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________________ 115 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वापस लाने का काम मुझे सौंपा। इधर मैं राजा के भागे हुए भानजे को खोजने गया और इन ना मात्रयों ने मिल कर विवाहसंबंध निश्चित कर डाला। इसलिए मुझे यह देखने का अवसर - हो नहीं मिला कि प्रेमलाजी का होनेवाला पति काला है या गोरा, सीधा हैं या कूबड़ा ! मैंने वहाँ वर को कभी अपनी आँखों से देखा ही नहीं। यदि मैं वहाँ उस समय उपस्थित होता, तो वर को अपना आखों से देख कर ही विवाहसंबंध निश्चित करता / इसलिए महाराज, इस संबंध में मेरी - कोई गलती नहीं है।" - राजा ने इस राजा ने इस तीसरे ठग मंत्री की बात सुन कर अपने मन में सोचा कि इसने भी वर की देखा नहीं है। लेकिन अपना अपराध छिपाने के लिए यह मनगढन्त उत्तर दे रहा है। अब चौथे मत्रा को भी एकान्त में बुला कर पूछ ही लूँ और जान तो लूँ कि वह क्या कहता है। मुख्य मंत्री का इशारा पाते ही चौथा मंत्री भी राजा के पास गप्त कक्ष में चला गया और राजा को प्रणाम कर खड़ा हो गया। राजा ने चौथे मंत्री को कड़क कर बताया, “महाशय, अब तुम्हारी बारी है। अगर तुमन झूठमूठ का उत्तर दिया तो उसके बदले में तुम्हें कठोर दंड भुगतना पड़ेगा। इसलिए = सबकुछ सच-सच बता दो।" राजा को कड़ी वाणी सुन कर चौथे मंत्री ने कहा, “महाराज, असत्य बहुत लम्बे समय तक छिपा नहीं रह सकता। इसलिए मैं जो कुछ भी कहूँगा, सत्य ही कहूँगा। झूठ बोलकर अपना अपराध छिपाने की अपेक्षा सत्य बोलकर उसके लिए दड भी सहना अधिक अच्छा है। महाराज, सिंहलनरेश के मन में कनकध्वज और प्रेमलाकुमारी का विवाह कराने की इच्छा बिलकुल नहीं थी। लेकिन हिंसक मंत्री ने ही यह विवाह निश्चित किया / हमारे मन में वर को खन की प्रबल इच्छा थी लेकिन हिंसक मंत्री ने जानबूझ कर विलंब करना प्रारंभ किया। वह कहने लगा, “इस समय तो कुमार अपने ननिहाल में है / इस समय वे वापस यहाँ आ नहीं सकत, यह कठिन है। जब हमने कमार को देख लेने का बहत आग्रह किया और कहा कि कमार को अपनी आँखों से देखे बिना हम यहाँ से नही जाएँगे, तब हिंसक मंत्री ने हम सबको एक-एक कराड स्वर्णमहरें देने का लालच दिखाया। इसलिए इस लालच में आकर हम सबने वर कुमार कारुपसौंदर्य आँखों से देखने का आग्रह छोड दिया। महाराज. सांसारिक प्राणियों के लिए लोभ का त्याग करना अत्यंत कठिन होता है। हमने भी लोभ के वश में होकर ही वर को देखे बिना हाविमलापुरी लौट आए और हमने आपको बताया कि “हम वर को देख कर आए हैं। वर के रूप-सौंदर्य के बारे में जैसी प्रशंसा सुनी थी वैसा ही सचमुच उसका रुपलावण्य है।" ऐसी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036424
Book TitleChandraraj Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherSaudharm Sandesh Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size225 MB
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