________________ श्री चन्द्रराजर्षि चणि "हे दुष्ट, पापी ! दूसरों के छिद्र और दोष ही देखनेवाले बदमाश ! बोल, तूने बहू सेवा कहा ? इसी अवस्था में जब तू मेरे दोष देखने लगा है तो मेरे बुढ़ापे में तू मेरी क्या से करेगा? अरे दुष्ट, मुझसे जब देवता भी डरते हैं, तब तू किस झाड की पत्ती है रे, क्या राड प्राप्त होने से तेरे मन में घमंड उत्पन्न ही गया है। लेकिन याद रख, यह राज्य तो मैंने तुझे दिहै। मैं स्वयं राज्य का बोझ ढोने में समर्थ हूँ, राज्य चला सकती हूँ। मुझे अब तेरी जरूरत न है। तू अपने इष्ट देवता का अंतिम बार स्मरण कर ले, अब मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगी। चल हो जा मरने को तैयार !" अपनी सौतेली माँ से ऐसे क्रोध से भरे वचन अचानक सुनकर चंद्रराजा तो भौंचक्क रह गया, डर-सा गया। वह किंकर्तव्यविमूढ हो गया। उसी समय गुणावली ने वीरमती के सामअपना आँचल फैला कर और हाथ जोड़ कर विनम्रता से सास वीरमती से कहा, _. “माताजी, मैं आपसे अपने पति के जीवन की भीख माँगती हूँ . मेरे दुर्भाग्य से मैंने है आपको पति की कही हुई बातें बता दीं और अपने स्वामी के प्राण विपत्ति में डाल दिए / माँजी इस बात पर मुझे बहुत पछतावा हो रहा है / हे माताजी, पुत्र शायद कुपुत्र भी हो सकता है लेकिन माता कभी कुमाता नहीं होती है। माताजी, हम लोगों की उम्र ही कितनी है ? सांसारिव बातों का अनुभव हमें कहां से और कैसे हो सकता है ? और अगर होगा भी तो आखि - कितना ? ऐसा विचार कर आप इन्हे छोड़ दीजिए। इन्हें क्षमा कीजिए। अगर ये हो नहीं रहेंगे तो इतनी सारी राज-संपत्ति का उपभोग कौन करेगा ? इसलिए मुझ पर दया कीजिए और में पति को जीवनदान दीजिए / इनको इनके अपराध के लिए क्षमा कीजिए और जो कुछ भ आपको कहना हो, मुझसे कहिए। जो दंड देना ही, मुझे दीजिए। लेकिन इन्हें क्षमा कर दीजिए माँजी ! इन्हें क्षमा कर दीजिए ! ! मुझे इतनी भीख अवश्य दीजिए माँजी !!" .. अपनी बहू के मूंह से ये बातें सुन कर भी वीरमती का हृदय नहीं पिघला / उसकठोरता से बहू को दूर ढकेल कर कहा, “बहू, तू यहाँ से उठ और दूर जा कर खड़ी हो जा ऐसा पुत्र होने की अपेक्षा नि:संतान रहना अच्छा है। राज्य प्राप्ति के घमंड से अंधे हुए इस चं की आज मैं दंड दिए बिना नहीं रहूँगी। तू बीच में मत आ बहू !" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust