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________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 135 अपनी कल्पना से भी बहुत अधिक वस्तुओं का दान पाने पर उस नाटकमंडली के "ख नटराज शिवकुमार के हर्ष को कोई पार न रहा। वह फलान समाया। लेकिन नगरजनों घ ओर से ऐसा और इतना दान दिया गया है, यह देख कर वीरमती क्रोधाविष्ट हो गई। . नटराज शिवकुमार ने फिर एक बार चंद्र राजा की जयजयकार की और उसने रानी "रमता के पास जाकर उसने रानी से विदा माँगी। उसने कहा, “महारानीजी, अब आप आज्ञा 'ता हम यहाँ से आगे चलेंगे। आपकी कपा से हमें यहाँ बहत बडे-बडे इनाम मिले हैं। हम सब त्यंत संतुष्ट हो गए है।" . वीरमती से इतना कह कर और विदा पाकर नटराज शिवकुमार अपनी मंडली के साथ पिन मुकाम के स्थान की ओर चला गया। नाटकमंडली के वहाँ से चले जाते ही वीरमती रानी मुख से क्रोध का ज्वालामुखी फूट निकला। वह क्रोध का गरमागरम लावारस उगलने लगी र बड़ी-बड़ी आँखें करके लोगों को डराते-धमकाते हए गर्जना करती हुई सी वह बोली, पहा कान ऐसा बड़ा धनपति है जिसने मेरे पहले नटराज को इनाम दान-देने का साहस न्या ? दान देनेवाले ने भयंकर बडा दस्साहस करके मेरा भयंकर अपमान किया है / यदि मैंने स बड़े दानवीर को अपनी आँखों से देखा होता, तो अच्छा होता। लेकिन वह महान् भाग्यवान् खाई देता हैं कि मैंने उसे अपनी आँखों से देखा नहीं। अगर मैंने उसे अपनी आँखों से देखा ता, तो मैने उसे कब का यमसदन में अपने दान का फल चखने के लिए पहुंचा दिया होता। इस समय मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्र राजा ने नटराज को पहली बार इनाम दिया था इ बहुत अच्छा हो गया कि वीरमती इसे जान नहीं सकी। अन्यथा, मुर्गे के रूप में होनेवाले जा चंद्र को वीरमती ने जिंदा न छोड़ा होता / लेकिन शास्त्रों में कहा गया है कि - 'धर्म: रक्षति रक्षति:'। अर्थात, जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी रक्षा संकट के / नय में धर्म करता है। रानी वीरमती के पास बैठे हुए सुबुद्धि मंत्री ने वीरमती से कहा, "हे माता, आपको क्रोध रने का कोई कारण नहीं है। लगता है कि आप ही के किसी सेवक ने कलाकारों की कला से सन्न होकर भावावेश में आकर सबसे पहले इनाम दिया और फिर आप ही के जिन अन्य वकों ने नटराज और नाटकमंडली के कलाकारों को दान दिया, उन्होंने आपकी और आभापुरी कीर्ति में चार चाँद लगा दिए हैं। इसमें आपको नाराज होने का क्या कारण हैं ? P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036424
Book TitleChandraraj Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherSaudharm Sandesh Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size225 MB
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