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________________ 243 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र दुर्गति की प्राप्ति उसके विषय और कषाय के अधीन होने के कारण होती है। विषय और कषाय से उन्मत्त हुए जीव को फिर कृत्याकृत्य का विवेक नहीं रह पाता है। विवेक के बिना आत्मकल्याण होना कैसे संभव है ? ममता रूपी कुलटा में आसक्त हुए जीव को यह महामायावी ममता हुए जीव को संसार के रंगमंच पर विविध प्रकार के रूप देती है और जीव को नचाती है / वह जीव से तरह-तरह के नाटक करती है / मोहाधीन हुआ जीव इस ममता रूपी राक्षसी के भयानक स्वरूप की नहीं जानता है / इसलिए उसको आशा के अनुसार जीव सभी प्रकार की चेष्टाएँ करता है और चारगतिमय संसार में अनादिकाल से भवभ्रमण करता जाता है। मिथ्यात्व के प्रभाव के कारण संसारी जीव शुद्ध, देव, गुरु और धर्म के स्वरूप को नहीं जानता है। वह कुदेव, कुगुरु और कुधर्म के जाल में फँस जाता है और संसार रूपी सागर पार कर जाने के लिए जहाज के समान होनेवाले सुदेव-सुगुरु और सुधर्म की उपेक्षा और अनादर करता हैं। फिर कभी ऐसा भी होता है कि कर्मरूपी मल का बहुत ह्रास होने से किसी जीव को समकितरत्न की प्राप्ति हो जाती है। फिर उस जीव को अपने आत्मस्वरूप का और अपनी स्थिति का भान हो जाता है। समकित की प्राप्ति के फलस्वरूप उसकी कुदेव-कुगुरु और कुधर्म के प्रति होनेवाली कुवासना (आसत्ति) समाप्त हो जाती है और उसके हृदय में सुदेव-सुगुरु और सुधर्म के प्रति सुवासना दृढ़ हो जाती है। फिर उसको कृत्याकृत्य सार और असार, जड-चेतन, स्व-पर, हेयउपादेय आदि तत्त्वों का विवेक प्राप्त हो जाता है। अब वह विषयकषाय को अपने शत्रु की तरह देखने लगता है। अब वह कंचन-कामिनी-कुटुंब को दु:खदायी और पाप का कारण समझ लेता हैं / सुदेव-सुगुरु और सुधर्म को ही वह अब सुख का सच्चा कारण जान जाता है। वह अब समस्त संसार को हेय (तुच्छ) और मोक्ष को ही उपादेय मान लेता है / संसार के कारणभूत होनेवाले 'आश्रव' को अब वह अत्यंत हेय समझता है और मोक्ष के लिए कारण बननेवाले 'संवर' को अत्यंत उपयुक्त (उपादेय) मान लेता है। जब जीव के लिए एक बार हेय-उपादेय की मान्यता निश्चित हो जाती है, तब फिर उसे मोक्षमार्ग पर आगे बढ़ने में देर नहीं लगती है। वह समकित पा जाने के बाद जीव संसार में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036424
Book TitleChandraraj Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherSaudharm Sandesh Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size225 MB
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