________________ 20 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र आज्ञा का उल्लंघन करने की हिम्मत कोई नहीं कर सकेगा। लेकिन एक बात विशेष सावधानी से ध्यान में रख तुझे अपने पति राजा वीरसेन, सोत रानी चंद्रावती और सौतेले पुत्र चंद्रकुगार को थोडा सा भी दु:ख नहीं देना चाहिए / तुझे कभी मन में भी ऐसी बात नहीं लानी चाहिए कियह चंद्रकुमार मेरी सोत का पुत्र है, मेरा सगा पुत्र नहीं हैं। तू मेरी दी हुई इन चारों विद्याओं का सदुपयोग करना। इस शक्ति का कभी गलती से भी दुरुपयोग नहीं करना / कहीं ऐसा न हो कितुझे इन विद्याओं का अपच हो जाए।" वीरमती ने मुख्य अप्सरा का दिया हुआ सारा उपदेश सुन लिया और उसका नीला वस्त्र उसे लौटा दिया। अब सारी अप्सराएँ अपनी सारी नृत्यसामग्री लेकर वहाँ से शीघ्र अपने स्थान की ओर चल दी। रानी वीरमती फिर से मंदिर में आई। उसने ऋषभदेव भगवान की वंदना की और चुपचाप निकल कर तेजी से चुपचाप अपने महल में लौट आई और सभी दासियों की नजर बचा कर अपने शयनखंड में जाकर सो गई / वीरमती के इस गुप्त कार्य का पता किसी को मालुम नहीं पड़ा। रानी वीरमती ने दूसरे ही दिन प्रमुख अप्सरा की दी हुई विद्याओं की साधना प्रारंभ कर दी। कहा भी हैं - 'स्वार्थ साधने कोऽलसायते ?' . अर्थात्, स्वार्थ की साधना में कौन आलस्य करेगा ? जब मूर्ख मनुष्य भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने में कभी आलस्य नहीं करता, प्रमाद नहीं होने देता, तब वीरमती जैसी चतुर स्त्री 2. अपने स्वार्थ के लिए विद्यासाधना करने मे विलंब कैसे करती ? - कुछ ही दिनों में वीरमती ने वह चारों विद्याओं की साधना में सिद्धि प्राप्त कर ली। अब नि:संतान होने के दु:ख को भूल कर वह आनंदपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगी। जैसे रत्नों की प्राप्ति होने पर मनुष्य को सुवर्ण के अभाव का दुःख नहीं खटकता हैं, वैसे ही दिव्य विद्याओं की प्राप्ति होते ही अब वीरमती को पुत्र के अभाव का दु:ख बहुत नहीं अखरता है। बड़े सुख की प्राप्ति होने पर मनुष्य छोटा दुःख भूल जाता हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust