवधि तक मुर्गे के रूप में रहने के बाद अचानक हुई इस मनुष्यत्व की प्राप्ति के कारण आभानरेश राजा चंद्र की प्रसन्नता का पार नहीं था। यह शुभ समाचार वायु की गति से क्षण भर में विमलापुरी तक पहुँच गया। इतना ही नहीं, बल्कि चारों दिशाओं में फैल गया यह शुभ समाचार ! इस महातीर्थ के अधिष्ठायक देवों ने आकाश में से चंद्र राजा पर पुष्पवृष्टि की और उसे दिव्य वस्त्रालंकार उपहार के रूप में दिए। इस घटना के कारण आसपास से दूरदूर तक इस तीर्थक्षेत्र की महिमा खूब फैल गई। इस चमत्कार से सूरजकुंड के पानी की महिमा भी बढ़ी और उसकी ख्याति भी बढ़ी अपने प्रिय पति के पास खड़ी प्रेमला ऐसी लग रही थी मानी इंद्र के पास इंद्राणी खड़ी ही। ऐसा लग रहा था मानो कामदेव के साथ उसकी पत्नी रति खड़ी हो। प्रेमला के सभी सगेसंबंधी उसके सौभाग्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे। प्रेमला की सखियाँ तो कहने लगी कि हे सखी, ऐसा पति तो त्रिभुवन में तेरे ही भाग्य में हैं। बहन, तेरा भाग्य बड़ा अद्भूत हैं। आज तेरी तपश्चर्या फलवती हो गई है। आज तेरे लिए सोने का सूरज उदित हो गया है / आज तेरी सारी आशाएँ सफल हो गई हैं तुझे पतिविरह का जो दुःख भुगतना पड़ रहा था उसका हमें भी बड़ा दु:ख था, लेकिन आज तुझे तेरे पतिदेवता फिर से प्राप्त हो गए, इससे हमारे भी आनंद का कोई पार नहीं रहा है। अब प्रेमला ने इतनी देर के बाद जैसे होश में आकर पहली बार मुँह खोला / उसने लज्जा से अवनत मुख से और हाथ जोड़ कर विनम्रता से अपने पतिदेव आभानरेश से कहा, हे प्राणनाथ / आप सूरजकुंड के पवित्र पानी से स्नान कीजिए। फिर पूजा के साफुसुथरे कपड़े पहनिए और मुखकोश बाँध कर सबसे पहले ऋषभदेव भगवान की महामंगलकारी अष्टप्रकारी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र पूजा कीजिए। आज इस भगवान की कृपा से-दया से ही हमारा सारा दुःख नष्ट हो गया है / इस भगवान की दया से आज हमें सकल सुख संपत्ति की प्राप्ति हो गई। इसी गिरिराज के अचिन्त्य प्रभाव से आज हमारी सभी आशाएँ सफल हुई हैं। इसलिए इस गिरिराज का भी मोतियों से सम्मान कीजिए। हे नाथ, भगवान की भक्ति के रस से समकित रूपी वृक्ष का सिंचन कीजिए / ऐसा करने से ही नवपल्लवित समकितरूपी वृक्ष पर सर्वविरति का फल आएगा। जिनपूजा का फल सर्वविरति ही हैं। चंद्र राजा ने अपनी प्रिय पत्नी प्रेमला की कही हुई बातें सहर्ष स्वीकार कर ली। दोनों ने मिल कर एक साथ सूरजकुंड के पवित्र जल से स्नान किया। दोनों ने पूजा के वस्त्र पहन लिए, मुखकोश बाँधा और उत्तमोत्तम द्रव्यों का उपयोग कर अत्यंत भक्तिभाव से और श्रद्धा से भगवान ऋषभदेव की अष्ट प्रकारी पूजा की। दोनों ने मिल कर स्नात्रमहोत्सव भी किया। दोनों ने भगवान की प्रतिमा के सामने चामरनृत्य किया। भगवान की स्तुति-वंदना-चैत्यवंदन आदि करके दोनों ने भावपूजा से अपने मानवजीवन को सफल कर लिया। ऋषभदेव भगवान की स्तुति करते हुए कृतज्ञ चंद्रराजा ने भगवान से उद्देश्य कर कहा, हे त्रिभुवनतारक ! हे दयासागर ! ! हे त्रिभुवनबंधु ! हे अपूर्व कल्पतरु ! ! हे त्रिभुवननायक !! ! तेरे चरणकमलों की सेवा में तो सभी सुरेन्द्र भी लीन रहते हैं / हे अनंत गुणनिधि ! हे परमात्मा !! तेरी आज्ञा तीनों भुवनों में चलती है। सारे संसार पर तेरा ही एकछत्र साम्राज्य है / तेरे नामरूपी वज्र के प्रहार से प्राणियों के बड़े-बड़े पापों के पहाड़ भी टूट पड़ते हैं। तुझे प्रणाम करने से दुःख-दुर्भाग्य-दरिद्रता-दुर्गति पलायन कर जाते हैं। तेरे प्रति श्रद्धा और पूजा का भाव रखने से भक्त को सुख-संपत्ति-समाप्ति (शांति) - सद्गति प्राप्त हो जाती हैं। तेरे चरणों की पूजा से पूजक पूज्य बन जाता है / तेरी आज्ञा का पालन करनेवाला परमेश्वर बन जाता है / हे प्रभु, तेरी आरती उतारनेवाला दुष्कर भवसागर तैर कर पार हो जाता हैं / तेरे सामने दीपक जलानेवाला अपनी आत्मा में ज्ञानदीपक प्रकट करता है। है प्रभु, तू ही सचमुच देवाधिदेव है। तेरे गुणों का कोई पार नहीं है, तेरी महिमा अपार है, तेरा प्रभाव अचिंत्य हैं। . हे प्रभु, तू ही भवसागर में डूबनेवाले प्राणियों के लिए श्रेष्ठ जहाज के समान हैं / तू ही सर्वश्रेष्ठ नियामक है। तू ही यह भीषण भवाटनि पार करानेवाला श्रेष्ठ सार्थवाह हैं। सभी प्रकार की संपत्ति का तू एकमात्र कारण है। हे भगवन् तू दुखीजनवत्सल है, अशरणों के लिए शरण __ है, निराधारों का आधार है, जिसका कोई नहीं, उसका बंधु है। .. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 191 हे नाथ, मैं तेरी शरण में आया हूँ। हे प्रभु, मुझे यथाशीघ्र इस अनंत दु:खमय संसारसागर से पार उतार दे। हे भगवन्, मुझे यह आशीर्वाद दे कि मैं इस संसार के मोहमायाजाल में फँस न जाऊँ ! मेरे हृदय में तेरे प्रति भक्तिभाव अखंड बना रहे। हे प्रभु, अनेक जन्मों में निरंतर भटकता हुआ मैं अब तेरी शरण में आ गया हूँ। तू - यथाशीघ्र मेरे सांसारिक दुःखों का नाश कर दे। हे नाथ, मुझे शीघ्रातिशीघ्र शिवसुख प्रदान कर.. दे। आज तेरे ही अचिंत्य प्रभाव के कारण मैंने सोलह-सोलह वर्षों का समय पक्षी के रुप में बिता / कर आज फिर से आपके चरणों की सेवा के लिए मनुष्य का रुप प्राप्त कर लिया है। राज्य का सुख तो में ने भूतकाल में लम्बे समय तक और कई बार प्राप्त किया हैं। लेकिन मुझे इससे कोई तृप्ति नहीं मिली। हे प्रभु, अब यदि मैं तेरे त्याग के मार्ग पर चलूँगा, तभी मेरी आत्मा अपने ज्ञानादि गुणों / से तृप्त हो सकेगी। हे प्रभु, मेरे सांसरिक संताप को शांत कर दे। हें ईश्वर, तू अनाथों का नाथ है, गूणरूपी मणियों के लिए तू रोहणाचल है, कर्मरूपी केसरी (सिंह) का नाश करनेवाला तू अष्टापद है। हे अनंतशक्ति के स्वामी, हे भगवान्, मेरी तेरे चरणों में अंत में एक ही प्रार्थना है कि अगले जन्म में मुझे तेरे ही चरणकमलों की सेवा करने का अवसर मिले। इस तरह चंद्र राजा परमात्मा युगाधिदेव की स्तुति करते हुए मन में विचार करने लगा कि कहाँ मैं और कहाँ यह गिरिराज ? आज मेरे प्रबल पुण्योदय से ही इस गिरराज की यात्रा करने का सौभाग्य मूझे प्राप्त हो गया। आज प्रभु के दर्शन से मेरा जन्म सफल हो गया। पूजा-दर्शन-वंदन आदि पूर्ण करके राजा चंद्र और रानी प्रेमला दोनों दादा के मंदिर से बाहर आए। बाहर आते ही उन्होंने अचानक एक चारण ऋषि को देखा। दोनों के मन अत्यंत हर्षित हो गए। दोनों ने अन्यत विनम्रता से ऋषि को वंदना की और उनके निकट हाथ जोड कर धर्मोपदेश सुनने को बैठ गए। चारण ऋषिने अपने ज्ञान के बल पर तुरन्त जान लिया कि यह निकटमोक्षगामी जीव है। इसलिए ऋषि ने राजा-रानी तथा अन्य उपस्थितों को विरत्ति उत्पन्न करनेवाली देशना (धर्मोपदेश) सुनाई। ऋषि का धर्मोपदेश सुनने के बाद राजा चंद्र ने गिरिराज की परिक्रमा कर अपना भवभ्रमण मर्यादित कर दिया। उधर प्रेमलालच्छी की एक दासी ने मुर्गे को मनुष्यत्व प्राप्त होते ही तुरन्त दौड़ते हुए विमलापुरी में जा कर राजा मकरध्वज को अत्यंत हर्ष से यह समाचार दिया, महाराज, सूरजकुंड की महिमा है कि आज आप के दामाद राजा चंद्र को मुर्गे में से फिर मनुष्यत्व की प्राप्ति हो गई ! P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र ___. यह अत्यंत आनंद देनेवाला समाचार सुन कर राजा इतना खुश हुआ कि उसने अपने मुकुट को छोड़कर बाकी सभी मूल्यवान् आभूषण तुरंत उतार कर दासी को पुरस्कार के रूप में दे दिए। फिर राजा ने दासी से सारी घटना विस्तार से सुनी। सारी विमलापुरी में यह खुशी का समाचार वायु की गति से फैल गया। नगरजनों ने अपनी खुशी प्रकट करने के लिए आनंदोत्सव मनाया। अब विमलापुरी के नगरजन अपनी नगरी के राजा के दामाद को देखने के लिए अत्यंत उत्कंठित हो गए। राजा मकरध्वज ने इस आनंद के उपलक्ष्य में एक बड़ा महोत्सव मनाने का निश्चय किया। . . राजा ने अपने मातहत सभी सामंतराजाओं, मंत्रियों, प्रमुख नागरिकों को और नटराज शिवकुमार तथा उसकी पुत्री शिवमाला को भावभीना निमंत्रण भेजा। उसने इन सबको संदेश भेजा - ____हमारे दामाद आभानरेश चंद्र को किसी कारणवश मुर्गे का रूप मिला था। लेकिन मुर्गे के रूप में सोलह वर्ष व्यक्ति करने के बाद उन्हें सूरजकुंड के पानी के प्रभाव से मनुष्यत्व की प्राप्ति हो गई है। उनकी खुशहाली का आनंद मनाने के लिए हमने एक बड़े महोत्सव का आयोजन करने का निश्चय किया है। आप सब इस महोत्सव के कार्यक्रम में अवश्य उपस्थित रहे और हमें उपकृत करे। राजा की और से निमंत्रण मिलते ही सभी निमंत्रित बडी संख्या में उपस्थित हो गए। उनके सामने राजा मकरध्वज ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा, हे नटराज, तुम्हारी मेहरबानी से ही मुझे मेरे दामाद प्राप्त हो गए हैं। मेरे सामने यह बडा प्रश्न खडा है कि में तुम्हारे उपकार का बदला कैसें चुकाऊँ ? ___ राजा मकरध्वज के मुँह से अपने सवामी राजा चंद्र को मुर्गे से मनुष्यत्व की प्राप्ति होने का समाचार सुनते ही नटराज शिवकुमार और उसकी पुत्री शिवमाला दोनों आनंदविभोर हो गए / वे सुधबुध भूलकर सबके सामने नाचने लगे। उनके हर्ष का कोई पार न था। अब यह अत्यंत हर्ष का समाचार नगर के बाहर डेरा डालकर रहनेवाले सात सामंत राजाओं को पहुँचाने का प्रबंध की सेना के साथ अनेक वर्षों से मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्र राजा के प्राणों की रक्षा के लिए उसके साथ नि:स्वार्थ भाव से रहते थे। राजा मकरध्वज ने इन सातों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. un Gun Aaradhak Trust Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र सामंत राजाओं की उनकी सेना के साथ नगर में सम्मान से बुलाया और उनका उचित ढंग से स्वागत किया। उन्हें यह समाचार दिया गया कि महाराज चंद्र को मुर्गे के रूप में से सूरजकुंड के पानी के प्रभाव से मनुष्यत्व की प्राप्ति हो गई हैं / यह समाचार पाकर सामंत राजा उनकी सेनाओं के साथ बहुत खुश हो गए और उनको ऐसा लगा कि हमारी अभी तक की महेनत सफल हो गई है। फिर राजा मकरध्वज ने सभी सामंत राजाओं और उनकी सेना के साथ सिद्धाचलजी की ओर प्रयाण किया। तेजी से प्रयाण करते-करते वे लोग कुछ ही समय में सिद्धाचलजी पर पहुँच कर राजा चंद्र और प्रेमला से मिले। इस मिलन का द्दश्य सचमुच बड़ा देखने योग्य था। यह द्दश्य दर्शकों के हृदय में दिव्य आनंद का अनुभव करा रहा था। मकरध्वज राजा तो अपने दामाद को मनुष्य रूप में देखते ही आनंद के आवेश में आया और उसने अपने दामाद को गले लगा लिया। हृदय से हृदय मिले। आनंद का सागर लहराने लगा। वहाँ उपस्थित सबकी आँखों में आनंद के आँसू छलक उठे थे / मकरध्वज राजा तो अपने दामाद चंद्र राजा का दिव्य रूप सौंदर्य देख कर इतना आश्चर्य चकित हो गया कि वह अपने दामाद का रूप निर्निमेष नेत्रों से देखता ही रहा / राजा अपनी पुत्री प्रेमला को उसके अनुपम भाग्य के लिए मन-ही-मन बघाई दे रहा था। विवाह के पूरे सोलह वर्ष बीत जाने के बाद प्रेमला को उसके पति की प्राप्ति हुई थी यह देख कर राजा के हृदय में खुशी का कोई ठिकाना नहीं था / आभा नरेशचंद्र ने भी अपने ससुर और सास को प्रणाम कर उनका क्षेम कुशल पूछा। प्रेमला ने भी अपने माता-पिता को प्रणाम कर कहा कि, हे तात ! आपकी असीम कृपा | से मुझे अपने पतिदेव से फिर मिलने का अवसर प्राप्त हुआ है। आपने जो आशीर्वाद दिया था, वह आज फलद्रूप हो गया है। ____ अपनी पुत्री के मस्तक पर हाथ रखकर उसे आशीर्वाद देते हुए राजाने कहा, प्रिय पुत्री ! तू अखंड सुहागन हो जा ! तेरे सतीत्व और तपश्चर्या के प्रभाव से ही तुझे तेरा इंद्र जैसा पति फिर से प्राप्त हो गया हैं। मैं भी विश्व में बेजोड़ होने वाले ऐसे दामाद को पाकर स्वयं को बड़ा भाग्यवान् समझ रहा हूँ। फिर चंद्र राजा और रानी प्रेनला अपने सभी स्वजनों को साथ लेकर फिर एक बार आदेश्वर दादा के दरबार में आ पहुँचे / सबने भगवान् आदेश्वर दादा का दर्शन वंदन किया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र और उन्होंने अपने दुरित को दूर कर दिया। इससे उन्होंने अपना जन्म सफल बना लिया और आँखें पाने का फल भी प्राप्त कर लिया। ___दादा के दरबार में से बाहर निकलने पर प्रेमला ने अपने पति का परिचय अपने पिता से कराते हुए कहा, पूज्य पिताजी, ये आपके दामाद आभापुरी के राजा वीरसेन के पुत्ररत्न हैं। उनके मातापिता ने संसार त्याग कर संन्यासदीक्षा ले ली और सफल कर्मों का शय कर मुक्तिपद प्राप्त कर लिया है। यहाँ के सूरजकुड के पवित्र और प्रभावकारी पानी के कारण आपके दामाद मुर्गे में से फिर मनुष्य का रूप धारण कर चुके हैं। अब आप अपने दामाद का बराबर निरीक्षण कीजिए और उन्हें पहचान लीजिए / बारीकी से देखिए पिताजी, मेरे साथ सोलह वर्ष पहले विमलापुरी में विवाह कर के चले गए आपके दामाद ये ही हैं न ? राजा ने गर्दन हिला कर हाँ कहा और अपनी कन्या के महान् सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसपर प्रेमला ने अत्यंत गर्व से अपने पिता से कहा, / पिताजी, इस संसार में दीखने में सुंदर और गुणवान् पुरुष अनेक होते हैं। लेकिन आपके इन दामाद की तरह पुरुषरत्न तो प्रबल पुण्योद्रय से ही प्राप्त होते हैं। महान भाग्य से आज मेसे उपर लगाया गया विषकन्या का कलंक पूरी तरह धुल गया है। ओर चंद्र जैसे उज्जवल यश की प्राप्ती मुझे हो गई है। इस गिरिराज की सेवा करने से ही आज मेरी सभी आशाएँ पूरी हो गई है। अपनी कन्या की बात सुन कर अत्यंत हर्षित हुए मकरध्वजराजा ने प्रेम से परिपूर्ण द्दष्टि से अपने दामाद चंद्र राजा को फिर एक बार देखा / मकरध्वज की पत्नी और चंद्र की सास ने मोतियों की वर्षा करके अपने दामाद चंद्र राजा का सहर्ष स्वागत किया / ससुर राजा मकरध्वज ने अपने दामाद को अपने गले से लगा कर उसके प्रति अपने मन का गहरा प्रेमभाव फिर से प्रकट किया। चंद्र राजा के मातहत होनेवाले और मुर्गे के रूप में होते समय उनके रक्षक बने हुए सात / सामंत राजाओं ने चंद्र राजा को आदर से प्रणाम करके उनका प्रेम कुशल पूछा और चंद्र राजा E के फिर मनुष्यरूप प्राप्त करने पर अपना आनंद प्रकट किया। नटराज शिवकुमार और शिवमाला तो चंद्र राजा के गले लगे और उन्होंने चंद्र राजा के चरणों में गिर कर उन्हें बारबार प्रणाम किया। वे दोनों मिल कर चंद्र राजा के गुण गाने लगे। = अपनी की हुई सेवा सफल हुई है यह जान कर इस पिता पुत्री को प्रसन्ता का कोई पार न रहा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 195 चंद्र राजाने भी अपने लिए अत्यंत उपकारी और अपने प्राणधातो संकट मैं साथ नेवाले पिता पुत्री शिवकुमार और शिवमाला के मस्तक पर प्रेम से अपना हाथ रख कर उनके ति कृतज्ञता प्रकट की। चंद्र राजा ने उनसे कहा, तुम लोगों ने मुझ पर जो उपकार किया है सका बदला तो में आभापुरी की राजगद्दी पर फिर से बैठने पर ही चुका सकुँगा / तुम्हारे बकारो को मैं अपने पूरे जीवन भर नहीं भूल सकता हूँ न भूलूँगा। वहाँ उपस्थित हुई विमलापुरी की जनता ने बारबार हर्षनाद से चंद्र राजा का भव्य वागत किया। बैंडबाजे बजते जा रहे थे। राजा मकरध्वज और विमलापुरी की जनता के बीच जा चंद्र, था। वह इस समय ऐसे शोभित हो रहा था जैसे तारिकाओं के बीज चंद्रमा शोभित ता है, देवों के बीच इंद्र शोभित होता है। राजा चंद्र की शोभायात्रा प्रभु आदेश्वरदादा के गुण ती हुई गिरिराज के ऊपर से नीचे की ओर उतर रही थी। यह सुंदरद्दश्य देखकर ऐसा लगता मानो इंद्र देव-देवियों के साथ स्वर्ग में से नीचे धरती पर उतर रहा हो ? गिरिराज पर से नीचे उतर आने के बाद राजा मकरध्वज ने चंद्रराजा के नगर प्रवेश की र नगर में स्वागत की तैयारी जोरशोर से और तुरंत शुरु कर दी ? दूसरी ओर राजा ने द्धगिरि से विमलापुरी तक बड़ा संघ निकालने का निश्चय किया। इस संध के लिए राजा ने ने मानहत होनेवाले अड़ोस-पड़ोस के गाँवों-नगरों में निमंत्रण भेज दिया। राजा का निमंत्रण तते ही संघयात्रा में सम्मिलत होने के लिए लाखों की संख्या में लोग आ पहुँचे। अब राजा मकरध्वज ने अपने दामाद चंद्र राजा को एक सजाए हुए गजराज पर आया और बाकी सब लोग इस गजराज के आगे-पीछे चलने लगे। राज्य के बैंडवादकों ने ने सुरीले वाद्यो पर गीत गाना शुरू किया। उसकी मधुर ध्वनि से आकाश गूंज उठा। सारा : चंद्रराजा की जयजयकार करता हुआ विमलापुरी की ओर बढ़ने लगा / चंद्रराजा के सपास बैठे हुए अंगरक्षक उत्तम श्वेत चामर ढाल रहे थे। एक पुरुष ने राजा चंद्र के मस्तक छत्र धर रखा था। राजा मकरध्वज भी एक दूसरे हाथी पर बैठा हुआ था / राजपरिवार की स्त्रियाँ उत्तम से सजाए हुए सुवर्णरथों में बैठी थीं / अन्य सामन्त राजा, मंत्री आदि सजाए हुए अश्वरत्नों सवार थे। जनसामान्य अपने-अपने योग्य वाहनों में बैठे हुए थे। ___इस प्रकार से सजधज के साथ सारा संघ विमलापुरी की ओर बढ़ रहा था। चंद्र राज भागे विभिन्न प्रकार के वाद्य बज रहे थे। बंदीजन चंद्रराजा की विरुदावली का जोरशोर से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र गायन कर रहे थे। याचकों को मुक्तहस्त से दान दिया जा रहा था / संघ के साथ रंगबिरगी ध्वजा-पताकाएँ आकाश में ऊँचाई पर लहरा रही थीं। नट और वारांगनाएँ तरह-तरह के नृत्य दिखा रहे थे। इस प्रकार की भव्य शोभायात्रा में से होते हुए और सबके मन-नयन प्रसन्न करतेकरते चंद्र राजा ने घूमघाम से विमलापुरी नगरी में प्रवेश किया। आज विमलापुरी की जनता के आनंद वृधी में जैसे ज्वार आ गया था। लाखों की संख्या में होनेवाले लोगों के मुँह से 'राजा चंद्रजी की जय हो, ‘रानी प्रेमला की जय हो' के लग रहे नारों से सारा आकाश गूंज रहा था। विमलापुरी में प्रवेश करने के बाद विमलापुरी की जनता ने राजा चंद्र और प्रेमला का स्वागत अक्षतों, मोतियों और सोने के फूलों की वर्षा करके किया। सबकी नजरें प्रेमला के पति चंद्र राजा को देखने में मग्न थीं। चंद्र राजा के इंद्र के समान अनुपम रूपलावण्य और सौंदर्य को देख-देख कर सब लोग प्रेमला के भाग्य की प्रशंसा करते जा रहे थे। अपने साथ बहुत बड़ा संघ लेकर जब राजा मकरध्वज और राजा चंद्र राजमहल के निकट आ पहुँचे तो दोनों अपने-अपने हाथियों पर से नीचे उतरे / हर्षावेश में आकर राजा मकरध्वज ने याचकों को ऐसे मूल्यवान् वस्त्रालंकारों का दान किया कि उन्हें पहन कर जब ये याचक अपने-अपने घर गए, तो उनकी पत्नियाँ भी उन्हें पहचान न सकी। राजा मकरध्वज ने नटराज शिवकुमार को राजदरबार में सम्मान से बुलाया / राजा ने उसका यथोचित सम्मान किया। इसी समय राजा चंद्र ने शिवकुमार को अपने पास बुलाया और अत्यंत आदर और कृतज्ञता के भाव से उसे एक लाख स्वर्णमुहरें उपहार के रूप में अर्पित की। राजा चंद्र ने शिवकुमार को एक छोटा राजा ही बना दिया। इसके बाद राजा चंद्र ने उन सात सामंत राजाओं को, जिन्होंने पिछले कई वर्षों से उसके मुर्गे के रूप में होते समय जो जान से उसके प्राणों की रक्षा की थी, अपने पास क्रमश: बुलाया और उन सबकी कीमती उपहार सम्मानपूर्वक देकर उनके साथ निरंतर के लिए मित्रता का समझौता किया। राजा चंद्र ने इन सामंत राजाओं को कहा, “आज से आप मेरे मातहत राजाओं के रूप में नहीं, बल्कि स्वतंत्र राजाओं के रूप में खुशी से राज्य कीजिए।" संकट के समय में की हुई सहायता के लिए राजा ने उनको कोटिशः धन्यवाद देकर उनकी जी खोल कर प्रशंसा की और उनका बड़ा सम्मान किया। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 को चन्द्रराजर्षि चरित्र इधर राजा मकरध्वज ने राजसेवकों को तुरंत सारी विमलापुरी को ध्वजा-पताकाओं से जाने का आदेश दिया / अपनी पुत्री प्रेमलालच्छी का मनचाहा पति सोलह वर्षों के बाद उसे पस मिल गया, इस खुशी में राजा ने बड़ी घूमधाम से अपनी नगरी में जिनेंद्र महोत्सव नाया। इस जिनेंद्र महोत्सव की वार्ता सारे राज्य में फ़ैलते ही राजा के अधीन होनेवाले सारे श में स्थान-स्थान पर जिनेंद्र महोत्सवों का आयोजन किया गया। राज्य में सर्वत्र आनंद का खंड साम्राज्य सा हो गया। सभी लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। उधर प्रेमलालच्छी को अपने अत्यंत प्रिय और गुणनिधि, रूपनिधि पति की फिर से प्ति होने के कारण उसके शरीर का अंग अंग खुशी से खिल उठा। उसका सौंदर्य वृद्धिगत ता-हुआ सा लगा / धीरे-धीरे प्रेमलालच्छी पिछले सोलह वर्षों के विरहदु:ख को भूल गई / अब वह पति प्राप्ति के आनंद में पूरी तरह डूब गई थी ! लेकिन प्रेमला के पिता राजा मकरध्वज को सोलह वर्ष पहले अपनी इकलौती कन्या के ते किए हुए अन्याय का विचार सताता रहा / राजा पश्चात्तापदग्ध हो गया / अब वह चात्ताप की आग में ऐसा जल रहा था कि उससे रहा न गया। एक बार एकान्त पाकर और बसर देख कर राजा मकरध्वज अपनी कन्या प्रेमला के पास आया। आँखों में आँसू भर कर जा ने अपनी पुत्री से कहा, 'हे प्रिय पुत्री, मैं तेरे पास क्षमायाचना करने के लिए आया हूँ। मैंने लह वर्ष पहले तेरे साथ जो अन्याय किया था, उसके पश्चात्ताप की आग में मैं जल रहा हूँ। , तू मेरी इकलौती बेटी हैं। लेकिन पिछले सोलह वर्षों में मैंने कभी तुझे प्रेम की दृष्टि से aa तक नहीं / जन्म देनेवाला पिता होते हुए भी मैंने तेरे साथ एक कट्टर शत्रु जैसा बर्ताव या। कोढी कनकध्वज के कहने में आकर मैंने तुझे विषकन्या मान लिया और मृत्युदंड की ना भी सुनाई / उस समय मेरे मंत्री की बात यदि मैंने न मानी होती, तो शायद तू कब की मर होती, मुझे हरदम के लिए छोड गई होती ! लेकिन बेटी, उस समय तेरे सद्भाग्य ने ही तेरी की। लेकिन मैं उस समय तेरे प्रति इतना निष्ठूर हो गया था कि मैंने तुझे कोई कष्ट देने में पर नहीं रखी। _ हे बेटी, तू पहले से ही बार-बार मुझे बताती थी कि तेरा विवाह तो आभानरेश राजा के साथ ही हुआ हैं। लेकिन सिंहलद्वीप के उन चालाक लोगों के वाग्जाल में फँस कर मैंने P.P.Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 श्री चन्द्रराजर्षि च-ि तुझे फाँसी दे देने का भी आदेश बिना हिचकिचाहट से दिया था। न जाने कैसे उस समय मे बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी कि मैं तेरे वास्तविक पति को भी पहचान न सका / कहाँ राजा चंद्र अ कहाँ वह कोढी कनकध्वज ? कहाँ सुवर्णमय मेरु पर्वत और कहाँ कंकड-पत्यरों से भरा पह ? कहां कंचन और कहाँ जस्ता ? कहाँ नंदनवन और कहाँ कूड़े-कर्कट का ढेर ? कहाँ कल्पवृ और कहाँ बबुल का पेड ? बेटी, मुझे तो लगता है कि तेरे पूर्वजन्म का पुण्यकर्म बड़ा प्रबल होगा। इसीसे तेरे दु: के दिन अब बीत गए और सुख का सूर्य तेरे जीवन में उदित हो गया है। इस समय मेरा मन ते प्रति किए गए दुष्कृत्य-अन्याय के लिए अत्यंत पश्चात्तापदग्ध हो रहा हैं / बेटी, अपने इस अपराधी पिता को क्षमा कर दे ! बेटी, मुझे पूरा विश्वास है कि तू उदार हृदय से मेरे तेरे प्रति किए गए अन्याय के लिए मुझेक्षमा कर देगी और अपने दुर्भाग्यपूर्ण भूतकाल को निरंतर के लिए भूल जाएगी।" अपने पिता के मुंह से ये सारी पश्चाताप की बातें सुन कर पिता को रोकते हुए प्रेमलालच्छी ने कहा, “पूज्य पिताजी, जो कुछ भी हुआ, उसमें आपका कोई दोष नहीं है / यह सब तो मेरे पूर्वकृत अशुभ कर्मो का ही दोष था। सभी संसारी जीव अपने किए शुभाशुभ कम के उदय से ही संसार में सुख-दु:ख पाते हैं। अन्य जीव तो इसमें निमित्त मात्र होते है। मुझे जे ऐसा गुणनिधि और पुण्यवान् पति मिला है, वह आपके प्रताप से ही मिला है। अन्यथा में त अभागिन और गुणों से रहित हूँ। इसलिए पिताजी, भूतकाल में जो कुछ भी धटित हुआ, उप भूल जाइए। जो कुछ भी हुआ था, वह मेरे अशुभ कर्म के उदय से ही हुआ था। कहा भी गय है कि - ‘गते शोको न कर्तव्या। और 'गतं नं शोच्यम्।' पिताजी, मैं तो यह भी कहती हूँ कि आपको उस समय जिन दुर्जनों ने भ्रम में डाल था उनका भी कल्याण हो। लेकिन पिताजी, अब मैं आप से हाथ जोड़ कर एक विनम्र प्रार्थना करती हूँ कि आप में और मेरे पति के प्रति होनेवाले अपने प्रेमभाव को बराबर बनाए रखिए / इसका कारण यह कि हमारी जीवनौका तो इस समय बिना पानी के सरोवर के मध्य में पड़ी है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 199 , श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र राजा मकरध्वज ने इस पर अपनी पुत्री प्रेमला की आश्वस्त करते हुए कहा, 'बेटी, इसके बारे में अब बिलकुल चिंता मत कर / बेटी, विमलापुरी और आभापुरी के बीच जो प्रदेश मेरे अधीन है, वह सारा तेरे पति को देकर मैंने उन्हें स्वतंत्र राजा बनाने का निर्णय किया है। दूसरी बात यहा है कि तूने हमारे कुल में जन्म लेकर हमारे कुल का नाम उज्ज्वल कर दिया . हैं। बेटी, तेरे महाभाग्य के कारण ही मुझे आभानरेश जैसे सर्वोत्तम दामाद की प्राप्ति हुई। ऐसा दामाद जन्म-जन्म के प्रबल पुण्य से ही प्राप्त होता है। बेटी, मुझे पूरा विश्वास हे कि तेरे और तेरे पति के जीवन का गुणगान तो कविगण करेंगे। शास्त्रों में तुम्हारे नाम सुवर्णाक्षरों से लिखे जाएँगे। मैं तो परमात्मा से एक ही प्रार्थना करता हूँ कि वह तुम दोनों को हरदम सुख में रखे / तुम्हारा सुख और वैभव दिन दूना रात: चौगुना बढ़ता रहे।" अपनी बेटी प्रेमला को ऐसा आशीर्वाद देकर राजा मकरध्वज अपनी बेटी से विदा लेकर चले गए। उन्होंने अपने दामाद और कन्या के निवास के लिए सभी सुविधाओं से परिपूर्ण स्वतंत्र राजमहल का प्रबंध कराया। राजा चंद्र अब अपनी रानी प्रेमला के साथ रहते थे, वे दोगुंदक देवता की तरह सभी सुखों का उपभोग कर रहे थे। ऐसी ही एक बार एकान्त में मकरध्वज राजा ने अपने दामाद राजा चंद्र से पूछा, “हे चंद्रनरेश, मैंने अभी तक आप से कभी नहीं पूछा, लेकिन अब पूछ ही लेता हूँ, क्योंकि मेरे मन की जिज्ञासा मुझेचुप नहीं बैठने देती / हे चंद्रनरेश, बताइए, आप सोलह वर्षपहले यहाँ अचानक मेरी बेटी के विवाह के समय पर कैसे आए ? मेरी बेटी के साथ आपका विवाह कैसे हुआ ? मेरी बेटी से विवाह करने के बाद आप अचानक तुरन्त यहाँ से उसे छोड़ कर क्यों चले गए ? आपको यह मुर्गे का रुप किसने और क्यों दिया ? हे नरेश, यह जानने की मेरे मन में बहुत उत्कंठा है। यदि ये सारी बातें बताने में आपके लिए कोई बाधा न हो, तो कृपा कर मुझे अवश्य बताइए।" अपने ससुर राजा मकरध्वज से यह अपेक्षितसा प्रश्न सुनकर उसका उत्तरं देते हुए राजा चंद्र ने कहा, “हे राजन् ! दुष्ट मंत्र-तंत्र में प्रवीण मेरी सौतेली माँ वीरमती है और गुणावली P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र / नाम की मेरी पटरानी है। मेरी सौतेली माँ की और से भ्रम में डालने से मेरी पटरानी गुणावली उसके वाग्जाल में फँस गई / मेरी विमाता वीरमती के पास देवों से प्राप्त अनेक विद्याएँ हैं इसलिए मेरी सौतेली माँ वीरमती और उसके भ्रमजाल में फँसी हुई मेरी पटरानी गुणावली ने मिलकर यह निश्चित किया कि आज हम दोनों रात को आम के पेड़ पर बैठ कर आकाशमार्ग से विमलापुरी जाएँगी। वहाँ सिंहलनेश के पुत्र कनकध्वज का विमलापुरी के राजा मकरध्वज का कन्या प्रेमलालच्छी से विवाह होनेवाला है। यह विवाहोत्सव देखने योग्य हैं। लेकिन मुझे इन दोनों की इस योजना की खबर पहले ही मिल गई / इसलिए मैंने इन सास-बहू की सारी गतिविधि जानने का मन में निश्चय किया। वे दोनों रात का पहला प्रहर बीत जाने के बाद आभापुरी के उद्यान में गई। मैं भी छिप-छिप कर उनके पीछे उनसे अनजाने उद्यान में पहुँच कर एक पेड़ के पीछे छिप कर बैठा। उद्यान में पहुँच कर वीरमती ने मेरी पत्नी को संकेत से बताया कि ‘सामने जो आम का पेड़ दिखाई दे रहा है, उसपर बैठकर हम दोनों को आकाश मार्ग से विमलापुरी जाना है / हम यहाँ से दो घड़ियों में विमलापुरी पहुँच जाएँगी।' मैंने उन दोनों की नज़र बचाई और मैं भी उसी आम के पेड़ के कोटर में जाकर छिप कर बैठ गया। कुछ ही समय में सास-बहू दोनों वहाँ आई / दोनों आम के पेड़ की डाली पर बैठ गई। फिर मेरी सौतेली माँ ने मंत्रित छड़ी से पेड़ पर तीन बार प्रहार किया। तीसरा प्रहार होते ही वह आम का पेड आकाश की ओर उठा और वायुगति से आगे चलने लगा / कुछ ही समय के बाद यह आम का पेड़ मेरी सौतेली माँ के इशारे पर विमलापुरी के उद्यान में उतरा। ___ आम के पेड़ के विमलापुरी के उद्यान में उतरते ही सास-बहू दोनों विमलापुरी के पूर्वदिशा के दरवाजे से नगरी में प्रवेश कर गई / मैं भी लुकता-छिपता हुआ, उस आम के पेड़ के कोटर से उतर कर, उनके पीछे-पीछे आ ही रहा था। लेकिन पूर्व दिशा के दरवाजे के सामने हिंसक मंत्री के सेवकों ने मुझे रोक लिया। उन्होंने अचानक कहा-'आभानरेश चंद्र की जय हो।' मैंने उनसे पूछा कि तुम लोग कौन हो और मुझे क्यों रोक रहे हो ? इस पर उन सेवकों ने मुझे बताया, “हे आभानरेश, हम लोग सिंहलनरेश के सेवक हैं। आपको हमारे स्वामी बुला रहे हैं। इसलिए आप हमारे साथ चलिए।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मेरे मन में उनके साथ जाने को बिलकुल इच्छा नहीं थी। लेकिन उनके अत्याधिक आग्रह के वश होकर मैं उन सेवकों के साथ सिंहलनरेश के पास गया / मेरे वहाँ जाते ही सिंहलनरेश और उनके मंत्री हिंसक ने हाथ जोड़ कर मुझे प्रणाम किया और मेरा बड़ा सम्मान किया। मैंने उनसे यह पूछा कि आपने मुझे यहाँ क्यों बुलाया है और आप मुझे इतना सम्मान देकर रोकने की कोशिश क्यों कर रहे हैं ? मेरे पूछने पर सिंहलनरेश और हिंसक मंत्री ने पहले जो मंत्रणा करके योजना बनाई थी, उसके अनुसार मुझे बताया, 'हे राज चंद्र, हम लोग हमारे पुत्र राजकुमार कनकध्वज़ का यहाँ के राजा मकरध्वज की कन्या प्रेमलालच्छी से विवाह कराने के लिए बरात लेकर आए हैं। लेकिन हमारा कनकध्वज जन्म से ही कोढ़ी है। इसलिए उसके साथ राजकुमारी प्रेमला विवाह नहीं करेगी। इसलिए तुम्हें कनकध्वज के स्थान पर वर बनकर प्रेमला से विवाह करना हैं / विवाह के बाद प्रेमलालच्छी को हमारे राजकुमार कनकध्वज को सौंप कर तुम्हें छिप कर आभापुरी लौट जाना है। हमारा इतना काम अवश्य कर दो। तुम्हारी मदद से ही हम यह संकटरूपी समुद्र तैर कर पार हो सकेंगे।" पहले तो मैंने साफ इन्कार किया और कहा कि मुझ से ऐसा अकार्य नहीं हो सकेगा। लेकिन उन लोगों ने मेरा पीछा वहीं छोड़ा। वे मुझसे गिड़गिडा कर बार बार नही कहते रहे। अंत में उनसे मुक्ति पाने का कोई अन्य उपाय नं देख कर मैंने उनकी बिनती स्वीकार कर ली औरकनकध्वज के स्थान पर वरवेश पहन कर प्रेमला से विवाह करने को तैयार हो गया। सारी तैयारियां पूरी हो गई। बरात निकली। रात के शुभ मुहूर्त पर विवाह संपन्न हो या / विवाह के बाद हम पति-पत्नी राजमहल में एक कक्ष में आकर विवाह की रस्म के भनुसार चौपट का खेल खेलने लगे। उस समय मैंने आपकी कन्या को मेरा परिचय दिया। कुछ र तक चौपट खेलने के बाद मैं भोजन करने बैठा। बीच में ही मैंने पीने के लिए पानी माँगा। गोजन-पानी करते-करते समय निकाल कर और अवसर पाकर मैंने अपने बारे में अनेक बातें मापकी पुत्री को संकेत से बता दीं। उस समय मेरा चित्त अत्यंत चंचल और अस्थिर था। यह देखकर आपकी चतुर कन्या 5 मन में तो आशंका निर्माण हो ही गई थी कि दाल में कुछ काला है। इतने में सिंहलनरेश के त्री हिंसक वहाँ आएँ, जहां हम दोनों बैठे हुए बातें कर रहे थे। हिंसक ने मुझे आँख से इशारा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 श्री चन्द्रराजर्षि चनि किया, मैं इशारा समझ गया और टट्टी के लिए जाने का बहाना बना कर, पानी से भरा लो लेकर मैं महल के कक्ष से बाहर जाने लगा। आपकी कन्या पानी का लोटा पकड़ कर मेरे पी= पीछे आने लगी। मैंने उसे वापस जाने के लिए बहुत समझाया, पर व्यर्थ ! शंकाशील बनी आपकी कन्या वहाँ से लौटी नहीं। इसलिए कोई उपाय न देख कर मैं राजमहल में लौट आया लेकिन मैं सिंहलनरेश और हिंसक मंत्री के साथ शर्त से बँधा हुआ था / मैं वहाँ से भा निकलने की कोशिश में ही था। अब मुझे वहाँ से बाहर निकलने में बहुत देर हो रही है यह जान कर क्रुद्ध हुआ हिंसक मंत्री बाहर से अपशब्द बोलते हुए अंदर आया। अब हिंसक मंत्री ने मुड फिर वहाँ से बाहर जाने को कहा और उसने प्रेमला को जबर्दस्ती वहाँ पर ही रोक कर रखा, में साथ बाहर न जाने दिया। प्रेमला नववधू होने से लज्जा के कारण हिंसक मंत्री से कुछ कह न सकी। इसलिए वह बेचारी विवशता से दुःख से जलते हुए अंत: करण से अकेली बैठी रही। इधर मैंने बाहर निकलने का अवसर पाया। मैं झट से वहाँ से निकला और तेज गति से चलता हुआ विमलापुर के उद्यान में आ पहुँचा और जहाँ मेरी सौतेली माँ ने आम का पेड उतारा था, वहाँ पहुँच कर पेड़ के कोटर में छिप कर बैठ गया। कुछ देर बाद विमलापुरी और वहाँ हुए विवाह-महोत्सव को देख कर आनंदित हुए सास-बहू उद्यान में आम के पेड़ के पास आ पहुँची। दोनों आम के पेड पर चढ़ कर बैठी / वीरमती ने मंत्रित छड़ी से तीन बार पेड़ पर प्रहार करते ही वह आम का पेड़ आकाश में उड़ा और कुछ ही देर में आभापुरी के उद्यान में लौट आया और अपनी मूल जगह पर आकर स्थिर हो गया। सास-बहू दोनों पेड पर से नीचे उतरी और हाथपाँव मुँह धोने के लिए निकट हे होनेवाली एक बावडी पर चली गई। मैंने अवसर देखा / मैं उन दोनों की नजर बचाकर धीरे से पेड के कोटर में से बाहर निकला / मैं शीघ्र गति से चल कर गुणावली के महल में गया और पहले जहाँ सोने का बहाना बना कर लेटा था, वहीं खाट पर सिर पर रजाई ओढ़ सो गया। लेकिन दूसरे दिन मेरी सौतेली माँ वीरमती को पता चल ही गया कि मैं उनके साथ आम के पेड़ के कोटर में छिप कर रात के समय विमलापुरी गया था। मेरी सौतेली माँ बहुत क्रुद्ध है गई और उसने अपनी मंत्रविद्या से वहीं के वही मुझे मुर्गा बना दिया। P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र फिर मैं इन नटमंडली के हाथों में आया / वे भ्रमण करते-करते मुझे भी अपने साथ वहाँ ले आए। फिर प्रेमला के अत्यधिक आग्रह के कारण आप मुझे नटराज से मांग कर ले गए। पिंजड़े के साथ, मुर्गे के रूप में होनेवाले मुझको आपने प्रेमला के हाथ में सौंप दिया। वह सिद्धाचलजी की यात्रा करने के लिए जाते समय मुझे भी अपने साथ ले गई। इसके बाद क्या- | क्या हुआ, हे नरेश आप अच्छी तरह जानते हैं।" .. __ अपने दामाद चंद्र राजा की कही हुई ये सारी बातें सुन कर मकरध्वज राजा के मन में | बहुत अनुताप पैदा हो गया। राजा चंद्र की बातों से तो अब यह अक्षरश: सत्य सिद्ध हो गया था कि प्रेमला के विवाह के समय जो कुछ भी हुआ था, उसमें प्रेमला का कोई अपराध नहीं था / उस समय मैंने उसे प्राणांत दंड की सजा फटकार कर उस बेचारी पर बड़ा अन्याय किया था। / राजा मकरध्वज के मन में बहुत पश्चाताप होने लगा। - लघुकर्मी जीवों को अपने किए हुए हर दुष्कृत्य के लिए पश्चाताप होता है और यह स्वाभाविक ही है। अब राजा अपने मन में विचार करता जा रहा था कि मैं स्वयं को इतना चतुर कहलाता हूँ, लेकिन उस समय मैंने भी कोढी कनकध्वज कुमार की बात पर तुरंत विश्वास कर लिया और एक तरह से अपनी मूर्खता ही प्रकट कर दी। कल्याण हो उस सुबुद्धि मंत्री का जिन्होंने अपनी चतुराई से मुझे समझा कर बेचारी प्रेमला के प्राणों की रक्षा की। उस समय मंत्री न होते, तो बेचारी प्रेमला कब की मेरे अन्यायपूर्ण आदेश के अमल में आने से काल का ग्रास बन गई होती। __अब मकरध्वज राजा सोचने लगा कि वह कोढ़ी राजकुमार भी बड़ा दुष्ट था। उसने मेरी निष्कलंक महासती कन्या पर विषकन्या होने का झूठा इल्जाम लगाया। आज उसके कपट का पूरा भंडाफोड़ हो गया। सत्या सामने आ गया है। पाप का घड़ा एक-न-एक दिन फूटे बिना नहीं रहता, यह सच हैं। सिंहलनेश, उसके दुष्ट मंत्री हिंसक और उनके अन्य संगी-साथियों ने मिल कर एक महाभयंकर षडयंत्र रचा था। उन्होंने जो पापकर्म किया, उसके लिए मुझे उन सबको सख्त से सखत सजा देनी ही पड़ेगी। ऐसा विचार कर मकरध्वज राजा ने तुरंत अपने सेवकों को आज्ञा दी कि “जाओ, सिंहलनरेश और अन्य जो लोग कारागार में बंद किए गए हैं, उन सबको इस समय मेरे सामने लाकर खड़े करो!" / राजा की आज्ञा के अनुसार राजसेवकों ने तुरन्त जाकर सिंहलनरेश, हिंसक मंत्री आदि पाँच कैदियों को कारगार से निकाल कर राजा के सामने लाकर खड़ा कर दिया। हिंसक मंत्री के P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मकरध्वज ने सिंहलनरेश से कहा, “ऐ दुष्ट सिंहलेश ! तूने यह क्या किया ? राजा होकर तूने एक कसाई जैसा क्रूर कर्म किया ? क्या ऐसा पापकर्म करते समय तुझे जरा भी डर नहीं लगा ? मेरे साथ ऐसा छलकपट करके तूने मुझे अपना शत्रु बना लिया है। तूने सोए हुए सिंह को जगाने का दु:साहस किया है। शायद तूने तो यह सारा प्रपंच हँसी-मज़ाक के लिए किया होगा, लेकिन तेरी इस करतूत से मेरी पुत्री प्रेमला प्राणांत संकट में फँस गई, क्या तुझे इस बात का पता भी है ? अब तू अपने साथियों के साथ अपने इष्टदेवता का स्मरण कर ले। अब मैं तुममें से किसी को भी यहाँ से जिंदा छोड़नेवाला नहीं हूँ। अब तुम्हारे पाप का घड़ा भर गया और तुम्हारी मृत्यु का समय आ गया। तुम सबने मिलकर जो अत्यंत भयंकर उग्र पाप किया था, उसका बदला चुकाने का समय अब आ गया हैं। अब तुम सब बहुत थोड़ी देर के लिए ही इस संसार के मेहमान रह गए हो। तुम जैसे पापियों के मुँह देखना भी मुझे पापकर्म लगता हैं।" . इस प्रकार सिंहलनरेश, हिंसक मंत्री, कोढ़ी कनकध्वज आदि पाँच कैदियों की कटु-सेकटु शब्दों में निर्भर्त्सना करके राजा मकरध्वज ने उन सबको मृत्युदंड की सजा फटकारी / पाँचों कैदियों को अच्छी तरह मालूम था कि हमारा अपराध अक्षम्य है। इसलिए किसीने अपना बचाव करने का कोई प्रयास नहीं किया। सब के सब राजा की ओर से निर्भर्त्सना सुनते हुए चुपचाप खड़े थे। किसी की मुँह खोलने की भी हिंमत नहीं हुई। पाँचों अपराधी उनको सुनाई गई मृत्युदंड की सजा भोगने के लिए चुपचाप तैयार हो गए। लेकिन इस समय राजदरबार में राजा मकरध्वज के निकट बैठे हुए महादयालु और परोपकारी राजा चंद्र का दिल मृत्युदंड की सजा की बातें सुन कर ही द्रवित हो गया। राजा चंद्र तुरंत अपने आसन पर से उठे और उन्होंने अपने ससुर राजा मकरध्वज से कहा, "हे राजन्, ये पाँचों कैदी आपकी शरण में आए हुए हैं / शरणागत के प्राण हरण करना राजा के लिए उचित नहीं है। अपकार करनेवालों के साथ अपकार ही किया जाने लगा, तो फिर सज्जन और दुर्जन में अंतर ही क्या रहा ? इसलिए हे महाराज, आपको तो इन अपकारियों पर भी उपकार ही करना चाहिए / उपकारी पर उपकार करनेवाले इस संसार में अनेक मिलते हैं लेकिन अपकारी पर उपकार करनेवाले पुरुष विरले ही होते हैं। महाराज, दूसरी तरह से सोचा जाए, तो इन पाँच लोगों ने आप पर उपकार ही किया हैं। यदि इन लोगों ने यह षड्यंत्र न रचा होता, तो क्या आपका और मेरा संबंध हो सकता था, क्या उस स्थिति में मैं आपका दामाद बन सकता ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 205 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र एक और बात यह है कि इन पाँचों अपराधियों को सजा करने के स्थान पर उन पर दया दिखा कर उन्हें मुक्त करने से आपका यश वृद्धिगत होगा। आपकी दया देखकर लोग आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा करेंगे / महाराज, आप यह मत सोचिए कि अपराधी को दंड मिलना ही चाहिए। इन पाँचों अपराधियों को अपने किए हुए कुकृत्य के लिए बहुत पश्चाताप हुआ-सा लगता हैं / इतने वर्षों से उन्होंने वैसे कैद की सजा तो भोग ही ली है। अब उन सबको अपने किए हुए पापकर्म के लिए पश्चात्ताप करने का और उससे अपने किए हुए पाप को धोने का सुअवसर देना हो उचित होगा। __ . महाराज, मैं इन सभी अपराधियों की ओर से आपको विश्वास दिलाता हूँ कि ये लोग अगर मुक्त कर दिए जाए, तो फिर ऐसा पापकर्म कभी नहीं करेंगे। महाराज, यह भी सोचिए कि इन लोगों ने षड्यंत्र करके आपकी इकलौती कन्या को प्राणांत संकट में डाला, इसमें वास्तव में उनका दोष नहीं है, बल्कि दोष आपकी पुत्री के अशुभ कर्मों का ही था। ये बेचारे तो इसके लिए निमित्त मात्र हो गए। सिंहलनरेश द्वारा यह पड्यंत्र रचा जाने में मुख्य कारण तो पुत्रप्रेम ही था न ? जब उन्होंने पुत्रप्रेम के कारण ही यह षड्यंत्र रचा, तो उनके साथ दयापूर्ण व्यवहार करना ही आपके लिए उचित होगा, न्यायपूर्ण होगा।" / . अपने दामाद चंद्र राजा के मुँह से ऐसी युक्तियुक्त बातें सुन कर राजा मकरध्वज के। हृदय पर उसका अत्यंत जोरदार प्रभाव हुआ। इसके फलस्वरूप राजा मकरध्वज ने इन सभी कैदियों को सजा देने का विचार छोड़ दिया। राजा ने उसी क्षण पाँचों कैदियों पर दया दिखा कर उनको बंधनमुक्त कर दिया। इस समय वहाँ प्रेमलालच्छी भी बैठी हुई थी। उसके मन में यह सब देख कर एक अच्छा विचार आया कि यहां बैठे हुए सभी लोगों को मेरे पतिदेव का प्रभाव दिखाने के लिए यह बड़ा अच्छा अवसर है। राजपुत्री उठ खड़ी हुई / वह एक सोने का थाल और सोने के ही कलश में पानी भर कर ले आई। उसने अपने पतिदेव के पाँव सोने के थाल में रखे और वह उसने स्वर्णकलश से पानी उँडेल कर पति के पाँव धोना प्रारंभ किया। पतिदेव का पदप्रक्षालन पूरा होने के बाद उसने वह चरणोदक कोढी कनकध्वज के उपर छिड़का / एक चमत्कार-सा हुआ, कोढी कनकध्वज का सारा कोढ़ क्षण भर में नष्ट हो गया / अब कोढी कनकध्वज का सारा शरीर कंचन वर्ण का और कांति मान हो गया। अचानक हुई इस घटना के कारण वहाँ उपस्थित सभी लोग दंग रह गए। P:P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र इस चमत्कार से चंद्र राजा की कीर्ति और यश चारों दिशाओं में वायुगति से फैल गया। चंद्र राजा के प्रभाव की सब लोग मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे। पुण्यवान् मनुष्य के प्रभाव से क्या नहीं हो सकता हैं ? भगवान तीर्थीकर देव जहाँ विचरण करते हैं, उसके चारों ओर के 125 योजन के परिवेश में उनके पुण्यप्रभाव से हैजा-प्लेग महामारी आदि सात प्रकार की बीमारियाँ अपना प्रमाव नहीं दिखा सकती हैं। मकरध्वज राजा ने सिंहलनरेश को कुछ दिनों तक अपने यहाँ रखकर उनका आदरातिथ्य किया और सम्मान के साथ फिर उन्हें उनके देश की ओर रवाना कर दिया। इधर चंद्र राजा विमलापुरी के राजमहल में अपनी पत्नी प्रेमला के साथ सुखपूर्वक रहता था। कुछ दिन यों ही व्यतीत हो गए। लेकिन एक दिन राजा चंद्र को अचानक अपनी पटरानी गुणावली का स्मरण हो आया। उसके मन में विचार आया कि यहाँ तो मैं अपना समय खुशी से बिता रहा हूँ, लेकिन वहाँ आभापुरी में मेरी गुणावली के दिन मेरे विरह में कैसे कटते होंगे ? कैसे बिता रही होगी वह अपना समय ? अपने ही सुख-दु:ख विचार करने वाला मनुष्य अधम कहलाता हैं / उत्तम पुरुष तो वह 1 है जो दूसरों के भी सुख-दुःख विचार करता है ! / चंद्रराजा ने विचार किया कि मैंने आभापुरी से निकलते समय अपनी रानी गुणावली को ' | वचन दिया था कि मुझे मनुष्यत्व की प्राप्ति होते ही मैं तुरन्त तुझसे आकर मिलूंगा। लेकिन मैं | तो यहाँ अपनी नई रानी प्रेमला के प्रेमसागर में ऐसा डूब गया हूं कि महासती गुणवान् गुणावली ! को मैं बिलकुल भूल ही गया / मैंने यह उचित नहीं किया हैं। सच्चा प्रेम तो वह होता है जब - मनुष्य की अपने प्रेमपात्र के सुख से सुख मिलता हैं, और दुःख से दु:ख / इसका अर्थ यह हुआ कि मुझे अपने दिए हुए वचन के अनुसार तुरन्त आभापुरी जाकर अपनी पटरानी गुणावली से मिलना चाहिए।" प्रेम की एकमात्र शर्त यह होती है कि जिसके प्रति हृदय से किसी भी हालत में निभाना चाहिए। प्रेम 'नीर-क्षीर' जैसा होना चाहिए। E राजा चंद्र मन में विचार कर रहे थे कि गुणावली मेरी सौतेली माँ के कहने में आकर और उसके मायाजाल में फँसकर उसके अधीन हो गई, इसमें कोई आशंका की बात नहीं है / = लेकिन ऐसा होते हुए भी मेरे प्रति उसका प्रेम सच्चा, अखंडित और नि:स्वार्थ हैं, यह भी उतना P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चन्द्रराजर्षि चरित्र 207 नश्चित हैं। इसलिए मुझे उसे अपने जीवन में कभी नहीं भूलना चाहिए। अगर मैंने उसे भुला I, तो वह उसके प्रति अन्याय होगा। . __इस तरह विचार करते-करते सुबह हुई / प्रात:कर्मो से निवृत होकर चंद्र राजा ने अपनी रानी गुणावली को एक पत्र लिखा / अपनी ही लिखावट में लिखा हुआ पत्र राजा चंद्र ने ने एक अंतरंग सेवक को बुलाकर उसे सौंपा और कहा, "देख, मेरा यह पत्र लेकर तुझे भापुरी जाना है। वहाँ जाकर एकान्त देख कर यह पत्र आभापुरी राज्य के सुबुद्धि नामक मंत्री हाथ में सौंप दे। फिर यह पत्र सचिव गुणावली को दे देगा। देख, तुझे यह काम ऐसी सावधानी करना है कि किसी को यह पता नहीं चलना चाहिए कि राजा चंद्र ने गुणावली को पत्र भेजा वहाँ द्दष्टिविष सर्प से भी अधिक क्रूर और दुष्ट मेरी विमाता वीरमती है। अगर उसे यह मालूम हो गई, तो वह कोई-न-कोई नई आफत खड़ी किए बिना नहीं रहेगी। दूसरी बात, आभापुरी में मेरी पटरानी गुणावली से एकान्त में मिल ले और मेरी ओर उसके क्षेमकुशल पूछ ले / उसे मेरा यह संदेश भी दे दे कि, "प्रिय गुणावली, अब तुझे किसी र की चिंता नहीं करनी चाहिए। अब तेरे दु:ख के दिन समाप्त हो गए और सुख का सूरज त हो गया है। अब मैं जल्द ही आभापुरी आकर बहुत लम्बी अवधि के तेरे वियोग के दु:ख नष्ट कर दूंगा / हम फिर से आभापुरी में राज्य करेंगे। मुझे सिद्धाचलतीर्थ पर स्थित जकुंड के पानी के प्रभाव से अभी-अभी मनुष्यत्व की फिर से प्राप्ति हो गई है। लेकिन तेरे ना मेरा जीवन असार है। अन्य सभी बातों का यहाँ सुख होते हुए भी तेरे वियोग के दु:ख से [ मन बहुत व्यथित रहता है / मेरे दिल में तेरा स्थान अखंडित हैं। वैसे ही तेरे दिल में मेरा स्थान अखंडित है। फिर भी तेरे हित के लिए मैं एक पते की बात कहूं कि तू अपनी सास वाग्जाल में फँस कर मुझे भुला मत दे। देशान्तर में मिलनेवाले महासुख की तुलना में मुझे देश का अल्पसुख अधिक इष्ट लगता हैं। वास्तव में मुझे तुरन्त वहाँ आने में भी कोई बाधा नहीं है। लेकिन भूतकाल में आया सा अनुभव देख कर अब पूरा विचार कर के ही कदम उठाऊँगा। देवगुरु कृपा से मैं यहाँ नंद से हूँ। तुझे जल्द से जल्द मिलने की मेरे मन में प्रबल इच्छा है / तेरा प्रेम मुझे बहुत याद ताहै / लेकिन योजनों की दूरी तय कर के तुरन्त वैसे कहाँ आ सकूँगा ? लेकिन परमात्मा पेरी एक ही प्रार्थना है कि वह हम दोनों को जल्द से जल्द मिला दे। जिस दिन और जिस क्षण दोनों का संगम होगा, पुनर्मिलन होगा, उस दिन और उस क्षण को मैं धन्य-धन्य मान लूँगा। यक्ष रूप में मिलने पर प्रारंभ से अंत तक सबकुछ विस्तार से बताऊँगा। पत्र में अधिक P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र स्पष्ट रूप में लिखना मुझे उचित नहीं जंचता। मेरे आने तक इतनी ही हकीकत जान कर संतोष कर ले।" गुणावली के नाम सेवक के पास यह संदेश देकर और उसे अच्छी तरह सबकुछ समझा कर चंद्रराजा ने उसे आभापुरी की ओर भेज दिया। सेवक भी शीघ्रता से चलता हुआ समय पर आभापुरी जा पहुँचा। वहाँ गुप्त रीति से जाकर वह सुबुद्धि मंत्री से मिला / राजा चंद्र का मंत्री के नाम दिया हुआ पत्र भी उसने मंत्री को सौंप दिया। राजा चंद्र का पत्र जान कर मंत्री ने बहुत उत्सुकता से पत्र खोला। पत्र पढ़ते-पढ़ते मंत्री की खुशी बढ़ती गई। पत्र के मजमून से मंत्री सुबुद्धि सब कुछ समझ गया। चंद्रराजा के सेवक को लेकर सुबुद्धि मंत्री सब की नजर बचाकर गुप्त रीति से पटरानी गुणावली के पास चले गए। सेवक ने अपने हाथ से चंद्रराजा ने स्वयं लिख कर दिया हुआ पत्र गुणावली के कर-कमलों में आदर से दे दिया। प्रिय पति का इतनी लम्बी अवधि के बाद आया हुआ और उसका ढाढस बढानेवाला पत्र पढ़ कर हर्षावेश में आई हुई गुणावली की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। गुणावली उस पत्र को बार बार अपनी छाती से लगाती थी और बार बार खोल कर पढ़ती ही जाती थी। कुछ क्षणों के लिए ही सही, लेकिन वह पति की दुनिया में खो गई। पति के पत्र को साक्षात् पति ही मान कर वह बार बार पत्र का चुंबन करती रही। प्रेम को प्रेमी की हर चीज प्रिय लगती है। ऐसे समय पर प्रेम जड़ चेतन की भेदरेखा खींचने को नहीं बैठता है। गुणावली के नाम लिखे गए पत्र में इस प्रकार की बातें लिखी गई थीं - "प्रिय गुणावली, मैं भगवान ऋषदेव की अपार कृपा से यहाँ विमलापुरी में प्रसन्न स्थिती में हूँ। तेरी प्रसन्नता का समाचार जानने के लिए मैं अत्यंत उस्तुक हूँ। मन में तो ऐसी प्रबल इच्छा हो रही है कि तुरन्त आभापुरी आकर तुझसे मिलूँ। लेकिन तू अच्छी तरह जानती है कि आभापुरी और विमलापुरी के बीच कितना अंतर है। इसलिए इस समय पत्र से तेरी भेंट कर रहा हूँ। देशांतर में रहनेवाले दो प्रेमियों का मिलना तो पत्र द्वारा ही होता है। यहाँ का शुभ समाचार यह है कि सूरजकुंड के पानी के प्रभाव से मुझे फिर से मनुष्यत्व की प्राप्ति हो गई है। सचमुच, इस तीर्थक्षेत्र की महिमा अचिन्त्य हैं। उसकी जितनी प्रशंसा करूं, उतनी थोड़ी ही है ! मेरे पुनरूद्वार की-मनुष्यत्व प्राप्ति की-बात जान कर तुझे निश्चय ही आनंद होगा, यह मेरा विश्वास है। . यह पत्र पढ़कर स्वाभाविक ही तुझे आनंद होगा। मुझे यहाँ प्रतिदिन तेरी याद आती है। लेकिन साथ-साथ तेरी वह कनेर की छड़ी भी नहीं भूल सकता हूँ। यह बात याद आते ही P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 209 मेरा मन खिन्न हो उठता है कि उस समय तूने मेरे प्रेम की परवाह किए बिना सास के वाग्जाल पर विश्वास किया और उसके मायाजाल में फंसकर मेरी उपेक्षा की। फिर भी इसमें मैं तेरा अपराध नहीं मानता हूँ। सार संसार यही कहता है कि स्त्री किसी की हो नहीं सकती,' स्त्री का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए', 'स्त्री माया का मंदिर है। स्त्री के चारित्र्य का पार ब्रह्मा भी नहीं पा सकता हैं।' संसार चाहे जो कहे, लेकिन मेरा दृढ़ विश्वास हैं कि संसार की स्त्री के संबंध में जो राय है, उसमें तू अकेली अपवादस्वरूप हैं। मैं जानता हूँ कि मेरी सौतेली माँ ने ही उस समय उल्टीसीधी बातें कह कर तेरी मति भ्रमित कर दी थी। इसलिए उसके वाग्जाल पर विश्वास रख कर तू उसके कहने के अनुसार चलती रही। मैं जानता हूँ कि तूं महासती हैं, कुलवान् है / इसीलिए __ मैं तुझे एक क्षण के लिए भी नहीं भूल सकता हूँ। तुझे मुझसे किसी तरह का अंतर नहीं रखना हैं। सच्चा प्रेम अंतर नहीं रखता है। जहाँ अंतर होता हैं, वहाँ सच्चा प्रेम नहीं होता हैं। मेरे मन में तो तेरे प्रति पहले जैसा ही प्रेम अब भी है। तूने मुझसे छिपा कर अपनी सास के साथ संबंध जोड़ा और उसी में सुख मान लिया / इन सारी बातों में मेरी अनुमति लेना तूने | उचित नहीं समझा। इसलिए उसका जो परिणाम होना था, सो हो ही गया। उसका कटु फल तूने भी भोगा है और मैंने भी! सच है, भाग्य में जैसा लिखा होता हैं, उसीके अनुकूल मनुष्य की बुद्धि काम करने लगती है। ऐसे समय पर सहायक भी ऐसे ही मिल जाते हैं। ऐसे समय मनुष्य का पुरुषार्थ भी गायब-सा होता है। ___मेरे जीवन में भी मेरे पूर्वजन्म के किसी अशुभ कर्म का उदय होनेवाला होगा, इसीलिए तुझे मुझसे मेरी सौतेली माँ प्रिय लगी और तू उसकी बातों मे पूरी तरह फँस गई / खैर, जो होना था, सो हो गया और उसे हम दोनों टाल भी नहीं सकते थे। अब वे बातें बार-बार याद करने से क्या लाभ ? मनुष्य के भाग्य में जो सुख-दु:ख लिखा हुआ होता हैं, मनुष्य को वह भोगना ही पड़ता है / भाग्य में लिखी हुई बातों में हेरफेर करने में कौन समर्थ है ? कर्म की गति सचमुच बड़ी विचित्र हैं। कर्म की गति रोकने की सामर्थ्य किस में है ? जब मुझे तेरी गलती याद आ जाती हैं, तब क्षणभर के लिए ही सही, तेरे प्रति मेरे मन में क्रोध का भाव उत्पन्न हो जाता है / लेकिन तेरा नि:स्वार्थ प्रेम याद आते ही मेरा वह क्रोध शांत ही जाता है। स्तु, पत्र में इससे अधिक क्या लिखू ? बीती हुई बातें भूल जाने में ही मनुष्य P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 210 , . श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र का भला है। प्रेमपात्र का अपराध हरदम क्षम्य ही होता है। दूसरी बात यह है कि मैं मानता हूँ कि किए हुए अपराध के लिए तेरे मन में बहुत पश्चाताप हुआ होगा। पश्चाताप ही मनुष्य से हुई भूल के लिए पर्याप्त प्रायश्चित हैं / इसलिए मैं तेरे अपराध के लिए तुझे क्षमा करता हूँ। मेरी आँखें तुझे यथाशीघ्र देखने के लिए लालायित हैं / यहाँ तक कि मेरा शरीर, मन और प्राण भी तेरे पास ही हैं। इसी समय तुझसे मिलने की प्रबल इच्छा हो रही है, लेकिन क्या करूँ ? इतने सारे वर्ष मैंने अत्यंत कष्ट में बिताए हैं। अब देखना हैं कि भाग्य तेरा-मेरा संगम कब करा देता है ? सेवक के साथ पत्र का उतर लिख कर भेज दें। इस गुप्त पत्र की बात गलती से भी अपनी सास के पास मत करना। कुछ और पूछना हो तो मेरे भेजे हुए पत्रवाहक से तूनि:संकोच पूछ सकती हैं ! तेरा शुभाकांक्षी, चंद्रकुमार ___ गुणावली ने अपने पति का पत्र पढने के बाद पत्रवाहक से फिर अपने पति का क्षेमकुशल पूछ लिया। पत्रवाहक ने चंद्र राजा ने पत्र में जो लिखा था, वही सारा समाचार गुणावली को सुनाया / यद्यापि पत्र में चंद्रराजा ने गुणावली को भला-बुरा लिखा था, फिर भी इतनी लम्बी अवधि के बाद पति का पत्र पाकर गुणावली फूली न समाई। उसने उसी समय चंद्र राजा के पत्र का प्रत्युतर लिख कर वह पत्रवाहक को सौंप दिया। उसने पत्रवाहक को बड़े सम्मान से लेकिन गुप्त रीति से विदा कर दिया-रवाना कर दिया। लेकिन पूरी तरह से खिले हुए पुष्प को सुगंध जैसे प्रकट हुए बिना नहीं रहती है, वैसे ही राजा चंद्र के गुणावली को लिखे गए पत्र की बात अत्यंत गुप्त रखने की कोशिश करने पर भी गुप्त नहीं रह सकी, प्रकट होकर ही रही। आभापुरी में चारों और यह वार्ता फैली कि राजा चद्र ने मुर्गे के रूप में से मनुष्य का रुप पा लिया हैं।' जैसे जैसे यह वार्ता नगर में फैलती गई, वैसे वैसे आभापुरी की जनता के मन में यही इच्छा बलवती होती गई कि कब हमारे महाराज चंद्र आभापुरी में पधारेंगे और कब हम उनके पावन दर्शन से अपनी आंखों को सार्थक बना लेंगे। सारी आभापुरी में एकमात्र अभागिनी वीरमती ही थी कि उसे यह समाचार सुन कर मन में अत्यंत दु:ख हुआ था। खैर ! P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 211 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र यथासमय रानी गुणावली का चंद्रराजा के नाम लिखा हुआ पत्र लेकर गुप्त रीति से रवाना हुआ दूत कुछ समय के बाद विमलापुरी पहुँच गया। चंद्र राजा के पास पहुँच कर उसने सारा वृत्तान्त राजा चंद्र को कह सुनाया और फिर गुणावली का लिखकर दिया हुआ पत्र राजा चंद्र को सौंप दिया। चंद्र राजा ने गुणावली का लिखा हुआ पत्र अपनी छाती से लगा लिया और वह अत्यंत आदर से पत्र पढने लगा।पत्र में गुणावली ने लिखा था, 'प्रिय प्राणनाथ ! आपका पत्र मिला ! आपका पत्र पढ़ कर बहुत खुशी हुई। पत्र में आपने मुझे जो उपालंभ दिया है, वह मेरे अपराध के स्वरूप को देखते हुए अत्यंत अल्प हैं। आप मुझे उपालंभ देने के अधिकारी हैं / मुझे आपका उपालंभ चुपचाप सुनना चाहिए। वास्तव में मैं तो दोषों की खदान हूँ। इसलिए मैं बिलकुल दया की पात्र नहीं हूँ। लेकिन आप तो सागर की तरह गंभीर और स्वभाव से ही परोपकारी हैं। जैसे बादल बरस कर सरोवरों और तालाबों को पानी से भर देते हैं, फिर भी बदले में कुछ भी पाने को इच्छा नहीं रखते हैं, जैसे आम्रवृक्ष उस पर पत्थर फेंकनेवाले को मीठा फल ही देता हैं, जैसे चंदन का पेड उसे काटनेवाले को भी सुगंध ही प्रदान करना हैं, जैसे गन्ने को कोल्हू मे डाल कर पेरने पर भी वह मधुर रस ही देता है, बिलकुल वैसे ही आपने मेरे दुर्गुणों को अनदेखा कर अपनी सुजनता का ही परिचय दिया हैं। ऐसा करना आप जैसे महापुरुषों के लिए उचित ही है। वास्तव में मेरा अपराध अक्षम्य हैं। मैंने अपनी सास की बातों में आकर आपके साथ प्रवंचना की है। मैंने अपनी ही करतूत से अपने लिए दु:ख खड़ा कर दिया था। इसके लिए मैं सचमुच पश्चात्तापदग्ध हो गई हूँ। F कभी-कभी ऐसा होता हैं कि मनुष्य के पुण्य का बल पतला-मंद पड जाने से उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। ऐसा ही मेरे बारे में भी हुआ हैं / मैं सास की बात मान कर कौतुक देखने गई। इससे आपको और मुझे भी काफी परेशानी सहनी पड़ी है / इसके लिए मुझे बहुत पश्चाताप होता हैं। लेकिन अब पछताए क्या होत, जब चिडिया चुग गई खेत ? = यदि मैंने आपके विवाह की बात अपनी सास से न कही होती, तो जो अनर्थ हुआ, वह न होता, बिलकुल न होता / मुझे अपने कुकुत्य का पूरा फल मिल गया / अपनी ओर से हुई इस बहुत बड़ी गलती केलिए मुझे बहुत दु:ख होता है। लेकिन अपने इस दु:ख को किसके सामने कहूँ ? पश्चात्ताप करने पर भी बिंगडी हुई बाजी थोडे ही सुधरती है ? पानी पीने के बात घर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 . श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र पूछने से क्या लाभ ? जो भाग्य में लिखा हुआ होता है वह भोगना ही पड़ता है। वह मैंने भोग भी लिया हैं। .. : विधाता के लिखे हुए लेख को बदलने की सामर्थ्य किसमें है ? हे प्रिय, मैंने आपके विरह में सोलह वर्षों की लम्बी अवधि बिता दी है। इतने सारे वर्षों में मुझे क्या-क्या भोगना पड़ा, इसे या तो मेरा दिल जानता है / या फिर भगवान जानते हैं। __ और क्या लिखू ? प्रिय नाथ, आपके वियोग में मुझे सुखदायी वस्तुएँ भी दुःखदायी ही लगती हैं। आपके बिना सख के सभी साधन मेरे लिए एक से रहित शुन्य की तरह बिलकुल निरर्थक हैं, बेकाम के हैं। आपके बिना मेरी हालत पानी के बीना होनेवाली मछली के समान हो गई है / हे नाथ, मैं हर क्षण आपके नाम का स्मरण करती हूँ। प्रतिदिन मैं भगवान से हार्दिक प्रार्थना करती रहती हूँ कि आपका मुझसे जल्द संगम हो ! इसके लिए मैं यथाशक्ति जप-तपव्रत और प्रभुभक्ति करती रहती हूँ। आपका पत्र पढ़ कर पता चला कि आपको फिर से मनुष्यत्व की प्राप्ति हो गई है। यह पढ़ कर मेरे मन में आनंद का समुद्र उछल रहा हैं। अब आपसे यह विनम्र प्रार्थना हैं कि आप यथाशीघ्र आभापुरी पधार कर मुझे दर्शन दे दें और मेरे लम्बे समय से विरह-संतप्त हृदय को शांति प्रदान करें / हे नाथ, मुझे मत भूलिए। हे नाथ, आप भले ही इस समय शरीर से विमलापुरी में बैठे हों, लेकिन यहाँ तो मेरे मनमंदिर में आ बैठे हो। मैं वहाँ बैठे-बैठे आपके सद्गुणों का नित्य स्मरण कर रहै हूँ। आपके बिना यहाँ मेरा एक-एक दिन एक-एक युग की तरह बीतता है। आपके वियोग में, आपके संकट में मुझे एक दिन भी खाने में मन नहीं लगा, स्वाद नहीं आया / इन सोलह वर्षों की लम्बी अवधि में मैं एकरात भी चैन से नहीं सो सकी। आपके बिना यह सभी सुविधाओं से परिपूर्ण राज महल भी बड़ा भयंकर लगता है। आपके बिना कोई वस्तु मुझे सुख नहीं प्रदान कर सकती। आपके वियोग के कारण मैं निरंतर दु:ख के दावानल में जलती जा रही हूँ। लेकिन आज अचानक आपका पत्र लेकर आपका सेवक आया / आपका पत्र पढ़कर अब मेरे मन में पूरी आशा जाग उठी है कि मुझे शीघ्र ही आपका समागम मिलेगा / भविष्यत् में आनेवाले उस सुख की खुशी में मैं अपना सारा विरहदुःख भूल गई हूँ। आज आपके समागम की कल्पना के आनंद में डूब कर मैंने अवर्णनीय आनंद पा लिया है। हे जीवनाधार ! आपकी मनुष्यत्व की प्राप्ति हुई यह जान कर मेरा आनंद मेरे हृदय में समा नहीं रहा हैं / मेरे लिए तो यही सच्चा सुख समाचार हैं। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 213 __. लेकिन यह समाचार मेरी सास के कानों में सुनाया तो वह दुष्ट स्त्री कोई-न-कोई नई भाफत लाए बिना चुप नहीं बैठेगी। इसलिए इस समय यह बात गुप्त रखना ही अच्छा है। कुछ समय के बाद आपके मन में यहाँ पधारने की इच्छा उत्पन्न हुई, तो आने से पहले आप अपनी सौतेली माँ के नाम एक पत्र लिख भेजिए और उसे सबकुछ बता दीजिए। . . फिर समय के अनुसार जो करने योग्य होगा वह कीजिए / अब और क्या लिखू ? अंतमें, फिर एक बार आपसे प्रार्थना करती हूँ कि मेरे अपराध के लिए मुझे क्षमा कीजिए। इस . अभागिन को भूल मत जाइए। आपके चरणों की इस दासी को यथाशीघ्र दर्शन देने की कृपा कीजिए। आपकी दासी, गुणावली" गुणावली का उपर्युक्त पत्र पढ़कर चंद्र राजा के हृदय पर उसका बहुत अच्छा और हरा प्रभाव हुआ। चंद्र राजा ने अपने मन में सोचा, “सचमुच, गुणावली गुणावली है। उसका नाम सार्थक है। उसका प्रेम भाव और विवेक सराहनीय है। अब वह शुभ दिन जल्द से जल्द आए, जब हमारा वियोग समाप्त हो और हम दोनों की एक दूसरे से मिलन की चिरकाल की अभिलाषा पूरी हो जाए। . इधर 'चंद्रराजा को मनुष्यत्व की प्राप्ति हो गई' यह समाचार वीरमती को मिलते ही उसका मन क्रोध और ईर्ष्या से जल उठा। वह मन में सोचने लगी - "इस जगत् में ऐसा कौन शक्तिशाली निकला जिसने चंद्रकुमार को फिर से मनुष्य बना दिया ? सुना गया है कि चंद्र को आभापुरी लौट आने की इच्छा है। वैसे यह तो मेरी ही गलती हो गई कि मैंने उसे जीवित छोड़ दिया, उसी समय उसका काम तमाम नहीं किया। मैंने उसे पहले ही खत्म कर दिया होता, तो आज ऐसा अनिष्ट समाचार सुनने का अवसर ही न आता। पापी मनुष्य को पाप करना बाकी रह गया इसका बहुत दु:ख होता रहता है। इसके विपरीत धर्मिष्ट मनुष्य को धर्म करने का काम बाकी रहा, जो दु:ख होता हैं। . जैसे बिल्ली विचार करती है कि मेरी पकड़ में आया हुआ चूहा खिसक गया। वैसे ही वीरमती भी अब सोच रही थी कि मेरे हाथ में आए हुए चंद्र को मैंने जिंदा छोड़ दिया, यह मेरी . ओर से बहुत बड़ी भूल हो गई / मेरे सामने एक बच्चे जैसा होते हुए भी, फिर से मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहता हैं, लेकिन उसको क्या मालूम कि ऐसा करना आसान नहीं हैं। अच्छा तो यह होगा कि मैं उसे आभापुरी में लौट आने ही नदूं। मैं स्वयं विमलापुरी चली जाऊँगी और उसका मानमर्दन कर दूंगी। उसे मृत्यु से ही मिला दूंगी ! उसे अब जिंदा रखू तो मेरे सामने वह फिर मस्तक ऊँचा उठाएगा न ? इस घटना से मुझे यह बोधपाठ ही मिल गया है कि शत्रु को जिंदा रखना यह महामूर्खता हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 - श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वीरमती ने मन में ऐसा विचार करके गुणावली को अपने पास बुलाया। भयभीत-सी होकर गुणवाली चली आई, तो वीरमती ने उसे सुनाया, 'बहू गुणावली, मैंने सुना है कि विमलापुरी मे' तेरे पति चंद्र को मनुष्यत्व की प्राप्ति हो गई है और वह यहां आभापुरी में लौट आना चाहता है। लेकिन उसके यहाँ आने से कोई लाभ नहीं होगा। उसके मन की मुराद पूरी नहीं होगी। वह मुझे जीत कर आभापुरी का राज्य फिर नहीं पा सकेगा। मेरे सामने वह एक सियार जैसा है। एक सिंह के सामने सियार आखिर कितने समय तक टिक सकेगा ? ____ बहू, तुझे भी यह बात मालूम हो ही गई होगी। लेकिन तू मेरे भय से यह बात जानबूझ कर मेरे सामने प्रकट नहीं करती है। लेकिन तू अपने पति को पत्र लिख कर उसे बता दे कि वह यदि फिर से मुर्गा नहीं बनना चाहता है, तो यहाँ लौट कर फिर से राज्य प्राप्त करने की इच्छा न रखें। बहू, यह बात गुप्त ही रख ले। किसी पर भी यह बात प्रकट मत कर / यदि तू मेरे कहने की उपेक्षा करके मुझे ठगने की कोशिश करेगी तो याद रख, मेरे जैसी खराब स्त्री दुनिया में अन्य कोई नहीं होगी। देख, मैं तो तेरे पति को समझाने के लिए विमलापुरी जाना चाहती हूँ। तू यहाँ खुशी से रह ले। जितना हो सके, मैं जल्द ही वापस चली आऊँगी।" सास की कही हुई सारी बात सुन कर गुणावली ने उससे कहा, माँजी, आप ऐसा क्यों कह रही हैं ? वे फिर से मनुष्यत्व प्राप्त कर चुके हैं / यह उड़ती खबर मेरे भी कानों में पड़ी है, लेकिन मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होता है। माँ जी, मैंने आपके जैसी शक्तिशाली स्त्री संसार में अन्य कोई नहीं देखी है। किस मैं ऐसी शक्ति है कि आपके किए हुए किसी कार्य को अन्यथा कर सके उलट सके ? सच पूछिए तो मुझे ऐसा होना ही असंभव लगता है। __नटमंडली का इतना दूर होने वाली विमलापुरी जाना और वहाँ आपके पुत्र का मुर्गे से फिर मनुष्य बनना यह सब मुझे सरासर एक अफवाह की तरह लगता है। हाँ, यह अवश्य हैं कि यदि आप चाहे तो उन्हें मुर्गे से मनुष्य बना सकती हैं, क्योंकि आपके पास वैसी दैवी शक्ति विद्यमान है। आपके पास है, वैसी शक्ति अन्य किसीके भी पास नहीं है / माँ जी, फिर भी यदि आप विमलापुरी जाने की इच्छा रखती हैं, तो आप खुशी से जा सकती हैं। आपको वहाँ जाने से कौन रोक सकता है ? लेकिन मेरी इच्छा इस समय वहाँ आने की नहीं है। इसमें आपको जो ठीक लगता है, वही आप कीजिए।" गुणावली ने बहुत होशियारी और सावधान से अपनी सास के विचारों को बदलने का प्रयत्न किया, लेकिन औंधे घड़े पर पानी डालने से क्या परिणाम निकलता है ? सास भी टस-से P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 215 मस नहीं हुई। अंत में गुणावली सास के यहाँ से उठकर वापस अपने महल में चली आई, लेकिन अब वह इस चिता से अत्यंत उद्भिग्न हो गई कि कहीं सास नया उत्पात न मचा दे। बहू गुणावली के चले जाते ही वीरमती ने अपने सिद्ध किए हुए मंत्रतंत्र के अधिष्ठायक देवों की साधना करके उन सबको बुला लिया। आए हुए देवताओं को वीरमती ने आज्ञा दी, "ऐसा उपाय करो जिससे चंद्रकुमार लौट कर आभापुरी न आसके। अगर उसे रोकना संभव / न हुआ, तो उसका काम वहीं तमाम कर दो।" वीरमती की आज्ञा सुन कर देवता भी क्षणभर के लिए विचारमग्न ही गए। फिर उन्होंने वीरमती से कहा, "हे रानी, यह कार्य हमसे नहीं हो सकेगा। इसका कारण यह है कि सूरजकुंड के पानी के प्रभाव से चंद्रकुमार को मनुष्यत्व की प्राप्ति हुई है। उनके मनुष्यत्व को फिर से मिटाने की शक्ति अब हममें नहीं है। सूरजकुंड के देवता हमसे बहुत अधिक बलवान् है। इस समय सूरजकुंड के सभी देवता चंद्रकुमार की दिनरात रक्षा कर रहे है। इसलिए यह काम छोड़कर हमारे लिए योग्य कोई अन्य काम हो, तो बताइए। चंद्रकुमार का बाल भी बाँका करने की ताकत अब हम में नहीं है। रानी जी, हमारी तो आपको भी यह सलाह है कि आप अपने पुत्र चंद्रकुमार के प्रति अपने मन में होनेवाला दुर्भाव छोड़ दीजिए। आप उन्हें आभापुरी का राज्य सहर्ष सौंप दीजिए और उसके साथ हिलमिल कर रहिए। यदि आप हमारी यह सलाह न माने तो यह बात निश्चित जान लीजिए कि आपके प्राण भी सुरक्षित नहीं हैं। हे रानी, यह बात मत भूलिए कि सौ दिन सास के हुए तो एक दिन बहू का भी आता _हैं। इसलिए अब नया उत्पात मचाए बिना शांति से रहने में ही आपकी खैरियत है।" इतना कह कर वहाँ आए हुए सभी देवता वहाँ चुपचाप खड़े रह गए / देवताओं की सलाह वास्तव में वीरमती के लिए बहुत लाभदायक और आगे चलकर आनेवाले संकट का इशारा भी देनेवाली थी। लेकिन कहते हैं न ? 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि।' . वीरमती की ठीक यही स्थिति हुई / देवताओं की सलाह सुन कर वीरमती सयानी न बनी बल्कि वह और अधिक क्रुद्ध हो गई / क्रुद्धा आधिन की तरह बिगड़ी हुई वीरमती की देवताओं ने फिर से समझाने की भरसक कोशिश की। लेकिन दुष्ट वीरमती ने अपना दुराग्रह नछोड़ा। इसलिए अंत में नाराज होकर आए हुए सभी देवता अपने-अपने स्थान की ओर चले गए। देवताओं के वहाँ से चले जाने के बाद वीरमती ने सुबुद्धि मंत्री को बुलाकर उसे जो घटित हुआ था वह सब कह सुनाया। उसने मंत्री को यह भी बताया कि मैं विमलापुरी जाने की बात सोच रही हूँ। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वीरमती की बात सुनकर मंत्री ने कहा, “रानी जी, आप खुशी से विमलापुरी जाइए। मैं आपको बिलकुल रोकना नहीं चाहता हूँ। आप निश्चित होकर जाइए। जब तक आप विमलापुरी से वापस न आएँ, तब तक मैं आभापुरी का दैनंदिन कारोबार अच्छी तरह सँभालूँगा / आप निश्चित होकर जाइए और अपनी इच्छा के अनुसार विमलापुरी में रहिए / यहाँ की किसी प्रकार से चिंता मत कीजिए।" मंत्री की विवेकपूर्ण और मीठी लगनेवाली बातें सुन कर वीरमती बहुत खुश हुई। वह अपने मंत्री की जी खोलकर प्रशंसा करने लगी। कुछ मंत्री की जी खोलकर प्रशंसा करने लगी। कुछ देर बाद मंत्री महोदय वहाँ से चले गए। मंत्री के जाते ही वीरमती ने फिर से अपनी मंत्रशक्ति के प्रयोग से सभी देवताओं को अपने पास बुला लिया। उन सभी देवताओं को साथ में लेकर और हाथ में तलवार लेकर उसने विमलापुरी की ओर आकाशमार्ग से प्रयाण किया / अत्यंत अभिमानी होनेवाला मनुष्य अपने हितैषियों की हितशिक्षा को भी नहीं मानता है। बहुत घमंडी होनेवाले रावण ने भी अपने छोटे भाई विभीषण की कही न्यायी बात कहाँ मानी थी ? वह तो अपने ही धमंड में मग्न रहकर अंत में नष्ट हो गया। आकाशमार्ग से जाती हुई वीरमती अपने मन में विचार कर रही थी कि मैं अभी विमलापुरी पहुँच कर चंद्र को यमसदन को भेज दूंगी ? लेकिन मिथ्याभिमानी वीरमती को कहाँ पता था कि चंद्र को यमसदन पहुँचाने से पहले उसे खुद को मर कर नरक का मेहमान बनना पड़ेगा ? जगत् में मनुष्य अपने मन में जो चाहता है, वह सब होता थोड़े ही है ? जब तक भाग्य मनुष्य के अनुकूल होता है, तब तक सबकुछ मनचाहे ढंग से होता रहता है, लेकिन भाग्य प्रतिकूल होते ही सब मन की इच्छाओं के विपरीत होता है। एक बार भाग्य की अनुकूलता से यदि दाँव सीधा पड़ जाए, तो वह हरदम सीधा ही पड़ेगा, ऐसा मनुष्य को कभी नहीं मानना चाहिए। - अब वीरमती का विनाशकाल निकट आया था। इसलिए विपरीत बुद्धि के कारण अब / वह देवताओं की सलाह मानने को भी तैयार नहीं थी। भाग्य और भवितव्यता के सामने मनुष्य का कोई वश नहीं चलता हैं / उस समय वीरमती के लिए दोनों भी प्रतिकूल थे। इसलिए तो वह देवताओं की सलाह अनसुनी कर बड़े अभिमान से चंद्रराजा को मार डालने के उद्देश्य से विमलापुरी की ओर आकाशमार्ग से तेजी से चली जा रही थी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र . 217 उधर चंद्रराजा का परमभक्त होनेवाले एक देवता ने चंद्रराजा के पास आकर कहा, “हे राजन्, आपकी सौतेली माँ वीरमती आपका विनाश करने के लिए आकाशमार्ग से विमलापुरी आ रही हैं। इसलिए आप सावधान हो जाइए। मैं गुप्त रीते यह खबर देने के लिए आया हूँ। आपका पुण्यबल इतना जोरदार हैं कि वीरमती आपका बाल भी बांका नहीं कर सकती है, फिर भी आपको सावधान करना उचित है। यह मान कर मैं आपके पास आया हूँ। आप वीरमती का सामना करने के लिए पूरी तरह से तैयार हो जाइए / ऐसा करना ही आपके लिए उचित होगा। देवता की कही हुई बातें सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुए चंद्रराजा ने विमलापुरी के मार्ग में ही सौतेली माँ वीरमती का सामना करने के लिए जाकर उसे रोकने का निश्चय किया। इसके / लिए चंद्रराजा ने सभी प्रकार की तैयारी कर ली। चंद्रराजा ने वायु की गति से चलनेवाले घोडों / की एक सेना सुसज्जित कर दी। फिर चंद्रराजा ने अपने शरीर पर कवच धारण कर लिया। वह एक अश्वरत्न पर सवार हुआ। अपने साथ सात हजार घुड़सवारों की सेना लेकर शिकार . करने के लिए जाने का बहाना बना कर वह विमलापुरी के बाहर निकला। = थोड़ी दूरी पर जाते ही उसने वीरमती को आकाशमार्ग से विमलापुरी की ओर आते हुए देखा / क्रोधावेश में होने के कारण वह अत्यंत भयंकर दिखाई दे रही थी। उसके हाथ में चमकती हुई तीखी धारवाली नंगी तलवार थी। चंद्र राजा ने अपने मन में विचार किया कि मेरी सौतेली माँ वीरमती मानो मुझे आभापुरी पधारने के लिए निमंत्रण देने के लिए ही आ रही हैं! . वीरमती ने आकाश में से दूर से ही देखा कि मेरा सौतेला पुत्र राजा चंद्र मेरे सामने आ हा है। इसलिए आकाश में से ही उसने कहा, "अरे चंद्र, अच्छा हुआ कि तू मेरे सामने भाया। मुझे तुझे खोजने के लिए मेहनत नहीं करनी पडी। मैं अच्छी तरह से जानती हूँ कि तेरे इन में आभापुरी लौट आने की इच्छा हैं। लेकिन याद रख कि तेरे मन को यह अभिलाषा कभी पूरी नहीं हो सकेगी। अब मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगी। तू अपने इष्ट देवता का स्मरण कर और रने के लिए तैयार हो जा। मेरे सामने आ जा और दिखा मुझे अपनी तलवार का तेज / आ ना।" वीरमती की आक्रोशपूर्ण ललकार सुन कर भी शांति बनाए रखते हुए चंद्रराजा ने . वनम्रता से वीरमंती से कहा, “पूज्य माताजी ! आप मुझ पर क्रोध मत कीजिए। मैंने तो आपके . ति कोई भी अपराध नहीं किया है। फिर भी आप मेरे प्रति क्रोध की भावना क्यों रखती हैं, यह o मेरी समझ में ही नहीं आता है ! जरा सोचिए तो कि क्या मेरे साथ युद्ध करने से आपकी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र शोभा में वृद्धि होगी ? माताजी, मैं तो आपसे यही प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे साथ युद्ध करने का साहस मत कीजिए। फिर भी यदि आप की इच्छा मेरे साथ युद्ध करने की है, तो आइए, मैं इसके लिए भी तैयार हूँ। ___ माताजी, आपका यहाँ आने का उद्देश्य क्या है, यह मैं पहले ही जान चुका हूँ। आपके * स्वभाव से मैं बहुत अच्छी तरह परिचित हूँ लेकिन इस समय उसका वर्णन करना मुझे उचित नहीं लगता हैं / पुत्र के साथ माँ का युद्ध हुआ यह जान कर लोग हँसेंगे। इसलिए मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस अनुचित युद्ध के लिए मुझे विवश मत कीजिए। माताजी, मेरी बात मान : जाइए।" चंद्र राजा की बात सुन कर क्रोध से वीरमती का खून खौल उठा। क्रोधान्ध होकर उसने आकाश में से ही चंद्रराजा पर खड्ग फेंका। लेकिन वह राजा के शरीर पर पहने हुए कवच से टकराया। राजा का बाल भी बाँका न हुआ। लेकिन वीरमती की तीखी धार की वह तलवार दैवी प्रभाव से फिर उछल कर वीरमती के वक्षस्थल पर जा गिरी। इस प्रहार से वीरमती बेसुध होकर धरती पर जा गिरी। मनुष्य के पुण्य का जब क्षय होता है, तब उसके पास भले ही हजारों विद्याएँ या सहायता के लिए हजारों देवता क्यों न हो, वे भी उस मनुष्य की रक्षा नहीं कर सकते हैं। रावण के पास तप की शक्ति से सिद्ध की हुई एक हजार विद्याएँ थीं। फिर भी वह युद्ध में अंत में राम-लक्ष्मण के हाथों हारा और मर कर नरक में ही गया था न ? चंद्र राजा के प्रबल पुण्योदय के कारण वीरमती की छाती पर प्रहार करने के बाद वह खङग वापस घूम कर चंद्र राजा के पास चला आया / चंद्र राजा ने यह खङग सम्मान से अपने पास रख लिया। ____ अपने ही खङग के जोरदार प्रहार से बेहीश होकर भूमि पर गिरी हुई वीरमती अभी / जिंदा है यह जानकर और दुर्जन को दंड देना उचित हैं ऐसा समझ कर चंद्र राजा ने वीरमती के पाँव पकड़ कर उसे आकाश की ओर उछाला, घुमाया और जैसे धोबी वस्त्र को पटक-पटक कर धोता हैं, वैसे ही चंद्र राजा ने वीरमती को पास में पड़ी हुई पत्थर की शिला पर पटक-पटक कर उसके प्राणों को परलोक में पहुंचा दिया। प्राणों से रहित होनेवाला वीरमती का पार्थिव शरीर वहाँ गीदडों चीलों के भक्षण के लिए वहीं पड़ा रहा। वीरमती आजीवन किए हुए भयंकर पापों का फल चखने के लिए छठे नरक में पहुँच गई / संसार में महापापी जीवों की ऐसी ही दुर्गति होती है। मनुष्य पाप तो एक क्षण में कर डालता है, लेकिन उस पाप की सजा उसे अनेक सागरोपम तक भोगनी पड़ती है / इसीलिए करुणा के सागर होनेवाले ज्ञानी जन बार बार संसारी जीवों को चेतावनी देते हैं - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र ___219 ‘बंध समय चित्त चेतिए, उदये शो संताप ?' अर्थात्, कर्मबंध के समय ही सावधान हो जाइए, पापकर्म उदय होने पर संतप्त होने से ! क्या लाभ ? अब आकाश में से देवताओं ने चंद्र राजा पर पुष्पवृष्टि कर के जोर शोर से उसकी जयजयकार की / 'पुण्योदय पर विजय और पापोदय पर पराजय' यह कर्मसत्ता का सनातन सिद्धान्त है। दूसरी बात यह है कि जो धर्मात्मा के साथ बैर बाँधता है, अंत में उसका विनाश हुए बिना नहीं रहता है। वीरमती ने महाधर्मात्मा राजा चंद्र के साथ बैर बाँधा, तो अंत में उसकी दुर्गति और विनाश हुआ। वीरमती को हरदम के लिए समाप्त करके चंद्र राजा अपनी अश्वसेना के साथ वीमलापुरी में लौट आया। विमलापुरी में पहुँचते ही उसने विजयवाद्य बजाया। इस बात का पता चलते ही मकरध्वज राजा अत्यंत हर्षित हुआ। उसने अपनी खुशी प्रकट करने के लिए अपने दामाद चंद्र . राजा को अपना आधा राज्य देकर उसे सम्मानित किया। पुण्योदय जिसका सम्मान करता है, उसका सम्मान सब करते हैं। अपने पति की विजय की बात सुन कर प्रेमला के आनंद का ठिकाना न रहा। अब वह प्रसन्नता से अपने पतिदेव राजा चंद्र की सेवा करते हुए सांसारिक सुखों का उपभोग करने लगी। अब राजा चंद्र भी सभी तरह से भयमुक्त हो आया और अवर्णनीय सुखोपभोग करते हुए अपना जीवन व्यतीत करने लगा। . 'चंद्र राजा ने वीरमती का विनाश किया' यह खबर किसी देवता ने आभापुरी में जाकर गुणावली को दे दी। गुणावली ने यह शुभ समाचार सुनते ही अत्यंत प्रसन्न होकर मंत्री सुबुद्धि को अपने महल में बुलाया और उन्हें वीरमती की मृत्यु की खबर दे दी। दुष्टा वीरमती की मृत्यु की खबर गुणावली से सुन कर मंत्री सुबुद्धि हर्षावेश में आ गये / उन्होंने सारी आभापुरी में ढिंढोरा पीट कर वीरमती की मृत्यु की खबर प्रसारित कर दी। आभापुरी की जनता ने वीरमती की मुत्यु के उपलक्ष्य में हर्षपूर्वक एक बड़ा महोत्सव मनाया और उस दुष्टा की मृत्यु की खुशी मनाई। पापी की मृत्यु से किसे शोक होगा ? आभापुरी वासियों ने एक सितमगर के पंजे से आभापुरी हरदम के लिए मुक्त हो गई, इस बात का आनंद अनुभव किया और उसे मनाया। अब आभापुरी के प्रजाजनों की अपने प्रिय राजा चंद्र के पुनर्दर्शन की उत्सुकता बहुत P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र बढ़ी / इसलिए प्रजाजनों ने मिल कर एक पत्र लिख कर विमलापुरी भेज दिया। पत्र में प्रजाजनों ने लिखा था, "आभानरेशजी, दुष्टा वीरमती पर विजय पाकर उसका विनाश करने के लिए आभापुरी वासियों आप यथाशीघ्र आभापुरी पधार कर सब को दर्शन दीजिए और.. उपकृत कीजिए।" सास वीरमती के भय से सर्वदा और सर्वथा मुक्त हुई रानी गुणावली तो अब अत्यंत आतुरता से अपने प्रिय पति की मार्गप्रतीक्षा कर रही थी। पतिव्रता को पतिविरह में सुख कहाँ से मिल सकता है ? अब गुणावली की स्थिति तो बिलकुल पानी से बाहर निकाली गई मछली की तरह हो गई थी। एक बार गुणावली ने अपने मन-ही-मन अपने प्रिय पति आभानरेश चंद्र को उद्देश्य कर कहा, "हे प्राणाधार, ऐसा लगता है कि आपको सौराष्ट्र देश ही प्रिय लग रहा है / यह ठीक भी है, क्योंकि मेरी छोटी बहन प्रेमला ने ही आपका हित देखा है। उसके प्रयत्नों से ही आपको मुर्गे के रूप में से मनुष्यत्व की पुनाप्राप्ति हो गई है। दूसरी बात, आप विमलापुरी के महाराज के दामाद बन गए हैं। फिर सास-ससुर के आदरातिथ्य में क्या कमी हो सकती है ? लेकिन हे स्वामिनाथ ! ससुराल में बहुत समय व्यतीत करना आपके जैसे अभिमानी राजा को शोभा नहीं देता है। इसलिए यथाशीघ्र अपनी नगरी आभापुरी में पधारिए और मुझे दर्शन दीजिए / लेकिन कौन ऐसा परोपकारी पुरुष मुझे मिलेगा जो मेरे मन की यह बात विमलापुरी में जाकर मेरे नात को बता दे। - फिर लोगों में यह भी राय प्रचलित है कि पुरुषों को पहली पत्नी की तुलना में दूसरी पत्नी अधिक प्रिय लगती है। सोलह कलाओं से पूरी तरह खिले हुए पूनम के चंद्रमा के दर्शन का अनादर करके लोग क्या दूज के चाँद के दर्शन के लिए हल्ला नहीं मचाते है ? कहा भी गया है - 'प्रायश: नवनव गुणंरागी सर्वलोकः।' अर्थात्, प्राय: लोग नए-नए गुणों के अनुरागी होते हैं। इसीलिए लगता हैं कि मेरे पति आभानरेश चंद्र भी अपनी नई पत्नी प्रेमला के प्रेम में फंस गए हैं। ___ मैं तो अपनी सौतेली सांस की बातों में आगई। मेरे इस बर्ताव के कारण उनके मन में मेरे प्रति प्रेम होगा भी तो कहाँ से ? दूसरी बात, यहाँ आभापुरी में निवास होते हुए ही उनको मनुष्य से मुर्गा बनना पड़ा था। इससे अब उन्हें विमलापुरी से आभापुरी आना कैसे भाएगा ? . लेकिन प्रियतम आभानरेश के बिना उनके विरहदुःख से-मेरा शरीर प्रतिक्षण सूखता P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 221 जा रहा है। मेरी हर रात आँखों से बहनेवाले आँलुओं से गीले हुए वस्त्रों में ही जाती है। उनके विरहरूपी अग्नि से मेरा हृदय जलता रहता है। यह विरहरूपी आग तो तभी बुझेगी जब मेरे प्राणनाथ से मेरा संगम होगा। लेकिन मेरे मन की इस हालत का उन्हें कैसे पता चलेगा ? - रानी गुणावली जब अपने महल में पति के विचार में मग्न होकर इस तरह सोच रही थी, तब वहाँ एक तोता आया / वह मनुष्य की भाषा में गुणावली से कहने लगा, “हे सुंदरी ! तू ऐसी - शोकमग्न क्यों दिखाई देती है ? तुझे किस बात का दुःख हैं ? अगर तुझे कोई दु:ख है, तो मुझे बता दे। मैं दिव्य पक्षी हूँ। इसलिए यदि तू अपना दु:ख मुझे बताएगी, तो उसे दूर करने की भरसक कोशिश मैं अवश्य करूँगा। गुणावली ने अपने महल में अचानक हुए इस तोते के आगमन से और उसकी बात से चित्त में चमत्कृत हुई और धीरज धारण कर उस तोते से बोली, “हे पक्षिराज ! सोलह वर्ष E लम्बी अवधि के पतिविरह के दुःख से मैं दु:खी हूँ। मेरे दु:ख का मुख्य कारण यही है। मुझे ऐसा E कोई मनुष्य दिखाई नहीं देता है, जो मेरा दूत बनकर मेरे पति के पास मेरा संदेश पहुँचा देगा। और मेरे पति से मेरे लिए संदेश लेकर आए / मेरे दिल का यह दु:ख तो सर्वज्ञ परमात्मा ही जानते हैं।" गुणावली के दु:ख की बात सुन कर तोता उससे बोला, “बहन, तू खेद मत कर / तू मुझे तेरे पति के नाम एक पत्र लिखकर दे दे / मैं तेरा पत्र लेकर तेरे पति के पास चला जाऊँगा / तेरे दु:ख का संदेश तेरे पति को दूंगा और तेरे लिए उसका संदेश भी लेकर आऊँगा।" .. ___तोते की बात सुन कर गुणावली अत्यंत हर्षित हुई। उसने तुरन्त अपने पतिराज राजा चंद्र के नाम एक पत्र लिखा। लेकिन पत्र लिखते लिखते विरह दु:ख के कारण उसकी आँखों से गिरे हुए आँसुओं से वह पत्र गीला हो गया / वही पत्र एक लिफाफे में बंद कर के उसने वह लिफ़ाफा तोते को सौंपा। तोता गुणावली का दिया हुआ लिफ़ाफा लेकर वहाँ से उड़ा और आकाशमार्ग से उड़ता हुआ कुछ ही समय में विमलापुरी पहुंच गया। उसने राजमहल में पहुँच कर गुणावली का दिया हुआ लिफ़ाफा राजा चंद्र को दे दिया। राजाचंद्र ने तोते से पत्र लेकर, एकान्स में जाकर वह खोला और बड़े कुतूहल से वह पत्र पढ़ने लगा। लेकिन गुणावली की आँखों से गिरे हुए आंसुओं से पत्र के अनेक अक्षर इतने अस्पष्ट हो गए थे कि पढ़े नहीं जा सकते थे। फिर भी राजा चंद्र ने पत्र के अक्षर जोड़ जोड़ कर जैसे-वैसे उसे पढ़ा और पत्र - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. * Jun Gun Aaradhak Trust Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र तात्पर्य उसने जान लिया कि गुणावली ने मुझे यथाशीघ्र आभापुरी लौटने के लिए अनुरोध किया . है। इससे राजा चंद्र सोच-विचार में डूब गया। राजा के मन में आया, “यहाँ तो मैं सुखपूर्वक रह रहा हूँ। लेकिन वर्षों से पति के विरह में असहाय बनी गुणावली के संकटमय दिन कैसे कटते होंगे ? मैंने तो कभी इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया। अब मेरा यह कर्तव्य बनता है कि मैं तुरन्त यहाँ से आभापुरी चला जाऊँ और अपने राज्य को सँभाल लूँ और मेरी पटरानी गुणावली को सुखी करूँ! जब प्रेमलालच्छी ने अपने पति राजा चंद्र को एकदम विचारमग्न होते हुए देखा, तो उसने अपने पति से पूछा, "हे नाथ / आज आप अचानक इतने उदास क्यों हो गए हैं ? क्या आपको अपने देश की याद आ रही हैं ? या आपको मेरी बहन गुणावली की याद सता रही हैं ? क्या आपको सौराष्ट्र की भूमि पसंद नहीं है ? या मेरी सेवा में कोई कमी महसूस होने लगी है ? हे प्राणनाथ / यदि आप गुणावली की स्मृति के कारण उदास हो गए हैं, तो मेरी उस बड़ी बहन को आप यहीं बुला लीजिए मैं अपनी उस बड़ी बहन की दासी बन कर रहूँगी और उसकी हर आज्ञा शिरसावंध मान कर उसका आदर से पालन करूँगी। दूसरी बात यह है कि मेरे पिताजी ने आपको अपना आधा राज्य तो दे ही दिया हैं। उसे छोड़ कर आभापुरी जाना क्या आपको उचित लगता है ? . .प्रेमला की प्रेमभरी बातें सुन कर चंद्र राजा ने उससे कहा, "हे प्रिये ! इस समय मेरी आभापुरी राजा के बीना शून्य बन गई है। राजा के बिना होनेवाली आभापुरी पर यदि आसपास के शत्रु राजा अवसर देख कर हमला करेगा और राज्य पर अपना कब्जा कर लेगा, तो क्या होगा ? मेरे लिए यह कितनी बेइज्जती की बात होगी। हे प्रियतमे, दूसरी बात यह है कि आभापुरी से इस तोते के साथ गुणावली का पत्र आया है। इसलिए मेरा यथाशीघ्र आभापुरी जाना अत्यंत आवश्यक है।" बुद्धिमान् प्रेमलालच्छी को पति की इच्छा समझ लेने में देर नहीं लगी। उसने जान लिया की अब राजा चंद्र आभापुरी गए बिना नहीं रहेंगे / इसलिए उनके आभापुरी जाने में बाधा डालना किसी तरह उचित नहीं है। और वैसे मुझे भी तो अपना ससुराल देखने की प्रबल इच्छा चंद्रराजा ने प्रेमला को मनाया और फिर प्रेमला के पिता के पास जाकर उनसे सारी बात कह दी। चंद्र राजा ने अपने ससुर राजा मकरध्वज से कहा - "हे राजन्, अभी-अभी आभापुरी से दूत गुणावली का पत्र लेकर आया है / मेरा तुरन्त आभापुरी जाना अत्यावश्यक हो गया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र * . 223 है। वहाँ के राज्य का कारोबार भी मुझे ही सँभालना है। इस समय आभापुरी राजारहित होने से शून्य बन पड़ी है। आभापुरी की प्रजा बहुत दु:खी है। हे राजन्, आपको छोड़ कर वहाँ जाना मुझे बहुत आनंददायक नहीं लगता है। आपने मुझ पर बहुत उपकार किया है। आपके उपकार और आपके सौजन्य को मैं आजीवन नहीं भूले सकता हूँ। इसलिए यदि आप जन्द आज्ञा दे दें, तो मैं आभापुरी जाकर अपने राज्य की खबर लूँगा। मेरे यहाँ से जाने के बाद आप समय-समय पर अपने क्षेमकुशल का समाचार अवश्य भेजते रहिए। आप मुझे भूल मत जाना। मुझ पर आपका जो प्रेम हैं, वह बनाए रखिए।" मकरध्वज राजा ने आभानरेश राजा चंद्र की सारी बातें शांति से सुनी। उसने राजा चंद्र को आभापुरी लौट कर न जाने के लिए तरह-तरह से समझाया। लेकिन चंद्र को अपने विचार पर पक्का जान कर अंत में मकरध्वज ने कहा, “हे कुमार / उधार माँग कर लाए हुए आभूषण मनुष्य के पास शाश्वत समय के लिए नहीं रहते है और यात्री की प्रीति लम्बे समय तक नहीं टेकती है / आखिर मेहमान मेहमान ही होता है / आप खुशी से आभापुरी जाइए / अपनी जन्मभूमि की याद किसको नहीं आती है ? कुमार, मैं आपकी परिस्थिति अच्छी तरह समझ गयां हूँ। इसलिए अब आपको यहाँ और रूकने के लिए आग्रह नहीं करना चाहता हूँ। लेकिन कुमार, विश्वास कीजिए, आप भले ही मुझ से दूर चले जाएँ, लेकिन आप मेरे मनमंदिर में से कभी बाहर नहीं जा सकते हैं। मेरे हृदय में आपका स्थान बराबर बना रहेगा।" अपने ससुर राजा मकरध्वज का आदेश मिलने से चंद्रराजा को बहुत खुशी हुई। इधर राजा मकरध्वज चंद्र राजा के प्रयाण की तैयारी करने के लिए अपने सेवकों को आज्ञा दी। उधर चंद्र राजा ने भी अपने अधीन सामंत राजाओं को आभापुरी जाने के लिए तैयार होने को कहा। - मकरध्वज राजा ने अपनी पुत्री प्रेमला को अपने पास बुलाकर कहा, "प्रिय बेटी, तू तो साक्षात् गुणों की मूर्ति है। तू मेरी बहुत प्रिय पुत्री है। तूने मेरा और हमारे कुल का नाम ज्जवल कर दिया हैं / तुझे तो मालूम ही है कि तेरे पति आभापुरी जाने के लिए अत्यंत त्सुक है। मैंने तरह-तरह से समझाने पर भी वे मानते नहीं हैं। अब तू मुझे बता दे कि तू अपने ति के साथ जाना चाहती है, या यहीं रहना चाहती है ?' पिता की बात सुन कर प्रेमला ने कहा, 'हे तात, पतिव्रता स्त्री तो हरदम पति के पीछेछे छाया की तरह जाती है / मैं भी अपने पति के साथ ही जाना चाहती हूँ। विवाह के तुरंत द मैं एक बार ठगी गई थी। लेकिन अब मैं फिर से घोखा नहीं खाना चाहती हूँ।" P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 . .: श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र प्रेमला अपने पति के साथ जाना चाहती हैं, यह जानकर प्रेमला की माँ बहुत दुःखी हुई / उसने अपनी पुत्री प्रेमला से कहा, "प्रेमला, तू हमें छोड़ कर अपने पति के धर जाना चाहती है; यह जान कर मुझे बहुत दुःख हुआ है। 'कन्या पराया धन होती है' इस कहावत को तूने सार्थक सिद्ध कर दिया है। कुलीन स्त्री को अंत में पति के घर की ही शरण होती है। वह वहीं सच्चा सुख मानती है, इसलिए हम तुझे ससुराल जाने से नहीं रोकना चाहते हैं। तू खुशी से अपने पति के साथ अपनी ससुराल जा और सुख प्राप्त कर ! हमारा तुझे हार्दिक आशीर्वाद है और बराबर रहेगा।" अब राजा मकरध्वज ने अपनी पुत्री को पहली बार उसको ससुराल भेजने के लिए अनेक प्रकार की वस्तुएँ इकट्ठा करना प्रारंभ किया। राजा-रानी ने अपनी पुत्री को दासों-दासियों का बड़ा परिवार, उत्तम वस्त्र, अलंकार, शय्या, वाहन आदि में से कोई चीज भरपूर मात्रा में देने में कोई कसर नहीं रखी। जहाँ सच्चे अर्थ में प्रेम का भाव होता है, वहाँ मनुष्य कोई चीज देने में .कसर नहीं रखता हैं। . इधर राजा चंद्र ने आभापुरी जाने के लिए तैयारी पूरी कर ली। प्रेमला के माता-पिता ने उसे अत्यंत सुंदर सजाए हुए रथ में बिठाया और फिर अपने दामाद राजा चंद्र से वे कहने लगे, “हे राजन्, यह हमारी प्रिय पुत्री अब तक हमारी थी। हमने अब तक अच्छी तरह से लाडप्यार से इसका लालन-पालन किया था। लेकिन आज हमारा यह सर्वोत्कृष्ट कन्यारूपी धन हम आपके करकमलों में सहर्ष सौंप रहे हैं / आप हमारी इस प्राणप्रिय पुत्री को ठीक ढंग से सँभालिए। उसका सम्मान बढ़ाना अब आपके हाथ में है। हमारी बेटी प्रेमला ने अभी तक कभी अपने महल के बाहर पाँव नहीं रखा है। बहुत लाड़-प्यार में पली है हमारी यह कन्या ! इसलिए उससे अगर कोई भूल हुई तो आप उसे उदारता से क्षमा कर दें। हे कुमार, यद्यपि हम तो उसे ससुराल भेजने की इच्छा नहीं रखते हैं, लेकिन विवाहित कन्या अपने पिता के घर में आखिर कब तक रह सकती है ? यही बात जान कर हम उसे आपके साथ भेज रहे हैं। हे कुमार, यह हमारी इकलौती कन्या है, हमारा सर्वस्व है / यह सर्वस्व आज हम आपको सौंप रहे हैं। इसलिए उसका बराबर ध्यान रखिए। दूसरी बात यह भी जानिए कि हमारे पास जो राज्यवैभव है वह अंत में आपका ही है।" ___फिर राजा मकरध्वज को रानी अपनी कन्या को उपदेश देते हुए बोली, “हे बेटी, तू अपने ससुराल में-पति के घर-जाकर हमारा और अपने कुल का नाम उज्जवल कर दे। अपनी सौत को बड़ी बहन समझ कर उसके साथ सम्मान का व्यवहार कर / ससुराल में तेरे सास P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 225 ससुर जिंदा नहीं हैं, इसलिए अपने पति को ही अपना सर्वस्व मान कर और उनकी आज्ञा का बराबर पालन करके उनका चित्त नित्य प्रसन्न रखने की कोशिश कर / कभी अपने पति से लड़ाई-झगड़ा मत कर! बेटी, तू समझदार है, चतुर भी है। फिर भी तुझे कह रखती हूँ कि चाहे जैसा प्राणधाती संकट भी आ जाए, तो भी देव-गुरू-धर्म इन तीनों की सेवा में रुकावट न आने दे। ये तीन तत्त्व ही जीव को भीषण भवसागर से तारनेवाले-पार करानेवाले-होते हैं, इसलिए इन तीनों के बारे में कभी लापरवाही मत कर / दानपुण्य के संबंध में तुझे हमें बताने की आवश्यकता ही नही जंचती है। वह तो यहाँ भी तेरा दैनिक कर्तव्य बना हुआ है। साथ में यह बात भी याद रख कि तुझसे-तेरे कारण किसी भी प्राणी को थोडी-सी पीड़ा न सहनी पड़े। परपीडा महापाप हैं। परोपकार महापुण्य हैं। इस संसार में कोई भी जीव पराया नहीं है, सबके सब हमारी आत्मा के _संबंधी ही हैं। इसलिए हर एक जीव को अपनी आत्मा के समान मान कर उसका सम्मान करती जा। अन्य प्राणियों के सुख में तुझे सुखी होना चाहिए और उनके दुःख में दु:खी होना चाहिए। - हे बेटी, देख, संपत्ति की प्राप्ति से कभी उन्मत्त मत बन और विपत्ति आने पर शोक मत कर / संपत्ति और विपत्ति में समभाव रखने की कोशिश करती जा ! तेरे हाथ से कभी ऐसा कोई काम न ही, जिससे किसी पर अन्याय हो जाए। किसी का भी उत्कर्ष होते देख कर उससे ईर्ष्या मत कर / दु:खी और दीन जीवों के प्रति अपने मन में निरंतर दया का भाव रख / कभी किसी की निंदा भूल कर भी मत कर / अपनी ओर से भूल हो जाए तो उसे तुरन्त स्वीकार कर ले।। हरदम अपने पति की इच्छा के अनुसार चलने का प्रयत्न कर।" अपनी इकलौती विवाहित कन्या को ऐसी हितशिक्षा देते-देते ही प्रेमला की माता ने उसे अपनी आँखों से आँसुओंकी निरंतर बहती जा रही धारा से भिगो दिया। प्रेमला की सखियाँ चारों और से उसे घेर कर खड़ी थी। आज बहुत वर्षों की निरंतर संगति ने बाद अब प्रेमला से अलग होना पड़ेगा, इस विचार से वे अत्यंत खिन्न थीं। प्रेमला ने अत्यंत गहरे स्नेहभाव से उन सब के मस्तकों पर थपथपा कर उन्हें शांत किया। ऐसा लग रहा था कि इस विषम विदायप्रसंग का द्दश्य देखने के लिए देवतागण भी आकाश में रूक गए हो ! प्रेमला बार-बार अपने सभी स्नेही जनों को स्नेह की दृष्टी से और सजल नयनों से देखती जा रही थी। अंत में, वह सबसे विदा लेकर रथ में बैठ गई। चंद्र राजा की सास ने दामाद के कपाल पर कुंकुमतिलक किया और उसके हाथ पर सुवर्णमुहर के साथसाथ श्रीफल रख कर उन्हें भी विदा दे दी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र . शुभ मुहूर्त पर चंद्र राजा ने अपनी पत्नी प्रेमला, सामंत राजा तथा सेना के साथ विमलापुरी से आभापुरी की ओर प्रस्थान किया। उनके प्रस्थान के समय मंगलसूचक वाधों की ध्वनियों से आकाश गूंज उठा। अब चंद्रराजा अपने सारे परिवार के साथ नगरी के मध्य में से होकर गुजर रहा था। आगे विभिन्न प्रकार के वाध बज रहे थे। यह संघ जब चौराहे पर आया, तो वहाँ इकट्ठा हुए नागरिकों ने चंद्र राजा और प्रेमला पर मोतियों की वर्षा करके उनका स्वागत किया। विमलापुरी की युवतियाँ मंगलगीत गाकर वर-वधू को आशीर्वाद दे रही थीं, उनके लिए मंगलकामना कर रही थी। चलते-चलते यह सारा परिवार सिद्धाचलतीर्थ के निकट आ पहुँचा / चंद्रराजा और प्रेमला दोनों रथ में से तुरंत उतर आए और भावोल्लास के साथ उन्होंने इस महापवित्र महातीर्थ की वंदना कर उसकी स्तुति की / अब रथ में फिर से चढ़ने से पहले उनको यहाँ तक विदा देने के लिए आए हुए सास-ससुर और अन्य सगे-संबंधियों और मित्रसहेलियों को उन्होंने विमलापुरी की ओर लौटने की प्रार्थना की और उनके चले जाने पर वे दोनों रथ में बैठे और उनकी आभापुरी को यात्रा प्रारंभ हुई। जब मंजिल दूर होती है, तो द्रुत गति से प्रयाण करना आवश्यक ही होता है। चंद्रराजा प्रेमला तथा परिवार के साथ-साथ इस समय नटराज शिवकुमार की नाटक मंडली भी थी। इसलिए रास्ते में जहाँ जहाँ चंद्रराजा का सपरिवार मुकाम होता था, वहाँ-वहाँ शिवकुमार की मंडली नए-नए नाटक खेल कर चंद्रराजा तथा उनके परिवार का मनोरंजन करती थी। चंद्र राजा प्रतिदिन आगे की ओर परिवार के साथ बढ़ता जा रहा था। मार्ग में पडनेवाले अनेक देश और राज्य चंद्रराजा ने देखे, उनको अपने वश में कर लिया वहाँ की राजकन्याओं से विवाह किए। कुछ दिनों के बाद चंद्र राजा सपरिवार पोतनपुर आ पहुँचा। पोतनपुर नगरी के बाहर तंबू डाल कर उन्होंने अपना डेरा जमाया। वहाँ वे सब विश्राम करने लगे। यह वही पोतनपुर नगरी है, जहाँ नटराज शिवकुमार के साथ मुर्गे के रूप में चंद्र राजा पहले आया था। यहीं पर चंद्र राजा के रूप में होनेवाले मुर्गे की आवाज प्रात: काल के समय सुन कर, अच्छा मुहूर्त जानकर लीलाधर नामक श्रेष्ठिपुत्र ने धन कमाने के उद्देश्य से विदेश की ओर प्रयाण किया था / संयोग से विदेश गया हुआ यह श्रेष्ठिपुत्र लीलाधर आज ही विदेश से अपने घर लौट आया था। लीलाधर के सारे परिवार ने लीलाधर के क्षेमकुशलपूर्वक - विदेश यात्रा से लौट आने की खुशी में शहर में बड़ा महोत्सव मनाने के लिए आयोजन किया था। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 227 - लीलाधर की पत्नी लीलावती को कहीं से यह समाचार मिल गया कि उसका धर्मबंधु आभानरेश राजा चंद्र इस समय परिवार के साथ पोतनपुर में डेरा डाले हुए हैं। इसलिए उसने अपने पति लीलाधर की अनुमति ली और फिर चंद्रराजा को सपरिवार अपने घर पधारने का निमंत्रण उसने दिया। लीलावती उन सबको सम्मान से अपने घर ले भी आई। उसने चंद्र राजा और उसके परिवार को स्वादिष्ठ आहार-पानी देकर खुश कर दिया। चंद्र राजा ने भी अपनी धर्मबहन लीलावती और उसके पति लीलाधर के परिवार के सदस्यों को उत्तम वस्त्रालंकार प्रदान कर उनका सम्मान किया। पर्याप्त समय लीलावती और लीलाधर के घर में खुशी से बिताने के बाद उन पतिपत्नी से विदा लेकर चंद्रराजा अपने परिवार के साथ अपने डेरे पर लौट आया। सब लोग अपने अपने डेरे में विश्राम कर रहे थे। यहाँ उसी रात को एक विचित्र-सी घटना घटी। उसी दिन जबकि चंद्रराजा अपने परिवार के साथ यहाँ पोतनपुर में आ पहुँचा था और डेरा डाल कर सपरिवार विश्राम कर रहा था, इंद्र ने सौधर्म सभा में कहा, “इस जंबुद्वीप के दक्षिणार्थ भरत में आभापरी नाम की एक नगरी है। वहाँ का राजा चंद्र सदासंतोषी, अत्यंत सदाचारिप्रिय, महादयालु और परमोपकारी है। इस समय तो मृत्युलोक में इस राजा के समान अन्य कोई राजा नहीं दिखाई देता है। इस राजा की-राजा चंद्र की -सौतेली माँ ने उसे अपनी मंत्रशक्ति के बल पर मनुष्य से / मुर्गा बना दिया था। लेकिन सोलह वर्ष बीत जाने के बाद इस राजा चंद्र को अपने सदाचार और सिद्धाचल तीर्थ के प्रभाव से मुर्गे मेंसे फिर से मनुष्यत्व की प्राप्ति हो गई हैं। इस चंद्र राजा को अपने शुद्ध आचरण से चलायमान करने की शक्ति स्वर्गलोक की अप्सराओं में भी नहीं है। सदाचार के संबंध में राजा चंद्र मेरु पर्वत की तरह अचल हैं, दृढ है। उसको कोई अपने सदाचार से विचलित नहीं कर सकता।" - इंद्र के मुख से चंद्र राजा की ऐसी प्रशंसा सुनकर एक देवता की इंद्र की बातों पर विश्वास नहीं हुआ इसलिए उसने चंद्रराजा के सदाचार की परीक्षा लेने की ठानी। तुरंत इस देवता ने अद्भूत और रूपवान् विद्याधरी का ऐसा मोहक रूप धारण कर लिया कि उसे देखकर मनुष्य तो क्या, देवता भी मोहित हो जाएँ। यह देवता इस सुंदर रूप में स्वर्ग में से निकला और सीधा पोतनपुर के उद्यान में आ पहुँचा। रात का समय होने पर उसने एक स्त्री की आवाज में अत्यंत करुण स्वर से रोना प्रारंभ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 .. श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र किया। रात के समय किसी स्त्री की रोने की यह ध्वनि चंद्र राजा के कानों में पड़ी। इस रोने की ध्वनि को सुनकर परोपकाररसिक चंद्र राजा का दिल दयार्द्र हो गया। राजा चंद्र मन में सोचने लगा कि इतनी रात गए ऐसे निर्जन स्थान में अत्यंत दीन स्वर में रोनेवाली यह दु:खी और अभागी स्त्री कौन होगी ? राजा तुरंत अपने शयनगृह में से बाहर निकल आया। तुरंत हाथ में तलवार लेकर वह एक सिंह की तरह उस दिशा की ओर चल पड़ा जिस दिशा से स्त्री के रोने की आवाज आ रही थी। थोड़ी देर तक उसी दिशा में चलते रहने के बाद राजा वहाँ आ पहुँचा, जहाँ वह विद्याधरी उद्यान के एक कुंज में बैठकर रो रही थी। उस स्त्री का रूप प्रेम और सौंदर्य के देवता कामदेव की सुंदरी पत्नी रति के समान सुंदर था। उसने अपने शरीर पर अत्यंत मूल्यवान वस्त्रालंकार धारण किए हुए थे। ऐसी युवा स्त्री को ऐसी रात के समय उद्यान में अकेली बैठकर देख राजा का मन आश्चर्यचकित हो गया / इसलिए उसने आश्चर्य प्रकट करते हुए उस रति समान सुंदरी को देखकर कहा, “हे सुंदरी तू ऐसी रात के समय, यहा उद्यान में अकेली बैठकर क्यों रो रही है ? तुम्हें किस बात का दु:ख है ? तू अपने दु:ख के बारे में मुझे नि:संकोच बता दे, जिससे मैं तेरे दुःख को दूर करने की यथाशक्ति कोशिश करूँगा / हे सुंदरी, बता कि तू कौन है ? मैं तेरा दु:ख यथाशक्ति दूर करने का प्रयत्न करूँगा।" चंद्रराजा का यह सहानुभूति पूर्ण वचन सुनकर उस नकली सुंदरी ने अपना नाटक दिखाना प्रारंभ किया। सबसे पहले उसने अपने पर कटाक्षबाण फेंक कर राजा के मन को वासनाविवश बनाने का प्रयत्न किया। फिर वह प्रेमगर्भित वचनों में बोली, “हे आभानरेश, मैं एक विद्याधर की पत्नी हूँ। अपने दुःख की कहानी किसी को बताने में मुझे बहुत लज्जा आती है। लेकिन दुःख से विवश होकर मुझे कहना पड़ता है / हे राजन्, मेरी करूण कहानी ध्यानपूर्वक सुनिए। ___ मेरे पति विद्याधर मेरे साथ झगड़ा करके और मुझे यहाँ अकेली छोड़ कर न जाने कहाँ चले गए हैं ? मेरे पति ने जो दुष्कर्म किया है, वह पुरुष को शोभा नहीं देता है / हे राजन्, मैं एक अनाथ अबला हूँ। मेरी समझ में नहीं आता है कि मेरी यह जीवन-नौका दुःखसागर को पार कर किस तरह किनारे लगेगी ? इसी चिंता से आकुलव्याकुल होकर बेचैन बन कर मैं रो रही हूँ। यही मेरे दुःख का मुख्य कारण है। __ मेरे पति विद्याधर मुझे छोड़ कर चले गए लेकिन मेरा महान् सौभाग्य है कि आप अभी यहाँ पधारे हैं। साथ ही आपने मेरा दु:ख दूर करने की इच्छा भी प्रकट की है। इसलिए हे राजन्, मैं आपसे प्रार्थना करती हूं कि आप मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करके मेरा दु:ख दूर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कर दीजिए। ऐसा करने से जगत् में आपकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि होगी। लोग कहेंगे कि इस राजा ने एक निराधार स्त्री का उद्धार किया। हे राजन्, यदि आप सच्चे क्षत्रिय राजा होंगे, तो मेरी इस प्रार्थना को अस्वीकार नहीं करेंगे। अच्छा क्षत्रिय शरणागत को कभी शरण दिए बिना नहीं रहता है। वह उसे कभी तिलमिलाने नहीं देता है, उसका दु:ख दूर किए बिना नहीं रहता है। दूसरी बात यह है कि हे। राजन्, प्रार्थनाभंग करने का बड़ा प्रायश्चित क्या होता है, वह आप जानते ही होंगे। आप जैसे वीर पुरुष इस संसार में विरले ही होते हैं, जो पराये व्यक्ति द्वारा की हुई प्रार्थना को कभी अस्वीकार नहीं करते है। हे राजन्, तुम्हारा आकार और इंगित देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि आप सच्चे क्षत्रिय राजा है। इसलिए मैंने अत्यंत आशा और विश्वास रखकर आपसे यह एक तुच्छ-सी प्रार्थना की है। उसे अस्वीकार न कीजिए।" उस नकली विद्याधर स्त्री की बात सुनकर चंद्र राजा ने कहा, “हे दुष्ट स्त्री, तू मुझसे ऐसी निंद्य प्रार्थना क्यों कर रही है ? ऐसी अधमनीच ढंग की प्रार्थना करते समय तुझे बिलकुल लज्जा नहीं आती है ? क्या तुझे यह मालूम नहीं है कि सच्चा सदाचारी वीर क्षत्रिय पुरुष कभी स्त्रीलंपट नहीं होता है / परपुरुष की इच्छा करनेवाली स्त्री का मुंह देखना भी महापाप है। . इसलिए तुझे ऐसी अनुचित प्रार्थना मुझसे बिलकुल नहीं करनी चाहिए। हे स्त्री, यदि तू चाहे तो मैं तेरे पति को पाताल में से भी खोज निकाल कर तेरे पास ले आऊँगा। लेकिन यह पत्थर की लकीर मान ले कि मैं तेरी इस कुप्रार्थना को स्वीकार नहीं कर सकता, न करूँगा। उत्तम कुल में जन्म लेनेवाला पुरुष परस्त्रीसंग नहीं कर सकता है, ऐसा अनुचित काम तो अकुलीन मनुष्य ही कर सकता है। उत्तम कुल में जन्म लेनेवाला पुरुष प्राणांतिक संकट आने पर भी कभी पापाचरण में प्रवृत्त नहीं हो सकता है। वास्तव में परस्त्रीगमन तो इस लोक और परलोक में मनुष्य दुर्गति का कारण है / परस्त्रीगमन करनेवाले पुरुष को इस लोक में अपयश का और मृत्यु के बाद दुर्गति का सामना करना ही पड़ता है। सद्गति से भ्रष्ट करनेवाला और दुर्गति में ढकेल देनेवाला कार्य उत्तम पुरुष कभी नहीं करता है।" ___ चंद्र राजा की तर्कसंगत धर्मवाणी सुन कर कृत्रिम क्रोध दिखाते हुए विद्याधरी ने कहा, “हे राजन्, यदि आप मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं आपको सच्चा क्षत्रिय नहीं मानूंगी। निराशहताश हुई मैं आत्महत्या करूँगी, वह स्त्रीहत्या का पाप आपके सिर पर चढेगा। इसलिए P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aperZAMAAL 230 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र यदि आप स्त्रीहत्या के पाप से डरते है और आपमें यदि जरा-सा भी दया का अंश हो, तो आप तुरन्त मेरी प्रार्थना स्वीकार कर लीजिए और मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।" ___इसपर चंद्रराजा ने विद्याधरी को शास्त्रसंमत लेकिन सनसनाता उत्तर देते हुए कहा, "हे स्त्री, मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि स्त्रीहत्या के पाप से शीलभंग का पाप अधिक बड़ा है। शीलभंग करके जिंदा रहने की अपेक्षा आत्महत्या करके मर जाना सौ गुना अच्छा है। तू मुझे स्त्रीहत्या के पाप से डरा कर मुझे शीलभ्रष्ट करने की इच्छा रखती है। लेकिन याद रख, तेरी गंदी इच्छा कभी मुझसे पूरी नहीं होगी। मैं भी धर्भशास्त्र के रहस्यों को अच्छी तरह जानता हूँ। कौनसा काम करने में अधिक पाप है और कौनसा काम करने में कम पाप है, यह तू मुझे समझाने-सिखाने की कोशिश मत कर / इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। शील मेरा प्राण है। इसलिए शील की रक्षा के लिए यदि मुझे अपने प्राण भी देने पड़े, तो मैं तैयार हूँ। लेकिन किसी भी हालत में मैं शीलभंग नहीं होने दूंगा। ऐ स्त्री, देख, रामचंद्रजी की पत्नी सती सीता का अपहरण करके उसे रावण ने परेशान किया, तो उस रावण का राज्य, उसका सारा वैभव, उसकी सोने की लंका तो नष्ट हुए ही, लेकिन उसे अपने प्राणों से भी हाथ धोना पड़ा। द्रौपदी का अपहरण करनेवाले की श्रीकृष्ण के हाथों से कैसी दुर्गति हुई थी, उसे जरा याद कर / परस्त्री रत-परायण होनेवाले ऐसे हजारों राजा-महाराजा बरबाद हुए हैं। उन्हें इस संसार में अपमानित और कलंकित होना पड़ा है। परस्त्रीगमन करके कोई पुरूष सुखी हुआ हैं, ऐसा एक भी उदाहरण मेरे सामने नहीं हैं। इसके विपरीत परस्त्री त्याग से संसार में सुखी हुए सुदर्शन सेठ, श्री रामचंद्रजी जैसे हजारों महापुरुषों के उदाहरण मिलते हैं। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि कामिनी तो भवसागर में डुबोनेवाली और पुरुष के गले में बाँधी गई बहुत बड़ी शिला है। कामिनी के भय से ब्रह्मचारी रहनेवाले कितने ही पुरुष मिलते हैं। अनेक पुरुष इस संसार में ऐसे भी मिलते है जो अपनी विवाहिता पत्नी का त्याग कर शाश्वत और अनुत्तर मोक्षसुख का अनुभव करते हैं। परस्त्री रूपी पत्थर की नाव में बैठकर जानेवाले पुरुष संसारसागर में डूब जाते हैं। अब तक इस संसारसागर से मस्तक बाहर निकाल कर देखने में भी वे समर्थ नहीं हो सके हैं। परस्त्रीगमन के कारण श्रेष्ठिपुत्र ललितांगकुमार की कैसी दुर्गति हुई ? क्या इसे तू नहीं जानती है ? मैं कोई ऐसा अज्ञानी पुरुष नहीं हूँ कि जानबूझ कर आपत्ति को निमंत्रण दे दूँ! तू तो मुझे स्त्रीहत्या के पाप से धबरा रही है, लेकिन मैं धबराता हूँ भवभय से / मैं अपने चारित्र्यकीआचरण की दृष्टि से कभी भ्रष्ट नहीं होऊंगा। इस बात की तू गाँठ बाँध ले। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हे स्त्री, इस जगत् में अग्नि से जलनेवाले को तो इस एक जन्म में ही कष्ट का अनुभव करना पड़ता है, लेकिन जो कामरूपी अग्नि से जलता है, उसे जनम-जनम तक नरकादि में पड़ कर तरह-तरह के भयंकर कष्ठ भोगने पड़ते हैं, नरक यातनाएँ सहनी पडती हैं। हे स्त्री, दूसरी बात यह है कि तू मेरी धर्म की बहन है | तूने उत्तम कुल में जन्म लिया = है। इसलिए मेरे सामने ऐसी हल्की बात कहना तुझे बिलकुल शोमा नहीं देता है।" चंद्र राजा की शील की दृष्टि से यह दृढ़ता देख कर वह विद्याधरी का बहाना बनाया हुआ देवता चंद्र राजा पर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने अपना विद्याधरी का कृत्रिम रूप त्याग दिया। और वह अपने मूल देवता के रूप में चंद्र राजा के सामने प्रकट हुआ। उसने बहुत खुशी से चंद्र ! राजा पर पुष्पवृष्टि की और कहा, "हे राजन्, आप धन्य हैं ! आपके माता-पिता धन्य हैं कि जिन्होंने आप जैसे नररत्न को जन्म दिया। स्वर्गलोक में इंद्र महाराज ने आज सौधर्म सभा में आपके सदाचार की भूरि-भूरि प्रशंसा की। लेकिन मेरे मन में संदेह उत्पन्न हुआ। इसलिए मैंने आपकी परीक्षा लेने का निर्णय किया और इसलिए मैं यह विद्याधरी का बहाना बना कर यहाँ आया था। इंद्र ने आपका जैसा वर्णन किया था, आप ठीक वैसे ही निकले। आपके शील और सदाचार की परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह सारा प्रपंच किया था, लेकिन आप उसमें बिलकुल नहीं फँसे / आप सचमुच धन्य : चंद्र राजा के सदाचार और शील की दृढ़ता से प्रसन्न हुए देवता ने चंद्र राजा को श्रेष्ठ वरदान, दिया, उसे प्रणाम किया और वह वहाँ से अंतर्धान हो गया। इधर चंद्र राजा भी इस घटना के बारे में सोचता हुआ अपने डेरे पर वापस चला आया। अगले दिन चंद्र राजा ने सपरिवार पोतनपुर से आगे की ओर प्रस्थान किया। बीच रास्ते में पड़ने वाले अनेक राजाओं को चंद्र राजा ने जीत कर अपने अधीन कर लिया और इन राजाओं की सात सौ राजकन्याओं से एक के बाद एक विवाह किए। तेज़ गति से यात्रा करते-करते आखिर एक दिन चंद्र राजा अपने परिवार के साथ आभापुरी के निकट आ पहुँचा। चंद्रराजा के आगमन का समाचार गुणावली, सुबुद्धि मंत्री तथा आभापुरी के प्रजाजनों को मिला। उन सबको खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, क्योंकि उनके प्रिय राजा चंद्र सोलह वर्षों के लम्बे वनवास के बाद अपनी नगरी में लौट आ रहे थे। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र आभापुरी के समस्त महाजनों को साथ लेकर और सेना के साथ सुबुद्धि मंत्री चंद्र राजा का नगरी में स्वागत करने के लिए चले गए। घर-घर में लोगों ने बंदनवार बँधवाए। आभापुरी को इंद्रपुरी की तरह सजाया-संवारा गया। सबने मिलकर बड़ी धूमधाम से राजा चंद्र का नगरी में स्वागत किया। नगर में प्रवेश कर चंद्र राजा राजमहल में और फिर राजदरबार में पहुँच कर सोलह वर्ष की लम्बी अवधि के बाद राजसिंहासन पर आसीन हो गए / राजा ने अपने नगरी में पुनरागमन की खुशी में राजसेवकों और प्रजाजनों को उत्तम वस्त्रालंकार दिए और सबका यथोचित सम्मान किया। राजा ने नगरी के दीन-दुःखियों को अन्न-वस्त्र-आदि का मुक्तहस्त से दान किया। नगरी में सर्वत्र आनंद ही आनंद व्याप्त हो गया था। . सोलह वर्षों के लम्बे विरह के बाद चंद्र राजा के अपनी नगरी में लौट आने से उनके दर्शन करने के लिए जनता की भीड़ इकट्ठा होने लगी। दर्शन के लिए आनेवालों का नित्य ताँता ही बँधा रहा / अपने रक्षक, महापुण्यवान् और पवित्र राजा के दर्शन करने की भावना किसके मन में नहीं होगी ? आभापुरी में घर-घर में मंगलगीत गाए जाने लगे। लोगों ने बंदनवारों से अपने घरों के दरवाजे सजाए। आनंद के आवेश में लोग उछलनेकूदने-नाचने-गाने लगे। ____चंद्र राजा के दर्शन करके सबके हृदय में स्नेहसागर उमड़ने लगा . सब लोग चंद्र राजा की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते जाते थे। चंद्र राजा के आगमन का आनंद मनाने के लिए आभापुरी में महीनों तक तरह-तरह के महोत्सव हररोज होते रहे। ऐसा लग रहा था मानो चंद्र राजा के आगमन से सारी आभापुरी में और नगरवासियों में नवचैतन्य संचरित हुआ हो। राजा के बिना निष्प्राण सी पड़ी नगरी में कदम सप्राण-सजीव-सचेत हो गई ! इन महोत्सवों के बाद अब चंद्र राजा ने राजदरबार विसर्जित किया और नई सात सौ रानियों और प्रेमलालच्छी के साथ अपने अंत:पुर में प्रवेश किया। अपने पति को लम्बी अवधि के बाद अंत:पुर में आते देख कर गुणावली की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उसने सामने आकर अपने प्राणाधर चंद्र राजा के कपाल पर कुंकुमतिलक करके ऊपर अक्षत लगाए। फिर राजा के सिर पर पुष्पों और मोतियों की वर्षा कर उसने अपने प्राणनाथ का हार्दिक स्वागत किया। इसके बाद उसने चंद्र राजा के साथ-साथ आई हुई प्रेमलालच्छी और अन्य नवपरिणीत 700 राजकन्याओं का स्वागत किया। अब ये सबकी सब गुणावली की सौतें बन कर उसके P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | | | . श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 233 अंत:पुर में आ पहुँची थीं। लेकिन गुणावली ने उन संबको अपनी छोटी बहनों की तरह स्वीकार कर लिया। चंद्र राजा की अभी-अभी बनी हुई नई 700 रानियों को तो गुणावली ने प्रेम से अपने हृदय से लगा कर उनका बहुत सम्मान किया। चंद्र राजा की इन नई 700 रानियों ने भी गुणावली को अपनी बड़ी बहन मान लिया। उन्होंने उसके चरणों में झुक कर उसे आदर से प्रणाम किया और सस्मित मुद्रा से उसका क्षेमकुशल भी पूछा। सभी रानियाँ प्रेम से एक दूसरे के साथ ऐसे मिल गई जैसे दूध पानी में मिल जाता है। पटरानी गुणावली ने इन सभी नई रानियों के प्रति अत्यंत स्नेह का व्यवहार किया। इस संसार में प्रेमदान-स्नेहदान-सबसे बडा दान हैं। आज के युग में मानव जाति में प्रेमदान की बड़ी कमी दिखाई देती है। आज के युग में करोड़ो को दान करनेवाले दानवीर मिलते है / अखंड ब्रह्मचर्य का आजौवन पालन करनेवाले ब्रह्मचारी भी मिलते हैं। बहुत बड़े उग्र तप करनेवाले तपस्वी भी प्राप्त होते हैं। बड़े-बड़े त्यागी और योगी भी मिलते हैं। लेकिन शुद्ध अंत:करण से प्रेम का दान करनेवाले भाग्य से ही मिलते हैं, बहुत विरले होते हैं। जब तक किसी से स्वार्थ सिद्ध होता है, तब तक स्नेह प्रकट करनेवालों की कमी नहीं होती, लेकिन नि:स्वार्थ स्नेह का दान करनेवाला आज हजारों में एकाध ही मिल पाता है। लेकिन यहाँ चंद्र राजा की सभी रानियाँ अत्यंत गुणानुरागी और गुणी थी। इसलिए वे सब एक दूसरे के साथ हिलमिल कर और प्रेमभाव से रहने लगी। गुणावली की हर आज्ञा का भी तुरन्त पालन करती थी। इधर गुणावली भी अपने हृदय से निरंतर निकलनेवाले प्रेम के पवित्र प्रवाह से अपनी इन सभी छोटी बहनों को सराबोर कर देती थी। अपनी सभी रानियों के बीच एक दूसरे के प्रति होनेवाला यह अटूट प्रेमभाव देखकर चंद्रराजा की प्रसन्नता का कोई पार न रहता था। जब कोई अपने आश्रितों और परिजनों को परस्पर प्रेमभाव से रहते हुए देखता है, तब उसको आनंद क्यों न होगा ? इसके विपरीत उन्हें एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष करते हुए और निंदा की बातें करते देखकर किसको दुःख हुप बिना रह सकता है ? अब चंद्र राजा ने हर एक रानी के रहने के लिए अलग-अलग महल का प्रबंध कि: और सभी रानियों को उनके महलों में उनकी दासियों के साथ रहने के लिए भेज दिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र अब राजा चंद्र स्वयं अपनी पटरानी गुणावली के महल में चले गए / लम्बे विरह के बाद अपने पति राजा चंद्र को अपने महल में आते देख कर रानी गुणावली ने उनका अत्यंत हर्ष से स्वागत किया। अपने पति को फिर से मनुष्य के रूप में सामने पाकर गुणावली का आनंद उसके हृदयसागर में समा नहीं रहा था / वह उछल-उछल कर हृदयसागर से बाहर आकर प्रकट हो रहा था। - सोलह-सोलह वर्षों की लम्बी अवधि के पतिविरह के बाद आज उसी प्राणनाथ पति को अपने महल में पधारते हुए देख कर रानी ने राजा को अपने हृदयमंदिर में प्रविष्ट किया। रानी गुणावली ने अपने पति की चरणरज लेकर अपने माथे पर चढाई / रत्नों का जो सिंहासन पति के बिना खाली पड़ा था, उस पर गुणावली ने अपने प्राणाधार को हाथ पकड़कर प्रेम से ला बिठाया। उसका हृदय आनंद से ऐसा भर गया था कि कुछेक क्षणों के लिए तो उसके मुँह से शब्द भी नहीं फूटता था। गुणावली का हृदय भर आया था, कंठ सँध गया था, आँखों से आनंद के आँसुओं को धारा निरंतर बहती जा रही थी। वह पति के गले लग कर सिसक-सिसक कर रो उठी। कुछ देर तक रो कर उसके हृदय का सारा दु:ख हलका हो गया और वह स्वस्थ हो गई। चंद्रराजा ने गुणावली को धीरज बँधाया, उसे सांत्वना दी और उसके मस्तक पर हाथ रख कर उसके प्रति अपना प्रेम प्रकट किया। फिर राजा ने उससे कहा, "हे प्रिये, अब तेरे रोने के दिन बीत गए. अब तेरे हँसने के-हँसी खुशी के दिन आ गए हैं। इसलिए अब भूतकाल की दु:खद बातें हरदम के लिए भूल जा / हमारे भाग्य में जो दु:खभोग लिखा था, उसको हमने सोलह वर्षों तक भोग लिया। अब हमें इस बात में सावधान रहना है कि ऐसा दुष्ट कर्मबंध फिर हमारे जीवन में न बँधे / भूतकाल के जीवन में से हमें यही ग्रहण करना है।" अपने पति राजा की सांत्वना देनेवाली ये बातें और गहरा स्नेहभाव देख कर रानी गुणावली खुश हो गई ।उसने बड़े प्रेम से अपने प्राणनाथ को सुंगधित जलसे नहलाया, उनके सारे शरीर पर सुगंधित विलेपन किया और विविध प्रकार के व्यंजनों से युक्त स्वादिष्ट भोजन कराया। ऐसी पतिभक्ति दिखा कर वह मन-ही-मन बहुत हर्षित हो गई। पतिदेव के फिर से घर आ जाने से गुणावली का मन स्वस्थ हो गया / अब इस राजारानी के दिन बहुत सुखपूर्वक बीतने लगे। गुणावली के साथ प्रेमला और अन्य रानियों का परस्पर प्रेमभाव ऐसा गहरा था कि वे शरीर से ही भिन्न-भिन्न लगती थीं, लेकिन सबके हृदय एक दूसरे से पूरी तरह मिले हुए थे। वे सब एक दूसरे से ऐसा व्यवहार करती थीं, मानो सगी बहनें हों / हँसी-विनीद-वार्तालाप में सब का समय बहुत मजे में कटता था। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 23 अब उचित समय जान कर, एक बडा महोत्सव करके राजा चंद्र ने बड़ी धूमधाम गुणावली को अपनी पटरानी के पद पर स्थापित किया। इससे अन्य सभी रानियाँ बहुत खुश गई। अब राजा चंद्र अपने राज्य का संचालन न्याय-नीति और कशलता से करने लगे इससे आभापुरी की सारी प्रजा बहत खश हई। चंद्र राजा के राज्य में कभी किसी तरह की चीन होने की फरियाद नहीं आती थी। उसके राज्य में सभी प्रजाजनों को मांस-मदिरा, जुआ, चार शिकार, परस्त्रीगमन, वेश्यागमन और हिंसा करना-इन बातों की सख्त मनाई थी। जब चंद्र राजा का प्राय: सारा जीवन ही धर्मपरायणतापूर्ण था, तो फिर उसके राज्य के प्रजा पाप क्यों करे ? क्योंकि कहा भी गया है कि 'यथा राजा तथा प्रजा।' अर्थात् राजा जैस होता है, वैसी ही उसकी प्रजा होती है। राजा धर्मी होता है, तो उसकी प्रजा भी धर्मी होती है राजा पापी हो, तो प्रजा भी पापी होती है। राजा नास्तिक होता है, तो प्राय: प्रजा भी नास्तिक होती है। चंद्रराजा तो क्षमाशील, दानवीर और गुणग्राही था। ऐसे राजा की प्रजा को दु:ख कह से होगा ? प्रजा राजा के एक शब्द पर प्राण देने के लिए नित्य तैयार रहती थी। एक दिन की बात है। राजा चंद्र और उसकी पटरानी गुणावली एकांत में बैठे थे। बात ही बातों में राजा चंद्र से रानी गुणावली ने कहा, “हे प्राणनाथ / आपके विरह में मैंने सोलह वर्ष * की लम्बी अवधि अत्यंत कष्ट से बिताई है। लेकिन मैं अपनी छोटी बहन प्रेमला का पर उपकार मानती हूँ, क्योंकि उसके कारण से ही आज मुझे फिर से आपके दर्शन हुए हैं।' अब गणावली को हँसी-मज़ाक सूझी। उसने हँसते-हँसते पति से कहा, "देखिए प्राणना यदि मैं आपकी सोतेली माँ की बातों में फँस कर उनके साथ विमलापुरी न जाती, तो आप प्रेमला से विवाह कैसे हो पाता ? इसलिए आपको मेरा उपकार स्वीकार करना ही चाहिए।' गुणावली ने फिर कहा, 'हे स्वामिनाथ, यदि आपकी माँ के क्रोधस्वरुप आप मुर्गा न ब होते. तो फिर सिद्धाचलजी की यात्रा करने और उसके द्वारा भवसागर के पार पाने का सौभाग आपको कहाँ से प्राप्त होता ? इसलिए मेरे अपकार को भी आपको उपकार ही मानना चाहिए कहते हैं कि सज्जन पुरुष हरदम दूसरों के दोष नहीं, बल्कि गुण ही ग्रहण करते हैं। में अपनी जडता के कारण अपनी सास की बात मानी, तो मैंने उसका कटु फल भी चखा। वाद में मेरी आँखों में से एक दिन भी आँसू सूखे नहीं। मैं तो परमात्मा प्राणनाथ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र एक ही प्रार्थना करती हूँ कि वह मुझे किसी भी जन्म में आपकी सौतेली माँ जैसी सास न दे। मेरी सास ने मुझे जो सज़ा दी है, उसे मैं आजीवन नहीं भूल सकती हूँ। आपको मेरे सामने मुर्गा बन कर रहना पड़ा और वह देख-देख कर मुझे रोना पड़ा, इसके पीछे मेरी दुष्ट सास ही थी। ऐसा होने पर भी जब तक आप मुर्गे के रूप में ही सही, मेरे पास थे, तब तक मुझे कुछ . तो संतोष मिलता था। मैं आपसे अपने दिल की बात कह कर मेरा मन हलका कर लेती थी और आपकी सेवा में मेरा समय अच्छी तरह बीत जाता था . . लेकिन जब आप मुझे छोड़कर शिवमाला के साथ चले गए, तबसे मैंने अपने युग-युग जैसे ये लम्बे दिन कैसे बिताए इसे या तो मैं जानती हूँ, या फिर सर्वज्ञ परमात्मा ही जानता हैं। हे नाथ ! आपके यहाँ से शिवकुमार के साथ जाने के बाद मेरा जीवन पशु-पंछियों के जीवन से भी बदतर और दु:खदायक हो गया। आप यह मत मानिए कि यह गुणावली अपना महत्त्व - बताने के लिए ऐसा बोल रही हैं।" गुणावली के हृदय की बातें सुन कर चंद्र राजा ने उसे अपने हृदय से लगा लिया और उसे सांत्वना देने के लिए उसको थपथपाते हुए, फिर राजा चंद्र ने अपनी पटरानी को सांत्वना देते हुए कहा, “हे देवी! तुझे ऐसा बोलना शोभा नहीं देता है। मैं तो तुझे सच्चे स्नेह की अपनी प्राणेश्वरी मानता हूँ / तेरे प्रति होनेवाले इस व्यतिक प्रेम के कारण ही तेरा पत्र तोते की ओर से मिलते ही मैं तुरंत विमलापुरी से चल निकला और तेजी से यात्रा करता हुआ जल्द से यहाँ आ पहुँचा हूँ। हे देवी, यदि तेरे प्रति मेरे मन में प्रेम का भाव न होता, तो मेरा विमलापुरी से यहाँ लौट आना असंभव था। लेकिन तेरा प्रेम ही मुझे विमलापुरी से आभापुरी खींच लाया है / गुणावली, तू सचमुच गुणों की खान है, महासती है, उदार मन की है। तेरे मन में मेरे प्रति सच्चा प्रेमभाव है। यह बात तो मुझे उसी समय पता चल गई जब तूने भेजा हुआ तोता तेरा पत्र लेकर मेरे पास आया। मैंने लिफाफा खोला और पत्र पढना चाहा / लेकिन तेरे पत्र के प्राय: सभी अक्षर अस्पष्ट-से हो गए थे। जैसे-वैसे पढ़ कर, तेरी लिखी हुई बातों का रहस्य मैंने समझ लिया लेकिन उसी समय मैं समझ गया कि वह पत्र तूने आँखों से आँसू बहाते-बहाते लिखा था / तेरे मन की स्थिति समझने के कारण उसी समय मैंने निर्णय किया कि मुझे विमलापुरी से तुरन्त आभापुरी जाना चाहिए और तुझे मिलना चाहिए। हे देवी, अब तो तू मेरे साम्राज्य की पटरानी है। इसलिए तू अपनी रुचि के अनुसार घर का सारा कारोबार कर। तेरी छोटी बहनों से प्रेम से काम लें। इन सारी बहनों की सार-सँभाल करने की जिम्मेदारी तुझे सौंप कर अब मैं निश्चिन्त हो गया हूँ।" nirma P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 237 चंद्र राजा ने एकान्त की इस बातचीत में गुणावली के गुणों की बहुत जी खोल कर प्रशंसा की, इससे गुणावली मन में बहुत खुश हो गई। बातचीत के सिलसिले में राजा चंद्र ने अपनी पत्नी रानी गुणावली से कहा, "हे प्रिये, / अब तो मुझे सिर्फ राज्य के कारोबार की चिंता है / मेरी बाकी सारी चिंताओं का बोझ तो तूने अपने सिर पर लेकर मुझे कितना निश्चिन्त बना दिया है।" एक बार चंद्र राजा ने अपने राजदरबार में विद्वानों और नगर के लोकमान्य सज्जनों को निमंत्रित किया। राजा ने उन सबके सामने वह सारी कहानी विस्तार से कह सुनाई, जिसमें वे मुर्गा बनाए गए थे वहाँ से लेकर उनके आभापुरी लौटने तक की सारी बातें आई थीं। राजा की कही हुई बातें सुन कर लोगों को आश्चर्य तो हुआ ही, लेकिन सब के मन पर आघात-सा लगा। राजा की बातें सुनने के बाद सबने मिल कर राजा चंद्र की जयजयकार का नारा लगाया और राजा के प्रति अपनी शुभकामनाएँ प्रकट की। अब राजा चंद्र अंत:पुर में अपनी रानियों के साथ स्वर्गीय सुख का उपभोग कर रहा था। कभी रानियाँ राजा को मधुर गीत सुनाती थीं, कभी नृत्य कला दिखाती थीं, कभी नई-नई बातें सुना कर राजा का मनोरंजन करता थीं, कभी क्रीड़ा करने के लिए उद्यान में ले जाती थीं और वहाँ राजा के साथ जलक्रीड़ा आदि का आनंद लेती थीं। चंद्र राजा इस समय भोगावली कर्म के उदय से विविध विषयों का भोग कर रहा था और उधर अपने विशाल साम्राज्य का शासन भी कर रहा था / ऐसी सुखसमृद्धि की अवस्था में भी राजा नटराज शिवकुमार और उसकी कन्या शिवमाला के उपकार को कभी नहीं भूलता था। दूसरे के किए हुए उपकार को जो नहीं भूलता है वही सच्चा सज्जन कहलाता है। उत्तम पुरुष संपत्ति की समृद्धि में या सुख में भी उपकारी द्वारा किए हुए उपकारों को कभी नहीं। भूलता है। यह कृतज्ञता भाव सकल कल्याण का निर्माता है। जिस मनुष्य में कृतज्ञता का भाव नहीं होता है उस मनुष्य की कोई कीमत नहीं होती है। यद्यपि चंद्र राजा ने पहले ही शिवकुमार को बहुत धन देकर उसे एक छोटा राजा-सा बना ही दिया था, फिर भी राजा को इतने से ही संतोष नहीं था। इसलिए अब उसने नटराज शिवकुमार को अनेक बड़े गाँव और नगर भेंट करके उसे हरदम के लिए सुखी बना दिया। इससे चंद्र राजा की कीर्ति चारों ओर फैल गई। राजा चंद्र कृतज्ञता के भाव का एक आदर्श नमूना ही सिद्ध हुआ। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र इधर गुणावली और प्रेमला के बीच आपस में ऐसा गहरा स्नेहभाव बढ़ा कि एक को दूसरे के बिना चैन नहीं आता था / गुणावली के मन में यह बात बड़ा जबर्दस्त प्रभाव कर गई थी कि यदि मेरे स्वामी राजा चंद्र को इस प्रेमला का सयोग न मिलता, तो वे मुर्गे में से मनुष्य न बनते / इस प्रेमला के प्रभाव से ही मुझे मेरे पति सोलह वर्षों के बाद ही सही, लेकिन वापस मिले / इसी प्रेमला के कारण ही आभापुरी की जनता को अपना राजा मिला और मेरे पति को मुर्गे के रुप में से मनुष्यत्व मिला और साथ-साथ आभापुरी का यह विशाल राज्य भी मिला / सचमुच प्रेमला का हम सब पर ऐसा उपकार है, जिसका बदला चुकाना कठिन है। उस बेचारी ने भी विवाह के तुरन्त बाद पतिविरह की व्यथा सोलह वर्षों तक सही है / प्रेमला सचमुच महासती है, प्रेम का सागर है। ___ गुणावली और प्रेमला दोनों साथ-साथ उठती, बैठती, खाती-पोती, सोती-घूमने जाती, मंदिर में भगवान के दर्शनकरतीं। उनका सबकुछ लगभग साथ-साथ चलता था। इतना साथसाथ कि देखनेवाले आश्चर्य में पड़ते थे। . प्रेम अलगाव में विश्वास नहीं रखता है ! जहाँ प्रेम होता है, वहाँ एक्य, आत्मीयता, मेलजील, सहयोग, सहानुभूति आदि शुभ तत्त्व अवश्य होते ही है। राजा चंद्र भी अपनी दोनों रानियों से समभाव से बर्ताव करता था। अब समय के बीतते-बीतते कालक्रम से देवलोक में से कोई उत्तम देवता चकित होकर (गिर कर) गुणावली के गर्भ में आया / गुणावली ने उस रात शुभ स्वप्न देखा। नौ महीनों का गर्भकाल पूरा करके गुणावली ने एक शुभ घड़ी में पुत्ररत्न को जन्म दिया। दासी ने राजा के पास जाकर उसे पुत्रजन्म का शुभसंदेश दिया। राजा ने पुत्रजन्म की खुशी के संदेश लानेवाली दासी को बड़ा इनाम देकर खुश कर दिया। पुत्रजन्म की खुशाली में राजा ने बड़ा महोत्सव मनाया। पुत्र का अद्भुत सुंदर रूप देख कर राजा बहुत खुश हो गया। बारहवें दिन बड़ी धूमधाम से पुत्र का नामकरण उसके जन्माक्षर के अनुसार 'गुणशेखर' किया गया। समय बीतता गया और रानी प्रेमला ने भी एक सर्वागसुंदर पुत्र को जन्म दिया। अब तो राजा की खुशी का ठिकाना न रहा। इस पुत्रजन्म की खुशी भी महोत्सव से मनाई गई। बारहवें दिन इस पुत्र का बड़ी घूमधाम से नामसंस्कार किया गया और इस पुत्र का नाम रखा गया 'मणिशेखर'। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 239 दोनों राजकुमारों का राजमहल में बड़े लाड़प्यार से और ढंग से पालन होने लगा। दोनों राजकुमार दूज के चंद्रमा की तरह शरीर, तेज, पराक्रम, गुण, बुद्धि की दृष्टि से बढ़ते गए। राजा चंद्र समय-समय पर अपने इन दोनों राजकुमारों को अपनी गोद में बिठा लेता, उनकी बालक्रीड़ाऐं देखता, उनकी मधुर और तोतली वाणी सुनता और मन-ही-मन खुश होता जाता था। राजा चंद्र की गोद में ये दोनों राजकुमार बालक्रीड़ाएँ करते हुए ऐसे सुंदर प्रतीत होते थे, - मानो मानसरोवर में राजहंसों की जोड़ी क्रीड़ा कर रही हो। धीरे-धीरे दोनों राजकुमार बडे होने लगे। अब वे दोनों हाथी-घोड़े पर बैठ कर धूमने के लिए जाने लगे। राजा ने उन दोनों की शिक्षा-दीक्षा का भी सुचारु प्रबंध किया / कुछ ही दिनों में दोनों राजकुमार बालक्रीड़ाएँ करते हुए ऐसे सुंदर प्रतीत होते थे, मानो मानसरोवर में राजहंसों की जोड़ी क्रीड़ा कर रही हो। धीरे-धीरे दोनों राजकुमार बडे होने लगे। अब वे दोनों हाथी-घोड़े पर बैठ कर धूमने के लिए जाने लगे। राजा ने उन दोनों की शिक्षा-दीक्षा का भी सुचारु प्रबंध किया। कुछ ही दिनों में - दोनों राजकुमारों ने बहुत्तर कलाओं, धर्मशास्त्रों तथा शस्त्रकला में पारदर्शिता कुशलता प्राप्त कर ली। इधर चंद्रराजा का पुण्योदय ऐसा प्रबल था कि युद्ध किए बिना ही उसने राज्य में दिन दूनी वृद्धि होने लगी। क्रमश: राजा चंद्र भारत वर्ष के तीन महाद्वीपों का (खंड़ों का) राजा बना। उस समय संसार में ऐसा कोई राजा न था जिसने चंद्र राजा के चरणों में अपना मस्तक न झुकाया हो। कृतज्ञाशिरोमणि चंद्रराजा ने आभापुरी में उसकी उज्जवल कीर्ति की गाथा गानेवाले अनेक गगनचुंखी मंदिर बनवाए / चारित्र्यचूड़ामणि मुनियों के करकमलों से उसने उन मंदिरों में हजारों जिनमूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा करवाई / उस समय चंद्र राजा ने आभापुरी में जबरदस्त 'अंजनशलाका' प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। इसके अतिरित्त राजा ने अन्य अनेक जिनशासनप्रभावक पुण्यकार्य कराए। राजचंद्र बहुत अच्छी तरह जानता था कि - 'संपत्ति की सफलता सात क्षेत्रों की भक्ति करने में ही समाई है।' आभापुरी में श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान आगमन एक बार पृथ्वीतल को पावन करते हुए और भव्य जीवों को सत्य मोक्षमार्ग बताते हुए आभापुरी के 'कुसुमाकर' नामक उद्यान में तीर्थकर देव श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान करोड़ों देव-देवियों और लाखों साधु-साध्वियों के साथ पधारे। P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // हा 240 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र उद्यानपालक ने दौडते हुए चंद्रराजा के पास पहुँच कर बधाई दी, “हे महाराज, तीनों भुवनों की रक्षा करनेवाले, त्रिभुवनपूज्य श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान अपने विशाल परिवार के साथ आभापुरी के 'कुसुमाकर' उद्यान में पधारे हैं।' राजा चंद्र ने अत्यंत प्रसन्न होकर यह संदेश लानेवाले उद्यानपालक को अच्छा-सा इनाम देकर खुश कर दिया। फिर अपनी चतुरंग सेना और सकल अंत:पुर सहित राजा चंद्र भगवान मुनिसुव्रतस्वामी को वंदना करने को चल पडा / जैन धर्मी राजा का मन सबसे पहले देवगुरूधर्म के साथ होता हैं और बाद में अन्य बातों के साथ होता हैं। जिनवंदन सभी पापों को विनष्ट कर डालता है। वह भवबंधनों को तोड़ डालता है, विषयतृष्णा को शांत कर देता है और कर्म के बंधनों को जड़ से काट डालता है। वह अनंत अव्याबांध सुख प्रदान करता है और शिवसुंदरी से आत्मा का संगम करा देता है। वह कर्मसत्ता को झुकाता है, पुण्य को पुष्ट कराता है और आत्मा को रत्नमयी की प्राप्ति कराता है। राजा चंद्र परिवार के साथ 'समोवसरण' की ओर आगे बढ़ते जा रहे थे। भगवान मुनिसुव्रतस्वामी का सुंदर समोवसरण देखते ही चंद्र राजा का रोम रोम हर्ष से पुलकित हो गया। राजा तुरंत गजराज पर से नीचे उतर पड़ा / उसने पंचअभिगम का पालन करके मोक्षमहल के उपर चढ़ने की नसैनी समान होनेवाले समोवसरण की सोढ़ियाँ पार की और उपर पहुँच कर त्रिभुवनस्वामी देवाधिदेव मुनिसुव्रत स्वामी भगवान के दर्शन किए। फिर त्रिभुवनस्वामी भगवान को तीन परिक्रमाएँ की, भाव और विधिपूर्वक वंदना की और फिर राजा भगवान के सामने दोनों हाथ जोड़ कर विनम्रता से बैठ गया और अमृतवर्षिणी, भवसंताप को शाँत करनेवाली, रागद्वेष मोह का विष उतारनेवाली, योजनगामिनी, सबको उनकी अपनी-अपनी भाषा में समझानेवाली, स्याद्वाद्पूर्ण और अमृतपान करने लगा। धर्मदेशना (धर्मोपदेश) देते समय भगवान मुनिसुव्रतस्वामी ने कहा, “हे भव्य जीवो। अनादि काल से संसारी जीव पाँच प्रकार का मिथ्यात्व, बारह प्रकार की अविरति, पच्चीस प्रकार के कषाय, पंद्रह प्रकार के योग आदि के कारण ज्ञानावरणीय आदि कर्म बाँध कर चार गतियों और चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है। यह जीव जन्म-जरामृत्यु, आधि-व्याधि-उपाधि आदि के अनंत दुखों को भोग रहा है / मूल कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय नाम के होते हैं। इन कर्मो के उपभेद होते हैं / इन कर्मो के अधीन होनेवाला जीव अपने मूल शुद्ध स्वरुप को पूरी तरह भूल गया हैं। इसलिए यह जीव कर्मजन्म विभावों को ही अपना मान लेता हैं और उनमें मस्त रहता हैं, तल्लीन रहता है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 241 है इसके परिणामस्वरूप जीव कर्मराजा का प्रभाव अधिकाधिक मात्रा में पड़ता जाता है। कभी-कभी किसी जन्म में-योनि में कर्मराजा संसारी जीव के पास पुण्योदय को भेजता है और जीव की काल्पनिक, नकली और विनाशी, क्षणभंगुर वंषयिक सुख दिला कर उसे खुला रखता है। ऐसा अशाश्वत सुख भोगने के बाद वह जीव को फिर से नरकादि दुर्गातियों में भयंकर शारीरिक और मानसिक यातनाएँ भोगने के लिए भेज देता हैं। विषयलोलुप जीव बार बार दुर्गतियों का शिकार बनता हैं। फिर से पुण्योदय के कारण थोड़ा-सा भौतिक और क्षणभंगुर सुख मिलते ही वह उसमें आसक्त बन जाता है / अज्ञानी संसारी जीव को सच्चे सुख की खबर ही नहीं होती है। इसलिए सच्चे सुख के कारणों को वह दुखों का कारण मान लेता है और उनसे दूर भागता है। इसके साथ ही सच्चे दु:ख के कारणों को वह सच्चे सुख के साधन मान बैठता है और उनकी साधना में स्वयं को लीन कर देता है। अनंतज्ञानी तीर्थकर देवों ने अपने अनंत ज्ञान के प्रकाश में देख कर जो सच्चे सुख के साधन बताए हैं, उनकी ओर यह मोहाधीन और कर्माधीन बना हुआ जीव कभी देखता तक नहीं, उनका उपयोग करने की बात तो दूर रही। यह संसारी मोहाधीन जीव सच्चे सुख का सही मार्ग बतानेवाले ज्ञानी पुरुषों के प्रति मन में द्वेष का भाव रखता है। उनको अपना शत्रु समझ लेता है, वैषयिक सुख के साधन बतानेवालों को और दिलानेवालों को वह अपना सच्चा मित्र मान लेता है। मिथ्यात्व नाम का कर्म संसारी जीव को सत्य और असत्य का भेद नहीं करने देता। मनुष्य की विवेकशक्ति यहाँ काम ही नहीं कर पाती ! इसीलिए अज्ञानजीव सत्य को असत्य और असत्य को सत्य, हितकारी को अहितकारी और अहितकारी को हितकारी, पुण्य को पाप और पाप को पुण्य, हेय को उपादेय और उपादेय को हेय मान कर इस संसार में अनादिकाल से भटक रहा है। इस संसार में अन्यत्र कहीं सुख नहीं है। सुख एकमात्र मोक्ष में ही है। वैषयिक सुख तो / शहद लगाई हुई तलवार की धार चाटने के समान खूनी और क्षणभंगुर सुख है। ऐसे खूनी और क्षणभंगुर सुख को मिथ्यात्वी अज्ञान जीव सच्चा सुख मान लेता है और उसी में आसत्त रहता जैसे जंगल में रेगिस्तान में भटकनेवाले प्यासे मृग को मृगजल का आभास होता है और वह उसे सच मान कर पाने के लिए भटकता है, उसी तरह मिथ्यात्व से भरे हुए जीव को भी विषयसुख में सच्चे सुख का भ्रम होता है ! मिथ्यात्वी-अज्ञानजीव का यह भ्रम 'समकित' आने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र पर दूर हो जाता है। ‘समकित' का अर्थ है सच्ची समझदारी-सच्चा विवेक और अपने सच्चे आत्मस्वरूप का ज्ञान। __ आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं / इन असंख्य प्रदेशों में आठ प्रदेश ऐसे हैं, जो कर्म से अनावृत्त हैं / इन आठ 'रुचक' प्रदेशों को कर्म की बाधा नहीं पहुँचती है। इसीलिए जीव का जीवस्वरूप निरंतर स्थिर और शाश्वत रहता है। यदि ये आठ प्रदेश भी कर्म से आवृत्त हो जाएँ तो जीव को अजीवत्व जड़त्व-आ जाएगा। जीव अजीव (जड़) बन जाएगा। ___ इन आठ कर्मों ने ही आत्मा के मूल स्वरूप को ढंक दिया है। मिथ्यात्व के प्रभावस्वरूप आत्मा अपने अनंतज्ञानादिमय स्वरूप को पहचान नहीं सकती है। इसलिए यह आत्मा पराई वस्तु को अपनी मान लेती है और उसमें आसक्त होकर संसार में परिभ्रमण करती रहती है। हाथी के गंडस्थल में से टपकनेवाले मदजल में अत्यंत आसक्त बने हुए भ्रमर की तरह यह जीव भी भौतिक पदार्थों में आसक्त होकर महादु:ख प्राप्त कर लेता है और बार-बार जन्ममृत्यु का शिकार बन जाता है। . इस जीव का मूल स्थान सूक्ष्म जीवराशि (निगोद) है। इसे जिनागम (जैन धर्मशास्त्र) में 'अव्यवहारराशि' कहा गया है। आकाशप्रदेश में सिर के बाल के अग्रभाग जितने छोटे प्रदेश में असंख्य निगोद के गोले होते हैं। निगोद के एक-एक गोले में निगोद के जीवों को रहने के लिए असंख्येय शरीर होते हैं। इस निगोद के एक-एक शरीर में अनंतानंत जीव एक साथ रहते हैं / एक साँस के समय में ये महादु:खी जीव अनेक बार जन्ममृत्यु के फेरे में से होकर गुजरते हैं / जीवराशि के इन जीवों को सातवें नरक में पड़े हुए जीवों से भी अनंतगुणा दु:ख भोगना पड़ता है / यह निगोद और उसके जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि अनंतज्ञानी जीव के अतिरिक्त अन्य जीव उन्हें अपने चर्मचक्षुओं से देख नहीं सकते है। लेकिन यह विषय मात्र श्रद्धागम्य हैं। ___ इस सूक्ष्म निंगोद में अनादिकाल से रहनेवाला जीव कभी-कभी भवितव्यता के अनुकूल होने पर व्यवहारराशि में आ जाता है। अर्थात् पृथ्वीकाय जीवों में अपकाय जीवों में (एकेंद्रिय जलचर जीवों में) आ जाता है / फिर वह कभी दो इंद्रियोंवाले जीवों में आ जाता है / अधिक अनुकूल स्थिति में वह तिर्यच (पंछी) योनि में पंचेद्रिय जीव भी बन जाता है। फिर अनंत पुण्य की राशि एकत्र होने पर उस जीव को मनुष्यभव की प्राप्ति हो जाती है। लेकिन सबसे श्रेष्ठ होनेवाले पंचेद्रिय मनुष्यभव को प्राप्त कर लेने पर भी अशुभ सामग्री के निमित्त से और शुभसामग्री के अभाव से जीव नरक आदि दुर्गति में फिर फेंक दिया जाता है / जीव को नरकादि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 243 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र दुर्गति की प्राप्ति उसके विषय और कषाय के अधीन होने के कारण होती है। विषय और कषाय से उन्मत्त हुए जीव को फिर कृत्याकृत्य का विवेक नहीं रह पाता है। विवेक के बिना आत्मकल्याण होना कैसे संभव है ? ममता रूपी कुलटा में आसक्त हुए जीव को यह महामायावी ममता हुए जीव को संसार के रंगमंच पर विविध प्रकार के रूप देती है और जीव को नचाती है / वह जीव से तरह-तरह के नाटक करती है / मोहाधीन हुआ जीव इस ममता रूपी राक्षसी के भयानक स्वरूप की नहीं जानता है / इसलिए उसको आशा के अनुसार जीव सभी प्रकार की चेष्टाएँ करता है और चारगतिमय संसार में अनादिकाल से भवभ्रमण करता जाता है। मिथ्यात्व के प्रभाव के कारण संसारी जीव शुद्ध, देव, गुरु और धर्म के स्वरूप को नहीं जानता है। वह कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के जाल में फँस जाता है और संसार रूपी सागर पार कर जाने के लिए जहाज के समान होनेवाले सुदेव-सुगुरु और सुधर्म की उपेक्षा और अनादर करता हैं। फिर कभी ऐसा भी होता है कि कर्मरूपी मल का बहुत ह्रास होने से किसी जीव को समकितरत्न की प्राप्ति हो जाती है। फिर उस जीव को अपने आत्मस्वरूप का और अपनी स्थिति का भान हो जाता है। समकित की प्राप्ति के फलस्वरूप उसकी कुदेव-कुगुरु और कुधर्म के प्रति होनेवाली कुवासना (आसत्ति) समाप्त हो जाती है और उसके हृदय में सुदेव-सुगुरु और सुधर्म के प्रति सुवासना दृढ़ हो जाती है। फिर उसको कृत्याकृत्य सार और असार, जड-चेतन, स्व-पर, हेयउपादेय आदि तत्त्वों का विवेक प्राप्त हो जाता है। अब वह विषयकषाय को अपने शत्रु की तरह देखने लगता है। अब वह कंचन-कामिनी-कुटुंब को दु:खदायी और पाप का कारण समझ लेता हैं / सुदेव-सुगुरु और सुधर्म को ही वह अब सुख का सच्चा कारण जान जाता है। वह अब समस्त संसार को हेय (तुच्छ) और मोक्ष को ही उपादेय मान लेता है / संसार के कारणभूत होनेवाले 'आश्रव' को अब वह अत्यंत हेय समझता है और मोक्ष के लिए कारण बननेवाले 'संवर' को अत्यंत उपयुक्त (उपादेय) मान लेता है। जब जीव के लिए एक बार हेय-उपादेय की मान्यता निश्चित हो जाती है, तब फिर उसे मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने में देर नहीं लगती है। वह समकित पा जाने के बाद जीव संसार में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र बहुत काल तक नहीं भटकता है। वह कुछ ही समय में मोक्षप्राप्ति कर जाता है। मोक्षप्राप्ति में ही सच्चा, स्वाधीन, संपूर्ण और शाश्वत सुख होता है। यहाँ जन्म-जरा-मृत्यु-रोग-शोकादि का सर्वथा और सर्वदा अभाव होता हैं। __ ऐसे शाश्वत सुख देनेवाले मोक्ष की साधना मनुष्यजन्म को छोड़कर अन्य किसी जन्म में नहीं हो सकती है। मनुष्य ही सभी पापों और आश्रवों का प्रतिज्ञा के साथ त्याग कर सकता है, अन्य जीव नही कर सकता। मनुष्य ही संपूर्ण संवर और निर्जरा की आराधना कर सकता है। मनुष्य ही अष्ट कर्मों के बधनों को तोड़ कर मोक्षप्राप्ति कर सकता है। - मनुष्य का जन्म वास्तव में मोक्षप्राप्ति कर लेने के लिए ही है। मनुष्यभव (जन्म) की महत्ता इस मोक्ष के कारण ही है। यदि मोक्ष न होता, अथवा मोक्ष के होते हुए भी मनुष्य जन्म पाने पर मोक्ष प्राप्त न हो सकता होता तो अनंतज्ञानी पुरुष मनुष्य जन्म को दस द्दष्टान्तों से दुर्लभ न कहते। ___ इसीलिए यह मनुष्यजन्म और भवसागर पार कर जाने के लिए सुदेव-सुगुरू और सुधर्म की सामग्री मिलना अत्यंत दुर्लभ है / मानवजन्म और सुदेवादि की प्राप्ति होते हुए भी उसका सदुपयोग प्रमादी जीव नीहं कर सकता है। प्रमाद के परवश हुआ जीव अनंतपुण्य के उदय से प्राप्त हुए मनुष्यजन्म और धर्म की सामग्री को खो देता है। इसीलिए प्रमाद ही आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है, प्रमाद ही नरक का मार्ग है ! आयुकर्म को छोड़ कर अन्य सातों कर्मों की जब अंत:कोटाकोटि सागरोपम की स्थिति शेष रहती है, उसमें भी पल्योपम की असंख्यवें भाग की स्थिति का हास होता है, तभी जीव को समकित की प्राप्ति हो जाती है। फिर बाकी बचे हुए कर्मों की स्थिति में से 2 से 3 पल्योपम की स्थिति का हास होता है तब जीव को देशविरति की प्राप्ति ही जाती है। उसमें से संख्याता सागरीपम की स्थिति घटने पर जीव को सर्वविरति प्राप्ति होती है। सर्वविरति रूप चारित्र्य पाकर जो जीव उसका अप्रमत्त भाव से निरतिचार पालन करता है, वही जीव ठेठ मोक्ष तक भी | पहुँच जाता है / मोक्ष तक पहुँचने के बाद जीव अनंत और अव्याबाध सुख प्राप्त कर लेता है। मोक्ष में जीव की स्थिति सादि अनंत होने के कारण वहाँ से जीव फिर कभी संसार में वापस / नहीं आता है। संसार का कारण कर्म का संयोग है। लेकिन मोक्षप्राप्त जीवों ने तो इस कर्म के संयोग का पूरी तरह विनाश किया हुआ होता है, इसलिए उन्हें फिर से संसार में क्यों आना पड़ेगा ? P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कारण होने पर ही कार्य होता है। कारण के अभाव में कार्य का भी अभाव ही होता है। कारण की अनुपस्थिति में कार्य नहीं हो सकता है। - इसलिए हे भव्य जीवी ! ऐसे अनंत सुखदायी मोक्ष की प्राप्ति के लिए जीव को निरंतर कर्मक्षय करने का प्रयत्न करना चाहिए। कर्मक्षय करने के लिए जिनाज्ञा-आगम-के अनुसारसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्यारित्र्य की आराधना अत्यंत श्रद्धा के भाव से करनी चाहिए। इसके लिए जीवको तत्त्वदर्शी बनना होगा। इस धर्म के प्रभाव से ही जीव मनोवांछित फल प्राप्त कर सकता है।" मुनिसुव्रतस्वामी भगवान की ऐसी तत्त्वदर्शी और वैराग्यभाव से पूर्ण धर्मदेशना सुन कर चंद्र राजा के अंत:करण में भी वैराग्य की भावना उत्पन्न हो गई / इसलिए राजा ने तुरंत उठकर भगवान मुनिसुव्रतस्वामी से यथाशक्ति व्रत नियम ग्रहण किए और उनका पालन करने का मन में निश्चय कर लिया। धर्मश्रवण का फल व्रतग्रहण होता है। इसलिए व्याख्यान सुनने के बाद श्रावक-श्राविकाओं को यथाशक्ति व्रत-नियम आदि ग्रहण कर लेने चाहिए। ___ अब चंद्र राजा ने अनंतज्ञानी भगवान से प्रश्न किया, "हे भगवन, मुझे अपने क्रिया कर्म के फलस्वरूप अपनी सौतेली माँ से मुर्गा बनना पड़ा ? किस कर्म के कारण में मुर्गे के रूप में नटों की मंडली के साथ देश-विदेश में वर्षों तक भटका ? किस कर्म के फलरूप मैं प्रेमला के हाथ में आया ? किस कर्म से मुझे सिद्धगिरि का संयोग और मनुष्यत्व की पुनप्राप्ति हुई ? किस कर्म के योग से हिंसकमंत्री ने मकरध्वज राजा के साथ छलकपट किया ? किस कर्म के कारण राजकुमार कनकध्वज जन्म से ही कोढ़ का शिकार बन गया ? किस कर्म से मेरा रानी गुणावली। के साथ पुनर्मिलन हुआ ? हे प्रभु, इन सभी प्रश्नों के उत्तर जानने की मेरे मन में बहुत उत्कंठा है / आप जैसे . अनंतज्ञानी परमात्मा को छोड़कर अन्य कौन मेरे इन सभी प्रश्नों का सही उत्तर दे सकता है ? इसलिए है भगवन्, मुझ पर कृपा कीजिए और मेरे मन में उत्पन्न हुए इन प्रश्नों के सही उत्तर देकर मुझे उपकृत कीजिए।" श्री चंद्रराजा, गुणावली प्रेमला आदि के पूर्व भव चंद्रराजा की विनययुक्त बातें सुनकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान ने चंद्रराजा के उसके पूर्वभव की जानकारी देना प्रारंभ किया। भगवान ने बताया, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र "हे राजन्, जंबुद्वीप के भरतक्षेत्र में विदर्भ नाम का एक अत्यंत रमणीय प्रदेश आता है। इस प्रदेश में तिलका नाम की एक नगरी है। इस नगरी के राजा का नाम था मदन भ्रम / राजा की रूपगुणसंपन्न कमलमाला नाम की पटरानी थी। राजा-रानी के एकमात्र संतान थी। यह संतान कन्यारूप में थी और अत्यंत रुपवान् इस कन्या का नाम 'तिलकमंजरी' रखा गया था। तिलकमंजरी बचपन से ही मिथ्या धर्म में आसक्त हो गई थी। वह भक्ष्याभक्ष्य का विवेक नहीं रखती थी। वह जैन धर्म का द्वेष करती थी। जैन धर्म की निंदा करने में उसे बड़ा आनंद . आता था। मिथ्या धर्म की प्रशंसा करने में भी उसे कोई जीव जैन धर्म पर श्रद्धा न रखते हुए उसकी निंदा करता है, तो उसके कारण जैन को कोई हानि नहीं पहुँचती है। इसके विपरीत जैन धर्म की निंदा करनेवाला जीव अपने दर्शनमोहनीय और अंतराय नाम के दो कर्मों को द्दढ कर जाता है। ऐसा जीव बोधिलाभ से भ्रष्ट हो जाता है। धीरे-धीरे काल क्रम के अनुसार राजकुमारी तिलकमंजरी बड़ी हुई / उम्र के साथ मिथ्याधर्म के प्रति उसकी श्रद्धा में वृद्धि ही होती गई। मदनभ्रम राजा के दरबार में सुबुद्धि नाम का मंत्री था। इस मंत्री के रूपवती' नाम की एक अत्यंत स्वरूपसुंदर कन्या थी। इस रुपवती ने जन्म से ही अपनी माता के स्तनपान के साथ साथ जिनमत का अमृतपान भी किया था। इसीलिए वह जैनधर्म के प्रति श्रद्धा और उसके पालन में अत्यंत दृढ़ थी। महाव्रतधारी साध्वियों की सत्संगति में रह कर उसने जैन धर्म के बारे में बहुत अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। इसी के फलस्वरुप वह नव तत्त्व, कर्म-सिद्धान्त, स्याद्वाद सिद्धान्त, साधु धर्म और श्रावक धर्म के आचारों को बहुत अच्छी तरह से जानती थी। प्रतिदिन जिनदर्शन, पूजा, गुरुवंदन, नवकारमंत्र का जप, साधु-साध्वियों को आहारपानी देना आदि धार्मिक कार्यों में वह बहुत तत्पर रहती थी। हररोज साधु-साध्वी को आहरपानी परोसे बिना वह भोजन भी नहीं करती थी। पूर्वजन्म का संबंध और भाग्य के कारण राजपुत्री और मंत्रीपुत्री के बीच मित्रता हुई। उन दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति गहरा स्नेहभाव रहता था। उन दोनों को अब एक दूसरे के बिना एक क्षण के लिए रहना एक युग के समान प्रतीत होता था। प्रेम प्रेमी के निकट रहना हो पसंद करता है। इसके विपरीत द्वेष द्वेषी से बहुत दूर रहना ही पसंद करता है। यदि हमारे मन में परमात्मा के प्रति प्रेम है, तो क्या हमें परमात्मा के पास तन-मन-से रहना अच्छा लगता है ? क्या हम अपने हृदयरूपी सिंहासन पर परमात्मा को बिराजमान करते हैं ? परमात्मा की भक्ति में हम अपने तन-मन-धन का कितना व्यय करते है ? परमात्मा की भक्ति करने में हमें कैसा और कितना आनंद प्राप्त होता हैं ? ऐसे प्रश्न हमें कभी एकांत में अपनी अंतरात्मा से अवश्य पूछ लेने चाहिए / अस्तु / मा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247 मा रहगा। श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र = एक बार राजपुत्री और मंत्रीपुत्री दोनों एकांत में बैठी थीं। दोनों सखियों ने विचार किया के हम दोनों के बीच दूध-पानी के समान एक दूसरे के प्रति पूर्ण प्रेम है। हम दोनों एक दूसरे के बना एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकती हैं ? इसलिए यदि हम दोनों अलग-अलग पुरुषों से वैवाह करेंगी, तो हमें हरदम के लिए एक दूसरे से दूर रहना पड़ेगा। लेकिन यदि हम दोनों एक ही अच्छे वर के साथ विवाह करके उसकी पत्नियाँ बन जाएँ तो जीवन भर हम दोनों को साथ रहने को मिलेगा और हम दोनों हरदम प्रेम के सागर में डूबती रह सकेंगी। हमारा प्रेम अखंड बना रहेगा। / दोनों को एक दूसरे का यह विचार बहुत पसंद आ गया / इसीलिए उन दोनों ने उसी समय एक ही वर के साथ विवाह करने का निश्चय किया / मनुष्य जिस विचार को बार-बार मुष्ट करता है उस विचार के लिए अनुकूल वातावरण बना देने में कुदरत भी बहुत सहायता करती हैं। / राजपुत्री और मंत्रीपुत्री के बीच यह प्रेमसंबंध तो बहुत बड़ी मात्रा में था। लेकिन बाद में मंत्रीपुत्री को पता चला कि मेरी सहेली यह राजपुत्री तिलकमंजरी जैन धर्म के प्रति द्वेषभाव मन में रखती हैं। लेकिन मंत्रीपुत्री बहुत चतुर थी। वह आपसी प्रेमसंबंध कहीं टूट न जाए, और राजपुत्री को बुरा न लगे इस विचार से वह इस धर्मचर्चा की बात राजपुत्री के सामने बिलकुल नहीं करती थी। लेकिन मंत्रीपुत्री के घर प्रतिदिन आहारपानी लेने के लिए साध्वी महाराज आती थीं और मंत्रीपुत्री उनको भक्तिभाव से वंदना करके आहारपानी परोसती-देती ! जो मनुष्य धर्मप्रिय होता हैं उसे धर्मदाता गुरु महाराज प्रिय लगते ही हैं। और जिसे जो प्रिय होता है, वह उसकी भक्ति किए बिना नहीं रहता हैं। जब घर में आई हुई साध्वी महाराज आहारपानी लेकर चली जाती, तो मंत्रीपुत्री उन्हें घर के दरवाजे तक विदा करने छोड़ने के लिए भक्तिभाव से चली आती थी। मंत्रीपुत्री साध्वी महाराजों के प्रति यह भक्तिभाव रख कर उनकी सेवा करती है, यह = बात राजपुत्री को बिलकुल पसंद नहीं आती थी। इसलिए वह अपने हृदय में जलती थी। एक बार राजपुत्री मंत्रीपुत्री के पास बैठ कर उसे बताने लगी, “हे सखी, तू इन अपवित्र और पाखंडी = साध्वियों की जो भक्ति करती हैं, वह मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। भले ही तुझे मेरी बात प्रिय , लगे या अप्रिय, लेकिन मुझे यह अवश्य बताना चाहिए कि ये साध्वियाँ नितान्त लज्जा और न दाक्षिण्यता रहित होती हैं। इसलिए तेरे लिए उनकी संगति में रहना और नकली भक्ति करना = P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र बिलकुल उचित नहीं है। ऐसी अपवित्र स्त्रियों को वास्तव में तुझे अपने घर में प्रवेश ही नहीं करने देना चाहिए। अगर वे घर में प्रवेश करें, तो उन्हें अपमानित करके घर से बाहर निकाल देना चाहिए। ये साध्वियाँ तो बगुलाभगत होती हैं। बाहर से तो वे त्यागी-बैरागी का वेश पहने हुए होती हैं-घूमती रहती हैं, लेकिन उनके हृदय बहुत कुटिल होते हैं। मीठा-मीठा बोल कर वे लोगों को ठगती रहती हैं। यहाँ की बात वहाँ और वहाँ की बात यहाँ कर के वे नारदमुनि की तरह लोगों को आपस में लड़ा मारती हैं। यही उनका मुख्य धर्म कार्य होता हैं। हमारे नगर में इन साध्वियों द्वारा ठगी गई अनेक स्त्रियाँ हैं। 'सौ चूहे खा के बिल्ली का हज को जाना' जैसे व्यर्थ और धोखा देनेवाला होता है, वैसे ही ये स्त्रियाँ लोगों को ठग-ठग कर अब अपने घर छोड कर तप करने के लिए निकल पड़ी होती हैं / उनको अपने घर में खाने के लिए नहीं मिलता है, इसीलिए वे सिर मूंड कर साध्वियाँ बन जाती है। मीठा मीठा भोजन लोगों से पाने के उद्देश्य से लोगों के आगे धर्म की मीठी-मीठी बातें करके अपना पेट भरती हैं। तुझ जैसी पढ़ी लिखी और सुशिक्षित-सुसंस्कृत मंत्रीपुत्री को : ऐसी पाखंडी साध्वियों की संगति में बिलकुल नहीं रहना चाहिए। . हे सखी, कहाँ हमारे ऊँचे कुल और कहाँ इन के नीच कुल ? ऐसी ये दस-बीस साध्वियाँ इकठ्ठा हो जाएँ तो हमारा सारा नगर बिगाड़ डालेंगी। हरएक घर में झोली में पात्र रख कर भटकती है। अच्छी-अच्छी चीजें खा-पीकर पेट पर हाथ फेरती हुई पड़ी रहती हैं। यही तो वास्तव में इन साध्वीयों का नित्यनियम होता है। हे प्रिय सखी, तू ऐसी घूर्त और पाखंडी साध्वियों का रोज उपदेश सुनती रहती है, वह अच्छा नहीं है। मैं तो ऐसी धूर्त और पाखंडी साध्वियों की छाया में रहना भी पसंद नहीं करती राजकुमारी के मन में साध्वियों के प्रति जितना भी द्वेषभाव था, वह सारा उसने मंत्रीपुत्रीके सामने साध्वियों की निंदा करते हुए उगल दिया। निंदा द्वेष की संतान है। राजपुत्री के मन में जैन धर्म के प्रति बहुत द्वेष भाव था। इसी कारण उसके मन में जैन साध्वियों के प्रति भी द्वेष और अरूचि का भाव था। मिथ्यात्वी मनुष्य को अच्छा और सच्चा कभी पसंद नहीं आता है। ऊँट को मीठे अंगूर पसंद नहीं आते हैं, इसमें अंगूर का क्या दोष है ? : राजपुत्री की जैन साध्वियों की निंदा करनेवाली ये सारी द्वेषपूर्ण बातें सुन कर मंत्रीपुत्री रूपवती ने कहा, “हे प्रिय सखी, यह सब तू क्या बोलती है ? महासती जैन साध्वियों की इस P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 249 प्रकार निंदा करना तुझे बिलकुल शोभा नहीं देता है। मेरे घर प्रतिदिन जो साध्वियाँ भोजन पानी लेने आती है, उनको मैं अपने गुरु की तरह मानती हूँ / वे साध्वीयाँ अपने प्राणों की तरह पंचमहाव्रतों का निरतिचार पालन करती हैं। लोभ तो उनके बर्ताव में बिलकुल भी नहीं दिखाई देता हैं। वे संवेग, संयम, समता और शास्त्रों का स्वाध्याय इन बातों में दिनरात तल्लीन रहती हैं। आत्म प्रशंसा और परनिंदा तो वे बिलकुल नहीं करती हैं। कोई ज्ञानार्थी स्त्रीयाँ उनके पास जाती हैं, तो वे उन्हें सम्यग्ज्ञान का उपदेश ही देती हैं। . हे सखी, इन साध्वियों ने मुझे बड़ी मात्रा में धर्मज्ञान सिखाया हैं, प्रदान किया है, उनके इस उपकार का बदला चुकाने में तो मैं बिलकुल असमर्थ हूँ। यदि मैं तेरी तरह उनकी निंदाद्वेष करूँ, इर्ष्या-असूया उनके प्रति मन में रखू और उसे प्रकट करूँ, तो मैं अवश्य नरक में जा पदूंगी। तेरी इस निंदा के कारण उनका तो कुछ भी अशुभ नहीं होता है, इसके विपरीत उनके अशुभ कर्मों का क्षय होता है। मुझे तो इन साध्वियों ने पशु से मनुष्य बना दिया है। इसलिए मैं तो उनकी शुभचिंतक हूँ, हितैषी हूँ। जन्म-जन्मांतर में भी उन्हीं की शिष्या बनने की इच्छा मैं रखती हूँ। वे महासंयमी, महाब्रह्मचारी और परोपकाररत साध्वियाँ तो निरंतर वंदनीय, नमस्करणीय और उपास्य-पूजनीय हैं। इसलिए उनकी इस प्रकार निंदा करना तेरे लिए बिलकुल उचित नहीं है। ऐसी उत्तम साध्वियों की निंदा करके उस पाप से तू क्यों अपनी आत्मा को पाप से बोझिल और भारी बना देती है ? ऐसा करते रहने से तो तेरा पुण्यरुपी वृक्ष क्रमश: एक-न-एक दिन सूख कर नष्ट हो जाएगा। साधुसंतो की निंदा करना यह अत्यंत उग्र पाप है।" __ मंत्रीपुत्री की ओर से ऐसा सनसनाता उत्तर पाकर राजपुत्री मौन धारण कर चुपचाप अपने महल की और चली गई। अपनी शक्ति के अनुसार देवगुरू-धर्म की निंदा करनेवालों का प्रतिकार न करना यह महापाप हैं। मंत्रीपुत्री तो सुदेव-गुरू-धर्म की परमभक्त थी। वह महान् विदुषी थी। फिर वह अपनी परम उपास्य और वंदनीय साध्वियों की निंदा सुनकर क्यों चुप रहती ? बोलने के अवसर पर मनुष्य को बोलना ही चाहिए। उस समय 'हमारा प्रेम टूट जाएगा', 'उसकी और से मुझे कोई हानि उठानी पड़ेगी' इस तरह का भय सच्चे गुरुभक्त को कभी नहीं होता है। दूसरे दिन राजपुत्री तिलकमंजरी फिर से मंत्रीपुत्री रुपवती के पास आई / उस समय मंत्रीपुत्री मोतियों की माला से कर्णफूल बनाने में लगी हुई थी। दोनों सखियाँ बैठ कर आपस में वार्ताविनोद-हँसीमजाक की बातें करने लगीं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र धीरे-धीरे मध्यान्ह का समय हुआ। साध्वीजी आहार-पानी लेने के उद्देश्य से मंत्रीपुत्री रुपवती के घर आई / साध्वीजी के घर में पधारने पर मंत्रीपुत्री बहुत प्रसन्नता से तुरन्त उठ खड़ी हुई। पहले उसने साध्वीजी को भावपूर्वक वंदना की। माला गूंथने का अपना काम रोक कर वह साध्वीजी को आहारपानी परोसने के लिए घर में चली गई। जाते समय उसने अपने हाथ में होनेवाला मोतियों का बनाया हुआ कर्णफूल राजकुमारी के सामने एक थाली में रखा था। . घर के भीतर जाकर उसने साध्विजी को भक्तिभाव से पकवान्, घी आदि चीजें परोसी / फिर स्वयं को धन्य-धन्य मानती हुई उसने अपने मन में यह विचार किया कि जो वस्तु ऐसे सुपात्र में दी जाए तो वह सफल होती हैं / इस संसार में ऐसे सुपात्र का संयोग मिलना अत्यंत दुर्लभ है। मेरा प्रबल पुण्योदय होने से ही मुझे ऐसे सुपात्र की भक्ति करने का यह परमसौभाग्य प्राप्त हुआ है। प्रतिदिन ऐसा लाभ मिलता रहे, तो वह बहुत ही अच्छी बात है / सुपात्र की भक्ति करने से पाप का पुंज नष्ट होता है और पुण्य के पुंज की प्राप्ती होती है। इससे धीरे-धीरे क्रमश: मोक्षसुख की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए जो अविवेकी होता है वही ऐसी महाव्रतधारी साध्वियों की निंदा करता है। ___ लेकिन राजकुमारी के मन में तो जैन साध्वियों के प्रति बहुत ईर्ष्या-द्वेष का भाव था। इसलिए जैन साध्वी पर झूठा इल्जाम लगा कर उसे बदनाम करने की और ये जैन साध्वियाँ कैसे छलकपट करके चोरियाँ करती हैं, यह मंत्रीपुत्री को प्रत्यक्ष दिखाने की इच्छा राजपुत्री तिलकमंजरी के मन में उत्पन्न हुई / उसने सोचा कि ऐसा कर दिखाने के लिए यह अच्छा अवसर है। इसलिए उसने झट से एक षड्यंत्र रचा। साध्वीजी को घी की आवश्यकता थी। घी लाने के लिए रुपवती घर में चली गई थी और साध्वीजी उसकी प्रतीक्षा करते हुए दरवाजे के बाहर खड़ी थीं। राजपुत्री ने अपना मौका साधा / वह चुपचाप साध्वीजी के पास वह थाल में पड़ा हुआ कर्णफूल उठा कर ले गई और उसने साध्वीजी की समझ में न आए इस रीति से उनके कपड़े के लटकनेवाले छोर में वह कर्णफूल बाँध दिया। यह काम होते ही वह फिर चुपचाप वहीं चली गई, जहाँ वह पहले बैठ कर मंत्रीपुत्री से गप्पें लड़ा रही थी और अनजान होने का बहाना बना कर बैठ गई। साध्वीजी का ध्यान तो आहारपानी ग्रहण करने की ओर था। इसलिए उनको इस बात का पता भी न चला कि राजपुत्री ने कब उनके निकट आ कर उनके कपड़े के लटकनेवाले छोर में कर्णफूल बाँध दिया। राजकुमारी द्वारा किया गया यह छलकपट रुपवती के भी ध्यान में उस समय नहीं आ सका। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 251 साध्वीजी ने आहार-पानी ग्रहण किया / रुपवती ने उन्हें वंदना की। साध्वीजी ने उसे 'धर्मलाभ' कह कर आशीर्वाद दिया। अब साध्वीजी जाने लगी तो मंत्रीपुत्री घर के दरवाजे तक उन्हें विदा करने गई। फिर वह वापस चली आई और उसने थाल पर दृष्टि डाली, तो थाल में / मोतियों का वह कर्णफूल गायब था, जिसे वह अभी रख कर साध्वीजी को आहारपानी देने को गई थी। मंत्रीपुत्री को लगा कि मेरी सहेली राजपुत्री ने ही मज़ाक करने के लिए वह आभूषण थाल में से उठा कर कहीं छिपा रखा है। मंत्रीपुत्री रुपवती ने अपनी सखी राजपुत्री तिलकमंजरी से कहा, "हे सखी, तू क्यों नेरा मज़ाक उड़ा रही है ? मेरे कान का वह कर्णफूल मुझे दे दे। वह कर्णफूल तो तूने ही कही कहीं छिपा रखा हैं / कहाँ रखा है ? दे दे न वह कर्णफूल / अभी तो वह कर्णफूल पूरा बना भी नहीं, उसका कुछ काम अभी बाकी है। हे सखी, यदि तुझे वह कर्णफूल बहुत पसंद आया हैं, तो वह तू अपने पास रख ले। यह दूसरे कान का कर्णफूल भी मैं तुझे पूरा तैयार कर दे देती हूँ, वह भी तू रख ले।" ___ मंत्रीपुत्री की बात सुन कर राजपुत्री तिलकमंजरी ने उससे कहा, "हे सखो मैंने ऐसा अनुचित हँसीमजाक करना कभी सीखा ही नहीं हैं। ऐसा मज़ाक करने से बिना काम का झगडा होता हैं, आपस में होनेवाला प्रेमभाव टुट जाता है / देख सखी, मैं सच कहती हूँ कि मैंने तेरा कर्णफूल नहीं लिया है। हाँ, जब तू घर में घी लाने गई, तब यहाँ आहारपानी लेने आई हुई साध्वीजी ने तेरा वह कर्णफूल थाल में से उठा कर अपने कपड़े में छिपा दिया था। मैंने अपनी इन्हीं आँखों से साध्वीजी को तेरे वह कर्णफूल थाल में से लेते देखा था, लेकिन मैंने जान बूझ कर कुछ भी न देखने का बहाना किया था और नज़र दूसरी ओर कर ली थी। लेकिन मैं यह सोच कर चुप रही कि मैं साध्वीजी की चोरी की बात तुझसे कहूँ तो तुझे शायद पसंद न आए। और तू कोई उल्टा-सीधा अर्थ मेरी बात का कर न ले। लेकिन हे सखी, तूने तो मुझ पर ही व्यर्थ चोरी का इल्जाम लगा दिया, इसलिए मजबूर होकर मुझे सच्चाई बतानी पड़ी। मैं तेरी सौगंध खाकर कहती हूँ कि मैंने तेरा कर्णफूल नहीं लिया / मुझ पर व्यर्थ न कर, क्योंकि कर्णफूल तो साध्वीजी कपड़े में छिपा कर ले गई। राजपुत्री की बात सुनकर मंत्रीपुत्री ने उससे कहा, "हे सखी, शायद यह सच है कि तूने मेरा कर्णफूल नहीं लिया। लेकिन तू साध्वीजी पर ऐसा व्यर्थ आरोप क्यों लगा रही हैं ? अपने मुँह से ऐसी बात कहते समय तुझे जरा-सी भी शर्म नहीं आती है ? पाप का डर नहीं लगता है ? बिना किसी कारण के साध्वीजी पर ऐसा झूठमूठ का इल्जाम लगा कर तू उन्हें क्यों P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252. श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र कलंकित करती है ? ये महाव्रतधारी साध्वीजी जब किसी के स्वयं खुशी से आग्रह के साथ दिए बिना और आवश्यकता न हो तो घास का एक तिनका भी कभी ग्रहण नहीं करती है। फिर वे मणि-माणेक और रत्नों से जडित मोती का मूल्यवान् कर्णफूल क्यों चुरा लेंगी ? दूसरी बात यह कि उसे लेकर वे करेंगी भी क्या ? उन्होंने तो अपने घर में होनेवाले मणि-माणेक, सोना-चाँदी का स्वेच्छा से वैराग्यपूर्वक त्याग कर के संन्यासदीक्षा ली होती हैं। उसी दीक्षा के समय वे आजीवन सूक्ष्म चोरी का भी 'त्रिविधे त्रिविधे' प्रतिज्ञा के साथ त्याग करती हैं। ऐसी महापवित्र साध्वियों के बारे में चोरी की शंका करना भी महापाप का कारण है। हे सखी, ये साध्वियाँ तेरे उन कुयोगी तापसों की तरह जहाँ-वहाँ भटकती नहीं है, बल्कि वे तो उपशमरूपी अलंकार से निरंतर अलंकृत रहती हैं। उनके मन में ऐसे तुच्छ पार्थिव आभूषण को चुराने की बात आ ही कैसे सकती है ? उनके लिए ऐसे आभूषण का मूल्य ही क्या ऐसी महासती साध्विजी के लिए ऐसा अधम बात तो अधम मनुष्य के मुँह से ही निकल सकती है। ऐसी साध्विजी तो धनसंपत्ति की राशि सामने खुली पड़ी हो, तो भी उस पर दृष्टि तक नहीं डालती हैं / वे ईर्यासभिति से ठीक ढंग से देखी हुई भूमि पर ही अपने कदम रखती हैं। ऐसी साध्वी जी पर चोरी का आरोप करना तेरे लिए बिलकुल अशोभनीय है, अनुचित है / इसीको कहते हैं दृढ़ श्रद्धाभाव ! रूपवती ने अपनी सखी तिलकमंजरी से अंत में कहा, “एसी महासती सुशीला . साध्वीजी मेरे कान का आभूषण चोरी करे ये त्रिकाल में भी असंभव है। इसीलिए मुझे तेरी बात . पर बिलकुल विश्वास नहीं होता हैं।" ___मंत्रीपुत्री कही हुई सभी बातें गंभीर चेहरा करके सुनकर राजपुत्री ने उससे कहा, "हे बहन, तू ऐसी बात क्यों कहती है ? आखिर हाथ कंगन को आरसी क्या ? अगर तेरे मन में आशका है, तो तू मेरे साथ चल / तेरी उस साध्वीजी के उपाश्रय में हम दोनों जाएँगी / वहाँ जाकर हम पूछताछ करेंगी, खोज करेंगी। यदि उस साध्वी के वस्त्र के लटकते हुए हिस्से में तेरा वह कर्णफूल बँधा मिला, तो तू मेरी बात पर विश्वास कर ले। अगर वह कर्णफूल बँधा हुआ न मिले, तो तू यह मान ले कि मैं एक बार नहीं, हजार बार झूठी हूँ, बस ?" राजपुत्री की बात स्वीकार कर, रूपवती राजपुत्री को साथ लेकर साध्वीजी के पास उपाश्रय में चली आई। उस समय साध्वियाँ आहारपानी ग्रहण करने की तैयारी में थी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 253 मंत्रीपुत्री ने मुख्य साध्वीजी को वंदना की / साध्वीजी ने मंत्रीपुत्री को 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद देकर कहा, "हे बहनो, तुम थोड़ी देर के लिए बाहर बैठो। अभी हमें आहारपानी ग्रहण कर लेना है। आज हमें आहारपानी लाने में थोड़ी देर ही हुई / तुम्हारे मन में धर्मोप्रदेश सुनने की इच्छा हो, तो अभी आहरपानी ग्रहण करके आकर तुम्हें धर्म की बात सुनाऊँगी। ठीक है?" | विवेकी और धर्मप्रिय रूपवती ने मुख्य साध्वीजी की बात स्वीकार कर ली और वह ! तुरन्त बाहर आ गई। उसे बाहर आए हुए देखकर राजपुत्री ने उससे कहा, "हे सखी, तू बाहर क्यों आई? इसपर मंत्रीपुत्री ने राजपुत्री को बताया, “हे सखी, इस समय साध्वीजी महाराज आहारपानी / ग्रहण कर रही हैं। इसलिए उनके कहने से मैं बाहर आई हूँ।" साध्वीजी महाराजों के आहारपानी लेने के बाद मुख्य साध्वीजी ने उन दोनों को इशारे से उपाश्रय में बुलाया। दोनों सखियाँ अंदर चली आई। लेकिन अंदर जाते ही राजपुत्री ने एकदम मुख्य साध्वी महाराज से कहा, "हे साध्वी ! तुम श्रावकों के घरों में आहारपानी लाने जाती हो और क्या साथ-साथ चोरियाँ भी करती हो ? यह तुम्हें किसने सिखाया है ? आज तुम्हारे समूह की एक साध्वीजी मेरी इस सखी के घर आहारपानी लेने आई थी। उस समय मेरी यह सखी तुम्हारी साध्वीजी के लिए घी लाने घर के भीतर गई / इसी समय तुम्हारी उस साध्वी ने निकट ही थाल में पड़ा हुआ मोती का कर्णफूल उठा लिया हैं / मैंने यह बात उसी समय अपनी इन दो आँखों से देखी थी। लेकिन मेरी इस सखी को यह बता दिया जाए तो उसे बुरा लगेगा, यह सोच कर मैं उस समय कुछ न बोली। लेकिन उसने मुझ पर ही कर्णफूल लेने का इल्जाम लगाया। इसलिए अब सत्य बात कहे बिना मेरे सामने कोई उपाय नहीं रहा। इसलिए साध्वीजी, आप अपने समूह की उन साध्वीजी से लेकर वह कर्णफूल मेरी सखी को चुपचाप वापस दे दो। अगर तुमने चुपचाप वह कर्णफूल लौटा दिया तो मैं इस घटना के बारे में किसीसे कुछ नहीं कहूँगी। लेकिन अगर तुम यह कर्णफूल नहीं लौटाओगी, तो मैं सारे नगर में ढिंढोरा पीट कर सब पर यह बात प्रकट कर दूंगी कि तुम्हारे समूह की साध्वियाँ आहारपानी लेने जा कर श्रावकों के घरों में मूल्यवान् वस्तुओं की चोरियाँ भी करती हैं।" राजकुमारी के मुँह से अपने समूह की साध्वी के प्रति लगाया गया चोरी का आरोप सुन कर मुख्य साध्वीजी एकदम क्षुब्ध होकर बोली, “हे राजकुमारी, तू राजकुमारी होकर ऐसा असत्य क्यों बोल रही है ? हमारे समूह की साध्वी ने मंत्रीपुत्री का कर्णफूल नहीं लिया है। यदि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र तुझे मेरी बात में विश्वास नहीं होता हैं, तो तू उसकी झोली और पात्र आदि को देख कर खोज सकती हैं। उसे मंत्रीपुत्री के उस आभूषण से क्या लेना-देना है ?" साध्वी की बात सुन कर राजकुमारी ने क्रोध में आकर कहा, “अरी, झोली आदि देख कर क्या करना है ? तुम सीधी तरह से वह चुराया हुआ आभूषण मुझे लौटा दो।" साध्वीजी को राजकुमारी के छलकपट की कोई जानकारी नहीं थी। इसलिए वह आभूषण कहाँ से निकाल कर दे सकती थी ? इसलिए राजपुत्री ने साध्वी के लटकनेवाले हिस्से में बंधा हुआ वह कर्णफूल निकाल लिया और मंत्रीपुत्री के हाथ में सौंप दिया। फिर वह मंत्रीपुत्री को समझाते हुए बोली, “देखी न तुम्हारी साध्वीजी की साधुता ? इसलिए मैं तुझे बार बार समझाती हूँ कि ऐसी पाखंडी साध्वियों की संगति में मत रह / उनका उपदेश मत सुन / उन्हें अपने घर में भोजनपानी लेने के लिए मत आने दे।" . राजपुत्री के सारे बर्ताव और बातचीत के ढंग से मंत्रीपुत्री को पूरा विश्वास हो गया कि यह सारा प्रपंच जानबूझ कर साध्वियों को समाज में बदनाम करने के लिए और मेरी उन पर से श्रद्धा उठ जाए इसीलिए किया हुआ है। इसलिए मंत्रीपुत्री राजपुत्री की शर्म और प्रभाव की परवाह किए बिना क्रुद्ध होकर कहा, "तिलकमंजरी, मुझे पक्का विश्वास है कि यह सारा छलकपट तूने ही किया है। साध्वीजी तो बिलकुल निरपराध हैं / तूने ही उनको बदनाम करने के लिए गुप्त रीति से और उनकी नजर बचा कर उनके वस्त्र के लटकते हुए कोने में थाल में से मेरा कर्णफूल लेकर बाँध दिया है। यह षड्यंत्र निश्चय ही तेरा ही है। ऐसा चोरी का काम ये साध्वीजी प्राणों पर संकट आने पर भी नहीं कर सकती है। यह सारी तेरी करतूत है, तेरा ही रचा हुआ षड्यंत्र है।" फिर रूपवती ने साध्वीजी को आश्वस्त करते हुए कहा, 'हे पूज्य साध्वीजी साहब, आप इस बात का बिलकुल बुरा मत मानिए / आप तो बिलकुल निरपराध हैं / मेरी इस महामिथ्यात्वी सखी ने ही जैनधर्म के प्रति मन में बचपन से ही द्वेषभाव होने से यह सारा षड्यंत्र रच कर साध्वीजी पर चोरी का झूठा इल्जाम लगा कर उन्हें बदनाम करने की असफल कोशिश की है / आप बिलकुल चिंता मत कीजिए / मैं सब कुछ सँभाल लूंगी।" इस प्रकार श्रद्धा और प्रेम के साथ साध्वीजी को सांत्वना देकर रूपवती राजपुत्री के साथ अपने निवासस्थान की ओर लौट आई / राजपुत्री के मन की सारी अभिलाषओं को रूपवती ने मिट्टी में मिला दिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हे राजन् ! रूपवती और तिलकसुंदरी के वहाँ से चले जाने के बाद जिस साध्वीजी पर राजकुमारी ने चोरी का झूठा इल्जाम लगाया था, वे मन में अत्यंत खेद करने लगीं। इन साध्वीजी ने मन में विचार किया कि यदि यह बात सारे नगर में फैल जाएगी तो हमारे समूह की सभी साध्वियों को बदनाम होना पड़ेगा। दूसरी बात यह हैं कि राजपुत्री की कही हुई बात पर. सामान्यजनों को अधिक विश्वास होगा / कलंकित होकर जीने को अपेक्षा मर जाना अच्छा है। चारित्र्यसंपन्न साध्वीजी क्षोभ और खेद के कारण किंकर्तव्यविमूढ बन गई / उन्होंने आव देखा न ताव / वे एकांत में चली गई और उन्होंने आत्महत्या करने के उद्देश्य से गले में फंदा बाँध दिया और वे हवा में लटक गई। लेकिन साध्वीजी के प्राण जाने से पहले ही उपाश्रय के पड़ोस में ही रहनेवाली सुरसुंदरी नामक श्राविका ने यह द्दश्य अपने घर की खिड़की से देखा / वह दौडती हुई आई और उसने साध्वीजी के गले का फंदा तोड़ डाला। साध्वीजी के प्राण बच गए। यह श्राविका सुरसुंदरी बडी ही चतुर थी। उसे पहले ही खबर हो गई थी कि इस साध्वीजी पर राजकुमारी ने चोरी का इल्जाम लगा लिया है। इसलिए कुछ न कुछ अघटित हो सकता है। इस लिए मन में आशंका होते ही वह समय पर दौड़ती हुई आई और उसने साध्वीजी के प्राण बचा लिए। एसी श्राविकाएँ साध्वियों की सच्ची माता कहलाएँगी / सुरसुंदरी श्राविका ने सुयोग्य उपाय करके साध्वीजी को फिर से स्वस्थ बना दिया। स्वस्थ बनी हुई साध्वीजी फिर समताभाव से आई और निरतिचार चारित्र्य का पालन करने लगी। राजपुत्री तिलकमंजरी ने साध्वीजी पर झूठा कलंक लगा कर अपने लिए अत्यंत गहरा | 'निकाचित' पापकर्म बाँध लिया। अज्ञानी जीव को कर्म बाँधते समय इस बात का भान नहीं रहता है कि इस बाँधे हुए दुष्कर्म का फल मुझे ही रोते-रोते भूगतना पड़ेगा। कर्मसत्ता के साम्राज्य में अंधेरखाता नहीं हैं। वह सभी जीवों द्वारा किए जानेवाले कर्मों की समय-समय पर बराबर नोटकर के रखती है। उसकी नजर में से जीवद्वारा किया गया कोई भी कर्म नहीं छूटता है। इधर राजपुत्री और मंत्रीपुत्री के बीच हररोज जैनधर्म और विधर्म के बारे में विवाद चलता रहता था। वे दोनों अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ मानकर उसके आचारों का पालन करती. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र थीं। उन दोनों में धर्म के बारे में मतभेद होने पर भी उनके आपसी स्नेह में कोई कमी नहीं आई / दोनों के बीच प्रेमभाव जैसे-के-वैसे बना रहा। धर्म को छोड़कर अन्य सभी बातो में उनका मत एक-सा होता था। दोनों सखियों का समय एक दूसरे की संगति में सुख से बीत रहा था। इतने में वैराट देश के राजा जितशत्रु ने अपने पुत्र शूरसेन के साथ तिलकमंजरी का विवाह कराने का प्रस्ताव लेकर अपने मंत्री को मदनभ्रम राजा के दरबार में भेजा। मदनभ्रम राजा को जितशत्रु का प्रस्ताव पसंद आया। इसलिए उसने तुरन्त अपनी पुत्री तिलकमंजरी को बुला कर उसकी राय पूछी। तिलकमंजरी ने अपने पिता को बताया, "पिताजी, यदि मेरी सखी रुपवती इस वर को पसंद करे तो हम दोनों मिल कर इस एक ही वर से विवाह करेंगी। हम दोनों ने विवाह के बारे में बहुत पहले यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि हम दोनों मिलकर एक ही वर से विवाह करेंगी और आजीवन साथ-साथ रहेंगी।" मदनभ्रम राजा ने अपनी पुत्री तिलकमंजरी की यह प्रतिज्ञा सुनकर अपने मंत्री को बुलाया और उसे सारी बात कह सुनाई। राजा ने फिर मंत्री से कहा, "मंत्रीजी, यदि तुम्हारी पुत्री इस वर के साथ विवाह करने को तैयार हो, ते हम दोनों सखियों का एक साथ विवाह करा देंगे / तुम अपनी पुत्री रूपवती से पूछ लो।" मंत्री ने अपने घर जाकर अपनी पुत्री रूपवती से पूछा / उसने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और विवाह के लिए तैयारी दिखाई / मंत्री ने राजा मदनभ्रम के पास जाकर अपनी अनुमति बता दी। अब राजा मदनभम ने वैराट देश के जितशत्रु राजा से आए हुए मंत्री को अपने पास बुलाया और कहा, “देखो मंत्रीजी, हमें हमारी कन्या तिलकमंजरी का आपके देश के राजा के पुत्र शूरसेन से विवाह कराना स्वीकार है। लेकिन हमारी एक शर्त यह है कि राजकुमार शूरसेन को तिलकमंजरी के साथ उसकी सखी मंत्रीपुत्री रूपवती से भी विवाह करना पड़ेगा। इस पर तुम्हारा क्या विचार है वह बता दो।" वैराट देश के राजा जितशत्रु के मंत्री ने तुरंत इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस प्रकार शूरसेन के साध तिलकमंजरी और रूपवती का विवाह होना निश्चित हो गया। राजा मदनभ्रम ने उसी समय राजज्योतिषी को बुला कर विवाह का शुभ मुहूर्त भी जान लिया और निश्चित भी कर दिया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 257 अब अपने को सौंपे हुए काम को सफलतापूर्वक पूरा करके जितशत्रु राजा का मंत्री मदनभ्रम राजा से विदा लेकर फिर से वैराट देश लौटा / उसने राजा को सारा समाचार कह सुनाया। राजा जितशत्रु समाचार सुनकर बहुत खुश हो गया। शूरसेन को यह बात मालूम होने पर उसने भी खुशी प्रकट की। विवाह का शुभ मुहूर्त निकट आने पर वैराटनरेश जितशत्रु अपने पुत्र शूरसेन तथा से शूरसेन का राजपुत्री तिलकमंजरी और मंत्रीपुत्री रूपवती के साथ विवाह संपन्न हुआ। विवाह के उपलक्ष्य में राजा मदनभ्रम तथा मंत्री दोनों ने अपने दामाद शूरसेन को सहर्ष अनेक हाथी, घोड़े, रथ, सेवक-सेविकाएँ, उत्तम वस्त्र, आभूषण उपहाररूप में देकर उसका सम्मान किया। कुछ दिन ससुरों का आदरातिथ्य स्वीकार कर शूरसेन अपनी दोनों नववधूओं के साथ अपने वैराट देश को लौट गया। अब वैराट देश में कुमार शूरसेन अपनी दोनों नववधूओं-तिलकमंजरी और रूपवतीके साथ भोग-विलास में अपनी समय सुखपूर्वक व्यतीत करने लगा। दोनों सखियाँ-तिलकमंजरी और रूपवती अपने पतिदेव की सच्चे अंत:करण से सेवा करती थीं। दोनों के बीच एक दूसरे के प्रति प्रेमभाव पूर्ववत् बना रहा, लेकिन अवज्ञा से टूटे हुए प्रेमभाव को कौन जोडने में समर्थ हो सकता है ? एक बार भंग हुआ प्रेम फिर जोड़ा नहीं जा सकता हैं। इन दोनों के बीच धर्म की बात को लेकर तो पहले से हो गहरा मतभेद था। अब ये दोनों सोतें बन गई थीं। इसलिए अब सौतिया डाह और उसके कारण आपसी झगड़े की भी शुरुआत हो गई / जब एक ही अच्छी वस्तु को पाने की अभिलाषा अनेकों के मन में एक साथ उत्पन्न होती है, तब उनमें एक दूसरे के प्रति शत्रुता उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकती। जहाँ लोभ होता है और स्वार्थ भी होता हैं, वहाँ प्रेम का संबंध लम्बे समय तक नहीं टिक सकता है। जब एक बार दो व्यक्तियों के बीज बीजारोपण होकर शत्रुता अंकुरित हो जाती है, तब वह शत्रुता धीरे धीरे बढ़ती ही जाती है / यहाँ भी इन दो सखियों के बीच शत्रुता का बीज तो पहले ही बोया हुआ था। वह बीज अब अंकुरित हुआ और उसमें पत्र, पुण्प और फल आने लगे। मन में शत्रुता की बढती हुई भावना होने पर भी दोनों सखियाँ बाहर के लोगों के सामने प्रकट रूप में एक दूसरे को बहनकह कर पुकारती थीं। दोनों पत्नियों के बीच चल रहे अंतर्गत विवाद और झगड़े के कारण राजकुमार शूरसेन भी मन में बहुत दु:खी था। उसके अपने जीवन P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र का आनंद जैसे समाप्त-सा हो गया था। लेकिन मस्तिष्क के संतुलन को बनाए रखकर वह दोनों पत्नियों से समभाव से बर्ताव करता था। लेकिन पति के समभाव के बर्ताव का दोनों सखियों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ। दोनों के बीच दिन-ब-दिन कलह बढ़ता ही गया। ____ इधर तिलकपुरी में तिलमंजरी के पिता राजा मदनभ्रम को किसी शिकारी ने परद्वीप से लाई हुई एक सारिका उपहार के रुप में अर्पित की। यह सारिका बड़ी ही चतुर थी और बुद्धिमान् भी, क्योंकि वह एक बार सुना हुआ कोई काव्य, कथा, श्लोक, पहेली आदि को बराबर याद रख लेती थी। फिर कभी वह भूलती नहीं थी। फिर उसने सुनकर जो याद किया हो, उसे वह दूसरों को बराबर उसी रुप में सुनाती और इस प्रकार लोगों का चित्तमनोरंजन करती थी। - राजा मदनभ्रम ने इस सारिका को सोने के पिंजड़े में रखा और पिंजड़े के साथ वह सारिका वैराट देश में अपनी पुत्री तिलकमंजरी के पास उसके मनोरंजन के लिए भेंट के रुप में भेज दी। राजसेवक जब इस सारिका के पिंजडे को लेकर वैराट देश में तिलकमंजरी के पास आया, तो तिलकमंजरी बहुत खुश हो गई / उनके सेवक के साथ पिता को कृतज्ञतासंदेश .. भेजा। अब तिलकमंजरी ने इस सारिका की देखभाल के लिए एक सेवक नियुक्त कर दिया। अब तिलकमंजरी उस सारिका के साथ क्रीड़ा करती, उसे नित्य नई-नई चीजें खिलाती, उसकी कोयल जैसी मधुर वाणी सुनती / यही तिलकमंजरी का अब प्रतिदिन का कार्यक्रम हो गया। सारिका के प्रति मन में होनेवाले अत्याधीक प्रेम के कारण तिलकमंजरी सारिका का पिंजड़ा हरदम अपने पास रखती। वह अपनी सखी और सौत रुपवती को उस सारिका को कभी स्पर्श भी न करने देती थी। कभी-कभी रुपवती के मन में सारिका को कोयल जैसी मधुर वाणी सुनने को इच्छा होती और वह तिलकमंजरी के पास उस सारिका को कुछ समय तक के लिए उसे देने की याचना करती। लेकिन इस पर तिलकमंजरी उसे स्पष्ट शब्दों में सुनाती -'' यह सारिका मेरे पिता ने. मेरे लिए ही भेजी है। मैं तुझे वह सारिका क्रीड़ा करने के लिए क्यों दूँ ? तू अपने पिता को क्यों नहीं लिखती कि वे तेरे लिए भी ऐसी ही एक दूसरी सारिका भेज दे। क्या तुझे ऐसा लिखने में शर्म आती है ?" जहाँ प्रेम टूट जाता है, वहाँ अपनी प्रिय वस्तु दूसरे को देने को मन नहीं होता है। इसके स्थान पर इन्कार करने की इच्छा होती है। जिसके प्रति मन में नाराजी होती है, उसे कोई चीज P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 259 देने से इन्कार करने में मनुष्य को बिलकुल संकोच नहीं होता है / इसके विपरीत जहाँ किसी के प्रति मन में सच्चा प्रेमभाव होता है, वहाँ मनुष्य प्रेमपात्र के लिए अपने प्राण देने में भी नहीं हिचकिचाता है। तिलकमंजरी के कटाक्ष भरे वचन सुन कर रूपवती का मन बहुत दु:खी हुआ। लेकिन प्रकृति से गंभीर होने के कारण उसने तिलकमंजरी के प्रति क्रोध नहीं प्रकट किया, बल्कि वह शांत बनी रही। मनुष्य का भूषण रूप है, रूप का भूषण गुण है, गुण का भूषण ज्ञान है और ज्ञान का भूषण क्षमा है। एक बार रूपवती ने सचमुच अपने पिता मंत्री को पत्र लिख कर तिलकमंजरी के पास है वैसी ही सारिका भेजने का आग्रह किया। रूपवती का पत्र मिलते ही महाबुद्धिमान् मंत्री को - यह समझने में देर नहीं लगी कि मेरी पुत्री ने तिलकमंजरी के प्रति सौतिया डाइ के कारण ही तिलकमंजरी के पास है, वैसी ही सारिका मँगवाई है। ___मंत्री का अपनी प्रिय पुत्री रूपवती से गहरा स्नेहभाव था। अपनी पुत्री की इच्छा पूर्ण ' करने के उद्देश्य से मंत्री ने उसी समय सैकडों शिकारियों को वन-पर्वत के प्रदेश में राजकुमारी के पास है, वैसी ही सारिका लाने के लिए भेजदिए। बहुत दिनों तक कोशिश करने के बाद वैसी सारिका न मिलने के कारण शिकारी निराश होकर लौट आए। मंत्री ने विचार किया कि यदि मैं अपनी पुत्री रुपवती के लिए सारिका न भेजूं, तो वह मन में बहुत दु:खी हो जाएगी। इसलिए मंत्री ने अपनी बुद्धि लड़ाई / उसने एक कीसी जाति का पंछी मंगवाया। रूप में सारिका और यह कोसी जाति का पंछी लगभग समान होते हैं। लेकिन गुण की दृष्टि से दोनों में आकाशपाताल का अंतर होता है। लेकिन पुत्री को बिलकुल निराश न होना पड़े, तात्कालिक संतोष तो मिले इस उद्देश्य से मंत्री ने वह कोसी जाति का पंछी पिंजड़े में बंद कर अपनी पुत्री रुपवती के पास वैराट देश में : एक सेवक के साथ भेज दिया। यह कोसी पंछी बाहर से देखने में तो बिलकुल सारिका के समान = होने से रुपवती ने उसी को सारिका समझ लिया और वह मन-ही-मन बहुत खुश हो गई। अब रुपवती ने अपनी प्रिय “सारिका' की देखभाल के लिए एक सेवक नियुक्त कर - दिया। इस पंछी का लालन-पालन करने में वह मग्न हो गई। जिसको जो वस्तु प्रिय होती है, वह - P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र उसकी देखमाल, लालन-पालन में व्यस्त हो ही जाता है। यदि मनुष्य को धर्म प्रिय हो, तो वह उसके पालन में लीन क्यों न बने ? लेकिन आजकल मनुष्य की लीनता किस बात में दिखाई देती है - प्राय: लक्ष्मी और ललना में ही ! किसी दासी के मुँह से तिलकमंजरी को यह मालूम हुआ कि रुपवती को भी उसके पिता मंत्री ने उसके पास है वैसी ही दूसरी सारिका भेज दी हैं। यह खबर सुन कर अब रुपवती को भी सुख मिलेगा, यह विचार तिलकमंजरी को सताने लगा। रुपवती का सुख उससे सहा न गया। वह सौतिया डाह से मन-ही-मन जलने लगी। ईर्ष्यालु मनुष्य दूसरे को सुखी देख कर ईर्ष्या से जल उठता है - मन में दु:खी होता है। ऐसे ही एक दिन वे दोनों सौतें एकसाथ बैठी हुई थीं और वे अपनी-अपनी सारिका की बहुत प्रशंसा करने लगी। लेकिन मन में सौतिया डाह होने से दोनों से भी दूसरी की सारिका की प्रशंसा सही नहीं जाती थी। इसलिए दोनों ने यह निश्चित किया कि हम दोनों की सारिकाओं में से जिसकी सारिका अधिक मधुर बोलेगी उसे हम श्रेष्ठ स्वीकार कर लेंगी। शर्त के अनुसार, तिलकमंजरी की सारिका मधुर बोलने में बहुत कुशल होने से अनेक बार अत्यंत मधुर बोली में बोली। उसने सब का मन मोहित कर लिया। लेकिन रूपवती जिसे सारिका मानती थी और सब जिसे सारिका ही समझ रहे थे वह तो एक बार भी नहीं बोली। और वह बोलेगी भी तो कैसे ? क्योंकि, वह तो वास्तव में सारिका नहीं थी। नकली चीज असली चीज की हर बात में नकल नहीं कर सकती / ऐसा होने से बेचारी रुपवती सबके सामने लज्जित होकर चुप हो गई। उधर तिलकमंजरी आनंद के उन्माद में नाचने लगी। रुपवती को अपने पक्षी की यह अवस्था देख कर मन में बहुत खेद हुआ। रूपवती ने सोचा कि यह पक्षी तो सिर्फ दिखाई देने में ही रूपवान् हैं, सुंदर है / लेकिन उसमें गुण तो नाममात्र के लिए भो नहीं है। नकली चीज़ में असली चीज के गुण आखिर हो भी कैसे सकते हैं? शर्त के अनुसार तिलकमंजरी की सारिका जीत गई थी और रुपवती का कोसी पक्षी बुरी तरह से हारा था / इसलिए अब तिलकमंजरी बारबार रुपवती को चिढ़ाने लगी। वह कहती थी, “क्यों रुपवती ? तू अपनी सारिका की बहुत प्रशंसा करती थी न ? तो फिर क्यों हार गई ? अरी कहाँ मेरी मधुर भाषी सारिका और कहाँ तेरा गूंगा कोसी ? तेरे पास जो कोसी है, उसके जैसे सहस्त्रों कोसी हो, तो भी वे मेरी एक सारिका की तुलना में नहीं टिक सकेंगे।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAANCHAL श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 261 तिलकमंजरी के अपनी सारिका के बारे में ये धमंडपूर्ण वचन सुनकर रुपवती को अपने कोसी पक्षी के बारे में बहुत गुस्सा आया। उसने उसी समय क्रोध में कोसी के दोनों पंख काट डाले। सच है, क्रोधावेश में मनुष्य को कर्तव्याकर्तव्य का विवेक बिलकुल नहीं रहता है। कोसी पक्षी की देखभाल करने के लिए नियुक्त सेवक ने रुपवती को बारबार रोकते हुए अनेक बार विनम्रता से कहा, "स्वामिनी, आप इस बेचारे कोसी के पंख मत काटिए।" लेकिन ईर्ष्या और क्रोध के आवेश में होनेवाली रुपवती ने अपने सेवक की किसी बात पर ध्यान नहीं दिया। उसकी हर बात उसने अनसुनी-सी कर दी। कोसी के पंख काट डालने के बाद वह बेचारा सोलह प्रहरों तक घायल अवस्था में तिलमिलाता रहा और आखिर तड़प तड़प कर मर गया। मर कर इसी कोसी पक्षी का जीव पूर्वभव के किसी पुण्य के उदय से, वैताढ्य पर्वत पर स्थित गगनवल्लभ नगर के पवनवेग नामक राजा के वेगवती नामकी रानी की कुक्षि में पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ। राजा-रानी ने इस कन्या का नाम 'वीरमती' रखा। यह वीरमती जब यौवनावस्था में आई, तब उसके माता-पिता ने उसका विवाह तत्कालीन आभानरेश वीरसेन के साथ कर दिया / वीरमती ने अप्सराओं की ओर से अनेक प्रकार की विद्याएँ और मंत्रतंत्र प्राप्त कर लिए थे। समय पाकर जब वीरमती के पति राजा वीरसेन ने राज्य त्याग कर संन्यासदीक्षा ले ली, तब वीरमती ने अपने मंत्रतंत्र और अनेक विद्याओं के बल पर राज्य प्राप्त कर लिया और अनेक वर्षों तक उसने राज्योपभोग किया। कोसी पक्षी की मृत्यु के समय रुपवती की दासी ने पक्षी को नवकारमंत्र सुनाया था और मृत्यु के बाद उसका अग्निसंस्कार भी किया था। . क्रोधावेश में गलत काम कर जाने के कारण रुपवती को बहुत पश्चात्ताप होने लगा। किसी भी तरह की क्यों न हो, लेकिन आखिर वह थी तो जैन धर्मी ही न ? किए हुए पाप के लिए जो पश्चात्ताप करता है, उसका उद्धार होते देर नहीं लगती है। . तिलकमंजरी तो पहले से ही महामिथ्यात्वी और महाकपटी थी। इसलिए कोसी पक्षी की। मृत्यु के बाद रुपवती पर व्यंग्य करने में कोई कसर नहीं रखी। दुर्जन मनुष्य जले पर नमक छिड़कने में नहीं हिचकिचाता है। अब तो तिलकमंजरी को जैन धर्म की निंदा करने के लिए सुनहरा अवसर मिल गया। तिलकमंजरी रूपवती से कहने लगी, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र “सखी रूपवती, मैंने अच्छी तरह देख लिया कि तेरा जैन धर्म कैसा है। जैन धर्मी मुँह से दया-दया की बड़ी लम्बी-चौड़ी बातें करते हैं, लेकिन उनके जैसे निर्दयतापूर्ण काम अन्य धर्मी भी नहीं करते हैं / हे धर्म की पुतली ! उस बेचारे अबोध कोसी पक्षी को मार डालते समय तेरे अंत:करण में थोडी-सी भी दया उत्पन्न नहीं हुई ? ऐसा क्रूर कर्म करते समय तेरे हाथ काँप भी नहीं उठे ? देख, मैं तो भूल कर भी तेरे जैसा हिंसक कर्म कभी नहीं करती हूँ।" __ तिलकमंजरी के तीखे, व्यग्यपूर्ण लेकिन मार्मिक वचन सुन कर रुपवती का मन बहुत दुःखी हुआ। इस घटना से इन दो सौतों के बीच धार्मिक मतभेद बहुत अधिक बढ़ गया। उन दोनों के पति राजकुमार शूरसेन ने दोनों को समझाने का अपनी ओर से बहुत प्रयत्न किया लेकिन इसका परिणाम अग्नि में घी डालने के समान विपरीत निकला। दोनों के बीच होनेवाली द्वेषाग्नि शांत न हुइ। बल्कि अधिक भड़क उठी। कोसी पक्षी को मार डालने से रूपवती के मन में बहुत पश्चात्ताप हुआ। लेकिन क्रोध के आवेश में किए हुए क्रूर कार्य से उसने अशुभ कर्म बाँध लिया / यह ऐसा कर्म था जिसका फल भोगे बिना मुक्ति संभव नहीं थी। इसीलिए तो ज्ञानी पुरुष संसारी जीवों को चेतावनी देते हुए कहते हैं - 'बंध समय चित्त चेतीए, उदये शो संताप ?' अर्थात् 'कर्म का बंध होते समय ही चित्त में सावधान हो जाइए। कर्म का उदय होने पर संताप करने से क्या लाभ ? बुद्धिमान् जीव को अपने जीवन में हर कार्य बहुत सोच विचार कर करना चाहिए। ऐसा करने से उसे बाद में पश्चात्ताप नहीं करना पड़ेगा, उसका कटु फल भोगना न पड़ेगा। ____एक बार क्रोध के आवेश में अनुचित कार्य रूपवती से हो तो गया, लेकिन उसके मन में जैनधर्म के प्रति बहुत श्रद्धाभाव था। रूपवती जैन धर्म के रहस्य की भी जानकार थी। इसलिए उसने गीतार्थ गुरु महाराज के पास जा कर अपनी ओर से हुए पाप की आलोचना की-उसके लिए प्रायश्चित कर लिया। अपने पाप के लिए अपनी ही निंदा और उसके लिए पश्चात्ताप करके उस पापकर्म को बहुत क्षीण कर दिया। लेकिन उसने स्त्रीवेद का क्षय करके पुरुषवेद बाँध लिया। फिर रूपवती के रूप में होनेवाला जीवन पूर्ण होने से रूपवती की मृत्यु हुई। फिर रूपवती के जीव ने मर कर तत्कालीन आभानरेश वीरसेन की रानी चंद्रावती की कुक्षि में पुत्र का जन्म पाया / इस पुत्र का नामकरण 'चंद्रकुमार' किया गया।" भगवान श्री मुनिसुव्रत स्वामी ने आगे कहा, “हे राजन्, वह चंद्रकुमार तुम स्वयं ही हो। रूपवती के भव में कोसी पक्षी की देखभाल करनेवाला जो आदमी था वह उसके दयाधर्म के प्रभाव के कारण, अपना वह जीवन पूरा करके मर कर तुम्हारा सुमति नामक मंत्री हुआ हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 263 रूपवती के भव में, जो साध्वीजी उपाश्रय में अपमानित होने के कारण फाँसी का फंदा डाल कर आत्माहत्या कर रही थी, उनको मरने से बचाने के लिए पड़ोस में रनहेवाली जो सुरसुंदरी नामक श्राविका दौड़ती हुई आई थी और जिसने साध्वीजी के गले में पड़ा फाँसी का फंदा तोड़ डाल कर उन्हें बचाया था, वह जैन श्राविका सुरसुंदरी अपना वह जीवन पूरा करके मर कर इस जन्म में तुम्हारी पटरानी गुणावली बन गई हैं। __ मिथ्यात्वी राजपुत्री तिलकमंजरी अपना वह भव पुरा करके मर कर इस भव में तुम्हारी रानी प्रेमलालच्छी बनी है। जिन साध्वीजी ने पिछले जन्म में आत्माहत्या करने का प्रयास किया था, वे वह भव पूरा करके मरी और अगले भव में कोढ़ी कनकध्वज राजकुमार के रूप में घरती पर आई। तिलकमंजरी के पास जो मधुरभाषी सारिका थी वह मर कर कनकध्वज राजकुमार की उपमाता कपिला बन गई। सारिका के जन्म में उसने तिलकमंजरी और रूपवती इन दो सौतों के बीच झगड़ा कराया था। इस जन्म में भी उस कपिला ने प्रेमलालच्छी पर विषकन्या होने का इल्जाम लगा कर बहुत बड़ा कलह निर्माण कर दिया। पिछले जन्म में तिलकमंजरी और रूपवती दोनों का पति होनेवाला शूरसेन मर कर इस जन्म में नटराज शिवकुमार बना / पूर्वजन्म में रूपवती की जिस दासी ने मरते हुए कोसी पक्षी को चौदह पूर्वो का सारभूत और महाप्रभावकारी नवकारमंत्र सुनाया था, वह उस पुण्य के प्रभाव से मर कर इस जन्म में नटराजपुत्री शिवमाला बनी। सारिका की देखभाल करनेवाला रक्षक मर कर इस जन्म में हिंसक मंत्री बना हैं। इस प्रकार सब के पूर्वभव और इस भव की बातें विस्तार से समझा कर मुनिसुव्रत स्वामी भगवान आगे बोले, "हे राजन, इस संसार में जो प्राणी जैसा कर्म करता है, वह वैसा फल पाता है। कर्म की गति अत्यंत विचित्र है। उसकी गति को कोई रोक नहीं सकता है। इसलिए हरएक मनुष्य को कर्मबंध कर लेने से पहले बहुत गंभीरता से विचार करना चाहिए। हे राजन् ! तुमने अपने पूर्वजन्म के चरित्र पर से कर्म की विचित्रता कैसी होती है, यहबात अच्छी तरह से जान ली है। तुमने रूपवती के जन्म में (भव में) क्रोध के आवेश में कोसी पक्षी के पंख तोड़ डाले थे। इसीलिए वह कोसी पक्षी अपना वह भव समाप्त होने पर मर कर अगले भव में वीरमती बन कर पैदा हुआ। उसने इस जन्म में तुझे मुर्गा बना कर अनेक प्रकार का दु:ख दिया है। हम जैसा दान देते हैं, उसका वैसा प्रतिदान हमें मिलता हैं। दूसरे को हम दुःख दे, तो हमें बदले में दु:ख मिलेगा और यदि हम दूसरों को सुख दे, तो उसके बदले मे हमें भी सुख ही मिलेगा। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हे राजन्, तुमने रूपवती के भव में कोसी के पंख तोड़ कर उसके साथ बैर बाँधा, इसलिए उस-कोसी ने-इस भव में वीरमती बन कर तुम्हें मनुष्य से मुर्गा बना कर उसका बदला लिया। पूर्वकृत कर्म का जब उदय होता है, तब उसे करनेवाले को उसको अवश्य भोगना ही पडता है। पूर्वकृत कर्म उसे करनेवाले कर्ता का पीछा करते हुए जाता है / वहाँ किसी का कोई उपाय नहीं चल सकता है। तिलकमंजरी ने अपने उस भव में साध्वीजी पर चोरी का झूठा इल्जाम लगाया था, इसलिए इस भव में उस साध्वीजी ने मर कर कनकध्वज का जन्म ले लिया और प्रेमलालच्छी पर विषकन्या होने का आरोप लगा कर उसे अपमानित किया। पूर्वजन्म में रुपवती के सामने जैसे कोसी पक्षी के रक्षक पुरुष का कोई प्रभाव न पड़ा, इसी के परिणाम स्वरूप इस भव में (जन्म में) वीरमती के सामने गुणावली का कोई प्रभाव न पड़ा। इसीलिए गुणावली रोती ही रही और उधर उसकी आँखों के सामने वीरमती ने मंत्रशक्ति से उसके पति चंद्रराजा को मनुष्य से मुर्गा बना दिया। पूर्वजन्म में रुपवती की दासी ने कोसी पक्षी की सेवा थी, इसलिए इस जन्म में शिवमाला ने उस मुर्गे को लेकर प्रेमला को स्नेहपूर्वक सौंपा और उसकी पूरे प्रेम से सेवा की।" इस प्रकार मुनिसुव्रतस्वामी भगवान ने चंद्र राजा के पूछे हुए सभी प्रश्नों के उत्तर दिए / उन्हें सुन कर श्रोताओं ने अच्छा उपदेश पा लिया। चंद्रराजा ने जब अपने पूर्वजन्म की कहानी मनुसुव्रत भगवान से सुनी, तो वैराग्य के भाव से उसने कर्म और संसार के मायाजाल को छिन्नभिन्न कर डाला और परमोपकारी भगवान मुनियुव्रतस्वामी के चरणकमलों में भक्ति से प्रणाम किया। फिर चंद्र राजा ने भगवान से कहा, 'हे भगवन् / आप जैसे अनंत करूणासागर कर्णधार को पाकर यदि हम यह भवसागर पार नहीं पर सके, तो फिर हमारा उद्धार कौन करेगा ? आपने हमारे सामने संसार का यथार्थ स्वरूप प्रस्तुत करके हमारे अंर्तचक्षु खोले हैं, हमारा मोहाँधकार आपने दूर किया हैं। आपने हम लोगों में धर्म के प्रति पुरुषार्थ जगाया हैं। इसलिए आप हमें अपना मानकर हमारा यथाशीघ्र संसारसागर से उद्धार कीजिए। हे प्रभु, अनादिकाल से भवभ्रमण कर-कर के हम बहुत थक गए हैं। इसलिए हमपर दया करके हमें भवसागर से पार उतार दीजिए। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 265 चंद्र राजा की विनभ्रतापूर्ण प्रार्थना सुन कर मुनिसुव्रत भगवान ने राजा से कहा, “हे राजन, हे देवानुप्रिय / यदि तुम्हारी संसारसागर पार उतरने की इच्छा हो, तो अपने परिवार की अनुमति लेकर यथाशीघ्र संयम-दीक्षा ग्रहण कर लो / संयम-दीक्षा लिए बिना प्राणी अनंत दु:खमय संसारसागर पार नहीं कर सकता है। मुमुक्षु भव्य जीवों को आत्मोद्धार के लिए ऐसा भगीरथ प्रयत्न प्रारंभ करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए। “शुभे शीघ्रम्' मान कर उन्हें शिवसुख की प्राप्ति के लिए कमर कसनी चाहिए, दत्तचित्त होकर प्रयत्न में जुड जाना चाहिए।" अनंत करुणामय भगवान का यह धर्मोपदेश सुन कर चंद्रराजा ने भगवान का 'वचन तहत्ति' किया और वह भगवान को फिर से श्रद्धाभाव से वंदना करके अपने परिवार के साथ संयम-दीक्षा लेने की भावना मन में रखता हुआ और राज्य, पत्नी, पुत्र, परिवार आदि को भवभ्रमण का कारण मानता हुआ राजमहल मे लौट आया। ___ मुनिसुव्रत स्वामी भगवान् की वैराग्यमय देशना (धर्मोपदेश) सुनकर और अपने पूर्वभव की कहानी जानकर संसार से विरक्त बने हुए चंद्र राजा ने राजमहल में वापस आते ही अपनी पत्नियों-गुणावली तथा प्रेमला-को अपने पास बुला लिया और उन्हें स्पष्ट शब्दों में कहा, "हे प्रिय रानियो, मैंने भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के हाथों संयम-दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय कर लिया है। ___ भगवान की अमृतमय वाणी का पान करने मेरी आत्मा बहुत तृप्त हो गई है। इसीलिए अब मेरा मन राज्यमुख और भोगसुख पर से उठ गया है। मेरे मन में इन सुखों की अब कोई अभिलाषा नहीं रही है। मुझे अब भौतिक पदार्थों में सुख का अंश भी दिखाई नहीं देता है। मेरा मन अब इस भयंकर संसार से ऊब गया है। मेरा जीवन तो अंजलि में लिए हुए पानी की तरह क्षण-क्षण घटता जा रहा है / जीवनरुपी सूर्य कब अस्त होगा इसका कोई पता नहीं है। लेकिन मुझे इतना अवश्य मालूम है कि - 'जानेन अवश्यं मर्तव्यम्।' ___ अर्थात् जन्म लेनेवाले के लिए मृत्यु निश्चित है - अवश्यंभावी है। इस यौवन की शोभा और शत्ति 'चार दिन की चाँदनी' की तरह क्षणभंगुर है। विभिन्न प्रकार के भोग फणिधर साँप के फन के समान भयंकर है। यह काया कुलटा स्त्री के समान है। इस काया का मनुष्य बिलकुल विश्वास नहीं कर सकता है / काँच के तरतन की तरह होनेवाली यह काया कब टूट-फूट जाएगी यह कहना कठिन है। वास्तव में मनुष्य को तो इस काया का उपयोग सिर्फ कर्मों का काँटा निकाल डालने के लिए ही करना चाहिए / बाकी मनुष्य को इस कुटिल काया से जरा मी ममताभाव नहीं रखना चाहिए / काया के प्रति ममता ही तो सारे संसार की जड़ है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र काया की माया छोड दी जाए तो मोक्ष मिला ही समझिए। स्नान, विलेपन आदि इस काया-शरीर-का चाहे जितना संस्कार कीजिए, लेकिन यह मैली की मैली ही रहती है। लेकिन इस मलिन काया से आत्मा में भरी हुई अनादिकाल की कर्म . की गंदगी संयम के पानी और तप के साबुन से साफ की जा सकती है। . इस मानवदेहरूपी नौका की सहायता से ही मनुष्य भवसागर पार कर सकता है। इसलिए हे प्रिय रानियो, अब मेरा मन सांसारिक प्राणी के रूप में रहने में बिलकुल नहीं लगता है। इस संसार में स्वजनों का संगम तो पंछियों के मेले की तरह अस्थिर है। जैसे पागल स्त्री के माथे पर होनेवाला घड़ा अस्थिर रहता है, वैसे ही इस संसार के सभी पदार्थ अस्थिर ही हैं। दूसरी बात, इस संसार में मनुष्य को कभी-कभी पूर्वपुण्य के प्रभाव से मणि-माणेक, धनधान्य राज्यसंपदा, स्त्री-पुत्र-परिवार आदि प्राप्त हो जाते हैं, लेकिन यह सब इसी संसार में ही रह जाते हैं / इस जीव को मरते समय असहाय अवस्था में खाली हाथ ही अकेले परलोक सिधारना पड़ता है। इनमें से एक भी वस्तु उसके साथ कभी नहीं जाती है। संसार की यह क्षणभंगुरता, असहायता और विषमता देखकर मेरा मन संसार के प्रति उदास हो गया है। इसलिए अब मैं यह संसार का त्याग कर संयम-चारित्र-स्वीकार लेना चाहता हूँ। हे रानियो, संसार छोड़ कर चारित्र ग्रहण करने के लिए मुझे तुम्हारी अनुमति की अत्यंत आवश्यकता है। मुझे भगवान के वचनों में पूरा विश्वास उत्पन्न हो गया है। इसलिए मेरे मन में उन्हीं की शरण में जाने को प्रबल इच्छा निर्माण हो गई है। इसलिए यदि तुम मुझे संसार छोड़ कर दीक्षा लेने के लिए खुशी से अनुमति दोगी तो बहुत अच्छा होगा। अगर तुमने इन्कार किया, तो भी मैं दीक्षा तो निश्चय ही लेनेवाला हूँ। ऐसा कौन मूर्ख क्षुधातुर होगा कि जिसके मुख के सामने मिष्ठानों से भरी थाली आने पर भी वह उसे ग्रहण किए बिना भूखा ही बना रहे ?" अपने पति की ऐसी अद्भूत वैराग्य भावनायुक्त बातें सुन कर गुणावली और प्रेमला दोनों ने राजा को इस संसार में रहने के लिए हर तरह से समझाने की कोशिश की। लेकिन जब उन्हें राजा के निश्चय से ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्हें रोके रुका नहीं जा सकता, तब उन्होंने राजा को सहर्ष दीक्षा लेने के लिए अनुमति दे दी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 267 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र ___रानियों से अनुमति मिलते ही हर्षित हुए राजाने तुरन्त गुणावली के सुपुत्र गुणशेखर को राजसिंहासन पर बिठा दिया और उसे राजा बना दिया / मणिशेखर आदि अपने अन्य पुत्रों को भी राजा ने अपने विस्तृत साम्राज्य में से विशिष्ट प्रदेश देकर खुश कर दिया। चंद्र राजा ने राज्य आगे भी ठीक ढंग से चलता रहे, इस दृष्टि से सारा प्रबंध कर दिया। अब अपने राज्य की, पुत्रों की और पत्नियों की जिम्मेदारी से मुक्त हुए राजा चंद्र ने दीक्षा लेने के लिए तैयारी प्रारंभ कर दी। राजा की यह तैयारी देखकर प्रभावित हुई राजा की गुणावली, प्रेमला आदि सात सौ रानियाँ, सुमति मंत्री, नटराज शिवकुमार, उसकी कन्या शिवमाला आदि ने भी राजा के साथ ही दीक्षा लेने की प्रबल इच्छा प्रकट की / इसी को कहते हैं 'सच्चा प्रेम' ! आज के कलियुग में भोग में साथ देनेवाले अनेक मिलेंगे लेकिन त्याग में साथ देनेवाले बिरले ही मिलते हैं। अपने साथ इन सबकी दीक्षा लेने की प्रबल अभिलाषा देखकर राजा की खुशी का ठिकाना न रहा / भवसागर पार करते समय साथी मिले तो किसको आनंद नहीं होगा ? सारी तैयारी पूरी हो गई। एक शुभ मुहूर्त पर चंद्र राजा के पुत्ररत्नों-गुणशेखर और मणिशेखर ने धूमधाम से दीक्षामहोत्सव का आयोजन किया। अपने सारे परिवार के साथ चंद्रराजा 'वर्षीदान' देता हुआ उस स्थान पर आ पहुँचा, जहाँ भगवान मुनिसुव्रत स्वामीजी का निवास था। इस समय भगवान देशना (धर्मोपदेश दे रहे थे। राजा ने श्रद्धाभाव से भगवान की तीन परिक्रमाएँ की, विनम्रता से वंदना की और वह सपरिवार भगवान की देशना सुनने के लिए बैठ गया। मुनिसुव्रत स्वामी भगवान की वैराग्यमय देशना फिर से सुनने पर राजा का वैराग्य पहले से भी अधिक बढ़ गया। यह देख कर वहाँ की सभा में बैठे हुए इन्द्रों और देवों ने चंद्र राजा के त्याग और वैराग्यभाव की भूरी-भूरी प्रशंसा की। अब गुणशेखर राजा ने भगवान के सामने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, “हे अनंत करुणासागर प्रभु, ये मेरे पूज्य पिताजी और मेरी सभी पूज्य माताएँ शिवसुख प्राप्त करने के लिए संसार त्याग कर दीक्षा लेना चाहते हैं / इसलिए आप कृपा कर उन्हें दीक्षा का दान दीजिए !" भगवान मुनिसुव्रत स्वामी ने राजा गुणशेखर की विनम्रता भरी प्रार्थना सुन कर चंद्र राजा और उसके साथ आए हुए दीक्षार्थियों को दीक्षा देना किया। चंद्रराजा को दीक्षा लेने में दृढ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र करने के उद्देश्य से भगवान ने चंद्र राजा को अपने पास बुला कर कहा, “हे चंद्रनरेश, तुम्हारी दीक्षा ग्रहण करने की भावना श्रेष्ठ है। लेकिन हे राजन्, दीक्षा लेकर उसका पालन करना बड़ा कठिन काम है। साधुजीवन में कदम-कदम पर परिषह (विपतियाँ) और उपसर्ग (उपद्रव) आते हैं। साधुजीवन में साधु को बारह प्रकार के तप से शरीर का शोषण करना पड़ता है, इंद्रियों और कषायों का दमन करना होता है, मन को अपने वश में रखना पड़ता है, ज्ञान-ध्यान करना होता है, 42 दोषों से रहित अरस-निरस भिक्षा भोजन के रूप में लाकर उसका उपयोग करना पड़ता है, नंगे पाँव एक गाँव से दूसरे गाँव धूमना पड़ता है, शरीर के बालों का लोच करना पड़ता है, स्नान आदि से शरीर का सत्कार-शृंगार नहीं किया जा सकता है। दीक्षा लेने के बाद साधु को शुभ भावना से अपनी दीक्षा का निरतिचार रूप में पालन करना पड़ता है / ये सारी बातें अपनाने के लिए एक से एक बढ़कर कठिन हैं। इसलिए अपनी शक्ति का विचार करके ही दीक्षा लेनी चाहिए।" भगवान की अमृतमयो मधुर वाणी सुन कर चंद्र राजा ने कहा, “हे प्रभु, आपकी बातें बिलकुल सत्य हैं / आपकी बातों में कहीं भी संदेहयुक्त कुछ नहीं है। आपने कहा कि दीक्षा का पालन करना अत्यंत कठिन है। लेकिन प्रभु, यह दीक्षा का पालन कायरों के लिए कठिन होगा, शूरवीरों के लिए यह बिलकुल कठिन नहीं है। आसान है।" .. चंद्र राजा की दीक्षा लेने की पढ़ भावना देखकर भगवान ने उसके परिवार को दीक्षा देना स्वीकार कर लिया। भगवान से अनुमति और आदेश पाते ही चंद्र राजा ने तुरंत अपने शरीर पर से राजसी वस्त्र और आभूषण उतार दिए, सिर के बालों का उसने लोच कर लिया। फिर भगवान ने अपने हाथ से चंद्रराजा को 'रजोहरण' और 'मुहपत्ति' आदि से युक्त मुनिवेश प्रदान किया। चार महाव्रतों के पालन की सौगंध (प्रतिज्ञा) दिलाई / फिर चंद्र राजा और अन्य दीक्षार्थियों के मस्तक पर भगवान ने क्रमश: सुगंधित 'वासक्षेप' डाला। दीक्षाविधि पूरी होते ही अब चंद्रराजा 'चंद्र राजर्षि' बन गया / वह भगवान मुनिसुव्रतस्वामीजी का शिष्य बना / वहाँ दीक्षा समारोह देखने के लिए सभा में बैठे हुए सभी इंद्रों, देवों और मनुष्यो ने नए 'चंद्र राजर्षि' को भावपूर्वक वंदना की। उस अवसर पर उपस्थित अन्य लोगों ने भी इस दीक्षा महोत्सव से वैराग्य प्राप्त कर भगवान से यथाशक्ति त्रिविधि व्रतनियम ले लिए। कुछ समय बाद भगवान मुनिसुव्रतस्वामी ने पुराने साधुओं और अब नए चंद्र राजर्षि आदि शिष्यों के विशालपरिवार सहित आभापुरी से विहार किया। ये अपने परिभ्रमण में आगे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 269 की ओर चल पड़े। चंद्रराजर्षि के पुत्र, परिवार के अन्य सदस्य औप आभापुरीवासी लोग उन्हें आभापुरी से विदा करने के लिए दूर तक साथ गए। अब चंद्रराजर्षि को विदा देते समय, गुणशेखर और मणिशेखर आदि पुत्रों की तरफ से गुणशेखर ने चंद्रराजर्षि से आँखों में आँसू भरकर गद्गद् कंठ से कहा, "हे पूज्य / आज आप तो हम सबके हार्दिक प्रेम का त्याग कर, मोक्षप्राप्ति के रास्ते पर चल पडे है / लेकिन हम आपको कभी नहीं भूलेंगे / आपने तो तीन खंडों के राज्य को तृणवत् तुच्छ मानकर उसका त्याग कर दिया। लेकिन हम में ऐसा त्याग करने की सामर्थ्य कब आएगी ? आपने अपना तो कल्याण कर लिया, लेकिन हमारा कल्याण कौन करेगा ? है पूज्य, आप अब भले ही चले जाइए, लेकिन हमारी इतनी प्रार्थना स्वीकार कीजिए / आप हमें कभी भुला मत दीजिए / कभी आभापुरी पधार कर हमें आपके पवित्र दर्शन करने का अवसर अवश्य दीजिए।" . - चंद्र राजर्षि ने उन्हें विदा करने के लिए आए हुए अपने पुत्रों को और आभापुरीवासियों को ‘धर्मलाभ' का आशीर्वाद दिया और समयोचित हितशिक्षा की बातें कहीं। फिर वे अपने गुरु और अन्य साथी शिष्यो के साथ आभापुरी से बाहर चल पड़े। . चंद्र महर्षि तथा अन्य परिवार को आगे बढ़ते देखकर गुणशेखर आदि पुत्र और आभापुरीवासी विरह वेदना से सिसक-सिसक कर रोते-रोते ही वे सब आभापुरी लौट चले। दीक्षा ग्रहण करने के बाद सभी सांसारिक उपाधियों से मुक्त हुए चंद्र राजर्षि ने स्थविर मुनिराज के पास रहकर ज्ञानाध्ययन का प्रारंभ किया। शास्त्राध्ययन तो साधु जीवन का प्राण है, क्योंकि उसी की सहायता से संयम का पालन आसान बन जाता है। शास्त्राध्ययन से मन और इंद्रियाँ काबू से रहती है और धीरे-धीरे समय के अनुसार संवेग-वैराग्य का भाव वृद्धिगत होता जाता है। स्वाध्याय से लोकालोक का ज्ञान प्राप्त होता है, समकित और संयम के भाव निर्मल बनते हैं। अंत में शास्त्राध्यायन से ही आत्माज्ञान और केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। इसीलिए | चंद्रमहर्षि ने दीक्षा लेने के तुरंत बाद शास्त्राध्यायन प्रारंभ किया। दीक्षा में आवश्यक होनेवाली | संयम की सभी क्रियाओं में उन्होंने निपुणता प्राप्त कर ली। इसी प्रकार सुमति मुनि, शिरणजमुनि आदि भी चंद्रराजर्षि से विनय से पेश आते हुए शास्त्राध्ययन और संयमक्रियाओं मेंतल्लीन हो गए। गुणावली, प्रेमला आदि 700 साध्वियाँ भी अपनी प्रवर्तिनी साध्वीजी से साध्वाचार की शिक्षा पाकर ज्ञानाध्ययन में तल्लीन हो कर जप-तप और संयम की अन्य क्रियाओं में मग्न रहने लगीं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र जिसने दीक्षा (संयम) ले ली, वह संयम में तल्लीन हो जाए, तो ही शिवसुंदरी से संगम हो जाता है, उसे अपना सकता हैं ! चंद्रराजर्षि और अन्य सब साधु-साध्वी सिंह की तरह वीरता से दीक्षा ग्रहण कर गए थे और सिंह की तरह वीरता से उसके पालन में तल्लीन थे। अपने आचरण को निर्मल रखने में वे सब प्रयत्नशील रहते थे। संयम का निरतिचार पालन करते हुए वे सब के सब परमात्मा मुनिसुव्रत भगवान की हर आज्ञा का पालन करने में तत्पर रहते थे। अंत में जिनाज्ञापालन में ही तो धर्म है न ? श्रुतसागर का अत्यंत गहराई से अवगाहन करने से चंद्र राजर्षि को अध्यात्मरत्न प्राप्त हो गया। इसलिए अब वे स्वप्रशंसा, परिनिंदा, वैशुन्य, ईर्ष्या, परदोषदर्शन आदि सभी दोषों का पूरी तरह से त्याग कर अप्रमत गुणस्थानक में चले गए और आत्मस्वरुप में तल्लीन होने लगे। अब चंद्रराजर्षि षट्काय जीवों की सावधानी से रक्षा करने लगे, विश्व के सभी जीवों को अपनी आत्मा के समान मानने लगे। आत्मस्वरूप का निरंतर चिंतन करते रहने से उन्हें जड़चेतन का भेद मालूम हो गया। अब वे यतिधर्मपालन में ही अपनी आत्मा का कल्याण मानने लगे / अष्टप्रवचन माता की गोद में प्रतिदिन बैठ कर खेलते-खेलते चंद्र राजर्षि ने क्षमारूपी खड़ग से मोहराजा पर विजय प्राप्त कर ली। अब चंद्रराजर्षि नित्य संवेगरस के सागर में सफर करने लगे। उन्होंने अपनी काया की माया पर से अपना ध्यान हटा लिया। घोर और उग्रतपसाधना करते-करते उन्होंने कर्म की सेना का, कूड़ाकर्कट निकाल डाला। उन्होंने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली। अब वे लगभग निरंतर धर्मध्यान में ही मग्न रहते थे। तरह-तरह के परिषहों को और उपसर्गो को वे पीडाकारी नहीं, बल्कि परोपकारी मानने लगे और उन्हें समताभाव से शांति से सहते रहे। परिषहों और उपसर्गों को उन्होंने आत्मशुद्धि का एकमात्र साधन मान लिया / उपसर्गों और परिषहों को समताभाव से सहन करने से आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। उपसर्गों और परिषहों को शांतिपुर्वक सहर्ष सहन करना ही कर्ममुक्ति का मुख्य मार्ग हैं। चंद्र राजर्षि अब प्रतिदिन अपनी आत्मा का शांतरस से अभिषेक करते थे। अपनी आत्मा के प्रति अत्यंत रूचि होने से अब उनको आत्मानुभवज्ञान प्राप्त हो गया। अब उन्होंने क्षपकश्रेणी के ऊपर चढ़ना आरंभ किया। उत्कृष्ट धर्मध्यान करते करते उन्हें शुक्लध्यान प्राप्त हो गया। चंद्र राजर्षि ने अब क्षपकश्रेणी रूप गजराज पर सवार होकर शुक्लध्यान को तलवार से मोहराजा का मस्तक उड़ा दिया। फिर उन्होंने मोहराजा की सारी सेना को भगा दिया और ज्ञानावरणीयादि घाती कर्मों को समूल नष्ट कर केवलज्ञान पा लिया। केवलज्ञान के पूर्ण प्रकाशा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र में उन्होंने तीनों कालों के सभी जड़चेतन पदार्थों को एकसाथ प्रत्यक्ष देखा / सभी सांसारिक जीवों की सुख-दु:ख, जन्म-मृत्यु, गति-आगति को उन्होंने एकसाथ, एक समय में ही प्रत्यक्ष जान लिया / चंद्र राजर्षि को केवलज्ञान की प्राप्ति होने से उनकी अनादिकाल की सारी भ्रांति भाग गई। चंद्र राजर्षि के निकट रहनेवाले सम्यगद्दष्टि देवों ने चंद्र राजर्षि के पास आकर उनकी केवलज्ञानप्राप्ति का महोत्सव मनाया। देवनिर्मित सुवर्णकमल पर आरुढ होकर सभा के सामने चंद्रराजर्षि ने अद्भूत धर्मदेशना दी। उन्होंने अपनी धर्मदेशना में सबको उद्देश्य कर कहा - "इस जगत् के जीव अनादिकाल से कर्मों के योग से चार गतियों और चौरासी लाख योनियों में जन्ममरण का चवकर काटते जा रहे हैं। वे तरह-तरह की यातनाएँ भोगते हैं। इस अनंत दु:खमय संसार का विनाश करने और अनंतसुखमय मोक्ष को प्राप्त करने के लिए जीवों को जिनेश्वरदेव कथित धर्म के अनुसार चलने के लिए प्रयत्न करना चाहिए / यह धर्म दो प्रकार का है - एक साधुधर्म है और दुसरा श्रावकधर्म है / जीवों को चाहिए कि शक्ति हो तो पहले समस्त संसार के सुखों संबंधों और पापों का प्रतिज्ञापूर्वक त्याग करके साधुधर्म स्वीकार कर लेना चाहिए। जिन जीवों में साधुधर्म का पालन करने की शक्ति न हो उन्हें समकित सहित श्रावक के बारह व्रतों को स्वीकार कर उसका निरतिचार रीति से पालन करना चाहिए। यह धर्मपालन सिर्फ मनुष्यजन्म में ही संभव है। इसलिए विषय, कषाय आदि प्रमादों का त्याग कर शुद्ध आशय से धर्म की विधिपूर्वक आराधन करनी चाहिए / मनुष्यजन्म आर्यक्षेत्र, आर्यकुल, पचेंद्रियों की प्राप्ति, स्वस्थ, शरीर निर्मल बुद्धि, दीर्घायु, सद्गुरु की संगति जिनवाणी का श्रवण, उसके प्रति श्रद्धा का भाव और संयमपालन में वीरता-पराक्रम दिखाना-ये बातें उत्तरोत्तर बहुत दुर्लभ है / इस ससार में कहीं भी सुख नहीं है / सुख सिर्फ मोक्ष में ही है। इसलिए मोक्ष पाने की कामना करनेवाले को जिनधर्म का पालन करने में तनिक भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।" केवलज्ञानी चंद्रराजर्षि का यह धर्मोपदेश सुन कर वहाँ उपस्थित अनेक भव्यात्माओं ने प्रतिबोध पाकर यथाशक्ति व्रतनियम को स्वीकार कर लिए। वहाँ से विहार करते-करते एक बार चंद्र राजर्षि सिद्धाचलजी तीर्थक्षेत्र पर पधारे। पहले इस राजर्षि को यहीं पर मुर्गे में से फिर मनुष्यत्व की प्राप्ति हुई थी। अब वहाँ उन्हें सिद्धत्व की प्राप्ति होनेवाली थी। इसीलिए वे यहाँ पधारे है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र अनंत सिद्धों के धाम इस सिद्धाचलजी तीर्थक्षेत्र पर चंद्रराजर्षि ने एक मास का अनशन किया। एक सहस्त्र वर्षों के चरित्र्यपर्याय (संयम) सहित कुल तीस हजार वर्षों का जीवन जीकर और फिर योगनिरोध करके चार अघाती कर्मों का विनाश कर चंद्रराजर्षि अनंतसुखमय मोक्ष में पधारे। सुमति मुनि, शिवकुमार मुनि और गुणवली, प्रेमला आदि साध्वियाँ भी संयम का निरतिचार पालन करते हुए केवलज्ञान प्राप्त कर अंत में मोक्ष में पहुंच गई। शिवमाला साध्वी और चंद्रराजर्षि के संसारी जीवन की अन्य सारी रानियाँ-साध्वियाँ अभी कुछ कर्मों का क्षय करना बाकी होने से अपना उस जन्म का जीवन पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध नामक सर्वश्रेष्ठ देवविमान में उत्पत्न हुई। वहाँ का तैंतीस सागरोपम का दिव्य जीवन बिता कर वे सर्वार्थसिद्ध विमान में से च्यक्ति होकर उत्तम कुल में जन्म लेंगी और फिर से दीक्षा ग्रहण करेंगी और सकल कर्मो का क्षय कर मोक्ष प्राप्त कर लेंगी। // इति श्री चंद्रराजर्षि चरित्र॥ **************** ACHARYA SRI KAULASSAGARCURI GYANMANDIR Kova, Cardhinaar-3.2009. ___ Phone : (07972327652,23270204-07 Aaradhak Trust P.P.AC. Gunram