________________ 231 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हे स्त्री, इस जगत् में अग्नि से जलनेवाले को तो इस एक जन्म में ही कष्ट का अनुभव करना पड़ता है, लेकिन जो कामरूपी अग्नि से जलता है, उसे जनम-जनम तक नरकादि में पड़ कर तरह-तरह के भयंकर कष्ठ भोगने पड़ते हैं, नरक यातनाएँ सहनी पडती हैं। हे स्त्री, दूसरी बात यह है कि तू मेरी धर्म की बहन है | तूने उत्तम कुल में जन्म लिया = है। इसलिए मेरे सामने ऐसी हल्की बात कहना तुझे बिलकुल शोमा नहीं देता है।" चंद्र राजा की शील की दृष्टि से यह दृढ़ता देख कर वह विद्याधरी का बहाना बनाया हुआ देवता चंद्र राजा पर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने अपना विद्याधरी का कृत्रिम रूप त्याग दिया। और वह अपने मूल देवता के रूप में चंद्र राजा के सामने प्रकट हुआ। उसने बहुत खुशी से चंद्र ! राजा पर पुष्पवृष्टि की और कहा, "हे राजन्, आप धन्य हैं ! आपके माता-पिता धन्य हैं कि जिन्होंने आप जैसे नररत्न को जन्म दिया। स्वर्गलोक में इंद्र महाराज ने आज सौधर्म सभा में आपके सदाचार की भूरि-भूरि प्रशंसा की। लेकिन मेरे मन में संदेह उत्पन्न हुआ। इसलिए मैंने आपकी परीक्षा लेने का निर्णय किया और इसलिए मैं यह विद्याधरी का बहाना बना कर यहाँ आया था। इंद्र ने आपका जैसा वर्णन किया था, आप ठीक वैसे ही निकले। आपके शील और सदाचार की परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह सारा प्रपंच किया था, लेकिन आप उसमें बिलकुल नहीं फँसे / आप सचमुच धन्य : चंद्र राजा के सदाचार और शील की दृढ़ता से प्रसन्न हुए देवता ने चंद्र राजा को श्रेष्ठ वरदान, दिया, उसे प्रणाम किया और वह वहाँ से अंतर्धान हो गया। इधर चंद्र राजा भी इस घटना के बारे में सोचता हुआ अपने डेरे पर वापस चला आया। अगले दिन चंद्र राजा ने सपरिवार पोतनपुर से आगे की ओर प्रस्थान किया। बीच रास्ते में पड़ने वाले अनेक राजाओं को चंद्र राजा ने जीत कर अपने अधीन कर लिया और इन राजाओं की सात सौ राजकन्याओं से एक के बाद एक विवाह किए। तेज़ गति से यात्रा करते-करते आखिर एक दिन चंद्र राजा अपने परिवार के साथ आभापुरी के निकट आ पहुँचा। चंद्रराजा के आगमन का समाचार गुणावली, सुबुद्धि मंत्री तथा आभापुरी के प्रजाजनों को मिला। उन सबको खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, क्योंकि उनके प्रिय राजा चंद्र सोलह वर्षों के लम्बे वनवास के बाद अपनी नगरी में लौट आ रहे थे। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust