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________________ 242 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र पर दूर हो जाता है। ‘समकित' का अर्थ है सच्ची समझदारी-सच्चा विवेक और अपने सच्चे आत्मस्वरूप का ज्ञान। __ आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं / इन असंख्य प्रदेशों में आठ प्रदेश ऐसे हैं, जो कर्म से अनावृत्त हैं / इन आठ 'रुचक' प्रदेशों को कर्म की बाधा नहीं पहुँचती है। इसीलिए जीव का जीवस्वरूप निरंतर स्थिर और शाश्वत रहता है। यदि ये आठ प्रदेश भी कर्म से आवृत्त हो जाएँ तो जीव को अजीवत्व जड़त्व-आ जाएगा। जीव अजीव (जड़) बन जाएगा। ___ इन आठ कर्मों ने ही आत्मा के मूल स्वरूप को ढंक दिया है। मिथ्यात्व के प्रभावस्वरूप आत्मा अपने अनंतज्ञानादिमय स्वरूप को पहचान नहीं सकती है। इसलिए यह आत्मा पराई वस्तु को अपनी मान लेती है और उसमें आसक्त होकर संसार में परिभ्रमण करती रहती है। हाथी के गंडस्थल में से टपकनेवाले मदजल में अत्यंत आसक्त बने हुए भ्रमर की तरह यह जीव भी भौतिक पदार्थों में आसक्त होकर महादु:ख प्राप्त कर लेता है और बार-बार जन्ममृत्यु का शिकार बन जाता है। . इस जीव का मूल स्थान सूक्ष्म जीवराशि (निगोद) है। इसे जिनागम (जैन धर्मशास्त्र) में 'अव्यवहारराशि' कहा गया है। आकाशप्रदेश में सिर के बाल के अग्रभाग जितने छोटे प्रदेश में असंख्य निगोद के गोले होते हैं। निगोद के एक-एक गोले में निगोद के जीवों को रहने के लिए असंख्येय शरीर होते हैं। इस निगोद के एक-एक शरीर में अनंतानंत जीव एक साथ रहते हैं / एक साँस के समय में ये महादु:खी जीव अनेक बार जन्ममृत्यु के फेरे में से होकर गुजरते हैं / जीवराशि के इन जीवों को सातवें नरक में पड़े हुए जीवों से भी अनंतगुणा दु:ख भोगना पड़ता है / यह निगोद और उसके जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि अनंतज्ञानी जीव के अतिरिक्त अन्य जीव उन्हें अपने चर्मचक्षुओं से देख नहीं सकते है। लेकिन यह विषय मात्र श्रद्धागम्य हैं। ___ इस सूक्ष्म निंगोद में अनादिकाल से रहनेवाला जीव कभी-कभी भवितव्यता के अनुकूल होने पर व्यवहारराशि में आ जाता है। अर्थात् पृथ्वीकाय जीवों में अपकाय जीवों में (एकेंद्रिय जलचर जीवों में) आ जाता है / फिर वह कभी दो इंद्रियोंवाले जीवों में आ जाता है / अधिक अनुकूल स्थिति में वह तिर्यच (पंछी) योनि में पंचेद्रिय जीव भी बन जाता है। फिर अनंत पुण्य की राशि एकत्र होने पर उस जीव को मनुष्यभव की प्राप्ति हो जाती है। लेकिन सबसे श्रेष्ठ होनेवाले पंचेद्रिय मनुष्यभव को प्राप्त कर लेने पर भी अशुभ सामग्री के निमित्त से और शुभसामग्री के अभाव से जीव नरक आदि दुर्गति में फिर फेंक दिया जाता है / जीव को नरकादि P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036424
Book TitleChandraraj Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherSaudharm Sandesh Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size225 MB
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