________________ 96 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र शायद अचल मेरू पर्वत चलायमान हो सकता है, अग्नि शायद शांत हो सकती है, सूर्य कदाचित् पश्चिम में उदित हो सकता है, कदाचित् पत्थर पर कमल उग सकता है, लेकिन एक बार पक्की हुई कर्मरेखा को कदापि बदला नहीं जा सकता हैं। इसलिए मनुष्य की कर्माधीन होनेवालो बातों में बिना कारण चिंता कर नया कर्मबंधन नहीं बाँध लेना चाहिए। जीव नए कर्मो का बंधन बाँध लेने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन बाँधे हुए कर्मो के उदय की दृष्टि से वह बिल्कुल परतंत्र है। इसलिए हे श्राविका, सावधानी से अपना जीवन व्यतीत करो!" इतना उपदेश देकर साधु महाराज अपने निवास की ओर चल दिए। इस घटना के बाद गुणावली मन-वचन-काया से धर्म का पालन करने लगी। अपने किए हुए दुष्कर्म के लिए वह पश्चात्ताप करने लगी और दान देने तथा अतिथि-सत्कार में तत्पर बन गई। एक बार गुणावली आभापुरी में नगरजन क्या चर्चा करते है यह सुनने के उद्देश्य से और मुर्गे पर लोगों की दृष्ठि पड़े इस तरह से पिंजडा लेकर महल की अटारी में आकर बैठी। इधर चंद्रराजा को बहुत लम्बे समय से न देख सकने से सारी आभापुरी के नगरजनों में बड़ा हाहाकार मच गया था। महल की अटारी में मुर्गे का पिंजडा ले कर आ बैठी हुई गुणावला ने नगरजनों को आपस में यह कहते हुए सुना - "हे बंधु, लम्बे समय से हमारे महाराज दिखाई क्यों नहीं देते है ? उनके बिना यह सारी आभापुरी चंद्रमा के बिना होनेवाली रात की तरह फीकाफीकी-सी लगती है।" दूसरे ने इस पर कहा, "अरे भाई, क्या तुमने अभी तक यह नही सुना कि चंद्र राजा को उसकी माता ने किसी मंत्रप्रयोग से मुगाँ बना दिया है ? इसलिए हमारा इतना सौभाग्य कहां कि हम महाराज के दर्शन कर सके ! लोगों के बीच चल रही ऐसी बातें सुन कर गुणावली का हृदय गद्गदित हो गया और उसकी आँखों से आँसुओं की झडी झरने लगी। इधर रास्ते पर से जानेवाले कुछ नगरजनों की द्दष्टि जब पिंजड़े में पड़े हुए मुर्गे पर पड़ो, तो किसी ने कहा, 'अरे, यही हमारे राजा चंद्र है।" देखते ही देखते मुर्गे को देखने के लिए वहाँ एक बडी भीड़ इकट्ठा हो गई। लोगों ने मुर्गों के रूप में होनेवाले अपने राजा को अत्यंत श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़ कर प्रणाम किया। चारों ओर नगरजनों में ये ही बातें सुनाई दे रही थीं कि हमारे राजा कितने प्रजावत्सल, न्यायी और गुणवान थे, लेकिन उनकी माता वीरमती ने उनकी कैसी दुर्दशा कर डाली है ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust