________________ 102 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र मकरध्वज सरल स्वभाव का व्यक्ति था, इसलिए जो कुछ भी हुआ था, उसे सच मान कर राजा ने सबको सांत्वना दी। राजा ने हिंसक मंत्री से इस दर्घटना के बारे में पछा. "मंत्रीजी, यह सब कैसे हुआ ?" हिंसक मंत्री ने कहा, “महाराज, ऐसा मालूम होता है कि आपकी कन्या विषकन्या है। इसके स्पर्श मात्र से हमारे कुमार की ऐसी दुर्दशा हो गई है। कल विवाह के समारोह में आपने तो हमारे राजकुमार का रूपसौंदर्य स्वयं ही देखा था। उसके रुपसौंदर्य के सामने कामदेव भी शरमा जाता था। लेकिन उसके रुप की आज ऐसी दुर्दशा हो गई है ! .. खैर, महाराज, अब आप अपनी कन्या को अपने घर ले जाइए और उसका जो कुछ भी करना हो वह कीजिए। हमें तो अब यह विषकन्या नहीं चाहिए, नहीं ही चाहिए। हम तो आपकी पुत्री के साथ हमारे राजकुमार का विवाह रचा कर बड़ी विपत्ति में फंस गए हैं।" यह दुःखदायक समाचार सुन कर राजा मकरध्वज की आँखों से आँसू बहने लगे। राजा मंकरध्वज अपनी कन्या प्रेमला पर इतने क्रुद्ध हो गए कि उसी समय अपनी म्यान से तलवार निकाल कर पुत्री की हत्या करने के लिए दौड़ पड़े। राजा को प्रेमला पर प्रहार करने के लिए जाते हुए देख कर राजा के दामाद कनकध्वज कुमार ने आगे आकर विनम्रता से राजा से कहा, “पूज्य ससुरजी, ऐसा क्रोध करना आपके लिए उचित नहीं है। इसमें आपकी कन्या का कोई दोष नहीं है, वह निरपराध है। सारा दोष तो मेरे ही पहले किए हुए दुष्ट कर्म का है। आपकी पुत्री तो मेरे कोढ़ रोग के लिए सिर्फ निमित्त मात्र है। मनुष्य के जीवन में जो कुछ भी अशुभ होता है, वह उसके अशुभ कर्म के उदय से ही होता है। इसमें किसी दूसरे को दोष देना सरासर दुष्टता है। सुख दुःख को देनेवाला दूसरा कोई नहीं, बल्कि मनुष्य का अपना पूर्वकृत कर्म ही होता है। लेकिन आप स्त्रीहत्या का पाप अपने सिर पर मत चढ़ा लीजिए।" राजकुमार कनकध्वज के वचनों को सुन कर राजा मकरध्वज का क्रोध शान्त हो गया। उसने कुमार से कहा, "हे कुमार, तुम्हारे कहने से मैं इस समय प्रेमला को जीवित छोड़ता हूँ। अन्यथा, मैंने इसी क्षण उसे यमसदन के लिए भेज दिया होता!" लेकिन अचानक हुई इस घटना के कारण राजा मकरध्वज का चित्त बेचेन हो गया। इस समय मुझे क्या करना चाहिए, इस विचार में राजा फँस गया। राजा तुरन्त राजसभा में चला आया और उसने अपने सुबुद्धि नामक मंत्री को बुला कर उसे सारी घटना कह सुनाई। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust