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________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र * . 223 है। वहाँ के राज्य का कारोबार भी मुझे ही सँभालना है। इस समय आभापुरी राजारहित होने से शून्य बन पड़ी है। आभापुरी की प्रजा बहुत दु:खी है। हे राजन्, आपको छोड़ कर वहाँ जाना मुझे बहुत आनंददायक नहीं लगता है। आपने मुझ पर बहुत उपकार किया है। आपके उपकार और आपके सौजन्य को मैं आजीवन नहीं भूले सकता हूँ। इसलिए यदि आप जन्द आज्ञा दे दें, तो मैं आभापुरी जाकर अपने राज्य की खबर लूँगा। मेरे यहाँ से जाने के बाद आप समय-समय पर अपने क्षेमकुशल का समाचार अवश्य भेजते रहिए। आप मुझे भूल मत जाना। मुझ पर आपका जो प्रेम हैं, वह बनाए रखिए।" मकरध्वज राजा ने आभानरेश राजा चंद्र की सारी बातें शांति से सुनी। उसने राजा चंद्र को आभापुरी लौट कर न जाने के लिए तरह-तरह से समझाया। लेकिन चंद्र को अपने विचार पर पक्का जान कर अंत में मकरध्वज ने कहा, “हे कुमार / उधार माँग कर लाए हुए आभूषण मनुष्य के पास शाश्वत समय के लिए नहीं रहते है और यात्री की प्रीति लम्बे समय तक नहीं टेकती है / आखिर मेहमान मेहमान ही होता है / आप खुशी से आभापुरी जाइए / अपनी जन्मभूमि की याद किसको नहीं आती है ? कुमार, मैं आपकी परिस्थिति अच्छी तरह समझ गयां हूँ। इसलिए अब आपको यहाँ और रूकने के लिए आग्रह नहीं करना चाहता हूँ। लेकिन कुमार, विश्वास कीजिए, आप भले ही मुझ से दूर चले जाएँ, लेकिन आप मेरे मनमंदिर में से कभी बाहर नहीं जा सकते हैं। मेरे हृदय में आपका स्थान बराबर बना रहेगा।" अपने ससुर राजा मकरध्वज का आदेश मिलने से चंद्रराजा को बहुत खुशी हुई। इधर राजा मकरध्वज चंद्र राजा के प्रयाण की तैयारी करने के लिए अपने सेवकों को आज्ञा दी। उधर चंद्र राजा ने भी अपने अधीन सामंत राजाओं को आभापुरी जाने के लिए तैयार होने को कहा। - मकरध्वज राजा ने अपनी पुत्री प्रेमला को अपने पास बुलाकर कहा, "प्रिय बेटी, तू तो साक्षात् गुणों की मूर्ति है। तू मेरी बहुत प्रिय पुत्री है। तूने मेरा और हमारे कुल का नाम ज्जवल कर दिया हैं / तुझे तो मालूम ही है कि तेरे पति आभापुरी जाने के लिए अत्यंत त्सुक है। मैंने तरह-तरह से समझाने पर भी वे मानते नहीं हैं। अब तू मुझे बता दे कि तू अपने ति के साथ जाना चाहती है, या यहीं रहना चाहती है ?' पिता की बात सुन कर प्रेमला ने कहा, 'हे तात, पतिव्रता स्त्री तो हरदम पति के पीछेछे छाया की तरह जाती है / मैं भी अपने पति के साथ ही जाना चाहती हूँ। विवाह के तुरंत द मैं एक बार ठगी गई थी। लेकिन अब मैं फिर से घोखा नहीं खाना चाहती हूँ।" P.P.AC.GunratnasuriM.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036424
Book TitleChandraraj Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupendrasuri
PublisherSaudharm Sandesh Prakashan Trust
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size225 MB
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