________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र वीरमती को अपने ईर्ष्यालु स्वभाव से आभानरेश और रानी चंद्रावती के विवाह से आनंद नहीं हुआ, बल्कि दु:ख ही हुआ। विवाह-महोत्सव समाप्त होते ही राजा पद्मशेखर अपनी नगरी में लौट आया / इधर आभानरेश के दिन नई रानी के साथ भोगविलास में व्यतीत हो रहे थे। दोनों के बीच दिन ब दिन प्रेम का भाव बढ़ता ही जा रहा था। इधर इस नवपरिणीत राजा-रानी के बढ़ते हुए प्रेमभाव को देख कर रानी वीरमती का हृदय ईर्ष्या से जल रहा था और दिन-व-दिन उसकी जलन बढ़ती ही जा रही थी। राजप्रासाद में रानी वीरमती को देख कर वह ईर्ष्या से जल रही थी। संसार में बहुसंख्य लोग अपने दोषों से ही दु:ख के दावानल में जलते रहते है हिंसा दोष है, असत्य है, चोरी दोष है, मैथुन दोष है, संग्रह की वृत्ति रखना (परिग्रह) दोष है, राग-द्वेष-क्रोधअभिमान माया-लोभ-इर्ष्या असूया दोष है, मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद दोष हैं। ये दोष ही महाभयंकर दुःख है / जहाँ-जहाँ दोष होता है, वहाँ वहाँ दुःख होता है। इस व्याप्ति में कहीं व्याभिचार दोष नही है। दोष रहित को दु:ख नहीं होता है और दोष युक्त को सुख नहीं होता है। दूसरे के उत्कर्ष, सुख और गुणप्रशांसा को सह सकता, उससे खुश न होना, खिन्नता का भाव मन में उत्पन्न होना ही ईर्ष्या है। रानी वीरमती अपनी सौत चंद्रावती से बहुत ईर्ष्या करती थी। द्वेष गुणों को नहीं देखने देता है। जिसके प्रति मन में द्वेष भाव जागता है, वह व्यक्ति महान् गुणवान् क्यों न हो, तो भी द्वेष करनेवाला उसके दोष ही देखता है और उन्हीं को बताता जाता है / वीरमती की ईर्ष्या के कारण सौतिया डाह होने से-यही स्थिति थी ! इधर रानी चंद्रावती सरल स्वभाव की होने से वीरमती को अपनी सगी बहन के समान मान कर उसके साथ प्रेम से व्यवहार करती थी। सच्चा प्रेम करनेवाला मनुष्य यह नहीं देखता कि अमुक के मन में मेरे प्रति प्रेमभाव नहीं है, बल्कि द्वेष दे, तो मैं उसके साथ प्रेम का व्यवहार क्यों रखू ? इसके विपरीत सच्चा प्रेम करनेवाला मनुष्य यह सोचता है कि दूसरे के मन में मेरे प्रति प्रेमभाव नहीं है, इसमें उस बेचारे का क्या दोष है ? यह तो मेरे ही पूर्वजन्म में किए हुए किसी दुष्कर्म का दोष हे। सज्जन मनुष्य कभी यह विचार नहीं करता कि अमुक मनुष्य मुझसे P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust