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________________ 198 श्री चन्द्रराजर्षि च-ि तुझे फाँसी दे देने का भी आदेश बिना हिचकिचाहट से दिया था। न जाने कैसे उस समय मे बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी कि मैं तेरे वास्तविक पति को भी पहचान न सका / कहाँ राजा चंद्र अ कहाँ वह कोढी कनकध्वज ? कहाँ सुवर्णमय मेरु पर्वत और कहाँ कंकड-पत्यरों से भरा पह ? कहां कंचन और कहाँ जस्ता ? कहाँ नंदनवन और कहाँ कूड़े-कर्कट का ढेर ? कहाँ कल्पवृ और कहाँ बबुल का पेड ? बेटी, मुझे तो लगता है कि तेरे पूर्वजन्म का पुण्यकर्म बड़ा प्रबल होगा। इसीसे तेरे दु: के दिन अब बीत गए और सुख का सूर्य तेरे जीवन में उदित हो गया है। इस समय मेरा मन ते प्रति किए गए दुष्कृत्य-अन्याय के लिए अत्यंत पश्चात्तापदग्ध हो रहा हैं / बेटी, अपने इस अपराधी पिता को क्षमा कर दे ! बेटी, मुझे पूरा विश्वास है कि तू उदार हृदय से मेरे तेरे प्रति किए गए अन्याय के लिए मुझेक्षमा कर देगी और अपने दुर्भाग्यपूर्ण भूतकाल को निरंतर के लिए भूल जाएगी।" अपने पिता के मुंह से ये सारी पश्चाताप की बातें सुन कर पिता को रोकते हुए प्रेमलालच्छी ने कहा, “पूज्य पिताजी, जो कुछ भी हुआ, उसमें आपका कोई दोष नहीं है / यह सब तो मेरे पूर्वकृत अशुभ कर्मो का ही दोष था। सभी संसारी जीव अपने किए शुभाशुभ कम के उदय से ही संसार में सुख-दु:ख पाते हैं। अन्य जीव तो इसमें निमित्त मात्र होते है। मुझे जे ऐसा गुणनिधि और पुण्यवान् पति मिला है, वह आपके प्रताप से ही मिला है। अन्यथा में त अभागिन और गुणों से रहित हूँ। इसलिए पिताजी, भूतकाल में जो कुछ भी धटित हुआ, उप भूल जाइए। जो कुछ भी हुआ था, वह मेरे अशुभ कर्म के उदय से ही हुआ था। कहा भी गय है कि - ‘गते शोको न कर्तव्या। और 'गतं नं शोच्यम्।' पिताजी, मैं तो यह भी कहती हूँ कि आपको उस समय जिन दुर्जनों ने भ्रम में डाल था उनका भी कल्याण हो। लेकिन पिताजी, अब मैं आप से हाथ जोड़ कर एक विनम्र प्रार्थना करती हूँ कि आप में और मेरे पति के प्रति होनेवाले अपने प्रेमभाव को बराबर बनाए रखिए / इसका कारण यह कि हमारी जीवनौका तो इस समय बिना पानी के सरोवर के मध्य में पड़ी है।" P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036424
Book TitleChandraraj Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherSaudharm Sandesh Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size225 MB
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