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________________ 268 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र करने के उद्देश्य से भगवान ने चंद्र राजा को अपने पास बुला कर कहा, “हे चंद्रनरेश, तुम्हारी दीक्षा ग्रहण करने की भावना श्रेष्ठ है। लेकिन हे राजन्, दीक्षा लेकर उसका पालन करना बड़ा कठिन काम है। साधुजीवन में कदम-कदम पर परिषह (विपतियाँ) और उपसर्ग (उपद्रव) आते हैं। साधुजीवन में साधु को बारह प्रकार के तप से शरीर का शोषण करना पड़ता है, इंद्रियों और कषायों का दमन करना होता है, मन को अपने वश में रखना पड़ता है, ज्ञान-ध्यान करना होता है, 42 दोषों से रहित अरस-निरस भिक्षा भोजन के रूप में लाकर उसका उपयोग करना पड़ता है, नंगे पाँव एक गाँव से दूसरे गाँव धूमना पड़ता है, शरीर के बालों का लोच करना पड़ता है, स्नान आदि से शरीर का सत्कार-शृंगार नहीं किया जा सकता है। दीक्षा लेने के बाद साधु को शुभ भावना से अपनी दीक्षा का निरतिचार रूप में पालन करना पड़ता है / ये सारी बातें अपनाने के लिए एक से एक बढ़कर कठिन हैं। इसलिए अपनी शक्ति का विचार करके ही दीक्षा लेनी चाहिए।" भगवान की अमृतमयो मधुर वाणी सुन कर चंद्र राजा ने कहा, “हे प्रभु, आपकी बातें बिलकुल सत्य हैं / आपकी बातों में कहीं भी संदेहयुक्त कुछ नहीं है। आपने कहा कि दीक्षा का पालन करना अत्यंत कठिन है। लेकिन प्रभु, यह दीक्षा का पालन कायरों के लिए कठिन होगा, शूरवीरों के लिए यह बिलकुल कठिन नहीं है। आसान है।" .. चंद्र राजा की दीक्षा लेने की पढ़ भावना देखकर भगवान ने उसके परिवार को दीक्षा देना स्वीकार कर लिया। भगवान से अनुमति और आदेश पाते ही चंद्र राजा ने तुरंत अपने शरीर पर से राजसी वस्त्र और आभूषण उतार दिए, सिर के बालों का उसने लोच कर लिया। फिर भगवान ने अपने हाथ से चंद्रराजा को 'रजोहरण' और 'मुहपत्ति' आदि से युक्त मुनिवेश प्रदान किया। चार महाव्रतों के पालन की सौगंध (प्रतिज्ञा) दिलाई / फिर चंद्र राजा और अन्य दीक्षार्थियों के मस्तक पर भगवान ने क्रमश: सुगंधित 'वासक्षेप' डाला। दीक्षाविधि पूरी होते ही अब चंद्रराजा 'चंद्र राजर्षि' बन गया / वह भगवान मुनिसुव्रतस्वामीजी का शिष्य बना / वहाँ दीक्षा समारोह देखने के लिए सभा में बैठे हुए सभी इंद्रों, देवों और मनुष्यो ने नए 'चंद्र राजर्षि' को भावपूर्वक वंदना की। उस अवसर पर उपस्थित अन्य लोगों ने भी इस दीक्षा महोत्सव से वैराग्य प्राप्त कर भगवान से यथाशक्ति त्रिविधि व्रतनियम ले लिए। कुछ समय बाद भगवान मुनिसुव्रतस्वामी ने पुराने साधुओं और अब नए चंद्र राजर्षि आदि शिष्यों के विशालपरिवार सहित आभापुरी से विहार किया। ये अपने परिभ्रमण में आगे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036424
Book TitleChandraraj Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherSaudharm Sandesh Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size225 MB
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