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________________ i श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र / इतना क्रोध से कहते-कहते ही जब निर्दय वीरमती चंद्र राजा के गले पर अपनी तलवार का प्रहार करने लगी, तो एकदम गुणावली बीच में पड़ गई। उसने वीरमती से गिडगिडा कर कहा, “नहीं, माँजी, नही ! आप चाहे तो मेरे गले पर अपनी तलवार चला कर मेरे प्राण ले लीजिए, लेकिन मेरे पति के प्राणों को भिक्षा मुझे दीजिए। मैं आपको वचन देती हू" कि वे फिर एसा काम कभी नही करेंगे। उन्हें क्षमा कीजिए माँजी, क्षमा कीजिए।" गुणावली की आँखों से आसुओं की झडी-सी लग गई थी और इसका स्वर इतना गदगदित था कि वीरमती का पत्थर जसा कठोर हृदय भी पिघल गया। उसने चंद्र राजा को मार डालने का विचार छोड दिया और उसने अपनी तलवार दूर रख कर उसी समय एक घागे में मंत्र डाल कर वह मंत्रित धागा राजा क पाव में बाँध तिया। घागा पाँव में बँधते ही राजा का मनुष्य रूप नष्ट ही गया और वह मुर्गा / बन गया। __ अपने पति की यह दयनीय स्थिति देख कर अत्यंत दु:खी हुई गुणावली ने अपनी सास / वरिमती से कहा, “माँजी, आपने उन्हें प्राणदान तो दिया, लेकिन उनका जीवन ऐसा व्यर्थ क्यों बना दिया ? मुझ पर दया कीजिए माँजी, क्रोध को त्याग दीजिए और फिर उन्हें मुर्गे से मनुष्य का रुप दे दीजिए। माँजी, हम दोनों के बीच रक्षक एकमात्र ये ही है। इनके बिना राज्यकारोबार कौन चलाएगा ? मनुष्य को छोड कर अन्य प्रकार का जीवन व्यर्थ ही है। इसलिए माँजी, मेरे पति को फिर से मुर्गे से मनुष्य बना दीजिए / मैं आपका उपकार आजीवन नहीं भुलूंगी, माँजी / मैं आपकी आज्ञा का उल्लंधन कभी नहीं करूँगी। दया कीजिए, माँजी।" गुणावली इसी तरह से गिड़गिड़ाती रही, अनेक प्रकार से उसने अपनी सास को मनाने / की कोशिश की, लेकिन व्यर्थ ! निर्दय वीरमती टस से मस नहीं हुई। इसके विपरीत वीरमती ने / कडक कर गुणावली से कहा, “देख बहू, अगर तू इस संबंध में इसी तरह बकती रही और फिर से तूने इस बारे में कुछ कहने को मुँह खोला, तो तुझे भी मुर्गी बना दूंगी। समझी ? इस प्रकार क्रोधभरी बातों से गुणावली को डरा कर वीरमती अपने महल में चली गई / क्रोध कार्य-अकार्य को नहीं देखता, हित-अहित का विचार नही करता है ! क्रोध के कारण मनुष्य की बुद्धि मारी जाती है, सन्मति नष्ट हो जाती है ! इससे मनुष्य भले-बुरे का भेद नहीं कर सकता है, कार्य-अकार्य का फर्क नहीं कर सकता है। क्रोध अपने और पराये को संत्रस्त कर देनेवाला चंडाल है / क्रोधी का अपना कोई नहीं होता है / क्रोधी का विवेक नष्ट हो जाता हैं। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036424
Book TitleChandraraj Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherSaudharm Sandesh Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size225 MB
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