________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 73 सुना था, वैसा ही यह राजकुमार है। राजकुमारी प्रेमलालच्छी बड़ी सौभाग्यशाली है कि उसे एसा कामदेव के समान वर मिला है। इस वरराजा की माता भी धन्य है कि उसने ऐसे दिव्यअलोकिक रुपधारी पुत्र को जन्म दिया है। इस वरराजा का रूपसौंदर्य तो देवताओं को भी शरमानेवाला है। इस तरह रास्ते में खड़ी भीड़ बरातियों में वरराजा के रूपसौंदर्य की ही चर्चा चल रही थी। धीरे-धीरे वरराजा की वरयात्रा मकरध्वज राजा के राजमहल के पास आ पहुँची। जोरशोर से बजते जानेवाले विविध वाद्यों की मधुर ध्वनियों से आकाश गूंज उठा। राजमहल के पास पहुँचते ही वरराजा की सास बननेवाली मकरध्वज की रानी ने सच्चे मोतियों से वरराजा की आवभगत की-पूजा की। उसके कपाल पर कुंकुम तिलक किया, उपर से अक्षत लगाए और उसका स्वागत किया। वरराजा को पूरे सम्मान के साथ विवाह मंडप मे लाया गया। मुहूर्त निकट आते हो देवांगना के समान सुंदर प्रेमलालच्छी को उसकी सखियाँ उसका सोलहशृंणगार कर हाथ पकड़ कर विवाहमंडप में ले आई और उन्होंने राजकुमारी प्रेमला को वधू के रूप में वरराजा के सामने बिठा दिया। वधूवर की सुंदर जोड़ी देख कर विवाह अवसर पर उपस्थित सभी लोगों को ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो रति और कामदेव का ही यहाँ साक्षात् मिलन हो रहा है। सभी उपस्थितों की दृष्टि बार-बार वरवधू पर पड़ती थी और उनकी अनुपम जोड़ी देख कर सब मन ही मन खुश हो रहे थे। इस समय रानी वीरमती और गुणावली ने विवाहमंडप में प्रवेश किया। वरवधू की सुंदर जोड़ी देख कर सास-बहू दोनों के मन आनंद से नाच-नाच उठे। __ हस्तमिलाप की घड़ी निकट पहुँचते ही ब्राह्मण पुरोहितों ने वेदों का मंत्रोच्चारण किया, मंगलाष्टक गाए गए और विधिपूर्वक वर ने वधू का पाणिग्रहण किया। दोनों को पुरोहित ने अग्नि के चार फेरे कराए। क्या यह विधि चार गतियों के फेरों में भ्रमण करने की बात सूचित नहीं करती ? जब पुरोहित 'वरवधू सावधान' कहता है, तो ये शब्द बहुत रहस्यपूर्ण लगते हैं। समर्थ रामदास स्वामी का जीवन अपने बचपन से ही विरत्ति वैराग्य की भावना से परिपूर्ण था। उनके मन में विवाह करने की बिलकुल इच्छा नहीं थी। लेकिन अपनी माता के आग्रह के सामने विवश P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust