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________________ // हा 240 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र उद्यानपालक ने दौडते हुए चंद्रराजा के पास पहुँच कर बधाई दी, “हे महाराज, तीनों भुवनों की रक्षा करनेवाले, त्रिभुवनपूज्य श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान अपने विशाल परिवार के साथ आभापुरी के 'कुसुमाकर' उद्यान में पधारे हैं।' राजा चंद्र ने अत्यंत प्रसन्न होकर यह संदेश लानेवाले उद्यानपालक को अच्छा-सा इनाम देकर खुश कर दिया। फिर अपनी चतुरंग सेना और सकल अंत:पुर सहित राजा चंद्र भगवान मुनिसुव्रतस्वामी को वंदना करने को चल पडा / जैन धर्मी राजा का मन सबसे पहले देवगुरूधर्म के साथ होता हैं और बाद में अन्य बातों के साथ होता हैं। जिनवंदन सभी पापों को विनष्ट कर डालता है। वह भवबंधनों को तोड़ डालता है, विषयतृष्णा को शांत कर देता है और कर्म के बंधनों को जड़ से काट डालता है। वह अनंत अव्याबांध सुख प्रदान करता है और शिवसुंदरी से आत्मा का संगम करा देता है। वह कर्मसत्ता को झुकाता है, पुण्य को पुष्ट कराता है और आत्मा को रत्नमयी की प्राप्ति कराता है। राजा चंद्र परिवार के साथ 'समोवसरण' की ओर आगे बढ़ते जा रहे थे। भगवान मुनिसुव्रतस्वामी का सुंदर समोवसरण देखते ही चंद्र राजा का रोम रोम हर्ष से पुलकित हो गया। राजा तुरंत गजराज पर से नीचे उतर पड़ा / उसने पंचअभिगम का पालन करके मोक्षमहल के उपर चढ़ने की नसैनी समान होनेवाले समोवसरण की सोढ़ियाँ पार की और उपर पहुँच कर त्रिभुवनस्वामी देवाधिदेव मुनिसुव्रत स्वामी भगवान के दर्शन किए। फिर त्रिभुवनस्वामी भगवान को तीन परिक्रमाएँ की, भाव और विधिपूर्वक वंदना की और फिर राजा भगवान के सामने दोनों हाथ जोड़ कर विनम्रता से बैठ गया और अमृतवर्षिणी, भवसंताप को शाँत करनेवाली, रागद्वेष मोह का विष उतारनेवाली, योजनगामिनी, सबको उनकी अपनी-अपनी भाषा में समझानेवाली, स्याद्वाद्पूर्ण और अमृतपान करने लगा। धर्मदेशना (धर्मोपदेश) देते समय भगवान मुनिसुव्रतस्वामी ने कहा, “हे भव्य जीवो। अनादि काल से संसारी जीव पाँच प्रकार का मिथ्यात्व, बारह प्रकार की अविरति, पच्चीस प्रकार के कषाय, पंद्रह प्रकार के योग आदि के कारण ज्ञानावरणीय आदि कर्म बाँध कर चार गतियों और चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है। यह जीव जन्म-जरामृत्यु, आधि-व्याधि-उपाधि आदि के अनंत दुखों को भोग रहा है / मूल कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय नाम के होते हैं। इन कर्मो के उपभेद होते हैं / इन कर्मो के अधीन होनेवाला जीव अपने मूल शुद्ध स्वरुप को पूरी तरह भूल गया हैं। इसलिए यह जीव कर्मजन्म विभावों को ही अपना मान लेता हैं और उनमें मस्त रहता हैं, तल्लीन रहता है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036424
Book TitleChandraraj Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherSaudharm Sandesh Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size225 MB
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