Book Title: Bruhat Paryushananirnay
Author(s): Manisagar Maharaj
Publisher: Jain Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।। ।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक:१ आराधना वीर जैन श्री महावी कोबा. अमृतं अमृत तु विद्या तु श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355 For Private And Personal Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir RA JK 10 .A AT.. ॥ अहम् ॥ श्रीशांतिनाथाय नमः॥ १.................... बृहत्पर्युषणा निर्णयः पूर्वार्द्ध, प्रथम-दूसरा खंड. .. कर्ता मान् परमपूज्य उपाध्यायजी श्री १००८ श्री सुमतिसागरजी महाराजके लघु शिष्य मुनि श्रीमणिसागरजी महाराज. __ प्रसिद्ध कर्ता लकत्ता, मुर्शिदाबाद, वीकानेर, जयपुर, जेसलमेर, मुंबई, धूलिया, चालीसगांव वगैरह शहरोके जैन संघकी द्रव्य साह्यतासे म अभयदेवसूरि ग्रंथमालाके कार्यवाहक कलकत्ता. तथा पवत्तसूरि ज्ञान भंडारके कार्यवाहक, शा.पानाचंद भगुभाई,सुरत. मूलग्रंथ बी. एल. प्रेस, कलकत्ता छपा. आदि, धि आरमाराम प्रिंटिंग अॅन्ड पब्लिशिंग कंपनी, श्री. वि. ". जावडेकर द्वारा भारमाराम छापखाना धूलियामें छपा. श्रीवीरनिर्वाण संवत् २४४७. विक्रम संवत् १९७८. वैशाख शुदी ३ मंगल वार. वार ३१५० कॉपी.] मेट मूल्य सत्य ग्रहण, For Private And Personal Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीचंद्रप्रभस्वामिने नमः॥ -rowom याद रखने योग्य उपयोगी सूचना. १-आत्मार्थी हे ! भव्यजीवों खरतरगच्छ, तपगच्छ,कमलागच्छ, अंचलगच्छ, पायचंदगच्छादिकके आग्रहकीबातें करने में आत्मकल्याण मुक्तिनहीं है, किंतु जिनाज्ञानुसारभावसे शुद्धधर्मक्रियाकरनेमें मु. क्तिहै.इसलिये अपने २ गच्छकी परंपरा रूढीको छोडकर जिनाशानुसार सत्यवातकी परीक्षाकरके उसमुजबधर्मकार्यकरो उससे श्रेयहो. २-श्रीसर्वज्ञ भगवान्के कहे हुए अतीवगहनाशयवाले, अपेक्षा सहित, अनंतार्थयुक्त जैनशास्त्र अविसंवादीहे, मगर “काधइ देसग्गहणं, कत्थइ घिति निरवसेसाई । उक्कमकम जुत्ताई,कारण वसओ निरुत्ताई ॥१॥" श्रीजंद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रकी वृत्तिके इस महावाक्य मुजय- सामान्य, विशेष, ओपमा, वर्णनक, उत्सर्ग, अपवाद, विधि, भय, निश्चय, व्यवहारादिक संबंधी शब्दार्थ, भावार्थ, लक्ष्यार्थ, वाच्यार्थ, संबंधार्थादि भेदोवाले गंभीरार्थके भावार्थ संबंधी शास्त्रवाक्योको समझे बिनाही अभी अविसंवादी सर्वशासनमें कितने गच्छोंके भेदोंका आग्रह बढगया है. देखो- "गच्छना भेद घडु नयण निहालता, तत्त्वनीवातकरतांन लाजे ! उदरभरणादि निजकाज करतांथ कां, मोहनडिया कलिकालराजे ॥१॥ देवगुरुधर्मनी शुद्धि कहो किमरहे, किमरहे शुद्ध श्रद्धान आणो । शुद्धश्रद्धाविना सर्वकरियाकरी, छारपर निपणो तेह जाणो ॥ २॥ पापनहीं कोई उस्सूत्रभाषण जि. स्युं, धर्मनहीं कोई जगसूत्र सरिखो। सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करें, तेहनो शुद्ध चारित्र परिखो ॥ ३॥ इत्यादि बातोंको विचार कर आत्मार्थियोको अपना असत्य आग्रहको छोडकर अपनी आत्माको हितकारी, सुत्रकारी होवे, वैसा सत्य ग्रहण करना चाहिये. ३- कितनेक मुनिमहाशय धर्षोवर्ष पर्युषणापर्वके व्याख्यानमें अधिकमहीनेके व श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकोकेनिषेध संबंधी चर्चा उठाते हैं, उससे भोले लोगोंको अनेक तरह की शंकायें उत्पन्न होती है, और कितनेही महाशयतो इन बातोमे तत्त्वष्टिसे सत्य असत्यका निर्णय किये बिनाही अपने पक्षको सत्य मान्य करके दूसरोंको झूठे. उहरानेका एकांत आग्रह करते हैं। शास्त्रों में एकांत आग्रहको और For Private And Personal Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शंकारूपी शल्यको एकप्रकारसे मिथ्यात्वही कहाहै, उसका निवारण करनेकेलिये और शास्त्रानुसार सत्य बातोका निर्णय बतलाने के लिये वर्तमानिक सर्व शंकाओका समाधान सहित मैन यह ग्रंथ बनायाहै, मगर मैरो तरफसे किसी तरहका नवीन विवाद शुरूकरनेकेलिये न. ही बनाया. इसलिये इस ग्रंथके बनाने में सुबोधिका, किरणावली वां चनेवाले कितनेक विद्वान् मुनि महाशयही कारणभूत है, पाठक गण इसमें मैरेको किसी तरहका दोषी न समझे, मैनें तो उन्होंकी शंका. ओंका समाधान लिखा है. ४- शुद्धश्रद्धाबिना द्रव्यसे व्यवहारमें चाहे जितनेधर्मकार्य करें, तो भी आरम कल्याण करने वाले नहीं होते, और आग्रही लोगोंकी अभी अलग २ प्ररूपणा होनेसे भोले जीवोंको जिनाशानुसार सत्य बातकी प्राप्ति होना बहुत मुश्किल होरहा है. और अविसंवादी रूप बागम-पंचांगी-प्रकरण-चरित्रादि सर्वशास्त्रोको मानने वालोंमें पर्युषणा-छ कल्याणक-सामायिकादि विषयों संबंधी शास्त्रकारमहाराजों के अभिप्रायको न समझनेसे व्यर्थही विसंवाद होरहा है, उसकानिर्णः य करनेके लिये और भव्य जीवाको शुद्धश्रद्धारूप सम्यक्त्व रत्नकी प्राप्तिके उपकारकेलिये मैने यह ग्रंथ बनायाहै । मगर किसी गच्छके साधु-श्रावकोंको किसी अन्य गच्छमें ले जाने के लिये नहीं बनाया. किसी गच्छमें रहो, परंतु आपसमें राग द्वेष निंदा ईर्षा अंगतविरो धादिक बखेडे छोडकर शुद्ध श्रद्धापूर्वक आत्मिक कल्याण करनेके लियेही इस ग्रंथकी रचना करने में आया है, इसलिये पक्षपात छोड. कर इस प्रथको यारंवार पूरेपूरावांच, विचार,मननकर सत्य समझ. करके शांति पूर्वक शुद्ध श्रद्धासहित अपना आत्मसाधन करके आस्मार्थी पाठकगण मेरे परिश्रमको सफल करेंगे. ५-जिनाशानुसार शुद्धश्रद्धापूर्वकभावसे धर्मकार्य करनेका योग महान्पुण्योदयहोव तय प्राप्तहोताहै, इसलिये उसमें लोकपूजा बहुत समुदायवैगरकी प्रवृत्तिमुजब करना योग्यनहीं है. इसकालमें आत्मा अल्पही होते हैं. कदाचित् गच्छ-गुरुपरंपरा-बहुत समुदाय वगैरह बाह्यकारणोंसे आशामुजब क्रियाकरनेका योग न बनसके तोभी शुद्धश्रद्धा-प्रकपणा तो आशामुजब सत्यबातोकीही करना योग्यहै,उससे भवांतरमे सुलभबोधिकी प्राप्ति हो सकेगी. मगर गुरु-गच्छलोकसमुदाय के आग्रहसे जिनाझा बाहिर क्रिया करतेहुए आशामुजब सत्यबातोका निषेध करनेसे भवांतरमे दुर्लभबोधिकी प्राप्ति होतीहै, For Private And Personal Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - [ ४ ] इसलिये भवभयको गुरु गच्छ व लोक समुदायादिकका पक्षरखनेके बदले जमालिके शिष्योंकी तरह जिनाशाका पक्ष रखनाही योग्य है, अर्थात् - जैसे अपने गुरु जमालिके उत्सूत्रप्ररूपणा के पक्षकोछोडकर बहुत भव्यजीव भगवान्की आज्ञामुजब मानने लगेथे, तैसेही - अभी भी आत्मार्थियों को करना योग्य है. यही सम्यक्त्वका मुख्य लक्षण है. Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६- मैरे बनाये इस एक ग्रंथके सामने अनेक ग्रंथ लिखे जाने की मैरेको कोई परवाह नहीं है, देखो-जैसे एकवीतराग सर्वज्ञभगवान् के परोपकारी जैन आगमोंके विरुद्ध हजारों मतवादी अनेक तरहसे अ पना २ कथन करते हैं. मगर तत्त्व दृष्टिसे आत्महितकारी सत्य बात क्या है, यही देखा जाता है. तैसेही- मेरे बनाये इस ग्रंथपरभी १-२ नहीं; परंतु १०-२० लेखकभी अपना २ विचार सुखसे लिखे. मगर जिनाशानुसार सत्य बात क्या है. यही देखना है. झूठे मतवादियों का यही स्वभाव है, कि - हजारों सत्य बातें छोड देते हैं, और अतिशयोक्ति या क्रोध में आकर क्लेश बढानेलगजाते हैं, मगर अपनी बात को छोडते नहीं. वैसे इस ग्रंथपर न होना चाहिये यही प्रार्थना है. ७- इस ग्रंथ में पर्युषणा संबंधी अधिक महीने के ३० दिनोंकी गिनती सहित आषाढ चौमास से ५० वें दिन दूसरे श्रावण में या प्रथम भाद्रपद मे पर्युषण पर्व का आराधन करनेका तथा श्रावण भाद्रपद आ सोज अधिक महीनें होंवे तव पर्युषणा के पीछे कार्तिकतक १०० दिन ठहरनेका खरतर गच्छ, तपगच्छ, अंचलगच्छ, पाय चंद्गच्छादि सर्व गच्छके पूर्वाचार्यों के वचनानुसार और निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पचूर्णि, पर्युषण कल्पचूर्णि स्थानांग सूत्रवृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रपाठानुसार अच्छी तरह से साबित करके बतलाया है। जैसे अधिक महोना होवे तोभी ५० दिने पर्युषणापर्व करने की सर्व शास्त्रोंकी आशा है, वैसेही- अधिकमदीना होवे तोभी पीछे हमेश ७० दिन रहने की आ शा किसीभी शास्त्रमें नहीं है, समवायांगसूत्रका पाठ तो सामान्य रीति से अधिक महीना न होवे तब ४ महीनोंके वर्षाकाल संबंधी है, उसका भावार्थ समझे बिना अधिकमहीना होवे तब अभी पांच म हीनों के वर्षाकालमें भी उसी सामान्य पाठको आगे करना और १०० दिन पीछे रहनेसंबंधी अनेक शास्त्रोंके विशेष पाठोंकी बातको छोड देना यह सर्वथा अनुचित है । ८- लौकिक टिप्पणा दो श्रावणादिमहीने होवे, तब पांच महीनोंका वर्षाकाल मान्य करना यह बात अनुभवसिद्ध प्रत्यक्ष प्रमाणानुसार For Private And Personal Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir है,तोभी उनको ४ महीनोंका वर्षाकाल कहनेसे मिथ्या भाषण करने कादोषआताहै। यदि अभी वर्तमानमें अधिकमहीनेश्रावणादि होनेपर भी जैनशास्त्रानुसार ४ महीनोंका वर्षाकालमानोगे, तो,पौष-आषाढ अधिक होनेवाला ८८ ग्रहसहित जैनपंचांगभी अभी मानना पडेगा. मगर वो जैनपंचांगतो अभी विच्छेदहै, इसलिये लौकिकपंचांग मुजच व्यवहार करनेमेंआताहै। अब यहांपर विवेकवुद्धिसे न्वायपूर्वक विचारकरना चाहिये, कि-अभी पोप-आषाढमहीनेकी वृद्धिवाला८८ ग्रह सहित जैनपंचांग विच्छेदभी मानना. व लौकिक पंचांग मुजब व्यवहारभी करना. और लौकिक पंचांग मुजब अधिकमहीने दो थावण,या दो भाद्रपद,वा दो आसोजभी मानने. फिर ४महीनोंकावर्षाकालभी कहना, यह तो 'बालचेष्टा की तरह पूर्वापर विरोधी वि. संवादी कथनकरना विवेकी विद्वानोंको सर्वथाही योग्य नहीं है। अ. धिकश्रावणादिमहीने नहींमानने होवे तो अभी अधिकपोषादि वाला जैनपंचांग बतावो अथवा लौकिक पंचांग मुजव अधिक श्रावणादि मानो तो अधिकपोषादिका बहाना बतलाकर ४ महीनोंकावर्षाकाल कहनेका आग्रहछोडो। अधिकश्रावणादिभी मानोंगे और ४ महीनोंका वर्षाकालभी कहोंगे, यह कभी नहीं बन सकेगा. विच्छेद जैनपं. चांगकी बातका आश्रय लेना और प्रत्यक्ष विद्यमान बातका निषेध करना, यह न्याय विरुद्धहै। पहिले पौष आषाढ बढ़तेथे तवभी फा. ल्गुन और आषाढचौमासा पांच महीनोंसे होताथा और अभी श्रावणादिवढतेहैं तब कार्तिक चौमासाभी पांचमहीनोंका होताहै.अभी जैनपंचांग विच्छेद होनेसे लौकिक पंचांग मुजब अधिक श्रावणादि मान्यकरके उसमुजय व्यवहार करना युक्तियुक्त व पूर्वाचार्योंकी आज्ञानुसारहै, जिसपरभी अधिक श्रावणादि होवे,तब पांच महीनों के वर्षाकालमें ५० दिने दूसरे श्रावण में या प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणापर्व आराधन करनेका उल्लंघन करना और पीछे १०० दिन रहने की जगह ७० दिन रहने का आग्रह करना सर्वथा अनुचित है देखो यद्यपि जैन पंचांग ४ महीनोंका वर्षाकाल कहाहै, परंतु जैन पंचांगके अभावसे अभी लौकिक पंचांग मुजय श्रावणादि बढतेहैं, तब पांच महीनोंका वर्षाकालभी मानना पड़ता है, इसलिये इसका निषेधकरना सर्वथा अनुचित है.बस! पौष-आषाढमहिनेकी वृद्धिसहित ४ महीनोके वर्षाकाल वाला जैन पंचांग शुरू बतावो या लोकिक पंचांग मुजब श्रावणादि बढे तब पांच महीनोंका वर्षाकाल For Private And Personal Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मान्य करो और जब पांच महीनोका वर्षाकाल मान्य हुआ तो फिर अधिकमहीना निषेध करनेकी व पर्युषणाके पीछे ७० दिन हमेश रखने वगैरहकी सर्व बाते आपही आप निष्फल हो जाती हैं इसतरहसे अधिकमहीनेकेनिषेधसंबंधी धर्मसागरजीने 'कल्प किरणावली' में, जयविजयजीने 'कल्प दीपिका में, विनयविजयजीने 'सु. बोधिका मे,कांतिविजयजी-अमरविजयजीने जैन सिद्धांत समाचारी' में,शांतिविजयजीने मानवधर्मसंहिता में,वल्लभविजयजीने जैनपत्रमें, विद्याविजयजीने 'पर्युषणाविचार में कुलमंडनसूरिजीने 'विचारामृत संग्रह में, हर्षभूषणजीने 'पर्युषणास्थिति में, और वर्तमानिक चर्चाके हेडबिले,किताचे वगैरहमें जो जो शंकायें की हैं, उन सर्व शंकाओंका खुलासा पूर्वक समाधान इस ग्रंथकी भूमिकामे व पीठिका और इस ग्रंथ अच्छी तरहसे लिखनेमें आयाहै, इसलिये जिनाशानुसार धर्मकार्य करने की इच्छावाले,सत्यतत्त्वाभिलाषी,आत्माहितैषी पाठक गण इसग्रंथको पूर्णतया वांचकर सत्यसार ग्रहण करें। ९-तीर्थकर भगवान्के व्यबन-जन्म-दीक्षादिकोको कल्याणक मा ननेका आगमानुसार अनादि सिद्ध है,इसलिये श्री महावीरस्वामि. भी देवलोकसे देवानंदामाताके गर्भमे आषाढ शुदी ६ को आये उनको प्रथम च्यवन कल्याणक, और आसोजवदी १३ को देवानंदामा. ताकेगर्भसे त्रिशलामाताके गर्भ में आयेः सो गर्भापहाररूप (गर्भसंक्रमणरूप)दूसराच्यवन कल्याणक माननेका स्थानांग-आचारांग-दशाश्रुतस्कंधादिक आगम पंचांगी प्रकरण चरित्रादि अनेक शास्त्रानुसा. र और वङगच्छ, चंद्रगच्छ, उपकेशगच्छ (कमलागच्छ ) खरतर. गच्छ,तपगच्छ, अंचलगच्छ, पायचंदगच्छादि अनेक गोके पूर्वा. चार्योंके ग्रंथानुसार अच्छी तरहसे सिद्ध करके पतलायाहै. च्यवनजन्म-दीक्षादिकोंको चाहे वस्तु कहो, चाहे स्थानकहो, चाहे कल्याणक कहो. इन तीनोबातों में प्रसंगोपात संबंधानुसार पर्याय वाचक एकार्थवाले शब्द अलग २ हैं, मगर सबका भावार्थ एकही है, उसबातकामेद समझे बिनाही च्यवन-जन्म-दीक्षादिकाको वस्तु-स्थान कहकर कल्याणक पनेका निषेध करके आगमार्थरूप पंचांगीको उ. स्थापनकरनेके दोषी बनना किसीकोभी योग्य नहीं है। १०- श्रीवीरप्रभुके आषाढ शुदी ६ को प्रथम च्यवनकल्याणक मान्यकरके आसोजवदी १३ को दूसरेच्यवनको कल्याणकपनेका नि. वेध करनेवालोंको न्यायबुद्धिसे विचार करना चाहिये, कि-तीर्थकर For Private And Personal Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भगवान्केच्यवनकल्याणकसमय उनकी माता१४महास्वप्न आकाशसे उत्तरतेहुपदेखतीहै, उसीसमय तीनजगतमें उद्धयोत होता है य सर्व संसारीप्राणीमात्रको सुखकीप्राप्तीहोती है, और इन्द्रमहाराजका आसन चलायमान होनेसे अवधिज्ञानसे भगवान्को देखकर विधिपूर्वक पूर्णभक्तिसहित नमुत्थुणरूप नमस्कारकरके तत्काल माताके पासआकर१४ महास्वप्न देखनसे स्वप्नों के अनुसार तीनजगतकेपूज्यनी क तीर्थकर पुत्र होनेका कहकर इन्द्रमहाराज अपने स्थानपरजाते हैं. और प्रभातसमय फजरमें राजा स्वप्न पाठकोंसे १४ महास्वप्नौकाफल पूछताहे,तव तीर्थकर पुत्र होनेका सुनकर हर्ष सहित महोत्सव क. रता है, और इन्द्र महाराज देवताओं द्वारा उस रोजसे भगवान के माता-पिताके घरमे धन धान्यादिकसे राज्य ऋद्धिकीवृद्धि करवाते हैं इत्यादि तीर्थकरभगवान्के च्यघनकल्याणकके कार्यहोते हैं, यही सर्व कार्य आषाढशदी के रोज भगवान देवानंदामाताके गर्भ में आये तब नहीं हुप,किंतु आसोज वदी १३के रोज त्रिशलामाताके गर्भमें आये, तब उससमय हुपहैं, क्योंकि देखो-आषाढ सुदी ६ को तो प्राचीन कर्मके उदयसे भगवान् ब्राह्मणीदेवानंदामाताके गर्भभे आये. और दिनतकवहां ठहरनापडा,उनको कल्पसूत्रादिक शास्त्रों में अच्छेरा कहाहै, इसलिये ८२ दिन तकतो इन्द्रादिक किसीकोभी तीर्थकरभगवान्के उत्पन्न होनेकी मालूम न पड़ी,मगर संपूर्ण८२ दिन गयेबाद इन्द्रमहाराजको अवधिज्ञानसे मालूम पडी उसीसमय पूर्णहर्षसहित नमुत्थुणकिया और हरिणेगमेषिदेवको आज्ञाकरके क्षत्रियाणीत्रिशला माताके गर्भमे पधराये, तब त्रिशलामाताने (देवानंदाके १४महास्वप्न हरणकरनेकारस्वप्न नहीं देखा किंतु)तीर्थकर भगवान्के च्यवन क. ल्याणककी सूचनाकरने वाले १४ महास्वप्न आकाशसे उत्तरत हुए और अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखे हैं. इसलिये खास कल्प: सूत्रके मूल पाठमेभी "एए चउद्दस सुमिणा, सव्वा पासेई तिस्थयर माया। जं रयणि धक्कमई, कुच्छिसि महायसो अरिहा"अर्थात्-जिस समय तीर्थकर भगवान् माताके गर्भमें आकर उत्पन्न होते हैं,उस समय यह १४ महास्वप्न सर्व तीर्थंकरमहाराजोंकी मातायें देखती, वैसेही-त्रिशलामातानेभी १४ महास्वप्न देखे हैं, इसलिये त्रिशलामा ताके गर्भमे आने कोही शास्त्रकार महाराजोने व्यवन कल्याणक मा. न्य कियाहै, इसीकारणसे समवायांगसूत्रवृत्ति देवानंदामाताके गभंसे त्रिशला माताके गर्भ में आनेको अलग भव गिनकर तीर्थकर For Private And Personal Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८] पनेमें प्रकट होने कालिखाहै. और 'महापुरुष चरित्र' में तथा 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' आदिक प्राचीन शास्त्रों में भी ८२ दिन गये बाद इन्द्रका आसन चलायमान होनेसे अवधिज्ञानसे भगवानको देखकर नमुत्थुगं किया और त्रिशलामाताके गर्भपधराये, जब त्रिशलामाताने १४महास्वप्न देखे,तब खास इन्द्रने त्रिशलामाताके पासमें आकर तीर्थकर पुत्र होनेका कहा है, और फजरमें स्वप्न पाठकॉसभी तीर्थकर पुत्र होनेका सुनकर सबको तीर्थकर भगवान्के उत्पन्न होने की मालूम होगई. इसलिये कल्पसूत्रमें जो नमुत्थुणंका पाठ है, सोमी आसोज वदी १३ के दिन संबंधी है, किंतु आषाढ शुदि६ के दि. न संबंधी नहीं है, क्योंकि देखो- 'नमुत्थुणं करके त्रिशलामाताके ग. भेमें पधराये' ऐसा कल्पसूत्रादिमें खुलासालिखाहै, मगर आषाढ शु. दीदको आसनप्रकंपनसे नमुत्थुणं किया और फिर उसके बादमें ८२ दिन गये पीछे त्रिशलामाताके गर्भ में पधराये. या ८२दिन तो इन्द्रको विचारकरते चलेगये. वा पूरे ८२ दिन गयेबाद आसोज वदी १३ को फिर आसन प्रकंपनसे त्रिशलामाताके गर्भपधराये. अथवा ८२दिन ठहरकर पीछे त्रिशलामाताके गर्भ में पधराये. ऐसे पाठ किसीभी शास्त्रमें नहीं है. मगर ८२दिन तक तो मालमभी नहींपड़ी, परंतु ८२दिन जाने बादआसन प्रकंपनहोनेसे मालूम पडी, तब नमुत्थुणं किया और उसी रोज पधराये, ऐसे पाठ तो "महापुरुष चरित्र” में तथा “ त्रि. षष्ठिशलाका पुरुष चरित्र" आदि अनेक प्राचीन शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक प्रत्यक्ष मिलतेहैं, इसलिये आसोज वदी १३ कोही ' नमुत्थुणं' वगैरह च्यवन कल्याणकके तमाम कार्य होनेसे आगम पंचांगीकी श्रद्धावालोको व श्रीवीरप्रभुकी भक्तिवालोको यह दूसरा च्यवमरूप कल्याणक मान्य करनाही उचित है, बस ! आसोज वदी १३ कोही नमुत्थुणं करने वगैरह च्यवन कल्याणकके तमाम कार्य होनेका मान्यकरो या आषाढ शुदी ६ को नमुत्थुणं करने वगैरह च्यवन कल्याणकके तमाम कार्य होनेका खुलासा पूर्वक शास्त्रपाठ घतलायो,व्यर्थ विवाद करने में कोई सार नहीं है. ११- श्रीआदीश्वर भगवान्के राज्याभिषेकम तो कोईभी क. ल्याणकके लक्षण नहीं है, मगर गर्भापहारसे गर्भ संक्रमणरूप दूस. रे च्यवनमें तो च्यवन कल्याणकके सर्व लक्षण प्रत्यक्ष मौजूद है, इ. सलिये उसका भावार्थ समझे बिनाही राज्याभिषेककी तरह गर्भापहारकोभी कल्याणकपनेका निषेध करना यहभी बे समझ है । For Private And Personal Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ९ ] १२- श्री आदीश्वरभगवान् १०८ मुनियों के साथ 'अष्टापद'पर मोक्ष पधारे सो अच्छेरा कहते हैं, तोभी उनको मोक्ष कल्याणक मा. नने में कोई भी बाधा नहीं आसकती. तैसेही-श्रीवीरप्रभुकेभी देवानंदा माताके गर्भ में आनेसे विशलामाताके गर्भ में जाना पड़ा. सो अच्छेरारूप कहते हैं, तोभी उनको च्यवनकल्याणक मानने में कोई भी बाधा नहीं आसकती. इसलिये अच्छेरा कहकर कल्याणकपनेका निषेध करना यहभी घे समझही है. १३- और श्री मल्लिनाथस्वामि स्त्रीपनेमें तीर्थंकर उत्पन्न हुए हैं, तोभी चौवीश तीर्थकर महाराजॉकी अपेक्षासे सामान्यतासे पुरुषपनेमें कहनेमेतेहै. तैसेही श्रीवीरप्रभुकेभी छ कल्याणक आचारांग. स्थानांगादि आगामे विशेपतासे खुलासापूर्वक कहे हैं, तोभी 'पंचाशक' में सर्व तीर्थकर महाराजोंकी अपेक्षासे सामान्यतासे पांच क. ल्याणक कहेहै, उसकाभावार्थ समझे बिनाही सर्वजिनसंबंधी पांच. कल्याणकोका सामान्य पाठको आगे करके आचारांग-स्थानांगादि आगामें कहे हुए विशेषतावाले छ कल्याणकोका निषेधकरना यह भी बे समझका व्यर्थही आग्रह है। १४-इसतरहसे आगमपंचांगीके अनेक शास्त्रानुसार तीर्थकर, ग. णधर,पूर्वधरादि प्राचीन पूर्वाचार्योंके कथनमुजब गर्भापहारको दूस रा च्यवनरूप कल्याणकपनाप्रत्यक्षसिद्ध होनेसे.श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजने चितोडमें छठे कल्याणककी नवीनप्ररूपणाकी, पहिले नही थी, ऐसा कहेनाभी वे समझसे व्यर्थही है। १५-और गर्भापहाररूप दूसरे च्यवनकल्याणकके अतीव उत्तम कार्यको 'सुबोधिका 'टीकामें अतीव निंदनीक कहकरके निंदाकीहै, सोभी भगवान्की आशातनाकारक होनेसे सम्यक्त्वको व संयमको हानीपहुंचानेवालीहै, उसका तत्वदृष्टिसे विचारकिये बिनाही विद्वान् कहलानेवाले सर्व मुनिमहाराज वर्षों वर्ष पर्यषणापर्वके मांगलिक रूप व्याख्यान समय ऐसी अनुचित बातको वांचते हैं, यह बड़ीही शर्म की बात है, भवभीरू आत्मार्थियोंको ऐसा करना कदापि योग्य नहीं हैं । इन सर्व बातोंका विशेष निर्णय प्रथम भागी भूमिका और इस ग्रंथके उत्तरार्द्ध में अच्छी तरहसे लिखने में आयाहै, उनके वांचनेसे सर्व बातोंका निर्णय हो जावेगा. १६- सामायिकमें प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पी. छेसे इरियावही करनेसंबंधीभी आवश्यकचूर्णि-वृहद्वात्त-लधुवृत्तिनवपदप्रकरण विवरणरूपवृत्ति-दूसरीवृत्ति श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति For Private And Personal Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०] पंदित्तासूत्रचूर्णि-श्राद्धदिनकृत्यसूत्रवृत्ति-पंचाशकचूर्णि-वृत्ति-विचारामृतसंग्रह-धर्मसंग्रहवृत्ति-संबोधसत्तरी प्रकरणवृत्ति-जयसोमोपाध्याय जी कृत 'ईयोपधिकी षट्त्रिंशिका विवरण', श्रावकप्राप्ति वृत्ति इत्यादि अनेक शास्त्रानुसार श्रीजिनदासगणिमहात्तराचार्यजीपू. र्वधर, श्रीहरिभद्रसूरिजी,अभयदेवसरिजी,हेमचंद्राचार्य जी, देवेंद्रस्रिजी, देवगुप्तसूरिजी, वगैरह सर्व गच्छोंके प्राचीन पूर्वाचार्योंने सामायिक विधिमे प्रथम करेमिमंतेका उच्चारण किये बाद पछिस इ. रियावही करके स्वाध्याय, ध्यानादि धर्मकार्य करनेका बतलाया है, यहीषात जिनाशानुसारह.पहिले सर्व गच्छोंमें इसीप्रकारसही सामा. यिकविधि करतेथे, मगर पीछेसे कितनेही चैत्यवासियोंने अपनी मतिकल्पना मुजव प्रथम इरियावही पीछेकरेमिभंते स्थापन करनेका आग्रहचलायाथा, उनकीपरंपरामुजब अबीभी कितनेकमहाशय प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करने के लिये अन्य कोई भी प्रकर अक्षरवाले शास्त्रप्रमाण न मिलनेसे महानिशीथ-दशवैकालिकादिकके अधूरे २ पाठासे संबंध विरुद्ध अर्थ करके सामायिक प्रथमहरियावही पीछेकरेमिभंते ठहराते हैं ,परंतु उससे अनेक दोष आ. ते है, उसका विचारभी कभी नहीं करते हैं. देखो - विसंवादी शास्त्रोकों व विसंवादी कथन करनेवालीको शास्त्रों में मिथ्यात्वी कहेहैं, इसलिये जैन शास्त्रोको व पूर्वाचार्योंको अविसंवादी कहने में आतेहैं, और आवश्यकचूर्णिआदि अनेकशास्त्रामसामायिकम प्रथमफरेमिभंते पीछेहरियावहीके पाठमौजूद होनेपरभी महानिशीथ-दशवकालिकादिसे प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेस सर्वक्ष शास्त्रोमें विसंवादरूप यह प्रथमदोषआताहै.और आवश्यक रडी टीका, महा निशीथका उद्धार, दशवकालिक बडीटीका यह सर्वशास्त्र श्रीहरिभ. दसूरिजी महाराजने किये हैं, इसलिये आवश्यक बड़ी टीकाके विरुद्ध महानिशीधसे प्रथम इरियावही ठहरानेसे इन महाराजक कथनमें घिसंवाद आनेरूप यह दूसरा दोषआताहै. आवश्यकादिमे सामा. यिकके नामसे प्रथमफरेमिभंते पीछेहरियावही खुलाला लिखीहै,महा. निशीथके तीसरेअध्ययनमें उपधानसंबंधी चैत्यवंदन स्वाध्यायादि. करनेकापाठहै, दशवैकालिककी टीकामें साधुके गमनागमन (जाने आने) संबंधी इरियावही करके स्वाध्यायादि करने का पाठहै, इस. प्रकार भिन्न २ अपेक्षा वाले शास्त्रोके पाठौके संबंध विरुद्ध होकर अ. धूरे २ पाठोंसे सामायिकौमी प्रथम दरियावही बहरानेसे शास्त्रोंकी For Private And Personal Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [११] मर्यादाका भंगहोनेरूप यह तीसरा दोषआताहै. और सर्व गीतार्थपू. र्वाचार्योंने महानिशीथादि देखेथे, उन्होंके अर्थकोभी अच्छी तरहसे जानतेथे, तोभी सामायिकमें प्रथम इरियावही नहींलिखी, जिसपर. भी अभी महानिशीथसे सामायिकमे प्रथम इरियावही ठहरानेसे उ. न सर्व गीतार्थ पूर्वाचार्योंको महानिशीथके अर्थको नहीं जाननेवाले अशानी ठहरानेका यहचौथादोषआताहै. और सर्वपूर्वाचार्योंने सामा. यिकम प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावही लिखीहै,उसको उत्थापनकरनेसे सर्व पूर्वाचार्योंकी आज्ञा लोपनेका यह पांचवा दोषभी आताहै. और आवश्यकचूर्णि आदिक सर्व शास्त्रोंके विरुद्ध होकर सामायिक में प्रथम इरियावही स्थापन करनेसे आगम पंचांगीके उत्थापनरूप यह छठा दोषआताहै. और खास तपगच्छके श्रीदेवेंद्रसूरिजी,कुलमंडनमृरिजी वगैरहोनेभी सामायिक प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासा लिखी है, उसकेभी विरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेसे अपने पूर्वज बडील आचार्योंकीभी अवज्ञा करनेरूप यह सातवा दोषभी आताहै. इसप्रकार सामायिकमें प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही कहनेका निषेध करके प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरानेसे अनेक दोष आते हैं, इ. सका विशेष खुलासा पूर्वक निर्णय शास्त्रोके संपूर्ण संबंधवाले पा. ठोकेसहित इसीग्रंथके दूसरेभागकी पीठिकाके पृष्ठ८७से ११२ पृष्ठतक और इस ग्रंथमेभी पृष्ठ ३१० से ३२९ पृष्ठ तक छपगयाहै. वहां सर्व शंकाओका खुलासा समाधान करने में आया है, इसलिये आत्मार्थी भव्य जीवोंको जिनाज्ञानुसार, सर्व गच्छेोके पूर्वाचार्योंके वचनानु. सार, प्राचीन अनेक शास्त्रानुसार, तीर्थकर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंकी भाव परंपरानुसार सामायिक प्रथम करेमिभंतेका उच्चा. रण किये बाद पीछेसे इरियावही करनाहीयोग्यहै, और प्रथमइरियावही करनेकी अभी थोडेकालकी गच्छकीरूढीके आग्रहको छोडनाही श्रेयरूप है । इस बातको विशेष तत्त्वज्ञ जन आपही विचार लेंगे. जिन २ महाशयोंको इतना बडा संपूर्णग्रंथ वांचनेका अवकाश न होवे; उनमहाशयोंको इस ग्रंथके प्रथमभागकी भूमिका और दूसरे भागकी पीठिकाको अवश्यही वांचनाचाहिये. मैने भूमिका-पीठिकामें अन्य २बाते नहींलिखी,किंतु इसग्रंथकासार और सर्वशंकाओका थोडेसे में समाधानमात्रही लिखाहै इसलिये भूमिका-पीठिका वांचनेवालोंको ग्रंथकासार अच्छीतरहसे मालूम होसकेगा. इतिशुभम् . For Private And Personal Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । र , इसग्रन्थके उत्तरार्द्धके तीसरे खंडकी-जाहिर खबर. १.इसग्रंथके उत्तरार्द्धके तीसरेखंडमें आगमादि अनेकप्राचीन शास्त्रानुसार,व चंद्रगच्छ,वडगच्छ, स्वरतरगच्छ,तपगच्छ,अंचलगच्छ, पायचंद्गच्छादि सर्वगच्छोंके पूर्वाचार्योंके बनाये ग्रंथानुसार श्रीवीर प्रभुके छ कल्याणक मान्यकरनेका अच्छी तरहसे सिद्ध करके बतलाया है. और शांतिविजयजीने जैनपत्र में, विनयविजयजीने 'सुबोधिका में, कांतिविजयजी-अमरविजयजीने 'जैनसिद्धांत सामाचारी' में, श्रीआत्मारामजीने 'जैन तत्त्वादर्श में, धर्मसागरजीने 'कल्पकिरणावली' 'प्रवचन परीक्षा' वगैरहमें जो जो छ कल्याणक नि. षेध संबंधी शंकायें की हैं. और शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्रायको समझे बिनाही अधूरे२ पाठ लिखकर उनके खोटे २ अर्थ करके भोले जीवोंको उलटा मार्ग बतलानेकी कोशिश की है, उन सर्वबातोंका समाधान सहित निर्णय इसमें लिखने में आया है। २-और श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजसे वस्तिवासी-सुविहितखरतर विरुदकी शुरूयात हुयीहै,इसलिये श्रीनवांगीवृत्तिकारक श्री. अभयदेवसूरिजी महाराज खरतर गच्छमें हुए हैं, यह बात प्राचीन शास्त्रानुसार तथा तपगच्छके पूर्वीचार्योंके बनाये ग्रंथानुसार सिद्धकरके बतलायाहै । और कोई महाशय श्रीजिनदत्त सूरिजी महाराजसे संवत् १२०४में खरतरगच्छकी शुरूयातहोनेका कहते हैं, सोभी सर्वथा असत्य है. क्योंकि-इन महाराजसे सं.१२०४ में खरतरगच्छकी शुरूयात होनेका कोईभी कारण नहीं हुआ है. व्यर्थ झूठे आक्षेप करने बडी भूल है, देखो-१२०४में तो खरतर गच्छकी तीसरी शाखा हुईहै. इस बातका अच्छीतरहसे खुलासा इसग्रंथमें करने में आयाहै. ३-और जैनशास्त्रोंकी यह आज्ञा है, कि-यदि अपनी गच्छ परंपरामें ३-४ पेढीके आगेसेही शिथिलाचार चला आता होवे, तो क्रिया उद्धार करनेवाले दूसरेगच्छके अन्यशुद्ध संयमीके पासमें क्रिया उद्धार करें. अर्थात्- उनके शिष्य होकरके शुद्ध संयम पालें, उससे पहिलेकी शिथिलाचारकी अशुद्ध परंपरा छुटकर, क्रिया उद्धार करवानेवाले गुरुकीशुद्धपरंपरा मानीजावे. देखो जैसे-श्रीआत्माराम जीने ढूंढियोंके झूठेमतको छोडकर तपगच्छमें दीक्षाली है. इसलिये यद्यपि पहिलेढूंढियेथे तोभी उनकीपरंपरा ढूंढियों मेंनहींलिखी जावे; किंतु तपगच्छमेंही लिखीजावे. तथा कोई शिथिलाचारी यति अपने गुरु व गच्छको छोडकर अन्यगच्छवाले शुद्धसंयमाके पासमे क्रिया For Private And Personal Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३ ] उद्धारकरें (फिरसे दीक्षालेवे)तो उनकी यतिपनकी अशुद्धपरंपरा छु. टकर जिमगुरुके पासमें क्रिया उद्धार किया होगा, उन्हीं गुरुकीशुद्ध परंपरा चलेगी । इसी तरहसे श्रीवडगच्छके जगचंद्रसूरिजी महाराजने अपनेको व अपनी गच्छ परंपराको शिथिलाचारी अशुद्ध जानकर छोडदियाथा और श्रीचैत्रवालगच्छके शुद्ध परंपरावाले शुद्ध संयमी श्रीदेवभद्रोपाध्यायजीके पासमें क्रिया उद्धार कियाथा,अर्थात्-उनके शिष्य होकर शुद्ध संयमी बने थे. और उसके बादमें बहुत तपस्या करनेसे 'तपा' विरुद मिलाथा, उस रोजसे इन महाराजकी समुदायवाले तपगच्छके कहलाये गये. इसलिये श्रीदेवेंद्रसूरिजीमहाराजने और श्री क्षेमकार्तिसूरिजी महाराजने श्रीजगचंद्रसूरिजीमहाराजकी पहिलेकी शिथिलाचारकी वडगच्छकी अशुद्ध परंपरा लिखना छोडकर; इनमहाराजकी चैत्रवाल गच्छकी शुद्ध परंपरा अपनी बनाई 'धर्मरत्न प्रकरण वृत्ति' में और 'श्रीबृहत्कल्प भाग्य वृत्ति' में लिखीहै. यही शुद्ध परंपरा लिखना जिनाशानुसार है, मगर पहिलेकी वडगच्छकी अशुद्ध परंपरा लिखना जिनाशानुसार नहींहै.यह बात अल्पशभी अच्छी तरहसे समझसकताहै. जिसपरभी अभी वर्तमानि क तपगच्छके विद्वान् मुनिमंडल देवेंद्रसूरिजी वगैरह महाराजोंकी लिखी हुई जिनाशानुसार चैत्रवालगच्छकी शुद्ध परंपराको छोड देते हैं.और जिनाशाविरुद्ध शिथिलाचारी वडगच्छकी अशुद्ध परंपराको लिखते हैं. यह सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है. इन सर्व बातोंका विस्तार पूर्वक खुलासा इस ग्रन्थके उत्तरार्द्ध में लिखा गयाहै. सोभी छपकर तैयार होगयाहै, इस पूर्वार्द्धके प्रकट हुएबाद, थोडे समयसे उत्तराईभी प्रकट होगा, सो संपूर्ण तया वांचनेसे सर्व निर्णय हो जावेगा. विद्वान् सर्व मुनिमंडलसे विनति. श्रीमान-विजयकमलसूरिजी, विजयधर्मसूरिजी, विजयनेमिसूरिजी, बुद्धिसागरसूरिजी, विजयवीरसूरिजी, विजयनीतिसूरिजी विजयसिद्धिसूरिजी, आनंदसागरसूरिजी, उ०इन्द्रविजयजी, प्र० श्री कांतिविजयजी-मंगलविजयजी, पं० गुलाबविजयजी-धर्मविजयजीकेशरविजयजी-दानविजयजी-मणिविजयजी- अजितसागरजी, श्री हंसधिजयजी-कपूरविजयजी-वल्लभविजयजी-कल्याणविजयजी-लब्धिविजयजी-आनंदविजयजीआदि विद्वान्सर्व मुनिमंडलसेविनति. आप यह तो जानतेहीहै, कि-श्रीनिशीथचूर्णिमें वर्षाऋतुमेही मु. For Private And Personal Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४ ] नियोकों आलोयणा लेने का कहा है, और अभी श्रावणादिमहीने बढ़ें. तब पांच महीनोंके दश पक्ष १५० दिन वर्षाकालके होते हैं, उसमें आयंबिल, उपवास, नवकरवाली गुणने वगैरह से जितने दिन धर्मकार्य होंगे: उतनेही दिन आलोयणाकी गिनती में आवेंगे, इसी तरहसे वर्षी और छ मासी तपके दिनों में व ब्रह्मचर्य पालने वगैरह कायमै भी अधिक महीने के ३० दिन गिनती में आते हैं । इस हिसाब से धर्मकार्य में व कर्म बंधन के व्यवहारमें सूर्यके उदय अस्त (रात्रि दिनके) परिवर्तनके हिसाब से और अंग्रेजी, मुसलमानी, पारसी, बंगलाकी तारिख के हिसाब से भी आषाढ चौमासीसे जब दो श्रावण होवै: तब भाद्रपद तक, या जब दो भाद्रपद होवे तब दूसरेभाद्रपद तक ८० दिन होते हैं, उसके ५० दिन कहते हैं, और जब दो आसोज होंवे तब कार्तिक तक१०० दिन होते हैं, उसकेभी ७० दिन कहते हैं. यहबात संसार व्यवहारके हिसाब से, रात्रिदिनके जाने के ( समय के प्रवाह के) हिसाब से, धर्म शास्त्रोंके हिसाब से, ज्योतिषपंचांग के हिसाब से, राज्यनीति के हिसाबसे, और धर्म-कर्मके अनादि नियमके हिसाब से भी सर्वथा विरुद्ध है. और अन्य दर्शनियोंके विद्वानोंके सामने जैनशासनको कलंक रूपहै. इसलिये मेहेरबानी करके बहुत समयकी गच्छ परंपराकी रूढीरूप प्रवाहके आग्रहको छोडकर जिनाशाका विचार करके यह अनुचित रीवाजको वगर बिलंब से सुधारने की कौशिश करें. इसके संबंध में स बातोंका खुलासापूर्वक समाधान इस ग्रंथकी भूमिकाके ४७ प्रक रण व सुबोधिकादिककी २८ भूलोंवाले लेखमें और इस ग्रंथ में अच्छी तरह से लिखने में आया है, उसको पूरेपूरा अवश्यवांचे और योग्य लगे उतना सुधाराकरें, पक्षपात झूठा आग्रह शास्त्रविरुद्ध बहुत लोगों की समुदाय व गुरुगच्छकी परंपरा हितकारी नहीं है, किंतु जिनाज्ञाही हित कारी है. परोपदेशकेलिये बहुत लोगबडे कुशल होते हैं, मगर वैसाही कार्य करनेवाले आत्मार्थी बहुत ही अल्प होते हैं, यहभी आपजानते ही है. और सर्वज्ञ शासन में कर्मबंधन व धर्मकार्य संबंधी समय २ का व श्वासोश्वासका हिसाब किया जाता है, उसमें ८० दिनके ५० दिन और १०० दिनके ७० दिन कहनेवाले, यदि कसाई व व्यभिचारी वगैरह पापप्राणियों के कर्मबंधन और साधु मुनिमहाराजोंके व ब्रह्मचारी वगैरह धर्मी प्राणियों के कर्मक्षयकरने संबंधी भी ८० दिन के ५० दिन, व १०० दिन के ७० दिन कहेंगें, तब तो सर्वज्ञ भगवान् के प्रवचन - की व धर्म-कर्मकी अनादिमर्यादा भंग करनेके दोषी ठहरेंगे, अथवा For Private And Personal Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१५] ८० देन व १०० दिन के धर्म-कर्म समय २ के श्वासोश्वासके हिलाब से सर्वज्ञ भगवान् के प्रवचनानुसार अनादिमर्यादा मुजब मान्य करेंगे, तो - ८० दिन के ५० दिन, व १०० दिन के ७० दिन कहने का आग्रह झूठाही ठहरजावेगा. यहभी न्यायबुद्धि से विचारने योग्य है, विशेष क्या लिखे. देव द्रव्य निर्णयः । १ - वर्तमानिक देवद्रव्यकी चर्चा संबंधी अर्पण बुद्धिसे भगवानको चढाई हुई वस्तु देव द्रव्यमें गिनी जाती है, यह बात सर्वमान्य है, इसी तरहसे पूजा और आरती की बोलीभी अर्पण बुद्धिसे पहिले सेही संघ तरह से भगवान्को चढाई हुई वस्तु हैं, अर्थात् देवद्रव्यमे जानेका नियम होचुका है, उनको अन्य मार्ग में ले जाने से बिनाकार संघकी आज्ञा भंगका व भगवान्को अर्पण की हुई वस्तु रूपांतर से पीछी लेनेका दोष आता है, इसलिये ऐसा करना योग्य नहीं है। २- भगवान् की पूजा आरति की बोली कलेश निवारण करनेके लिये नहीं है, किंतु शुद्ध भक्ति के लिये है, देखो - अपने अनुभवसे यही मालूम होता है, कि बहुत भाविक जन आज अमुक पर्व दिवस है, मैरी शक्तिके अनुसार आज १०।२० या १०० २०० रुपये भगवान की भक्ति के लिये देवद्रव्य में जावें तोभी कोई हरज नहीं है, मगर आज तो भगवान्की पहिली पूजा-आरति मैं करूं, तो मैंरे कल्याण-मंगल हवे, वर्षभर भगवान की भक्ति में जावें, इसी निमित्तसे मैरा द्रव्य भगबानकी भक्ति में लगेगा. तो मैरी कमाईभी सफल होवेगी, और सुकृत की कमाईवालेभाग्यशालीको आज भगवान्की भक्तिका पहिला लाभ मिलेगा ऐसा कहने में भी आता है. इत्यादि शुभभाव से बोली बोलते हैं, इस लिये कलेश निवारणकेलिये बोली बोलनेका ठहराना योग्य नहीं है. औरभी देखो - भगवान् के मंदिर बनवाने व प्रतिमा भरवाने में महानू लाभ कहा है, यह कार्य भक्तिकेलिये धर्म बुद्धिसे करने की शास्त्राशा है. तोभी कितने बेसमझलोग नामकेलिये या अभिमानसे वा देखा देखी के विरोधभावले करते हैं, सो यह अनुचित है. इसी तरहसे बोली बोलनेका रीवाजभी भगवान् की भक्ति के लिये महान् लाभका हेतु है, तो भी कितनेक बेसमझ लोग नामकेलिये या अभिमानसे वा देखादेखी के विरोध भाव से बोलते हैं. उनको देखकर बोली बोलने के रीवाजको भक्ति राग छोडकर कलेश निवारणका हेतु ठहराना योग्य नहीं है. तथा देवद्रव्यकी तरह साधारण द्रव्यकी भी बहुतही आवश्यकताहै, उसमें बेदरकारीका दोष मुनिमंडल व आगेवानोंपर है. ओ. For Private And Personal Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१६] रभी देव द्रव्य संबंधी सर्व शंकाओंका समाधान व साधारण द्रव्यकी वृद्धि के लिये उपायवगैरह बहुतबातोंके खुलासे समाधान देवद्रव्य निर्णय' नामा पुस्तक लिखनेमे आवेंगे. निवेदन और उपकार. इसग्रंथकी कोईबात समझमें न आवे, या वांचते २ कोई शंका होवे, तो इस ग्रंथके कर्ताको लिखकर खुलासा मंगवानेका सबको हक है, ग्रंथ संबंधी सब तरहका जवाबदार लेखक है. . इस ग्रंथमें अनुमान ३०० शास्त्रोंके प्रमाण बतलाये गयेहैं, इस ग्रंथके बनवाने संबंधी शास्त्रोंके संग्रह करने वगैरहमें, श्रीमान् जि. नयशसूरिजीमहाराज, श्रीमान् शिवजीरामजीमहाराज, श्रीमानजिन चारित्रसूरिजीमहाराज,श्रीमान् कृपाचंद्रसूरिजीमहाराज, पन्यासजी श्रीमान् केशरमुनिजीमहाराज,पं०श्रीमान् गुमानमुनिजीमहाराज और कलकत्तानिवासी उ.श्रीमान् जयचंद्रजीगणि व रायबहादुर बद्रीदास जीजौहरीवगैरहोंने जो जो मदतदीहै, उनका मैं उपकार मानता हूं. संवत् १९७८ वैशाख शुदी ३. हस्ताक्षर मुनि-मणिसागर. बिनाकिंमतभेटसे पुस्तक मिलनेके नाम व स्थान. यहग्रन्थ एकहजार पृष्ठकाबडाहोनेसे दो विभागमें प्रकटकियाहै. १ बृहत्पर्युषणा निर्णय पूर्वाद्ध, प्रथम-दूसरा खंड. २ बृहत्पर्युषणा निर्णय उत्तरार्द्ध, तीसरा खंड. ३ लघुपर्युषणा निर्णयका प्रथम अंक. .. ४ प्रश्नोत्तर विचार. ५-६-७ प्रश्नोत्तर मंजरीके १-२-३ भाग. ८-९ हर्षहृदय दर्पण १-२ भाग. १० आत्मभ्रमोच्छेदन भानुः. यह ग्रन्थभी छपनेवाले हैं. १ देवद्रव्यनिर्णय. २ न्यायरत्न समीक्षा. ३ प्रवचनपरीक्षा निर्णय. १ श्रीमद् अभयदेवसूरि ग्रन्थमाला कार्यालय, ठे० श्रीजैनश्वेतांबर मित्रमंडल केनिंगस्ट्रीट नं. २१, मु०-कलकत्ता. २ श्रीमद् अभयदेवसूरि ग्रन्थमाला कार्यालय, ठे० बडा उपाश्रय देश-मारवाड, मु०-वीकानेर. ३ श्रीजिनदत्तसूरिजी शानभंडार, ठे० गोपीपुरा-शीतलवाडी देश-गुजरात, मु०-सुरत. ४ जौहरी माठूमल्लजी धनपतसिंहजी भणशाली, सुंदरबील्डिंग ठे० फतहपुरी, मु०- दिल्ली. For Private And Personal Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥ॐ॥ श्रीपंचपरमेष्ठिभ्यो नमः प्रथम भागकी भूमिका पहिले इसको अवश्यही पढिये. मांगलिक्यके करनेवाले श्रीस्थंभनपार्श्वनाथ जिनेश्वर भगवान् को नमस्कार करके, श्रीजिनाशाके अभिलाषी सर्व सजन महाशयोंकों निवेदन किया जाता है, कि-जन्म-मरण-रोग-शोक-आधि-व्याधि संयोग-वियोगादि--उपाधियुक्त दुष्तर संसार समुद्र के परिभ्रमणका दुःख निवारण करनेके लिये, आत्महितैषी पुरुषोंको जिनाज्ञानुसार शांतिपूर्वक धर्मकार्य करने चाहिये । जिसमें वर्तमानिक द्रव्य गच्छ परंपरा बहुत समुदायकी देखादेखीकी रूढीको अहितकारी जानकर त्याग करनाचाहिये। और सुधारेके जमानेमें गच्छांतरोंके भेदोंकी भिन्न भिन्न प्रवृत्ति देखकर शंकाशील होकर धर्मकार्यों में शिथिलता कर. नाभी योग्य नहीं है, किंतु 'मैरा सो सच्चा' कााग्रह छोडकरमध्यस्थ बद्धिसे गुणग्राही होकरके सत्यकी परीक्षाकरके उसको अंगीकार करना, यही मनुष्य जन्मकी सफलताका कारण है । यद्यपि खंडनमंडनके विवादमें सत्यासत्यका विचार छोडकर अपनापक्ष स्थापन करने के लिये शुष्कवाद या वितंडावाद करनेवाले आजकल बहुत लोग देखे जाते हैं मगर दूसरेकी सत्यवात अंगीका. र करके अपना असत्य आग्रहको छोडनेवाले बहुतही थोडे देखने में आते हैं. जब दूसरेके पक्षका खंडन करनेके ईरादेसे उद्यम करनेमें आता है, तब उसपक्षवालोंकी अनेक शास्त्रोके प्रमाणसहित युक्तिपूर्वक सत्यबातकोभी छोडकर भोले जीवोंको अपना पक्ष सत्य दिखलाने के लिये शास्त्रोंके आगे पीछेके संबंध वाले सब पाठोको छुपाकरके थोडेसे अधूरे २ पाठ लिखते हैं, तथा शास्त्रकारोंके अभिप्राय वि. रुद्ध उनके अर्थ करते हैं, या शास्त्रीय. बातको झूठी ठहरानेकेलिये कुयुक्तियेभी लगानेमें उद्यम किया जाता है. अथवा विषय संबंध For Private And Personal Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २ ] छोडकर विषयांतर लेकर निष्प्रयोजन व्यक्तिगत आक्षेप करने लग जाते हैं. और अपनी या अपने पक्षकारोंकी बिनाप्रसंगही बडाई करने लगते हैं । मगर शास्त्रोंमेंतो कहा है. कि- आत्मप्रदेशगत मिथ्यात्व से भी प्ररूपणागत मिथ्यात्व अधिक दोषवाला होनेसे अनेक भवभ्रमण करानेवाला होता है । और अनादिकाल से ११ अंगादिशास्त्रों को देखकर अनंतजीव संसा र परिभ्रमणके दुखः से मुक्त होगये हैं, और अनंतजीव संसारपरि भ्रमणके दुःखको बढानेवालेभी होगये हैं । इसका आशय यही है कि, अतीव गहनाशयवाले, अपेक्षा गर्भित शास्त्रकारोंके अभिप्रायको समझकर वर्ताव करनेवाले तो मुक्तिगामी होते हैं, और शास्त्रकारों के अभिप्राय विरुद्ध होकर शब्दमात्र के आग्रह में पडकर विवाद करनेवाले संसारगामी होते हैं। मगर जो आत्मार्थी होते हैं, वो तो शब्द मात्र के विवादको छोडकर तात्पर्यार्थ तरफ दृष्टि करते हैं, और जो आग्रही होते हैं वो तात्पर्यार्थको छोडकर शब्दमात्र के विवादको विशेष बढाते हैं। इसीही कारणसे रागद्वेषादि भाव शत्रुओं को हटानेवालाश्रीवीतराग सर्वज्ञ भगवान्‌का कथन किया हुआ अविसंवादी शांतिप्रिय श्रीजैनशासनमेंभी अभी विसंवादरूपी विरोध भावको स्थान मिलगया है । और पहिले तो सर्व तीर्थकर महाराजोंके जितने गणधर होतेथे उतनेही गच्छ [ साधु समुदायकी ओलखान ] होतेथे और पीछे भी प्रभाव बहुत समुदाय होनेसे कुल-गण- शाखा वगैरह होते थे, मगर सबकी प्ररूपणा और क्रिया एक समान होनेसे संपशांतिसे मिलते हुए आत्मकल्याण करतेथे, उस समय विरोधी प्ररूपणा के अभाव से किसीको भी कोई तरहकी शंका उत्पन्न होनेका कारण या अपने गच्छके आग्रहका कारण नहींथा, मगर श्री वीरप्रभुके निर्वाणबाद पडताकाल होने से कितनेक शिथिलाचारी चैत्यवासी होगये, उम्हसे गच्छेका आग्रह और भिन्नभिन्न प्ररूपणा विशेष होने लगी तबसेही शास्त्रोक्त जिनपूजा विधिमें कुछ अविधिभी होगई, और जैन पंचांगके विच्छेद होनेपर जैनसमाज लौकिक टिप्पणा मानने लगा, उसमें श्रावणादिभी महीने बढते हैं । उस मुजब वर्तावशुरू कि या, तबसे महामांगल्यकारी शांतिमय् अतीव उत्तम पर्युषणा जैले प र्व आराधनकरनेमेंभी भेद पडगया और शासन नायक श्रीवर्द्धमानस्वामीके छ कल्याणक नहीं मानने वगैरह कितनही बातोंका विवाद For Private And Personal Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीमन्मुनिवर्य श्रीमति सागरजी महाराज । ज्ञाति वोशाओसवाल, नागोर मारवाड़। जन्म संवत १८१७। दीक्षा संवत १८४४ । 1. A. School, Calcutta, For Private And Personal Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३] उपस्थित होगया. उसके विषयमें आगे लिखने में आवेगा, मगर इस जगह तो हम केवल पर्युषणा संबंधी थोडासा लिखतेहैं. जैन पंचांगके अनुसार जब वर्ताव करने में आताथा, तब पर्युषणा करनेसंबंधी " अभिवढियमि वीसा, इयरेसु सवीसई मासो" इत्या. दि निशीथ भाष्य,चूर्णि, बृहत्कल्प भाष्य,चूर्णि,वृत्ति, पर्युषणाकल्प नियुक्ति,चूर्णि,वृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्रोंमें खुलासा लिखा है, कि, आषाढ चौमासीसे वर्षाऋतुमें जीवाकुलभूमि होनेसे जीवदयाके लिये मुनियोंको विहार करनेका निषेध और वर्षाकाल में एक स्थानमें ठहरना, उसका नाम पर्युषणाहै । इसलिये जब अधिक महीना होवे तब उसको तेरह [१३] महीनोंका अभिवर्द्धित वर्ष कहते हैं, उस वर्षमें आषाढ चौमासीसे २० वे दिन प्रसिद्ध पर्युषणा करना । और जिस वर्षमें अधिक महीना न होवे, तब उसको १२महीनोंका चंद्रवर्ष कहते हैं, उस वर्षमें आषाढ चौमासीसे ५० वें दिन प्रसिद्धपर्युषणा करना [ वर्षाकालमें रहनेका निश्चय कहना] उसीमेही उ. सीदिन वार्षिक कार्य और उसका उच्छव किया जाता है, यह अनादि नियमहै इसलिये निशीथभाष्य,चूर्णि,पर्युषणा कल्पनियुक्ति,चू. णि, जीवाभिगमसूत्रवृत्ति, धर्मरत्नप्रकरणवृत्ति, कल्पमूत्रमूल और उसकी सर्व टीकाओं में संवच्छरी शब्दकोभी पर्युषणा शब्दसे व्या. ख्यान कियाहै,और प्रसिद्ध पर्युषणाकरनेके दिनसे भिन्न [अलग] वा. र्षिक कार्योंका दिन कोईभी नहीं है, किंतु एकही है, इसीको पर्युषणा पर्व कहो, संवच्छरीपर्व कहो, सांवत्सरिकपर्व कहो या वार्षिकपर्व कहो, सबका तात्पर्य एकही है । और कारणवश " अंतरा विय से कप्पई, नो से कप्पइ तं रयणि उवायणा वित्तए "इत्यादि कल्पसूत्र वगैरह शास्त्र पाठोंके प्रमाणसे आषाढ चौमासीले ५०वें दिन पहिले तो पर्युषणा करना कल्पताहै, मगर ५०वें दिनकी रात्रिकोभी उल्लंघन करके आगे पर्युषणा करना नहीं कल्पताहै और५०वें दिनतक पर्युषणाकरनको ग्रामनगरादि योग्यक्षेत्र न मिलसके तो, जंगलमेभी वृक्ष नीचेभी अवश्यही पर्युषणाकरनाकहाह.और अभिवद्धितवर्षम२०दि. ने तथा चंद्रवर्षमे५०दिने पर्युषणानकर और विहार करें तो "छक्काय जीव विराहणा"इत्यादि स्थानांगसूत्रवृत्तिवगैरह शास्त्रपाठोसे छक्कायके जीवोंकी विराधना करनेवाला. आत्मघाती, संयम और जिना. शाको विराधन करनेवाला कहा है। यह नियम जैन पंचांगानुसार पौष और आषाढ बढताथा तब चलताथा, मगर जबसे जैन पंचांग For Private And Personal Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४] विच्छेद हुआ, तबसे लौकिक टीप्पणा मुजब मास-पक्ष-तिथी-चार नक्षत्र-मुहूर्त्तादि व्यवहार जैन समाजमें शुरू हुआ. उसमें श्रावण भाद्रपदादि मासभी बढ़ने लगे.तब जैनसंघने श्रीवीर निर्वाणसे९९३ वर्षे अधिक महीने वाला वर्ष २०दिने पर्युषणापर्व करने की मर्यादा बंध करी और अधिक महीना हो,चाहे न हो, तो भी ५०वें दिन प. र्युषणापर्वमें वार्षिक कार्य करनेका नियम रख्खाहै. सो “जैनटिप्प. नकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगांते चाऽऽषाढ एव वर्धते नान्ये मासास्तट्टिप्पणकं तु अधुना सम्यग् न ज्ञायते ततः पंचाशतव दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृद्धाः यह पाठ कल्पसूत्रकी सुबोधिकादिसर्व टीकाओमें प्रसिद्धही है। उसके अनुसार श्रावणबढेतो दूसरेश्रावणमें और भाद्रपदबढेतो प्रथम भाद्रपदमें ५०दिने पर्युषणापर्वका आराधन करना जिनाज्ञा है। और पहिले मास वृद्धिके अभावसे५०वें दिन प. र्युषणा करतेथे, तब पर्युषणाकेबाद कार्तिक तक ७० दिन ठहरतेथे,मगर जब मास वृद्धि होनेपर २० दिने पर्युषणा करतेथे,तब तो पर्युषणाके पिछाडी कार्तिक तक १०० दिन ठहरतेथे,यहबात निशीथमा. ध्य-चूर्णि-पर्युषणाकल्पचूर्णि,बृहत्कल्पचूर्णि,वृत्ति जीवानुशासनवृत्ति गच्छाचारपयन्नवृत्ति,स्थानांगसूत्रवृत्ति, वगैरह अनेक शास्त्र पाठोंसे सिद्ध होतीहै । और वर्तमानमें श्रावण, भाद्रपद तथा आश्विन बढ़नेपरभी५०दिने पर्युषणापर्व करनेसे पिछाडी कार्तिक तक १०० दिन ठहरते हैं । यह भी कल्पसूत्रकी सर्व टीकाओंके अनुसार होनेसे जि. नाशानुसारही है, इसलिये इसमें किसी प्रकारका दोष नहीं है। इस ऊपरके शास्त्रीय लेखपर दीर्घ दृष्टिसे निष्पक्ष होकर मध्यस्थ बुद्धिसे विचार किया जावे तो स्पष्ट मालूम हो जावेगा,कि-पर्युषणा पर्व करनेमे जैन टिप्पणानुसार या लौकिक टिप्पणानुसार आधिक मास अथवा कोईभी मास, या कोईभी दिन कभी बाधक नहीं होसकताहै. क्योंकि पर्युषणापर्वकरनेमे५०दिनोंकी गिनतीकाव्यवहारिक शास्त्रीय नियम होनेसे पर्युषणा पर्व दिन प्रतिबद्ध ठहरते हैं. किंतु मास प्रतिबद्ध कभी नहीं ठहरसकते । और ५० दिनोंकी गिनतीमें अधिक महीनेके३० दिवस तो क्या मगर एक दिवस मात्रभी गिनती कभी नहीं छुट सकता । जिसपरभी पर्युषणा पर्व-दो श्रावण होनेपरभी भाद्रपद मास प्रतिबद्ध ठहराना १. अधिक महीनेके ३० दिनोंकों बीचमेसे छोड देना २. वीश दिनोसे पर्युषणा पर्व करने की बातको सर्वथा उडा देना ३. श्रावण भाद्रपद या आश्विन बढनेसे १०० For Private And Personal Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दिन होनेपरभी उसको ७० दिन कहनेका आग्रह करना ४. सो यह सब बाते सर्वथा शास्त्रकारों के विरुद्ध हैं. अध पर्युषणा पर्व करने संबंधी ५० दिनोंकी गिनती करनेमें अधिक महीनेके ३० दिनोंको गिनती से छोड देनेका आग्रह करने के लिये कितनेक लोग शास्त्रविरुद्ध होकर कितनीक कुयुक्तिये करते हैं, उसके विषयमें थोडासा लिखते हैं । १- कल्पसूत्रादिमें आषाढ चौमासीसे दिनोंकी गिनतीसे ५० वे दिन अवश्यही पर्युषणापर्व (वार्षिक कार्य) करने कहेहैं, उसमें अधिक महीनेका १ दिनमात्रभी गिनती में नहीं छुट सकता.और ५०वें दिनकी रात्रिकोभी उलंघन करनानहीं कल्पताहै । जिसपरभी वर्तमामिक कितनेक लोग श्रावण भाद्रपद बढनेपर ८० दिने पर्युषणापर्व करतेहैं, सो शास्त्रविरुद्ध है, इसका विशेष खुलासा इसीही "बृहत्पर्युषणा निर्णय " ग्रंथकी आदिसे पृष्ट २७ तक देखो. २-अधिकमहीनेके ३० दिन जैनशास्त्रों में गिनती में नहीं लिये, ऐसा कहते हैं सो भी शास्त्र विरुद्ध है, अधिक महीने के ३० दिनोंको दिनोंमें, पक्षामे, मासोंमें, वर्षों में और युगकी गिनती में खुलासापूर्वक गिनेहें,इसका विशेष खुलासा देखो इसी ग्रंथके पृष्ठ २८ से४८तक ३- अधिकमहीना काल चूलारूप है, सो गिनतीमें नहीं लेना ऐसा कहते हैं सो भी शास्त्र विरुद्ध है, निशीथचूर्णि, दशवैकालिक बृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रोंमें अधिक महीनेको काले चूलाकी शिखर रूप श्रेष्ठ, (उत्तम) ओपमादी है, और उसके ३० दिनोंको गिनतीमेंभीलिये हैं. इसकाभी विशेष खुलासा देखो इसी ग्रंथके पृष्ठ ४९ से ६५ तक । तथा पृष्ठ ७५ से ९१ तक. . ४- पर्युषणाकल्प चूर्णि तथा निशीथ चूर्णिके पाठसे दो श्रावण होवे तो भी.भाद्रपद्म पर्युषणापर्वकरनेका ठहरातेहैं, सोभी शास्त्रविरुद्धहै,दोनों चूर्णिके पाठामें अधिकमहीना पौष अथवा आषाढ होवे तब उसके३०दिनोंको गिनती में लेकर आषाढ चौमासीसे२० वें दिन श्रावणमें पर्युपणा पर्व करना लिस्खाहै, और अधिक महीना न. होवे तव ५० वें दिन भाद्रपदमें पर्युषणा करना लिखा है । और ५० वे दिनको उल्लंघन करनेवालोंको प्रायश्चित्त कहा है, इसलिये दोश्रावण होनेपरमी ८० दिने भाद्रपदमें पर्युषणा पर्व करना योग्य नहीं है। और अधिकमासके ३० दिन गिनती छोड देनाभी शास्त्र विरु For Private And Personal Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्ध है. इसकाभी विशेष खुलासा देखो दोनों चूर्णिके विस्तार पूर्वक पाठो सहित इसीग्रंथके पृष्ठ ९१ से १०६ तक. ५-जैन टिप्पणामें अधिकमहीना होताथा तबभी २० वें दिनश्रावण शुदि पंचमीको पर्युषणा पर्वमें वार्षिक कार्य होतेथे, इसलिये २० वे दिनकी पर्युषणामे वार्षिक कार्य कभी नहीं हो सकते, ऐसा कहनाभी सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है, इसकाभी विशेष खुलासा दे. खो इसीग्रंथके पृष्ठ १०७ से ११७ तक, ६- श्रावण भाद्रपद या आश्विन बढे तो भी ५० वै दिन पर्युषणापर्व करनेसे शेष कार्तिक मास तक १०० दिन होते हैं, जिसपरभी ७० दिन रहनेका आग्रह करते हैं, सो भी शास्त्र विरुद्ध है, ७० दिन रहनका तो मास वृद्धिके अभाव संबंधीहै,मगर मास वृद्धि होवे तबतो १०० दिन रहना शास्त्रानुसार हैं। इसकाभी विशेष खुलासा इस ग्रंथम पृष्ठ ११७ से १२८ तक, तथा १७४ से १८५ तक देखो.. ७- अधिकमहीना होवे उसवर्षके १३ महीने व एक चौमासेके ५ महीने होते हैं. उतनेही महीनोंके कर्मबंधनभी होते हैं, तोभी उसमे १२ महीनोके व ४ महीनोके क्षामणेकरने कहते है. सोभी शा. स्त्र विरुद्ध है. अधिक महीना होवे तब १३ महीनोंके व ५ महीनोंके क्षामणे करने शास्त्रानुसार हैं; इसकाभी विशेष खुलासा पृष्ठ १३३ से १३६ तक. और पृष्ठ ३६२ से ३७८ तक देखो. ८-अधिक महीनेमें सूर्यचार नहीं होता, ऐसा कहनाभी शास्त्रविरुद्धहै, छ छ महीने१८३ वे दिन, सूर्य दक्षिणायनसे उत्तरायनमें और उत्तरायनसे दक्षिणायनमें हमेशा होता रहता है, उसमें अधिक महीनेके ३० दिनोभी जैनशास्त्र मुजब या लौकिक टिप्पणामुजबभी सूर्यचार होताहै. इसकाभी विशेष खुलासा देखो इसी ग्रंथके पृ. ष्ठ १३७ से १३२. तक. ९- अधिक महीने के ३० दिनों में देवपूजा, मुनिदान, प्रतिक्रमण वगैरह धर्मकार्य करने, मगर उसके ३० दिनोंको गिनती नहीं लेने का कहना,सोभीप्रत्यक्ष शास्त्र विरुद्धहै. जितने रोज देवपूजादि धर्मकार्य किये जायेंगे, उतने दिन अवश्यही गिनती में लिये जावेगें, और जैसे मुनिदानादि कार्य दिन प्रतिबद्ध हैं, वैसेही पर्युषणपर्वभी५०दिन प्रतिबद्ध हैं. इसकाभी विशेष खुलासा पृष्ठ १४२ से १४३ तक देखो १० अधिक महिनेमें विवाह आदि शुभकार्य नहीं होते, उसमु. For Private And Personal Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७ ] अब पर्युषण पर्व भी नहीं हो सकते. ऐसा कहनाभी प्रत्यक्ष शास्त्र विरुद्ध है, मुहूर्त्तवाले विवाहादि तो मलमास, अधिकमास, क्षयमास, १३ महिनोंके सिंहस्थ, अधिक तिथि, क्षयतिथि, गुरुशुक्रका अस्त और हरि शयनका चौमासा वगैरह कितनेही, तिथि- वार-नक्षत्र मास वगैरह योगों में नहीं किये जाते, मगर बिना मुहूर्त्तके धर्मकार्य करने में तो किसी समयका निषेध नहीं हो सकता. इसी तरह से पर्युषण पर्व भी अधिकमास में, तथा १३ महीनोंके सिंहस्थ में, और चौमासेमही करने में आते हैं । इसमें अधिकमहीना या कोईभी योग बाधक नहीं हो स कता है. इसका भी विशेष खुलासा पृष्ठ १९३ से २०४ तक देखो. ११- अधिक महीनेको वनस्पतिभी अंगीकार नहीं करती, ऐसा कहनाभी शास्त्र विरुद्ध है, अधिक महीने के ३० दिन तो क्या परंतु १ दिन मात्रभी वनस्पति कभी नहीं छोड सकती, किंतु हरेक समय प्रत्येक दिवसको अंगीकार करती है. इसका भी विशेष खुलासा इसी ही ग्रंथ २०५ से २१० तक देखो इत्यादि मुख्य २ बातों संबंधी शास्त्रीय प्रमाण और युक्तिपूर्वक इस प्रथमभाग में अच्छतिरहसे खुलासापूर्वक लिखने में आया है. और इस ग्रंथको पक्षपात रहित होकर संपूर्ण पढनेवाले सनको सत्यासत्य की परीक्षा स्वयं होसकेगी, इसलिये यहां पर विशे ष लिखने की कोई अवश्यकता नहीं है । इस ग्रंथ कारका उद्देश क्या है ? इस ग्रंथकारका मुख्य उद्देश यही है, कि सबगच्छवाले आपस में हिलमिलकर संपपूर्वक सुखशांतिसे धर्मकार्य हमेशांकरें, मगर पर्यषणा जैसे अतीव उत्तम धार्मिकशांति के दिनों में अधिक महीने के ३० दि नको धर्मकार्यों में गिनतमिले छोड देनेके लिये तपगच्छके कितनेक मुनिमहाराज जो खंडन मंडनका विषय व्याख्यानमें चलाते हैं, सो सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है, और समय केभी प्रतिकूल होनेसे कर्मबंधन, संप व शासनहिलना कराने वाला है. (इसीबातका विषेश निर्णय इसी ग्रंथ में अच्छी तरहसे लिखा गया है ) उसको ( इस ग्रंथ के संपूर्ण वांचे बाद) अवश्यही बंध करना योग्य है. पक्षपात रहित ग्रंथकी रचना. "पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिर्मद्वचनं यस्य, तस्थ कार्यः परिग्रहः ॥ १॥" इत्यादि श्रीहरिभद्रसूरिजी जैसे महापुरुषों के न्यायानुसार पक्षपात रहित होकर आगम पंचांगी सम्मत युक्तिपू For Private And Personal Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [e] वैक खरतरगच्छ, तपगच्छ, अंचलगच्छादिसर्व गच्छवालोंके शास्त्र वा क्योंका संग्रह इस ग्रंथ में करनेमें आया है । मगर अमुक गच्छवाले के अमुक आचार्य के वाक्य हमको मंजूर नहीं, ऐसा एकांत आग्रह किसी जगहभी करने में नहीं आया. और शास्त्रविरुद्ध व युक्ति बाधित वाक्य तो किसी गच्छवाले काभी मान्य करना योग्य नहीं. यह बात सर्व जन सम्मतही है, वोही न्याय इस ग्रंथ में रख्खा गया है. इसलिये पाठकगणकोभी किसी गच्छ समुदायका पक्षपात न रखकर अवश्य ही इस ग्रंथको संपूर्ण अवलोकन करके सार निकालना चाहिये. इस ग्रंथ का लेखक मैं खास संसारीपने में तपगच्छका वीसापोरवाल श्रावकथा, मगर उपाध्याय जी श्री सुमतिसागरजी महाराजके पास श्रीसिद्धक्षेत्र (पालीताणा ) में विक्रम संवत् १९६० वैशाख शुदी २ को ख - रतरगच्छ में दीक्षा अंगीकार की, तो भी दोनों गच्छोंके पूर्वाचार्योपर तथा वर्तमानिक मुनिमहाराजोंपर पूज्यभाव था, और है भी । मगर जिस २ अंश में शास्त्र विरुद्ध होकर परंपरा के बहाने जिल२बातों का झु ठाही आग्रह किया गया है, उन बातोंकी आलोचना करके शास्त्रानुसार सत्य बातें जनसमाज में प्रकट करनी, यह मैंरा खास कर्तव्यही समझ कर मैंने इस ग्रंथ में इतना लिखा है । इसमें किसीको पक्षपात न समज ना चाहिये. और किसीको नाराज होनेकाभी कोई कारण नही हैं । वर्तमानिक समयके अनुसार परंपराकी अंधरूढीको त्यागना और सत्यको ग्रहण करना, सब सज्जनोंको प्रिय है । और समय बदलता जाता है, तथा संपसे शासनोन्नति के कार्य करने की बहुत जरुरत है, इसलिये कुसुंप बढानेवाला पर्युषणाके व्याख्यानमें आपसका खंडन मंडन चलाना योग्य नहीं है. विशेष दूसरे, तीसरे और चौथे भाग में अनुक्रम से लिखने में आवेगा । क्षमा याचना तथा अपनी भूल स्वीकार. इस ग्रंथ की रचना करते समय मैरी अल्पवय व अल्प अभ्यास होनेसे, इसग्रंथ में लेखक दोष, भाषादोष, दृष्टिदोष, पुनरुक्ति दोष, प्रेसदोष व शास्त्रीय पाठोंकी विशेष अशुद्धताके दोषोंकी पाठक गण अवश्यही क्षमा करेंगे, तथा हंसकी तरह दोष त्यागकर सत्य २ सार अहण करेंगे, और सुधारकर वांचेगे। दूसरी आवृत्ति में इन सर्व दोषोंका संशोधन अच्छी तरह से करनेमें आवेगा. और सुबोधिका, दीपिका तथा किरणावली आदिकमै शास्त्रविरुद्ध जो जो बातें लिखी हैं, उन्हीं सर्व बातोंका निर्णय इस ग्रंथ में लिखा For Private And Personal Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ९) गयाहै.उसकोसमझकर उनकेपक्षके अनुयायीविद्वान् पुरुषों को उनकी सब भूलोको क्रमशः अवश्यही सुधारना योग्य है,तथा इस ग्रंथमेभी जो कोई बात शास्त्र विरुद्ध देखने में आवे, तो जरूर मैरेको लिख भेजना. लिखने वालेका उपकार मानकर अपनी भूलको अवश्यही स्वीकार करूंगा, और दूसरी आवृत्तिमें उसको सुधार लूंगा. यह ग्रंथ विलंबसे प्रकट होनेका कारण । इस ग्रंथकी रचनाका कारण ग्रंथकी आदिमेही लिखाहै, तथा सुबोधिका,किरणावलीआदिककी खंडनमंडनसंबंधी भूलोका कारण तो प्रकटही है। और यह ग्रंथ छपनेपर शीघ्रही प्रकट होने वालाथा. मगर कितनेही महाशयोका कहनाथा कि-यदि मुनिमंडलकी सभाम, विद्वानोंकी समक्ष,इस विषयका शास्त्रार्थसे निर्णय हो जावे,तो बहुत ही अच्छा होवे,और तीन वर्ष पहिले दो भाद्रपद होनेसे इस विवाद के निर्णय करनेकी चर्चाभी खूब जोरशोरसे चलीथी,तब मैनेभी'मुंबई' से 'पर्युषणा निर्णयका शास्त्रार्थ' करने संबंधी विज्ञापन छपवाकर जाहिर कियाथा. उसपर आनंदसागरजी और शांतिविजयजी लोकलज्जासे हां हां करने लगेथे,तो भी बीच में व्यर्थही आडी बातें निकालकर चुप बैठ गये, इसका खुलासा आगे लिखूगा. और अन्य कोईभी मुनि सभामें निर्णय करनेको तैयार नहीं हुए, इसलिये अब यह ग्रंथ इतने विलंबसे प्रकाशित किया जाता है. यह ग्रंथ एक ह जार पृष्टके लगभग होनेसे, ४ भागोंमें अनुक्रमसे यथा अवसर प्र. फट होता रहेगा. और मंगवाने वाले साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका. यति-श्रीपूज्य-ज्ञान भंडार-लायब्रेरी और साक्षर वर्ग सर्थको बिना किं मतसे भेट भेजा जावेगा। १-दखिये एक वहेम ।। तपगच्छके कितनेक मुनिमहाराजौने अपनी समाजम यहभी एक तरहका वहेम ठसादिया है,कि-'अधिकमहीने में विवाह-सादी वगैरह शुभकार्यलोगनहींकरतेहैं,उसीतरह अपनेभी अधिकमहीनेमेपर्युषणा पर्वादि धार्मिककार्य नहीं हो सकते हैं, मगर इस बातपर तत्त्व दृष्टि से विचार कियाजावे तो यहभी एकतरहक एकांतआग्रहसे झूठाही घहेमहै,क्योंकि विधाहादि मुहूर्त्तवाले कार्य तो मास,पक्ष,तिथि,वार नक्षत्रादि देखकर, वर्ष छ महीने आगे पीछेभी करते हैं. परंतु बिनर' मुहूर्त्तके लोकोत्तर धर्मकार्य तो नियमित दिवससे आगेपीछे कभीनहीं For Private And Personal Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०] हो सकते हैं, इसलिये लौकिक वालेभी मुहर्त वाले कार्य नहीं करते,मगर बिना मुहूर्त्तकेदान, पुण्य,जप, तप परोपकारादि तो विशेष रूपसे करनेके लियही अधिकमहीनेको 'पुरुषोत्तमअधिकमास',कहते हैं,उसकी कथाभी सुनते हैं और सिंहस्थमे नाशिकादि तीर्थों में यात्राका मेलाभी भरते हैं। इसी प्रकार वर्तमानिक जैन समाजमेंभी मुहूर्त्तवाले कार्य अधिकमहीनेमें नहीं करते हैं. मगर बिना मुहूर्त्तवाले पर्युषणापर्वादि धार्मिक कार्य करनेमें कोई तरहकाभी हरजा नहीं है। अधिक महीनेके३०दिनोंको मुहूर्तादि कार्योमे नहीं लेते,परंतु बिना मुहूर्त्तके (दिवसोंकी संख्यासे प्रतिबद्ध) धार्मिक कार्यों में लेते हैं । बस ! इसका मर्म सरल दिलसे न्यायपूर्वक समझ लिया जावे तो अधिकमहीने में पर्युषणापर्वादि धर्म कार्य नहीं हो सकते हैं. ऐसा एकांत आग्रहका झूठा वहेम आपसेही निकल सकता है. इसका विशेष निर्णय इस ग्रंथको वांचने वाले तत्वज्ञ विवेकी सजन स्वयं कर सकेंगे। २-यह बे समझ है, या हठाग्रह है। __ अधिक महीनेके अभावमें ५० दिने भाद्रपदमें पर्युषणा करना लिखाहै सो५० दिनके अंदर करनेवाले आराधक होते हैं ऊपरांत करनेवाले तो विराधक होतेहैं इसलिये५०वें दिनकी रात्रिकोभी किसीप्रकारसेभी उल्लंघन करना नहीं कल्पता है. यह बात जैन समाजमें प्रसिद्ध ही है । जिसपरभी सिर्फ भाद्रपद शब्दमात्रकोही पकडकर धर्तमानिक दो श्रावण होनेपरभी भाद्रपदमें पर्युषणा करनेका आग्रह करतेहैं, मगर उसमें ८० दिन होनेसे शास्त्रविरुद्ध होता है, इसका विचार कुछभी करते नहीं हैं। औरभीइसीतरहसे पर्युषणाक पिछाडीभी हमेशा०दिन रखने का एकांत आग्रह करते हैं, मगर ७० दिनका नियम अधिक महीने के अ. भावसंबंधीहै, और अधिकमहीना होवे तब तो निशीथचूर्णि, बृह. स्कल्पचूर्णि,स्थानांगसूत्रवृत्ति और कल्पसूत्रकी टीकाओं में १०० दिन रहनेका कहा है । इसलिये ७० दिन संबंधी या १०० दिन संबंधी यथा अवसर दोनों बाते आत्मार्थियोंको मान्य करने योग्य है, जिस. परभी १०० दिन संबंधी शास्त्रप्रमाणाको छोडकर सिर्फ ७० दिनके शब्द मात्रको आगेकरके १०० दिनकी जगहभी ७० दिन रहनेका आग्रहकरतेहैं.इसलिये ऊपरकी दोनों बातों संबंधी शास्त्रीय अपेक्षाकी यह बे समझ है, या समझने परभी हठाग्रह है। इसका विशेष विचार तत्त्वज्ञ पाठकगणको करना चाहिये. For Private And Personal Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [११] ३-कहतेहैं मगर करते नहीं, यहभी देखिये-आग्रह ? __ अधिकमहीनेके ३० दिनोंको गिनती से छोडदेनेका आग्रहक रनेवाले; जब दो श्रावण होवे तबभी भाद्रपद तक ५० दिन हुए ऐसा कहते हैं, मगर प्रत्यक्ष प्रमाण व न्यायकी युक्तिसे विचारकर देखा जावे तो यहकहना प्रत्यक्ष प्रमाणसेभी सर्वथा अनुचितही मालूम हो. ता है। देखिये- किसी श्रावक या श्राविकाने आषाढचौमासीसे उप वास करने शुरू किये होवे, उनको बतलाईये दो श्रावण होनेपर ५०उपवास कबतक पूरेहोवेगे.और८०उपवास कबतक पूरे होवेंगे?इ. सके जवाबमें छोटासा बालक होगा वहभी यही कहेगा, कि-५० दि. नोके ५० उपवास दूसरे श्रावणमे और ८० दिनोंके ८० उपवास दोश्रावणहोनेसे भाद्रपदमें पूरे होवेगे । इसीतरह साधुसाध्वीयोंके सं. यमपालने तथा सर्व संसारी जीवोंके प्रत्येक समयके हिसाबले ७८ कमौके शुभाशुभ बंधन होनेमें और धार्मिक पुरुषोंके धर्मकार्योंसे कर्मोंकी निर्जरा होने में व सूर्यके उदय अस्तके परिवर्तन मुजब दि. वसोंके व्यतीत होनेके हिसाबमें, इत्यादि सर्व कार्यों में दो श्रावण होनेसे भाद्रपद तक ८० दिन कहते हैं । ५० उपवास दूसरे श्रावणमें, व ८० उपवास भाद्रपदमें पूरे होनेकाभी कहते हैं. और उपवासादिक उपरके तमाम कार्यों में अधिक महीनेके ३० दिनोंको बीचमें सामील गिनकर ८० दिन कहते हैं, ८० दिनोंके लाभालाभ-पुण्यपापके कार्यभी प्रत्यक्षमें मंजूरकरतेहैं.ऐसेही दो आश्विनमहीने होनेसे पर्युषणाके पिछाडी कार्तिक तक१०० दिन होते हैं, उसकेभी१०० उपवास, व १०० दिनोंके कर्मबंधन तथा धर्मकार्य वगैरह सर्व कार्यों में १००दिन कहते हैं और१००दिनोंको आपभी अपने व्यवहारमेंभी मंजूर करते हैं। उसमें अधिक श्रावणके ३०दिनोंको गिनतीम लेनेकी तरह अधिक आसोजकेभी ३० दिनोंको गिनतीमें मान्य करना कहते हैं. मगर जब दो श्रावण होवे तब भाद्रपद तक ८० दिन होते हैं, व जब दो आश्विन होवे तबभी पर्युषणाकेबाद कार्तिक तक १०० दिन होते हैं, उनको अंगीकार करते नहीं. और ८० दिनके ५० दिन, व १०० दिनके ७० दिन कहते हैं. यह जगत विरुद्ध कैसा जबरदस्त आग्रह कहा जावे, इसको विवेकी जन स्वयं विचार सकते हैं। ४-कालचूलारूप अधिकमहीना पहिला या दूसरा ? यद्यपि जैनटिप्पणा विच्छेद है, इसलिये लौकिक टिप्पणा मु For Private And Personal Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१२] जब मास,पक्ष,तिथि,वार,नक्षत्रादिक मानतेहैं.मगर जैनशास्त्रतो मौजूदही हैं. इसलिये पर्युषणादि धार्मिक कार्य जैनसिद्धांतोंके मुजबही करनेमें आते हैं। और जैनशास्त्र मुजबही अभी सर्व गच्छवाले अ. धिक महीनेको कालचूला कहते हैं । किंतु कितनेक प्रथम महीनेको कालचूला कहतेहैं, मगर प्रवचनसारोद्धारमूत्रवृत्ति, सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति,चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति,लोकप्रकाश, ज्योतिषकरंडपयन्नवृत्ति वगैरह शास्त्रप्रमाणोंसे दूसरा अधिकमहीना कालचूलारूप ठहरताहै.दे. खिये-“सठ्ठीए अईयाए, हवई हु अहिमासो जुगलुमि । बावीसे प. व्वसए, हवा हु बीओ जुगंतमि ॥१॥ इत्यादि सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिके अ. नुसार ६०पर्व (पक्ष)के३०महीने व्यतीत होनेपर३१वा महीना दूसरा पौष अधिक होताहै,और १२२ पक्षके ६१ महीने जानेपर कालचूला रूप दूसरा आषाढअधिक होताहै.उसी कालचूलारूप दसरे अधिक आषाढ महीनेमें ही चौमासीप्रतिक्रमणादि धार्मिककार्य सर्वगच्छवालोके करनेमें आते हैं। और अधिक पौष महीने व अधिक आषाढ महीनेके दिनोंकी गिनतीसहितही ६२ महीने, १२४ पक्ष, १८३० दिन और ५४९०० मुहूतौके पांच वर्षोंका एक युग शास्त्रोंमें कहा है । इस लिये कालचलारूप अधिक महीनेके ३० दिन गिनतीमें नहीं आते १. तथा कालचूलारूप अधिक महीनेमें चौमासी प्रतिक्रमणादि धार्मिक कार्यनहीं हो सकते २, और मासवृद्धि दो महीने होनेसे प्रथम महीनेको कालचूलाकहना ३, यह सर्व बातें सर्वथा शास्त्रविरुद्धहैं । ५- पूर्वापर विसंवादी (विरोधी) कथन ॥ जालोग जिसअधिकमहीनेको कालचूलाकहकर गिनतीमेलेनेका वपर्युषणपर्वादि धर्मकार्यकरनेकानिषेधकरतेहैं,वोहीलोग उसीकाल. चूलारूप दूसरे अधिकआषाढको गिनतीमेलेकर चौमासीप्रतिक्रमणा दिसर्वकार्य आप करते हैं. जिसपरभी मुंहसे कालचूलारूप अधिकमहीनेको गिनतीमें नहीं लेना तथा उसमें पर्युषणा व चौमासी आदि धर्मकार्य नहींकरनेका कहतेहैं. और कालचूलारूप अधिक महीनेको गिनतीमें लेकर धर्मकार्यकरनेवालोंको दोषबतलातेहैं. सो देखो-एक जगह कालचूलारूप अधिकमहीना गिनती छोडतेहैं. दूसरी जगह उसीकोही खास आप गिनतीमें लेकर चौमासीआदिधर्म कार्य करते हुए अंगीकारकरतेहैं. और फिर दूसरे गिनतीमैलेने वालोंको दोषभी बतलातेहैं.यह तो "मम वदनजिव्हा नास्ति' की तरह कैसा पूर्वापर सर्वथा असंगतरूप विसंवादी कथन है. सो भी विचारने योग्य है। For Private And Personal Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१३] ६ - कालचूला शिखररूप है, या चोटीरूप है ? अधिक महीने को निशीथचूर्णि आदि शास्त्रों में शिखररूप कालचूला कहा है और दिनोंकी गिनती में भी लिया है, जिसपर भी कितनेक महाशय दिनोंकी गिनती में निषेध करने के लिये चोटीरूप कहतेहै. और 'जैसे पुरुषके शरीर के मापमें उसकी चोटीकी लंबाईका माप नहीं गिना जाता, तैसेही अधिक महीना कालपुरुषकी चोटीस - मान होने से उसीके ३० दिनोकों प्रमाण गिनती में नहीं लिये जाते' ऐसा दृष्टांत देते हैं, सोभी सर्वथाशास्त्र विरुद्ध है, क्योंकि पुरुषकी उँचाईकी गिनती में उसकी चोटी १-२ हाथलंबी हो तो भी कुछभी गिन ती नहीं लीजाती, उससे उसका प्रमाणभीकुछ नहींबढ सकता, मगर जैसे - देवमंदिरोंके शिखर व पर्वतोंके शिखर प्रत्यक्षपणे उनकी उचाई की गिनती में आते हैं, उसीसे उन्होंकी उंचाईका प्रमाणभी बढजाता है. तैसेही अधिक महीने को कालचूला कहा है, सो शिखररूप होने से गिनती में आता है, उससे उस वर्षका प्रमाणभी १२ महीनोंके २४ पक्षोंके ३५४ दिनोंकी जगह, १३ महीनों के २६ पक्षों के ३८३ दिनोंका होता है, और मास वृद्धि के कारण चंद्र वर्षकी जगह अभिवर्द्धत वर्ष भी कहा जाता है. इसलिये शिखरकी जगह घासरूप चोटी कह करके अधिकमहीने को दिनोंकी गिनती में लेनेका निषेध करना सो " करे माणे अकरे " जमालिकी तरह सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है । ७- अधिक महीना गिनती में न्यूनाधिक है, या बरोबर है ? जैनसिद्धांतों के हिसाब से तो जैसे १२ महीनोंके सर्वदिन धर्मका - योंमें बरोबर है, तैसेही अधिक महीना होने से १३ महिनों के भी सर्वदिन बरोबर ही हैं। इसमें न्यूनाधिक कोई भी महीना नहीं है, और पापी प्राणियों के कर्मों का बंधन होने में व धर्मीजनों के कर्मोकी निर्जरा होनेमें एक समयमात्र भी व्यर्थ खाली नहीं जाता है. और समय, आवलिका, मुहूर्त्त दिन, पक्ष, मास, वर्ष, युग, पल्योपम, सागरोपमादि कालमानमे से १ समयमात्र भी गिनती में कभी नहीं छूटसकता, जिसपर भी धर्म कार्यों में ३० दिनोंकों गिनती में छोड देने का कहते हैं, या अधिक महीने के दिनों को तुच्छही समझते हैं, सो सर्वथा जिनाशा विरुद्ध है. ८ - अधिकमहीना नपुंशक है, या पुरुषोत्तम है ? जैसे- ब्रह्मचारी उत्तम पुरुष समर्थ होनेपरभी परस्त्री प्रति नपुंशक समान होता है, तैसेही - लौकिक रूढीसे विवाह सादीवगैरह For Private And Personal Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१४] आरंभवाले या मुहूर्तवाले कार्य करनेमें तो अधिकमहीनेको नपुंशक समान कहते हैं मगर तोभी दिनोंकीगिनती तो बरोबरलेते हैं । और निरारंभी व बिना मुहूर्त्तवाले दान, पुण्य,परोपकार,जप,तपादि कार्य करने में तो अधिक महीनेको 'पुरुषोत्तम अधिक मास' कहा है, सो बात प्रकटही है. इसलिये जैनसिद्धांतोंके हिसाबले या लौकिक शा. स्त्रोंके हिसाबसे भी अधिक महीनेको दिनोंकी गिनतीमें निषेध करते हैं,सो शास्त्रीय दृष्टिले व युक्ति प्रमाणसे या दुनियाके व्यवहारसेभी सर्वथा विरुद्ध है । इसको विशेष पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं ९-दूसरे आषाढमें चौमासी करनेका क्या प्रयोजनहै ? ___भो देवानुप्रिय ! चौमासीप्रतिक्रमणादि पर्वकार्य ग्रीष्मऋतुपूरी होनेपर वर्षाऋतुकीआदिमें किये जाते है,और ज्येष्ठ व आषाढमें ग्रीमऋतु कही जाती है.इसलिये जब दो आषाढ होवे; तब उन दोनों आषाढमहीनोंको ग्रीष्मऋतुमें गिने जाते हैं.यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणसे जगजाहिरही है,और जैनसिद्धांतानुसार तो दूसरे आषाढ शुदी पूर्णिमाका हमेशा क्षय होता है. इसलिये दूसरे आषाढ शुदी१४को पांच वर्षों का एक युग पूरा होताहै,उसी रोज ग्रीष्मऋतुभी पूरी होतीहै, तथा पांचवा अभिवर्द्धितवर्ष भी उसीरोज पूरा होताहै .और १ युगमें सुर्यके दक्षिणायन उत्तरायणके दशअयनभी १८३०दिनोंसे उसीदिन पूरे होतेहैं. इसलिये उसी दिन दूसरे आषाढ शुदी१४ को चौमासी प्रतिक्रमणादि कार्य करने की अनादि मर्यादा है । और प्रथम आषाढ ग्रीष्मऋतुमे होनसे वहां ग्रीष्मऋतु, युग,वर्ष,अयन, वगैरह पूरे नहीं होते, व प्रथम आषाढमें वर्षाऋतुभी शुरू नहीं होती,इसलिये प्रथ. म आषाढमें चौमासी प्रतिक्रमणादि पर्वके कार्य करने में नहीं आतेहैं और शास्त्रीय हिसाबसे श्रावण वदीरको (गुजरातदेशकी अपेक्षासे आषाढ वदी १ को) युगकी, वर्षकी और वर्षाऋतुकी शुरूआत होती है. इसलिये उसकी आदिमें और ग्रीष्मऋतुकी,वर्षकी, युगकी समाप्ति समय दूसरे आषाढके अंतमें चौमासी प्रतिक्रमणादि पर्वके कार्य करने शास्त्रोमें कहे हैं, सो युक्तियुक्तही हैं। १० - चौमासा ४ महीनोंका या ५ महीनोंका ? देखिये-१२ महीनों का वर्ष कहा जाता है, मगर जब अधिक महीमहीना होवे तब १३ महीनोंका वर्ष कहा जाता है, इसीतरह यद्यपि चौमासा शब्द व्यवहारसे ४ महीनोंका कहा जाता है, मगर आधि. For Private And Personal Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१५] का महीनाहोनेसे १३ महीनोंके वर्षकी तरह चौमासाभी पांच मही नोंका होताहै.इसलिये अधिक महीना न होवे तब तो ४ महीनोंक ८ पक्षोकेर२०दिनोंसे चौमासीकार्य होते हैं, मगर जब अधिक महीना होवे तब तो पांच महीनोंके दश (१०) पक्षाके १५०दिनोंसे चौमासी प्रतिक्रमणादिकार्य होते हैं । यहबात प्रत्यक्ष प्रमाणसे व लौकिक टि. प्पणाके प्रमाणसे जग जाहिर है,और आगम पंचांगी सिद्धांत प्रमा. णसेतो अनादि सिद्धप्रवाह ऐसाही है इसलिये इसको कोईभी कभी निषेध नहीं कर सकता है.इसका विशेष विचार तत्वज्ञ पाठक गण स्वयं कर सकते है।। ११ - देखो - एक कुतर्क. कितनेक कहतेहैं,कि-चौमासी प्रतिक्रमणादि कार्य आषाढमेकरने. का कहा है, इसलिये प्रथम आषाढमें करोगे तो दूसरा आषाढ छूट जावेगा और दूसरेमें करोगे तो, प्रथम छूट जावेगा. या दोनोंमें करोगे तो पुनरुक्ति दोष आवेगा' ऐसी २ कुतर्क करते हैं, सो भी स. र्वथा शास्त्र विरुद्ध है । क्योंकि प्रथम आषाढमें ग्रीष्मऋतु वगैरह उ. पर मुजब कारण होनेसे चौमासीकार्य कभी नहीं होसकते, इसलिये 'प्रथम आषाढमें करोगे तो दूसरा आषाढ छुट जावेगा' ऐसा कहना व्यर्थही है । और दो आषाढ होनेसे दोनोंकी गिनतीपूर्वक ५ महीने दूसरे आषाढमें चौमासीकार्य करते हैं, इसलिये 'दूसरेमें करोगे तो प्रथम छट जावेगा' ऐसा कहनाभी व्यर्थही है। और दोनों आषाढोमें दो वार चौमासी कार्य नहीं; किंतु ग्रीष्मऋतुकी समाप्ति वगैरह उपर मुजब कारणोंसे दूसरे आषाढमें एकही वार चौमासीकार्य करते हैं. इसलिये दोनों में करोंगे तो पुनरुक्ति दोष आवेगा' ऐसा कहनाभी व्यर्थहीहै । और चौमासी प्रतिक्रमण तो ४ महीने, या मास वृद्धि होवे तब पांच महीने सब गच्छवाले एकबार प्रत्यक्षपने कर तेहैं इसलिये मास बढने परभी चौमासीकार्य ४ महीने होवे मगर पांच महीने नहीं होवे, ऐसा प्रत्यक्ष असत्य भाषण करना आत्मार्थियोंको मोग्य नहीं है. इसकोभी विशेष तत्त्वज्ञ पाठक गणस्वयं विचारलेंगे. १२-दूसरे आषाढमें चौमासीकार्य करनेकी तरह पर्यु. षणापर्व भी दूसरे भाद्रपदमें हो सकें, या नहीं? आषाढ कार्तिकादि चौमासा ४-४ महीनोंसे होताहै, मगर अ धिक महीना होवे तब पांच महीनोंकाभी होता है, यह बात ऊपर For Private And Personal Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१६] लिख चुक हैं. इसलिये मासवृद्धि होनेसे १२० दिनोंकी जगह १५० दिनभी चौमासमेहोतेहैं. उसमें किसी प्रकारका दोष कोईभी शास्त्रमें नहीं बतलाया. मगर पर्युषणातो वर्षाऋतुम दिन प्रतिबद्ध होनेसे ५०दिने अवश्यही करना सर्वशास्त्रों में कहाहै, उसपर कभी १ दिनभी बढ जावे तो उसका दोष कहाहै. और दूसरे भाद्रपदमें पर्युषणाकरें, तो ८० दिन होनेसे प्रत्यक्षपने सर्व शास्त्रविरुद्ध होता है. इसलिये दूसरे आषाढमें चौमासी पर्वकी तरह पर्युषणा पर्व ८० दिन होनेसे दूसरे भाद्रपदमें कभी नहीं होसकते हैं, किंतु आगमादि सर्व शास्त्रोंकी आज्ञा मुजब ५० दिने प्रथम भाद्रपदमें करना युक्तियुक्त न्यायसंपन्नही है, इसको तो विषेश पाठक गण स्वयं विचार सकते हैं. १३-जिसको मान्यकरतेहैं उसीकोही उत्थापनकरतेहैं। हमेशां भाद्रपदमेही पर्युषणा पर्व करनेका ठहराने के लिये निशीथचूर्णिके अधूरे पाठको आगेकरते हैं, मगर चूर्णिमें तो ५० दिने या ४९ दिने अवश्यही पर्युषणा करना लिखा है, परंतु ५० दिन उ. परांत करना कभी नहीं लिखा और अधिक महीनके ३०दिनोंकोभी खुलासा पूर्वक गिनतीमें लिये हैं । जिसपरभी दो भाद्रपद होवें,तष ५० दिने प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणापर्वका आराधन करना छोडकर, ८० दिने दूसरे भाद्रपदमें करतेहैं । उसीसे जिस चूर्णिका पाठ मान्य करतेहैं,उसी चूर्णिकापाठ (दूसरे भाद्रपदमें ८०दिने पर्युषणा करनेसे) उत्थापनभी करते हैं.इसको विशेष तत्त्वज्ञ जन स्वयं विचार सकते हैं. १४-अब देखो एक-वितंडा वाद॥ ८० दिने पर्युषणापर्व करनासो शास्त्र विरुद्ध ठहराते हो, मगर दो आषाढ महीने होवे तब प्रथम आषाढमें चौमासी प्रतिक्रमण करोगे, तो तुमारेभी ८०दिने पर्युषणा पर्व होवेंगे, तब कैसे करोगे? समाधान भो देवानुप्रिय! पर्युषणाके ५०दिनोंकी गिनतीग्रीष्मऋतु. की समाप्ति होनेपर वर्षाऋतुकी शुरूआतसे गिनी जाती है. और प्र. थम आषाढ महीना ग्रीष्मऋतुमें होनेसे उसमें चौमासी कार्य नहीं हो सकते और ग्रीष्मऋतुकी समाप्ति हुए बिना घ वर्षाऋतुकी शुरूआत हुए बिना प्रथम आषाढसे पर्युषणासंबंधी ५० दिनोंकी गिन तीभी कभी नहीं हो सकती. इसलिये प्रथम आषाढमें चौमासी का. र्य करने का, व उससे पर्युषणाके ८० दिन गिननेका कहना अज्ञानताका कारण है, क्योकि वर्षाऋतुकी आदिमें दूसरे आषाढके अंतमे चौमासीकार्य होनेसे पर्युषणाके ५०दिन गिननेका निशीथचूर्णि, प. For Private And Personal Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१७] पण कल्पचूर्णि वगैरहशास्त्रोंमें कहा है, इसलिये प्रथम आषाढसे८० दिन बतलाकर दो श्रावण होने पर भी भाद्रपद में८० दिने पर्युषणाकरना. या दो भाद्रपद होवे तब दूसरे भाद्रपद में ८० दिने पर्युषणा ठहराना, सथा शास्त्रविरुद्ध है, इसको भी विवेकी पाठकगण स्वयंविचार लेवेंगे । १५ - देखिये यह - कैसी कुयुक्ति है । " कितनेक महाशय अपना असत्य आग्रहको छोड सकते नहीं तथा सत्यवातको ग्रहणभी कर सकते नहीं और व्यर्थही अपनी स चाई जमाने के लिये कहते हैं, कि "दूसरेश्रावण में या प्रथम भाद्रपद में पर्युषण पर्व करना किसी भी आगम में नहीं लिखा " ऐसी२ कुयुक्तिये करते हैं, और भद्रजीवों को संशय में गेरते हैं. मगर इतना विचार करते नहींहैं, कि ५० दिने पर्युषणापर्व करना कल्पसूत्रादि सर्वभागमों में लिखा है, यही जनाज्ञा है. देखिये - "सवसई राएमासे" वा " सविंशतिरात्रे मासे "C वा दश पंचके" वा " पचांशतैव दिनेः पर्युषणा युकेति वृद्धाः " इन सर्व वाक्योंमें ५० दिने पर्युषणा करना कहा है, सो वर्तमानमै ५० दिने दूसरेश्रावण में या प्रथम भाद्रपद में पर्युषणापर्व क रना कल्पसूत्रादि आगमानुसार ठहरता है. इससे ५० दिन कहो, या दूसरा श्रावण, प्रथम भाद्रपद कहो, दोनों एकार्थही हैं. इसलिये 'दूसरे श्रावण या प्रथम भाद्रपद में पर्युषणा करना किसी आगम में नहीं लिखा' ऐसी२ जानबुझकर कुयुक्तियें लगाकर अपना झूठा पक्ष जमानेकेलिये मायामृषा भाषण करना आत्मार्थियोंकों योग्य नहीं है. १६ - उत्सूत्र प्ररूपणा ॥ चंद्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति - जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - भगवती- समवायांगादि आगम- नियुक्ति - भाष्य चूर्णि वृत्ति प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंमें अ धिक महीने के ३० दिन गिनती में लिये हैं, वे सर्व शास्त्रोंके पाठ छुपानेसे छुप सकते नहीं. और अर्थ बदलनेसे अर्थभी बदला सकते नहीं. इसलिये कितनेक आग्रही जन कहते हैं, कि-' उन शास्त्रों में तो अधिक महीना होनें से १३ महीनोंके २६ पक्षोंके ३८३ दिनोंका अभिवर्द्धितवर्षकां स्वरूप बतलाया है, मगर१३ महीनोंको गिनती में लेनेका कहां लिखा है' ऐसा कहनेवाले प्रत्यक्ष उत्सूत्र प्ररूपणा करते हैं, क्योंकि देखो - चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति वगैरह सर्व शास्त्रोंमें, जैसे- १ वर्ष के १२ महीनोंके २४ पक्षों के ३५४ दिनोंका स्वरूप गणित प्रमाण बतलायाहै, तैसेही अधिक महीना होनेसे उसवर्षकेभी १३ महीनोंके २६ प के ३८३ दिनोंका स्वरूप गणित प्रमाण बतलाया है, इस लिये ३ For Private And Personal Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१८] चंद्र और अभिवद्धित इन दोनों वर्षों का स्वरूप गणित प्रमाण सर्व शास्त्रों में समानरूपसे खुलासापूर्वक होनपरभी १२ महीनोंके वर्षको प्रमाणभूत मानना और १३महीनोके वर्षको स्वरूप बतलानेका बहाना बतलाकर प्रमाणभूत नहींमानना.यह तो प्रत्यक्षही अन्यायहै, यदि १३ महीनोंका स्वरूप बतलाने का कहकर गिनती में प्रमाणभूत नहीं मानोगे, तो १२ महीनोकामी स्वरूप बतलाया है, उसकोभी गिनती. में प्रमाणभूत नहीं मानसकोगे.और शास्त्रामे तो १२ या १३ महीनों के दोनों वर्षोंके समानरूपसे स्वरूप बतलाकर गिनती में प्रमाणभूत माने हैं.इसलिये दोनोंप्रकारके वर्षमाननेयोग्यहै, इसमें शास्त्रप्रमाणसे तो एकभी वर्षका निषेध नहीं होसकताहै. देखिये - ११ अंग व १४ पूर्वादिशास्त्रोंमें जैसे,दर्शन-ज्ञान-चारित्र-चौदहराजलोक-पद्र व्य-नवतत्त्व-चौदहगुणस्थान-जीवाजीवादि पदार्थोंका स्वरूप व चरणकरणानुयोगमे संयमके आराधनकी क्रियाका स्वरूप बतला. या है, वोही सर्वमान्य करनेयोग्य है, इसलिये स्वरूप बतलाना सो. ही श्रद्धापूर्वक मान्य करने योग्य सत्यप्ररूपणा कही जाती है। जिसपरभी चरणकरणानुयोगमें संयमकी क्रियाका व षद्रव्य - नवत. स्वादिकका स्वरूप बतलाया है, मगर उस मुजब मान्य करना कहां लिखाहै,ऐसा कोई कहे और उनोको प्रमाणभूत नहींमाने तो ११अंग व१४पूर्वोके उत्थापनकरनेका प्रसंग आनेसे अनेक भवोंकी वृद्धि कर नेवाली उत्सूत्र प्ररूपणाका दोष आवे. इसी तरहसेही१३ महीनोंका स्वरूपकहकर प्रमाणभूत नहीं मानेतो सूर्यप्रज्ञप्तिवगैरहपूर्वोक्त शास्त्रों के उत्थापनकरने का प्रसंग आनेसे उत्सूत्र प्ररूपणा ठहरतीहै । और जैसे-षद्रव्य, नवतत्त्वादिकके स्वरूप शास्त्रों में कहेहैं. उसमुजबही मानने पडतेहैं । तैसेही १२ महीनोंके स्वरूपकी तरह; १३ महीनों कास्वरूपभी शास्त्रोंमें बतलायाहै, उस मुजबही १३ महीनेगिनती में प्रमाणभूत माननेपडते हैं.इसलिये १३ महीनोंके अभिवर्द्धित वर्षका स्वरूप बतलायाहै,मगर मान्यकरना कहां लिखाहै' ऐसी उत्सूत्रप्ररूपणा करना. और भोले जीवोंको संशयमें गेरना आत्मार्थी भवभीरओंको योग्य नहीं है। १७ - लौकिक अधिकमहीना मानना; या नहीं? कितनेकमहाशयकहते हैं,कि जैनटिप्पणातो पौष और आषाढ दो महीने बढतेथे और अबलौकिकटिप्पणामतो श्रावण भाद्रपदादिमही नेभी बढने लगेहैं सो कैसे माने जावे? इसपर इतनाही विचार कर For Private And Personal Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१९] नेकाहै,कि-जैनटिप्पणामें तीसरेवर्षमें जो महीना बढताथा उसकोभी गिनतीमें लेतथे और जैनटिप्पणामें ज्यादेमें ज्यादे ३६घटिका प्रमाणे दिनमान होताथा, तथा कमती कमती२४ घटिकाप्रमाणे दिनमान होताथा. और माघमहीने दक्षिणायनसे सूर्य उत्तरायनमें होताथा औ• र श्रावणमहीने उत्तरायनसे दक्षिणायनमें सूर्य होताथा और श्रावण वदि एकमसेदरवीं तिथि क्षय होतीथी. इसीप्रकार १ वर्षमें ६ तिथि क्षयहोतीथी बीचमें कोईभीतिथि क्षयनहींहोतीथी. और तिथिबढने कातो सर्वथा अभावहोनेसे कोईभीतिथि कभी बढतीनहींथी और ६० घडीसेकम तिथिकाप्रमाणहोनेसे,६०घडीके ऊपर कोई भी तिथि नहीं होतीथी. और नक्षत्रसंवत्सर, ऋतुसंवत्सर, सूर्यसंवत्सर, चंद्रसंवत्सर व अभिवर्द्धितसंवत्सरसहित ५वर्षों के १८३० दिनोंका १ युग, व ८८ ग्रह मानतेथे इत्यादि अनेक बातें जैनटिप्पणामे होतीथी वो जैन टिप्पणा परंपरागत जैनीराजा देशभरमें चलातेथे और पूर्वगत आम्नायले गुरुगम्यतावाले जैनकुलगुरु बनातेथे,इसलिये उसमें ग्रहणादि किसीतरहका फरकभीकभी नहीं पडताथा,मगर परंपरागत जैनी राजओका व पूर्वगत आम्नायका,अभावहुआ और जबसे ८८ग्रहवाला जैनपंचांग बंधहुआ, तबसे सर्व जैनसमाजमे९ग्रहवाला लौकिक टिप्पणा माननेकी प्रवृत्ति शुरूहुई, उसमें श्रावण व माघमें दक्षिणायनमें व उत्तरायनमें सूर्यके होने का नियम न रहा और हरेक महीने बढनेसे ज्येष्ठ-आषाढ व मार्गशीर्ष-पौषादिमेभी दक्षिणायन व उत्तरायन होनेलगा,तथा क्षेत्रफळ व गणित विभागमें फेर पडनले ज्यादेमें ज्यादे ३४ घटिका, व कमती कमती २६ घटीकाप्रमाणे दिनमानभी मानने लगे और एक तिथिका ६० घटिकासे ज्यादे प्रमाण माननसे हरेकपक्षमें तिथियों का क्षयभी होनेलगा और हरेक तिथियोंकी वृद्धि होनेसे दो दो तिथिय भी होने लगी. और १२ वर्षका युग इत्यादि अनेक बातें अभी जैनपंचांगके अभावसे, लौकिकटिप्पणाकी माननोपडतीहैं, इसीतरह अधिकमहीनाभी लौकिकाटिप्पणाकीरीतिसे वर्तमानमें माननापडताहै, इसलिये ८४ गच्छोंके सर्व पूर्वाचार्योंने श्रावण भाद्रपदादिमहीने लौकिक टिप्पणामुजब माने, वोहो प्रवृत्ति अभी सर्वजैनसमाजमें शुरू है । और दक्षिणायन,उत्तरायन,तिथिकी हानी, वृद्धि वगैरह तिथि, वार, नक्षत्र, पक्ष, मास, वर्ष आदिक सर्व लौकिक टिप्पणामुजब अभीमानतेहैं.मगर अधिकमहीना बाबत जैन पंचांगकी आड लेकर नहीं मानना, यह न्याय युक्ति बाधक होनेसे For Private And Personal Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२०] सत्य कभी नहीं ठहर सकताहै.इसलिये ऊपर मुजब बातोंकी तरह श्रावण भाद्रपदादि अधिकमहीनेभी लौकिकटिप्पणामुजब वर्तमानमें मान्य करने सो युक्तियुक्त न्यायसंपन्न होनसे कभी निषेध नहीं हो सकते. और यद्यपि जैनटिप्पणामें पौष-आषाढ बढताथा,उसबातको जिनकल्पीव्यवहारकी तरह सत्यमानना,श्रद्धारखना,प्ररूपणाकरना. मगर जिनकल्पीव्यवहार अभी विच्छेद होनेसे उनको अंगीकार न. हीं करसकतेहैं, उसीतरह अभी जैनटिप्पणाभी विच्छेद होनेसे वर्तमानमें जैनटिप्पणा मुजब तिथि,वार,या पौष-आषाढमहीने मानने काआग्रहकरना सो देशकालके व सर्वपूर्वीचार्योंके सर्वथाविरुद्ध है. १८ - जैन ज्योतिष्परसे अभी जैनटिप्पणा शुरूकरें तो शुरू हो सके; या नहीं ? यद्यपि जैनज्योतिष्क सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति, चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति, ज्योतिकरंडपयन्नवृत्तिआदि अनेक शास्त्रमौजूद हैं, उसपरसे तिथि, वार,मास,पक्ष,वर्षादिकका गणित अभी हो सकताहै. मगर ग्रहणादि सर्वबाते बरोबर मिलान करना मुश्किल पडताहै, इसलिये कितनीक बातोमे अन्य आधारलेना पडताहे. और लौकिक व जैन दोनोंके गणित विभागमें फेर होनेसे,तिथि,वार,मास,नक्षत्र व ग्रहणादि दोनोके समानरूपसे बरोबर नहीं आसकते. और पूर्वगतगीतार्थ गुरुगम्यआम्नायके अभावसे व अल्पज्ञताकेकारणसे यदि कोई ग्रहणादि बतलानेमें न्यूनाधिक कुछ फरक पडजावे तो अभी सर्वज्ञशासनकी लघुता होनेका कारण बनजावे. और परंपरागत जैनीराजाओंका अभाव होनेसे व ब्रह्मचारी, व्रतधारी, गुरुगम्यतावाले कुलगुरु. ओंका अभाव होनेसे तथा खरतरगच्छ नायक श्रीनवांगीवृत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरिजी, श्रीशांतिसूरिजी, श्रीहेमचंद्राचार्यजी वगरह समर्थ व शासनप्रभावक आचार्यों के समय भी बहुतकालसे जैनटिप्पणाविच्छेदहोनेसे,अभी अपने अल्प बुद्धिवालोंस फिरसे शुरू नहीं होसकताहै.और कोई शुरू करें तोभी सर्वमान्य युगप्रधान समर्थआचार्य के अभावसे सर्वदेशोंके, सर्वगच्छोंके,सर्व जैनसमाजमें परंपरा. गत चल सकताभी नहीं। देखिये-जैन शासन में प्राचीनकाल में वि. शेषज्ञानी समर्थप्रभावक पूर्वाचार्योके समयमें जो बात पहिलेसे विच्छद हो जावे; उसको विशिष्टतर अवधिज्ञानादि रहित अल्पज्ञासे इसकालमें फिरसे शुरू नहीं होसके। इतनेपरभी फिरसे शुरू करें, For Private And Personal Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२१] तो सर्व पूर्वाचार्योंकी आशातनाके तथा शासनकी लघुताके दोषके भागी होवें । इसीतरह जैनपंचागभी प्राचीन पूर्वाचायाँके समयसे विच्छेद होनेसे,अभीफिरसे शुरू नहीं होसकता.जिसपरभी कोई फि रसे शुरू करें तो२०वे दिन पर्युषणापर्व करनेकी, व पांच पांच दिने अज्ञात पर्युषणास्थापन करने वगैरह बातें जो विच्छेद होगईहैं, वे सब बातेभी जैन टिप्पणाशुरू होनेसे पीछीशुरू करनी पडेगी, और वे सर्व बातें अभी पडताकाल होनेसे फिरसे शुरू नहीं होसकती हैं, इस लिये अभी जैन पंचांग शुरू नहीं होसकताहै। १९- अभी लौकिक दो श्रावणादिक महीनोंके; अपने दो आषाढ बनासकें या नहीं? कितनेक कहते हैं,कि-लौकिक टिप्पणा श्रावण भाद्रपद बढ़े तब जैन शास्त्रोंके हिसाबसे दो आषाढ बनालेंवे तो पर्युषणाका भेद मिट जावे मगर ऐसाभी कभीनहीं होसकता. क्योंकि देखो-जब जैन पंचांगही अभी विच्छेद है,और तिथि,वार,नक्षत्र पक्ष मासादि पंचांग संबंधीव्यवहार लौकिक टिप्पणा मुजब करतेहैं, जिसपरभी१ महीनेका फेरफार करदेना योग्यनहींहै । देखिये-दो श्रावण होनेसे भरपूर वर्षाऋतुवाला प्रथम श्रावणशुदी १५ को प्रत्यक्षप्रमाणसेभी विरुद्ध होकर उसकोआषाढ पूर्णिमाकहना यहजगत विरुद्ध होनेसे व्यवहा. मेंभी मिथ्याभाषणका दोषलगे। औरपहिले पूर्वाचार्योंनेभीप्साकभी नहीं किया, इसलिय अभी दो श्रावण या दो भाद्रपदके, दो आषाढ बनाना कभी नहीं बनसकताहै, किंतु लौकिक टिप्पणामुजब दो श्रावण भाद्रपदादि सर्वगच्छोंके पूर्वाचार्यपहिलेसे जैसे मानते आये हैं, वैसेही वर्तमानमें अपने सबकोभी मान्य करना योग्यहै बस! धार्मिः क व्यवहार पर्युषणपर्वादि कार्य जैन सिद्धांतोंके अनुसार ५०वे दिन करने. और तिाथ, वार, नक्षत्र, चंद्रयोग, मास, पक्षादि व्यवहार लौकिकटिपपणाकअनुसार करना.यहीन्याय युक्तियुक्त व सर्वसम्मत होनेसे सर्व जैनीमात्रको मान्य करना योग्य है, इसलिये इसमें अन्य २ कल्पनायें करनी सर्वथा व्यर्थही हैं। २०-पर्युषणा कितने प्रकारकी होती हैं ? निशीथचूर्णि,बृहत्कल्पचूर्णि, कल्पसूत्रनियुक्ति,चूर्णि, वृत्तिवगैरह शास्त्रों में पर्युषणाके नामांतसे ८ प्रकारसे अनेक भेद बतलाये हैं, मगर यहां तो अभी मुख्यतासे वर्षास्थितिरूप और वार्षिक कार्यरूप For Private And Personal Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२२] ऐसे दो अर्थ वर्तमानमें सर्व गच्छवाले ग्रहण करते हैं । इसलिये आ षाढ चौमासीसे ठहरना सो वर्षास्थितिरूप अज्ञात पर्युषणा और मासवृद्धिके सद्भावमें २० दिने या उसके अभावमें ५० दिन ज्ञात (प्रकट) पर्युषणा करना सो वार्षिक कार्यरूप प्रसिद्ध पर्युषणा करनेका समझना चाहिये । जब जैनपंचांगके अभावसे २० दिनक्री पर्यु. षणा बंधहुई, तबसे लौकिक हरेक मास बढ़े तो भी ५०दिने वार्षिक कार्यरूप पर्युषणा करनेकी सर्वगच्छोंके पूर्वाचार्योंकी मर्यादा है. २१-महीना बढे तब वीश दिनकी पर्युषणा वर्षास्थिति रूप हैं; या वार्षिकपर्वरूप हैं ? भो देवानुप्रिय ! जैसे चंद्रवर्ष में ५० दिनकी शात पर्युषणा वा. र्षिक कार्यरूप हैं, तैसेही--अभिवर्द्धित वर्षमें २० दिनकी ज्ञात पर्युषणाभी वार्षिक कार्यरूप है । जिसपरभी श्रावणमें वीश दिनकी ज्ञात पर्युषणा सिर्फ वर्षास्थितिरूपमानोगे,तो भाद्रपद भी५०दिनकी ज्ञात पर्युषणाभी वर्षा स्थितिरूप ठहर जावेंगे और वार्षिककार्य करने सर्वथा उडजावेंगे. और २० दिने वार्षिककार्य नहीं करने, मगर ५० दिने करने ऐसाभी कोई शास्त्र प्रमाण नहींहै, और २० दिने ज्ञात पर्युषणा किये बाद पीछे एक महीनेसे वार्षिककार्य करने ऐसाभी कोई शास्त्र प्रमाण नहींहै । इसलिये जैसे-५० दिने भाद्रपदमें वार्षिक कार्य होतेहैं, वैसेही-२० दिने श्रावण भी वार्षिक कार्य होतेथे । और वर्तमानमेश्रावण या भाद्रपदबढे;तोभी दूसरेश्रावणमे या प्रथम भाद्रपद ५०दिने वार्षिक कार्यरूप पर्युषणापर्व करनासो शास्त्राज्ञाहै. २२-वार्षिक कार्य१२महीने होवें;या १३ महीनेभी होवें? देखो पहिलेभी जैसे-२०दिने श्रावण में वार्षिककार्यकरतेथे तबभी आवतेवर्ष भाद्रपदतक १३महीने होतेथे,तसेही अभी वर्तमानमेभी ५० दिने दूसरे श्रावण में या प्रथम भाद्रपदमें वार्षिक कार्य होनेले आवते वर्ष१३महीने होतेहैं.इसमें कोई दोषनहीं है, देखिये दो पौष,दो आषाढ, अथवा दो आसोज होनेसेभी १३ महीने प्रत्यक्षमें होते हैं; इसलिये महीना बढे तब तो पहिले या पीछे १३ महीनों के २६ पाक्षिक प्रतिक्रमण सर्व गच्छवालोंकोही होतेहैं । और जैनमें या लौकिकमें १२ महीनोंके या १३ महीनौके दोनोंवर्षमाने हैं, इसलिये १२महीनेभी वा. र्षिक कार्यहोवें. और१३महीनेभी वार्षिककार्यहोवै,यह कोई नवीन बात नहीं है। किंतु अनादि मर्यादाका प्रवाह ऐसाही है.जिसपरभी १३ For Private And Personal Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२३] महीने वार्षिक कार्य होनेका दोष बतलाकर, १२ महीने वार्षिककार्य होनेकाठहरानेकेलिये अधिकमहीनको बीचमेसे छोडदेना अनुचित है, २३ - पर्युषणा संबंधी कल्पसूत्रका पाठ वार्षिक कार्योंके लिये है, या केवल वर्षास्थितिके लियेही है ? कल्पसूत्रका पर्युषणा संबंधी पाठ वर्षास्थितिके साथही वार्षिक कार्योकेलियेभी है, जिसपरभी उसको सिर्फ वर्षास्थितिरूप ठहराकर वार्षिककार्य निषेध करते हैं, वो गंभीर आशयवाले अनेकार्थयुक्त आगमपाठके अर्थको उत्थापनकरनेवालेबनतेहैं.जैसे"णमो अरिहं ताणं " पदके अर्थमं कर्मशत्रुको जितनेवाले अरिहंतभगवानको नमस्कार करनेका अर्थ अनादिसिद्धहै, जिसपरभी कर्मशत्रुके अर्थको. नहीं माननेवालेको अज्ञानी समझा जाताहै तैसेही कल्पसूत्रादिके५० दिने पर्युषणाकरनेसंबंधीपाठों में वार्षिक कार्यकरनेका अर्थतो अनादिसिद्धहै, जिसपरभी ५० दिने वार्षिक कार्योंको नहीं मानने वालोको अज्ञानी या हठवादी समझने चाहिये। २४ -भगवान् किसीप्रकारकेभी पर्युषणा करतेथे या नहीं? उग्रविहारी जिनकल्पीमुनियोंके तथा स्थिविर कल्पीमुनियोके आचारमें बहुतभेदहै,और भगवान्तो अनंतशक्तियुक्त कल्पातित हैं. इसलिये भगवान्के आचार तो विशेष भेद है तो भी वर्षाऋतु व र्षास्थितिरूप पर्युषणा तो सर्वकोईकरतेहैं और स्थिविर कल्पी मुनियोके तो वर्षास्थितिके साथही चौमासी व वार्षिकपर्वके कार्य करने घगैरहका अधिकार प्रसिद्ध ही है । जिसपरभी कल्पसूत्रमें पर्युषणा शब्दमात्रको देखकर अतीव गहनाशयवाले सूत्रार्थके भावार्थको गुरुः गम्यतासे समझे बिना भगवान्कोभी वार्षिक प्रतिक्रमणादिकरनेवाले ठहराने, या ५० दिनकी पर्युषणाको वार्षिक कार्योरहित ठहरानी, सो अज्ञानता है. इसकोभी विवेकीजन स्वयं विचार सकते हैं. २५-पर्युषणासंबंधी सामान्य व विशेषशास्त्र कौन २ हैं ? देखो-- जिसशास्त्रमें मुख्यतासे एक विषयको विशेषरूपसे खुलासाके साथ कथन किया होवे, उसको विशेष शास्त्र कहते हैं। और जिसशास्त्रमें थोडा२ बहुत बातोका कथनहोवे,उसको सामान्य शास्त्रकहतेहैं । यद्यपि यथा अवसर दोनोशास्त्रमान्यहै,मगर सामान्यशास्त्रसे विशेषशास्त्र ज्यादे अधिक बलवान होताहै.इसलिये मुख्यतासे विशेष शास्त्रकी बात अंगीकार करने के समया सामान्य शास्त्रकी बात For Private And Personal Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२४] गौण्यताभाव में रहती है. यहन्याय विद्वानों में सर्वत्र प्रसिद्धही है। औरभी देखिये-जैसे श्री भगवतीजीमूत्र वडा कहा जाता है, तोभी उनमें बहुत बातोंका थोडा २ कथन होने से संयमके आराधनकी क्रिया संबंधी सामान्यशास्त्र कहा जावे.और आचारांग, दशवैकालिक छोटे २ सूत्रहैं,तोभी उसमें मुख्यतासे सयंमकेआराधनका विशेष विधान होनेसे यह संयमक्रियासंबंधी विशेषशास्त्रकहे जाते हैं. इसीतरह समवायांगसूत्रमें थोडा २ अनेक बातोका कथन होनेस पर्युषणासंबंधी समवायांगसूत्र सामान्य शास्त्र है, और कल्पसूत्रमे तो खास पर्युषणासंबंधी सामान्य व विशेष दोनों प्रकारसे विस्तारपूर्वक खुलासाके साथ वर्षास्थितिरूप व वार्षिकपर्वरूप दोनों पर्युषणाका अधिकार है. इसलिये पर्युषणासंबंधी श्रीकल्पसूत्र विशेषशास्त्र है. यही श्रीकल्पसूत्ररूपविशेषशास्त्रको पर्यषणापर्वमें चतुर्विधसंघके मांगलिकके लिये वर्षावर्ष प्रत्येक गांव नगरादिमें सर्वत्र वांचने में आता है. उस विशेषशास्त्र के पर्युषणासंबंधी मूलमंत्ररूप मुख्य विशेष पाठको छोडना और समवायांगक सामान्यपाठपर दृढ आग्रहकरना सो आत्मार्थी विवेकी विद्वानोंको योग्य नहीं है. मगर अल्पज्ञ बिना स. मझवाले अपना आग्रह न छोडें तो उनकी खुशीकी बात है । २६-पर्युषणासंबंधी हमेशानियत नियम ५० दिनका है; अथवा ७० दिनका है ? देखो-पर्युषणासंबंधी सर्वशास्त्रोम ५० दिनको पर्युषणा किये. बिना उल्लंघनकरना निवारणकियाहै, इसलिये ५० दिनका नियतनियमहै,और ७०दिनसे ज्यादे दिन होवे उसका कोईभी दोष किसीभी शास्त्रमें नहींकहा, इसलिये ७० दिनका हमेशां नियतनियम नहींहै. १- देखो पहिलेभी २०दिने पर्युषणा करतेथे, तबभी पीछे १०० दिन रहतेथे. इसलिये ७०दिनका हमेशा नियत नियम नहींहै।। २- अबीभी श्रावण भाद्रपद या आसोज बढें तब तपगच्छके पूर्वाचार्योंके कथन मुजब कल्पसूत्रकी टीकाओंके वाक्यसेभी ५० दिनपर्युषणा होवे तबभी पीछे १०० दिन रहते हैं। इसलियेभी ७० दिन रहनेका हमेशां नियत नियम नहीं है। ३- पचास दिन उलंघेतो सर्वशास्त्रोंमें उसका प्रायश्चित्तं कहा है, मगर ७० दिन उल्लंघेतो किसीभी शास्त्रमें उसका प्रायश्चित्त नहीं कहा इसलियेभी७० दिनका हमेशां नियतनियम नहीं ठहरसकताहै, For Private And Personal Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४-५० देन तो प्रामादिक न होवे तोभी जगलमें वृक्षनीचेभी अवश्यही पर्युषणा करनको आवश्यकता बतलाइहै, आर ७० दिन. की स्वाभाविक गिनती बतलाई है,परंतु वैसीही ७०दिन की आवश्य. कता नहीं बतलाई, इसलियेभी७०दिनका हमेशां नियत नियम नहीं है. ५-७० दिवसकापाठ मासवृद्धिके अभावसंवधी है, इसलिये. उसको मासवृद्धि होनपरभी आगकरना व उसपर आग्रहकरना सो शास्त्रकार महाराजोके अभिप्रायविरुद्ध होनेसे सर्वथा याग्य नहीं है. ६- इन्हीं समवायांगसूत्रके टीकाकार महाराज ने स्थानांगसूत्रवृत्तिमें, मासवृद्धि होवे तब पर्युषणाके पिछाडी कार्तिकतक १००दिन ठहरनेकाकहाहै, उसको उत्थापन करना और शास्त्रकार महाराजके अभिप्राय विरुद्ध होकर १०० दिनकी जगहभी ७० दिन ठहरनेका आग्रह करना सो आत्मार्थियों को कभी योग्य नहीं है। ७- निशीथचूर्णि-वृहत्कल्पचूर्णि--वृत्ति-पयुषणाकल्पनियुक्तिचूर्णि-वृत्ति-गच्छाचारपयन्नवृत्ति-जीवानुशासनवृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्रोमे, वर्षास्थितिकेलिये कालावग्रहम, जघन्यसे ७० दिन, मध्यमंसे ७५-८०-८५-९०-९५ यावत् १२० दिन, और उत्कृष्ट से १८० दिनका कालमान प्रमाण बतलाया है, उसके अंदर से एक दिनमा भी गिनती में नहीं छट सकता. जिसपरभी शास्त्रविरुद्ध होकर वर्षास्थितिके अनियत व जघन्य७०दिनके नियम को हमेशां नियत नियम ठहराने का आग्रह करना सो विवेकीयोंको सर्वथा योग्य नहीं है । ८-निशीथचूपयादिमें द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावसे पर्युषणाकी स्थापना करनी बतलायी है, उसमें काल स्थापना संबंधी समयआवलिका-मुहत-दिन-पक्ष-मासले अधिक महीने के भी ३० दिनोंकी गिनती सहित प्रत्येक दिवलको पर्युषणासंबंधी कालस्थापनाके अधिकारमें गिनतीमलियह,इलालय पर्यपण संबंधी दिनसंख्यामेसे एक दिनभी गिनतीम निषेध नहीं होताहै, जिसपरभी जघन्य ७० दि. नके अनियत नियमको माल बढ़ने पर भी आगे करते हैं. और फिर अधिकमहीने के ३० दिन गिनतीमे छोडकर १०० दिनके ७० दिनभी अपनी कल्पनासे बना लेते हैं, लो सर्वथा चूर्णिके विरुद्ध है, इसका विशेष विचार तत्वज्ञजन स्वयं कर लेवेगे। . - सीतर दिनका नियल नियत्र न होनसे ७० दिनके ऊपर ज्याद दिनमी होते हैं, और " वासावासाए अणाधुट्टीए, आसोए कत्तिए पा निग्गताणं, अह अतिरित्ता भवंति" इत्यादि निशीथचूर्णि, For Private And Personal Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६ ] बृहत्कल्पचूाण, पर्युषणाकल्पचूर्णि, वृत्ति आदि अनेकशास्त्रों में लिखे जब वर्ष अमावसे आसोजमें विहार करें; तो ७० दिनसे कमती. भी ४० दिन, या ४५-५० दिनभी होते हैं । देखो - पहिले ५० दिने वा र्षिक कार्य जब लग नहीं करें; तब तक विहार करनेमें आताथा. मग. र अभी वर्तमान में तो आषाढ चौमासी बाद विहार करनेकी रूढी नहीं है । तैसेही पहिले वर्षाके अभाव से आसोजमै भी विहार करते. थे, मगर अभीतो वर्षा नहींहोवे रस्तोंके कीचड सुककर रस्ते लाफ होगयें हो तो भी कार्त्तिक पूर्णिमा पहिले आसोज में विहार करने की रूढी नहीं है, इसलिये वर्षाके अभावले आसोज में विहार नहीं कर सकते और कभी दो आसोज होवें तो भी कार्त्तिक तक १०० दिन ठहरतेहैं । इसलियेभी ७० दिनका हमेशां नियत नियम नहीं है । इस बातको विशेष तत्त्वज्ञ जन स्वयं विचार लेवेंगे । 1 २७ - महीना बढे तब होली, दीवाली वगैरह लौकिक पर्व पहिले महीने में होवें या दूसरे महीने में होवें ? ce देखो कितनेक पर्व पहिले महीने में होते हैं, और कितनेक प र्व दूसरे महीने में भी होते हैं. जब दो भाद्रपद होयेंगे, तब जन्माष्टमी का पर्व पहिले भाद्रपद में करते हैं, और गणेश चौथका पर्व दूसरे भाद्रपद में करते हैं. तथा जब दो आसोज होवेंगे तब श्राद्धपक्ष पहिले आसोज में करते हैं, और दशहराका पर्व दूसरे आसोज में करते हैं. तथा दो कार्त्तिक होवे तब दीवाली पर्व पहिले कार्तिक में करते हैं. इसीतरहसे बारहहीमासोंके पर्व कार्य कृष्णपक्षसंबंधीपर्व पहिले म हीने में और शुक्लपक्ष संबंधी पर्व दूसरे महीने में समझ लेना. और मलमासो द्वेधा अधिक मासः - क्षयमा सचेति । तदुक्तं काठकगृहो । यस्मिन् मासे न संक्रांतिः, संक्राति द्वयमेव वा मलमासो स विज्ञेयो मासः स्यात् तु त्रयोदशः । तथा च उकं हेमाद्रि नागर खंडे । नभो वा नभस्यो वा मलमासो यदा भवेत् सप्तमः पितृपक्षः स्यादन्यत्रेव तु पंचमः । इत्यादि " निर्णय सिंधु, धर्मसिंधु, निर्णयदीपकादि लौकिक धर्मशास्त्रोंके प्रमाणानुसार, आषाढ चौमासीसे पांचवा पितृपक्ष (श्राद्धपक्ष ) होता है, मगर जब श्रावण, भाद्रपद बढ़ें तब उस की गिनती से सातवा [ ७ ] श्राद्धपक्ष होता है, इसलिये लौकिकवाले भी अधिकमहीने के ३० दिन गिनती में लेते हैं. जिसपरभी लौकिकवाले अधिकमहीनेके ३० दिन गिनती में नहींलेते, या प्रथम महीने में दीवाली For Private And Personal Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७ ] व जन्माष्टमी वगैरह पर्वकार्य नहीं करते; ऐसा जान बुझकर मायामृ. कथन करना और बालजीवों को उलटा रस्ता बतलाना भवभीरु आत्मार्थियों को सर्वथा योग्य नहीं है । २८ - गणेश चौथ के पर्वकी तरह पर्युषण पर्व भी दूसरे भाद्रपद में हो सकें या नहीं ? भो देवानुप्रिय ! गणेश चौथका पर्वतो मास प्रतिबद्ध होने से मासवृद्धि के अभाव में आषाढ चौमासीसे दूसरे महीने के चौथे पक्षम ५० दिने भाद्रपद में होता है. मगर कभी श्रावण या भाद्रपद बढे तब तो तीसरे महीने के छठ्ठे पक्षमें ८० दिने दूसरे भाद्रपद होता है । इसीतरह मास बढने के अभाव में अढाई (२||) महीनोंसे पांचवा श्राद्धपक्ष होता है. मगर धावणादि मासवढे तब तो साढेतीन (३) महीनों से सातवा श्राद्धपक्ष होता है, तथा दीवालीपर्व भी मासवृद्धि के अभाव मे ३|| महीनोंसे ७ वें पक्षमें कार्तिक में होता है, मगर श्रावणादि बढे तबतो साढेचार (४॥ ) महीनोंसे ९ में पक्षमें होता है. यह बात प्रत्यक्षप्रमाणसे जगत्प्रसिद्ध सर्वजन सम्मत ही है. और पर्युषणापर्व तो दिन प्रतिबद्ध होने से दूसरे महीने के चौथेपक्ष में ५० दिने अवश्यही करने सर्वशास्त्रों में कहे हैं. इसलिये गणेश चौथ के पर्व की तरह पर्युषणपर्व भी दूसरेभाद्रपद में करें तो तीसरे महीने के छठे पक्ष में ८० दिन होने से शास्त्रविरुद्ध होता है, इसलिये दूसरे भाद्रपद में पर्युषणापर्व नहीं हो सक ते. किंतु दूसरे महीने के चौथेपक्ष में ५० दिने प्रथमभाद्रपदमे ही करना शास्त्रानुसार होने से आत्मार्थियों को योग्य है । इसलिये मासप्रतिबद्ध लौकिक गणेशचौथ की तरह दिनप्रतिबद्ध लोकोत्तर पर्युषण पर्वतो दूसरे भाद्रपद में ८० दिन होने से कभी नहीं हो सकते हैं. इसबात को भी विशेष तत्वज्ञ पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे । २९ - पहिले पौषादि मास बढतेथे तब कल्याणकादि तप; अपने वडील कैसे करते थे ? पहिले पौषादि मास बढतेथे तब दोनों महीनोंके चारों पक्षोंमैं- पहिले पक्ष में, या दूसरे पक्ष में, वा तीसरेपक्ष में, अथवा चौथे पक्ष में, जिसपक्षमें, जिसरोज, जिन जिन तीर्थंकर भगवान् के जो जो व्यवन-जन्मादिकल्याणक हुएहोंवें, उसमुजब उस उस पक्ष में, अर्थात्-दोनो महीनोंके ४पक्षों में ज्ञानीमहाराजों को पूछकर आराधन करते थे. यह अनादिकाल से ऐसीही मर्यादा चली आती है । इसलिये अधिकमहीने में For Private And Personal Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - [ २८ ] कल्याणकादि तप नहीं हो सकते, ऐसा कहना प्रत्यक्ष मृषा है । देखोअनंतकाल से अनंततीर्थकर महाराज होगये हैं, उन महाराजोंके च्य वन-जन्म केवलज्ञानादि कल्याणक होने में, कोईभी पक्ष, कोईभीमास, कोई भी दिवस; या कोई भी वर्ष वाधक कभी नहींहोसकते हैं, किं तु हरेक माल, हरेक पक्ष, हरेक ऋतु व हरेक दिवस होसकते हैं. इसलिये पहिले महीने के या दूसरे महीने के प्रथमपक्ष में या दूसरे पक्षमें जिसरोज च्यवनादि जो जो कल्याणक हुए होवें उसी महीने के उसी पक्ष में उसी रोज उन्हीं कल्याणको का आराधनकरना शास्त्रानुसारही है. इसलिये इसको कोई भी निषेध नहीं कर सकता है । मगर अभी जनपंचांग के अभावसे व ज्ञानीमहाराजके अभाव से अधिक पौ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir या अधिक आषाढ में कौन २ भगवान्‌ के कौन २ कल्याणक हुए हैं, उनकी मालूम नहीं होनेसे तथा लौकिकटिपणा में हरेक मासोंकी वृद्धि होनेसे चैत्र वैशाखादि महीने बढ़ें तब भी परंपरागत ८४ गच्छों के सभी पूर्वाचाने लौकिक रूढीके अनुसार कितनेक पर्व प्रथम महीने में और कितनेक पर्व दूसरे महीने में करनेकी प्रवृत्ति र. रूखी है। उसी मुजब वर्तमान भी करने में आते हैं। देखिये-जैसे -कार्तिक महीने संबंधी श्रीलंभवनाथस्वामीजी के केवलज्ञानकल्याणक, श्रीपद्मप्रभुजीके जन्म व दीक्षा कल्याणक, श्रीनेमिनाथजीके च्यवन कल्याणक ओर श्रीमहावीरस्वामीके निर्वाणकल्याणक व दीवालीपवीदि कार्य दो कार्ति कहाँवे; तब प्रथमकार्त्तिकम करने में आते हैं; तथा दो पौष होवे तर श्रीपार्श्वनाथ जी का जन्म कल्याणक पौषदशमीकापर्व प्रथम पौष महीने में करने में आता है, और जब दो चैत्र महीने होंवे तब श्री पार्श्वनाथजीके केवलज्ञान कल्याणकादि पर्वकार्य उष्णकाल के प्रथममहीने के प्रथम पक्ष अर्थात् पहिले चैत्र में करने आते हैं. मगर श्रीमहावीरस्वामी के जन्मकल्याणक व ओलीआदिकपर्वतो उष्णकाल के दूसरे महीने के चौथे पक्षमें अर्थात् दूसरे चैत्र में करने आते हैं. ऐसेहा दोष हो तव श्रीआदीश्वरसगवान् के च्यवनादि उष्णकाल के चोथे महीने के सातवे पक्ष में प्रथमपादने करने आते हैं, और श्रीमहावीरस्वामी च्यवनादि पांचवें महीने के दशवे पक्ष में दूसरे आषाढ में करने आते हैं. इसी अहिने में दोनों पक्षों कीगनती सहित स महीनों के कार्य यथायोग्य कल्याणकादि तप वगैरह करने में आते हैं। इसलिय कल्याणकादि पर्वकार्य में अधिक महीना गिनती में नहींलेते, ऐसाकहना सर्वथा अनुचित है. इसको विशेषतत्त्वज्ञ जनस्वयं विचारलेंगे. For Private And Personal Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२९] ३०- जब अधिकमहीना होवे तब तेरह महीनोंके संवच्छरी क्षामणों संबंधी खुलासा. जैसे-इन्हीं भूमिकाके पृष्ठ २२ वें के मध्यमें २२ वे नंबरके लेख मुजर वार्षिक कार्य १२महीनेभी होवे, और जब महीना बढे तब तेरह महीनेभी होवें । तैसेही संवच्छरी क्षामणेभी १२ महीनेभी होवें और जब महीना बढे तब तेरह महीनेभी होवे,देखो-चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्रवृ. त्ति, सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति, प्रवचनसारोद्धारसूत्रवृत्ति, ज्योतिष् करंडप यत्रवृत्ति, निशीथचूर्णि वगैरह अनेक प्रा. चीन शास्त्रामभी, जब महीना बढे तब उस वर्षके १३महीनोंके २६ पक्ष खुलासा पूर्वक लिखे हैं. इसलिये १३ महीनोंके २६ पक्षोंके सं. वच्छरी में क्षामणे करने का ऊपर मुजब अनेक प्राचीनशास्त्रानुसारहै. जिसपरभी कोई कहेगा, कि-ऊन शास्त्रोम तो १३ महीनोंके २६ पक्षोके संवच्छरीमें क्षामणकरनेका नदीलिखा. मगर ऐसा कहनेवालोंको अ. तीव गहनाशयवाले शास्त्रों के भावार्थको समझमें नहीं आया मालूम होता है, क्योकि-देखा-उन शास्त्राम, जैसे- पक्षका, चौमासेका, व वर्षका गणितसे जो जो प्रमाण बतलाया है, तैसेही उन्हीं शास्त्रोंके उन्हीं प्रमाण मुजब, पाक्षिक, चौमासी व वार्षिक पादि कार्य करनेमें आते हैं, इसलिये जैसे-जिसवर्ष में १२ महीनोंके २४ पक्ष होवे, उसी वर्ष में १२ महीनोंके २४ पक्षोंके संवच्छरी प्रतिक्रमण में क्षामणे करने में आते हैं । तैसेही उसी मुजब जब जिस वर्षमें अधिकमही ना होनेसे१३महीनोंके २६पक्ष होवे; तब उस वर्ष में १३ महीनोंके २६ पक्षाके संवच्छरी प्रतिक्रमणमें क्षामणे करने में आते हैं. इसलिये उन शास्त्रोम १३ महीनोंके क्षामणे नहींलिखे, ऐसा कहना प्रत्यक्ष मिथ्या होनले आज्ञानताका कारण है। औरभी देखिये आवश्यक वृहद्वृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्रों में भी जहां जहां वार्षिक प्रतिक्रमण का अधिकार आया है, वहां वहां भी 'संवच्छर' शब्द लिखा है सो संवच्छर शब्द के १२ महीनोंके २४ पक्ष, व १३ महानाके २६ पक्ष, ऐसे दोनों अर्थ आगमोमें प्रसिद्धही हैं, इसलिये १२ महीनोंके २४ पक्षका अर्थ मान्य करके क्षामणों में कहना, और १३ महीना के २६ पक्षका अर्थ मान्य नहीं करना व क्षा. मणोंमभी नहीं कहना, यह तो प्रत्यक्ष नेही आगमार्थके उत्थापनका आग्रह करना सर्वथा अनुचित्त है, इसलिये दोनों प्रकारके अर्थ मा For Private And Personal Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । २० न्य करके उस मुजब प्रमाण करना आत्मार्थी सम्यक्त्व धारियोंको योग्य है. इसबातको विशेष तत्त्वज्ञ जन स्वंय विचार सकतेहैं । और इसविषयका विशेष खुलासाभी इसी ग्रंथके पृष्ठ ३६२ से ३८२ तक छपगया है, उसके देखनेसे सब निर्णय हो जावेगा। ३१- पांच महीनोंके चौमासी क्षामणों संबंधी खुलासा. पहिले जैनटिप्पणामें जब पौषमहीना बढताथा तबभी फाल्गु. नचौमासापांचमहीनोंका होताथा, तथा जब आषाढमहीना बढताथा तबभी आषाढ चौमासा पांच महीनोंका होताथा, तैसेही अभी वर्तमानमें लौकिक टिप्पणामें श्रावणादि बढतेहैं, तबभी कार्तिक चौमा. सा पांच महीनोंका होता है. यद्यपि सामान्य व्यवहारसे चौमासा ४ महीनोंका कहा जाताहै, मगर जब अधिकमहीना होवे तव विशे. ष व्यवहारसे निश्चयमें पांच महीनोंके १० पाक्षिक प्रतिक्रमण सर्व गच्छवालोको प्रत्यक्षमेही करनेमें आते हैं । और जितने मास पक्षोंका प्रायश्चित [दोष ] लगा होवे, उतनेही मास पक्षोंकी आलोचना [क्षामणा] करना स्वयं सिद्धही है । और मास बढनेसे पांच महीनोके दश पक्ष होनेपरभी उसमें; ४ महीनोंके ८ पक्षोके क्षामणे कर. ने और एकमहीने के दो पक्षोंकी आलोयणा छोडदेनी यह सर्वथा अ. नुचित है। इसलिये ऊपर मुजब ३० वें नंबरके १३ माली संवच्छरो क्षामणों संबंधी लेख मुजबही यथा अवसर पांच महीनोंके दशपक्षों के चौमासेमें क्षामणेकरने शास्त्रानुसार युक्तियुक्तहोनेसे कोई भी निषे. ध कभी नहींकरसकता,इसकाभी विशेषखुलासा इसंग्रंथके पृष्ठ ३६२ से ३८२ तकके क्षामणोंसंबंधी लेखमें छपगयाहै, वहांसे जान लेना. ३२- १५ दिनोंके पाक्षिक क्षामणों संबंधी खुलासा । __जंबूद्वीपपन्नत्तिसूत्रवृत्ति,ज्योतिष्करंडपयन्नवृत्ति, लोकप्रकाशादि जैन-ज्योतिषके शास्त्रानुसार तो जिसपक्षमें तिथिका क्षयहोवे, वो पक्ष१४दिनोंकाहोताहै और जिसपक्षमें तिथिकाक्षयनहोवे,वो पक्ष १५ दिनोंका होता है। मगर लौकिक टिप्पणा तो अभी हरेक तिथि. योकी हानी और वृद्धि होतीहै,इसलिये कभी१३दिनोंकाभी पक्ष होता है, कभी १४ दिनोंकाभी पक्ष होताहै, कभी १५दिनोंकाभी पक्ष होता है और कभी १६दिनोकाभी पक्ष होताहै,मगर व्यवहारसे१५ दिनोका पक्ष कहाजाताहै. इसलिये व्यवहारसे पाक्षिकप्रतिक्रमणमें १५ दिनोंके क्षामणे करनेमें आतेहैं.मगर निश्चयमें तो प्रतिक्रमण करने के समय तक जितने रोजके कर्मबंधन हुए होंगे, उतनेही रोजके कर्मोंकी नि For Private And Personal Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३] जरा होगी, किंतु ज्यादे कम कभी नहीं होसकेगी. इसलिये निश्चय और व्यवहारके भावार्थको समझे बिना शब्दमात्रको आगे करके विवाद करना विवेकी आत्मार्थियोंको तो योग्यनहींहै, इसकाभी विशेष खुलासा इसीग्रंथके क्षामणासंबंधी प्रकरणके लेखसे जानलेना. ३३-अपेक्षा विरुद्ध होकर आग्रह करना योग्य नहीं है। मासवृद्धिके अभाव में ४महीनोंके चौमासीक्षामणे, व १२ महीनौके संवच्छरी क्षामणे करनेका कहाहै. उसकी अपेक्षा समझे बिना ही मासबढनेपरभी उसीपाठको आगे करना और ५ महीनोंके १०प. क्ष, व १३ महीनोंके २६ पक्ष शास्त्रों में लिखे हैं. उन पाठोंको छुपादेना. यह तत्त्वज्ञ आत्मार्थियोंकों योग्यनहींहै,इसीतरह जब पौष व चैत्रादि महीनेबढें तब प्रत्येकमहीनेके हिसाबसे विहारकरनेवाले मुनिमहाराजोको एककल्प चौमासेका और नवमहीनोके नवकल्प मिलकर दशकल्पीविहार प्रत्यक्षमें होताह । जिसपरभी महीनाबढनके अभावसंबंधी एककल्प चौमासेका और ८महीनोंके ८ कल्प मिलकर ९ कल्पीविहार करनेका पाठबतला करके मासबढे तबभी दशकल्पी वि. हारको निषेधकरनेकेलिये भोलेजीवोंको संशयमैगेरना यहभीविवेकी सजनोंको सर्वथा योग्यनहीं है, इसीतरह मासबढनेके अभावकी अपेक्षासंबंधी हरेकवातोंकों मासबढनेपरभी आगेलाकर उसका आग्र. हकरना और मासवृद्धिकी अपेक्षावाले शास्त्रोंकीबातोंको छोडदेना स. र्वथा अनुचितहै. इसको विशेषतत्त्वज्ञ पाठकगण स्वयंविचार लेवेंगे. ३४-- विषय छोडकर विषयांतर करना योग्य नहीं है। ५० दिनोंकी गिनतीसे दूसरे श्रावणमे या प्रथम भाद्रपदमें प. र्युषणापर्वका आराधनकरनेकी अपनेही पूर्वीचार्योंकी सत्यवातकोन. हण करसकते नहीं और पचास दिनोंकी गिनती उडानेके लिये ऐ. सा कोई दृढ बाधक प्रमाणभी दिखला सकते नहीं, इसलिये दिन प्र. तिबद्ध पर्युषणाका विषयछोडकर.होली,दीवाली,ओलीआदिक मास प्रतिबद्ध कार्योंके विषयकी बात बीचमे लाते हैं, सो भी यह असत्य आग्रहकी सूचना रूप विषयांतर करना योग्य नहीं है। क्योंकि ऐसे तो मासप्रतिबद्ध कार्यों में कितनेही महीने, और कितनेही वर्षभी छ. ट जातेहैं देखो-मास प्रतिबद्धकार्य तो एक महीनेसे करनेके होवे सो अधिक महीना होवे तब एक महीनेकी जगह कितनेक पर्व दूसरे For Private And Personal Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३२) महीनेभी किये जाते हैं । और दूज-पंचमी अष्टमी चतुर्दशी वगेरहमें उपवास करनेका, ब्रह्मचर्य पालने का, गत्रिभोजन त्याग करनेका इत्यादि व्रत, नियम पञ्चख्खाण तो दोनों महानाम दो दा बार कर. नेमें आते हैं। और पर्युषणापर्व तो मास बढ़े तो भी ५० दिनकी जग. ह ५१वे दिनभी कभी नहीं हो सकते हैं. इसलिये दिन प्रतिबद्ध पर्युष. णापर्वके साथ,मास प्रतिबद्ध होली, दीवाली दशहरा वगैरहका वि. षय लाना सो विषयांतर होनेसे सर्वथा अनुचित है। ' और महीनाबढन के अभावमें ओलियोंका पर्व छठे महीने करनेका शास्त्रों में कहाहै, मगर जब कभी महीना बढ जावे तबतो प्रत्यक्ष प्रमाणसे और शास्त्रीय हिसाबसेभी सातवें (७) महीने ओलीयों कापर्व होताहै . तो भी व्यवहारसे छठे महीन आंबील की ओलिय करनेका कहाजाता है. देखो जैसे- श्रीआदीश्वर भगवान् ने चैत्र वदी८ [गुजरातदेशकी अपेक्षासे फागण वदी ८ ] को दीक्षा अंगीकारकी थी और दीक्षाके दिनसे लेकर तपस्याका पारणा दूसरे वर्ष में वैशा. खशुदी३ को हुआथा, तोभी व्यवहारसे सर्व शास्त्रों में वर्षी तपका पारणा लिखा है. और ऐसेही वर्षांतपका पारणा सर्व कोई जैनामात्र अभीभी कहते हैं. मगर दिनोंकी गिनतीसे तो १३ महीनोंके ऊपर १० दिन होनेसे ४००दिन पारणाके रोज होतेहैं. जिसमेभी कदाचित उस वर्ष में बीचमें अधिक महीना आजावे तो १४ महीने के उपर १० दिन होनेसे ४३०दिनेपारणा होताहै. तोभी व्यवहारसे वर्षी तप करने का कहाजाताहै, और यह बात तो अभी वर्तमानमेंभी वर्षी तप कर. नेवालोंके सर्वके अनुभवमें प्रत्यक्षही आता है, इसलिये ४३० दिने पारणा करते हैं, तोभी व्यवहारसे वर्षांतपही कहते हैं। और व्यव. हारसे वर्षके ३६० दिन होते हैं, मगर निश्चयमें तो ४३० दिने पार. णा करनेका बनता है. तो भी किसी तरहका विसंवाद या दोष नहीं आ सकता. इसी तरहसेही व्यवहारसे ओली ६ महीने, चौमासा ४ महीने व वार्षिक पर्व १२ महीने करनेका कहते हैं. मगर जब बीच में अधिक महीना आजावे तब तो निश्चयमें, ओली७महीने, चौमासा ५ महीने,व वार्षिकपर्व१३महीने होताहे.तोभी तत्वदृष्टिस कोई तरहका विसंवाद या दोष कभी नहीं सकताहै.मगर पर्युषणापर्व तो अधिक महीना हो तबभी आषाढ चौमालाले वीक के ५० वें दिनकी ज. गह५१वें दिनभी कभी नहीं होसकते. इसलिये मास प्रतिबद्ध होली, दीवाली,ओली वगैरहकारष्टांत दिन प्रतिबद्ध पर्युषणाम बतलाना सो For Private And Personal Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३ ३ J [३३] विषयांतर होनेसे सर्वथा शास्त्रविरुद्धहै और व्यवहारसेभी प्रत्यक्ष अनुचितहै,इसबातको विशेष तत्त्वज्ञ पाठकजन स्वयंविचार लेवेगे । ३५ - लौकिक श्रावणादि अधिक महीनोंकी तरह क्षयमहीनेभी मान्यकरने योग्य हैं या नहीं? पर्युषणापर्वादि धार्मिककार्योंके करनेका भेदसमझे बिनाही अ. धिकमहीनेके३०दिनों में चौमासीव पर्युषणादिपर्वकार्य नहींकरनेका कितनेक लोगआग्रह करतेहैं,मगर कभी कभी श्रावणादि अधिकमही. नेवाले वर्षमें कार्तिकादि क्षयमासभी बीच में आते हैं, तबतो कार्तिक महीनेसंबंधी श्रीवीरप्रभुके निर्वाण कल्याणकका तप,दीवालीका पर्व, श्रीगौतमस्वामीके केवलज्ञान उत्पन्न होनेका महोत्सव,शानपंचमीका आराधन,चौमासी प्रतिक्रमण व कार्तिक पूर्णिमाका उच्छव वगैरह सर्वकार्य तो उसी क्षयकार्तिकमास मेंही करते हैं और लौकिकमें अ. धिकमहीना या क्षयमहीना दोनों बरोबरही मानेहैं । जिसपरभी क्षय मासमें दीवालीपर्वादि धर्मकार्य करते हैं । और अधिक महीनेमें पर्यु। षणापर्वादि धर्मकार्य नहीं करनेका कहते हैं । यहतो प्रत्यक्षमेही पक्ष पातका झूठा आग्रहहीहै. सो आत्मार्थियोंको तो करनायोग्य नहीं है। इसलिये अधिकमहीनेमें और क्षयमहीनेमेभी धर्मकार्य करने उचित हैं, इनमें कोईभी बाधा नहीं आसकती. इस बातकोभी विवेकीतत्वज्ञ पाठकगण स्वयं विचार लेवेगें। ३६-वार्षिक क्षामणे या प्राणियोंके कर्मबंधन व आयु प्रमाणकी स्थिति; किस २ संवत्सरकी अपेक्षासे मानते हैं? जैनशास्त्रोंमें पांच प्रकारके संवत्सर मानेहैं, जिसमें नक्षत्रोंकी चालके प्रमाणसे ३२७ दिनोंका नक्षत्र संवत्सर मानतेहैं । चंद्रकी चालके प्रमाणसे ३५४ दिनोंका चंद्रसंवत्सर मानते हैं । फलफूलादिक होने में कारणभूत ऋतु प्रतिबद्ध ३६० दिनोंका ऋतुसंवत्सर मा. नतेहैं । तथा जब अधिकमहीनाहोवे तब१३महीनोंके ३८३दिनोंका अ. भिवर्द्धित संवत्सर मानतेहैं । और सूर्यके दक्षिणायन व उत्तरायनके प्रमाणसे ३६६ दिनोंका सूर्य संवत्सर मानतेहैं । और पांच सूर्यसंव स्लरोंके प्रमाणसेही१८३०दिनोंका एक युग मानतेहैं। इसी एक युगके १८३० दिनोंका प्रमाण पांचोही प्रकारके संवत्सरोके हिसाबसे मिल नेकेलियेही, एक युगमें दो चंद्रमास बढते हैं,सात नक्षत्रमास बढते हैं, और एक ऋतुमास बढताहै,तब सब मिलकर१८३०दिनोंका एक For Private And Personal Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४ ] युग पूरा होता है. और एक युगके सभी दिनोंकों अभिवर्द्धित महीने के हिसाब से गिननेमें आयें तबतो कुल ५७ अभिवर्द्धित महिनोसेही १ युग पूराहोता है । इसलिये शास्त्रोंके नियमसे तो अधिकचंद्रमास के या अधिकनक्षत्रमासके किसी भी महीनेके एकदिनकोभी गिनतीमें निषेध करनेवाले तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंके कथन के प्रमाणका भंग करनेवाले होनेसे, उन महाराजोंकी आशातनाके भागी बनते हैं. क्योंकि चंद्रादि अधिक महीनोंके दिनोंकीगिनती सहितही पांच वर्षोंके एक युगके १८३० दिनोंका प्रमाण पूरा होसकता है, अन्यथा कभी पूरा नहीं हो सकता है. 1 और तिथि, वार, मास, पक्षादि व्यवहार चंद्रमासके हिसाबसे चंद्रसंवत्सर की अपेक्षासेमानते हैं । और प्राणियोंके कर्म बंधनकी स्थिति व आयुष्प्रमाणकी स्थिति सूर्यमास के हिसाब से सूर्य संवत्सकी अपेक्षासे मानते हैं, इसलिये सूर्य संवत्सर के हिसाब सेही मास, अयन, वर्ष, युग, पूर्व, पूर्वाग, पल्योपम, सागरोपमादिकके काल प्रमाणसे ४ गतियोंके सर्वजीवोंके आयुका प्रमाण व आठही प्रकारके कर्मोंकी जघन्य, मध्यम, उत्कृष्टस्थितिके बंधका प्रमाण, और उत्सर्पिणी अवसर्पिणीकालसे कालचक्रकाप्रमाण, यहसर्वबातें सूर्यसंवरसरकी अपेक्षासेमानते हैं. इसकाअधिकार लोकप्रकाशादि शास्त्रोंमें प्रकटही है । और वार्षिकक्षामणे करनेका तो चंद्रमासके हिसाब से चंद्रसंवत्सरकी अपेक्षासेमानते हैं, मगर चंद्रसंवत्सर के ३५४ दिन होते हैं. तो भी व्यवहारिकरुढीसे एकवर्षके ३६० दिन कहने में आते हैं. तैसेही जब महीना बढे तब उसवर्षके १३ महीनोंके ३९० दिन कहने में आते हैं. मगर कितनेक लोग ऋतु संवत्सरकी अपेक्षासे ३६० दिनोंके वार्षिक क्षामणे करने का कहते हैं, परंतु ऋतु संवत्सर तो पूरे ३६० दि. नोका होताहै, उसमें कोई भी तिथिकेक्षय होने का अभाव है, व तीसरे वर्षमै महीना बढनेकाभी अभाव है, और चंद्रसंवत्सर ३५४ दिनोंका होनेसे संवत्सरी के रोज चंद्र संवत्सर पूरा होसकता है, ऋतुसंवत्सर पूरा नहीं होसकता है, और तिथि, वार, मास, पक्ष, व र्षका व्यवहारभी ऋतुसंवत्सर की अपेक्षासे नहीं चलता, किंतु चंद्र संवत्सरका अपेक्षासे चलता है, और ऋतु संवत्सरके ३६० दिनतो संवत्सरीका पर्व हुए बाद ६ रोजसे दशमीको पूरे होते हैं, और संव त्सरी पर्वतो ४ या ५ को करनेमें आता है, इसलिये वार्षिक क्षामणे ऋतुसंवत्सरकी अपेक्षाले नहीं, किंतु चंद्रसंवत्लर की अपेक्षासे कर मगर For Private And Personal Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३५] नेका समझना चाहिये. और ३५४ दिने, या ३८३ दिने संवत्सरीपर्व होता है, तोभी ३६० दिन,या ३९०दिन कहने आतेहैं, सो ऋतुसंव. त्सरसंबंधी नहीं,किंतु चंद्र या अभिवति संवत्सरसंबंधी व्यवहारसे कहने में आते हैं. देखो-चंद्रमासकी अपेक्षासे एक पक्ष १४ दिन ऊपर कुछ भाग प्रमाणे होता है, मगर पूरे १५ दिनोंका नहीं होता, तो भी व्यवहारमें लोकसुखसे उच्चारण करसके; इसलिये १५ दिनों का एकपक्ष कहनेमें आताहै। यह अधिकार ज्योतिकरंडपयन्नवृत्ति वगैरह शास्त्रों में खुलासालिखाहै । इसीतरहसे महीनेके३०दिन या व र्षके३६०दिनभी व्यवहारकी अपेक्षासे समझने चाहिये, मगर निश्चय में तो जितने दिनोंसे संवत्सरीपर्वमें वार्षिक क्षामणे होवेगे उतनेही दिनोंके कर्मोंकीनिर्जराहोगी,किंतु ज्यादे कम कभीनहीं हो सकेंगी। और संजलनीय, प्रत्याख्यानीय, अप्रत्याख्यानीय कषायकी अनु क्रमसे,एक पक्षके१५दिन,४महीनोंके१२०दिन,व १२ महीनोंके३६०दि. नोंके एक वर्षकी स्थितिकाप्रमाण शास्त्रों में बतलायाहै,सो,व्यवहारसे बतलायाहै,मगर निश्चयमें तो रागद्वेषादि तीन परिणामों के अनुसार न्यूनाधिकभी बंध पडसकताहै. इसलिये उसकी स्थितीके प्रमाणकी गिनती सूर्य संवत्सरकी अपेक्षासे होती है । और क्षामणे तो चंद्रसंवत्सरकी अपेक्षासे व्यवहारसे करनेमें आतेहैं,सो ऊपरमें इसबात का खुलासा लिख चुके । इसलिये एकवर्षके ३५४दिन होने परभी व्यवहारिक दृष्टिसे ३६० दिनोंके क्षामणे करनेका, और कषायादि कर्मोंकीस्थिति परिपूर्ण ३६० दिनतक निश्चय भोगनेका,दोनों विषय भिन्न अपेक्षासे, अलगर संवत्सरोंसंबंधी हैं, इसलिये इन्होंके आपस में कोई तरहका विरोधभाव कदापि नहीं आसकता.जिसपरभी चंद्र संवत्सरसंबंधी व्यवहारिकक्षामणेकरनेका, और सूर्यसंवत्सरसंबंधी निश्चयमें कौंकीस्थिति पूरेपूरीभोगनेका रहस्यको समझेविनाही अ धिकमहीनेके३०दिनोंको गिनतीमें लेनेका छोडदेनेकेलिये, अधिकम हीनेकोगिनती लेवे,तो कषायकीस्थितिका प्रमाणबढजानेसे मर्यादा उल्लंघन होनेकाकहते हैं, सो शास्त्रोके मर्मकोनहीं जानने के कारणसे अज्ञानताजनक होनेसे सर्वथा मिथ्याहै.देखो-एकयुगके दोनों अधिक महीनोंके दिनोंकोंगिनती नहीलेवेतो सूर्यसंवत्सरका प्रमाणभीपुरा नहीं हो सकताहै,इसलिये दोनों अधिकमहीनोंके दिनोंको अवश्यमेव गिनतीमें लेनेसेही पांच सूर्यसंवत्सरोके एक युगमे १८३० दिन परे होसकते हैं. इसलिये अधिकमहीना गिनतीमे कभी नहीं छुट सकता For Private And Personal Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२६] और भी देखो-३५४ दिने संवत्सरी प्रतिक्रमण करें,तो भी व्यवहार में ३६०दिनोंकेक्षामणे करनेमें आतेहैं,मगर अप्रत्याख्यानीय कषायके ३६० दिनोंके एक वर्षकी पूरेपूरी स्थितिका निश्चयमें बंध पडा होवे वह बंध, ३५४ दिनोंमें (३६०दिनोंका) कभी क्षय न हो सकेगा,किंतु वो तो समय २ के हिसाबले पूरे पूरे ३६० दिनही भोगने पडेंगे । इ. सीतरहसे चौमासी, व पाक्षिककाभी भावार्थ समझलेना. इसलिये व्यवहारिक क्षामणे करनेके साथ निश्चय संबंधी कर्मबंधनकी स्थितिका दृष्टांतसे भोले जीवोंको मर्यादा उल्लंघन होनेका भय बतलाते हुए अपनी विद्वत्ताके अभिमानसे अधिकमहीना निषेध करना चा. हते हैं, सो प्रत्यक्ष शास्त्रविरुद्ध होनेसे सर्वथा अनुचित है। ३७-चूलिका संबंधी एक अज्ञानता ॥ . कितनेक लोग शास्त्रोके रहस्यको समझे बिनाही कहतेहैं, किजैसे-एक लाख योजनके मेरुपर्वतमें उनकी चूलिका नहीं गिनीजाती है, तैसेही-१२ महीनोंके एक वर्ष अधिकमहीनाभी नहीं गिना जाता। ऐसा कहकर अधिकमहीनेकी गिनती उडाना चाहते हैं.सो उन्होंकी आज्ञानताहै,क्योंकि एक लाख योजनके मेरुपर्वत ऊपर ४० योजनकी उंची चूलिका है,उसपर एक शाश्वत जिन चैत्य है, उनमें १२०शाश्वती श्रीजिनप्रतिमायें हैं, इसलिये ४० योजनकी चूलिकाके प्रमाणकी गिनतीसहित विशेषतासे एक लाख योजनके ऊपर४०योजनके मेरुपर्वतका प्रमाण क्षेत्र समासादि शास्त्रोंमें खुलासालिखाहै, तैसेही १२महीनोंके३५४दिनोंके एकवर्षके प्रमाण उपर अधिकमही. नेके ३०दिनोंकी गिनतीसहित ३८३दिनोंकोभी एक वर्षकी गिनतीमें लियेहैं, इसलिये चूलिकाके दृष्टांतसे अधिकमहीना गिनतीमें निषेध नहीं होसकता, मगर गिनती में विशेष पुष्ट होता है । औरभी दे. खो-पंचपरमष्ठिमंत्र कहनेसे सामान्यतासे पांच पदोंके ३५ अक्षरो. का नवकार कहाजाताहै, मगर उसपरकी ४ चूलिकाओंके ४ पदोंके ३३ अक्षर साथमे मिलनेसे विशेषतासे नवपदोंके ६८ अक्षरोका नवकार मंत्र' चूलिकाओंके प्रमाणकी गिनतीसहित कहने में आता है. इसी तरहसे दशवकालिक व आचारांगसूत्रकी दो दो चूलिकाओका प्रमाणभी गिनतीमें आताहै. तैसेही सामान्यतासे एक लाख योजनका मेरुपर्वत,व१२महीनोंका एकवर्ष व्यवहारसे कहने में आता है मगर विशेषतासे निश्चयमें तोचूलिकाके प्रमाणकी गिनतीसहित एक लाख चालीस योजनका मेरुपर्वत, व आधिक महीनेकी गिनती For Private And Personal Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३७] सहित १३ महीनोंका अभिवर्द्धित वर्ष कहने में आता है, सो सर्व शा स्त्र प्रमाणोंसे प्रकटही है. इसलिये अधिक महीना व मेरुचूलिका वगैरह सब विशेषतासे गिनती में आते हैं, जिसपर भी चूलिका के नामसे अधिक महीना गिनती में निषेध करते हैं, उनकी अज्ञानता है । ३८ - पर्युषण पर्व शाश्वत है; या अशाश्वत है ? यद्यपि पांच भरतक्षेत्रों में व पांच ऐरवर्तक्षेत्रों में चौवीस तीर्थकरमहाराजोंके शासन में प्रथम और चौवीसवें तीर्थकर महाराजके साधुओको चौमासा ठहरने व पर्युषणापर्व करने संबंधी निज निज तीर्थकी अपेक्षासे तो पर्युषणापर्व अशाश्ववत है, मगर अनादि कालकी अपेक्षासे तो शाश्वतही है. इसलिये तीनों चौमासीपर्व, या प र्युषणापर्व, वा आसो, चैत्रकी ओलियोंका अट्ठाईपर्व आने से, भुवनप ति- व्यंतर - ज्योतिषी और वैमानिक इंद्रादि असंख्य देव देवी, अपने समुदाय सहित देवलोक संबंधी अनंत सुखको छोडकर, आठवा नंदीश्वरद्वीपमें जाकर वहां शाश्वत चैत्योंमें श्रीजिनेश्वर भगवान् के शाश्वत जिनबिंबोकी जल- चंदन - पुष्पादिसे द्रव्यपूजा व स्तवन- नाटक वाजित्रादिसे भावपूजा करते हुए महोत्सव करके अपनी आत्माको निर्मल करते हैं । यह अधिकार श्रीजिवाभिगमसूत्र और उनकी टीकावगैरह बहुत शास्त्रों में खुलासा लिखा है. इसी प्रकार पर्युषणादि पर्व आराधन करनेकेलिये जैनीमात्र सर्वश्रावकों को भी विशेषरूपसे धर्मकार्य करने योग्य हैं, इसकाभी विशेष खुलासा ' पर्युषणा अठ्ठाई व्याख्यान' में और कल्पसूत्रकी सबीटीकाओंमें सर्वत्र प्रकटही है, इसलिये यहां पर विशेष लिखनेकी कोई आवश्यकता नहीं है । ३९ - पर्युषणाके विवाद संबंधी सत्यकी परीक्षा करो. जिनाज्ञानुसार सत्यग्रहण करनेवाले आत्महितैषी सज्जनौकों निवेदन किया जाता है, कि आगम नियुक्ति-भाष्य चूर्णि वृति-प्र प्रकरणादि प्राचीन और आजकालके पर्युषणा संबंधी सर्व शास्त्रोंके पाठका, व सभी गच्छोंके पूर्वाचायोंके वचनोंका इस ग्रंथ में मैने संग्रह किया है । और इस भूमिका में भी वर्तमानिक सभी शंकाओं का नंबर वार अनुक्रमसे समाधानभी खुलासापूर्वक करके बतलाया है. और इसग्रंथमैभी अधिकमहीने के ३० दिनोंको गितती में लेनेका निषेध करनेवाले प्रत्येक लेखकोंके सबी लेखोंको पूरेपूरे लिखकर, पीछे उन सब लेखोंकी पंक्ति पंक्तिकी अच्छी तरहसे समीक्षा करके [ इसग्रंथमें ] खुलासापूर्वक बतलाया है, मगर पर्युषणा संबंधी For Private And Personal Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३८] किसभिी लेखककी शंकावाली एकभी बातको छोडी नहीं है। इस लिये इस ग्रंथमें वादी और प्रतिवादी दोनोंके सब पूरे लेखोंको,और आगम पंचांगीके सर्व शास्त्र पाठोंको पक्षपात रहित होकर न्याय बुद्धिसे संपूर्ण वांचने वाले सत्यके अभिलाषियोंको अवश्यही जिना. शानुसार सत्य बातोंकी परीक्षा स्वयंही हो जावेगी. अल्पसंसारी आत्मार्थियोंके लिये तो इस ग्रंथमें लिखे मुजब इतना खुलासा बहुतही है. मगर दीर्घ संसारी भारी कौकी तो बातही अलग है. ४०-जिनाज्ञाकी दुर्लभता। जैसे-पूर्व दिशा तरफ कोई अपना अभीष्ट नगर होवे उसमें जा नेकेलिये थोडा २ भी पूर्व दिशा तरफ चलनेसे अवश्यही उस नग. रकी प्राप्ती होती है, मगर पूर्वदिशा छोडकर पश्चिम दिशामें बहुत २ चले तो भी वो नगर दूरदूरही जायगा, मगर नजदिक कभी न. ही आसकेगा. इसी तरह जिनाशानुसार थोडार धर्मकार्य किया हु. आभी मुक्ति रूपी अपना अभीष्ट नगरमै आत्माको पहुचाने वाला हो ता है, परंतु जिनाज्ञा विरुद्ध बहुतरतपश्चर्यादि धर्म ध्यान व्यवहार में करें; तो भी तत्त्वदृष्टिसे शून्य होनेसे मुक्तिनगरमें पहुंचान वाला नहीं होता. किंतु संसार बढाने वालाही होता है । और वर्तमानिक आग्रही लोगोंकी भिन्न २ प्ररूपणा होनेसे भोले भव्य भद्र जीवोंकों जिनाशानुसार सत्यबातकी प्राप्ति होना अभी बहुत मुश्किल है.यही दशा पर्युषणासंबंधी विवादमेभी हो गई है । इसलिये भव्यजीवोंकों जिनाशानुसार पर्युषणा जैसे अतीव उत्तम पर्वके आराधन होनेकी प्राप्ति होनेकेलिये आगम पंचांगी सम्मत,व सर्व लेखकोंकी शंकाओं का समाधान पूर्वक मैंने इस ग्रंथमें इतना लिखा है। उसको अपने गच्छका आग्रह छोडकर तत्त्वदृष्टिसे पढनेवालोंको अवश्यही जिना. शानुसार सत्यबातकी प्राप्ति हो जावेगी. - और मनुष्य भवमें शुद्ध श्रद्धा पूर्वक जिनाबानुसार धर्म कार्य करनेकी सामग्री मिलना अनंतकालसे अनंतभवो भी महान दुर्लभ है,वारंवार ऐसा सुअवसर कभी नहीं मिलसकता. इसलिये गच्छका पक्षपात, दृष्टिराग, लोकलज्जाकी शर्म, विद्वत्ताका झूठा अभिमान, जिनाशाविरुद्ध अपने गच्छपरंपराकी रूढी, व बहुत समुदायकी दे. खादेखीकी प्रवृत्ति वगैरह बातोको छोडकर जिनामानुसार सत्यग्र. हण करनेमेही आत्मसाधन होनेसे. नरकादि ४ गतियोंके जन्म-मरण-गर्भावास वगैरह अनंत दुःखोंसे छुटना होताहै, इसलिये, जिना. For Private And Personal Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [३९] मानुसार सत्यवातको समझेबादभी जानबुझकर भोलेजीवोंकोउन्मा. में गेरनेकेलिये विद्वत्ताके मिथ्याही अभिमानसे शास्त्रकार महाराजोके अभिप्रायविरुद्धहोकर झूठी २कुयुक्तिये लगाना संसारवृद्धि व दुर्लभबोधिका कारण होनेसे आत्मार्थियोंको सर्वथा योग्य नहीं है । ४१ - पर्युषणापर्व इंधरके उधर कभी नहीं होसकते हैं. कितनेक लोग जिनाशानुसार धर्मकार्य करनेका मर्मभेद समझे बिनाही कहते हैं. कि-पर्युषणापर्व अधिकमहीनाहोवे तब५०दिने करो तोक्या,या ८० दिनेकरो तोभी क्या,मगर आगे या पिछे कभी करने चाहिये. ऐसा कहनेवाले सोने व पितल दोनोंको एकसमान बनानेकी तरह जिनाशानुसार सत्य बातको, और जिनामा विरुद्ध झूठी बातको, एक समान ठहराते हैं । इसलिये उन्होंका कथन प्रमाणभू. त नहीं होसकता, किंतु मोक्षके हेतुभूत जिनाशानुसार ५० दिनेही पर्युषणा पर्वका आराधना करना अवश्यही योग्य है, मगर ८० दिने करना जिनाज्ञा विरुद्ध होनेसे कदापि योग्य नहीं ठहरसकता.देखोजमालि वगैरहोंने जप, तप, ध्यान, आगोका अध्ययन, परोपदेश, क्रिया अनुष्ठानादि हमेशां बहुत २ किये थे, तोभी वे जिनामाविरुद्ध होनेसे संसार बढाने वाले हुए, मगर यही क्रिया अनुष्ठान जिनाबा. नुसार करते तो निश्चय उसी भवमें मोक्ष प्राप्त करने वाले होते, इ. सलिये आत्मार्थी भव्यजीवोंको जिनामानुसारही ५० दिने दूसरे श्रावणमें या प्रथम भाद्रपदमे पर्युषणापर्वका आराधन करना योग्य है, मगर जिनामा विरुद्ध ८० दिने करना योग्य नहीं है। इसबातको भी विशेष तत्त्वज्ञ पाठक जन स्वयं विचार लेवेगें। ४२ -- पर्युषणा पर्वकी आराधना करनेके बदले विराधना करना योग्य नहीं है। पर्युषणा जैसे आनंद मंगलमय परम शांतिके दिनोंमें जिनाशानुसार धर्मकार्यकरके पर्वकी आराधना करते हुए, सर्वजीवोले मैत्रि भावपूर्वक शांततासे वर्ताव करना चाहिये । और वर्षभरके लगे हुए भतिचारोंकी आलोचना करके सबजीवोंके साथ भाव पूर्वक क्षमत क्षामणे करके अपनी आत्माको निर्मल करना चाहिये. जिसके बदले कितनेही आग्रही जन पर्युषणाकेही व्याख्यानमें सुबोधिका-दीपिकाकिरणावली आदि वांचनेके समय:श्रीमहावीर स्वामीके छ कल्याण क आगमों में कहेहैं,उन्होंकों व अधिकमहीनेके३० दिन गिनतीमे लिये हैं। उन्होंको निषेध करनेकेलिये, कितनीही जगहतो शास्त्रविरुद्ध, व For Private And Personal Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४०] कितनीही जगह प्रत्यक्ष मिथ्या कथनकरके आपसमेही विशेषरूपसे खंडन मंडनके झगडे चलाते हैं, और पर्वदिनोंमें सबजीवोंकी जगह केवल जैनीमात्रसेभी मित्रता नहीं रख सकते,उससे मैत्रीभावनाका भंग,विरोधभावकी वृद्धि,व खंडन मंडनसे रागद्वेष करके कर्मबंधनका कारण करते हैं । और शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करनेसे जिनाशाकी. भी विराधना करतेहैं, उससे परिणामोंकीभी मलिनता होनेसे पर्व दिनों में वर्षभरके अतिचारोंकी आलोचना करके आत्माको निर्मल करनेके बदले विशेषरूपसे मलिनकरतेहैं.और खंडन मंडनके झगडे. के लिये सबजीवासे क्षमत क्षामणे करनेके बदले अपनेसर्व जैनीभा. ईयोसेही क्षमतक्षामणे नहींकरसकते. उससे अनंतानुबंधी कषायके उदयहोनेका प्रसंगआनेसे सम्यक्त्वकी व संयमकी विराधना होकर संसारभ्रमणका कारणकरतेहैं. इसलिये कर्मक्षयकारक महामंगलमय शांतिके पर्वदिनोंके व्याख्यानमें श्रीमहावीरस्वामीके छ कल्याणक आगमों में कहेहैं उन्होंको, व अधिकमहीनेके ३० दिनोंको सर्वशा. स्रोमगिनतीमे लियेहैं, उन्होंको निषेधकरनेकेलिये खंडनमंडनके विवादके झगडे कितनेक तपगच्छके मुनिमहाराज जो व्याख्यानमे च. लातेहैं, सो पर्वकी विराधना करनेवाले,शांतिके भंग करनेवाले, अ. मंगळरूप अशांतिको बढानेवाले, व उत्सूत्रप्ररूपणासे संसार बढाने वाले होनेसे, तत्त्वदर्शी, विवेकी, आत्मार्थी भव भिरू, अल्पसंसारी सज्जनोंको अवश्यही छोडना योग्यहै । इस बातकोभी विशेष निपक्षपाति पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं। ४३--पर्युषणाके मंगलिक दिनोंमें क्लेशकारक अमं गलिक करना योग्य नहीं है। यहबात व्यवहारसे प्रत्यक्ष अनुभवपूर्वक देखनेमें आती है,कि. मांगलिकरूप वार्षिक पर्व दिन सुखशांतिसे हर्षपूर्वक व्यतीत होवे, तो, वो वर्षभी संपूर्ण सुखशांतिसे व्यतीत होता है, मगर मांगलिक रूप पर्वदिनों में किसीके साथ विरोधभाव कलेश होकर अमंगलरूप अपशुकन होवे, तो वो वर्षभरभी चिंतासे कलेशमेंही जाताहै,इसलि. ये पर्वके दिनोंमें तो अवश्यही शांति रखना योग्य है । इसप्रकार व्यवहारिक बातकेभी विरुद्ध होकर तपगच्छके अभी कितनेही मुनिमहाराज पर्युषणा जैसेपरम मांगलिकके दिनो मी शांतिसे नहीं बैठते,और सुबोधिका-दीपिका-किरणावली वगैरहके विवादवाले विष. यहाथमे लेकर श्रीमहावीरस्वामिके छ कल्याणक आगमपंचांगी अने. For Private And Personal Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४१] के शास्त्रों में कहे हैं उन्होंको, व अधिकमहीनेके ३० दिन सर्वशालोमें गिनतीलियेहैं,उन्होंको निषेधकरनेकेलिये. अपने धर्मबंधुओंके सा. मने व्याख्यानमें अशांतिके हेतुभूत व अमंगलरूप आपसके खंडनमं. डनसे विरोध भावके झगडे खडे करतेहैं, उससे जैसे राजा वैसी प्रजा'की तरह यही गुण श्रावकामेभी प्रवेश करताहै, इसलिये वर्ष भरके झगडे पर्युषणापर्वमें लाकर कलेशकरके विशेष कर्मबंधनकरतेहैं । इसलिये साधुओंके और श्रावकोंके दोनोंके आपसमें एक एक कीनिंदाकरनेमें,अपनी झूठी २ बडाईकरनेमें, दूसरेका बिगाडकरनेमें, या कोई शासन उन्नतिके कार्यकरतो उनकी साह्यता करनेके बदले उसमे कोईभी अवगुण बतलाकर उसका खंडन करनेमें इत्यादि अमंगलरूप कलेशके कार्यों में सब वर्षचला जाता है । इसलिये दिनोंदिन शासनकी यह दशा होती हुई चली जातीहै। और इससे अपने आत्माके कल्याणमें व परोपकारके कार्यों में भी विघ्न आते हैं, इसलिये मंगलिकरूप पर्वके दिनों में अमंगलिकरूप खंडन मंडनसंबंधी विरोधभावको आपस मेंखडाकरना सर्वथाअनुचितहै.और अपनीसचाई जमानेकेलिये खंडनमंडन वैरविरोधके झगडेही करनेकी इच्छा होतोभी पर्वदिन छोडकर अन्यभी बहुतदिन मौजूद हैं, मगर पर्युषणा पर्व अराधन करनेकेलिये सर्व गच्छवाले श्रावक मुनिराजोंके पास उपाश्रय,धर्मशालामें आवे; उसवखत अपने आपसके खंडनमंडनके विरोधभाववालीबातकोंचलाना यह कितनी बडीअनुचितबातहै.औ. र मंगलिकरूप पर्वदिन किसीप्रकारसेभी कलेशकारक खंडनमंडन के विरोधभावसे अमंगलिकरूप न बनाकर शास्त्रानुसार शांतिसेपर्व काआराधन होतो आत्माभी निर्मलहोवें,वर्षभी हर्षपूर्वक सुखशांतिसे जावे,बुद्धिभी अच्छी होवे. और आत्म साधन व परोपकारभी विशेषरूपसे होवे, संपसे शासन उन्नतिके कार्यों में भी वृद्धि होनेसे वर्तमानिक यह दशाकाभी शीघ्र सुधारा होवे. इसलिये वार्षिक पर्वरूप पर्युषणा शांतिमय सर्वजीवोंके साथ मैत्रिभाव पूर्वक आराधन करके उसमें मांगलिक कार्यकरने चाहिये। और विरोधभावके का. रणरूप खंडन मंडनके अनुचित वीवको छोडनाही अपनेको व दू. सारे भव्य जीवों कोभी कल्याणकारक है । और शासनकी उन्नतिका भी हेतुभूत है. इसबातको जो आत्मार्थी निकट भव्य होंगे, सो दीर्घ दृष्टिसे खूब विचारेंगे, और ऊपर मुजब शास्त्रविरुद्ध अनुचित व्यव. हारको छोडकर शास्त्रानुसार संघ शांतिका उचित व्यवहारको अव. श्यमेवही ग्रहण करेंगे, व दूसरोंकोभी ग्रहण करावेंगे। For Private And Personal Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४] ४४ - अभीके झूठे आग्रहीजनोंकीमलीन बुद्धि और सम्यक्त्वी मिथ्यात्वीकी परीक्षा. कोईभी वादविवादके विषयकी चर्चा करनेमे पहिले वाले स. म्यक्त्वी आत्मार्थी होतेथे, वो तो तत्त्वार्थकी दृष्टितरफ विचारकरके सत्य बातग्रहण करतेथे और अपना पक्ष छोडने में किसीप्रकारकीभी हानीनहीं समझतेथे.श्रीगौतमस्वामि आदिगणधर महाराजॉकी तरह तथा श्रीसिद्धसेनदोवाकर, श्रीहरिभद्रसूरिजीवगैरह उत्तमपुरुषोंकी तरह. और अभीके झूठे अभिमानी अंतर मिथ्यात्वी हठाग्रही होतेहैं, वो तो शास्त्रोंकी बातको मनमें समझने परभी अभिमानसे सत्यबा. तको ग्रहणकरके अपनाझूठा पक्ष छोडनेमें बडीभारी हानीसमझतेहैं, आनंदसागरजी, शांतिविजयजी वगैरहोंकीतरह ( इसका खुलासा आगे लिखंगा) और शास्त्रोके अभिप्रायविरुद्ध होकर व्यर्थही झूठी २ कुयुक्तिये लगाते हैं, या विषयांतर करके सामनेवालेपर वा उनके समुदायपर विरोधभावको बढानेवाले आक्षेप करने लगजाते हैं । औ. र मुख्यमुइके विवादको छोडकर निंदा ईर्षासे राग, द्वेष करके विरो. धभावसे अपनेको और दूसरोंकोभी कर्मबंधन कराने हेतुभूत बन. तेहैं.मगर झूठे आग्रहसे उत्सूत्रप्ररूपणा करके कुयुक्तियोंसे भोले जी. वोंको उन्मार्गमें गेरनेसे वा राग, द्वेष,निंदा, ईर्षासे विरोधभाव कर नेसे संसार बढनेकाभय नहीं रखते हैं, इसलिये अभीके झूठे आग्रही जनोंकीमलीन बुद्धि कही जाती है.इसीप्रकार पर्युषणा संबंधीमी यह ग्रंथ वांचे बाद अब देखने में आवेगा,कि-५०दिन प्रतिबद्ध पर्युषणांके विषयको छोडकर मासप्रतिबद्ध होली,दीवाली, दशहरा आदिके वि. षयांतर या अंगत आक्षेपकरने में कौन २महाशय अपनेअंतरंग आस्माके कैसेरगुणप्रकाशित करेंगे,सो तत्त्वज्ञजनस्वयं देख लेवेगे. इस. लिये यहांपर अभीसे पहिले विशेषलिखनेकी कोई आवश्यकता नहींहै. ४५-इस ग्रंथ संबंधी लेखकोंकों सूचना. इस ग्रंथपर किसी तरहकाभी लेख लिखने वाले महाशयोंको सू. चना करनेमें आती है, कि-जैसे-मैने इसग्रंथमें सुबोधिका-दीपिका किरणावली वगैरहके विवादवाले प्रत्येक लेखाको पूरेपूरे लिखकर पीछे शास्त्रानुसार व युक्तिपूर्वक उसकी समीक्षामें खुलासा करके बतलाया है, मगर विवादवाली एकभी बातको छोडी नहींहै. वैसे ही इस ग्रंथपर लेख लिखनेवाले आप लोगभी रसग्रंथके प्रत्यक वि. For Private And Personal Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४३] षयको पूरेपूरा लिखकर पीछे उसपर अपना विचार सुखसे लिखें, मगर शास्त्रोंके पाठोवाली सत्यरबातोके पृष्ठकेपृष्ठ छोड़कर कहींकहीकी अधूरी २ बातें लिखकर शास्त्रकार महाराजोके अभिप्राय वि. रुद्ध होकर संबंध बिनाके अधूरे २ पाठ लिखकरके कुयुक्तियोंसे स. त्य बातकोझूठी ठहरानेका व भोलेजीवोंको उन्मार्गमे गेरनेका उद्यम न करें. अन्यथा लेखकों में कितना न्याय व आत्मार्थीपनाहै, और स. म्यक्त्वका अंशभी कितनाहै, उसकी परीक्षा विवेकी विद्वानोंमें अ. च्छी तरहसे हो जावेगा, और उसको सभामें सिद्ध करके बतलानेको तैयार होना पडेगा. फिर शास्त्रार्थ करनेमें मुह नहीं छुपाना विशेष क्या लिखे। ४६- उत्सूत्र प्ररूपणाके विपाक ॥ शास्त्रार्थ करनेको सभामें आमने सामने आनामंजूरकरना नहीं, व अपनाझूठा आग्रह छोडकर सत्य बातग्रहणभी करना नहीं. और विषयांतरकरके कुयुक्तियों से शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणाकरते हुए दृष्टिरागी व भोले जीवोंको उन्मार्गमें गेरनेका उद्यम करते रहना. उससे दृष्टिरागी, पक्षपाती, अज्ञानी लोग चाहे जैसे पूजेगे,मानेगे, मगर "उ सूत्त भासगाणं बाहि णासो अणंत संसारो" इत्यादि, तथा“सम्मत्तं उच्छिदीय, मिच्छत्तारोवणं कुणई निय कुलस्स ॥ तेण सयलो वि वंसो, कुगई मुह समुहो नीओ॥१॥” इत्यादि, देखो-शास्त्रविरु. द्ध होकर उत्सूत्र प्ररूपणा करने वालेके बोधिबीज (सम्यक्त्व) का नाश होकर अनंत संसार बढता है, और जिसने अपने कुलमें, ग. णमें (गच्छमे),समुदायमें सम्यक्त्वका नाश करनेवाली मिथ्यात्वकी प्ररूपणाकी होवे, वो अपने सब वंशको, गच्छको, समुदायकोभी. दुर्गतिमें गेरनेवाला होताहै । शिवभूति-लुंका- लवजी-भीखम वगै. रह झूठे २ मत चलानेवालोंकी तरह इत्यादि भावको विचारो और संसारसे उदासीन भावधारण करनेवाले, आत्मार्थी, भव्यजीवोंकों उन्मार्गका रस्ता बतलानेवाला 'शरणे आनेवालोंका विश्वासघातसे शिरच्छेदन करनेवालेसेभी' अधिक दोषी ठहरता है, और यह याद रखने योग्य बात है, कि-दृष्टिराग, लोकप्जा, मानता, व झूठा आग्रहका अभिमान परभवमें साथ न चलेगा. मगर उत्सूत्रप्ररूपक ८४लाख जीवायोनीका घात करनेवाला होनेसे उसके विपाक अव. श्यही भवांतर भोगे बिना कभी नहीं छुटेंगे, इस बातपर खूब वि. चार करना चाहिये । और जिनामानुसार सत्यप्ररूपणा करके भव्य For Private And Personal Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४४] जीवोंको मुक्तिमार्गका रस्ता बतलानेवाले ८४ लाख जीवायोनीके स. 4 जीवोंको अभयदान देनेसे महान्पुण्यके भागी होते हैं, और अपने कुलको, गच्छको, समुदायकोभी सद्गतिके भागीबनातेहे, व आपभी अपनी आत्माको निर्मल करके अल्पकालमें निर्वाण प्राप्तकरने वाले होतेहैं, श्रीगौतमस्वामी गणधरादि उपकारी महाराजौकी तरह. इ. सलिये संसारसे डरनेवाले आत्मार्थियों को झूठा आग्रह छोडकर वगर विलंबसे सत्यग्रहण करना चाहिये । इस बातकोभी विशेष विवेकी निष्पक्षपाति पाठक गण स्वयं विचार लेवेंगे। ४७- सुबोधिका-दीपिका-किरणावली वगैरहकी पर्युष णा संबंधी तथा छ कल्याणक संबंधी शास्त्रविरुद्ध प्ररू. पणाकी भूलोंकों सुधारनेकी खास आवश्यकताहै. १- जैनपंचांगके अभावसे अभी महीना बढे तो भी “जैन टि. प्पणकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगांते चाषाढ एव वर्धते, नान्येमासास्तट्टिप्पणकं तु अधुना सम्यग् न ज्ञायते, ततःपंचाशतैव दिनैः पर्युषणा संगतेति वृद्धाः" इस वाक्यसे सुबोधिका-दीपिकाकिरणावली इन तीनों टीकाकारोंने अपने तपगच्छकेही पूर्वाचार्यों की आज्ञासे ५० दिने दूसरे श्रावणमें या प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणापर्वकी आराधना करनेका लिखा है, फिर उसीकोही उत्थापन करनेके लिये शास्त्रविरुद्ध और अपने प्राचीन पूर्वाचार्योकेभी विरुद्ध होकर कुयुक्तियोंका संग्रहकिया है, यह सबसे बडी प्रथम भूलकी है, उसको वगर विलंबसे खास सुधारनेकी आवश्यकता है। .. २- निशीथचूर्णिमें अधिकमहीनेको कालचूलाकहकरकेभीउसके ३०दिन पर्युषणासंबंधी दिन संख्याकी व्यवस्थामें गिनतीमें लिये हैं, उसको कालचूलाकेनामसे निषेद्ध किये सोयहभी दूसरी भूलकीहै। ३-निशीथ चूर्णिके अधिक मासके अभाववाले ५०दिनों संबंधी अधूरे पाठ भोलेजीवोंकों बतलाकर अभी दोश्रावण होवे,तबभी जि. नाशाविरुद्ध होकर ८०दिने पर्युषणा होनेका भय न करके भाद्रपद में पर्युषणा करनेका ठहराया सो भी तीसरी भूलकी है। ४- अधिक महीनेके अभावमें सामान्यतासे पर्युषणाके पिछाडी कार्तिकतक ७० दिन रहनेका कहाहै,उसको समझोबिना आधिक महीना होवे तब विशेषतासे शास्त्रानुसारही १०० दिन होते हैं, उ. सकीजगहभी ७०दिन रहनेका आग्रह किया सोभी चौथी भूलकीहै। For Private And Personal Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४५ ] ५- पौष - आषाढ-श्रावणादि बढे तब शास्त्रानुसार या प्रत्यक्षभी पांच महीनों से फाल्गुन- आषाढ- कार्तिक में चौमासीप्रतिक्रमण करने में आता है, जिसपर भी श्रावणादि बढ़ें तब आसोज में ४ महीनोंसे चौमासी प्रतिक्रमण करनेका बतलाया सोभी पांचवी भूलकी है । ६ - पहिले मास बढ़ताथा तबभी २० दिने वार्षिक कार्य पर्युषणा करतेथे, उनको सर्वथा उडादिये सो भी यह छठ्ठी भूलकी है । ७ -- मास बढे तब १३ महीनोंके क्षामणे वार्षिक प्रतिक्रमण में, तथा पांच महीनों के क्षामणे चौमासी प्रतिक्रमणमें हमलोग करते हैं, तो भी मास बढे तब १२ महीनों के वार्षिक क्षामणे, तथा ४ महीनोंके चौमासी क्षामणेकरनेका प्रत्यक्ष झूठलिखा सोभी यह सातवी भूलकी है. ८- पौष - चैत्रादिमहीने बढ़ें तब शास्त्रप्रमाणमुजब और प्रत्यक्षमैं भी १० कल्पी विहार होता है, जिसपर भी मास वृद्धि के अभाव - संबंधी ९ कल्पी विहारकी बात बतलाकर मास बढे तबभी १० क ल्पी विहारका निषेध किया सो भी यह आठवी भूलकी है । ९- अधिक महीने में सूर्यचार होता है, जिसपर भी नहीं होनेका प्रत्यक्षही झूठ लिख बतलाया सो भी यह नवमी भूलकी है । १०- श्रावणादि महीने बढे तब उनकी गिनती सहित प्रत्यक्षही पांचवें महीने के नवमें पक्षमें ४ || महीनोंसे दीवालीपर्व करनेमें आता है, और कभी दो कार्त्तिकमहीने होंवे, तबभी प्रथम कार्तिक महीने में दीवाली पर्व करनेमें आता है. जिसपर भी दीवाली वगैरह पवमें अधिक महीना नहीं गिननेका प्रत्यक्षही झूठ लिखा सो भी यह दशवी भूलकी है । ११ - यज्ञोपवित, दीक्षा, प्रतिष्ठा, विवाह, सादी वगैरह मुहूर्त्तवाले कार्य तो अधिकमहीने में, क्षय महीने में, चौमासेमें, और सिंहस्थादि बहुतयोगों में भी नहीं करते. मगर चौमासी पर्व व पर्युषणापर्वादि तो अधिकमहीने में, क्षयमहीने में, चौमासेमें, और सिंहस्थादिमैही करनेमें आते हैं । जिसपर भी मुहूर्त्तवाले कार्योंकी तरह अधिक महीनेमैं पर्युषण पर्व करने काभी निषेध किया सो यहभी जिनाशा विरुद्ध उत्सूत्रप्ररूपणारूप इग्यारहवी बडी भूलकी है. I १२- ५० दिने प्रथमभाद्रपद में पर्युषणापर्व करने चाहिये, जि. सके बदले दूसरे भाद्रपद में करनेका लिखा सो ८० दिन होने से यहभी शास्त्रविरुद्ध बारहवी बड़ी भूलकी है । १३ - जैसे देवपूजा, मुनिदाने, आवश्यकादि कार्य दिन प्रतिबद्ध हैं, वैसे ही - पर्युषण पर्व भी ५० दिन प्रतिबद्ध हैं, इसलिये जैसे-अधिक For Private And Personal Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४६] महीनेके३०दिन देवपूजा,मुनिदानादि कार्यों में गिनतीमें लिये जातेहैं, तैसेही-पर्युषणापर्व करने संबंधीभी अधिक महीनेके ३० दिन गिनतीमें लिये जातेहैं, जिसपरभी पर्युषणापर्व करने में अधिक महीनेके ३०दिन नहीं गिननेका लिखा, सोभी यह तेरहवी बड़ी भूलकी है । १४- अधिक महीनेके ३० दिनोंमें वनस्पति बढती है, व फूल, फलादिकभी प्रत्यक्षमें होते हैं, जिसपरभी आवश्यक नियुक्तिकी गा. थाका भावार्थ समझे बिनाही अधिक महीनेमें वनस्पति पुष्पवाली नहीं होनेका लिखा, सो भी यह चौदहवी बडी भूलकी है। - इत्यादि अनेक तरहसे शास्त्रविरुद्ध होकर अधिक महीने के३० दिनोंको गिनतीमें लेनेका निषेध करनेके लिये उत्सूत्रप्ररूपणारूप ब. हुत बडी २ भूलेंकी हैं, उन्होंको खास सुधारनेकी आवश्यकता है। अब शासननायक श्रीमहावीरस्वामीके आगमोक्त छ कल्याणकोंका निषेध करने संबंधी भूलोंका थोडासा खुलासा लिखते हैं। १५- तीर्थकर महाराजोंके च्यवन-जन्मादिकोंको कल्याणक पना आगमानुसार अनादि सिद्ध है, इसलिये उन्होंको च्यवनादि वस्तु कहो, चाहे च्यवनादि स्थान कहो, या च्यवनादि कल्याणक कहो, यद्यपि वस्तु व स्थान शब्दअनेकार्थवाले हैं, तोभी तीर्थकरमहाराजोंके चरित्रमें प्रसंगसे च्यवन-जन्मादिकमें सब एकार्थवाले पर्यायवाचक शब्द अलग २ है, मगर सबका भावार्थ एकहीहै, किंतु भिन्न २ नहीं है। इसलिये श्रीपार्श्वनाथस्वामीके तथा श्रीनेमिनाथ स्वामीके च्य. वनादि पांच पांच कल्याणकोंकी तरहही श्रीमहावीरस्वामीकेभी च्यवनादि पांच कल्याणक उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रों और छठा निर्वाण कल्याणक स्वातिनक्षत्रमें होनेका कल्पसूत्रादि आगमोमें खुलासा पूर्वककहाहै। जिसका मर्म समझे बिना कल्पसूत्रकेमूल पाठके अर्थ. में च्यवनादि छ कल्याणकोका निषेधकरनेके लिये छ वस्तु, या छ स्थान कहकर अनादिसिद्धकल्याणक अर्थकोउडादिया यह सूत्रार्थके उत्थापनकरनेवाली उत्सूत्रप्ररूपणारूप सबसेबडीपंदरहवी भूलकीहै. - १६- श्री महावीर स्वामीके प्रथम च्यवन कल्याणकक दिनमें तो आषाढ सुदी ६ को इन्द्र महाराजका आसन चलायमानभी नहीं For Private And Personal Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [.४७] हुआ, तथा इन्द्रमहाराजने अवधिज्ञानसे देवानंदामाताके गर्भमें भगवान्को देनेभी नहीं,और नमुत्थुणं वगैरह कुछभीनहींकिया तोभी उन्हींको कल्याणकपना मानते हैं. और कल्पसूत्रमूल तथा उन्हींकी सर्वटीकाआदि अनेकशास्त्रों के अनुसारतो यही सिद्ध होताहै, कि ८२ दिन गये बाद गर्भापहाररूप दूसरे च्यवन कल्याणकके दिनमें आसोज वदी १३ को इन्द्रमहाराजने अवधि शानसे भगवानको देखेहैं, तब हर्षसहित सिंहासनसे नीचे उत्तरकर विधि पूर्वक 'नमुत्थु णं' किया.और हरिणेगमेषि देवको आशा करके त्रिशलामाताकी कुक्षिमे स्थापित करवाये हैं, तब त्रिशलामाताने असोजवदी १३ कीरात्रिको तीर्थकरभगवान्के अवतार लेनेकी सूचना करानेवाले १४ महास्वप्न देखेहैं । और कलिकाल सर्वज्ञ विरुद धारक श्रीहेमचंद्रसूरिजी महा राजने तो 'श्रीत्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र' के दशवे पर्वमें श्रीमहावीरस्वामीके चरित्र में लिखा है, कि-गर्भापहारके दिन आसोजवदी १३ को इन्द्रमहाराजका आसन चलायमान होनेसे अवधिशानसे भ. गवान्को देखकर नमस्काररूप'नमुत्थु गं'किया और हरिणेगमेषिदेव द्वारा त्रिशलाके गर्भमें स्थापित करवाये, तव त्रिशलामाताने तीर्थकरभगवान्के अवतार लेनेकी सूचना करानेवाले १४ महास्वप्न दे. खेहै, उसके बाद खास इन्द्रमहाराजने त्रिशलामाताके पास आकर १४ महास्वप्न देखनेसे उनका फल तीर्थकर पुत्र होनेका कहा है, त. था धनद भंडारीको आशा करके देवताओं द्वारा धन धान्यादिकसे सिद्धार्थ राजाके राज्य ऋद्धिकी भंडारादिमें वृद्धि कराई है, इत्यादि अनेक पाते च्यवन कल्याणकपनेकी सिद्धिकरनेवाली प्रत्यक्षमें हुयाहैं । इसलिये इन्हींकोही गर्भापहाररूप दूसरा च्यवन कल्याणक मानते हैं । उसका भावार्थ समझे बिनाही कल्याणकपनेका निषेध करनेकेलिये राज्याभिषेककी बात बीचमें लाते हैं, मगर श्रीऋषभदे. घ भगवान्के राज्याभिषेकमें तो किसीभी कल्याणकपनेके कोई भी लक्षण नहींहै,इसलिये राज्याभिषेकको जन्म दीक्षादि कोईभी कल्याणक नहीं मानसकते हैं, परंतु इस अवसर्पिणी में प्रथम राज्याभिषेक उत्तराषाढा नक्षत्र में इन्द्रमहाराजने किया, और प्रथम राज्यप्रवृत्ति चलाया,उसकी याद गिरिके लिये केवल राज्याभिषेकका नक्षत्र मा. त्रही च्यवनादि कल्याणकोंके साथ बतलायाहै, उसका भावार्थ स. मंझबिनाही उसकोभी कल्याणकपना ठहरानेका आग्रहकरना,या रा. ज्याभिषेकके समान गर्भापहारकोभी कल्याणकपने रहित ठहराना For Private And Personal Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४८ ] सोभी मपहाररूप दूसरे च्यवनकल्याणकके और राज्याभिषेक के, भावार्थको समझे बिना व्यर्थही यह सोलहवीभी बडी भूल की है । १७- जैसे श्रीमल्लीनाथस्वामी स्त्रीत्वपनेमें तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं. सो विशेषताले प्रसिद्ध ही है, तो भी चौवश तीर्थंकर महाराजोंकी अपेक्षा से सामान्यता से श्रीमल्लीनाथ स्वामीको भी पुरुषत्वपनेमें कहमें आते हैं. मगर उसमें सामान्य विशेष संबंधी अपेक्षाकी भिन्नता दोवेसे इनबातके आपस में कोई तरह का विरोधभाव नहीं आ सकता है, तैसेही - श्रीमहावीरस्वामीकेभी विशेषता से छ कल्याणक आचारांग, स्थानांग, कल्पसूत्रादि आगमों में कहे हैं, तो भी अतित, अनागत, और वर्तमान काल संबंधी भरतक्षेत्र के तथा ऐरवर्त क्षेत्रके सर्व तीर्थकर महाराजों की अपेक्षासे सामान्यताले श्रीमहावीर स्वामीकेभी पांच कल्याणक 'पंचाशक सूत्रवृत्ति' में कहे हैं, मगर उनमें सामान्य विशेष अपेक्षाकी भिन्नता होनेसे इनके आपस में कोई तरहका विरोध भाव कभी नहीं आ सकता है, तो भी आचारांग, स्थानांगादि आगमोके छ कल्याणको संबंधी विशेषता के और 'पंचाशक' के पांच क ल्याणको संबंधी सामान्यता के अभिप्राय को समझे बिनाही सामान्य पांच कल्याणकों संबंधी पूर्वापर संबंध बिनाका अधूरापाठ अल्पक्ष भोलेजीवों को बतलाकर आगमोंमें विशेषतापूर्वक छ कल्याणक कहे हैं, उन्होंका निषेध करनेके लिये आग्रह किया है, सो भी अज्ञानता जनक सर्वथा अनुचित यह सत्तरहवी भी बडी भूलकी है । १८- आचारांग, स्थानांगादि मूल आगमों में च्यवनादि अलग २३ कल्याणक खुलासा पूर्वक बतलायें हैं, और उन्होंकी टीकाओं में भी व्यवनादि कल्याणक अर्थकी सूचना करनेवाले पर्याय वाचक च्यवनादिछ स्थान बतलायें हैं. उनका तत्त्वदृष्टिसे भावार्थ समझे बिनाही व्यवनादिकोंकों वस्तु या स्थान कहकर कल्याणकपनेका सर्वथा निषेध किया, सोभी अतीव गहनाशयवाले आगमोंके भावार्थका अज्ञानपना होनेसे यहभी अठारहवी बडी भूलकी है । १९ - आषाढ शुदी ६ को भगवान् देवानन्दामासाकी कुक्षिमै आ बे, सो नीच कर्म विपाकका उदयरूप है, उसीकोही शास्त्रका - रोने आश्वर्यरूप अच्छेरा कहा है, तोभी उनको प्रथम च्यवनकल्याणक मानते हैं. और गोत्रका कर्मविपाक क्षय हुए बाद पीछे उंचगौत्र के कर्म विपाकका उदय होनेसे आसोज वदी १३ को त्रिशला माताकी कुक्षिमें उत्तम कुलमें भगवान् पधारे हैं तब अनादि कालकी मर्या For Private And Personal Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४९) दामुजब तीर्थंकरमहाराजोंकी माताओंके गर्भमे तीर्थकरउत्पन्न होनेकी सूचना करानेवाले १४ महास्वप्न देखनेकी तरहही त्रिशलामातानेभी१४महास्वप्न आकाशसे उत्तरतेहुए देखे हैं,इसलिये यहतो दूसरा च्यवनरूप कल्याणकपना प्रत्यक्षमेही सिद्ध है। उन्हींको नीच गौत्रका विपाकरूप और आश्चर्यरूप कहकर कल्याणक पनेका निषेध किया सो यहभी एकोणवीशीभी बडी भूलकी है। २०-जैसे देवलोकसे देवभव संबंधी आयु पूर्ण होनेपर वहांसे च्यवनरूप कारणहोनेसे माताकेगर्भमें उत्पन्न होनेरूप(अवतारलेनेरूप) कल्याणकपनेका कार्यहोताहै, तो भी कारणमें कार्यका उपचार होने से च्यवनकोही कल्याणकपना कहने में आता है. तैसेही-गर्भापहाररूप कारण हानेसे तीर्थकरपने में प्रकट होनेके लिये गर्भसंक्रमणरूप (अवतारलेनेरूप)दूसराच्यवनरूप कल्याणकपनेका कार्यहुआहै.तोभी कारणमें कार्यकाउपचार होनेसे गर्भापहारको कल्याणकपना कहनेमें आताहै.इसलिये उनको गर्भापहार कहो, गर्भसंक्रमण कहो, त्रिशलाकुक्षिमें अवतार लेने का कहो, या दूसरा च्यवनरूप कल्याणक कहो, सबका तात्पर्यार्थसे भावार्थ एकही है.इसलिये इनके आपसमें किसी तरहका विरोधभाव नहींहै.इसप्रकार तीर्थकरपने में प्रकटहोनेकेलिये त्रिशलामाताके गर्भ अवतारलेनेरूप गर्भापहारके अतीव उत्तम कार्यके भावार्थको समझे बिनाही गर्भापहारको आतिनिंदनीक कहते हैं, सो तीर्थकरभगवान् के अवर्णवाद बोलनेरूप ( आशातना करनेरूप) दुर्लभबोधि पनेकी हेतुभूत यहभी वीशवी बडी भूलकी है। २१- जैसे-श्रीआदीश्वर भगवान् १०८ मुनियों के साथ एक स. मयमै अष्टापदपर्वत ऊपर मोक्ष पधारे हैं, उनको आश्चर्यरूप अच्छेरा कहतेहैं,तोभी उन्हीकोही मोक्षकल्याणकभी मानतेहैं, तथा श्रीमल्लीनाथस्वामीके जन्म, दीक्षा, व केवलज्ञानकी उत्पत्ति वगैरह सर्व कार्य स्त्रीत्वपने में हुएहैं,उन्होंको आश्चर्यकारक अच्छेरेकहते हैं, तोभी उन्हों. कोही जन्म, दीक्षादिक कल्याणकभी मानते हैं । तैसेही श्रीमहावीर. स्वामिके गर्भापहारकोभी आश्चर्यकारक अच्छेराकहतेहैं,तो भी उनको दूसरा च्यवनरूप कल्याणकपनाभी मानने में आताहै, उसका आशय समझे बिनाही गर्भापहारको आश्चर्यकहके कल्याणक पनेका निषेध किया सो भी अज्ञानताजनक यह एकवीशवीभी बड़ी भूलकी है. . २२-- जैसे-श्रीसिद्धसेनदीवाकरसूरिजी महाराजने उजयनीनगरी में दबी हुई थीएवंतिपार्श्वनाथजीकी प्राचीनप्रतिमा को फिरसे प्रकट For Private And Personal Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५० की, तथा गुजरात देशमें अणहिलपुरपाटणमे शिथिलाचारी चैत्यवा. सियाने संयमधर्मको दबा दियाथा, उसको श्रीजिनेश्वरसूरिजी महा. राजने वहां जाकर फिरसे प्रकट किया और श्रीनवांगीवृत्ति कारक खरतरगच्छनायक श्रीअभयदेवसूरिजी महाराजने श्रीस्थंभनपार्श्वना. थजीकी प्राचीनप्रतिमाको फिरसे प्रकटकी.तैसेही-कल्प,स्थानांग,द. शाश्रुतस्कंध,आचारांगादिआगमोंमेकहेहुए श्रीमहावीरस्वामीकेच्यवनादि छ कल्याणकोको मेवाडदेशमें चितोडनगरमै शिथिलाचारी, लिंगधारी, चैत्यवासियोंने दबा दियेथे,उन्होंकोही श्रीजिनवल्लभसू. रिजी महाराजने वहां जाकर फिरसे प्रकट किये है. सो शास्त्रविरुद्ध नवीन नहीं,किंतु आगमोक्त प्राचीनही है जिसकाभी भावार्थ समझे. बिनाही नवीन प्रकट करनेका कहतेहैं, सो भी अज्ञानताजनक प्रत्यक्ष ही मिथ्या भाषणरूप यह बावीशवीभी बडी भूलकी है। २३- जैसे-अभी वर्तमानिक गच्छौके पक्षपाती लोग अहमदाबाद वगैरह शहरों में अपने गच्छके उपाश्रय वा धर्मशाला वगैरह मकान खालीपडेहोवें, तोभी अन्यगच्छवाले शुद्धसंयमीमुनियोको उस मका. नमें ठहरने नहीं देते,और यति लोगभी अपने गच्छके आश्रित भगवा. नके मंदिर में अन्य गच्छकेयतिको स्नात्र महोत्सवादि पूजापढाने नहीं देते.जिसपरभी अन्यगच्छवाला कोई यति अपनेगच्छ के आश्रित मंदिरमें स्नात्रमहोत्सवादि पूजापढानेको आवे, तो वो लोग मरणे मारणे शिरफोडनेको तैयार होतेथे,और कहतेथे,कि ऐसा कभी पहिले हुआ नहीं और अभी होने देंगेभी नहीं.'यहबात गच्छोंके विरोधभावसे मा. रवाड,गुजरात वगैरहदेशोंमें पहिले प्रसिद्धहीथी और कोई शहरों में अबीभी देखने में आतीहै। इसी तरह सेही पहिले चैत्यवासी लोगभी आपसके द्वेषसे या लोभदशाले अपने गच्छके आश्रित मंदिर में अ. न्यगच्छवालेको स्नात्रपूजा महोत्सव,प्रतिष्ठादि कार्य नहीं करनेदेतेथे. उस अवसरमें श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराजभी गुजरातदेशसे वि. हार करके मेवाडदेशमें विशेषलाभ जानकर जिनाज्ञाविरुद्ध शिथि लाचारी चैत्यवासियोंका अविधिमार्गका निषेध करतेहुए; जिनामा नुसार विधिमार्गका उपदेशद्वारा स्थापन करतेहुए, भव्यजीवोंके उ. पकारकेलिये चितोडनगरमें पधारे.तब वहांवाले चैत्यवासियोंने औ. र उन्होंके पक्षपातिभक्तलोगोंने अपनीभूल प्रकटहोनेके भय से महारा. जको शहरमें ठहरनेकेलिये कोईभीजगह नहीं दिया और द्वषबुद्धिसे चामुंडिका देवीके मंदिरमें ठहरनेका बतलाया, तब महाराज तो दे For Private And Personal Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५१ ] athी आज्ञा लेकर वहांही ठहरे. उनके संयमानुष्ठान, जप, तप, ध्यान, धैर्य, ज्ञानादिगुण देखकर देवी भी प्रश्न होकर जीवहिंसा छोडकर, जी. वदया पालनेवाली व महाराजकीभक्ति करनेवाली होगई. और शहर वालेभी पुण्यवान् भव्यजीव जिनाशानुसार सत्यधर्मकी परीक्षाकरनेको वहां महाराजकेपास थोडे२ आनेलगे. और अन्य दर्शनियों में भी महाराज के विद्वत्ताकी बडी भारी प्रसिद्धि होनेसे बहुत लोग अपना संशय निवारणकरने केलिये महाराजकेपास आनेलगे, शहरभर में बहुत प्रसंशा होने लगी, तब कितनेक गुणग्राही श्रावक लोगभी महाराज को गीतार्थ, शुद्ध संयमी और शास्त्रानुसार विधिमार्ग की सत्यबातें बतलानेवाले जानकर, चैत्यवासियोंकी शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणाकी तथा चैत्यकी पैदास से अपनी आजीविका चालने की स्वार्थी कल्पितबातोंको छोडकर महाराज केपास शास्त्रानुसार सत्यबातोंकों ग्रहण करने वाले होगये । पीछे महाराजका चौमासाभी वहां करवाया, तब तो महाराज चैत्यवासियों की शिथिलता और अविधिको खूब जोरशोर से निषेध करने लगे और जिनाशानुसार विधिमार्ग की सत्यबातें विशेपरूप से प्रकाशित करने लगे, उसको देखकर बहुत भव्य जीव चैत्यवासियोंकी मायाजाल से छुटकर शास्त्रानुसार क्रिया अनुष्ठान करने लगे. तब तो चैत्यवासी लोग महाराज ऊपर बहुत नाराज होगये और अपनी शास्त्रविरुद्ध भूलोको सुधारने के बदले पांचसौ चैत्यवासी इकट्ठे होकर लकडीयें वगैरह हाथमें लेकर महाराजको मारनेके लिये आये, इसबात की अच्छे २ आगेवान श्रावकोंद्वारा चितोडनगरके राजाको मालूम पडनेसे महाराज ऊपरका यह उपसर्ग वहांके राजाने दूर किया, चैत्यवासी लोग बहुत द्वेष करतेथे और नगर भरके सबमंदिर चैत्यवासियोंके ताबेमें थे. उस अवसर में महाराज श्रावकों के साथ श्रीमहावीरस्वामीके दूसरेच्यवन कल्याणकसंबंधी आसोजवदी १३को चैत्यवासियोंके मंदिर देववंदनादि करनेको जानेलगे, तब पहिले के विरोधभाव के कारणसे राज्यमानआगेवान् बहुतश्रावकले ग साथमैथे, इसलिये चैत्यवासीलोगतो कुछभी बोलसके नहीं, मगर एक चैत्यवासीनीबुढिया अपने स्त्रीजाती के तुच्छस्वभाव से अपने गच्छकेआश्रित भगवान् के मंदिर के दरवाजेपर आडी सोगई और क्रोधसे बोलने लगी कि- 'पहिले ऐसा कभी हुआ नहीं और यह अभी करते हैं, सो मेरे जीवतेतो मंदिर में नहीं जाने दूंगी; मेरेकोमारकर पीछे भले अंदरजावो For Private And Personal Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५२] ऐसाउस चैत्यवासीनी बुढियाका क्रोधसहित अनुचित वर्तावकोदेख कर; यद्यपि श्रावकलोग उसको दरवाजेसे हटाकर मंदिर दर्शन करनेको जासकतेथे, तो भी स्त्रीकेसाथ वैसा करना योग्य न समझकर महाराजके साथ पीछे अपने स्थानपर चले आये. इत्यादि 'गण धर सार्धशतक' बृहद्वृत्ति वगैरहमें श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज के चरित्रसंबंधी पूर्वापरके आगे पीछे के प्रसंगको,व चितोडके निवा सी चैत्यवासियोंके विरोधभावको, विवेकी बुद्धिसे समझे बिनाही अथवा तो जान बुझकर आगे पीछके संबंधको छुपाकरके कितनेक लोग कहतेहैं, कि-'श्रीजिनवल्लभसूरिजीने चितोडनगरमें छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणाकरी तब उनको बुढियाने मना किया था तोभी मानानहीं.'ऐसाकहनेवाले अपनी अज्ञानताकोही प्रकटकरते हैं, क्योंकि देखो-वो चैत्यवासीनी बुढिया अज्ञानी आगमोके भावार्थको नहीं जाननेवालीथी,तथा शिथिलाचारी होकर अपनी आजीविकाके लिये चैत्यमें ठहरकरके चैत्यकी पैदाससे अपना गुजरान करती थी और श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज चैत्यमें [मंदिरमें रहनेका, तथा उसकी पैदाससे अपनी आजीविका चलाने का निषेध करने वालेथे, और शास्त्रानुसार व्यवहार करने वाले शुद्ध संयमीथे. इसलिये चि. तोडके सब चैत्यवासियोंकी तरह वह बुढियाभी महाराजसे विशे. ष द्वेष धारण करने वाली थी. और बुढियाके जन्म भरमेभी उसके सामने कोईभी शुद्ध संयमी चैत्यवासका निषेध करनेवाला चितोड नगरमे पहिले कभी नहीं आयाथा. उससेही शास्त्रानुसार विधिमा. नकी बातोंकी उसको मालूम नहीं थी. इसलिये इन महाराजका आगमानुसार छठे कल्याणकका कथनभी उस बुढियाको नवीन मालू. म पडा. और अपने चैत्यनिवासकी तथा उससे अपनी आजीविका चलानेकी बातका खंडन करने वाला और अपनी शिथिलाचारकी भूलोको प्रकट करनेवाला, ऐसा अपना विरोधी अपने ताबेक मंदिरमें अपने सामने चला आवे; सो उस बुढियासे सहन नहींहोसका. इसलिये क्रोधसे मंदिरके दरवाजे पर आडी पड गई, सो उस निर्विवेकी अज्ञानी क्रोधसे विरोध भावको धारण करनेवाली बुढियाके कहनेसे प्रत्यक्ष आगम प्रमाण मौजूदहोनेसे छठा कल्याणक नवीन कभी नहीं ठहर सकता.जिसपरभी उस बुढियाके अज्ञानताजनक व. चनोंका भावार्थ समझे बिनाही उस चैत्यवासीनी बुढियाकी परंपरावाले अभी वर्तमानमेंभी कितनेक आग्रही जन अज्ञानतासे बुढियाकी For Private And Personal Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५३] तरह द्वेष बुद्धिसे, छठे कल्याणककीनवीन प्ररूपणा करनेका श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजपर झूठा दोष आरोपण करतेहैं.मगर प्रत्यक्षपने आगम प्रमाणोंको उत्थापन करके मिथ्याभाषणसे त्रेवीशवी यह भी बडीभूल करके विवेकी तत्त्वज्ञ विद्वानों के सामने अपनी लघुताहोनेका कारण करतेहुए कुछभी विचारनहींकरते, यह कितनी बडी लज्जा (शर्म) की बात है. सो भी विचारने योग्य है। औरभी एक प्रत्यक्ष प्रमाण देखिये - श्रीअंतरिक्षपार्श्वनाथजी महाराजकी यात्रा करनेकेलिये मुंबईसे संघगयाथा,उनके साथ आनंदसागरजी आदि साधुजीभीथे,सोरस्तामें संघके दर्शनकरनेकेलिये साथमेश्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाथी. उनको वहां संघ ठहरे तब तक संघ वाले मंदिरमें विराजमान करनेलगे,सो दिगंबर लोगोंने मना किया, जब उनके सामने जबराई करनेको गये. तब आपसमें मारपीट हुई,शिर-फुटे,कोर्ट कचेरीमें गये,दंडहोनेका याकैदमें जानेका मो. का आया, हजारों रुपये संघके खर्च हुए, तब साधू लोग छूटे, और आपसमें विरोधभाव बढा,तथा शासन हिलनाभी बहुत हुई,इस पर अब विचार करना चाहिये, कि--उस समय संघवाले तथा संघकेसाथ आनंदसागरजी वगैरह साधु लोगभी विवेक वाले होते, तो व्यर्थ हठकरके तकरार खडी न करते,तो इतना नुकसान कभी उठाना नहीं पडता. इसीतरहसे श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजभी व्यर्थ तकरार न होनेके लिये बुढियाका हठ देखकर वहांसे पीछे चले आये, सो तो दीर्घदृष्टिसे विवेकता पूर्वक बहुत अच्छा काम कियाथा. जिसके बदले उनको झूठे ठहरानेका दोष लगाना यह कीतनी बडी अज्ञानताहै। और न्यातन्यातमें,गांवगांवमें,देशदेशमें,अपने २ पाडोसीपाडोसी में, पंचपंचायतमे,राजदरबारमें, या गच्छगच्छमें व अंधपरंपरारूढीकी खोटी प्रवृत्तिमें, आपलके विरोधभाव संबंधी " ऐसा पहिले कभीहुआनहीं,और अभी यह ऐसा करते हैं, सो कभी होने देगें भी नहीं" इस तरहसे कहने की एक प्रकारकी प्रचलीत रूढीहा है, उसमें सत्यासत्यकी परीक्षा किये बिना किसीको झूठा ठहराना यह सर्वथा निविवेकताहै. इसी तरहसे उन चैत्यवासीनी बुढियाने भी अपने आग्रहसे वैसा कहाथा,उसका भावार्थ समझबिनाही छठे कल्याणकको नवीन ठहराना, सोभी यह आगमोंके उत्थापनकरनेरूप तथा श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजपर झूठादोष आरोपणकरनेरूप व अज्ञानताजनक बडीभारीभूल है. इसबातकोविशेष पाठक स्वयं विचार लेंगे. For Private And Personal Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५४ २४-देवानंदामाताकेगर्भ ८२ दिनगयेबाद त्रिशलामाताकेगर्भमें आनेको च्यवनकल्याणकपना प्रकटतयासिद्धकरनेकेलियेही स्वास क. ल्पसूत्रमें च्यवनकल्याणकके सर्व कार्य देवानंदामाता संबंधी वर्णन नहीं किये, किंतु त्रिशलामाता संबंधी वर्णन कियेहैं,तथा श्रीसमवायांगसूत्र वृत्तिमेभी देवानंदामाताके गर्भसे ८२ दिनगये बाद त्रिशलामाताके गर्भमें आनेको अलग २ भव गिनतीमें लियेहैं,और कल्पसूत्र त. था उन्हींकी सर्व टीकाओंमें तथाश्रीवीरचरित्रादिअनेकशास्त्रोंमेभी देवानंदामाताकेगर्भमे८२दिन गयेबाद आसोजवदी१३को त्रिशलामाता. के गर्भ में भगवान् आयेहैं, यह अधिकार बहुतविस्तार पूर्वक खुलासाके साथ कथन किया है, इसलिये देवानंदामाताकी कुक्षिसे जन्म होनेके बदले त्रिशलामाताकी कुक्षिसे जन्म होने संबंधी किसी तरह कीभी असंगतिरूप शंकाकभी नहींहोसकती.जिसपरभी असंगतिरूपशंका निवारण करनेकेलिये गर्भापहारका नक्षत्र बतलानेका कहकर उनमें अलगरभव गिनने,व १४महास्वप्नदेखनेवगैरह सर्व बातोको उ. डाकर दूसराच्यवनरूप गर्भापहारको कल्याणकपने रहित ठहरातेहैं, और उनको बहुततुच्छ समझकरबडीनिंदाकरतेहैं, सो भी मायावृत्तिसे तीर्थकरभगवान्की आशातनाकरनेरूप चौवीशवी बडीभूलकी है. २५- श्रीऋषभदेव आदि तीर्थकरमहाराज पहिले होगये, तथा श्री सीमंधरस्वामि आदि वर्तमानमें हैं,उन्हीं सबीने श्रीमहावीरस्वामिके च्यवनादि छ कल्याणक कथनकियेहैं,उन्होकेही अनुसार गणधर-पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंनेभी आचारांग, स्थानांगादि आगमोमेंभी च्यव. नादि छ कल्याणक कथनकिये हैं,उसीकेही अनुसार तपगच्छके पूर्वज वडगच्छके श्रीविनयचंद्रसूरिजीने कल्पसूत्रके प्राचीन निरूक्तमें, तथा चंद्रगच्छके श्रीपृथ्वीचंद्रसूरिजीने कल्पसूत्रके प्राचीन टिप्पणमें और श्रीपार्श्वनाथस्वामिकी पट्टपरंपरामें उपकेश गच्छीय श्रीदेवगुप्त सूरिजीने कल्पसूत्रकी टीकामे इत्यादि अनेक प्राचीन शास्त्रोमेभी खु. लासा पूर्वक च्यवनादि छ कल्याणकलिखे हैं। उसीकेही अनुसार त. पगच्छकेभी पूर्वाचार्य श्रीकुलमंडनसूरिजी वगैरहोंनेभी श्रीकल्पावचूरि आदिक ग्रंथों में च्यवनादि छ कल्याणकलिखे हैं, इसलिये श्री तीर्थकर-गणधर-पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंके प्राचीन समयसेही आगमानुसार आत्मार्थी सर्वगच्छवाले च्यवनादि छ कल्याणक माननेवाले थे, जिसपरभी आगमादि सर्व प्राचीनशास्त्रोके प्रमाणों को जान बुझ. कर छुपाकरके या अज्ञानतासे 'श्री जिनवल्लभसूरिजीने चितोडमें For Private And Personal Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१५] छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करी'ऐसा कहकर जो लोग छठे क. ल्याणकका निषेध करते हैं. वो लोग तीर्थकर, गणधर, पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंकी और खास अपनेही तपगच्छकेभी पूर्वीचार्योंकीभी आशातना करनेवाले ठहरते हैं, इसलिये आत्मार्थी भवभिरू विवेकी जनोंको तो छठे कल्याणकका निषेध करना सर्वथा योग्यनहींहै, मगर निषेध करनेवालोंने यह पचीशवीभी बड़ी भूलकी है। २६- सभा मंडल में जाहिर व्याख्यान करते हुए परोपकारकेलिये सत्य बात प्रकट करने में अपनी स्वाभाविक प्रकृतिसे,सञ्चके जोशमें आकर कितनेक वक्तालोग चौकी,टेबल, या पाटापर जोरसे अपना हाथ पिछाड़ते हुए अपना मतव्य प्रकट करतेहै, तथा कितनेक छा. ती ठोकते हुए. या भुजा आस्फालन करते हुए, अपनी सत्यबात प्र. कट करते हैं, और कोई विशेष प्रबल विद्वान् वादी तो हाथमें खूब उंचा झंडा लेकर नगारेको पीटवाते हुए विवाद करनेकेलिये नगरमें उद्घोषणा करवाते हैं, मगर यह बात कोई प्रकारसे अनुचित नहींहै, किंतु सत्यबात प्रकाशित करने में अपनी हिम्मत बहादुरीकी स्वाभाविक प्रकृति है। इसीतरहसे श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजनेभी सर्व शिथिलाचारी चैत्यवासियोंके सामने चैत्यवासका निषेध व आग. मानुसार श्रीमहावीरस्वामिके छ कल्याणक मानने वगैरह विषयों सं. बंधी सत्यवाते प्रकाशित करने में अपनी हिम्मत बहादुरीसे भुजास्फालन पूर्वक कहाथा,कि-'चैत्य वास निषेधादिक ऊपरकीबाते जो न मा ननेवाले होवे,वो उन्होंकीश स्त्रार्थ करनेकी ताकत हो तो मेरे सामने आकर उन बातोंका शास्त्रार्थसे निर्णय करो' मगर उस समय किसी भी चैत्यवासीकी महाराजके साथ शास्त्रार्थ करनेकी हिम्मत नहीं हुई. तब महाराजने सब लोगोंके सामने ऊपर मुजब सत्यबाते प्रकाशित. की.इसीतरहसे 'गणधरसाधशतक' बृहद्वृत्ति, लघुवृत्ति वगैरहका भावार्थ समझे बिनाही श्रीजिनवल्लभसूरिजीने 'स्कंधास्फालनपूर्वक' छठा कल्याणक नवीन प्रकट किया, ऐसा कहकर चैत्यवास निषेध वगैरह ऊपरकी सबबातोका संबंध छुपाकर छठेकल्याणको नवीन ठह राकरके जो निषेधकरते हैं,सो मायावृत्तिसे व्यर्थही भोलेजीवोंको उ. मार्गमें गेरनेकेलियेमिथ्याभाषणकरके यहभी छवीशवीबडीभूलकीहै. २७-श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज चैत्यवासका खंडन करनेवालेथे, इसलिये चैत्यवासियोने महाराजको शहरमें उहरनेको जगह नहीं दी. और द्वेषबुद्धिसे चामुंडिका देवीके मंदिरमे ठहरनेका बतला. For Private And Personal Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५६ ] या,तब महाराज तो वहांही ठहरकर अनेक प्रकारके कष्ट सहन करतेहुएभी भव्यजीवोंके उपकारकेलिये जिनाशानुसार सत्यबातें लोगोंको बतलाते रहे, और चैत्यमें ठहरने वगैरह चैत्यवासियोंकी कल्पित बातोका खंडन करते रहे, यह बात 'गणधर सार्धशतक' ग्रंथकी लघुवृत्ति तथा वृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रों में खुलासा लिखी है । जिसपरभी ऊपर मुजब चैत्यवालियोंकीभूलोको तथा जिनाशानुसार सत्य बातोंके प्रसंगको मायावृत्तिसे छुपा करके आपना नवीन मत स्थापन करनेकेलिये चामुंडिकादेवीके मंदिरमें ठहरेथे' ऐसा प्रत्यक्ष मिथ्या लिखकर महाराजकी झूठी निंदा की, और दृष्टिरागी बाल जीवोंकोभी परम उपकारी युग प्रधान आचार्य महाराजके झूठे अवर्ण. वाद बोलनेवाले बनाये. यहभी सत्तावीशवी बडी भूलकी है। २८ “ यो न शेष सूरीणामज्ञातसिद्धांतरहस्यानाम्" इत्यादि 'गणधर सार्धशतक' ग्रंथकी १२२वीं गाथाकी लघुवृत्ति तथा बृह वृत्तिके यह वाक्य सिद्धांतकेरहस्यको नहीं जाननेवाले द्रव्यलि. गी चैत्यवासियों संबंधी है, मगर पहिले होगये उन सर्व पूर्वाचायौसंबंधी नहीं है, जिसपरभी 'पहिले जितने आचार्य होगये हैं, उन सबोंको सिद्धांतके रहस्यको नहीं जाननेवाले ठहराकर जिनवल्लभसू. रिजीने छठा कल्याणक नवीन प्रकाशित किया ऐसा अर्थ कहते हैं। सो अपनी विद्वत्ताकी लघुताकारक अपनी अज्ञानता प्रकट करतेहें। क्योंकि शेष' कहनेसे सिद्धांतके रहस्यको जानने वाले सर्व पूर्वाचार्योको छोडकर सिद्धांतके रहस्यको नहीं जानने वाले बाकीके अशानियोंका ग्रहण होताहै, और 'अशेष' कहनेसे सर्वका ग्रहण होस. कताहै,मगर यहांतो ' अशेष' शब्द नहीं है, किंतु 'शेष' शब्दहै, इ. सलिये सर्व पूर्वाचायौँका ग्रहण नहीं होसकता, जिसपरभी सर्वपूर्वाचार्योंका ग्रहणकरते हैं, सो ‘शेष' शब्दके अर्थकोभी नहीं जाननेवाले अपनी अज्ञानतासे शास्त्रोंके खोटे २ अर्थ करके, यहभी अठ्ठावीशवी बडी भूलकी है। इस बातकोभी विशेष विवेकी तत्त्वज्ञ विद्वान् लोग स्वयं विचार सकते हैं। देखिये-खरतरगच्छ वालोंने अपने पूर्वाचार्योंके चरित्रों में, जैसेश्रीअभयदेवमूरिजी महाराज संबंधी 'श्रीस्थंभन पार्श्वनाथ प्रकट कर्ता' तथा ' श्रीनवांगी वृत्ति कता' वगैरह बातें,उन महाराजने जैनसमाजपर किए हुए उपकारोंकी यादगिरिकालये प्रसंशारूप लिखीहैं । तैसेही-श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज संबंधीभी 'दश सह For Private And Personal Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५७ ] 36 C a नवीन श्रावक तथा चामुंडिका देवी प्रतिबोधक' 'चैत्यवास शिथिलाचार निषेधक कल्याणक प्रकट कर्ता' वगैरह बातेंभी इन महाराजने जैनसमाजपर किये हुए उपकारोंकी याद गिरिकेलिये प्रसंशारूप लिखी हैं, सो नवीन कल्पित नहीं, किंतु शास्त्रानुसार प्राचीनही है. इसलिये प्रसंशारूप लिखी हैं । जिसका मर्मभेद समझेबिना, गणधर सार्द्ध शतक ' ग्रंथकी लघुवृत्ति तथा बृहद्वृत्तिके 'यो न शेषसूरीणां ' इत्यादि पाठोंके ऊपर मुजब सत्यअ - थौको छुपाकरके अपनी मतिकल्पना मुजब खोटे खोटे अर्थकरके भोले जीवों को मिथ्यात्व के उन्मार्ग में गेरने केलिये धर्मसागरजी की अंध परंपरावाले उनकी देखा देखी वर्तमानिक न्यायांभोनिधिजी, शास्त्र विशारदजी, न्यायविशारदजी, विद्यासागर न्यायरत्नजी, जैनरत्न, व्याख्यानवाचस्पति, आगमोद्धारक, गीतार्थ, वगैरह विशेषणको धारणकेरनवाल आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, गणि, पन्यास, प्रसिद्धवक्ता, विद्वान् मुनिजन आदि सर्व ऐसेही अनर्थ करते हुए चले जाते हैं. और सामान्यविशेष बातका भेदसमझे बिनाही सर्वतीर्थकर महाराजों सं पंचाशक सूत्रवृत्ति का पांच कल्याणकों संबंधी सामान्यपाठको आगे करके कल्प, स्थानांग, आचारांगादि में विशेषता पूर्वक च्यवनादि छ कल्याणककहे हैं, उन्होका निषेधकरने केलिये आगमों के अनादिसिद्ध seetादि कल्याणक अर्थको उडा देते हैं. तथा जैसे यति-मुनि-साधुअणगार शब्द एकार्थके भावार्थवाले है, तैसे ही च्यवनादि वस्तु-स्थानकल्याणक शब्दभी एकार्थके भावार्थवाले हैं, उसकाभेद समझे बिना ही च्यवनादिकोंको वस्तु-स्थान कहकर कल्याणकपने रहित ठहराते हैं । मगर दीर्घदृष्टिसे विवेकबुद्धिपूर्वक शास्त्रकार महाराजों के अभिप्राय तरफ उपयोग लगाकर सत्य तत्त्व बात का कोईभी विचार नहीं करते हैं, यह अंधपरंपराकी कितनी बडीभारी लज्जनीय अनुचित प्रवृत्तिहै. इसको विशेष विवेकीतत्त्वज्ञ पाठकगण स्वयंविचार सकते हैं । औरभी देखिये -विवेक बुद्धिसे खूब विचारकरीये, यदि नीचगोत्र कर्मविपाकरूप तथा आश्चर्यरूप कहनेसे कल्याणकपनेका निषेध हो सकता होवे, तबतो आषाढशुदी ६ को देवानंदामाता के गर्भ में भगवान् आये, सोही नीचगौत्र कर्मविपाकरूप होनेसे कल्पसूत्रादि शास्त्रोंमैं उनको आश्चर्य कहा है, इसलिये तुम्हारे मंतव्य मुजबतो उनकोभी क ल्याणकपनेका निषेध हो जावेगा और विशेष अधिक आश्चर्यकारक दूसरे च्यवनकी तरह प्रथमच्यवनभी कल्याणकपनें रहित होनेसे शे C For Private And Personal Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५८ ] math ४ कल्याणकही रहजावेंगे और नीचगौत्रके विपाकरूप तथा आश्चर्यरूप कहते हुए भी प्रथम च्यवनको कल्याणकपना मानोगे, तोtraits विपाकरूप और आश्चर्यरूप कहकर दूसरे च्यवनरूप गभी पहारको कल्याणकपने रहित ठहराया सो प्रत्यक्षमिथ्या व्यर्थही झूठा आग्रह सिद्ध होवेगा. इसलिये ऐसे झूठे आग्रहसे भोले जीवोंको संशयरूप मिथ्यात्व के भ्रममें गेरकर भगवानकी आशातनाका हेतुभूत अनर्थ करना सर्वथा योग्य नहीं है. किंतु प्रथम च्यवनमें कल्याणक पना मानने की तरहही दूसरे व्यवनमेंभी कल्याणकपना आगमादि शास्त्रप्रमाण तथा युक्तिसम्मत होनेसे आत्मार्थियोंकों अवश्यही मान्यकरना उचित है, इसको विशेष तत्त्वज्ञजन स्वयंविचारसकते हैं । औरभी प्रत्यक्ष शास्त्रप्रमाण देखिये - कल्पसूत्रकी सर्व टीकायै वगैरह बहुतशास्त्रों में श्रीजंबूस्वामिके निर्वाणगयेबाद दश (१०) वस्तु विच्छेद होनेका लिखा है. उसमें केवलज्ञान, केवलदर्शन, यथाख्यातचारित्र, मुक्तिगमन वगैरह बातोंकोभी वस्तु कहा है. और 'गुणस्थानक्रमारोह' वगैरह शास्त्रोंमें भी केवलज्ञान उत्पन्न होनेको, तथा मुक्तिगमनको १३-१४ वा गुणस्थान कहा है. इसी तरहसे इन शास्त्रप्रमाण मुजब भी तीर्थंकर भगवानके केवलज्ञान उत्पन्न होनेको तथा मुक्तिगमन निर्वाणको वस्तु कहो या स्थान कहो और उन्होंकोही केवलज्ञान तथा निर्वाण कल्याणकभी मानो, तो भी इस बात में कोई तरहका वि रोधभाव नहीं है, इसलिये च्यवनादिकोंको वस्तु कहो, या स्थान कहो, वा कल्याणककहो, सबका तात्पर्यार्थ से भावार्थ एकही है. जिस परभी वस्तु स्थान कहकर कल्याणकपनेका निषेध करनेवाले अपनी अज्ञानता से शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करके भोलेजीवोंको उन्मार्गमें गेरते हैं, और अपनी आत्माकोभी उत्सूत्र प्ररूपणा के दोष से मलीन करते हैं. इसबातकोभी विवेकी तत्त्वज्ञजन स्वयं विचार सकते हैं । और तीर्थकर भगवानके च्यवनादिकों कों कल्याणकपना आगमानुसार अनादिसिद्ध है, उन्हीं च्यवनादिकों कों शास्त्रों में एक जगह स्था न कहे, दूसरी जगह वस्तु कहे, तीसरी जगह कल्याणक कहे, इससे - भी वस्तु-स्थान-कल्याणक यह तीनों शब्द पर्यायवाचक एकार्थवाले सिद्ध होते हैं जिसपरभी वस्तु-स्थान शब्द देखकर अनादिसिद्ध च्य. वनादिमें कल्याणक अर्थको उडादेना सो अपने झूठे पक्षपातके आग्र हसे शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करनेरूप यह कितनी बडी भूल है इसको For Private And Personal Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५९] आत्मार्थी विवेकी तत्त्वज्ञ पाठक जन स्वयं विचार सकते हैं। छ कल्याणक संबंधी ऊपरके संक्षिप्त लेखसेभी जो आत्मार्थी सत्य ग्रहण करने वाले निकट भव्य होंगे, वह तो थोडेसे मेंही सार स. मझ लेवेगे,कि गर्भापहारको अलग भव गिननेसे तथा त्रिशलामाताने सर्व तीर्थकर माताओंकी तरह आकाशसे उतरते हुए १४ महास्व. प्रदेखने वगैरह कार्योसे दूसराच्यवनरूप कल्याणकपनेकी उत्तमताको छुपाकरके व्यर्थही छठे कल्याणककी निंदाकरना सर्वथा योग्यनहींहै और शास्त्रोकेअर्थ बदलकरके उत्सूत्रप्ररूपणासे व कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंकोभी उत्तम कार्य के हेतुभूत गर्भापहारकी निंदा करवाने वाले बनवाकर तीर्थकर भगवानकी आशातनासे भवहार जानका कारण कराना कदापि योग्य नहींहै । ऊपरकी इन सब बातोंका विशेष नि: र्णय शास्त्रोंके संपूर्ण पाठोंके प्रमाणासहित इस ग्रंथके पृष्ट ४५३ से. ८२६ तक छप चुका है, सो तीसरे भागमें प्रकट होगा.उसके बांचनेसे सर्व शंकाओका खुलासा समाधान अच्छी तरहसे होजावेगा। और शासन नायक श्रीमहावीरस्वामि आदि सर्व तीर्थकर म हाराजोके चरित्र भव्यजीवोंको काँकी निर्जरा करानेवाले कल्या. णकारक मंगलरूपही हैं, इसलिये पर्युषणाके मंगलिक पर्व दिनों में आत्मकल्याणके लिये वांचने आतेहैं.और श्रीमहावीरस्वामिक गर्भापहाररूप दूसरा च्यवनका कार्य तो त्रिशलामाता, सिद्धार्थपिता, व इंद्रमहाराज वगैरह सर्व जीवोंको कल्याण मंगलरूप हर्षका देने वालाहुआहै। तथा उनका आराधन करनेवाले अल्पसंसारी आत्मार्थी भव्य जीवोंकोभी अभिमानरहित कर्मोकी विचित्रताकी भावनासे कर्मोकी निर्जरा करानेवाला कल्याणकारक मंगलरूपहोता है। मगर गर्भापहारके नाम सुननेमात्रसेही चमकउठनेवाले और उनको नीच गौत्रविपाकरूप,आश्चर्यरूप अतीवनिंदनीककहकरनिंदाकरनेवालोंकों तीर्थकरभगवानके अवर्णवाद बोलनेसेसंसारपरिभ्रमणके बहुतविशेप दुःख भोगनेबाकी होगे,इसलिये उन्होंकों वो कार्य अमंगलरूप अ. कल्याणरूप मालूमपडता होगा। इससे उनकार्यसे द्वेषरखकर वर्षोंवर्ष पर्युषणाके मांगलिकरूप कल्याणकारक पर्वदिनोंके व्याख्यानमें उनकी निंदा करते हुए अकल्याणरूप अतिनिंदनीक ठहराकार तीर्थकर भगवानकी आशातना करनेसे अपनेको और दूसरे भव्य जी. वोकभी अकल्याणरूप दुर्लभबोधिका हेतुकरतेहैं, ऐसी २ अनर्थभूत अनुचित बातोसेही 'सुबोधिका' नाम रख्खाहै । मगर वास्तविक में For Private And Personal Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६] तो 'दुर्लभबोधिका' नाम सिद्ध होताहै । इसबातको विशेष आत्मा. र्थी तत्त्वज्ञ पाठकगण स्वंय विचार लेवेगे। एक बात उत्थापन करनेसे अनेक बातें उत्थापन करनी पड़ती हैं। देखो एक अधिकमहीना व छ कल्याणक उत्थापनकरनेसे उसकी पुष्टिकेलिये, अनेक शास्त्रोके अर्थबदलनेपडे । अनेक जगह शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्राय विरुद्ध आग्रह करना पडा । कितनीही जगह मिथ्या बातें भी लिखनी पडी। कितनीक जगह शास्त्रोके आगे पीछे के संबंधवाले पाठोंको छोडकर बिनासंबंधक अधूरे २ पाठभी भोले जीवोंकों बतलाकर अपनापक्षकी सत्यता बतलानेका परिश्रम करना पडा और कितनीही जगहतो शास्त्रोकी, पूर्वीचार्योंकी व भगवानकीभी आशातनाके हेतुमूत अनुचित शब्दभी लिखने पडे. उसकाअनुभवतो सुबोधिक-किरणावलीआदिककी२८भूलोंवाले ऊपरकेलेखसे तथा इसभूमिकाके सबलेखपरले और इस ग्रंथके अवलोकन करने से पाठकगणको अच्छी तरहसे होसकेगा, इसलिये 'एक बात उत्थापन करनेसे अनेक बाते उत्थापन करनी पड़तीहै' यह लोकरूढीकी कहावतकी बात ऊपरके विषयमें प्रत्यक्ष देखनेमें आती है। इसप्रकार पर्युषणासंबंधी, व छ कल्याणक संबंधी अपना झू. ठा पक्ष स्थापन करनेकेलिये और भोले जीवोंको उन्मार्गमें गेरनेके. लिये, शास्त्र विरुद्ध होकर विनयविजयजीने सुबोधिकामे, तथा जयविजयजीने दीपिका, और धर्मसागरजीने किरणावलीमें, ऊपर मुजब अनेक भूले की है, उन्हीं भूलोको तपगच्छके कितनक आनही जन पर्युषणाके व्याख्यानमें वर्षोवर्ष वांचते हैं. उससे जिनाज्ञा. की विराधनाहोकर भवबढनेका व दुर्लभबोधिका हेतुभूत अनर्थ हो. ताहै. इसलिये अल्पसंसारी भव्यजीवोंको जिनाशानुसारसत्यबातोंकी प्राप्ति होनेरूप उपकारकेलिये उपरकी सब बातोंका खुलासा निर्ण. य इसग्रंथमें अच्छीतरहसे लिखने में आया है । उसको देखकर यदि शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणासे संसार परिभ्रमणका भय लगता हो तो उन भूलोको सुधारो, व्याख्यानमें वांचेनका बंध करो, और सत्यबातोको ग्रहण करो या बडोदा वगैरह किसीभी राज्य दरबारमें इन भूलोसं. बंधी श्रीगौतमस्वामिआदि गणधरमहाराज व सिद्धसेनदीवाकर, ह. रिभद्रसूरिजी वगैरह महाराजौकी तरह सत्य ग्रहण करने की प्रति For Private And Personal Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१] शापूर्वक शास्त्रार्थ करनेको तैयारहो, हमने तो इनका सत्य निर्णय अ. च्छी तरहसे करलियाहै,तोभी इन शास्त्रार्थ सत्यनिर्णय ठहरेगा सो मंजूर है, इसलिये जो महाशय ऊपरकी भूलोसंबंधी शास्त्रार्थ करना चाहते होवें, वो अपनी सहीसे अपना प्रतिज्ञा पत्र जाहिर रूपसे ह. मको भेजे.समय, स्थान, नियम, साक्षि वगैरह की व्यवस्था तो सबके अनुकूल उसी राज्यके नियममुजब होसकेगी, विशेष क्या लिखें। पर्युषणा संबंधी मंतन्यके कथनका संक्षिप्त सार. १- जैनटिप्पणाके अभावसे लौकिक टिप्पणामुजब मास-पक्ष-तिथि-वर्ष वगैरह माननेका व्यवहार करना और पर्युषणादि धार्मिक कार्योंका व्यवहार जैन सिद्धांतोके अनुसार करना. तथा जैनसिद्धांतोके अनुसार या लौकिक टिप्पणाके अनुसारभी अधिक महीनेके ३० दिनोको दान, पुण्य, परोपकार, जप, तप, धर्म ध्यानादि करने में व ब्रह्मचर्य पालने में या देशविरती-सर्वविरती संयम पालनेमें, तथा कर्मबंधनकी स्थितिके प्रमाणमें और कर्मोंकी निर्जरा करने वगैरह कार्यों में गिनतीमें लियेजातेहैं, तैसेही ५० दिन प्रतिबद्ध पर्युषणापर्व का आराधन करनेमेभी उसके३० दिन गिनतीमें लेकर खरतरगच्छ, तपगच्छादिककी कल्पसूत्रकी टीकाओके "पंचाशैतव दिनैः पर्युषणा संगतेति वृद्धाः" इसवाक्यमुजब अभी दूसरेश्रावणमें या प्रथम भाद्रपद,५०दिने पर्युषणापर्वकरना, यही शास्त्रानुसार जिनाशा है। २-मास प्रतिबद्ध कार्य तो एक महीनेकी जगह दूसरे महीनेमेभी करनेमें आवे, तो भी कोई शास्त्रमें उनका दोष नहीं बतलाया. मगर पर्युषणापर्व करनेमें तो ५०दिनकी जगह ५१दिनभी कभी नहींहोस. कते, इसलिये बिनामुहूर्तवाले ५० दिन प्रतिबद्ध पर्युषणापर्वके साथ मास प्रतिबद्ध या मुहूर्त प्रतिबद्ध होली, ओली, दीवाली, दशहरा, अक्षयतृतीया,पौष-श्रावणादिक महिनों के कल्याणकादितप,या यज्ञोपवित, दीक्षा, प्रतिष्ठा, विवाह सादी वगैरह कोईभी कार्योंका संबंध नहीं है । जिसपरभी दिन प्रतिबद्ध पर्युषणापर्व आराधन करनेकी चर्चामें मासप्रतिबद्ध या मुहूर्त प्रतिबद्ध कार्योंकी बात बीचमें लाते हैं. वो लोग पर्युषणापर्वकरने संबंधी शास्त्रकार महाराजोका आशय नहीं जानने वाले होनेसे, शास्त्रोंकी आशा विरुद्ध होकर व्यर्थही कुयुक्तियोंसे विषयांतर करके भोले जीवोंको उन्मार्गमें गेरते हैं। For Private And Personal Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६२] ३- अधिक महीनेके अभावसंबंधी भाद्रपदमें पर्युषणा करनेके व उसकेपीछे ७० दिन रहनेके और १२ मासी क्षामणे वगैरहके सामा. न्यपाठौको अधिकमहीना होवे तबभी आगेलाते हैं । और अधिकमहीनेसंबंधी “पचाशतैव दिनेः पर्युषणा संगतेति वृद्धाः" कल्पसूत्रकी सर्व टीकाओंके इस विशेषपाठको, तथा स्थानांगसूत्रवृत्ति, निशीथचूर्णि,वृहत्कल्पचूर्णि, वृत्ति, पर्युषणाकल्प चूर्णि वगैरह शास्त्रोके १०० दिन रहने संबंधीआदि विशेषताके पाठोकी सत्यबातोंको छुपाकरके छोड देते हैं, सो यह सर्वथा अनुचित है। ४- धार्मिक कार्य करनेमें १२ महीनोंके सर्व दिन, या अधिक महीना होवे तब १३महीनों केभी सर्व दिन, वा क्षय महीनेकेभी सर्वदिन बरोबर समानही हैं, उनमें कर्मबंधनके संसारिक कार्य और कर्म निर्जराके धार्मिक कार्य हमेशा बराबर होते रहते हैं, इसलिये तत्त्वदृष्टिसे तो उनमेंसे एक समय मात्रभी गिनती में नहीं छुट सकता. जिसपरभी कार्तिकादि क्षयमहीनेके ३० दिनों में दीवाली, ज्ञानपंचमी, चौमासी वगैरह धार्मिक कार्य करते हुएभी अधिक महीनेके ३० दिनोंको तुच्छ समझकर बड़ी निंदा करते हैं, या कालचूलाके नामसे गिनतीमें छोड देनेका कहते हैं, सो सर्वथा जिनाज्ञाका उत्थापन करते हैं। ५- जैन ज्योतिषविषयसंबंधी प्ररूपणा आगमानुसार करनी और श्रद्धाभी उसीमुजबरखनी,परंतु अभी पडताकालमें जैनटिप्पणा बंध होनेसे उस मुजब व्यवहार नहीं करसकते.और लौकिकटिप्पणा मुजब व्यवहार करनेमें आता है। इसलिये अभी जैन शास्त्रमुजव पौष आषाढ आधिक होनेसंबंधी पाठ बतलाकर लौकिक टिप्पणासंबंधी चैत्र श्रावणादि अधिकमहीने मान्यकरनेका निषेध नहीं करस. कते । और जैसे जिनकल्पी व्यवहार अभी विच्छेद है तोभी उन्हकी प्ररूपणाकरनेमें आतीहै, तैसेही पौष-आषाढ बढनकी प्ररूपणा तो शास्त्रानुसार करसकते हैं, मगर मास-पक्ष-तिथि वगैरहका वर्ताव तो लौकिक टिप्पणा मुजबही करना योग्य है। इन सर्व बातोंका विशेष निर्णय ऊपरके भूमिकाके लेखमें और इस ग्रंथमें अच्छी तरहसे हो चुका है । यहां तो उसका संक्षिप्तसार मात्रही बतलाया है. मगर विशेष निर्णय करनेकी अभिलाषावाले पाठकगण इसग्रंथको संपूरणतया वांगेतो सबखुलासा हो जावेगा - For Private And Personal Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६३] छ कल्याणकों संबंधी मंतव्यके कथनका संक्षिप्त सार. १- कल्पसूत्र तथा आचारांग सूत्रादि आगमानुसार विशेषतासे श्रीमहावीरस्वामिके च्यवनादि छ कल्याणकमान्य करने,और अतितअनागत-वर्तमानकालके सर्वतीर्थकर महाराजोंकी अपेक्षासंबंधी सामान्यतासे पंचाशकादि शास्त्रानुसार पांचकल्याणकभी मान्य करने, इनमें कोई दोष नहीं है. मगर कितनेक लोग शास्त्रकार महाराजोके अभिप्रायको नहीं जाननेसे पंचाशकके पांच कल्याणकों संबंधी सामान्य पाठको भोले जीवोंको बतलाकर विशेषतासे कल्प-आचारांगादि आगमोक्त छ कल्याणकोंका निषेध करते हैं, सो अज्ञानतासे शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करते हैं। २- श्रीऋषभदेवस्वामिके राज्याभिषेकके कार्यमें तो च्यवन-जन्मदीक्षादि कोईभी कल्याणकके कुछभी लक्षण नहीं हैं, तथा उनके मास,पक्ष,तिथि वगैरहकाभीकहीं उल्लेखनहींहै.और श्रीमहावीरस्वामिके दूसरे च्यवनरूप गर्भापहारके कार्यमें तो सर्व तीर्थकर महाराजोकी माताओंकी तरह त्रिशला मातानेभी १४ महास्वप्न आकाश से उतरते हुए देखेहैं, तथा उसी दिन इन्द्रमहाराजका त्रिशलामाता केपास आगमनहुआहै, तीर्थकर पुत्र होनेका स्वप्नफल कहाहै,व उनके मास पक्ष-तिथि वगैरह च्यवन कल्याणकके सर्व कार्य प्रत्यक्षपने शास्त्रोम कथन किये हुए हैं. और समवायांगसूत्रवृत्ति, लोकप्रकाशादिशास्त्रों में उनको अलग भव गिनतीमेलियाहै,इसलिये गर्भापहा. ररूप दूसरे च्यवनके कार्यमें तो च्यवन कल्याणकपनके सर्व लक्षण मौजूद हैं,जिसपरभी राज्याभिषेकके समान गर्भापहारकोभी ठहरते हैं, और उनको कल्याणकपने रहित कहतेहैं सो सर्वथा अनुचितहै। ३- श्रीमल्लीनाथस्वामिके स्त्रीत्वपने तीर्थकरपनेके जन्म-दीक्षादि कार्य अच्छेरारुप हुए हैं, तो भी उन्होकोही कल्याणकपना माननमें आताहै. तथा श्रीमहावीरस्वामि भगवानभी ब्राह्मण कुलमें देवानंदा माताके गर्भमें उत्पन्न हुए सो अच्छेरा रूपहै, तो भी उनको प्रथम च्यवनरूप कल्याणकपना मानते हैं । तैसेही गीपहाररूप आश्चर्य को भी दूसरा च्यवनरूप कल्याणकपना माननेमें आता है, इसलिये आश्चर्य कहनेसे कल्याणकपना निषेध नहीं हो सकता. जिसपरभी आश्चर्य कहकर कल्याणकपनेका जो निषेध करतेहैं, वो लोग अपनी अज्ञानतासे बड़ी भूल करते हैं। For Private And Personal Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [.६४] ४- देवानंदामाताकी कुक्षिमें भगवान आये सो ही नीचगौत्र कर्म विपाकरूपहै, उनका क्षय हुए बाद उचगौत्रके कर्मका उदय होनेसेही गीपहार करनापडाहै,तो भी शास्त्रकार महाराजोंने तो देवानंदाकी कुक्षिमे आनेको तथा त्रिशलामाताकी कुक्षिमें आनेको,इन दोनों काौँको तीर्थकर भगवानके चरित्र में उत्तमतापूर्वक कल्याणकारक माने हैं । जिसपरभी त्रिशलामाताके गर्भमें आनेको नीचगौत्र कर्मविपाकरूप अतिनिंदनीक कहकर जो लोग वर्षोंवर्ष पर्युषणाके मांग लिक पर्व दिनोंके व्याख्यानमें प्रत्यक्ष झूठ बोलकर भगवानकी निंदा करतेहैं,सो तीर्थकर भगवानके अवर्णवाद बोलनेवाले होनेसे आशातनाके दोषी ठहरते हैं। ५-जैसे श्रीअभयदेवसूरिजीमहाराजने श्रीस्थंभनपार्श्वनाथजीकी प्रतिमाको प्रकट किया, उनका आशय समझेबिना कितनेक ढूंढिये व तेरहापंथी लोग जिनप्रतिमाकी नवीन प्ररूपणा कहे, तो उन्होंकी आशानता समझी जावे. मगर तत्वदृष्टिवाले विवेकीलोग जिनप्रति माकी नवीन प्ररूपणा कभी नहीं कहेंगे, किंतु आगमोक्त प्राचीनही कहेंगे । तैसेही श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजनेभी षष्ट कल्याणकको प्रकट किया, उनका आशय समझे बिना कितनेक लोग उनकी नवीन प्ररूपणा कहते हैं, वो उन्होंकी अज्ञानता समझनी चाहिये. मगर तत्त्व दृष्टिवाले विवेकीलोग उनकी नवीन प्ररूपणाकभी नहीं कहेंगे, किंतु आगमोक्त प्राचीन ही कहेंगे. ६- भगवानके शरीर-इन्द्रीय-पर्याप्तिके अवयव [पुद्गलपरमाणु । देवानंदामाताके शरीरसे बने हुए थे, और उसी शरीरसे त्रिशलामाताके गर्भ में भगवान् आगयेथे, यहबात आश्चर्यकारक होनेसे श. रीर-इन्द्रीय-पर्याप्ति बदले बिनाभी शास्त्रकार महाराजौने उनको अलग भव गिना है । उनमें प्रत्यक्षपने च्यवन कल्याणकपना दिखलानके लियेही खास कल्पसूत्रके मूलपाठमें त्रिशलामाताने १४ स्वप्न देखेहैं उन संबंधी “ए ए चउदस सुमिणे, सव्वा पासेई तित्थयर माया । जं रंयणि वक्कमई, कुच्छिसि महायसो अरिहा ४७॥” यह पाठ लिखा है, और इसपाठकी सुबोधिका टीकामें इस प्रकार व्या ख्या किया है "अत्र प्रसंगेन एतेषां स्वप्नानां गर्भकाले सकलजिनराजजननीविलोकनीयत्वं दर्शयन्नाह-एतान् चतुर्दश स्वप्नान ,सर्वाः पश्यंति तीर्थकर मातरः। यस्यां रजन्यां उत्पद्यते, कुक्षौ महायशसः अहन्तः ॥४७॥ इसी तरहसेही सर्व टीकाओमेभी ऐसेही भावार्थका For Private And Personal Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६५] पाठजानलेना. देखो-जिसरात्रिको तीर्थकरभगवान माताकेगर्भमेंआक र उत्पन्नहोवे,उसरात्रिको उन्होंकीमाता गर्भकाले अर्थात् च्यवन क. ल्याणक समय सर्व तीर्थकरोकी माताये यह१४महास्वप्न देखती हैं। ऐसेही श्री महावीरस्वामिभी त्रिशलामाताके गर्भमें आये,तब त्रिशलामातानेभी १४महास्वप्न देखें हैं । इस ऊपरके पाठपर अच्छी तरहसे तत्वदृष्टिसे विचारकिया जावे. तो-अनादिकालकी मर्यादा मुजब सर्व तीर्थकर महाराजोके च्यवन कल्याणककी तरहही आश्विन वदी १३ की रात्रिको त्रिशलामाताके गर्भमै भगवान् आये; उनको खास सूत्र कारने और सुबोधिका, दीपिका, किरणावली वगैरह सर्व टीकाकारोंनेभी च्यवन कल्याणक मान्य कियाहै। और तीर्थकर महाराजाके च्यवन कल्याणकमें इंद्रमहाराजाका आसन चलायमानहोनेसे विधिपूर्वक नमस्काररूप'नमुत्थुणं' करना । तनिजगतमें उद्योत होना, तथा सर्व संसारी प्राणी मात्रको थोडीदेर सुखकी प्राप्ति होना, वगैरह कार्यहोतेहैं। यह अनादि मयार्दा आगमानुसार प्रसिद्धहीहै। यही सर्व काये आसोज वदी १३को भगवान त्रिशलामाताके गर्भमे आये तब उसीरोज होनेका ऊपरके कल्पसूत्रके मूलपाठसे तथा उन्हींकी सर्व टीकायें वगैरह बहुत शास्त्रोके प्रमाणोसभी प्रत्यक्ष सिद्धहाताहै,क्योकि देखो- आषाढ शुद्ध ६ को भगवान देवानंदामाताके गर्भमे आये तब उसी समय तो सिर्फ देवानंदामाताने १४ महा स्वप्न देखे सो अपने पति ऋषभदत ब्राह्मणको कहे, उनने स्वप्नोंके अनुसार उत्तम लक्षण वाला गुणवान् पुत्र होनेका कहा, सो बात अंगीकार किया और उसके बाद दोनो दंपति संसारिक सुखभोगते हुए काल व्यतीत करने लगे. इसप्रकार कल्पसूत्रादि सर्व शास्त्रोंमें लिखाहै, मगर भगवान् देवानंदा माताके गर्भ में आषाढशुदीदको आये,तब उसीरोज १४ महास्वप्न देखने के सिवाय इन्द्रका आसन चलायमान होनेका व नमुत्थुणं वगैरह कोईभी च्यवन कल्याणकके कार्य होनेका उल्लेख कल्पसूत्र व भगवानके चरित्र संबंधी किसीभी शास्त्र में देखने में नहीं आता. और त्रिशिलामाताके गर्भ में आसोज वदी १३ को भगवान आये,उसीरोज तो 'महापुरुष चरित्र' व 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' तथा कल्पसूत्र और उन्हींकी सर्व टीकाये वगैरह बहुत शास्त्रोके पाठोसे प्रत्यक्षमेही 'नमुत्थुणं' वगैरह च्यवन कल्याणकके सर्व कार्य होनेका देखनेमेंआताहै. इसलिये कल्पसूत्र में जो नमुत्थुणं' होनेका पाठ है, सो. आषाढ शुदी ६ के दिन संबंधी नहीं है, किंतु For Private And Personal Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir आसोज वदी १३ के दिन संबंधी है, ऐसा समझना चाहिये.क्योंकि देखो-इन्द्रमहाराजने भगवानको नमुत्थुणं करके अपने सिंहासन पर बैठकर, प्राचीन कर्म उदयसे देवानंदाके गर्भमें भगवानको उ. त्पन्न होना पडा, ऐसा अच्छेरारूप विचारके हरिणेगमेषिदेवको आशाकरके आसोज वदी १३को त्रिशलामाताके गर्भमें भगवानको संक्रमण करवाये, इसलिये यह सबबातें आसोज वदी १३को उसी स. मय हुई हैं, इसलिये ८२दिन तकतो इन्द्रमहाराजका आसन चलाय. मान नहीं होनेसे भगवान देवानंदाके गर्भ में उत्पन्नहुएहैं,ऐसा मालूमभी नहीं पडा,मगर संपूर्ण ८२ दिन गये बाद अवधिज्ञानसे मालूम पडा; तब हर्षसे विधिपूर्वक नमस्कार रूप नमुत्थुणं किया और त्रि. शलामाताके गर्भ में पधराये । इसलिये त्रिशलामाताके गर्भमें आनेके दिन आसोज वदी १३ को नमुत्थुणं करनेका कल्पसूत्रादि आगमानुसार प्रत्यक्षही सिद्ध होताहै,और तीर्थकर भगवान माताके ग. भेमें आकर उत्पन्न होवे, तब इन्द्रमहाराजको अवधिज्ञानसे मालूम पडे, उसी समय ' नमुत्थु णं' रूप नमस्कार करनेकी आगमानुसार अनादि मर्यादा है, मगर उस समय वहां सामान्य नमस्कार करनेकी मर्यादा नहीं है। इसलिये 'महापुरुष चरित्र' में और 'श्रीत्रिषष्ठिशालाका पुरुषचरित्र' के १० वें पर्वमें श्रीमहावीरस्वामिके चरित्रमें आसोज वदी१३को इन्द्रमहाराजका आसन चलायमान होनेसे अवधिज्ञानसे भगवानको देवानंदाके गर्भ में देखकरनमस्कार किया ऐसा अधिकारहै, सो नमुत्थुणं रूप नमस्कार करनेका समझना चाहिये मगर सामान्य नमस्कार करनेका नहीं समझना। और तीर्थकर भगधानके च्यवन समये इन्द्रमहाराज नमुत्थुणरूप नमस्कार हमेशा करतेहैं,तथा उसीसमय तीनजगतमै उद्योत,और सर्व जीवोंको क्षण. मात्र सुखकी प्राप्ति होती है,उन्हींकोही च्यवन कल्याणक मानते हैं, यही सर्व कार्य आसोज वदी १३ के रोज होनेका ऊपरके लेखसे आगमादि प्राचीन शास्त्रानुसार सिद्ध होताहै.और समवायांग सूत्रवृत्ति वगैरह आगमादि शास्त्रोम त्रिशलामाताके गर्भमे आसोज व. दी १३ को भगवान आये उन्हींकोही तीर्थकर पनेके भवमें गिना है, इसलिये त्रिशलामाताके गर्भ में आनेको आसोज वदी १३ के रोज दूसरा च्यवनरूप कल्याणक पना मान्य करना आत्मार्थी निकट भ. व्य जीवोंको उचितहीहै. जिसपरभी उनको कल्याणकपनेका निषेध करनेके लिये देवानंदाके १४ महास्वप्न त्रिशलासे हरण हुए हैं, इस For Private And Personal Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६७ ] लिये वो कल्याणक नहीं होसकता. ऐसा कहनेवालोंकी बडी अशानता है, क्योंकि देखो - जैसे देवानंदाने मेरे १४ महा स्वप्न त्रिशला ने हरण किये ऐसा स्वप्न देखा, वैसेही त्रिशलाभी मैने देवानंदा के १४ महा स्वप्न हरण किये हैं, वैसा सिर्फ एकही स्वप्न देखती और च्यवन कल्याणककी सिद्धि बतलानेवाले नमुत्थुणं वगैरह अन्य कोईभी कार्य उसीरोज न होते तथा कल्पसूत्र में भी "एए चउदस सुमिणा, सव्वा पासेइ तित्थयरमाया । जं स्यणि वक्कमई कुच्छिसि महायसो अरिहा" यहपाठ अनादि मर्यादामुजब त्रिशला संबंधी न कहकर देवानंदा संबंधी कहते और पार्श्वनाथस्वामिके तथा नेमिनाथस्वामिके च्यवन कल्याणक संबंधी उन्होंकी माताओंने १४ महास्वप्न देखे, उसी समय इन्द्रकाआसन चलायमान हुआ, तबविधिपूर्वक हर्षसे नमुत्थुणं किया और प्रभातमें राजाओंने स्वप्न पाठकको बुलाकर स्वप्नोंका फल पूछा, तब स्वप्न पाठकोंने १४ महास्वप्न देखनेसे रागद्वेषको जितनेवाले जिने; त्रैलोक्य पूज्यनीक तीर्थंकर पुत्र होनेका कहा. इत्यादि च्यवन कल्याणक के कार्यो की भलामणभी त्रिशला संबंधी न देकर देवानंदा संबंधी देते. और आषाढ शुदी६ को ही नमुत्थुणं होने वगैरह उपरके तमाम कार्योंका उल्लेख कल्पसूत्रादिमें शास्त्रकार कर ते, व समवायांगसूत्रवृत्ति में अलग भवभी न गिनते और आसोजवदी १३को नमुत्थुणं वगैरह च्यवन कल्याणक के कोई भी कार्य नहीं होते, तबतो त्रिशलाके गर्भ में आनेको च्यवनकल्याणक नहीं मानते तो भी चल सकता, मगर ऐसा नहींहै, और आषाढ शुदी ६ को नमुत्थुणं वगैरह च्यवन कल्याणकके कार्य नहीं हुए, किंतु आसोज वदी १३ को हुए हैं. इसलिये आसोज वदी १३को ही च्यवन कल्याणक के तमाम कार्य होने से उनको अवश्यही कल्याणकपना मान्य करना योग्य है। और स्वप्न हरण वगैरह के बहानेसे कल्याणकपना निषेध करना सो अज्ञानतासे शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करना योग्यनहीं है. और जन्म त्रिशलामाता के गर्भ से हुआ है, तथा च्यवनकल्याणक के सर्व कार्य भी त्रिश लाके गर्भमै आये तब हुए हैं, इसलिये त्रिशला के गर्भ में आनेरूप च्यवन माननाही आगम प्रमाण अनुसार और युक्तियुक्त है, च्यवनके सिवाय जन्मभी नहींमानसकते. यह जगत विख्यात प्रसिद्ध न्यायकी बात है. त्रिशला के गर्भ में आये तब अनादि मर्यादामुजब च्यवन कल्याणक के सर्वकार्य खास सूत्रकारने लिखे हैं, जिस परभी उन्होंको उत्थापनकरके अकल्याणकरूप ठहरानेके लिये उसबातको निंदनीक कहकर बाल For Private And Personal Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६८ ] 1 • जीवको मिथ्यात्वके भ्रममेंगेरनेका अनर्थ करना सर्वथा अनुचित है. और जैसे-देवलोक से च्यवन हुए बाद तथा माता के गर्भ में अवतार लेनेबाद नमुत्थुणं वगैरह च्यवन कल्याणकके कार्य होते हैं, तो भी 'कारणमें कार्यका उपचार' होता है, इसलिये च्यवनसमय नमुत्थुणं वगैरह कार्य होने का कहने में आता है । तैसेही यद्यपि देवानंदामाताके गर्भ में नत्थूणं हुआ तो भी आषाढशुदी ६के दिननहीं, किंतु आसोज वदी १३ के दिन हुआ है, तथा उसी समय त्रिशला माता के गर्भ में जानेका होने से उन्हीके निमित्त भूतही 'कारणमें कार्यका उपचार' मानकर त्रिशला माता के गर्भ में आने संबंधी नमुत्थुणं वगैरह कार्य होने का कहने में आता है. और इन्द्रमहाराज भगवान्‌ के विनयवान भक्त थे; इसलिये अवधिज्ञानसे भगवान्‌को देखतेही उससिमय नमुत्थु किया और त्रिशला माता के गर्भ में पधराये. यदि भगवान्को अवधिज्ञान से देवानंदामाता के गर्भ में देखकर त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये बाद पीछे सेनमुत्थुणं करते तो विनयभक्तिरूप मर्यादाकाभंग होता, इसलिये विनय भक्तिरूप मर्यादा रखनेकेलिये पहिले नमुत्थुणं किया और पीछे त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये देखो, जैसे कोई राजा महाराजा भगवान्का आगमन सुनने मात्रसेही हर्षयुक्त होकर उसीसमय उसी दिशा तरफ पहिले वहांसेही भगवान्‌को नमस्कारकरते हैं, और बादमें भगवानके पास वहां जाकर उचित भक्ति करते हैं । तैसेही इन्द्रमहाराजने भी अवधिज्ञानसे भगवान को देखते ही वहांसे नमुत्थुर्णरूप नमस्कार किया और त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये, बाद त्रिशला माता के पास में आकर तीन जगतके पूजनीक तीर्थकर पुत्र होनेका कहा और देवताओंको आज्ञा करके धनधान्यादिककी वृद्धि करवाने वगैरह कार्योंसे भगवानकी उचित भक्ती करी । यह सर्व कार्य आसोजवदी १३ के दिन हुए हैं, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार माननेसे नमुत्थुणं वगैरह तमाम कार्य त्रिशलामाताके गर्भ में आनेसंबंधी समझने चाहिये. जिसपर भी देवानंदा के गर्भ में नमुत्थुणं होनेका कहकर त्रिशलाके गर्भमे आनेसंबंधी आसोज वदी १३के दिनको च्यवन कल्याणकपने रहित कहते हैं उन्होंकी अज्ञानता है । और जो बात नहीं बननेवालीहोवे; असंगतीरूप या असंभवित होवे, वोही बात कभी कालांतर में बनजावे, उन्हीं बातको शास्त्रोंमें आश्चर्य कारक अच्छेरारूप कहते हैं । इसलिये जिसबातको अच्छेरा कह दिया, उस बात में अन्य शास्त्र प्रमाणकी मर्यादा बाधक For Private And Personal Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६९] नहीं हो सकती.इसी तरहसे भगवानकेभी देवानंदा माता तथा त्रिशलामाता दोनोंका गर्भकाल मिलकर ९ महीने और ऊपर ७॥ दिन मानतेहैं, मगर देवानंदाके गर्भमें आनेको शास्त्रकारोंने अच्छेरा कहा है. और ८२ दिन गये बाद त्रिशलाके गर्भमें आनेको तीर्थकर पनेके भवमें गिनाहै, इसलिये देवानंदाके गर्भ में आये तब च्यवन कल्याणक के सर्वकार्य नहीं हुए, परंतु. त्रिशलाके गर्भ में आये तबही च्यवनकल्याणकके सर्व कार्य हुए हैं. तो भी देवानंदाके गर्भ में भगवान आये तब माताने १४ महास्वप्न देखे,तथा ८२ दिनतक वहां विश्रामलिया और शरीर-इन्द्रीय-पर्याप्ति देवानंदामाताके शरीरसे बने हैं. इसलिये देवानंदाके गर्भमें आनेकोभी भगवान के प्रथम च्यवनरूप कल्याणक पना मानते है । और जैसे-मारवाड,गुजरात,दक्षिण, पूर्व वगैरह देशाम पुत्रको दत्तक [गोद लेनेमे आताहै, उनके पहिलेके मातापिता अलगहोते हैं और पीछेपालने पोषनेवाले दूसरे मातापिता अलगहोते हैं, इसलिये उनके दो माता और दो पिता कहने में कोई दोष नहीं आता, मगर नाम पीछेवालोका चलता है । तैसेही भगवान केभी दे वानंदाके गर्भसे ८२दिन गये बाद आश्चर्यरूप त्रिशलाके गर्भमें आना पडा, उससे दो माता तथा दो पिता और दो च्यवन कल्याणक माननेमें आते हैं. इसलिये दोनों माताओंका गर्भकाल मिलकर ९महीने और ७॥ दिन हुए है, तो भी दो च्यवन कल्याणक मानने में कोईभी शास्त्र बाधा नहीं आ सकती और कोई कुयुक्ति व वितर्कभी बाधकन हीं होसकती, इस बातको विशेष तत्त्वज्ञजन स्वयंविचार सकते हैं। __इन सर्वबाताका विशेषनिर्णय ऊपरके भूमिकाके लेखमें और इस ग्रंथमें अच्छीतरहसे सर्व शंकाओका निवारणपूर्वक खुलासा होचुकाह, यहां तो उसका संक्षिप्तसार बतलायाहै,और विशेष निर्णय क. रनेकी अभिलाषावाले तत्त्वसारग्रहण करनेवाले पाठकगण इस ग्रंथको संप्रेण वांचेगे तो सर्वबातों का खुलासा अच्छी तरहसे होजावेगा विवादवाले विषयों संबंधी अभिप्राय. तपगच्छ के श्रीमान् विजयधर्मसूरिजीके शिष्य श्रीमान् रत्नविजयजीने विवादवाले विषयों संबंधी पौषशुदी३बुधवार,श्रीवीरनिओण संवत् २४४३ के जैन शाशन पत्रके पृष्ठ ५८८ में श्रीपार्श्वनाथस्वामीकी परंपरासंबंधी उपकेशगच्छ (कवलागच्छ) की हकीकत छपवाया है, उसका थोडासा उतारा यहांपर बतलाते हैं। For Private And Personal Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७०] "श्रीरत्नप्रभमरिजीकृत सामाचारीमा लख्युंछे के.पुष्पवती थया. बाद स्त्रीने पूजा नहीं करवी. आंबिलमा २-३ द्रव्य कल्पे. तथा देव. गुप्तसूरिजीकृत कल्पसूत्रनो टीकामां ६ कल्याणिक लख्यां छे,पजोस. णा ५० दिवसे करवा इत्यादि " तथा "वीर प्रभुना २८ भव लख्या छे, सुधर्मा, जंबु, प्रभव, सिजंभव ए चारना ८४ शाखा, ४५ गण, ८ कुल थया. आ सामाचारी तथा कल्प टीका हालनां गच्छोथी घणी प्राचीन बनेली छे, प्राचीन समयथी ६ कल्याणिक, स्त्री पूजा निषेध विगेरे प्रवृत्तिओ चाली आवीछे, जिनदत्तसूरिजी, जिनवल्लभसूरिजी विगेराने लोको खाली निंदे छे, नवु कोईए कर्यु नथी. पजोषण जे. वा वतिराग पर्वमां कल्पसूत्रना मांगलिक व्याख्यानमां चतुर्विध श्रीसंघमां अकारण कलह करी जैनभाईयोनां अंतकरण दुभावी ध. मनी निंदा करावी वर्षावर्ष अनी वातने ' अभूतभावच्चि' क. रीने किंतुना कलासमा दाखल करवी, ए कोई रीते इच्छवा योग्य नथी, शासन प्रेमी महाशयो आ बाबत बराबर समजी गया हशे, [अयं निजपरोवेत्ति, गणनालघु चेतसा । उदार चरितानां तु,वसुधैव कुटुंबकम्' ॥१॥] आमा 'वसुधैव कुटुंबकं' ए वाक्य अत्यंत श्रेष्ट छे पण अने बदले 'सर्व गच्छ कुटुंबकं एबुं बनो,एज प्रार्थना, याचना अने सलाह"यहीलेख उसीअरसेमे जैनपत्र भी प्रकाशित होगयाहै औरभीजेठवदिबुधवार वीर सं०२४४४ के जैनशासनपत्रकेपृष्ठ१६८ में श्रीरत्नविजयजीने पर्युषणामें समभावरखनेसंबंधी लेख छपवाया. था,उसमेसे थोडासाबतलातेहै."दरेकगच्छनीपट्टावलीजुओ,तेमांपर स्पर पठनपाठन साथे रहेता,वंदनादि व्यवहार करता, विनयमूल ध. मनी पुष्टि करनाराहता,आजे विरोधभाव करनारा बीकनथीराखता. खरतरगच्छना आचार्योने सत्कारआपनारा तपगच्छना साधुओहता अने तपगच्छनाआचार्योने बहुमान आपनारा खरतरगच्छनासाधुओ हता, तपगच्छना जेवा परम प्रभाविक पुरुषो थयाछे.तेवाज खरतर गच्छमां परम प्रभाविक पुरुषो थया छे.जिनदतमूरिजी, जिनकुशल सूरिजी जेणे सवालाखनवा जैनो बनाव्या,हजारोराजा महाराजाओने जैन धर्म अंगीकार कराव्यो, हजारो क्षत्रीयोने ओसवाल बनाव्या, जिनचंद्रसूरि,जिनहर्षनारी जिनप्रभसूरि आदि अनेक प्रभाविक पुरुषो थया. तेवा महा पुरुषोना अवर्णबाद बोलवा,आवते भवे जीभ पाम वी मुश्किल छे. उपकारी नो उपकार रदी करवो महा भयंकर पाप छे, एक खास मुद्दो तपाशोके आजे साधुओ वखाणमां टीकाओ For Private And Personal Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७१] पांचछे तथा चरित्रोनां चरित्रो वांचेछे, ग्रंथो वांचेछे ते घणेभागे खरतर गच्छना बनावेला ग्रंथो छे, परस्पर गच्छवालाओ वांचे छ सर्व गच्छवालाओ श्रद्धाथी सांभले छे' पुरुष विश्वासे वचन वि श्वास' जेना बनावेला पुस्तको हाथमां लई सन्मुख धरी वांचो छो, अने मोढेथी तेज आचार्योनी बद बोई कराय. आजे दादा साहेबने मानवा वाला चरण पादुकाना दर्शन करनारा तपगच्छवाला हजा. रो भाविक भक्तो छ तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुखने माननारा ख. रतरगच्छना हजारो भाविक भक्तोछे.आवा शंभु मेलामां खाली वि. क्षेप पेदा करवाथी कोईन कल्याण थवानुं नथी" इत्यादि. देखो-ऊपर मुजब खास तपगच्छके श्रीरत्नविजयजीके लेखपर खूब दीर्घ दृष्टिसे विवेकपूर्वक विचार किया जावे, तो श्रीपार्श्वनाथस्वामिकी परंपराके श्रीदेवगुप्तसूरिजीकृत कल्पसूत्रकी प्राचीन टीका वगैरह शास्त्रानुसार पहिले पूर्वाचार्योंके समयसेही श्रीवीर प्रभुके २८ भव, तथा छ कल्याणक मानने वगैरह बातें प्रचलीतही थी. उन्हीके अनुसार श्रीजिनवल्लसूरिजी वगैरह महाराजोंने चैत्य. वासियोंको हटाते हुए, भव्य जीवोंके सामने विशेषरूपसे प्रकटपने कथन की हैं । परंतु शास्त्रविरुद्ध होकर नवीन प्ररूपणा नहीं की, जिसपरभी आगमप्रमाणोंको उत्थापन करके शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्रायको समझे बिना अपनी मतिकल्पनासे शास्त्रपाठोके खोटे खो रे अर्थ करके नवीन छठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेका झूठा दोष लगाते हैं. सो प्रत्यक्षपणे मिथ्याभाषणकरके अपने दूसरे महाव्रतका भंग करना और भोलेजीवोंको उन्मार्गमें गेरना सर्वथा अनुचितहै । और श्रीजिनवल्लभसूरिजी, श्री जिनदत्तभूरिजी महाराज जैसे शासन प्रभावक परम उपकारी पुरुषोंने, चैत्यवासियोंकी उत्सूत्रप्ररूणाके तथा शिथिलाचारके मिथ्यात्वको हटाया, और क्षत्री-ब्राह्मा. गादि लाखों अन्य दर्शनियोंको प्रतिबोधकर जैनी श्रावक बनाये, उ. म्हौकीही वंश परंपरा वाले अभी वर्तमानमेंभी गुजरात, कच्छ, मा. वाड, पूर्व, पंजाब,दक्षिणादि देशोंमें लाखों जैनी विद्यमान मौजूद है। इसलिये उन महाराजोने परंपराके हिसाबसे करोडो जीवों को सम्यक्त्व प्राप्त कराने संबंधी बडाभारी महान् उपकार किया है। तथा विद्या मंत्र, देवसाह्य,व संयमानुष्टाने-आत्मशक्ति प्रकाशित कर. के बहुत बडीभारी जैन शासनकी प्रभावना करी. उन महाराजोंके प्रतिबोधे हुए श्रावकोकी वंश परंपरावाले श्रावकोसेही, वर्तमानिक For Private And Personal Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७२] सबगच्छवाले बहुतसाधुओं को आहार, पानी, तथा संयम उपकरणोंसे निर्वाह होता है। ऐसे महान् शासन प्रभावक परम उपकारी महाराजाने पूर्वाचार्योंकी प्रवृत्ति मुजब तथा आगमादि प्राचीन शास्त्रानुसारही सत्य प्ररूपणाकरीहै, मगर शास्त्रविरुद्ध होकर नवीन प्ररूपणानहींकरी. जिसपरभी कितनेक पक्षपातीजन उपकारी महाराजोके उपकारोंको छुपादेते हैं, और छठे कल्याणक प्रकटकरनेकी तथा स्त्रीपूजा निषेध करनेकी नवीनप्ररूपणाकरने का झूठा दोषलगाकर अनेक तरह से निंदा करते हुए आक्षेप करते हैं । उन्होको परभवमे जीभ मिलना मुश्किल है यहबात तपगच्छवालेही गुणानुरागी मभ्यस्थ भावसे लिखते हैं । अर्थात् ऐसे उपकारोंको भूलकर झूठा दोष लगाकर निंदा करनेवाले एकेन्द्रिय होवेंगें, फिर उन्होकों जैनधर्म प्राप्त होना बहुत मुश्किल होवेगा, संसारमे बहुत काल परिभ्रमण करेंगे. इसलिये भवभिरु आत्मार्थी भव्य जीवोंको संसार परिभ्रमण के हेतुभूत उपकारी पुरुषोंकी झूठी निंदा करके भोले जीवोंकों मियत्वमें गेरनेरूप अनर्थ करना सर्वथा अनुचित है । और ऊपरके लेख से श्रीरत्नविजयजीके लेखमुजब तपगच्छके तथा खरतरगच्छके आपस में विशेषरूपसे संप की वृद्धि होना चाहि य और कुसंपके कारण भूत पर्युषणामै खंडनमंडनके विवाद वाले विषयोंकों सर्वथा त्याग करके संपसे शासन उन्नतिके कार्यों में कटि बद्ध होना, यही अपने और दूसरे भव्यजीवों केभी आत्म कल्याणका हेतु है । ऐसी ही श्रद्धा तथा प्ररूपणा और प्रवृत्तिका शुद्ध हृदयसे व्यवहार करके उपकारी पुरुषोंकी झूठीनिंदा छोडकर, प्राचीन पूर्वाचायकी परंपरामुजब शास्त्रानुसार आषाढ चौमालीले ५० दिने दूसरे श्रावण में या प्रथम भाद्रपद में पर्युषण पर्वका अराधन करके तथा श्री महावीर स्वामिके च्यवनादि छ कल्याणकोंको आगमानुसार भावपूर्वक मान्य करके भगवान्की आज्ञानुसार धर्मकायसे निज और परका कल्याणकरो, संसार परिभ्रमण के दुःख से छुटो, और अक्षय सुख प्राप्त करो. यही आत्मिक हृदयकी विशुद्ध प्रेम भावसे आत्महितैषी पाठक गण भव्य जीवोंके प्रति प्रार्थना है. इति 'शुभम् . विक्रम संवत् १९७७, प्रथम श्रावण शुदी १३ बुधवार. हस्ताक्षर - श्रीमान् उपाध्यायजी श्रीसुमतिसागरजी महाराजके लघु शिष्य - मुनि - माणिसागर. जैन धर्मशाल, धुलिया - खानदेश. For Private And Personal Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीवीतरागाय नमः। दूसरे भागकी पीठिका. इनकोंभी पहिले अवश्यही वांचिये. अब हम यहांपर दूसरे भागकी पीठिका न्यायरत्नजी शांतिविजयजी संबंधी थोडासा लिखते हैं, जिसमें ३ वर्ष पहिले दो भाद्रपद होनेसे पर्युषणापर्व प्रथम भाद्रपदमे करने या दूसरे भाद्रपदमें, इस विषयकी मुंबईशहरमें चर्चा खूब जोरशोरसे दोनों तरफसे चलीथी,उससमय मैनेभी लघु पर्युषणा निणर्यका प्रथम अंक'नामाछोटी सी पुस्तकमें मुख्य २ सर्वबातोंकी शंकाओंका समाधान अच्छीतरहसेलिखदियाथा. वह पुस्तक एकश्रावकने छपवाकर प्रसिद्ध की थी. उसपर न्यायरत्नजीने उन पुस्तककी शास्त्रानुसार सत्य २ बातोंको ग्रहण तो नहीं करी और मेरे सबलेखोंको अनुक्रमसे पूरेपूरे लिखकर पीछे उनसवका जवाब देनेकीभी ताकत न होनेसे जानबुझकर कुयुक्तियोंसे अनेकवाते शास्त्रविरुद्ध लिखकर 'पर्युषणापर्वनिर्णय' तथा 'अधिकमासनिर्णय में प्रकटकी.उसपर मैने उनदोनों पुस्तकोंकी शास्त्रविरुद्धबातोंसंबंधी शास्त्रार्थसे सभा निर्णयकरनेकेलिये न्यायरत्न जीको जाहिररूपसे छपवाकर सूचना दीथी.वो लेख नीचे मुजबहै. विज्ञापन, नं०७ न्यायरत्नजी शांतिविजयजी सावधान ! शास्त्रार्थके लिये जलदी तैयार हो. मैंने- आपको शहर पुणामें शास्त्रार्थ संबंधी विज्ञापन नंबर १-२-३-४ भेजेथे और वर्तमानिक पर्युषणाकी चर्चासंबंधी आपकी ब. नाई ‘पर्युषणापर्वनिर्णय' किताब " शास्त्रकारोंके अभिप्रायविरुद्ध, जिनामा बाहिर और कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंको उन्मार्गमे गेरने वाली है," यह सूचना विज्ञापन नंबर पहिलेमें लिखकर, इसका वि. शेष खुलासा मुंबई की सभामें शास्त्रार्थद्वारा करनेकेलिये आपको आ. मंत्रण कियाथा और 'श्रीकच्छी जैन एसोसीयन सभा' नेभी सब मु. निमहाराजोंकी तरह आपकोभी पर्युषणाका निर्णय करनेसंबंधी विनतीपत्र भेजाथा, जिसपरभी आपने मुंबई में शास्त्रार्थकरना मंजूर न For Private And Personal Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७४ ] किया और दूसरों पर गेरकर मौनही कर बैठे, तथा दूरसेही फिर " अधिकमासनिर्णय " की छोटीसी किताब छपवाकर प्रकटकी. उ सके बाद थोडे रोज पीछे आप मुंबई दादर आये, तब मैंने आपको दोनों किताबों संबंधी शास्त्रार्थ करनेकी सूचना पत्र द्वारा दीथी, उ सकी नकल नीचे मुजब है: mad "श्रीदादर मध्ये श्रीमान् न्यायरत्नजी शांतिविजयजी योग्य श्री मुंबई वालकेश्वरसे मुनि मणिसागरकी तरफ से सूचना. मैंने कलरात्रिको आपके दादर आनेकासुना है, उससे आपको सूचना देता हूं, कि-आपने " पर्युषण पर्व निर्णय " और " अधिक मास निर्णय " दोनो पुस्तकौमें बहुत जगह शास्त्रविरुद्ध होकर उत्सूत्र प्ररूपणारूप लिखा है, आपने दोनों पुस्तकों में सर्वथा शास्त्रविरुद्ध और कल्पित बातोंकाही संग्रह किया है, इसलिये हम सभा में शास्त्रार्थसे आपकी दोनों पुस्त• के जिनाशाविरुद्ध सिद्ध करनेको तैयार हैं, शास्त्रार्थ किये बिना आप चले जावोगे तो झूठे समझे जायेंगे, विशेष क्या लिखु, शास्त्रार्थका विज्ञापन नं० १ आपको पहिलेभी भेज चुका हूं, कल दादर आबुंगा आप जाना नहीं. इसका उत्तर अभीही लालबाग में आदमीके साथ पीछा भेजना; मै लालबाग जाता हूं, हस्ताक्षर मुनि - मणिसागर, पौष शुदी १ रविवार, सं० १९७४." इस मुजबपत्र पौषशुदी १ को आदमी भेजकर आपको पहुंचाया और दूजके दिन खास मै और मुनिश्रीलब्धि मुनिजी, तथा अंचलगच्छीय मुनि दानसागरजी और केवलचंदजी चारोंही ठाणे दादर आये, और शास्त्रार्थ करनेका आपसे - कहा, तब आपनेभी अन्य मुनियोंकीतरह आनंदसागरजीकी आड लेकर दो महीनों बाद शास्त्रार्थ करनेका कहाथा, सो २ महीनेंकी जगह ४ महीने होगये, अब जलदी करो. आनंदसागरजी तो आडी आडी बातों से दूसरेका नाम आगे करते हैं. अपना नाम से लिखते भी डरतेहैं, तो सभा नियमानुसार क्या शास्त्रार्थ करेंगे. और आपने किताबे बनवाने में किसी आगेवानोंकी व आनंदसारगजी वगैरह मुनियोंकी आड न ली तो फिर उसका खुलासा करनेमें दूसरोंकी आड लेते हो - यही आपका अन्याय समझा जाता है, वालकेश्वर में जब हमारे गुरुजी महाराजकेसाथ आपकी मुलाकात हुई थी तब भी झगडीया वगैरह तीर्थयात्राको जाकर आये बाद शास्त्रार्थ करनेका मंजूर कियाथा, सो आप यात्राकरके आगये. अब आमने सामने या लेख - द्वारा वा सभामें आपकी इच्छाहो कैसे शास्त्रार्थ करना मंजूर करिये For Private And Personal - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७५] और विशेष सूचनाये विज्ञापन, नंबर ६ से समझ लीजिये. और नि. यमभी जो आपकी इच्छा हो सो प्रतिज्ञापत्रके साथ१५ दिनके भीतर प्रकट करीये, आनंदसागरजी, विजयधर्मसूरिजी, विद्याविजयजी व न्यायविजयजीकी तरह आडी आडी बातें निकालकर शास्त्रार्थ क. रना मंजूर न करोगे.तो-आपकीभी हार समझी जावेगी. अथवा श्री. कच्छी जैन एसोसीयनकी विनतीके अनुसार, व मैरे विज्ञापनोंके अ. नुसार यदि आपको मुंबई में ठहरकर सभामें शास्त्रार्थ करनेमें अनुकूल लता न होवे, तो लीजिये चलिये- लेख द्वाराही सही, मगर विज्ञापन नंबर ६ मुजब प्रतिज्ञा वगैरह नियमोंके साथ उत्तर दीजिये. देखो न्यायरत्नजी मैरे बनाये लघु पर्युषणानिर्णय के प्रथम अंक' के सब लेखाका न्यायसे पूरेपूरा उत्तर देनेकी आपमें ताकत नहीं है, य. दि होती तो उसके पृष्ठ ३-४-५-६-७ और १०में अधिकमासमें सूर्यचार न होवे, वनस्पति न फूले, वगेरह सुबोधिकाकी ११ बातोका खु. लासा मैंने लिखाथा. उन सबको लिखकर अनुक्रमसे पूरा उत्तर क्यों न दिया,यदि भूल गये हो, तो अभीही देवो । और पृष्ठ १७ के अंतके पाठका खुलासाभी साथही करो ॥ और मैने 'लघु पर्युषणा निर्णय' में निशीथचूर्णि और दशवैकालिक बृहवृत्तिके पाठसे अधिकमास को कालचूला कहकरकेभी दिनोंकी गिनतीमें लेनेका सिद्धकर दिखा या है,इसलिये दिनोंकी गिनती निषेध नहीं होसकता,देखो-लघुपर्युः षणानिर्णयके पृष्ठ २४-२५ ॥ और लौकिक शास्त्रानुसारभी अधिक मासको दिनों में गिना है, देखो-लघुपर्युषणानिर्णय के पृष्ठ २८.२९ ॥ और अधिक मासमें मुहूत्तवाले शुभकार्य न होवें,उसी तरह चौमासे. में, सिंहस्थमें, गुरु शुक्रके अस्तमें, पौष चैत्र मलमासमें, क्षयमासमें, वदीपक्षकी १३-१४ और अमावास्या इन तीन क्षीणतिथियोंमें,और वैधृति-गंडांत-व्यतिपात-भद्रा वगैरह कुयोगोंमें; तिथि, वार, नक्षत्र, चंद्रादि बहुत, मास-पक्ष-वर्ष-दिन वगैरह योगोभी मुहूर्त्तवाले शुभकार्य न होवे, देखो-ज्योतिःशास्त्रे "जंभारिति पुरोहिते हरिंगते, सुप्तेमुकुंदेविभौ । जातेधर्मघने धनशफटयोः क्षीणे कुवारस्तिथिः ॥ अस्ते भार्गव जीवयोः कुदिने, मासाधिके वैधृतौ । गंडांते व्यतिपात विष्टिक शुभं, कार्य न कार्य वुधैः ॥ १॥" मगर-दान, शील, तप, भाव, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध वगैरह धर्मकार्य अधिक मासमे भी होलकते हैं, उसी तरह पर्युषणापर्वभी दिन प्रतिबद्ध होनेसे अधिकमासमें करनेमें कोई बाधा नहीं है । देखो लघुपर्युषणा निर्णयके पृष्ठ For Private And Personal Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७६ ] · २७-२८ ॥ और मासवृद्धि होने परभी पर्युषणा के पिछाडी ७० दिन रहनेका किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा, समवायांगका पाठ तो मांस वृद्विके अभावका है, इसलिये अधिकमास होनेपरमी ७० दिन रहनेका कहना शास्त्रकारों के अभिप्रायविरुद्ध होनेसे मिथ्या है, देखो लघुपर्युषणा निर्णय के पृष्ठ १८-१९-२० २१ ॥ इसीतरहसे दोनों आषाढ वगैरहका खुलासाभी लघुपर्युषणा के पृष्ठ २५-२६ में अच्छी तरह से दिखला दिया था। जिसपर भी न्यायरत्नजी आपने मैरे सब लेखाका आगे पीछेका संबंध तोडकर मैरे अभिप्रायके विरुद्ध होकर अधूरे अधूरे लेख, भोलेजीवों को दिखलाकर अपनी दोनों किताबो में आप वारंवा र अधिक महीने के दिनों को गिनती में से उडादेनेकेलिये कोई भी शास्त्रका पाठ बतलाये बिनाही, और लघुपर्युषणाके पृष्ठ २७-२८ का लेखको पूरा बिचारे बिनाही, 'अधिकमासनिर्णय' के दूसरे पृष्ठकी आदिमें आप लिखते हैं, कि-'अधिक महीने में विवाह सादी वगेरा कामनहीं किये जाते, दीक्षा प्रतिष्ठा वगैरा धार्मिक कामभी अधिकमहीने में नहींकिये जाते, फिर पर्युषणापर्व जैसा उमदापर्व अधिक महीने में कैसेकिया जाय.' तथा ' पर्युषणापर्व निर्णय' के मुख्य पृष्ठ परभी 'दीक्षा प्रतिष्ठा और दुनियादारीके विवाह सादी वगेराकाम अधिक महीने में नहीं किये जाते, तो फिर पर्युषणापर्व जैसा उमदापर्व कैसे किया जाय' यह दोनों लेख आपके जिनाशाविरुद्ध उत्सूत्र प्ररूपणारूपही हैं. यदि मुत्तवाले दीक्षा प्रतिष्ठा व संसारी विवाह सादीकी तरह पर्युषणा भी आप मानोंगे, तबतो चौमासे में, तथा १३ महीनों तक सिंहस्थवाले वर्ष में भी पर्युषणा करनाही नहीं बनेगा, मगर शास्त्रों में तो चौमासेमैदी और सिंहस्थवाले वर्षमै भी वर्षा ऋतुमेही दिनोंकी गिनती से५०वें दिन अवश्यही पर्युषणा करना कहा है, मुहुत्तेवाले विवाहसादी वगैरह लौकिक कार्योंके साथ, बिना मुहुर्त्तवाले लोकोत्तर पर्युषणापर्वका कोई भी संबंध नहीं है. सिंहस्थ, अधिकमास, क्षयमास, गुरु शुक्रका अस्त, चौमासा, व्यतिपात, भद्रा, और चंद्र व सूर्य ग्रहण वगैरह कोई भी योग पर्युषणा करने में बाधक नहीं होसकते, इसलिये आपका उत्सूत्र प्ररूपणाका और प्रत्यक्ष अयुक्त व मिथ्यालेखको पीछा खींच लीजिये और मिच्छामि दुक्कडं प्रकट करिये, नहीं तो सभामें सिद्ध करनेको तैयार हो जाईये ॥ १ ॥ औरभी आपने 'मानव धर्म संहिता ' के पृष्ठ ८०० में लिखा है कि "अगर अधिकमास गिनती में लियाजाता हो तो पर्युषणापर्व दूसरे वर्ष श्रावण में और इसतरह अधिकम For Private And Personal Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७७] हीनोके हिसाबसे हमेशां उक्त पर्व फिरते हुए चले जायेगे, जैसे मु. सल्मानोके ताजिये- हर अधिक मासमें बदलते हैं" यह लेखभी उ. सूत्र प्ररूपणारूपहीहै, क्योंकि जिनेंद्रभगवान्ने अधिकमहीना आनेपरभी वर्षाऋतुमेही पर्युषणा करना फरमायाहै,मगर वर्षाऋतु बिना माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाखमें शरदी व धूपकालमें पर्युषणा करना नहीं फरमाया, जिसपरभी आप अधिक महीनेके ३० दिन उडा दे. नेकेलिये मुसल्मानोके ताजियोंके दृष्टांतसे हर अधिक महीनेके हिसाबसे बारोही महीनोंमें [छही ऋतुओं में पर्युषणापर्व फिरते हुए च. ले जानेका बतलाते हो, सो किस शास्त्र प्रमाणसे,उसकाभी पाठ बतलाइये, या आपनी भूलका मिच्छामि दुकडं दीजिये, अथवा सभामें सत्य ठहरनेको तैयार हो जाईये ॥२॥ और भी 'पर्युषणापर्व निर्णय' के मुख्यपृष्ठपर 'अधिकमहीना जिसवर्षमें आवे उसवर्षका नाम अभिवर्द्धित संवत्सर कहते हैं, और वो आभिवर्द्धित संवत्सर तेरह महीनोंका होता है, मगर अधिक महीना कालपुरुषकी चूला यानी चोटी समान कहा इसलिये उसको चातुर्मासिक-वार्षिक और कल्याणिकपर्वके व्रत नियमकी अपेक्षा गिनती में नहीं लियाजाता' तथा 'अधिकमास निर्णय' के प्रथम पृष्ठके अंतमें 'अधिक महीना काल. पुरुषकी चूला यानी चोटी समानहै,आदमीके शरीरके मापमें चोटीका माप नहीं गिनाजाता, इसतरह अधिक महीना अच्छे काममें नहीं लिया जाता' इस लेखसे अधिक मासको केशोंकी चोटी समानकहते हो और गिनती में लेना निषेधकरते हो सो भी सर्वथा जिनाशा विरुद्ध है, देखो-चोटी तो १०-२० अंगुल, अथवा १-२ हाथ लंबीभी होसकतीहै, व नहींभी होतीहै. और शरीरके मापमें चोटीका कुछभी भाग नहीं लियाजाता, इसीतरह यदि अधिकमासभी चोटी स. मान गिनतीमें नहीं लिया जाता तो फिर उसको गिनतीमे लेकर १३ महीनोंके, २६ पक्षोंके,३८३ दिनोंका अभिवर्द्धित संवत्सर क्यों कहा? देखिये-जैसे पर्वतोंके शिस्त्रर और घास एकसमान नहीं है,तथा.मंदिरोके शिखर और ध्वज एक समाननहीं हैं.तैसेही चूला याने शिखरऔर चोटीएकसमाननहींहै, इसलिये चोटीकहोंगे तो गिनती नहीं औ. र गिनतीमें लेवोंगे तो चोटी समाननहीं. चोटीकहोंगे तो अभिवद्धि. त संवत्सर कैसे बना सकोगे? इसको विचारो, अधिकमासको चो. टीसमान कहकर गिनती छोडदेना किसीभी जैनशास्त्रमें नहींकहा, निशीथचूर्णि व दशवकालिक वृत्तिमें कालचला याने शिखरकहाहै, For Private And Personal Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७८] और गिनतीमेंभी लियाहै, देखो लघुपर्युषणाके पृष्ठ २५ में. इसलिये शिस्त्ररको चोटी कहना और गिनतीमें छोड देना बडी भूल है ॥३॥ इसीतरहसे अधिकमहीनेमें धर्म, ध्यान, व्रत, पञ्चख्नान, तप, जप, चौमासी, पर्युषणा, कल्याणकादि धर्म कार्य निषेध करना ॥४॥ वर्तमानिक श्रावण, भाद्रपद, आश्विन बढनेपरभी समवायांग सूत्रवृत्ति कारका अभिप्राय को समझे बिनाही पीछे ७० दिन ठहरनेका आग्रह करना ॥५॥ श्रावण-पोष बढनेपर एक महीनेमें कल्याणिक मा. ननेसे दूसरे महीनेको छुटनेका कहकर अधिकमासके ३० दिन उ. डादेना ॥ ६॥ दो आषाढ होनेपर प्रथम आषाढको कालचूला ठहराना ॥७॥ दूसरे आषाढमें चौमासी करनेसे प्रथम छुट जानेका कहना ॥ ८॥ और नवतत्व- षट् द्रव्यके स्वरूपकी तरह चंद्र और अ. भिवर्द्धित दोनो वर्षोंका समानही स्वरूपकहाहै, तथा दोनोंसेही मास-पक्ष-तिथि-वर्ष वगैहरका व्यवहार चलता है, तिसपरभी दिनोंकी गिनतीके विषय में दिन प्रतिबद्ध पर्युषणाकी चर्चा में विषयांतर करके मास व ऋतु प्रतिबद्ध कार्योंको दिखलाकर अधिक मासके दिन गिनतीमें छोड़ देना ॥९॥ अधिकमास आनेसे ५० वें दिन पर्युषणा पर्वकरनेको जैनशास्त्रसे खिलाफ ठहराना॥१०॥और पंचाशक पूर्वापर संबंधवाले संपूर्ण सामान्य पाठको छोडकर शास्त्रकार महाराजके अभिप्रायको समझेबिना थोडासा अधूरा पाठ भोलेजीवोंको दिखलाकर, वीरप्रभुके विशेषतासे आगमोक्त छ कल्याणकोंका निषेध करना ॥ ११ ॥ और सुबोधिकाकी तरह समयसुंदरोपाध्यायजी कृतकल्पलतामें खंडन मंडनका विषय संबंधी कुछ भी अधिकार नहीं है. तो भी झूठा दोष आरोप रखना ॥ १२ ॥ इत्यादि अनेक बातें आपकी दोनों किताबों में शास्त्रविरुद्ध व प्रत्यक्ष मिथ्या और बालजीवोंको उन्मार्गमें गेरनेवाली भरीहुई हैं, उसका लेख द्वारा या सभामें निर्णय करनेको तैयार हो जाईये, मगर झूठेको क्या प्रायश्चित देना वगैरह नियम होने चाहिये. वीर निवाण२४४४, विक्रमसंवत १९७५, वैशाख वदी १२, हस्ताक्षर-मुनि-मणिसागर, लालबाग, मुंबई. उपर मुजब छपाहुआ विज्ञापन न्यायरत्नजीको पहुंचाया,मगर उसमें लिखेप्रमाणे सभामें आकर शास्त्रार्थ करनेका मंजूर नहीं किया तथा इन विज्ञापनमें बतलाई हुई उत्सूत्र प्ररूपणारूप अपनी भलोको सुधारनेकाभी प्रकट नहीं किया, और शास्त्रप्रमाणसे साबित करके भी बतला सके नहीं. सर्वथा मौनकर बैठे, तब हमने उनकी हारका विज्ञापन छपवाकर प्रकाशित कियाथा, सो नीचे मुजब हैः For Private And Personal Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७९] विज्ञापन नं ०९ न्यायरत्नजी शांतिविजयजी हार गये ! सत्याग्राही पाठकगणसे निवेदन किया जाता है, कि-न्यायरत्नजी शांतिविजयजी को पर्युषणा बाबत सभामै शास्त्रार्थ करनेके लि ये मैंने विज्ञापन नं ७ वें में सूचना दीथी, उसमें १५ दिनके भीतर शास्त्रार्थ करना मंजूर न करोंगे, तो आपकी हार समझी जावेगी, यह बात खुलासा लिखीथी, और वैशाख शुदी १०को विज्ञापन नं. ७-८ के साथ १ पत्रभी उनको डाक मारफत रजिष्टरी द्वारा 'ठाणे 'भेजाथा, उसमें १५ दिनकी जगह २० दिनका करार लिखाथा, उसको आज २२ दिन होगये, तोभी न्यायरत्नजीने शास्त्रार्थ करना मंजूर नहीं किया और वैशाख शुदि १३ को फिरभी दूसरा पत्र भेजाथा उसमें हमने ठाणेमेही शास्त्रार्थ करना मंजूर कियाथा. उसकाभी कुछभी उत्तर न मिला और लेखद्वारा शास्त्रार्थ शुरू करनेके लिये प्रतिज्ञापत्र व साक्षी वगैरह नियमभी प्रगटनहीं किये. इससे मालूम होता है, कि-न्या रत्नजीमें न्यायानुसार धर्मवादका शास्त्रार्थकरनेकी सत्यतानहीं है, इसलिये चुप लगाकर बैठे हैं, उससे वो हारगये समझे जाते हैं, पाठकगणको मालूम होनेके लिये दोनों पत्रोंकी नकल यहां बतलाते हैं. प्रथम पत्रकी नकल " श्रीमान् न्यायरत्नजी शांतिविजयजी, विज्ञापन नं० ७-८ भेजता हूं, लघुपर्युषणा निर्णय के सत्य सत्य लेख छोडदिये, और मैरे अभिप्रायविरुद्ध उलटा उलटाही लिखमारा, वैसा अब न करना, सबका पूरा उत्तर देना, आजसे १५-२० दिन तकमें, वैशाख शुदी १० सोमवार, हस्ताक्षर मुनि मणिसागर. " दूसरे पत्रकी नकल " श्रीठाणा मध्ये न्यायरत्नजी शांतिविजयजी योग्य श्रीमुंबईसे मुनि मणिसागरकी तरफसे सूचना. १- आप ठाणेमें शास्त्रार्थ करना चाहते हो तो, हम ठाणे आनेकोभी तैयार हैं, मगर विज्ञापन नं० ६ की ३-४-५ सूचना मुजब नियम मंजूर करो और कल्पसूत्रकी कौम २ प्राचीन टीका आप मानते हो, उत्तर दो, ठाणेकी कोटवाली में शास्त्रार्थ होगा. २- शास्त्रार्थ आपका और मैरा है, इसमें मुंबई के सब संघको व आगेवानोंको बीचमें लाने की कोई जरुरत नहीं है, आप संघको arat order लिखो या कहो यही आपकी कमजोरी है, न सब संघ बीचमै पढे और न हमारी पोल खुले, ऐसी कपटता छोडो, For Private And Personal Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८०] ताकत हो तो मुंबईकी पोलीश चौकी कोटवाली शास्त्रार्थ करनेको आवो, दूरसे कागज काले करके मनमानी आडी२ लंबी चौडी अठीसाठी बातें लिखकर भोलेजीवोंकोअरमानेका काम नहीं करना. ३-दोनोंको सब लेख सिद्ध करके बतलाने पडेंगे. उसमें झूठे को क्या आलोयणा लेनी, सो लिखो, वैशाखशुदी १३.” न्यायरत्नजी आपकी धर्मवाद करनकी ताकातहोती तो इतने दिन मौनकरके क्यों बैठे. खैर !!! जैसी आपकी इच्छा. मगर याद रखना सभामे योग्य नियमानुसार शास्त्रार्थ न करना और अपने झूठे पक्षकी बात रखनेके लिये वितंडावाद करना या सामने न आकर सा. क्षि व प्रतिज्ञा बिनाही दूरसे कागज काले करते रहना और विषयांतर व कुयुक्तियोंसे उत्सूत्रप्ररूपणाकी आपकी दोनों कीताबें सच्ची बनाना चाहो सो कभी नहीं हो सकेगा, किंतु इसके विपाक भवांतरमै अवश्यही भोगनेपडेगे.मरीचि और जमालिसेभी आपका उत्सू. त्र बहुत ज्यादे है, आत्महित चाहते हो तो हृदयगम करके प्रायश्चि. त्त लेवो. उससे श्रेय हो. तथास्तु.सं०१९७५ ज्येष्ठ शुदी २ सोमवार हस्ताक्षर-मुनि मणिसागर. इसप्रकार उपरमुजब लेख प्रकटहोनसे न्यायरत्नजी 'झूठेहै इस. लिये चुप लगाकर बैठे हैं ' इत्यादि बहुत चर्चा होने लगी, तब अपनी झूठी इजत रखनेके लिये १ हेडबील छपवाया उसमें लिखाथा कि, 'सभा हुईनहीं शास्त्रार्थ हुआनहीं फिर हारजीत कैसे होसके' इसके जवाबमें हमनेभी विज्ञापन १० वा छपवाकर उनके लेखका अच्छीतर. हसे खुलासा कियाथा, वो लेखभी नीचे मुजबहैः विज्ञापन, नंबर १० । श्रीतपगच्छके न्यायरत्नजी शांतिविजयजीके हारका कारण, और उनकी अधिकमासके शास्त्रार्थकी जाहिर सूचनाका उत्तर. १-न्यायरत्नजीलिखते हैं कि, 'सभाहुईनहीं शास्त्रार्थहुआनहीं फिर हारजीत कैसे होसके जवाब-आपकी हारका कारण विज्ञापन७वे में और ९वें में लिख चुका हूं. उसको पूरेपूरा लिखकर सबका उत्तर क्यों न दिया ? फिरभी देखिये-मैरोविज्ञापन नं. ७ वे के सब लेखोंका पूरेपूरा उत्तर नियत समयपर आप देसकेनहीं १, विज्ञापना ६ मुजब सभाके नियमभी मंजूर किये नहीं २,आजकाल वारंवार मुंबई में आ. For Private And Personal Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८१] पं आना जाना करतेहै, मगर सभा करनेको खडे होते नहीं ३,सभाम सत्यग्रहण करनेकी प्रतिज्ञाभी करते नहीं ४, झूठे पक्षवाले को क्या प्रायश्चित्त देना सो भी स्वीकार करते नहीं ५, और श्रीकच्छीजैन एसोसीयन सभाकी विनतीसेभी सभा करनेको आप आते नहीं ६, और लेखीत व्यहारसेभी शास्त्रार्थ शुरु किया नहीं, ७, इसलिये आपकी हार समजी गई, महाशयजी! ९ महीनोंसे शास्त्रार्थ करने के लिये आपसे लिखता हूं, मगर आपतो आडी २ बातें बीच में लाकर शास्त्रार्थ करनेसे दूरहीभटकतेहैं, फिर हारमेक्या कसररही. जबतक दूसरी आड छोडकर शास्त्रार्थकरनेको सामने न आवोगे तबतकही आपकी कमजोरी समझी जावेगी.अभीभी अपनी हार आपको स्वीकार न करना हो,तो, थाणा छोडकर आगे पधारना नहीं, शास्त्रार्थ करनेको जलदी पधारो. कंठशोष-सुष्क विवाद व वितंडवादसे कागजकाले करनेकी व कालक्षेप करनेकी और व्यर्थ श्रावकोंके पैसे बरबाद करवानेकी कोई जरूरत नहीं है। २-. "शास्त्रार्थ आपका और मैरा है, इसमें मुंबईके सब संघ को व आगेवानोंको बीचमें लानेकी कोई जरूरत नहीं है,आप संघ. को बीचमें लानेका लिखो या कहो यही आपकी कमजोरीहै, न सब संघ बीचमें पडे और न हमारी [न्यायरत्नजीकी ] पोल खुले, ऐसी कपटता छोडो" इसतरहसे विज्ञापन नं०९वे के मरे पूरे सब लेख को आपने छोडदिया और मेरे अभिप्राय विरुद्ध होकर आप लिख. तेहैं, कि "शास्त्रार्थ करना और फिर जैन संघकी जरूरत नहीं यह कैसे बन सकेगा" महाशयजी ! यह आपका लिखना सर्वथा अर्थ. का अनर्थ करनाहै,कौन कहताहै जैन संघकी जरूरत नहीं है, मैरे ले. खका आभिप्राय तो सिर्फ इतनाहीहै, कि-मुंबईमें सबगच्छोका,सब देशीका, व सब न्यातोका अलग २ संघ समुदाय होनेसे सब संघ भापके और हमारे शास्त्रार्थ के बीच में पंचरूपसे आगवान नहीं होस. कता, मगर सत्यासत्यकी परीक्षाके इच्छावालोको सभामें आनकी मनाई नहीं, सभामें आना व सत्य ग्रहण करना मुंबईके संघको तो क्या मगर अन्यत्रकेभी सब संघको अधिकारहै, और इतनी बडी सभामें हजारों भादमियों के बीच में पक्षपाती व अल्प विचार वाले कोई भी किसी तरहका बखेडा खडाकरदेवे, या अपना निजका द्वेषसे भापसमें गडबड करदेवे,तो मुंबईके संघको व आगेवानोंको सुरतके झगडेकी तरह कर्मकथा, धनहानी, शासनहिलना व कुसुंप वगैरह For Private And Personal Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८२) प्रपंच में फंसना पडे,इस अभिप्रायसे मैने मुंबईके सब संघको बीचमे न पडनेका लिखाथा, जिसपर आप "संघकी जरूरत नहीं" ऐसा उलटा लिखते हो सो अनुचित है, मुंबईके, व अन्यत्रकेभी सब संघको सभामें आना व शांतिपूर्वक सत्यग्रहण करना, यह खास जरू. रत है, इसलिये-सभामें अवश्य पधारना और पक्षपात रहित होकर सत्यवाही होना चाहिये. ३-ओर आपभी अपनी बनाई 'पर्युषणापर्वनिर्णय'के पृष्ट २२ वे की पंक्ति ४-५-६ में लिखते हैं, कि-" सभामें वादी प्रतिवादी-सभा. दक्ष-दंडनायक और साक्षी ये पांचबातें होना चाहिये दोनों पक्षवालोकी रायसे सभा करनेका स्थान और दिन मुकरर करना चाहिये। देखिये-न्यायरतनजी यह आपकेलेख मुजबही हममंजूर करते हैं, अब आपकोभी अपना यह लेख मंजूर हो तो सभा करना मंजूर करो,आपका और हमारा शास्त्रार्थ कबहावे, यह देखने को सारी दुनिया उत्सुक हो रही है. जब सभाका दिन मुकरर होगा तब मुंबईके व अन्यजगहकेभी बहुतसे आदमी स्वयं देखनेको आजावेगें "सभाका . २महीनेका समय होनेसे देशांतरकेभी श्रावक सभाका लाभ ले सकेगे" यहकथन दादर और वालकेश्वरमें आपहीकाथा, अब आ. पकेलेख मुजबही साक्षीवगैरहके नाम व अन्य नियमभी मिलकर क. रनेचाहिये, पहिले विज्ञापनमें मैंभी लिख चुकाहूं. ४ आप लिखतेहैं कि "संघका मेरेपर आमंत्रण आवे तो मैं स. भामें शास्त्रार्थकेलिये आनेकोतयार हूं" यह आपका लिखना शास्त्रा र्थसे भगनेकाहै, क्योंकि पहिले आपही लिखचुके हो कि स्थान और दिन दोनोमिलकर मुकररकरें,अब संघपर गेरतेहो यहन्यायविरुद्धहै, और पहिले कभी राजा महाराजोंकी सभामें शास्त्रार्थ होताथा,तबभी वादी प्रतिवादीको संघ तरफले आमंत्रण हो या न हो, मगर अपना पक्षकी सत्यता दिखलानेको स्वयं राजसभामे जातेथे.या अपनेपक्ष' के संघ अपनेविश्वासी गुरुको विनती करताथा, मगर सब संघ दो नोपक्षवाले विनती कभीनहीं करसकते,इसलिये आपको संघकीविन तीकी आवश्यकतानहीहै, स्वयं आनाचाहिये, या आपके तपगच्छके संघको आपपर पूराभरोसा विश्वास होगा तो वो विनतीकरेगे अन्य सब नहीं करसकते.देखो- 'आनंदसागरजी धडौदेकी राजसभामै शा. स्त्रार्थ करनेको तैयारहुएथे, और मुंबई मेंभी शास्त्रार्थकरने का मंजूरकियाथा तबभीसंघकी विनतीनहीं मांगीथी,स्वयं आनेको तैयारहुए For Private And Personal Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८३] थे.मगर अब शास्त्रार्थ क्यों नहींकरते,लो उनकी आत्मा जाने' इतने. परभी आप संघके आमंत्रणका लिखते हो सो भी 'श्रीकच्छीजैन ए. सोसीयन सभा' ने सर्व जैनश्वेतांबर मुनिमहाराजोको सभाकरनेकी विनती की थी, सो आमंत्रण हो ही चुका फिर वारंवार क्या? यदि आप मुनिमंडळमें है तबतो आपकोभी आमंत्रण होचुका, यदि आप अपनेको भिन्न समझते हैं तो संघ आमंत्रणभी कैसे कर सकताहै, मैं पहिलेही लिखचुकाहूं कि 'न सब संघ बीचमें पडे और न न्यायर. नजीको शास्त्रार्थ करनापडे ऐसी कपटता क्यों रखतेहो,आपके गच्छवालोंको आपका भरोसा न होवे, तो वे आपको विनती न करें, अ. थवा आपकी बात सच्ची मालूम न होवे तो मौनकर जावे,इसमें हम क्याकरें. आप अपनापक्ष सच्चा समझतेहोतो शास्त्रार्थको पधारो. आप दूरदूरसे खंडनमंडनका विवाद चलाते हैं, किताबें छपवाते हैं, तबतो संघसे पूछनेकी दरकार रखतेनहींहैं, फिर उसबातका निर्णय करनेकी अपने में ताकत न होनेसे संघकी बात बीचमैलाते हैं, यहभी एक तरह की कमजोरी व अन्यायकीही बातहै और यह विवाद तो खास करके मुख्यतासे साधुओंकाही है, श्रावकों का नहीं.श्रावक तो साधुके कहने मुजब पर्युषणापर्वका आराधन करनेवाले हैं,इस. लिये साधुओंकोही मिलकर इसका निर्णय करना चाहिये.. ५-पहिले राजा महाराजाओंकी सभामें शास्त्रार्थ होताथा और अभीके भारतक्रमहाराज लंडनमें हजारों कोशबहुतदुरहैं,उनकी आज्ञाकारिणी और प्रजापालीनी कोर्ट व कोतवाली है, इसलिये वहां सभामें किसी तरहका बखेडा न होने के लिये और शांतिसे पक्षपात रहित पूरा न्याय होने के लिये विद्वानोंकी साक्षीपूर्वक शास्त्रार्थ होने में कोई तरहकाभी हरजा नहीं है.यह तो जगतप्रसिद्धही बात है,कि अ दालतमें जो न्यायालय है,उसमें सुलह शांतिसे पूरा न्याय मिलताहै इसलिये न्यायाधीशके समक्ष इन्साफ मिलनेके लिये शास्त्रार्थ करने का हमने लिखा सो न्याय युक्तही है. देखो-पंजाबमें जैनियोंके औरआर्यसमाजियोंके अदालतमेही शास्त्रार्थ हुआथा उससेही जैनियोंको पूरा न्याय मिला, विजय हुईथी.उसीतरह न्यायसे धर्मवाद करनेको वहां हम बहुत खुशीले तैयार हैं, अब आपभी जलदी पधारो, हम तो सिर्फ न्यायसे इन्साफ चाहते हैं. वहांभी बहुत आदमी देखनेको आसकते हैं, सचेको भय नहीं रहता झूठेको भय रहता है.इस लिये वो बीचमें आडी२ बातोसे झूठे २ बहाने बतलाकर किसी तरह For Private And Personal Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८४] सेभी अपनी इज्जतका बचावकरके शास्त्रार्थकरनेसे भगने चाहताहै। ६- आपकी इच्छा धर्म स्थान ही सभा करनेकी हो तो भी हम तैयार हैं, देखो- आपकेही गच्छके आपके बडील आचार्य आनंद सागरजीजोअभी मुंबई में श्रीगौडीजीकेउपाश्रयमेहै,उनके व्याख्यानमें हजारों आदमियोंकीसभाभरातीहै, वहां आपका और हमारा शास्त्रा. र्थहोतोभी हमेमंजूरहै,मगर ऊपर लिखेमुजबनियमानुसार होनाचा. हिये. अथवा मुंबई में अन्य स्थानभी बहुत हैं, जहां आप लिखे वहांही सही. वालकेश्वरमें हमारे गुरुजी महाराजके पास २-३ श्रावकोंके समक्ष आपने कहाथा, कि- आनंदसागरजी शास्त्रार्थ करेंगे, तो मै साक्षीरहूंगा और यदि मैं शास्त्रार्थ करूंगातो आनंदसागरजीको साक्षी बनाऊंगा सो यह योगभी आपके बन गया है, अब अपनी प्रतिज्ञासे आपको बदलना उचित नहीं है ,और सभादक्ष-दंडनायक वगै. रह नियमभी मिलकर जलदी करीयेगा. ७- और आप लिखतेहैं, कि “ पर्युषणापर्व निर्णय,छपनेको नव महीने होगये दरेक बयानका पूरेपूरा उत्तर दीजिये" जबाब-महाशयजी श्रावको विशेष पैसे खर्च न होनेके लिये व किताबें छपवानेसे बहुत वर्षांतक खंडन मंडनका प्रपंच नहीं चलाने के लियेही आपकी किताबोंका उत्तर सभामें देनेका विचार रख्खा है,सो प्रथम विज्ञापनमें लिखभी चुका हूं. इसलिये ९ महीनेका लिखना आपका अनुचितहै, और श्रीमान् पन्यासजी केशरमुनिजीके बनाये 'प्रश्नोत्त. र विचार" और 'हर्षहृदयदर्पण'का दूसरा भागके पर्युषणासंबंधी लेख, व 'प्रश्नोत्तर मंजूरी के तीन (३) भागके ४००-५०० पृष्ट छपेको आज ४ वर्ष ऊपर हो चुका है,उनकी प्रत्येक बातका उत्तर आजतक आप कुछभी नहींदे सकते, तो फिर ९ महीने किस हिसाबमें हैं,औ. र मैरे लघुपर्युषणा निर्णयके सब लेखोकाभी पूरा उत्तर ११ महीनेहो गये तो भी आजतक आप न दे सके, बल्कि सत्य सत्य लेखोके पृष्टकेपृष्ट और पंक्तियेकी पंक्तिये छोडकर अधूरा२लेख लिखकर उल टा२ ही जवाब देते हैं, यह जवाब नहीं कहा जा सकता,सत्यता तभी मानी जा सकेगा कि पूरे पूरा लेख लिखकर अभिप्राय मुजब बरोबर उत्तर दिया जावे, सो तो आपने अपनी दोनों किताबों में कहींभी नहीं किया,और उलट पुलट झूठाझूठाही लिख दिखलायाहै, सो यह युक्तही है सत्यको कौन असत्य बना सकताहै।मगर कुक्तियोंसे बात को अपनी तरफ खींचना अलग बात है। दोस्खये हमने तो आपकी For Private And Personal Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८५ ] दोनों किताबोंकी उत्सूत्र प्ररूपणासंबंधी १२ भूलेतो विज्ञापन नं ७ में दिखलादी हैं, और भी बहुत हैं सो सभा में विशेष खुलासा होगा. और७ विज्ञापन का तो पहिले कुछभी उत्तर आपने नहीं दिया. और नवमेका देने लगे, यह भी आपका अन्याय है, और सभामें निर्णय होनेवाला है, जिसपरभी आप अभी किताब द्वारा जवाब मांगते हैं, इससे साबित होता है, कि शास्त्रार्थ करनेकी आपकी इच्छा नहीं है, अन्यथा ऐसा क्यों लिखते, यदि हो तो कत्र विचार है, सो लिखो आपकी तीसरी पुस्तककाभी उत्तर उस समय सभामें मिलजावेगा मगर दोनों किताबों में जैसी उत्सूत्रता भरी है, वैसी तीसरी में भी होगा, तो सभामें सिद्ध करके बतलाना मुश्किल होगा. और उसकी आलोया लेनी पडेगी. अधिकमहीने के दिनोकी गिनती, व आषाढचौमासीसे ५० वें दिन दूसरे श्रावणमें या प्रथम भाद्रपद में पर्युषणापर्व कर ना तथा श्री वीरप्रभुके ६ कल्याणक मान्यकरने और श्रावकके सामाविकर्म प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछे से इरियावहीकरना शास्त्रानुसार होनसे इनबातों को कोईभी निषेद्धनहीं करसकता. विशेष सूचना-गये चौमासेमें हमने सब मुनिमहाराजोको पपणापर्वका निर्णय करने की सभा करनेकेलिये विनतीपत्र से आमंत्रण भेजा था तथा 'श्री कच्छीजैन एसोसियन सभा' नेभी सब मुनिमहाराजोको सभा भरकर वर्षोवर्ष के अधिकमाससंबंधी इस विवाद के निर्णय करने की विनती की थी, जिसपर भी कोई सभा करनेको न आये, सबने चुप लगादी. अब आप लोगभी चौमासा वगैरहके बहाने बतलाकर सभा न करोंगा, तो फिर आपकीभी हार समझी जावेगी. तथा आपके पक्ष के सब मुनियों की भी सत्यताकी परीक्षा दुनिया स्वयंकर लेवेगी. और सभा करनेका मंजूर किये बिना व्यर्थ निष्प्रयोजनके विषयांतर के वितंडावादवाले लंबे चौडे किसीकेभी लेखका उत्तर आजसे नहीं दिया जावेंगा. संवत् १९७५ आषाढ वदी ३ गुरुवार, हस्ताक्षर-मुनि-मणिसागर, मुंबई. देखिये- ऊपर मुजब विज्ञापन छपवाकर जाहिर किया था, तोभी न्यायरत्नजीने शास्त्रार्थ करनेको सभामें आनेका मंजूर किया नहीं. विज्ञापन, ७वेंमें लिखेप्रमाणे, अपनी १२भूलोको सुधारकर उसका प्रा. यश्चित्तभीलियानहीं, तथा अनुक्रमसे उनभूलोकोशास्त्रप्रमाणसे साबि तकरके सत्य ठहरास केभीनहीं और हमनेशास्त्रानुसारसत्य बातें बतलायाथा उन्होंको अंगीकार भी किया नही और अपने पकडे हुए झूठे For Private And Personal Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८६] हठको छोडाभी नहीं. यह कितना बड़ा भारी अभिनिवेशिक मिथ्या. त्वका आग्रह कहाजावे सो दीर्घदर्शीतत्त्वज्ञ जनस्वयंविचार सकतेहैं. औरभी न्यायरत्नजीने एक हँडबील तथा 'अधिकमासदर्पण' नामा छोटीसी एक किताब छपवाया, उनमेंभी विज्ञापन ७ वमें जो हमने उनकी १२ भूले बतलायीथी, उन सब भूलोका अनुक्रमसे पूरे पूराखुलासाकरनेके बदले १भूलकाभी पूरेपुरा खुलासा करसके नहीं और मास वृद्धिके अभावसे पर्युषणाके बाद ७० दिन रहनेका व दू. सरेआषाढमें चौमासी कार्य करनेका तथाश्रावण-पोषसंबंधी कल्या. णक तप वगैरह सब बातोंका स्पष्ट खुलासापूर्वक निर्णय ‘लघुपयु. षणा में और सातवे विज्ञापनमें अच्छीतरहसे हमबतला चुके हैं, तो. भी उन्ही बातोंको बालहठकी तरह वारंवार लिखे करना और स्थानांगसूत्रवृत्ति, निशीथचूर्णि, कल्पसूत्रकी टीकायें आदि बहुत शास्त्रोंमे मास बढे तब पर्युषणाके बाद १०० दिन ठहरनेका कहा है, तथा आधिक महीनेके ३० दिन गिनतीमें लिये हैं, इसलिये अधिक महीना होवे तब ७० दिनकी जगह १०० दिन होवें उसमे कोई दोष नहीं है. मगर पर्युषणापर्व किये बिना ५०वे दिनको उल्लंघन करे तो जिनाज्ञा भंगका दोष कहाहै,इसीलिये ५०दिनकी जगह ८०दिनतो क्या परंतु ५१ दिनभी कभी नहीं होसकते इत्यादि बहुत सत्य २ बातोको उडा. देनेका उद्यम किया सो सर्वथाअनुचितहै, इनसब बातोका विशेषनि र्णय ऊपरके भूमिकाके लेखमें और इन ग्रंथमें विस्तार पूर्वक शास्त्रों. के प्रमाणोसहित अच्छी तरहसे खुलासासे छपचुका है, इसलिये यहांपर फिरसे लिखनेकी कोई आवश्यकता नहीं है, पाठक गण ऊपरके लेखसे सब समझ लेंगे। अब हम यहां पर 'खरतरगच्छ समीक्षा' के विषयमें थोडासा लिखतेहैं, न्यायरत्नजीः 'खरतरगच्छ समीक्षा' नामा किताब छपवाने संबंधी वारंवार जाहेर खबर लिखतेहैं, यह किताब आज लगभग १२-१३ वर्षहुए उनोंने बनायाहै, जब हम संवत् १९६५ को श्रीअंतरिक्ष पार्श्वनाथजी महाराजकीयात्रा करनेकेलिये बराड देशमें गये थे, तब बालापुरमें न्यायरत्नजी हम कोमिलेथे, उससमय उस किता. बकी कॉपी उन्होंनेहीखास मेरेको वंचायाथा,तब मैने उस किताबपर महानिशीथ वगैरह कितनेही शास्त्रोका प्रमाण मांगा, तब न्यायरत्न. जी बोले अभीमेरे पास महानिशीथसूत्र वगैरह शास्त्र यहांपर मौजूद नहीं है, फिर कभी आगेदेखाजावेगा,ऐसा कहकर उस समय बातको For Private And Personal Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८७ ] टाल दिया. अब वोही किताब छपवाना चाहते हैं, उस किताब में सामायिक कल्याणक - पर्युषणा - अभयदेवसूरिजी तिथि वगैरह बातौसं. बंधी शास्त्रानुसार सत्य २ बातोंको झूठी ठहरानेके लिये शास्त्रकार महाराजों के अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे २ पाठ लिखकर उन पाठोंके अपनी कल्पना मुजब जान बुझकर खोटे खोटे अर्थ करके कुयुक्तियाँसे उत्सूत्र प्ररूपणारूप और प्रत्यक्ष मिथ्या बहुतजगह लि खाहै, उसका थोडासा नमूना पाठकगणको यहांपर बतलाते हैं, जिसमें प्रथम सामायिक संबंधी लिखते हैं: १ - श्रावक के सामायिक करनेकी विधि संबंधी सर्व शास्त्रोंमें पहिले करेमिभतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावही करनेका लिखा है, देखो - श्रीजिनदासगणिमहत्तराचार्यजी कृत आवश्यक सूत्रकी चूर्णिमं १, श्रीहरिभद्रसूरिजीकृत वृहद्वत्ति में २, तिलकाचार्यजी कृत लघुवृत्ति ३ देवगुप्तसूरिजी कृत नर्वपदप्रकरण वृत्ति में ४, लक्ष्मीतिलकसूरिजी कृत श्रावकधर्म प्रकरण वृत्ति में ५, श्री नवांगीवृतिकार अभयदेवसूरिजी कृत पंचाशक सूत्रकी वृत्तिर्मे६, विजयसिंहाचार्यजीकृत वंदीतासूत्र की चूर्णिमें ७, हेमचंद्राचार्यजी कृत योगशास्त्र वृत्तिमें, ८, तपगच्छीय देवेंद्रसूरिजी कृत श्राद्धदिनकृत्य सूत्रकीवृत्तिमे ९, कुलमंडनसूरिजी कृत विचारामृत संग्रह में १०, मानविजयजी कृत धर्मसंग्रह वृत्ति में ११, इत्यादि अनेक शास्त्रों में खास तपगच्छादि सर्व गच्छोंके पूर्वाचार्यांने प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछे से इरियावही करनेका बतलाया है. २ - श्रीमान् देवेंद्रसूरिजी कृत श्राद्धदिनकृत्य सूत्रवृत्तिका पा ठ यहां पर बतलाताहू. सो देखिये :-- " श्रावकेण गृहे सामायिकं कृतं, ततोऽसौ साधुसमीपे गत्वा किं करोति इत्याह- साधुसाक्षिकं पुनः सामायिकंकृत्वा दर्याप्रतिकम्यागमनमालोचयेत् । तत आचार्यादीन् वंदित्वा स्वाध्यायं काले. चावश्यकं करोति ” इत्यादि " इस पाठ में गुरुपास जाकर करे मिभंतेका उच्चारण किये बाद पी छेसे इरियावही करके आचार्यादिकोंको वंदना करके स्वाध्याय करना बतलाया है और पीछे अवसर आवे तब छ आवश्यक रूप प्रतिक्रमण करनेकाभी बतलाया है । ३- श्रीहीर विजयसूरिजी के संतानीय श्रीमानविजयोपाध्याय जीकृत धर्मसंग्रह वृत्तिका पाठभी देखो: For Private And Personal Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८ ] यथा " साध्वाश्रयंगत्वा साधून्नमस्कृत्य सामायिकं करोति, तत्सूत्र करेमिभंते! सामाइयं सावजं जोगं पञ्चख्खामि जावसाहू पजुवासामि, दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं, न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामिति, एवं कृतसामायिकं इर्यापथिक्याप्रतिक्रामति, पश्चादागमनमालोच्य यथा ज्येष्ठमाचार्यादीत्वंदते, पुनरपि गुरु वंदित्वा प्रत्युपेक्षितासने निविष्टः शृणोति पठति पृच्छति वा " इत्यादि इनपाठ भी उपाश्रयमें जाकर साधुमहाराजको वंदना करके पहिले करेमिभंतेका पाठउच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावहीकर के अनुक्रमसे वडील आचार्यादिकौको वंदनाकर फिर शास्त्र सुने, वांचे या धर्म चर्चा की बातें गुरुसे पूछता रहे. ऐसा खुलासा लिखा है. ४- श्री लक्ष्मीतिलक सूरिजीकृत श्रावक धर्म प्रकरण वृत्तिका पाठभी यहां पर बतलाता हूं, सो देखो " " चैत्यालये विधि चैत्ये, स्वनिशांते स्वगृहे, साधुसमिपे, पौषो-ज्ञानादीनां धियते - अस्मिन्निति पौषधं पर्वानुष्ठानं, उपलक्षणत्वा सर्व धर्मानुष्ठानार्थ शालागृह; पौषधशाला तत्र वा, तत् समायिकं कार्य श्राभ्धैः सदा नोभयसंध्यमेवेत्यर्थः । कथं तद्विधिना इत्याहखमासमणं दाउं, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् सामाइय मुहप तिं पडिले मिति भणियं, बीयखमासणपुव्वं सामाइयं ठावित्ति, बुत्तुं· स्वमासमण दाणपुब्वं अध्यावणगत्तो पंच मंगलं कढिता ' करेमिभं ते सामाइयं इच्चाइ सामाइय सुतंभणइ, पच्छा इरियंपडिक्कमइ, इत्यादि देखिये इस प्राचीन पाठ में भी मंदिर में, अपने गृह में, साधुपा स उपाश्रयमें, अथवा पौषधशाला में, जब संसारिक कार्योंसे निवृति होवे तब किसीभी समय में सामायिक करनेका बतलाया है, सो प हिले स्वमामणसे आज्ञा लेकर सामायिक मुहपतिकापडिलेहण करके फिरभी दो खमासमणले सामायिक संदिसाहणेका तथा सामायिक ठाणेका आदेशलेकर विनयसहित करेमि भंतेका पाठ उच्चारण कर के पीछेसे इरियावही करनेका खुलासापूर्वक स्पष्ठ बतलाया है । ५- इसीही तरहसे श्री हरिभद्रसूरिजीने आवश्यक बृहद्वत्ति में, श्रीनवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजीने पंचाशकवृत्तिमें, श्रीहेमचंद्रा वाजीने योगशास्त्रवृत्ति में इत्यादि अनेक प्रभावक प्राचीन आचार्यौअनेक शास्त्रों में प्रथम करेमिका उच्चारण किये बाद पीछे द्वार पावही करनेका खुलासा पूर्वक स्पष्ट बतलाया है । For Private And Personal Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [68] 2 ६- " पयमख्खरंपि इकं, जो न रोएइ सुत्तनिद्दिहं । सेसं रोअंतो विहु मिच्छाद्दिट्टी जमालिव्व ॥१॥" इत्यादि शास्त्रीय प्रमाणके इस वाक्य से सर्वशास्त्रों की बातोंपर श्रद्धा रखनेवालाभी यदि शास्त्रोंके एक पद या अक्षरमात्रपरभी अश्रद्धाकरे, तो उसको जमालिकीतरह मिथ्या दृष्टि समझना चाहिये । अब इस जगह श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी सज्जनोंको विचार करना चाहिये, कि - श्रीहरिभद्र सूरिजी नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजी, हेमचंद्राचार्यजी, लक्ष्मीतिलकसुरिजी, देवेंद्रसूरिजी वगैरह महापुरुषोंके कथन मुजब आव are बृहद्वृत्ति वगैरह प्रामाणिक व प्राचीन शास्त्रोंके पाठोंसे श्रावकके सामायिक में प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करने संबंधी जिनाशानुसार सत्य बातपर श्रद्धा नहीं रखने वाले, तथा इस सत्य बातकी प्ररूपणाभी नहीं करनेवाले, और उसमुजब श्रावको को भीनहीं करवानेवाले, व इससे सर्वथाविपरीत प्रथमइरियावही पीछे करेमि - भंते करवाने का आग्रह करनेवालोंको ऊपर के शास्त्रवाक्य मुजब जिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी सम्यग्दृष्टि कैसे कह सकते हैं, सो आपने गच्छके पक्षपातका दृष्टिरागको और परंपरा के आग्रहको छोड़कर तश्व दृष्टिले सत्यशोधक पाठकगणको खूब विचार करना चाहिये । ७- ऊपर मुजब सत्यबातको न्यायरत्नजीनें 'खरतर गच्छ समीक्षा' में सर्वथा उडा दिया है, और इनसत्य बातकेसर्वथा विरुद्ध होकर सामायिक करनेमें प्रथम इरियावही किये बाद पीछेसे करेमिभंतेका उच्चारणकरने का ठहरानेके लिये शास्त्रोंके आगे पीछेके संबंधवाले पाठोको छोडकर बिना संबंधवाले अधूरे २ ( थोडे २) पाठ लिखकर अपनी मति कल्पना मुजब खोटे २ अर्थ करके व्यर्थही उत्सूत्रप्ररूपणासे उन्मार्गको पुष्ट किया है, उसकाभी यहां पर पाठकगणको निसंदेह होने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाणसे थोडासा नमूना बतलाता हूं :८- श्रीमहानिशीथसूत्र के तीसरे अध्ययन में उपधान करने संबंधी चैत्यवंदन करनेकेलिये जो पाठहै, सो पहिले दिखलाता हूं, यथा " असुहकम्प्रक्वयट्ठा, किंचि आयहियं चिइवंदणाई अणूट्ठिइझा, तयात्तयडे चेव उबउत्ते से भवेजा, जयाणं से तयठ्ठे उवडते भबेजा, तथा तस्सणं परममेगचित्त समाही हवेझ्झा, तयाचेव सब्व जगजीवपाणभूयसत्ताणं जहिठ्ठफलसंपत्ती भवेज्भा, ता गोयमा णंअपडिक्कंताए इरियावहियाए नकण्पइ चेवकाऊं किंचिइवंदणं सजायझाणाइयंकाउं, इट्टफला सायमभिकंखुगाणं, एएणं भट्ठेणं गोय १२ For Private And Personal Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९०] मा एवं वुच्चई,जहाणं ससुत्तत्योभयं पंचमंगलं थिरपरिचिअं काउणं तओ इरियावहियं अझीए त्ति. से भयवं कयराए विहिए तं इरिया. वहीयाए अझीए गोयमा जहाणं पंचमंगलं महासुयखधं. से भयवंइरियावहीयमहिझित्ताणं, तओ किंमहिझे गोयमा सकत्थयाइयं चे. इयवंदणं विहाणं, णवरं. सकत्थयं एगठम बत्तीसाए आयंबिलेहिं इत्यादि" . इसपाठमें अशुभकमौके क्षयके लिये तथा अपनी आत्माको हितकारी होवे वैसे चैत्यवंदनादि करने चाहिये, इसमें उपयोगयुक्त होनेसे उत्कृष्टचित्तकी समाधी होती है, इसलिये गमनागमनकी आलो. चनारूप इरियावही किये बिना चैत्यवंदन,स्वाध्याय,ध्यानादिकरना नहीं कल्पता है, अतएव चैत्यवंदनकरने के लिये पहिले पंचपरमेष्ठि नवकारमंत्रके उपधान वहनकरने चाहिये उसके बाद इरियावही, नमुत्थुणं, अरिहंत चेइयाणं वगैरहके आयंबिल उपवासादि पूर्वक उपधान वहन करने चाहिये. ९- देखिये ऊपरके पाठमें उपधान वहन करनेके अधिकार में विधिसहित उपयोगयुक्त चैत्यचंदन-स्वाध्याय-ध्यानादिकार्यकरने संबंधी पहिले इरियावही करके पीछेसे चैत्यवंदनादिकरे,ऐसा खु. लालासे बतलाया है. इसलिये ऊपरका पाठ पौषधग्राही उपधान वहन करनेवालों संबंधीहै, और पौषध( पौषह) करनेवालोंको तो इरियावही किये बिना चैत्यवंदन, स्वाध्याय-पढनागुणना, तथा ध्या. नादि नोकरवालीफेरना वगैरह धर्मकार्यकरना नहींकल्पताहै, इसलिये यहबात तो अभीवर्तमानमेंभी सर्वगच्छवाले उसी मुजब करतेहैं. मगर इस पाठमें सामायिकके अधिकारम, प्रथम इरियावही किये बाद पीछेसे करेमिभंतेका उच्चारणकरने संबंधी कुछभी अधिकारका गंधभी नहीं है जिसपरभीसूत्रकारमहाराजोके अभिप्रायविरुद्ध होकर आगे पीछेके उपधानके संबंधवाले संपूर्णपाठको छोडकर बीचमेसे थोडासा अधूरापाठ लिखकर उसकाभी अपना मनमाना अर्थकरके सामायिककरने संबंधी प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहराना. सो ऊपर मुजब आवश्यक चूर्णि वगैरह अनेक शास्रोंके विरुद्ध होनेसे सर्वथा उत्सूत्रप्ररूपणारूपही है। १०- श्रीवशवैकालिकसूत्रकी दूसरीचूलिकाकी ७ वी गाथा की टीकामें साधुके गमनागमनादि कारणले इरियावही करने का कहा है, सो पाठमी यहांपर बतलाता हूं. देखो: For Private And Personal Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९१] "अभीक्षणं, पुनः पुनः पुष्टकारणाभावे, निर्विकृतिकश्च, निर्गत विकृतिपरिभोगश्च भवेत् । अनेनपरिभोगोचित्तविकृत्तिनामप्यका. रणे प्रतिषेधमाह. तथा अभीक्षणं, गमनागमनादिषु, विकृति परिभो. गेऽपि चान्ये किमित्याह-कायोत्सर्गकारीभवेत्, ईपिथिकीप्रतिक्रमणमकृत्वा नकिचिदन्यत् कुर्यादशुद्धतापत्तेरितिभावः। तथा स्वाध्याययोगे,वाचनाद्यपचार व्यापार आचामाम्लादौ पयतोऽतिशय यत्नप. रोभवेत्तथैव तस्य फलवत्वाद्विपर्यय उन्मादादि दोष प्रसंगादिति" ऊपरके पाठमें साधुओंके उपदेशके अधिकारमें-दुध-दही-घीशकर पक्वान् वगैरह विगयोंका त्याग करनेका बतलायाहै,तथा आहार पानी-देव दर्शन या ठले-मात्रे वगैरह गमनागमनादि कार्योंसे इरियावही किये बिना कायोत्सर्गकरना,स्वाध्याय-सूत्रपाठपढना गुणना, ध्यानादि करना नहीं कल्पे, इस लिये पहिले इरियावही करके पीछे सूत्र वाचनादि कार्यों में प्रवृत्ति करे, इत्यादि.. - ११ - इस ऊपरके पाठमेभी साधुओंके गमनागमनादिकारणसे व स्वाध्यायादि करनेकेलिये इरियावहीकरनेका बतलाया है, मगर श्रावकके सामायिक करनेसंबंधी प्रथम इरियावहीकरके पीछे करेमि. भंते उच्चारण करनेका नहीं बतलायाहै,जिसपरभी पंचमहाव्रतधारी स. र्व विरति साधुओंके इरियावहीके पाठका आगे पीछेका संबंध छोड कर अधूरे पाठसे सामायिकका अर्थ करना बडी भूल है. १२- इसी तरहसे किसी जगह पौषधसंबंधी इरियावहीके, किसी जगह उपधानसंबंधी इरियावहीके, किसीजगह साधुओंके गमनागमन संबंधी इरियावहीके,किसी जगह प्रतिक्रमण संबंधी इरिया वहीके, किसीजगह चैत्यवंदन- स्वाध्याय-ध्यानसंबंधी इरियावही. के अक्षरोंको देखकर, उन जगह के प्रसंगसंबंधी शास्त्रकारोंके अभिप्रायकोसमझेविनाही अथवा तो अपना झूठा आग्रह स्थापन करनेके लिये आवश्यक चूर्णि-वृहद्वृत्ति-लघुवृत्ति-श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति वगैरह अनेकशास्त्रपाठोंकेविरुद्ध होकर पौषधादिसंबंधी इरियावही. को सामायिक जोडकर प्रथम इरियावही पीछे कमिभंतेकेपाठका उच्चारण करनेका ठहराना सो सर्वथा प्रकारसे अज्ञानतासे या जान. बुझकरके उत्सूत्रप्ररूपणारूपही मालूम होता है. देखिये- सामायिक प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवालोको अनेक दोषोंकी प्राप्ति होती है, सोही दिखाताहूं : १३ - जैनाचार्योंकी शास्त्ररचना अविसंवादी पूर्वापर विरोध For Private And Personal Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९२] रहित होती है, तथा पूर्वापर विरोधी विसंवादीको शास्त्रों में मिथ्या. त्वी कहा है, और श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजने आवश्यक बृहद्व. त्तिमें तथा श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्तिमें प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये. बाद पीछेसे इरियावही करनेका साफ खुलासा लिखाहै, और महा. निशीथ सूत्रका उद्धारभी इन्ही महाराजने किया है, इसलिये महानिशीथ सूत्रके पाठसे प्रथम इरियावही पीछे करोमिभंते स्थापन कर. नेमें आवे, तो श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजको विसंवादी कथनरूप मि. थ्यात्वके दोष आनेकी आपत्ति आतीहै,इसलिये आवश्यक वृत्ति आ. दिके विरुद्ध होकर इन्ही महाराजके नामसे महानिशीथसूत्रके पाठसे प्रथम इरियावही पीछे कमिभंते स्थापन करनासोपूर्वोपर विसंवाद. रूप मिथ्यात्वका कारण होनेसे सर्वथा अनुचित है। १४- महानिशीथसूत्रके पाठसे 'इरियावही किये बिना कुछभी धर्भ कार्य नहीं कल्पे, ' इसलिये सर्व धर्मकार्य इरियावही करके ही करने चाहिये, ऐसा एकांत आग्रह करोगे तो भी नहीं बन सकेगा, क्योंकि देखो-देव दर्शनको या गुरु वंदनको जाती वख्त १, जिनप्रति. माको या गुरुको देखतेही नमस्काररूप वंदना करती वख्त २, तीर्थयात्राको जाती वख्त ३, नवक्रारसी,पोरशी, उपवासादि पच्चख्खाण करती वस्त४, मंदिरमें जघन्य चैत्यवंदन करती वख्त ५, गुरुम हाराजको आहारवस्त्रादि वहोराती वख्त ६,इत्यादि अनेक धर्मकार्य इ. रियावही कियेविनाभी प्रत्यक्षपने करने में आते हैं, इसलिये इरियावही किये बिना कुछभी धर्मकार्य नहीं करना, ऐसा एकांत आग्रह करना मोसर्वथा विवेक बिनाकाही मालूम होताहै,इसलिये कोन२ कार्योंमें पहिले इरियावही करना, कौन २ कार्यों में पीछेले इरियावही क. रना, व कौन २ कार्य इरियावही किये बिनाभी हो सकते हैं, इन बातों का गुरुगम्यतासे भेद समझे बिना सामायिक प्रथम इरियावही करनेका एकांत आग्रह करना सो अज्ञानतासे सर्वथा शास्त्र विरुद्धहै. १५-औरभीदेखिये-स्वाध्याय,ध्यानादिमें प्रथम इरियावही करनाकहाहै,उसमें आदि पदसे सामायिकभी प्रथम इरियावही करने. का आग्रह कियाजावे, तो भी सर्वथाअनुचितहै,क्योंकि,देखो-श्रीखरतरगच्छनायक श्रीनवांगीवृत्तिकार अभयदेवत्रिजी, तथा कलिकाल सर्वज्ञ विरुद धारक श्रीहेमचंद्राचार्यजी और खास तपगच्छनायक श्रीदेवेंद्रसूरिजीआदि पूर्वाचार्योंने महानिशीथसूत्र अवश्यही देखाथा तथा स्वाध्यायध्यान आदिपदका अर्थभी अच्छतिरहसे जाननेवालेथे For Private And Personal Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९३] तोभी सामायिकमें प्रथम इरियावही करनेका नहीं कहते हुए अपने २ बनाये ग्रंथों में सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेकाखुलासा लिस्नगयेहैं, उसका भावार्थ समझबिनाही उन महाराकोंके विरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करते हैं, सो उन महाराजोंके वचन उत्थापनरूप और उन महाराजोंके वि. रुद्ध प्ररूपणा करनेरूप दोषके भागी होते हैं। १६- दशवकालिकसूत्रकी टीकाके पाठसेभी इरियावही किये बिना कोई भी कार्यकरें तो अशुद्ध होताहै', इस बात परसे सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करतेहैं सो भी बडीही भू. लहै, क्योंकि यह तो जैनसमाजमें प्रसिद्धही बात है, कि-दशवैका. लिकमलसूत्रमें और उसकी टीकामे सर्वजगह साधुओंके आचार-वि चार-कर्तव्य संबंधीही अधिकार है, उसमें किसी जगहभी श्रावकके सामायिक वगैरह कार्यासंबंधी कुछभी अधिकारनहींहै, इसलिये साधुओंके गमनागमनसे जाने आनसे इरियावही करके पीछे स्वाध्याय, ध्यानादिधर्म कार्य करने बतलाये हैं, उसके आगे पीछे के संबंधवाले पाठको छोडकर अधूरे पाठसे सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करना सर्वथा अनुचित है. १७- श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजने आवश्यकसूत्र'की बडी टीकामें तथा श्री उमास्वातिवाचक विचित 'श्रावकप्रशप्ति' की टीकामेभी सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही कहना खुलासा लिखा है, और इन्ही महाराजने श्रीदशवकालिकसूत्रकी टीकाभी बनाया है, इसलिये इन्हीं महाराजके नामसे दशवैकालिकसूत्रकीटीकाके पाठसे प्रथम इरियावही स्थापन करनेसे इन महाराजके कथनमें पूर्वापर विरोधभाव विसंवादरूप दोषकी प्राप्ति होतीहै,इसलिये इनमहाराज के अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे पाठसे सामायिक संबंधी खोटा अर्थ करके विसंवादका झूठा दोष लगाना बडी भूल है. यह महारा. जतो विसंवादी नहीं थे. मगर संबंध विरुद्ध आग्रह करनेवालेहीप्रत्यक्ष मिथ्या भाषणसे बालजीवोंको उन्मार्गमें गेरनेके दोषी ठहरतेहैं. १८ - श्रीदेवेंद्रसूरिजी महाराजने 'श्राद्धदिनकृत्य'सूत्रकीवृत्तिमें प्र थम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासा लिखाहै, तथा धर्मरत्न प्र. करणकी वृत्तिमें तो-वाचना,पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा व धर्मक. थारूप पांचप्रकारकीस्वाध्यायकरने संबंधी अधिकारमें सिर्फ परावर्त नारूप (शास्त्रपाठ पढे हुए फिरसे याद करने रूप)स्वाध्याय करनेके For Private And Personal Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९४] लिये इरियावही करनेका बतलायाहै,उसका आशय समझे बिनाही अपने गच्छके पूर्वज आचार्य महाराजकोभी विसंवादरूप मिथ्यात्वका दोष लगानेका भय नहीं करते हुए सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करते हैं, सो भी बडी भूल करते हैं. ... १९ - औरभी देखो धर्मरत्नप्रकरण वृत्तिमें "इरियं सु पडिकतो कड समइयं" इरियावही पूर्वक स्वाध्याय करें; एसा पाठ है,उसमें समइय' शब्दकीजगह 'सामाइय' शब्द बनाकर दो मात्राज्यादे अधिक पाठमें प्रक्षेपन करके स्वाध्यायकी जगह सामायिकका अर्थ बदलातेहैं सो यहभी सर्वथा शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणारूप बडीभूल है. २०-श्रीधर्मघोषसूरिजीने 'संघाचारभाष्यवृत्ति में चैत्यवंदन संबं धी दशत्रिकके अधिकारमें सातवी त्रिको तीनवार भूमिप्रमार्जन क. रके इरियावहीपूर्वक-चैत्यवंदन करनेका बतलाया है, उसकेभी प्रवापरका संबंध छोडकर उसपाठका भावार्थ समझे बिना उसपाठसे भी सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरते हैं, और इन महाराजकेही गुरु महाराज श्रीदेवेंद्रसूरिजीने प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही लिखा है, उस बातके विरुद्ध प्ररूपणाकरनेवाले ब. नाते हैं, सो भी बड़ी भूल है. २१-वंदीत्तासूत्रकीटीकाके पाठसेभीसामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते ठहरातेहैं,सोभी सर्वथाअनुचितहै,क्योंकि देखो-वंदीत्तासूत्रकी प्राचीन चूर्णि और श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति वगैरह अनेकप्राचीन शास्त्रोंमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करने का खुलासा लिखा है और खास वंदीत्तासूत्रकी टीकामेभी नवमा सामायिक व्रतकी विधिसंबंधी आवश्यकचूर्णि,पंचाशकचूर्णि,योग शास्त्रवृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रानुसार सामायिककरनेकी विधि लिखाहै उन्ही सर्व शास्त्रोंमें भी प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही लिखाहै, इसलिये प्राचीन चूर्णि आदिअनेक शास्त्रों के विरुद्ध होकर पूर्वापर विसंवादीरूप वि विरोधी कथन - एकही विषयमें ; एकही ग्रंथमें ; कभी नहीं होसकताहै, जिसपरभी एकही विषयमें, एकही प्रथम विसंवादी क. थन माननेवाले या कहनेवाले शास्त्रविरुद्ध श्रद्धा रखनेवाले सर्वथा अशानी समझने चाहिये. २२- पंचाशकसूत्रकी चूर्णिके पाठसेभी नवमें सामायिक व्रतमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करते हैं,सो भी सर्वथा अनुचित है,क्योंकि इन्हीं चूर्णिमें नवमें सामायिकवत संबंधी प्रथम For Private And Personal Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९५] करेमिभंतेपीछे इरियावहीकरनेकाखुलासालिखाहै,जिसपरभीचूर्णिके लिने सत्य पाठको छुपा देना, और चूर्णिकारने रात्रिपौषध वालोंके लिये ११ वा पौषधव्रत संबंधी इरियावही लिखी है, उसको चूर्णिकारके अभिप्राय विरुद्ध होकर ९ वे सामायिक व्रतमें भोले जीवोंको दिखलाना,लो मायावृत्तिरूपप्रपंचसे प्रत्यक्षझूठबोलकर शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करना संसारवृद्धिका कारण होनेसे आत्मार्थियोंको कदापि योग्यनहींहै.यहांपर लडकोके खेल जैसी प्रपंचताकी बातें नहीं हैं, किंतु सर्वज्ञ शासनकी बातें हैं, इसलिये एकही ग्रंथमें,एकही वि. षयमै, एकही पूर्वाचार्यको पूर्वापर विरोधी विसंवादी कथन करने वाले ठहराना, सो बडी अज्ञानताहै.अथवा जान बुझकर पूर्वाचार्योकी आशातनाका और शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणाका भय न रखकर इस लोककी पूजा मानताकेलिये अपना झूठा आग्रह स्थापन करनेकेलिये व्यर्थही एसी शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करते होंगे, सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने. हम इस वातमे विशेष कुछभी नहीं कहसकते हैं । २३-इसीतरहसे सामायिक प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते कह. नेका स्थापनकरनेवाले न्यायरत्नजीआदिको पूर्वाचार्योंको विसंवा. दीके झूठे दोषलगानेके हेतृभूत तथा अनेक शास्त्रोके विरुद्धप्ररूपणा करनेरूप अनेक दोषोंके भागी होनापडता है,और पूर्वाचार्योंको झूठा दोष लगानेकी आशातनासे तथा शास्त्रकारोंके अभिप्रायविरुद्धप्ररूपणा करनेसे आपने व अपने पक्षके आग्रहकरनेवाले बालजीवोंकेभी संसारवृद्धिका कारणरूप महान् अनर्थ होता है, यही सर्व बातें न्या. यरत्नजीने 'खरतरगच्छ समीक्षा' में सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावहीकरनेकी आवश्यक चूर्णि, बृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रानुः सार सत्य बातको निषेध करनेके लिये और प्रथम इरियावही पीछे फरेमिभंते स्थापन करनेके लिये महानिशीथ-दशवैकालिक सूत्रकी टीकाकारवगैरह बहुतशास्त्रकारमहाराजोके अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे२पाठोसे उलटारसंबंध लगाकर उत्सूत्रप्ररूपणासे बडा अनर्थ किया है, उसका नमूना रूप थोडासा सामायिक संबंधी पाठकगण को निसंदेह होनेकेलिये हमने ऊपरमें इतना लिखाहै. मगर इस प्र. करणका विशेष खुलासा पूर्वक इसीही 'बृहत्पर्युषणा निर्णय' ग्रंथके पृष३०९से३०२नक अच्छी तरह मे छप चुका है, वहांले विशेष जान लेना और “आत्मभ्रमोच्छेदनमातुः" नामा ग्रंथमेभी विस्तारपूर्वक शास्त्रों के पाठोसहित निर्णय हमारी तरफसे छप चुका है, इस लिये For Private And Personal Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९६] यहांपर फिरसे ज्यादे विशेष लिखनेकी कोई जरूरत नहीं हैं। २४-अब सत्यप्रिय पाठकगणसे हमारा इतनाही कहनाहै,कि-महानिशीथसूत्रके उपधान चैत्यवंदनसंबंधी इरियावहीके अधूरे पाठसे,तथा दशवैकालिककी टीकाके साधुओंके स्वाध्याय करनेसंबंधी इरि. यावहीके अधूरे पाठसे,श्रीहरिभद्रसूरिजीमहाराजके अभिप्राय विरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करतेहैं,और इन्हीं महाराजने जिनाशानुसारही प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासा पूर्वक आवश्यकसूत्रकी बडी टीकामे लिखा है, उसको निषेध करतेहैं,या उसपर अविश्वास लाकर कुयुक्तियोंसे भो. लेजीवोंकोभी उस बातपर शंकाशील बनातेहैं, वो लोग जिनामा वि. रुद्धहोकर उत्सूत्रप्ररूपणाकरतेहुए अपने सम्यक्त्वकोमालिन करते हैं। २५-और किसीभी प्राचीन पूर्वाचार्यमहाराजनेअपने बनाये किसी भी ग्रंथमें, किसी जगहभी ९ वे सामायिकवतसंबंधी प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते नहींलिखा.मगर खास तपगच्छादि सर्व गच्छोंके सर्वपूर्वाचार्योने प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही स्पष्ट खुलासा पूर्वक लिखा है, इसलिये इस बातमें पाठांतरसे पहिले इरियावहीभी नहीं कह सकते, जिसपरभी पाठांतरके नामसे पहिले इरियावही स्थापन करें सो भी शास्त्रविरुद्ध होनेसे प्रत्यक्ष मिथ्या है. २६- और कितनेक अज्ञानी लोग अपनी मति कल्पनाले कहा ते है, कि-पहिले इरियावही करें तो क्या, और पीछे करें तो भी क्या, किसी तरहसे सामायिक तो करनाहै,ऐसा मिश्र भाषण करने वालेभी सर्वथा शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करते हैं, उन लोगोंको सामायिकमें प्रथम करेमिभंते कहनेसंबंधी शास्त्रकारोंके गंभीर अभिप्राय. को समझमें नहीं आया मालूम होताहै, नहीं तो ऐसा शास्त्रविरुद्ध मिश्र भाषण कभी नहीं करते. क्योंकि देखो-सर्व शास्त्रों में स्वाध्याय, ध्यान,प्रतिक्रमण,पौषधादिधर्मकार्यों में पहिले इरियावही कहाहै,और सामायिकम करेमिभंते पहिले कहे बाद पीछेले इरियावही करनेका कहा है, सो इसमें गुरुगम्यताका अतीव गंभीरार्थवाला कुछभी रह स्य होना चाहिये, नहीं तो सर्व शास्त्रोंमें महान शासन प्रभावक श्री हरिभद्रमूरिजी, नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजी, कलिकाल स. बज्ञविरुदधारक हेमचंद्राचार्यजीआदिगीतार्थमहाराज प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही कभी नहीं लिखते. इसलिये इनमहाराजोंके गं. भीरआशयको समझेबिना इनसे विरुद्ध प्ररूपणा करना बडी भूलहै. For Private And Personal Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९७) २७- कितनेकलोग अपना असत्य आग्रह छोडसकतेनहीं,व सत्य बात ग्रहणभी कर सकते नहीं, इसलिये मोले जीवों को अपने पक्षमें लाने के लिये जान बुझकर कुतर्क करते हैं, कि, श्रीआवश्यक सूत्रकी चूर्णि-वृहवृत्ति- लघुवृत्ति-पंचाशकचूर्णि-वृत्ति-श्राद्धदिनकृत्यसू. प्रवृत्ति-श्रावकधर्म प्रकरणवृत्ति-नवपद प्रकरणवृत्ति-योगशास्त्र वृत्ति वगैरह शास्त्रोमे सामायिकमे पहिले करेमिभंतेका उच्चारण करके पीछेसे इरियावही करनेका कहाहै, सो वह शास्त्र पाठ स्वाध्याय संबंधीहैं ? या चैत्यवंदन-गुरुवंदन संबंधी ? या आलोयणा संबंधी हैं? अथवा सामायिक संबंधीहैं? इसकी हमको अच्छी तरहसे मालूम नहीं पडती, उससे वह शास्त्र पाठ सामायिक संबंधीहैं, ऐसा निश्चयनहींहोसकता.इसलिये उनशास्त्रपाठोके अनुसार सामायिक पहिले करेमिभंते पीछे इरियावही कैसे किया जावे ? ऐसी कुतर्क कर• तेहैं,सो सर्वथा झूठीहीहैं,क्योंकि ऊपरके सर्व शास्त्रपाठोंमें श्रावकके १२ व्रतोंमें ९में सामायिकवतसंबंधी सामायिक करनेके लियेही सा. मायिककी विधिसंबंधी खुलासापूर्वक प्रथम करेमिभंतेका उशारण किये बाद पीछेसे इरियावही करनेका लिखाहै,उसके विषयमें सत्य ग्रहण करनेवाले आत्मार्थी भव्यजीवोंको निस्संदेह होनेकेलिये थोडे. से शास्त्रोंके पाठभी यहां पर बतलाते हैं. __२८- श्री यशोदेव सूरिजी महाराज कृत श्री पंचाशक सूत्रकी चूर्णिका पाठ देखो- "तिविहेण साहुणो णमिऊण सामाइयं करेइ 'करेमिभते ! सामाइअं' एवमाइ उच्चरिऊण, तउ पच्छा इरियावहीयाए पडिक्कमइ, आलोएत्ता, वंदित्ता आयरियादि, जहा- रायणिए, पुणरवि गुरुं वं. दित्ता, पडिलेहिता णिविठ्ठो पुच्छति पढति वा" इत्यादि.. । २९- श्रीचंद्रगच्छीय श्रीविजयसिंहाचार्यजी कृत श्रावकप्रति. क्रमण [ वंदित्तासूत्र ] की चूर्णिका पाठ भी देखो___ “वंदिऊण त्थोभ वंदणेण गुरुं संदिसाविऊण सामाइय दंडकमणु कविय, जहा- 'करेमिभंते ! सामाइयं, जाव-अप्पाणं वोसिरा. मि' तओ इरिअं पडिक्कमिय आगमणं आलोएइ, पच्छा, जहा-जेहूं साहुणो वंदिऊण, पढइ सुणइ वा” इत्यादि. ३०- श्रीलक्ष्मीतिलकसूरिजीकृत श्रावकधर्मप्रकरणवृत्तिका पाठ यहांपर दिखलाताहूं यथा- "अत्र क्रियमाणं श्राद्धानां सामायिकं नि प्रत्यूहं नि“हति तत्स्थानमुपदिशति For Private And Personal Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ९८] चैत्यालये स्वनिशांते, साधूनामतिकेऽपि वा ।। कार्य पौषधशालायां, श्राद्धस्तद्विधिना सदा ॥१॥ व्याख्या- चैत्यालये विधिवेत्ये, स्वनिशांते स्वगृहेऽपि विजन. स्थान इत्यर्थः । साधुसमीपे, पौषो ज्ञानादीनां धीयतेऽनेनेति पौषधं पर्वानुष्ठानं उपलक्षणात् सर्वधर्माऽनुष्ठानार्थ शालागृहं पौषधशाला, तत्र वा ततू सामायिक कार्य श्राद्धैः सदा नोभयसंध्यमेवेत्यर्थः । कथंतद्विधिना इत्याह-स्त्रमासमणं दाउं इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सामाइयमुहपत्तिं पडिलेहेमि त्ति भणिय, बीय खमासमण पुव्वं मुहपत्ति पडिले हिय, पुणरवि पढम खमासमणेण सामाइयं संदिसाविय, बी. य खमासमणपुव्वं सामाइयं ठामि त्ति वुत्तं, खमासमणदाणपुव्वं अ. द्धाविणय गत्तो पंचमंगलं कद्वित्ता 'करेमि भंते ! सामाइयं सावज जोगं पञ्चरुखामि जाव.नियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणेणं पायाए काएणं न करेमि न कारवमि तस्स भते पड्डिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि' त्ति सामाइय सुत्तं भणति, त. ओ पच्छा इरियंपडिकमति, इत्यादिपूर्वसूरिनिर्दिष्टविधानेन । अत्र च ईया प्रतिक्रम्यैव सामायिकोच्चारण यत्कचिदाचक्षते तत्सिद्धांतादनु त्तीर्णम्,यत उक्तमावश्यक चूर्णि-वृहदवृत्त्यादौ-यथा " कमिभंते ! सामाइयं सावज्ज जोगं पच्चख्खामि जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणमिति, काउण पच्छा इरि पडिक्कमइ ति" इत्यादि ३१-श्रीपार्श्वनाथस्वामीके संतानीय परंपरामें श्रीउपकेशगच्छीय श्रीदेवगुप्तसूरिजी महाराजने श्री नवपदप्रकरणवृतिमेभी प्रथम करे मिभंते पीछे इरियावही सामायिक संबंधी कहा है, सो पाठभी यहां पर बतलाते हैं, यथा :-- ____आवश्यक चूाद्युक्त समाचारी स्वियं-सामायिक श्रावकेण कथं कार्य ? तत्रोच्यते- श्रावको द्विविधोऽनृद्धिप्राप्तः ऋद्धिप्राप्तश्च, तत्राद्यश्चैत्यगृहे, साधुसमीपे,पौषधशालायां, स्वगृहे वा. यत्र वा विश्राम्यति तिष्ठति च निर्व्यापारस्तत्र करोति, चतुषु स्थानेषु नियमेन करोति, चैत्यगृहे, साधुमूले पौषधशालायां स्वगृहे वा अवश्यं कुर्वा ण इति. एतेषु च यदि चैत्यगृहे साधुमूले वा करोति,तत्र यदि केनाs. पि सह विवादो नास्ति,यदि भयं कुतोऽपि न विद्यते, यस्य कस्यापि किंचिद् न धारयति,मा तत्कृताकर्षापकर्षों भूतां, यदि वाऽधम वर्ण्य. मवर्ण्यमवलोक्य न गृह्णीयात्, मा भांक्षीत् इति बुद्धया यदि वा गछन् न किमपि व्यापार व्यापारयेत् तदा गृहे एव सामायिकं गृही. For Private And Personal Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९९] स्वा चैत्यगृहं साधुमूलं वा यथा साधुः पंचसमितिसमितत्रिगुप्तिगुप्तस्तथा याति, आगतश्च त्रिविधेन साधुन् नमस्कृत्य तत्साक्षिकं पुनः सामायिकं करोति " करेमिभंते ! सामाइयं सावज जोगं पच्च. ख्खामि जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं" इत्यादि सूत्रमु. चार्य, ततः, ईर्यापथिकी प्रतिक्राम्यति, आगमनं चालोचयति. तता, आचार्यादीन् यथारत्नाधिकतयाभिवंद्य सर्वसाधून् , उपयुक्तोपविष्ठः पठति, पुस्तक वाचनादि वा करोति । चैत्यगृहे तु यदि वा साधवो न संति, तदा ई-पथिकी प्रतिक्रमण पूर्वमागमनालोचनं च विधाय चैत्यवंदनां करोति,पठनादि विधत्ते,साधुसद्भावे तु पूर्व एष विधिः । एवं पौषधशालायामपि । केवलं यथा गृहे आवश्यकं कुर्वाणोगृह्णा ति-तथैव गमनविरहितं इत्यादि । तथा ऋद्धिप्राप्तस्तु चैत्यमूलं साधुमूलं वा महद्धथैव एति, येन लोकस्य आस्था जायते चैत्यानि साधवश्च सत्पुरुषपरिग्रहेण विशेष पूज्यानि भवंति. पूजित पूंजक त्वात् लोकस्य । अतस्तेन गृहे एव सामायिकमादाय नागंतव्यमधिकरण भयेन हस्त्यश्वाद्यनानयनप्रसंगात्,आगतश्च चैत्यालये विधिना प्रविश्य चैत्यानि च द्रव्य-भावस्तवेनाभिष्टुत्य, यथासंभवं साधुस. मीपे मुखपोतिका प्रत्युपेक्षणपूर्व "करेमिभंते ! सामाइयं सावज्जं जो. गं पञ्चख्खामि जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणणं वा. याए कारण न करेमि न कारवेमि तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ” त्ति उच्चार्य ईपथिक्यादि प्रति क्राम्य यथा रत्नाधिकतया सर्वसाधूंश्चाभिवंद्य प्रश्नादि करोति, सा. मायिकं च कुर्वाण एष मुकुटमुपनयति कुडलयुगलनाम मुद्रे च पु. प-तांबूल-प्रावरणादिव्युत्सृजति। किंच यदि एष श्रावक एव तदाऽ. स्यागमनवेलायां न कश्चिदुत्तिष्ठति, अथ यथा भद्रकस्तदाऽस्यापि सन्मानो दर्शितो भवति,इति बुद्धया आचार्याणां पूर्वरचितमासनंध्रि. यते अस्य च, आचार्यास्तु उत्थायवतस्ततश्चक्रमणं कुर्वाणा आसते तावद् यावदेष आयाति, ततः सममेवोपविशति । अन्यथा उत्था. नानुत्थानदोषाविभाव्याः, एतच्चं प्रासंगिकमुक्तम् । प्रकृतं तु सामा. यिकस्थेन विकथादि न कार्य,स्वाध्यायादिपरेण आसितव्यं" इत्यादि. ३२-श्रीतपगच्छनायक श्रीदेवेद्रसूरिजी महाराज कृत श्राद्धदिन. कृत्यसूत्रकी वृत्तिका पाठभी देखोः "तओ वियाल वेलाए,अत्यमिए दिवायरे । पुर्बुत्तेण विहाणेण,पुणो वंदे जिणोत्तमे ॥२८॥ तओ पोसहसालं तु,गंतुण तु पमजए । ठाविor For Private And Personal Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०० तत्थसूरिं, तओ सामाइयं करे ॥२९॥ काऊणय सामाइयं, इरियंपडि. कमियं,गमणमालोए । वंदित्तु सूरिमाइ, सझ्झायावस्मयं कुणइ ॥३०॥ व्याख्या- सांप्रतमष्टदशं सरकार द्वारमाह- ततो वैकालिकानंतरं, विकालवेलायां अंतर्मुहूर्तरूपायां, तामेवव्यनक्ति अस्तमितेदि. वाकरे अर्द्धबिंबादवाक् इर्थः । पूर्वोक्तेन विधानेन पूजाकृत्वतिशेषः । पुनवेदते जिनोत्तमान् प्रसिद्ध चैत्यवंदन विधिना ॥ २८ ॥ अथैकोन विंशति वंदनकोपलक्षितमावश्यक द्वारमाह-ततस्तृतीय पूजा नंत. रं श्रावकः पौषधशालांगत्वा यतनया प्रमार्टि, ततो नमस्कार पूर्वकं व्यवहित तुशब्दस्यैवकारार्थ त्वात् स्थापयित्वैव तत्र सूरि स्थापना. चार्य, ततो विधिना सामायिकं करोति ॥ २९ ॥ अथ तत्र साधवोs. पिसंति श्रावकेण गृहे सामायिकं कृतं, ततोऽसौसाधुसमीपे गत्वाकिं करोति इत्याह-- साधुसाक्षिकं पुनः लामायिकं कृत्वा ईर्याप्रतिक्र. म्यागमनमालोचयेत् तत आचार्यादीन् वंदित्वा स्वाध्यायं काले चावश्यकं करोति ॥ ३० ॥ इत्यादि" - ३३-अब देखिये-ऊपरके सर्वमान्य प्राचीन शास्त्रपाठोंमे श्रावकको सामायिक कैसे करना चाहिये ? इस सवाल के जवाबमें सर्व शास्त्र कार महाराजोंने इस प्रकार खुलासा पूर्वक लिखा है. १-सामायिक करनेवाले राजादि धनवान व व्यवहारिक धन रहित ऐसे दो प्रकारके श्रावक बतलाये. २- धन रहित श्रावकको भगवान के मंदिर में १, उपद्रवरहित एकांत जगहमें अपने घरमे २, साधु महाराजके पासमे ३, वा पौषध शालामै ४, ऐसे ४ स्थान सामायिक करनेके लिये बतलाये. ३- जब श्रावकको संसारिक कार्योंसे निवृत्ति होवे [फुरसत मिले ] तब हरेक समय सामायिक करनेका बतलाया. '४-धर्म कार्योंमें अनेक तरहके विघ्न आतेहैं, और उपयोगी विवेकवाले श्रावकको धर्मकार्यों के बिना समय मात्रभी खाली व्यर्थ गमानायोग्यनहीं है,इसलिये संसारिक कार्योंसे फुरसद मिलतेही रस्ते चलने में यदि किसीके साथ लेने देने वगैरहसे कोईतरहका भयनहीं हावे तो अपनेघरमें सामायिकलेकर पीछे गुरुपासजानेकावतलाया. ५-जैसे उपवासादिकके पच्चख्खाण अपनेघरमें करलिये हो तो भी गुरुमहाराजकेपास जाकर फिर गुरु साक्षिसे उपवासादि पच्चएमाण करने आते हैं. तैसेही-श्रावकको अपने घरमें सामायिक ले For Private And Personal Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandi [१०१] करसावध योगका त्याग करके साधुकी तरह पंचसमिति और तीन गुप्तिसहितउपयोगसे गुरुमहाराजपास आकर फिर सामायिकका उ. च्चारणकरके पीछे इरियावहीपूर्वक स्वाध्यायादि करनेकाबतलाया. ६-शामको छ आवश्यकरूप प्रतिक्रमणकरनेकेलिये पहिले मं. दिरमें देवदर्शन,पूजा आरति वगैरहकरके पीछे उपाश्रय या पौषधशा लामे आकर गुरुके अभाव में भूमिका प्रमार्जनपूर्वक सामायिककरनेके लिये नवकार गुणकर स्थापनाचार्यकी स्थापनकरनेका बतलाया. ७-सामायिक करनेके लिये खमासमण पूर्वक गुरुसे आदेश लेकर सामायिकलेनेसंबंधी मुहपत्तिका पडिलेहणकरनेका बतलाया. ८- मुहपत्तिका पडिलेहणकरके प्रथम खमासमण पूर्वक सा. मायिक संदिसाहणेका, तथा फिर दूसरा खमासमण पूर्वक सामायिक ठाणेका आदेश लेनेका बतलाया. ९- विनय सहित मस्तक नमाकर नवकारपूर्वक करेमिभंते! सामाइयं' इत्यादि सामायिकका पाठ उच्चारण करनेका बतलाया. १०- करेमिभंतेका पाठ उच्चारण कियेबाद पीछेसे इरियावही. करनेकाबतलाया सो 'इरियावही' कहनेसे इरियावही,तस्ल उत्तरी, अन्नत्थ उससिए णं, कहकरके ४ नवकार या १ लोगस्सका काउसग्ग करनेका और ऊपर संपूर्ण लोगस्स कहनेका समझलेना चाहिये. ११- जैसे पौषधवाला देवदर्शनादिक कार्योंसे गमनकरके आ. या होवे वो इरियावही पूर्वक आगमनकी आलोचना करे, अर्थात्इरियासमिति इत्यादि अष्टप्रवचनमाताके विराधनाकी आलोचनाकरके मिच्छामि दुक्कडं देताहै, तैसेही-यदिश्रावक अपने घरसे सा. मायिक लेकर इरियासमिति आदि पांच समिति और तीन गुप्ति सहित उपयोगसे गुरुपास आया होवे तो फिर गुरु साक्षिसे करेमि भंते !' इत्यादि सामायिक लेकर पीछे इरियावहीपूर्वक इरियासमिति इत्या. दि आगमनकी आलोचना करनेका बतलाया. . १२-सामायिक लेकर पीछे इरियावही करके आगमनकी आलोचना करे, बाद यथा योग्य आचार्यादिक वडीलोको अनुक्रमसे सर्व साधुओंको वंदना करनेका बतलाया. १३ - 'पूर्वसूरिनिर्दिष्टविधानेन' तथा 'पडिलेहिता' अर्थात्-जगह आसनादिकका प्रमार्जन पडिलेहण पूर्वक बैठने स्वाध्याया. दि करनेका आदेश लेकर अपना धर्मकार्य करनेका बतलाया. १४- सामायिक लिये बाद गुरुके साथ धर्म वार्ता करें या कोई For Private And Personal Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०२] शंका होवे तो गुरुसे पूछे या पुस्तकादि वांचे, अथवा दूसरा कोई पुस्तकादि वांचता होवे तो उपयोगयुक्त सुनता रहे. १५- अपने घरसे सामायिक लेकर भगवान्के मंदिरमें आया होवे,वहां पासमें साधु न होवे तो भी भगवान्के समक्ष फिरसे सा. मायिक लेकर इरियावही पूर्वक आगमनकी आलोचना करके पीछे चैत्यवंदन, शास्त्रपाठ पढना गुणनादि धर्म कार्य करनेका बतलाया. १६-उपाश्रयमें गुरु महाराज होवे,तो उपर मुजब सामायिक करनेकी विधि बतलायी है, ऐसेही पौषधशालामेभी सामायिक करनेकी विधि समझ लेना चाहिये. १७– उपाश्रयमें गुरु महाराज न होवे, या समयके अभावसे कारणवश गुरु पास जाकर सामायिक करनेका अवसर न होवे और केवल अपने घरमेही छ आवश्यकरूप प्रतिक्रमण करनेकेलिये सामायिक ग्रहण करें,तो भी ऊपर मुजब स्त्रमासमणपूर्वक सामायिक मुहपत्तिके पडिलेहणका,सामायिक संदिसाहणेका व ठाणेका आदेश लेकर नवकारपूर्वक करेमिभंतेका उच्चारणकरके पीछेसे इरियावही पूर्वक अपना धर्मकार्य करे,मगर वहांसे गुरु पास जाने वगैरह कार्योंसे गमनागमन नहीं होनेसे आगमनकी आलोचना न करें. परंतु शेष बाकीकी उपर मुजब सर्व विधि करनेका बतलाया. १८- यहांपर कोई पहिले इरियावही करके पीछे करेमिभंतेका उच्चारण करनेका कहतेहै,वोलोग शास्त्रोके भावार्थको नहींजाननेवालेहैं क्योंकि आवश्यकचर्णि-बृहवृत्ति वगैरह प्राचीनशास्त्रोंमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही साफ खुलासा पूर्वक कहा है। १९- कभी गुरुके अभावमें अपनेघरमें या पौषधशालामें सामायिक करें,तब वहां "जाव नियम पज्जुवा सामि" ऐसा पाठ उच्चारणकरें और उपाश्रयमे गुरु समक्ष सामायिक करें, तब वहां “जावसाहू पज्जुवा सामि " ऐसा पाठ उच्चारण करें और इरियावही पू. र्वक अपने धर्मकार्यों में समय व्यतीत करनेका बतलाया. २०-राजा-महाराजादि महर्द्धिक होवे,उन्होंको शहरकेरस्तोम नंगे पैर पैदल चलना योग्य न होनेसे वो अपने घरसे सामायिक लेकर गुरु पास उपाश्रयमें नहीं जावें, किंतु-हाथी, अश्व, पदातिक आदिक राज्यऋद्धिकी सौभा युक्त भेरी भंभादि वाजिंत्र सहित बडे आडंबर. से सामायिक करनेकेलिये गुरुपास आवे, उससे शासनकी प्रभाव. For Private And Personal Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१० ] ना होवे, तथा भगवान् उपर और गुरुमहाराज उपर लोगोंकी श्रद्धा बढे, बहुत जीवोंको धर्म प्राप्तिका महान् लाभ होवे, इसलिये घरसे सामायिक लेकर नंगे पैरप्से पैदल इरियासमितियुक्त आनेके बदले बडे आडंबरसे गुरुपास आकर पीछे सामायिक करें. . २१ - राज्यऋद्धिकी सोभा युक्त गुरुपास आकर जो नजदीक भगवान्का मंदिर होवे तो पहिले वहां मंदिरमें जाकर विधिसहित उपयोग युक्त भावसे- केशर चंदनादिसे पहिले द्रव्य पूजा करें बाद पीछे चैत्यवंदन स्तवनादिसे भाव पूजा करें उसके बादमे गुरु पास आकर “यथासंभवं साधु समीपे मुस्खपोतिका प्रत्युपेक्षणपूर्व" अर्थात्- स्त्रमासमणपूर्वक मुहपत्तिकापडिलेहणकरके सामायिक संदिसाहणे वगैरहके आदेश लेकर ऊपर मुजब विधिसे पहिले करेमिभंतेका उच्चारणकरके पीछे इरियावही पूर्वक स्वाध्यायादि करें. ____२२- राजादिक सामायिक करें तब तक राज्यचिन्ह मुकुटादिकको अलग रखें, त्याग करें. २३-इसप्रकार सामायिक करनेवाले वहां विकथादि कर्मबंधन केहेतुभूत कोई भी कार्य न करें, किंतु स्वाध्याय ध्यानादि कोकीनिजराके हेतुभूत धर्मकार्य करनेमें अपना समय व्यतीत करें, इत्यादि, ३४- अब देखिये-ऊपर मुजब सर्वमान्य प्राचीन शास्त्रपाठोपर विवेक बुद्धिसे तत्त्व दृष्टिपूर्वक विचार किया जावे तो सामायिक करनेके लिये प्रत्येकवार स्त्रमासमण सहित 'सामाइय मुहपत्ति पडिले. हेमि' 'सामाइयंसंदिसावेमि' 'सामाइयंठावेमि' इत्यादि वाक्योंसे सामायिक करनेका आदेश लेकर नवकारपूर्वक विनयसहित 'करेमिभंते ! सामाइयं' इत्यादि संपूर्ण सामायिकका पाठ उच्चारण कियेबाद पीछेसे इरियावही करनेका सुस्पष्टतासे साफ खुलासा पूर्वक सब शा. त्रकार सर्व गच्छोंके पूर्वाचार्योंने लिखा है, सो अल्प बुद्धिवालामी ऊपरके शास्त्र पाठोपरसे सामायिकका अधिकारको अच्छी तरहसे समझ सकताहै. जिसपरभी ऊपरकी तमाम सर्व बातोंको छोडकर " ऊपरके शास्त्रपाठ आलोयणा संबंधी हैं, या स्वाध्याय संबंधी हैं, वा वंदनासंबंधी हैं, अथवा सामायिक संबंधी हैं. इसकी हमको अ. च्छी तरहसे मालूम नहीं पडती, इसलिये ऊपरके शास्त्र प्रमाणोंसे सामायिक प्रथम करेमि भंत और पीछे इरियावही कैसे किया जा वे?" ऐसी २ कुतर्क जान बुझकरके या उपरके शास्त्रपाठीको घांचे, विचारे, समझे बिनाही परंपराकी अज्ञानतासे करते हैं, सो तोश्री. For Private And Personal Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०४] शानीजीमहाराज जाने. मगर ऐसी २ कुतर्क करके जिनाशानुसार प्रत्यक्ष अनेक शास्त्र प्रमाण मुजब सत्य बात परसे भोले जीवोंकी श्रद्धा उडादेते हैं, और जिनाशाविरुद्ध कोईभी शास्त्रप्रमाण बिनाही अपने झूठे हठवादके आग्रहकी बातको स्थापन करनेकेलिये शास्त्रोंके सत्य२ पाठोपरभी झूठी शंका लाकर उत्सूत्र प्ररूपणासे उन्मार्ग को पुष्ट करते हैं, सो यह काम संसार बढानेवाला अनर्थ भूत होनेसे आत्मार्थी भवभिरुयोंको तो करना योग्यनहींहै. इसविषयको विशेष तत्त्वक्ष पाठक गण स्वयं विचार लेवेगे. ३५-कितनेक कहतेहैं,-'सामायिकमें प्रथम करोमिभंते और पीछे इ. रियावही करनेसंबंधी आवश्यक सूत्रकी चूर्णि-बृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रपाठोंमें सामायिकमुहपत्ति पडिलेहणके, सामायिक संदिसाहणेके, सामायिक ठाणेके आदेशलेनेवगैरह सबपी विधिनहींहै,ऐसा कहनेवालेभी प्रत्यक्षही मिथ्या भाषण करके जिनाज्ञाका उत्थापन करतेहैं, क्योंकि देखो-धावकधर्म प्रकरणवृत्ति तथा वंदित्तासूत्रकी चूर्णि व. गैरह शास्त्रपाठोमें सामायिक मुहपत्ति पडिलेहणके,सामायिक संदि. साहणेके, सामायिकठाणेवगैरहके आदेशलेकर नवकारपूर्वक विनय. सहित 'करेमि भंते' इत्यादि पाठ उच्चारण करके पीछेसे इरियावही किये बाद स्वाध्यायादि करनेका संक्षेपमेभी साफ बतलायाहै, उसके भावार्थमें गुरुगम्यतासेसामायिक सब पूरीविधि समझना चाहिये. ___३६-आवश्यक नियुक्ति, उत्तराध्ययनादि शास्त्रों में सामान्यतासे संक्षेपमें प्रतिक्रमणकी विधि बतलायाहै,परंतु उसका विस्तारपूर्वक विशेष अधिकार भावपरंपरानुसार पूर्वाचार्योंके सामाचारियोंके ग्रंथोसे जाननेमे आताहै, और उसी मुजबही अभी प्रतिक्रमणकी सर्व क्रियायें करनेमें आतीहैं.मगर कोई अज्ञानी आवश्यकनियुक्ति-उत्तरा. ध्ययनादिशास्त्रोंकी प्रतिक्रमण विधिको अधूरी कहकर निषेधकरें और र उसकेविरुद्ध ढूंढियोंकी तरह अपनी मतिकल्पना मुजब प्रतिक्रमण की विधिको स्थापन करें, तो आवश्यकादि आगमार्थरूप पंचांगीके उत्थापनसे उत्सूत्रप्ररूपणारूप मिथ्यात्वके दोषके भागी होनापडताहै, तैसेही- आवश्यक चूर्णि, बृहवृत्ति वगैरह ऊपरमुजब शास्त्रपा. ठोमें सामायिक संबंधीभी सूचनारूप संक्षेपमें सामान्यतासे शास्त्रका र महाराजोन सामायिककी विधि लिखीहै. उसका विस्तारसे विशेप अधिकार भावपरंपरानुसार पूर्वाचायाँके सामाचारियोंके गंथा. से जानना चाहिये और उसी मुजबही आत्मार्थी भव्य जीवोंको सा. For Private And Personal Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandi [१०५] मायिककी सबपूरी विधि करलेना चाहिये. जिसके बदले उसको अधूरी विधि कहकर निषेध करने वालोंकों व उसके सर्वथा विरुद्ध अपनी कल्पनामुजब करवाने वालोंको श्री आवश्यक सूत्रादि आगमार्थरूप पं. चांगीके उत्थापनसे उत्सूत्रप्ररूपणारूप दोषके भागी होना पडता है, इसलिये आत्मार्थी भवभिरुयोंको ऐसा करना योग्य नहीं है । C ३७- औरभी देखिये जैसे- जिनमंदिर में विधियुक्त 'द्रव्य भाव पूजा कर निजधर गया' ऐसा किसी शास्त्र में संक्षेप में सूचनारूप अधिकार आया होंवे, उसका विशेष भावार्थ तत्त्वदृष्टिसे समझे बिनाही उसमें स्नान करने, पवित्र वस्त्र पहिरने, मुख कोश बांधने, केशर चंदनादि सामग्री लेने वगैरहके अक्षर न देखकर उसको जिनपूजाकी अधूरी विधि कहकर सर्वथा जिनपूजाका निषेध करने वालों को अज्ञानी समझने में आते हैं, क्योंकि उपयोगयुक्त भाव से हमेश जिनपूजा करने घाले तो जिनपूजाकी सब पूरी विधिको अच्छी तरहसे जाननेवाले होते हैं, उन्होंके लिये विशेष लिखने की कोई जरूरत नहीं है, किंतु द्रव्य भाव पूजा' कहने से उपयोग युक्त स्नान करने, पवित्र वस्त्र धारन करने, मुखकोश बांधने, जिन मंदिर में प्रवेश करने, निसीही कहने, मंदिर की सार संभाल लेने, ३ प्रदिक्षणा देने, केशर - चंदनधूप-दीप- अक्षतादि सामग्री लेने, और चैत्यवंदन - शक्रस्तव- जिनगु ण स्तुति आदि से दश त्रिकसहित उपयोगसे पूजा करने वगैरहकी सब बातें तो अपने आपही समझलेते हैं. इसलिये 'द्रव्य भाव पूजा' क इसे संक्षेप में जिनपूजाकी सब पूरी विधि समझनी चाहिये, तैसेहीसामायिककी विधिको जानने वाले उपयोग युक्त हमेश सामायिक करनेवालोंके लिये तो- 'अपने घर से सामायिकलेकर साधुकीतरह इरिया समिति पूर्वक उपयोगसे गुरुपास आवे ' इस वाक्य से, तथा गुरुको वंदन करके फिर सामायिकका उच्चारण करे बाद इरियावही पूर्वक पढे सुने वा पूछे' इस वाक्यसे सामायिक करने के लिये प त्रिवस्त्र धारणकरनेका तथा मुहपत्ति आदि सामग्री लेनेका और खमासमणपूर्वक सामायिक संबंधी मुहपत्ति पडिलेहणादिक के आदेशलेने बगैरहले सामायिककी सब विधिपूरी समझ लेना चाहिये, जानकारों केलिये उसजगह इससे विशेष लिखें तो पुनरुक्ति दोष आ वे, पिष्टपेषण जैसे होवे, उससे वहां ' जागृतको जगाने ' की तरह विशेष लिखने की कोई जरूरत नहीं हैं, इसलिये गुरुगम्यताले तत्त्वटपूर्वक विवेकबुद्धिसे शास्त्रकार महाराजोंके गंभीर आशयको स 6 १४ For Private And Personal Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [१०६ ] मझे बिना अधूरी विधिके नामसे सामायिक प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही करनेकी सत्यबातको सर्वथा उडादेना सो उत्सूत्रप्र. रूपणारूप होनेसे आत्मार्थियोको योग्य नहीं है. ३८-देखो विवेकबुद्धिसे खूब विचारकरो- श्रीजिनदासगणिमहत्तराचार्यजी पूर्वधर,श्रीहरिभद्रसूरिजी,अभयदेवसूरिजी,देवगुप्तसूरि जी,हेमचंद्राचार्यजी, देवेंद्रसूरिजी,आदिगीतार्थ शासन प्रभावक महाराजीको तो सामायिकम प्रथमकरेमिभंते पीछे इरियावहीकी बात तत्त्व ज्ञानसे जिनाज्ञानुसार सत्यमालूमपडी, इसलिये अपनेर बनाये ग्रंथों में निसंदेहपूर्वक लिखगये तथा आत्मार्थी भव्यजीवभी शंकारहित सत्य बात समझकर उस मुजब सामायिककी सब विधिभी करतेथे और अभी करतेभी हैं। जिसपरभी कितनेक लोग अपने तपगच्छ नायक श्री देवेंद्रसूरिजी महाराज वगैरह पूर्वाचार्योंकेभी विरुद्ध होकर इस बातमें सर्वथा विपरीत रीतिसे प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभते स्थापन करके जिनाज्ञाके आराधक बनना चाहते हैं और प्रथम करेमिभंते पीछेइरियावहीकोशास्त्रविरुद्ध ठहराकरनिषेधकरतेहैं.अब विचारकरना चाहिये, कि- प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावही स्थापनकरनेवाले जिनाज्ञाके आराधक ठहरतेहैं, या प्रथम इरियावही पीछे करेमि भंते स्थापन करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक ठहरतेहैं, यदि-प्रथम इरिया वही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक बनेंगे, तो प्रथम करेमि भंते पीछे इरियावही स्थापन करने वाले प्राचीन सर्व पूर्वाचार्य जिनाशाविरुद्ध मिथ्यात्वकी खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहरेंगे. और यदि प्राचीन सर्व पूर्वाचार्य प्रथम करेमि भंते पीछे इ. रियावही स्थापन करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक सत्यप्ररूपणा कर. ने वाले मानोगे, तो, उन सर्व पूर्वाचार्योंके विरुद्ध होकर प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले जिनाज्ञा विरुद्ध मिथ्यात्वकी खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहर जावेगे. तथा इस बात पाठांतरभी न होनेसे पूर्वापर विरोधी दोनों बातेभी कभी सत्य ठहर सकतीनहीं. और प्राचीन सर्व गीतार्थ पूर्वीचार्योंकोभी खोटी प्ररूपणा करनेवालेभी कभी ठहरासकतेनहीं. मगर उन्हीं गीतार्थ महाराजकि विरुद्ध आग्रह करनेवालेही खोटी प्ररूपणा करनेवाले ठहरते हैं, इस. लिये सर्व गीतार्थ पूर्वाचार्यों को जिनाशाके आराधक सत्य प्ररूपणा करनेवाले समझ करके उन सर्व महाराजोंकी आज्ञा मुजब सामायिक प्रथम करेमि भंते पीछे इरीयावही मान्य करना और इनके For Private And Personal Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०७] विरुद्ध प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेकी शास्त्र विरुद्ध और पूर्वाचार्योंकी आशाबाहिर कल्पितबातकोछोडदेना यही जिनाशाके आरा. धकभवभिरु निकटभव्य आत्मार्थियों कोउचितहै. ज्यादे क्या लिखें. ३९-कितनेकलोग शंका करते हैं, कि-पौषध,प्रतिक्रमण,स्वाध्याय, ध्यानादि कार्यों में पहिले इरियावही करनेका कहा है, और सामायिकमें प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पछिसे इरियावही कर नेका कहा है, उसका क्या कारण होना चाहिये ? इसका समाधान यह है कि-पौषध-प्रतिक्रमणादिक कार्य तो आत्माको निर्मलकरनेके हेतुभूत क्रियारूप हैं सो मनकी स्थिरतासे होसकते हैं, इसलिये मनकी स्थिरताकरनेकेलिये गमनागमनकी आलोचनारूप इरियावहीकर के पीछे इनकार्यों में प्रवृत्ति करें तो शांततापूर्वक उपयोग शुद्धरहताहै, इसलिये इनकार्यों में पहिले इरियावही करनेका कहा है. मगर सामाः यिकको तो श्रीभगवती-आवश्यकादि आगमोंमें " आया खलु सा. माइअं" इत्यादि पाठीसे सामायिकको खास आत्मा कहाहै, इसलिये आत्माकीस्थापनाकरनेकेलिये और आत्माके साथ कर्मबंधन केहेतुरूप आते हुए आश्रयको रोकने के लिये प्रथम करेमिभंतेका पच्चख्खाण करनेका कहा है. पहिले आत्माकी स्थापनारूप और आश्रवनिरोधरूप सामायिकका उच्चारण होगया, तो, उसके बादमें पीछे आत्माको निमल करने के लिये स्वाध्याय ध्यानादि कार्य करने के लिये इरियावही करनेकीआवश्यकताहुई. इसलिये पीछेसे इरियावहीपूर्वक स्वाध्याय, ध्यानादिधर्मकार्यकरनेचाहिये,और आत्माकी स्थापनारूप व आश्रव निरोधरूप जबतक सामायिक पच्चख्खाण न होंगे, तब तक एक. वार तो क्या मगर हजारवार इरियावही करतेही रहेंगे तो भी आ. श्रवनिरोध बिना निजात्म गुण की प्राप्ति कभी नहीं होसकेगी, इस. लिये सर्वशास्त्रोंकी आशामुजब पहिले आत्माकी स्थापनारूप सामायिकके पच्चखाण करके पीछेसे आत्माकी शुद्धिके लिये इरियावही पूर्वक स्वाध्यायादि धर्मकार्य करने चाहिये. इस प्रकार सामायि. कमें प्रथम करेमिभंते कहने संबंधी शास्त्रकारोंके गंभीर आशयको स. मझे बिना पौषधादि कार्यों की तरह सामायिकमेभी प्रथम करेमिभंते का उच्चारण किये पहिलेसेही इरियावही स्थापन करनेका आग्रह करना आत्मार्थियोंको योग्य नहीं है। ४०- कितनेकमहाशय कहतेहैं,कि-श्रीनवकारमंत्रके पीछे इरिया For Private And Personal Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ १०८] वहीके उपधानकहेहैं,मगर इरियावहाँके पहिले करेमिभंतकेउपधान नहींकहेहैं,इसलिये सामायिकमेभी पहिले इरियावही करना योग्यहै। ऐसा कहनेवालोंको सामायिकके स्वरूप संबंधी शास्त्रकारमहाराजों के अभिप्रायको समझमें नहीं आया मालूम होताहै। क्योंकि देखियेशास्त्रों में सामायिकको आत्मा कहा है, और इरियावही वगैरह क्रि. यारूपसूत्र कहेहैं,और आत्माके उपधान तो कभी होसकतेनहीं, किंतु आत्माकोशुद्धिरूप क्रियाके उपधान होसकतेहैं. आत्मा तो स्वयं उप. थान करनेवालाहै, और उपधान क्रियारूपहैं, सामायिकरूप आत्माके उपधान तोइरियावहीके पहिले या पीछेभी किसी शास्त्र में नहींकहेहैं, इसलिये आत्माके निजगुणरूप सामायिक संबंधी और इरियावहीव. गैरह आत्माकी शुद्धिरूप क्रियासंबंधी शास्त्रकार महाराजोंके भावार्थकोसमझेबिनाही पहिले इरियावहीके उपधानकरनेका पाठ देखकर सामायिकभी पहिलेइरियावही स्थापनकरतेहैं, उन्होंको अज्ञानताहै. ४१-कितनेकआग्रहीलोग नवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी के नामसे अथवा उन्होंके शिष्य श्रीपरमानंदसूरिजीके नामसे सामा. यिक पहिलेइरिवावही पीछेकरेमिभंते कहने संबंधी श्रीअभयदेवसू. रिजीकृत 'सामाचारी' ग्रंथका पाठ भोले जीवोंको बतलाते हैं, सोभी प्र. स्यक्षमिथ्याहै,क्योकि-देखोश्रीनवांगीवृत्तिकार महाराजने खास 'पं. चाशक' सूत्रकीवृत्तिमें सामायिक प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही खुलासापूर्वक लिखीहै, सर्व प्राचीन पूर्वाचार्यभी ऐसेही लिखे गयेहैं, यही बात जिनाशानुसार है । इसलिये इन्हीं महाराजने खास 'सामाचारी' ग्रंथमेभी प्रथम करेमिभंते और पीछे इरियावही लिखी थी, उसपाठको निकाल देना और प्रथम इरियावही पीछे करेभिभंते कहनेका पाठ अपनी मति कल्पना मुजब नवीन बनवाकर बडे प्रौढ प्रामाणिकपुरुषोंकेबनाये ग्रंथ प्रक्षेपकरके भोलेंजीवाकोबतलाकर उ. मार्ग चलाना यह बडाभारीदोष है, देखिये-कोईभीपूर्वाचार्यमहाराजने सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछेकरेमिभंते नहीं लिखी, किंतप्र. थम करेमिभंते पीछे इरियावही सर्व प्राचीन पूर्वाचार्योंने सर्वशास्त्रोंमें लिखीहै. तो फिर श्रीनवांगीवृत्तिकारक जैसे प्रौढ प्रामाणिक सर्व सम्मत यह महाराज सर्व पूर्वाचार्यों के विरुद्ध होकर प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते कैसे लिखेंगे, ऐसा कभी नहीं हो सकता.इसलि. ये इन महाराजके नामसे प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते करनेका ठहराने वाले प्रत्यक्ष मिथ्यावादी हैं । For Private And Personal Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०९] - ४२- औरभी देखो खूब विचारकरो-शास्त्रों में विसंवादी कयन करनेवालोंको मिथ्यात्वी कहेहैं, और जैनाचार्य तो अविसंवादाहोतेहैं. इसलिये श्रीनवांगीवृत्तिकारक यह महाराजभी विसंवादीनहींथे. किंतु अविसंवादीथे, इसलिये इन्हीं महाराजके बनाये वृत्ति-प्रकरणादि अनेक शास्त्रों से एकही विषयमें पूर्वीपर विरोधी विसंवादी वाक्य किसीभी ग्रंथमें किसी जगहभी देखनेमें नहीं आते, इसलिये इन महाराजकी बनाई सामाचारी भी विसंवादी वाक्य नहींहैं, किंतु 'पंचाशकसूत्रवृत्तिके अनुसार प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करने का पाठथा, उसको उडा करके इन महाराजके सत्य कथनके पूर्वापर विरोधी विसंवादीरूप प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंतेकहनेका पा. ठबनाकर भोलेजीवोंको बतलाकर खोटी प्ररूपणा करनेवालोंकी बडी भारीभूलहै. यह महाराज तो विसंवादी कथन करनेवाले कभी नहीं. ठहरसकते,मगर ऐसे महापुरुषों के नामसे झूठापाठ बनानेवालेही मिथ्यात्वीठहरते हैं। अबपाठकगणसे मैराइतनाहीकहनाहै,कि-नवांनीवृ. त्तिकारकने या उन्होंकेशिष्योने अथवा अन्यकिसीभी जिनाशाकेआराधक पूर्वाचार्य महाराजने किसीभी ग्रंथमें सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते किसी जगहभी नहीं लिखी, व्यर्थ भोले जीवोंको भरमानेका काम करना आस्मार्थियोंकों योग्य नहीं है। ४३-कितनेक श्रीउत्तराध्ययनसूत्रकी बडी टीकाके नामसे सा. मायिक प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते करनेका ठहरातेहैं,सोभीप्रत्यक्ष मिथ्याहै.क्योंकि देखो उत्तराध्ययन सूत्र में या इनकी बडी टीका सामायिक करनेसंबंधी प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते करनेका कुछभी अधिकारनहींहै.किंतु-२९वें अध्ययनमें "सामाइएणं भंते ! जीवे किंजणेइ ? सावजजोग विरई जणयइ ॥ चउवीसथएणं भंते ! जीवें किं जणेइ ? दंसण विसोहिं जणइ ॥ व्याख्या-'सामायिकेन' उक्तरूपेण सहावद्येन वर्तत इति सा. वद्या:-कर्मबंधनहेतवो योगा-व्यापारास्तेभ्यो विरतिः-उपरमः सावद्ययोगविरतिस्तां जनयति, तद्विरति सहितस्यैव सामायिक संभ. वात्, न चैवं तुल्यकालत्वेनानयोः कार्यकारण भावासंभव इति वाच्यं, केषुचित्तुल्यकालेष्वपि वृक्षच्छायादिवत्कार्यकारण भावदर्शनाद्, एवं सर्वत्रभावनीयं ॥ सामायिकं च प्रतिपत्तुकामेन तत्प्रणेतारःस्तोतव्याः ते च तत्त्वतस्तीर्थकृत एवेति,तत्सूत्रमाह 'चतुर्विंशतिस्तवेन' एतदव. सर्पिणी प्रभवतीर्थकदुत्कीर्तनात्मकन दर्शनं सम्यक्त्वं तस्यविशुद्धि For Private And Personal Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११० ] दुपघातिक कर्मापगमतो निर्मलीभवनं दर्शनविशुद्धस्तां जनयति" ऐसा कहकर सामान्यतासे सामायिक, चउवीसत्थो, वंदन, प्रतिक्रमण, काउसग्ग आदि कर्तव्योंका फलबतलाया है. मगर वहां सामायिक करने की विधि में प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते उच्चारण करनेका नहीं बतलाया. इसलिये उत्तराध्ययन सूत्रवृत्ति के नाम से प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करने वालों की बडी भूल है. ४४- अब आत्मार्थी तत्रग्राही पाठकगण से मैरा यही करना है, कि - श्रीमहानिशीथसूत्रका उद्धार श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजने किया है । श्रीदशवेकालिकसूत्रचूलिकाकी बडी टीकाभी इन्हीं महाराजने बनाया है, तथा आवश्यक सूत्र की बडी टीकाभी इन्हीं महाराजने बनाया है । श्रावक प्रज्ञप्तिकी टीकाभी इन्हीं महाराजने बनाया है, अब देखो आवश्यक बडीटीका में व श्रावकप्रज्ञप्तिटीका में सामायिक विधिमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका खुलासापूर्वक पाठ है तथा महानिशीथ सूत्र के तीसरे अध्ययनमें उपधान चैत्यवंदन संबंधी इरियावही करनेका पाठ है, और दशवैकालिक चूलिकाकीटीकामै साधुके गम नागमन संबंधी इरिया वही करके स्वाध्यायादि करने का पाठहै, इसलिये भिन्न२ अपेक्षावाले इन शास्त्रपाठों के आपस में किसीतरहकाभी विसं वाद नहीं है, और विसंवादी शास्त्रोको व विसंवादी कथन करनेवालौको शास्त्रों में मिथ्यात्वी कहे हैं । इसलिये जैनशास्त्रोंकों व पूर्वाचायको अविसंवादी कहने में आते हैं, इसी तरह श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजभी अविसंवादी होने से इन्हीं महाराज के बनाये ऊपरके सर्व शास्त्रोको अविसंवादी कहने में आते हैं, और श्रीआवश्यक सूत्रकी बडी टीका व श्रावकप्रज्ञप्ति टीकामें सामायिक करने संबंधी प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका पाठ मौजूद होने परभी महानिशीथ, दशवैकालिक चूलिकाकी टीका के भिन्न २ अपेक्षावाले अधूरे २ पाठों. का उलटा २ अर्थकरके शास्त्रकारो के अभिप्रायविरुद्ध होकर सामायिक में प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेसे ऊपर के शास्त्रपाठों और इन्हीं शास्त्रोंके करनेवाले श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजके वचनोंमें एकही विषय संबंधी आपस में पूर्वापर विसंवादरूप दूषणआता है, मगर इन्हीं शास्त्रपाठों में व इन्हीं महाराज के कथनमें किसी प्रकार से भी कभी विसंवादका दूषण नहीं आ सकता. यह तो सामायिक में प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका स्थापन करने के आग्रह करनेवालोंकीही पूर्ण अज्ञानता है, कि ऐसे अविसंवादी आप्त For Private And Personal Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१११] शास्त्रोको व ऐसे शासनप्रभावक गीतार्थ महापुरुषोंको विसंवादीका झूठा कलंक लगानेकाभी भय न करके अपना आग्रहकी प्रत्यक्ष असत्य बातको दृढकरनेके लिये ऐसे २ अनर्थ करते हैं । इसलिये आस्मार्थी भव भिरुयोंको ऐसा असत्य आग्रह छोडकर प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावहीकरने की सत्यवातको श्रद्धापूर्वक अंगीकार करनाही जिनाशानुसार होनेसे श्रेयरूपहै. इसीतरहसे आवश्यक चूर्णि-वृहद् वृत्ति लघुवृत्ति-पंचाशकचूर्णि-वृत्ति-श्रावकधर्म प्रकरणवृत्ति-योगशास्त्रवृत्ति वगैरह अनेकशास्त्रानुसार सामायिकमें प्रथमकरेमिभंते पीछे इरियावहीकी सत्य बातको निषेध करनेवाले और महानिशीथ दशवै कालिक-पंचाशक चूर्णि-उत्तराध्ययन-संघाचार भाष्य वृत्ति-धर्मरत्न प्रकरण वृत्ति वगैरह शास्त्रकारमहाराजोंके अपेक्षा विरुद्ध और अधूरे २ पाठोंके नामसे या किसीप्रकारकीभी कुयुक्तिसे सामायिक प्रथम इरियावही और पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले आगमपंचागीके अनेक शास्त्रपाठोंके उत्थापनकरनेके दोषी बनते हैं. और खास अपने तपगच्छादिक सर्व गच्छोंके पूर्वाचार्योंकीभी आज्ञालोपने वाले बनते हैं [इसका विशेष खुलासा निर्णय उपरमें देखो] और तपगच्छमें पहिले तो प्रथमकरेमिभंते पीछेइरियावही करतेथे, इसलिये श्रीदेवेंद्रसूरिजी,श्रीकुलमंडनसूरिजी वगैरहोंने अपने२बनाये ग्रंथोमें प्रथमकरेमिभंते और पीछे इरियावही करनेका खुलासापूर्वक लिखाहै, मगर थोडे समयले अपने प्राचीन पूर्वाचार्योंके कथन विरुद्ध प्रथम इरियावहीकरनेका आग्रह चल पडा है, मगर जिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थियोको ऐसाआग्रहकरना योग्यनहींहै। देखो-'सेनप्रश्न' में श्रीविजयसे नसूरिजीने सर्व पूर्वाचार्योंके और अपने गच्छकेभी पूर्वाचार्योंके वि. रुद्धहोकर सामायिक प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते करनेका कहा है,मगर तोभी उन्हीकेही संतानीय अंतेवासी श्रीमानविजयजी और सु. प्रसिद्धन्यायाविशारदश्रीयशोविजयजीने 'धर्मसंग्रह'वृत्तिमें आवश्यक चूर्णि-पंचाशकचूर्णि-योगशास्त्रवृत्ति आदि अनेक शास्त्रानुसार प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करनेका खुलासा लिखा हैं, इसी तरहसे आत्मार्थियोंको अपने गच्छका या गुरुकाभी झूठ पक्षपातको त्याग करके प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावहीकी जिनाजानुसार सत्य बात. को आवश्यमेवही ग्रहण करना उचित है न्यायरत्नजी शांतिविजयजीने महानिशीथ, दशवकालिकादिक शास्रोके भिन्न २ अपेक्षावाले अधूरे २ पाठोंसे शास्त्रकारमहाराजोंके For Private And Personal Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अभिप्रायविरुद्धहोकर सामायिक में प्रथमइरियावही पीछेकरेमिभंते. का स्थापन करने के लिये 'खरतरगच्छ समीक्षा' में अनेक तरहसे शास्त्रविरुद्ध व कुयुक्तियों से अनर्थ किये हैं, उसका खुलासा ऊपरके लेखले पाठकगण स्वयं विचार लेंगे. इसी तरहसे आनंदसागरजीने 'धर्म संग्रह' की प्रस्तावना, चतुरविजयजीने 'संबोधसत्तारप्रकरण वृत्ति' की टिप्पणिकामे,श्रीकांतिविजय जी अमरविजयजीने 'जै. नसिद्धांतसामाचारी'में, धर्मसागरजीने इरियावही षत्रिंशिका प्रवचन परीक्षादिकमें औरभी कोईभी महाशय कोईभी ग्रंथ में सामायिकमें प्रथम करेमिमंते पीछ इरियावही करनेका निषेधकरके, प्रथम इरि. यावही पीछे करेमिभंते स्थापन करनेवाले सब शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करनेवाले उपरके लेखसे समझ लेने चाहिये. और पर्युषणासंबंधी,तथा छ कल्याणक संबंधीभी न्यायरत्नजीने अनेक शास्त्रविरुद्ध और कुयुक्तियोंके संग्रह से ऐसे२ ही अनर्थकियेहैं, उन सबका खुलासा समाधान पूर्वक निर्णय इसी ग्रंथमें और इस ग्रंथके प्रथम भागकी भूमिकाके ४७ प्रकरणों में और सुबोधिकादिककी २८ भूलोवाले लेखमें अच्छी तरहसे खुलासा सहित छप चुका है । इसलिये यहां पर फिरसे विशेष लिखने की कोई जरूरत नहीं है, सत्य तत्त्वाभिलाषी पाठकगण वहांसे समझ लेंगे । औरभी न्यायरलजीने श्रीअभयदेवसूरिजी संबंधी व तिथि संबंधी जो जो शास्त्र. विरुद्ध बातें लिखी हैं, उन सबका खलासा श्रीमान पन्यासजी श्री केशर मुनिजीने 'प्रश्नोत्तरमंजरी' के तीनों भागामें अच्छी तरहसे छपवाकर प्रसिद्ध कियाहै, उनके वांचनेसे सब खुलासा हो जायेगा. और मैं भी तीसरे भागकी उद्घोषण में थोडासा नमूनारूप लिखूगा तब वहां जैन मुनियोंको रेल विहार निषेध, व व्याख्यानके समय मुह पत्तिका बांधना और देशकालानुसार विशेष लाभ जानकर स्त्रीपुरुषों की सभामे साध्वियोंको धर्म शास्त्रका व्याख्यान करना [ धर्म का उपदेश देना] वगैरह बातों संबंधीभी खुलासा लिखनेमें भावे. गा. पाठक गण वहांसे सर्व निर्णय समझ लेना. इति शुभम्. विक्रम संवत् १९७८ वैशाख वदी पंचमी बुधवार. हस्ताक्षर श्रीमान्-उपाध्यायजी श्रीसुमतिसागरजीमहाराजके लघु शिष्य मुनि--मणिसागर. जैन धर्मशाला, खानदेश-धूलिया. For Private And Personal Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मुनि महाराज श्रीसुमति सागरजीक लघु शिष्य SABREASE AAL SMS Post मुनि श्रीमणिसागरजो इस ग्रन्थक लेखक । ज्ञाति वोशापोरवाल। वडगाम मारवाड़। मसारीपक्ष श्रीतपगच्छ दीक्षा श्रीस्वरतरगच्छ में जन्म मवत् १८४३ । दीक्षा १८६० । IASchoot Inituti For Private And Personal Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ॥ ओम् ॥ ॥ श्रीपञ्चपरमेष्ठिभ्यो नमः ॥ .. श्रीपर्यषणा निर्णय नामाग्रंथः प्रारभ्यते नत्वा श्रीशासनाधीशं, विघ्न व्यूह विदारणं, पर्युषणादि कार्याणां. निर्णयः क्रियते खलु ॥१॥ आत्मार्थिनाञ्च लाभाय, पाखण्ड पथ शान्तये वाणी गुरु प्रसादेन, शास्त्रयुक्त्यनुसारतः॥२॥ युगमम् विघ्नोंके समूहकोनाश करने वाले शासन नायक श्रीवर्द्धमानस्वामीको नमस्कार करके श्रीसरस्वती देवी तथा श्रीगुरु महाराजके प्रसादसे, शास्त्रों के प्रमाण पूर्वक तथा युक्तियोंके अनुसार, आत्मार्थि भव्यजीवोंको श्रीजिनाज्ञाकी प्राप्ति रूप लाभके वास्ते और उत्सूत्रपरूपणा रूप पाखण्डमार्गकी शान्तिके लिये श्रीपर्युषणपर्वादि सम्बन्धी कार्योंका निश्चयके साथ निर्णय करता हूं। सो इस ग्रन्थमें सम्बन्ध तो मुख्य करके अधिक मासके ३० दिनोंकी गिनतीके प्रमाण करनेका है। और दो श्रावण अथवा दो भाद्र पद होने ते आषाढ़ चौमासी से ५० दिने दूसरे श्रावण में अथवा प्रथम भाद्रपदमें श्रीपर्युषणपत्रका आराधन करने सम्बन्धी निर्णयरूप कथन करनेका इस ग्रन्थमें मुख्य विषय है और वर्तमानकालमें गच्छोंके पक्षपातसे आपसमें जूदी जूदी प्ररूपणाके होनेसे भोले. जीवोंको श्रीजिनाज्ञाको शुद्ध श्रद्धामें मिथ्यात्वरूप भ्रम पड़ता है, उसीको निवारण करने के लिये पञ्चाङ्गी प्रमाण पूर्वक युक्ति अनुसार इस ग्रन्थकी रचना करता हूं, सो इसको For Private And Personal Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अवलोकन करनेसे असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करके मोक्षाभिलाषी जन अपने आत्म कल्याणमें उद्यन करें, एही इस ग्रन्यकारका तथा इस ग्रन्थका मुख्य प्रयोजन है। और इस ग्रन्थका अधिकारी तो वही होगा जो कि अपने गच्छ संबंधी परंपराके पक्षपातका कदाग्रह रहित तथा जिनाज्ञा इच्छक और शास्त्रोक्त शुद्ध व्यवहारको अङ्गीकार करनेवालो सम्य. कत्वधारी मोक्षाभिलाषी, नतु अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी बहुलसंसारी गड्डरीह प्रवाही । मङ्गलाचरण और सम्बन्ध चतुष्टय कहे बाद सर्वज्जन पुरुषों को निवेदन करने में आता है कि-वत्तमानकालमें संवत् १९६६ के लौकिक पञ्चाङ्ग में दो श्रावण होनेसे श्री. खरतर गच्छा दिवाले पञ्चाङ्गी प्रमाण पूर्वक तथा श्री पूर्वाचायोंकी आज्ञामुजब आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे प्रावणमें श्रीपर्युषणपर्वका आराधन करते हैं जिन हैं।को प्रथम श्रीवल्लभविजयजीने अपनी मति कल्पनासे कोई भी शास्त्रके प्रमाण विना जैनपत्राद्वारा आज्ञा भङ्गका दूपण उगाकरके कुसंपके रक्षका बीज लगाया तथा प्रत्यक्ष श्रीजिना ज्ञा विरुद्ध दो प्रावण होते भी भाद्रपद में यावत् ८० दिने प्रोपर्युषण पर्वका आराधन करके भी मायावृत्ति से आप आज्ञाके अ.राधक बनना चाहा, तथा उन्हींकाही अनुकरण करके दूसरे काशी से श्रीधर्मविजयजीने अपने शिष्य विद्याविजयजीके नामसे 'पर्यषणा विचार' का लेख प्रगट कराया जिसमें भी सूत्रा भाषणांका तथा कुयुक्तियोंका संग्रह करके अभिनिवेशिक मिथ्यात्व ते शास्त्रोंके आगे पीछे के पाठोंको छोड़करके विना सम्बन्धके अधूरे अधूरे पाठ लिखकर शास्त्रकार महार.जेांके For Private And Personal Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ३ ) अभिप्रायसे विरुद्धहोकर के दूमरे श्रावण में ५० दिने श्रीपर्युषण पर्वका आराधन करने वालोंपर खूबही आक्षेपांकी बड़े जोरसे वर्षा करो और पञ्चाङ्गोके प्रत्यक्ष प्रमाणको उत्था पन किये और जो संपसेधर्मकार्य होते थे जिन्हें में विघ्नकाटो १० पृडकी पुस्तक प्रगट कराके कुसंपके वृक्ष को उत्पन्न कराया और तीसरे जैन पत्रवालेने भी इन्हीं केही अनुतार चल करके दूराग्रह के हठसे पर्युषणा विचार के लेखका गुजराती में भाषान्तर जेनपत्र के २३ वें अङ्कको आदिमें प्रगट करके भाषणों के फल विवाक प्राप्त करने के लिये और गच्छ दाग्रह के झगड़े को बढ़ाने के लिये श्रीजिनाशाके आराधक पुत्रका अनेक तरह से आक्षेपरूप कटुक वचन लिखके कुतंपके वृक्षको बढ़ानेका कारण किया । T इनदोनों महाशयोंके इसतरह के लेखोंको मैंने अवलोकन किये तो जिनाचा विरुद्ध एकान्त अपने गच्छ संबन्धी आग्रहके पक्ष तसे दूसरोंका मिथ्या दूषण लगानेवाले और आत्मार्थि भव्य जीवको श्रीजिनाज्ञाकाआराधन करने में विघ्न रूप मालून हुए तब इस विघ्नको दूर करने की इच्छा हुई इसलिये मोक्षाभिलाषी जिनाज्ञा इच्छक भव्य जीवोंको श्रीजिना - खाकी शुद्ध में दृढ़ करने के वास्ते और उत्सू भाषक गच्छदायिक हितशिक्षा के लिये शास्त्रानुसार तथा शास्त्र युक्तिपूर्वक श्रीपर्युषण पर्वका आराधन सम्बन्धी वर्त्तमानिक विवादका निर्णय करना उचित समझा सो करने तत्वान्वषि पुरुषोंको दिखाता हूं : C श्रीगणधर महाराज कृत श्रीनिशीथ सूत्रमें १, श्रीपूर्वा'चार्यजीकृत श्री मिशीयसूत्र के लघु भाष्य में २, तथा वृद्धा For Private And Personal Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ध्यमें ३, और श्रीजिनदासगणि महत्तराचार्यजी पूर्वधर कृत श्रीनिशीथसूत्रकी चर्णिमें ४, श्रीभद्रबाहु स्वामीजी कृत श्री. दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र में ५, श्रीपूर्वाचार्यजी कृत तत्मूत्रकीचूर्णिमे६, श्रीपाश्चंद्रगच्छके श्रीब्रह्मपिंजीकृत तत्सूत्रकी वृत्ति,श्री पूर्वा चार्यजी कृत श्रीवृहत्कल्पसूज के लघुभाष्यम,यहद्भाष्य में, तथा चूर्णिमें १०, और श्रीतपगच्छके श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजी कृत श्री. हत्कल्पसूत्र की वृत्तिम १२, श्रीसुधर्मस्वामीजी कृत श्रीसमवा. यांगजी सूत्रमें १२,तथा श्रीखरतरगच्छ नायक सुप्रमिद्ध श्रीनवांगीवृत्तिकार श्रीअभयदेव मूरिजी कृत तत्सूत्रकी वृत्तिम १३, और उक्त महाराज कृत श्रीस्थानांगजी सूत्रकी वृत्तिमै १४, श्रीभद्रबाहुस्वामी जी कृत श्रीकल्पसूत्र में १५, तथा नियुक्तिमें १६, और श्री खरतरगच्छ के श्रीजिन प्रभमूरिजी कृत श्रीकल्पसूत्रकी श्रीसंदेहविषौषधि वृत्तिमें १७, तथा नियुक्तिकीकृत्तिमें १८, और विधिप्रपा नाम श्री समाचारी गन्यमें १९, और श्रीखरतरगच्छ के श्रीलक्ष्मीवल्लभ गणिजी कृत श्रीकल्पमत्रकी कल्पद्रमकलिकावृत्तिमें २० तथा श्री खरतरगच्छके श्रीसमयसुन्दरजी कृत श्रीकल्पकल्पलतावृत्तिमें २१ और उक्त महा. राज कृत श्रीसमाचारीशतकनाम ग्रन्थ में २२, श्रीतपगच्छके श्रीकुलमण्ड नसूरिजी कृत श्रीकल्पावचरिमें २३, तथा श्रीतपगच्छके श्रीधर्मसागरजी कृत श्रीकल्पकिरगावली वृत्तिमें २४, और श्रीजयविजयजी कृत श्री कल्पदीपिकावृत्तिमें २५, और श्रीविनयविजयजी कृत श्रीमुबोधिकात्तिमें २६, श्रीसंघवि. जयजी कृत श्रीकल्पप्रदीपिकावृत्तिमें २७, श्रीधिजयविमल गणिजी कृत श्रीगच्छाचारपयन्ना की कृत्तिमें २८ श्री अञ्चलगच्छके श्रीउदयसागर जी कृत श्री कल्पावचूरिरूपत्ति २९,श्रीखरतर For Private And Personal Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir गच्छके श्रीजिनपतिसूरिजी कृत श्रीसमाचारीग्रन्यमें ३० तपा श्रीसंघपकवहवृत्ति में ३१ और श्रीहर्षराजजी कृत श्रीसंघ. पटककी लघुवृत्तिमें ३२, और श्रीपूर्वाचायोंके बनाये तीन श्रीकल्पान्तरवाच्यों में ३५. इत्यादि पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों में आषाढ़ चौमासीसे ५० दिन जानेसे अवश्यमेव पर्यषणा करना कहा है उसीकेही अनुसार तथा श्रीपूर्वाचायोंकी आज्ञा. मुजब वर्तमानकालमें दो श्रावण होनेसे दूसरे प्रावणमें अथवा दो भाद्रपद होने से प्रथम भाद्रपदमें ५० दिने पर्यु. षणा करने में आती है इसी विषयकी पुष्टि के लिये पाठकवर्गको निःसन्देह होने के वास्ते शास्त्रों के थोडेसे पाठ भी लिख दिखाता हूं। १ श्रीकल्पसूत्रके पृष्ठ ५३ से ५४ तकका पर्युषणा संबंधी पाठ नीचे लिखे मुजब जानो, यथा--- तेणंकालेणं तेणसभएणं समगवंमहावीरे वासाणं सवी सइराएमासे विकंते वासावासं पज्जोसवेइ ॥१॥ सेकेण?णं भंते एवं वच्चइ समणेभगवं महावीरे वासाणं सवीसह राए मासे विश कंते वासावासं पज्जोसवेइ । जउणं पाएणं, अगारीणं अगाराई,कडियाई, उक्कंपियाई, छन्नाई, लित्ताई, घटाई मट्ठाई, संधूपियाई, खाउ दगाई, खायनिटुमणाई. अप्पणी अढाए कहाई, परिभुत्ता इं, परिणामियाई भवंति ॥ सेतेगहोणं एवं वुच्चइ समणे भगवं मह वीरे वासाणं सबीसहराए मासे विरक्तते वासावासं पज्जोसवेइ ॥२॥ जहाणं समजगवं महावीरे वासाणं सवीसइ राए मासे विक्कते वासावासं पज्जोसवेइ । तहाणं गणहरावि वासाणं सवीसह राए मासेवक्ते वासावासं पज्जोसविंति ॥३॥ महाणं गणहरावि For Private And Personal Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir बामाणं सवीसहराएमासे जाव पज्जोमविति। तहाणं गणहर सीमावि वासणं ज व पज्जोमविति॥॥ जाणं गगहरमीसा वामाणं ज व पज्जोराविंति। तहण थेरवि वामावासंजाव पज्जोमविति ॥५॥ जहाणं थेरा वामाणं जाव पज्जोसविति । तह.णं जे इमे अज्न लाए समणा निग्गंथा विहरंति एएविअणं वामाणं जाव पज्जोमविति ।६॥ जहाणजे इमे अज्जताए समणा निग्गंथावि वासाणं सीसहराए मासे विइकन्ते वामवासं पज्जोसविंति । लहाण अम्हपि आयरिया तवमाया वामाण जाब पज्जोसविति ॥॥ जहाण अम्हंपि आयरिया उवउझाया वासाण जाव पज्जोसविति। तहाण अम्हे वि वासाण सवीसहराए मासे विकन्ते वसावासं 'पज्जेसवेनो । अंतरावियसे कप्पा नोसे कप्य इ तं रणि उवायणावित्तए॥८॥ इत्यादि - भावार्थ:--तिसकाल तिसममयके विघे श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामी वर्षा संबंधी आषाढ़ चौमासीसे वीश दिन सहित एक मास याने ५० दिन जाने से वर्षावासमें पयुषणा करते भये, ॥१॥ यहां पर शिष्य पूछता है कि हेभगवान् किन कारण से ऐमा कहते हो तब गुरु महाराज उत्तर देते हैं कि-प्राय कर के गृहस्य लोग भगवान्का महारम्य जान करके इस समय वर्षा बहुत होगी ऐसा विचार करके अपने घरों को चटाइयों से आच्छादित करेंगे, चूनादि से सेपेदी करेंगे, घात तृणादिसे उपरमें बंदोवस्त करेंगे, नाबर लिंपन करेंगे आसपासमें वाड वगैरहने जाबता करेंगे, वी नीची भूमीको नोड़कर बराबर करेंगे. पाषाणादिसे घस 'करके धोकणी करेंगे, मकानोंको धूगादिसे सुगंधयुक्त करेंगे और For Private And Personal Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir (9) अपने धरोंके ऊपरका वर्षा संबंधी पाणी निकलने के लिये प्रणा लिका करेंगे, और सब घरका पानी निकलने के वास्ते नवोन खाल बनायेंगे, अथवा पहिलेका खाल होवे उनीका सुधारा करेंगे, और उपयोगी सवित वस्तुओंको अचितकर के रखेंगे, इत्यादि अनेक तरह के आरम्भादि कार्य पहिलेनेही अपने लिये कर लेवेंगे इसलिये उपरोक्त दोषोंका निमित्त कारण न होने के वास्ते आषाढ़ चौमासीसे १ मास और २० दिन गये बाद भगवान् पर्युषणा करते थे, ॥२॥ जैसे १ मास और २० दिन गयेबाद भगवान् पर्युषणा करते थे तैसे ही गणधर महाराजभी १ मान और २० दिन गयेबाद पर्युषणा करते थे॥ ३ ॥ जैसे गणधर महाराज पर्युषणा करते थे तैनेही गणधर महाराजके शिष्य प्रशिष्यादि भी पर्युषणा करते थे ॥ ५॥ जैसे गणधर महाराज के शिष्यादि पर्युषणा करते थे तैसे ही स्य विर भी करते थे ||५|| जैसे स्थविर करते थे तैसेही वर्तमानमें श्रमण निर्ग्रन्थ विवरने वाले हैं सो भी उपरोक्त विधि के अनुसार पर्युषणाकरते हैं ॥ ३॥ जैसे वर्तमान में श्रमण निर्ग्रन्थ पर्युषणा करते हैं तैसे ही हमारे आचार्य उपाध्याय ५० दिने पर्युषणा करते हैं ॥१॥ जेते हमारे आचार्यउपाध्याय ५० दिने पर्युषणा करते हैं तैतेही हमभी आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने पर्युषणा करते हैं जिसमें भी कारण योगे ५० दिन के भीतर पर्युषणा करना कल्पता है परन्तु कारण योग से ५० वे दिनको र त्रिकोभी उल्लंघन करना नहीं कल्पता है, याने ५० वे दिनको रात्रिको उल्लंघन करनेवाले को जनज्ञाविरुद्ध दूषण की प्राप्ति होवे । अब देखिये उपरोक्त सुप्रसिद्ध श्रोकल्पसूत्रानुसार दूसरे For Private And Personal Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भाषणमें पर्युषणा करनेवालोंको वृथा द्वेषबुद्धिसे आनाभङ्गका दूषण लगाना और दो श्रावण होते भी आषाढ़ चौमासीसे दो मास उपर बीस दिन याने ८० दिने ( प्रत्यक्ष पंचाङ्गी विरुद्ध अपनी मति कल्पनासे) पर्यषणा करके भी माताके आराधक बनना से गच्छदाग्रहि उत्सूत्र भाषण करनेवालोंके सिवाय और कौन होगा सो विवेकी सज्ज. नोंको विचार करना चाहिये । और दो श्रावण होतभी भाद्रपदमें तथा दो भाद्रपद होनेसे भी दूसरे भाद्रपदमें ८० दिने पर्युषणा करनेवाले महाशयों को हर वर्ष पर्युषणा में प्राय करके सब जगह पर बंचाता हुआ मूलमन्त्ररूप उपरोक सत्रपाठको विवेक बुद्धिसे विचार के असत्यको छोड़ कर सत्य को ग्रहण करना चाहिये। और अब ऊपरके सब पाठकी मब व्याख्याओंके सबपाठ बहोत विस्तार हो जाने के कारणसे नहीं लिखता हूं परंतु ( अन्तरा विषसे कप्पइ नासे कप्पड तं रयणि उवायणा वित्तए ) इस अन्तके पाठकी थोड़ी मी व्याख्याओंके पाठ लिखके पाठक वर्गको विशेष निःसन्देह होने के लिये लिख दिखलाता हूं। २ श्रीखरतरगच्छके श्रोममयसुन्दरजी कृत श्रीकल्पकल्पउता कृत्तिके पृष्ठ १११ से ११२ तकका तत्पाठ:--- अन्तरावियसै कप्पा पज्जो वित्त ए । अन्तरापि च अर्वागपि कल्पते पर्युषित, "नोसैकप्पइ तं रयणि" परं न कल्पते तां रजनीभाद्रपद शुक्ल पञ्चमी, “उवाइणावित्तएत्ति," अतिक्रमितं । उपनिवासे इत्यागमिकोधातुः, इह पर्युषणाद्विधागृहिज्ञाता गृह्यज्ञाताच, तत्र गृहिणामज्ञातायां वर्षा योग्य For Private And Personal Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " ( ) , पीठफलकादौ प्राप्त कल्पोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्थापना क्रियते सा स्थापना आषाढ़ पूर्णिमायां योग्यक्षेत्राभावेतु पञ्च पञ्च दिनवृद्वधा यावद्भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीं एकादशसुपर्व तिथिष क्रियते, गृहि ज्ञातायां तु यस्यां साम्बत्सरिका तिचारालोचनं १, लुञ्चनं २, पर्युषणायां कल्पसूत्राकर्णनं वा कथनं ३, चैत्य परिपाटी ४, अष्टमंतपः ५, साम्वत्सरिकं चप्रतिक्रमण क्रियते, ययाव्रत पर्यायवर्षाणि गण्यते सा भद्रपद शुक्लपञ्चम्यां युगप्रधान कालक सूर्यादेशाच्चतुर्थ्यामपि जनप्रकटा कार्या यत्तु अभिवर्द्धितवर्षे दिनविंशत्या पर्युषितव्यं, तत्सिद्वान्तटिप्पनानुमारेण तत्रह्नि युगमध्येपौषो युगान्तेच आषाढ एव वर्द्धते, तान्येतानि च अधुना न सम्यग् ज्ञायंते अता दिनपञ्चाशतैव पर्युषितव्यम् ॥ " ३ और श्रीखर तर गच्छ के श्रीलक्ष्मीवल्लभगणिमी कृत श्री कल्पद्रुमकलिकावृत्ति के पृष्ठ २४२२४३ तकका तत्पाठः (सूत्रम् ) अन्तराविय से कप्पइ-इत्यादि, अर्थ- अन्तरापिच अर्वागपि महाकार्यविशेषात् भाद्रपद शुक्रपञ्चमीतः इतः कल्पते पर्युषण पर्वकर्तुं परं न कल्पते तां रजनीं भाद्रपद शुक्लपञ्चम अतिक्रमितुं । पूर्व उत्सर्गनयः प्रोक्तः अन्तराविय से इत्यादिना अपवादनयः प्रोक्तः । एकादशसु पञ्चकेषु कुर्वत आषाढ़ पूर्णिमा प्रथमं पर्व, एवमग्रे पञ्चभिः पञ्चभिदिवसः एकैकं वं, एवं कुर्वतां साधूनां पञ्चाशद्दिनैः एकादश पर्वाणि भवन्ति एतेषु एकादशपर्वदिवसेषु पर्युषणापर्व कर्त्तव्यं । पर्वसु एकस्मिन् दिने न्यूनेपि कारण विशेषेण पर्युषणा कर्त्तव्या, परं एकादशभ्यः पर्वभ्यः उपरि अधिके एकस्मिन्नपि दिने गते पर्युषण पर्व न कर्तव्यमुपरिदिनं नोल्लङ्घनीय मित्यर्थः । २ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir জহিলাৰবি লতলীয় জঘিলাকান্দাইলতলা - नया आषाढचतुर्मासात् पञ्चाशदिने र्भाद्रपद शुक्लपञ्चमी दिने पर्युषणा पर्व भवति, श्रीकालिकाचार्याणामादेशात् भाद्रपदशुक्ल पंचमीतः इतः चतुयाक्रियते, भाद्रपद शुक्लपञ्चम्या रात्रिमुल्लवय अग्रेपर्युषणा न कल्पते अमादि सिद्धानां तीर्थकराणां आज्ञया । इदानीमपि चतुया पर्युषणां कुर्वतः साधवो गोतार्थास्तीर्थंकराज्ञाराधका ज्ञेया ॥ ४ और श्रीतपगच्छके श्रीकुलमंडम सूरिजीकृत श्रीकल्पाबचूरिके पृष्ठ १९२ में तत्पाठः-- अन्तरा वियसै कप्पा, अंतरापि च अर्वागपि कल्पते, "पज्जोसवेयठ" पर्युषितु परं "नोकप्पइ" न कल्पते "तं रयणि उवायणा वित्तए" तारजनों भाद्रपद शुक्लपञ्चमी अ. तिक्रमितु ॥ उषनिवासे इत्यागमिकोधातुः ॥ इहहि पर्युः षणा द्विधा गृहि जाताजातभेदात् तत्र गृहिणाम ज्ञाता यस्यां वर्षायोग्य पीठ फलकादौ प्राप्त यत्नेन कल्पोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल,भाव, स्थापना क्रियते सा आषाढ़पूर्णिमायां, योग्य. क्षेत्रासावेत्तु पंच पंच दिन बुद्धघा यावद्भाद्रपदसित पंचमी, साकादशसु पर्वतिथिषु, क्रियते, हि जाता यस्यां तु सांव. स्सरिकातिचारालोचन, लुच्चन, पर्युषणायां कल्पसूत्रकथनं, चैत्यपरिपाटी, अष्टम, सांवत्सरिकंप्रतिक्रमणंच क्रियते, ययाच व्रतपर्याय वर्षाणि गण्यन्ते, सा नभस्य शुक्लपञ्चम्यां कालकसर्यादेशाच्चतुर्थ्यामपि बमप्रकटाकार्या, यत्पुनरनिवर्द्धित वर्षे दिनविंशत्या पर्युषितव्यमित्युच्यते, तत्सिद्धांत टिप्प. मानुसारेण तत्रहि युगमध्ये पौषो युगान्ते चाषाढ़ एव वर्द्धते मान्येमासास्तानिचअधुना न सम्यग जायन्ते तो दिन पञ्चाशतव पर्युषणा सङ्गतेतिबद्धाः ॥ For Private And Personal Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " ( ११ ) ५ और श्रीतपगच्छके श्रीधर्म्मसागरजी कृत श्रीकल्पकिरगावडीवृत्तिके पृष्ठ २५७ से २५८ तकका तत्पाठः- , तत्र अन्तरापिच अर्वागपि कल्पते पर्युषितुं परं न कल्पते तां रजना भाद्रपद शुक्ल पंचमी, “ठवायणा वित्तएत्ति" अतिक्रमितुं, उषनिवासे इत्यागनिको धातुः । वस निवास इति गण संबन्धीवाधातुः । इहहि पर्युषणा द्विविधा गृहि ज्ञाताज्ञातभेदात् तत्र गृहिणा गज्ञाता यस्यां वर्षायोग्य पीठफल कादौ प्राप्त यत्नेन कल्पेक्तद्रव्य, क्षेत्र काल, भाव स्थापना क्रियते सा चाषाढ़ पूर्णिमायां येोग्यक्षेत्राभावेतु, पंच पंच दिन वृद्वधा दशपर्व तिथि क्रमेण यावत् भाद्रपदसितपंचमीमेवेति गृहिज्ञाता तु द्विधा साम्वत्सरिक कृत्यविशिष्टा गृहिज्ञातमात्राच तत्र साम्वत्सरिक कृत्यानि, “सांवत्सरप्रतिक्रान्ति १ लुञ्चनं २ चाष्टन्तपः ३ सर्वाङ्ग किपूजाच ४ सङ्घस्य क्षामणं मिथः ५” एतत्कत्य विशिष्टा भाद्रपदसितपंचम्यां कालकाचार्यादेशाचतुर्थ्यामपि जनप्रकटाकार्या, द्वितीयातु अभिवर्द्धितवर्षे चातुमसिक दिनादारभ्य विंशत्यादिनैः वयमत्र स्थितास्म इति पृच्छतां गृहस्थानां पुरे वदन्ति सातु गृहिज्ञात मात्रैव, तदपि जैनपिनकानुसारेण यतस्तत्र युग मध्ये पौषो युगःग्वाषाढ़ एवं वर्द्धते नाऽन्ये मासाः तच्चाधुना सम्यग्न ज्ञायतेऽतः पंचाशतैवदिनैः पर्युषणा सङ्गतेति वृद्धाः ॥ ६ और श्रीतपगच्छ के श्रीजयविजय कृत श्रीकल्पदीपि का वृत्तिके पृष्ठ १३० में तत्पाठः- अन्तरावियसेकपत्ति, अन्तरापि च अर्वागपि करूपते पर्युषितुं परं न करूपते तां रजनीं भाद्रपद शुक्ल पंचम “डवायता वित्तत्ति" अतिक्रमितु, उषनिवासे इत्यागनि Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir को धातुः, वस निवास इति गणमंबंधीवाधातुः।इहहि पर्युषणा द्विविधा गृहिज्ञाताज्ञातभेदात् तत्रगृहिणामज्ञाता यस्या वर्षायोग्य पीठ फलकादौ प्राप्त कल्पोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्थापना क्रियते, साच आषाडपूर्णिमायां योग्यक्षेत्राभावे तु पंच पंच दिन वृद्धया दशपर्वतिथि क्रमेण यावत् भाद्र पदसित पंचनोमेवेति । गृहिज्ञाता तु द्विधा सांवत्सरिककृत्य. विशिष्टा गृहिज्ञातमात्रा च तत्र सांवत्सरिक कृत्यानि, “सांवत्सरिकप्रतिक्रमण १, लुचनं २, अष्टमं तपः ३, चैत्य परिपाटी, संघक्षामणं" एतत्कृत्य विशिष्टा भाद्रपदसित पंचम्यां कालकाचार्यादेशाच्चतु जनप्रकट कार्या, द्वितीयातु अमिवर्द्धितवर्षे चातुर्मासिकदिनादारभ्य विंशत्यादिनैः वयमत्रस्थितास्म इति पृच्छता गृहस्थानां पुरो वदन्ति सातु गृहिज्ञातमात्रय तदपि जैनटिप्न कानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगांते च आषाढ़ एजबर्द्धते नान्येमामाः तच्चाधुना सम्यग न जायते अतः पंचाशतवदिनैः पर्युषणासङ्गतेति षद्धाः ॥ 9 और श्रीतपगच्छके श्रीविनयविजयजी कृत श्री सुखबेाधिकात्तिके पृष्ठ १४६ में तथाच तत्पाठः अंतरावियसेकप्पाइ, अंतरापिचअर्वागपि कल्पते पर्युषितुं परं न कल्पते तां रात्रि भाद्रपदशुक्लपंचमी, "उवायणा वित्त एत्ति" अतिक्रमितं, तत्र परिमामस्त्येन उषण वमनं पर्युषणा, साद्विधा गृहस्थैर्शाता गृहस्थैर ज्ञाताच. तत्र गृहस्थैरज्ञाता यस्यां वर्षायोग्य पीठफलकादौ प्राप्त कल्पोक्तद्रव्य क्षेत्र काल भाव स्थापना क्रियते साधाषाढ़पूर्णिमायां, योग्य क्षेत्राभावेतु पंच पंच दिन वृद्धया दशपर्वतिथि क्रमेण यावत् भाद्र पद सितपंचभ्याम्, एवं गृहिजाता तु द्विधा For Private And Personal Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १३ ) साम्वत्सरिककृत्याविशिष्टा गृहिज्ञातमात्राच, तत्र साम्ब. त्सरिककृत्यानि 'सांवत्तर प्रतिक्रांति १ लञ्चनं २ चाष्टमंतपः ३ महिंद्भक्तिपूनाच ४ संघस्यक्षामण मिथः ५ ॥१॥" एतत्कृत्य विशिष्टा भाद्रपदसित पंचम्यामेव कालिकाचार्यादेशाच्चतुा मपिकार्या, केवलं गृहिज्ञातातु सा यद् अभि. वर्द्धितवर्षे चातुर्मासिकदिनादारभ्य विंशत्यादिनैर्वयमत्र स्थितास्मइति पृच्छता गृहस्थाना पुरोवदंति तदपि जैन टिप्पनका. नुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगांतेचाषाढएव वर्द्धते नान्येमासास्तहिप्पनकन्तु अधनासम्यग न ज्ञायते अतः पंचाशतै वदिनैः पर्युषणायुक्ततिवृद्धाः ॥ उपरोक्त श्रीखरतरगच्छ तथा श्रीतपगच्छ उन दोनों गच्छवालोंके छ पाठोंका मंक्षिप्त भावार्थ:--अंतरा वियसे कप्पा । अन्तरापिच अर्वागपि कल्पते पर्युषितं. इत्यादि कहनेते-जो आषाढ़ चौमामीसे ५० दिने पर्युषणा करने में आती है जिसमें कारण योगे ५२ दिनके अंदर ४ वे दिन पर्युषणा करना कल्पता है पन्तु ५१ वे दिनकी जो भाद्रपद शुक्ल पंचमीकी रात्रिहै उसीको उल्लंघन करना नहीं कल्पता है और उषधातुमे उषणा बनता है तथा परिउपसर्ग लगनेसे पर्युषण बन जाता है मो उपधातु निवास अर्थ में वर्तती है अथवा गण संबंधी वप्त धातु भी निवासार्थमें वर्तती है और ग्रामानुग्राम विहार करने का निवारण करके सर्वथा प्रकारसे वर्षाकाले एकस्यान में निवास करना सो पर्युषणा कही जाती है वो पर्युषणा इहां दो प्रकारकी है गृहस्थी लोगोंकी जानी हुई तथा गृहस्थी लोगोंकी नहीं जानीहुई तिसमें गृहस्थोलोगों को नहीं जानी हुई पर्युषणा जिसमें वर्षाकालके उचित For Private And Personal Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पाट पाटलादि द्रव्योंका योग बननेसे यत्न करके शास्त्रोंक विधिसे द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की स्थापना करनी जिसमें उपयोगी वस्तुओंका संग्रहसो द्रव्य स्थापना, और विहारका निषेध परन्तु आहारादि कारणसे मर्यादा पूर्वक जानेका नियम सो क्षेत्र स्थापना, और वर्षाकालमें जघन्यसै १० दिन तक तथा मध्यमसे १२० दिन तक और उत्कृष्ट से १८० दिन तक एक स्थानमें निवास करना सो काल स्थापना, और रागादि कर्मबन्धके हेतु ओंका निवारण करके इरियासमिति आदिका उपयोग पूर्वक वर्ताव करना सो भावस्थापना, इस तरहसे वो द्रव्यादि चतुर्विध स्थापना आषाढ़ पूर्णिमा करनी परन्तु योग्य क्षेत्रके अभावमें तो आषाढ़ पूणि मासे पांच पांच दिनकी वृद्धि करके दशपंचक तिथियों में क्रममें यावत् भाद्रपद सुदी पंचमी तक, आषाढ़ पूर्णिमासे दशपंचकमें परन्तु आषाढ़ सुदी १० मी के निवासकी गिनतीसे एकादशपंधकोंमें जहां द्रव्यादिका योग मिले वहां पूर्वोक्त कहे वैसे दोषोंका निमित्त कारण न होने के लिये अज्ञात पर्युषणा स्थापन क. रनी और आषाढ़ चौमासीसे ५०दिने गृहस्थी लोगोंकी नानी हुई पर्युषणा जिसमें वार्षिकातिचारोंकी आलोचना करनी, केशोंकालुंचन करना,श्रीकल्पसूत्रकासुनना था पठनकरना, अष्टमतप करना, चैत्यपरिपाटी (जिन मन्दिरों में दर्शनकरने) और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना, और सर्व संघकोक्षामणे करना और दीक्षापर्यायके वर्षों की गिनती करना सो जातपयुषणा भाद्रपदशुक्ल पंचमी में होती थी, परन्तु युग प्रधान श्रीकालका चार्यजीमहारानके आदेशसे भाद्रशुक्र चतुर्थी के दिन करने में माती है। सो गीतार्थों की आचरणा होनेसे श्रीजिनामा For Private And Personal Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १५ ) सुजबही जाननी सो भाद्र पदकी पर्युषणा मासमृद्धिके अभाव से चन्द्रसंवत्सर संबंधिनी जानती । और मासवृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सर में तो आषाढ़चौमासी से बीस दिन करके याने श्रावण शुक्ल पंचमी को गृहस्थी लोगोंकी जानी हुई पर्यषणा करनेमें आती थी सो तो जैन सिद्धान्त का टिप्पणानुसार युगके मध्य में पौषमास और युगके अन्तमें आषाढ़ मास की वृद्धि होती थी परन्तु और किसी भी मासको वृद्धिका अभाव था । वोटिप्पणा तो अभी इस काल में अच्छी तरह से देखने में नहीं आता है इसलिये मासवृद्धि हो तो भी ५० दिनों पर्युषणा करनी योग्य है इस तरहसे वृद्वाचार्य कहते हैं अर्थात् मानवृद्धि होने से जैन पंचांगानुसार वीस दिने श्रावणमे पर्युषणा करनेमें आती थी परन्तु जेनपंचांगके अभाव से लौकिक पंचांगानुसार मासवृद्धि दो श्रावण अथवा दो भाद्रपद होता भो उसीकी गिनती पूर्वक ५० दिने दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपद में पर्यु - षणा करनेकी प्राचीनाचायों की आज्ञा है इसी ही कार से श्रीलक्ष्मीवल्लभ गणितीने अधिकमासको गिनती पूर्वक ५० दिने पर्युषणा करनेका खुलासा लिखा है । उसी मुजब अरमार्थियोंको पक्षपात छोड़कर वर्तना चाहिये । और श्रीधर्मसागर जी श्रीजय विजयजी श्री विनय विजयजी इन तीनों महाशयों के बनाये (श्रीकल्प किरणावली श्रीकल्प दीपिका श्रीमुखबेधिका इन तीनों वृत्तियों के) पर्युषणा सम्बन्धी पाठ ऊपर में लिखे हैं उसी में इन तीनों महाशयेांने, ज्ञात याने गृहस्थी लोगों की जानी हुई पर्युषणा दो प्रकारको लिखी है और अभिवर्द्धित संवत्सर में आषाढ चौमा For Private And Personal Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मोसे बीस दिने पर्यषणा करने में आती थी उसीको वार्षिक कृत्योरहित केवल गृहस्थ लोगों के कहने मात्रही ठहराई है सो कदापि नहीं बन सकता है क्योंकि अधिक मास होनेसे वीन दिनकी पर्युषणाकाही जैन पंचाङ्गके अभावसे अधिक मास होता भी ५० दिने पर्युषणा पूर्वाचार्योंने ठहराई है इस लिये वीस दिनकी पर्युषणा कहनेमात्रही ठहरानेसे ५१ दिनकी पर्युषणा भी कहनेमात्रही ठहर जादैगी और वार्षिक कृत्य उसी दिन करने का नहीं बनेगा इसलिये जैसे मासवृद्धिके अभावसै ५० दिने ज्ञात पर्युषण में वार्षिक कृत्य होते हैं तैसेही मासरद्धि होनेसे वीस दिन की ज्ञात पयु षणामें वार्षिक कृत्य मानने चाहिये क्योंकि ज्ञात पर्युषणा एकही प्रकारको शाखोंमें लिखी है परन्तु वीस दिने ज्ञात पर्युषणा करके फिर आगे वार्षिक कृत्य करे ऐसा तो किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है इसलिये जहां ज्ञात पर्युषणा वहांही वार्षिक कत्य शास्त्रोक्त युक्ति पूर्वक सिद्ध होते हैं इसका विशेष विस्तार इनही तीनों महाशयांके लिखे ( अधिक मासकी गिनती निषेध सम्बन्धी पूर्वापरविरोधि ) लेखांकी आगे समीक्षा होगी वहां लिखने में आवेगा। ____ अब देखिये बड़े ही आश्चयकीवातहै कि श्रीतपगच्छके इतने विद्वान मुनीमंडली वगैरह महाशय उपरोक्त व्याख्याओंको हर वर्ष फ्यु षणाके व्याख्यानमें बांचते हैं इसलिये उपरोक्त पाठाको भी जानते हैं तथापि मिथ्या हठवादसे भोले जीवोंको कदाग्रहमें गेरने के लिये पौष अथवा आषाढ़ के अधिक होने से उसीकी गिनती पूरक जैन पंचांगानुसार प्राचीनकालमें आषाढ चौमासीसे बास दिने प्रावण सुदामें For Private And Personal Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १७ ) पर्युषणा होती थी परन्तु जैन पंचांगके अभाव से वर्तमानarer लौकिक पंचाङ्गानुसार अधिक नाम होने से उसीकी जितनी पूर्वक ५० दिने दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्र में पर्युषणा करने की पूर्वाचार्यों की मर्यादा है ऐसा उपरोक्त पाठासे खुलासा दिखता है तथापि उपरोक्त पाठार्थीका भावार्थ बदला करके मासवृद्धि के अभाव से ५० दिने भाद्रपदमें पर्युषणा कही है उमीकोही वर्तमानमें मानवृद्धि दो श्रावण होते भी ८० दिने जिनाशा विरुद्धका भय न करते हुए भाद्रपद में ठहरानेका वृधा आग्रह करते हैं सो क्या लाभ प्राप्त करेंगे । तथा उपरोक्त व्याख्याओंमें " अभिवर्द्धित वर्षे" इस शब्दते श्रीखरतरगच्छ के श्रीसमय सुंदरजी तथा श्रीतपगच्छके श्रीकुलमंडनसूरिजी श्रीधर्मसागरजी श्रीजय विजयजी श्रीविनयविजयजी इन सबी महाशयोंके लिखे वाक्यसे अधिक मासकी गिनती प्रत्यक्षपने सिद्ध है इसलिये अधिकमास की गिनती निषेध भी नहीं हो सकती है तथापि कोई निषेध करेगा तो उत्सूत्र भाषणरूप होनेसे श्री अनंत तीर्थंकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचा यकी और अपनेही गच्छ के पूर्वजोंकी आज्ञा उल्लंघनका दूषण लगेगा क्योंकि श्री अनंत तीर्थंकर गणधर पूर्वधरादि पूर्वा चाने तथा श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छादिके पूर्वजोंने अधिकमास के दिनोंकी गिनती पूर्वक तेरह मासोंका अभिवर्द्धितसंवत्सर कहा है इसका विस्तार आगे शास्त्रोंके पाठार्थी सहित तथा युक्ति पूर्वक लिखने में आवेगा और भी प्रोपागच्छ के श्रीब्रह्मर्षिजी कृत श्रीदशाश्रत स्कन्ध सूत्रकी वृत्तिके पृष्ठ ११२ मे १९५ तकका पर्युषणा सम्बन्धी पाठ यहां दिलाता हूं तथाच तत्पाठ : For Private And Personal Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " ( १८ ) तेणं कालेणं तेणं सम एणमित्यादि । व्याख्यातार्थः वासाान्ति आषाढ़चातुर्मासिक दिनादारभ्य सविंशति रात्रे मासे व्यतिक्रान्ते भगवान् " पज्जोसवेइति” पर्युषणामकार्षीत् । परिसामस्त्येन उषणं निवासः । इत्युक्तेशिष्यः प्रश्नयितुमाह सेकेणट्ठेणमित्यादि प्रश्नवाक्यं सुबोधं गुरुराह । जठणमित्यादि निर्ववाक्यं यतः णं प्राग्वत् परणमित्यादि अगारिणां गृहस्थानां, अगाराणि गृहाणिः, कडियाइंति कठयुक्तानि, उक्कंपियाई धवलितानि, उन्नाई तृणादिभिः, वित्ताइं लिप्तानि उणाद्यैः क्वचित् गुत्ताइंति पाठ स्तत्र गुप्तानि वृत्तिकरण द्वारपिधानादिभिः, घट्टाई - विषमभूमिभंजनात्, महालक्ष्णीकृतानि कचित्सम द्वाइंतिपाठ स्तत्र समन्तात् सृष्टानि मसणीकृतानि, संधूपियाति सौगन्ध्यापादनार्थं धूपनैर्वासितानि, खातो. दुगाई कृतप्रणाली रूपजलमार्गाणि खायनिद्रुमणाइं- निद्रुमणं खाडं गृहात्सलिलं येन निर्गच्छति, अप्पणीअट्ठाए आत्मार्थं स्वार्थं गृहस्यैः कृतानि परिकर्मितानि करोति, काण्डं करोतीत्यादि विविधपरिकम्मार्थत्वात् परिभूतानि तैः स्वयं परिभुज्यमानत्वात्, अतएव परिणामितानि अचित्तीकृतानि भवन्ति, ततः सविंशतिरात्रे मासे गते अभी अधिकरणदोषा न भवन्ति । यदि पुनः प्रथममेव साधवः स्थितास्म इति ब्रूयुस्तदा ते प्रव्रजितानामवस्थानेन सुभिक्षं सम्भाव्यं गृहिणस्तप्तायो गोलकल्पा दंताल क्षेत्रकर्षण, गृहच्छादनादीनि कुर्युः, तथा चाधिकरणदोषा अतः पञ्चाशद्दिनैः स्थिता स्म इति वाच्यं, गणहरावित्ति गणधरापि एवमेवाकार्षु, अज्जताए इति अद्यकालीमा आर्य्यतया व्रतस्थविरा इत्येके, अम्हं पित्ति अस्माकमप आचार्योपाध्याया, अम्हेवित्ति वयमपीत्यर्थः । अन्तरा > Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वियसै कप्पड इत्यादि अन्तरापि च अर्वागपि कल्पते युज्यते पर्यु वितं परं न कल्पते तां रजनी भाद्रपद शुक्लपञ्चमी उवायणा वित्तएति अतिक्रमितसिष निवासे इत्यागमिको धातुः पर्युषित वस्तुमिति सूत्रार्थः॥ अत्र अन्तरा वियसे कप्पइ इति कय. नात् पर्युषणा द्विधा सूचिता, गृहिज्ञाताजातभेदात् । तत्र गृहिणाम ज्ञाता यस्यां, वर्षायोग्य पीठफलकादौ प्राप्त यत्नेन कल्पोक्त-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव स्थापना क्रियते, सा आषाढ़ शुक्लपौर्णमास्यां, योग्यक्षेत्राभावेतु पञ्च पञ्च दिन वृद्धया यावद्वाद्रपदसितपञ्चम्यां साचैकादशसु पर्वतिथिष क्रियते। गृहिजाता तु यस्यां सांवत्सरिकातिचारालाचन, लुंचनं, पर्युषणा कल्पसूत्राकर्णनं, चैत्यपरिपाटी, अष्टम, सांवत्सरिकंप्रतिक्रमणं च क्रियते, यया च व्रतपर्याय वर्षाणि गरयन्ते सा नमस्स शुक्लपञ्चम्यां, एतावता यदा भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यां सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं कृतं ततः जईन्तु म कल्पते विहाँ, ततस्तदवधि विहर्तव्यं । अन्तरापिचैकादशसु पर्वतिथिष क्रियते निवासी नतु प्रतिक्रमणं । कैश्चिदुच्यते यत्र वासस्तत्रैव प्रतिक्रमणमपि हैद्यं,यदियौव वासस्तत्रैव प्रतिक्रमणंचेत्तर्वाषाढ़शुक्ल पञ्चदश्यामपि तत्कर्तव्यं न चैवं दृष्टमिष्टं वा, ततो नियत निवासएव वासायुक्त इति परमार्थः । अममेवा) श्रीसुधर्मखामिव्यासः प्रतिपादयति। श्रीसमवायांगे यथा समणे भगवं महावीरे वासाणं सवोसह राए मासे विक्वन्ते सत्तरिएहिराईदिएहिंसेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइत्ति । व्याख्यात समणे इत्यादि वर्षाणां चातुर्मासप्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविं. शतिदिवसाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशतिदिनेष्वतीते. वित्यर्थः । सप्तत्यां च रात्रि दिवसेष शेषेष संवत्सरप्रतिक्रम For Private And Personal Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( २० ) गरुप धम्मदिवसे भाद्रपद शुक्ल पञ्चम्यामित्यर्थः । वर्षाखावासी वर्षावासः वर्षावस्थानं 'पज्जोसवेइत्ति' परिवसति सर्वथा क. रोति पञ्चाशदिनेषु व्यतिक्रान्तेष तथाविध वसत्यभावादि कारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति, परं भाद्रपद शुक्लपञ्चमयां तु सक्षमूलादावपि निवसतोति हृद्यं । चन्द्र संवत्सरस्यैवायं नियमः नामिवर्द्धितस्येत्यादि । तथाहि नियुक्तिकारः-एत्थत पणगं पणगंकारणीयं जाव मवीसइमासा ॥ सुद्धदसमी ठियाणआसाढ़ीपुस्लिमो सरणं ॥१॥ इयसत्तरी जहमा असीइ णउई दसुत्तर सयंच॥ जइ वास मग्गसिरे दसरायातिणि उक्कोसा ॥२॥ काउण मासकप्पं तत्थेव ठियाण जवास मग्गसिरे सालंबणाणं छम्मासिता जेठोग्गहाहोइ ॥३॥ सुगमाश्चमा मवरमाद्यगाथा द्वयस्य चूर्णिः ॥ आसाढ़पुमिमाए ठियाण जति तण डगलादीणि गहियाणि पज्जोसवणाकप्यो ण कहितो तो सावणबहुल पञ्चमीए ध्वज्जोसवेंति। असति खेत्ते सोवणबहुलदसमीए । असति खेते सावणबहुलपसरसोए एवं पञ्च पञ्च उस्सारं तेणं जाव असतिखेते अवयसुद्धपञ्चमीए। अतापरेण ण वदृति अतिकमितुं आसाढ़पुसिमा तो आढ़त्तं मागंताणं जाव अवय जोगहस्स पञ्चमीए एत्थन्तरे जतिवासखेतं ण लटुं ताहे रुखखसहे? ठिता तोवि पज्जोसवेयब एतेसु पव्वेसु जहालंभे पज्जोसवेयवमिति अपव्वे ण वहति अत्र पूर्वोक्तानि एकादशपर्वाणि अन्यानि तु वसतिमाश्रित्य अपर्वाणि ज्ञेयानि संवत्सरप्रतिक्रमणं तु भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यामेवेति द्रव्य क्षेत्र काल भाव स्थापना तु सम्प्रत्यध्ययने दर्शितैवेति न पुनरुच्यते ततएवावसेय।। नवरं कल्पमाश्रित्य जघन्यता नभस्य सितपसम्यारारभ्य कार्तिकचातुर्मासंयावत् सप्ततिदिनमानं एतावता For Private And Personal Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १ ) बदा सप्तत्या अहोरात्रेण चातुर्मासिकंप्रतिक्रमणं विहितं तद. मन्तरं प्रत्यूषविहत्तव्यं कारणान्तराभावे। तत्सदावे तु मार्गशीर्षेणापि सह आषाढ़ मासेनापि च सह षण्मासा इति : यत् पुनरभिवर्द्धितवर्षे दिन विंशत्या पर्युषितव्यमिति, उच्यते तत्सिद्धान्त टिप्पनानुसारेण तत्र हि प्रायो युगमध्ये पोषो युगान्ते चाषाढ़एववर्द्धते तानि च नाधुना सम्यग ज्ञायन्ते अता लौकिकटिप्पनानुसारेण यो मासो यत्र वर्द्धते स तत्रैव गणयितव्यः नान्याकल्पनाकार्या दृष्टं परित्यज्याग्दृष्टकल्पनानसङ्गता आनाया ऽपरिज्ञानात्तु कल्पनापि न निश्चयितव्येति सांप्रतं तु कालकाचा-चरणाच्चतुर्थ्यामपि पर्युषणां विधति इत्यादि। देखिये ऊपरके पाठमें श्रीसमवायाङ्गजी यथा तवृत्ति और श्रीदशाश्रुतस्कन्धसत्रको नियुक्ति तथा उसीकी चर्णिके पाठोंके प्रमाण पूर्वक दिनांकी गिनतीसे आषाढ़ चौमासीसे ५० वें दिन मासवृद्धि के अभावसे चन्द्रसंवत्सरमें निश्चय निवास पूवक ज्ञात पर्युषणामें सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करनेका प्रगटपने खुलासे दिखाया है और योग्य क्षेत्रके अभावसे ५० वें दिनको रात्रिको भी उल्लंघन न करते हुए जंगलमें वृक्ष नीचे पर्युषणा करलेनेका भो खुलासा लिखाहै और चन्द्रसंवत्सरमें ५२ दिने पयु षणा करनेस कार्तिक तक स्वभावसेही 92 दिन रहते हैं सो जघन्यकालावग्रह कहा जाता है और प्राचीनकालमें जैन पंचाङ्गानुसार पौष वा आषाढकी वृद्धि होनेस अभिर्द्धित संवत्सरमे आषाढ़ चौमासीसे वीस दिने श्रावण सुदीमें ज्ञात पर्युषणा करने में आती थी तब भी पयुषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक स्वभावसेही For Private And Personal Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( २२ ) १०० दिन रहते थे इसलिये वर्तमानमें मास वृद्धि दो श्रावणादि होते भी पर्युषणाके पिछाड़ी 90 दिन रखनेका माग्रह करना सो अज्ञानता से प्रत्यक्ष अनुचित है और जैन पंचाङ्ग इस कालमें अच्छी तरहसे नहीं जाना जाता है इसलिये उसी के अभाव से लौकिक पंचाङ्गानुसार जिस महीने की जिस जगह वृद्धि होवे उसीकोही उसी जगह गिनना चाहिये परन्तु अन्य कल्पना नहीं करनी, अर्थात् जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्गानुसार पौष, आषाढ़ के सिवाय चैत्र, श्रावणादि मासों के वृद्धिकी गिनती निषेध करनेके लिये गच्छाग्रहसे अपनी मति कल्पना करके अन्यान्य कल्पनायें भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि लौकिक पंचाङ्कानुसार चैत्र, श्रावणादि मासेोंकी वृद्धि होनेका प्रत्यक्ष प्रमाणको छोड़ करके पौष आषाढ़ की वृद्धि होनेवाला जैन पंचाङ्ग वर्तमान में प्रचलित नहीं होते भी उसी सम्बन्धी मास वृद्धिका अप्रत्यक्ष प्रमाणको ग्रहण करनेका आग्रह करना मो भी योग्य नहीं है क्योंकि जैन पंचाङ्गके अभाव से लौकिक पंचाङ्गानुसार वर्ताव करते भी उसी मुजब मास वृद्धिकी गिनती नहीं करना एसा कोई भी शास्त्रका प्रमाण नहीं होनेसे गच्छाग्रहकी युक्ति रहित कल्पना भी मान्य नहीं हो सकती है और आषाढ़ चौमासोसे ५० दिने दूसरे श्रावण में पर्युषणा करना सो तो शास्त्रोक्त प्रमाण पूर्वक तथा युक्ति सहित प्रसिद्ध न्यायकी बात है । और अब प्राचीनकाल में जैन पंचाङ्गानुसार पर्युषणा की मर्यादावाला एक पाठ वांचक वर्गको ज्ञात होनेके लिये दिखाता हूं श्रीचैत्रवालगच्छके श्रीजगचंद्र सूरिजीकी परंपरामें For Private And Personal Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीतपगच्छके श्रीक्षेमकीर्ति सूरिजी कृत श्रीवहत्कल्पसूत्रकी इत्तिका तीसरा खरडका तीसरा उद्देशाके पष्ठ ५० से ५९ तकका पाठ नीचे मुजब जानो, यथा अथ यस्मिन् काले वर्षावास स्थातव्यं यावन्तंवा कालं येन विधिना तदेतदुपदर्शयति । आसाढ़पुणिमाए वासावास होति अतिगमणं मग्गसिरबहुल दसमीर जावएकमि खेतमि ॥ आषाढ़पूर्णिमायां वर्षावास प्रयोग्य क्षेत्रे गमनं प्रवेशः कर्तव्यं भवति तत्र चापवादता मार्गशीर्ष बहुल दशमी यावदेकत्र क्षेत्रे वस्तव्यं एतच्च चिरिणाम वर्षादिकं वक्ष्यमाणं कारणमङ्गीकृत्योक्तं,उत्सर्गतस्तु कार्तिकपूर्णिमायां निर्गन्तव्यं इदमेव भावयति ॥ बाहिहिया वसहिं खेत्तंगाहितु वास पा. अगं कप्पंकथेतुढवणा सावणबहुलस्त पञ्चाहे ॥ यत्राषाढमासकल्पं कृतस्तत्रान्यत्र वा प्रत्यासनग्रामेस्थिता वर्षावासयोग्य. क्षेत्रेषमासाधुसामाचारी ग्राहयन्ति,तेच वृषमा वर्षा प्रयोग्य संस्तारकंतृण हुगल क्षार मम्मकादिकमुपधिं गृह्णन्ति, तत मा. बाढ़पूर्मि मायां प्रविष्टाः प्रतिपदमारभ्य पञ्चभिरहाभिः पर्युषणा कल्पं कथयित्वा श्रावण बहुल पञ्चम्यां वर्षाकाले सामाचार्याःस्थापनां कुर्वन्ति पर्युषयन्तीत्यर्थ ॥ इत्थय अणभिग्गहिय वीसतिरायं सवीसह मासं तेण परमभिग्गहियं गाहिणायं कत्तिओजाव॥ अत्रेत्ति श्रावण बहुल पञ्चम्यादौ आत्मनापर्यं. षितेऽपि अनभिग्रहीतमनवधारितं गृहस्थानां पुरतः कत्र्तव्यं किमुक्तं भवति यदि गृहस्थाः पृच्छेयुरार्यायूयमत्र वर्षाकाले स्थितावा न वेति एवं पृष्ट सति स्थितावयमत्रेति सावधारणं म कर्तव्यं, किन्तु तत्संदिग्धं, यथा माद्यापि निश्चितः स्थिता भस्थिता चेति, इत्यमनभिग्रहीतं कियन्तं काळंवतव्यं यते For Private And Personal Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( २४ ) यद्यभिवर्द्धितो सौ संवत्सरन्तता विंशतिरात्रि दिनानि,अय चान्द्रोसौ ततः स विंशतिरात्रं मासं यावदनभिगृहीतं कतव्यं, तेण विभक्ति व्यत्यया त्ततः परं विंशति रात्र मासा चोर्ध्वमभिगृहीतं निश्चितं कर्तव्यं गृहिज्ञातच गृहस्थानां पच्छता ज्ञापना कर्तव्या, यथा वयमत्र वर्षाकालेस्थिता एतच्च गृहिज्ञातं कात्तिकमासं यावत् कर्तव्यं किं पुनः कारणम् कियति काले व्यतीत एव गृहिज्ञातं क्रियते नार्वागित्यत्रोच्यते ॥ असिवाइ कारणेहिं अहवा वासं ण सुटु आरद्धं अभिवढियंमि बीसा इयरेसु सवीसइ मासो ॥ कदाचित्तत्. क्षेत्रे अशिवं भवेत् आदिशब्दात् राजदुष्टादिकं वा भयमुपजायेत एवमादिभिः कारणे, अथवा तत्र क्षेत्रे न सुष्टु वर्ष वर्षितुमारब्धं येन धान्यनिष्पत्तिरुपजायते ततश्च प्रथममेव स्थिता वयमित्युक्ते पश्चादशिवादि कारणे समुपस्थिते यदि गच्छन्ति ततो लोको ब्रूयात् अहो एते आत्मानं सर्व पुत्र तयाख्यापयन्ति परं न किमपि जानन्ति मृषावाद वा भाषन्ते स्थिता स्म इति भणित्वा सम्प्रति गच्छन्तीति। अथाशिवादि कारणेष सजातेष अपि न गच्छति तत आज्ञाऽतिक्रमणादि दोषा अपिच स्थिता स्म इत्युक्ते गृहस्थाश्चिन्तयेयुरवश्यं वर्ष भविष्यति येनेति वर्षा रात्रमत्र स्थिताः ततो धान्यंविक्रीणीयुः गृहं वाच्छादयेयुः इलादीनि वा स्थापयेयुः यतएव मता अभिवर्द्धितवर्षे विंशतिराने गते इतरेषु च त्रिषु चन्द्रसम्वत्सरेष सविंशतिरात्रे मासे गते गृहितातं कुर्वन्ति ॥ एत्यस पणगं पणगं कारणीयं, जाव सबीसइ मासो, बह इसमी ठियाण,आसाढीपुसिमोसरणं ॥ अत्रेति आषादपूर्णि. मायां स्थिताः पार पावदेव संस्तारकं गलादि ग्रहन्ति For Private And Personal Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org D ( २५ ) रात्रौ च पर्युषणाकल्पं कथयन्ति ततः श्रावण बहुलपचम्यां पर्युषण कुर्वन्ति, अथाषाढ़ पूर्णिमायां क्षेत्रं न प्राप्तास्तत एवमेव पञ्चरात्रं वर्षावास प्रयोग्यमुपधिं गृहीत्वा पर्युषणा करपं 'च कथयित्वा श्रावण बहुलदशभ्यां पर्युषणयन्ति एवं कारणेम रात्रि दिवानां पंचकं पंचकं वर्द्धयता तावत्स्येयं यावत् सविंशति रात्रो मासः पूर्णः । अथवा ते आषाढशुद्ध दशम्यामेव वर्षाक्षेत्रे स्थितास्ततस्तेषां पंचरात्रेण डगलादौ गृहीते पर्यषणा कल्पे च कथिते आषाढ़ पूर्णिमायां समवसरणं पर्युषणं भवति एष उत्सर्गः ॥ अत द्ध कालं पर्युषणमनुतिष्ठतां सर्वोऽप्यपवादः । अपवादापि सविंशतिरात्रात् मासात् परता नातिक्रमयितुं कल्पते यद्येतावत्कालेऽपि गते वर्षायोग्यक्षेत्रं न लभ्यते ततो वृक्षमूलेऽपि पर्युषितव्यं ॥ अथ पंचक परिहा णिमधिकृत्य ज्येष्टकल्पावग्रहप्रमाणमाह । इयसत्तरी जहसा असोइ उई दसुत्तरसयंच जइवास मग्गसिरे दसराया तिथि उक्कोसा ॥ इयइति उपदर्शने ये किलाषाढ़ पूर्णिमायाः सविंशतिरात्रे मासे गते पर्युषयन्ति तेषां सप्ततिदिवसानि जघन्य वर्षा वासावग्रहो भवति, भाद्रपद शुद्ध पंचम्यानन्तरं कार्तिक पूर्णिमायां सप्ततिदिनसद्भावात् । एवं भाद्रपदबहुलदशम्यां पर्युषयन्ति तेषामशीतिर्दिवसा मध्यमा वर्षाकालवग्रहः । श्रावण पूर्णिमायां नवतिर्दिवसाः । श्रावण बहुउदशम्यां दशोत्तरशतं दिवसा मध्यमएवकालाग्रही भ वन्ति ॥ समवायांगेनुक्रमपि इत्थं वक्तव्यं । भाद्रपदामावास्यायां पर्युषणे क्रियमाणे पंचसप्ततिदिवसाः । भाद्रपदबहुलपंचम्यां पंचाशीति । श्रावणशुद्धदशम्यां पंचनवतिः । श्रावणामावस्यां पंचोत्तरशतं । श्रावण बहुलपंचस्थां पंचदशोत्तरशतं । आषाढ़ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal · Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( २६ ) पूर्णिमायां तु पर्युषिते विंशत्युत्तरं दिवसशतं भवति ॥ एव मेतेषां प्रकाराणां वर्षावासानामेक क्षेत्रे स्थित्वाकार्त्तिक चातुर्मासिक प्रतिपदि निर्गन्तव्यं । अथ मार्गशीर्षे वर्षा भवति कमलाकुलाः पन्थानः ततोअपवादेनैक दशरात्रं भवतीति । अथ तथापि वर्षा नोपरते ततो द्वितीय दशरात्रं तथा सति अथैव मपि वर्षा न तिष्ठति ततस्तृतीयमपि दशरात्रमा सेवेत एव त्रीणि दशरात्राणि उत्कर्षतस्तत्र क्षेत्रे आसितव्यं मार्गशिर पौर्णमासीं यावदित्यर्थः ॥ तत उद्ध यद्यपि कमाकुला पंथानो वर्ष वा गोढ़मनुपरतं वर्षति यद्यपि च पानीयैः पूर्य्यमाणैस्तदानीं गम्यते तथापि अवश्यं निर्गन्तव्यं एवं पञ्चमासिको ज्येष्टकल्पावग्रहः सम्पन्नः ॥ अथ तमेव पारमासिकमाह । काउण मासकम्पं तत्थेव ठियाण जंइवास मग्गसिरे सालंबणाणं छम्मासिओ जेो ग्गहो होइति । यस्मिन् क्षेत्रे आषाढमास कल्पकृतः तदन्यद्वर्षावासयोग्य तथाविधं क्षेत्रं न प्राप्तं ततो मासकल्पं कृत्वा तत्रव वर्षावासंस्थितानां ततञ्चातुर्मासानन्तरं कई मवर्षादिभिः कारणैरतीते मार्गशीर्ष मासे निर्गतानां पारमासिको ज्येष्टकल्पावग्रहो भवति एकक्षेत्र अवस्थानमित्यर्थः ॥ · देखिये ऊपर के पाठ में अधिकरण दोषका निमित्तकारण । और कारण योगे गमन करना पड़े तो साधुधर्मकी अवहेलना न होनेके लिये वर्षायेोग्य उपधिको प्राप्ति होने से योग्यक्षेत्रमें अज्ञात याने गृहस्थो लोगों की नहीं जानी हुई अनिश्चित पर्युषणा स्थापन करे वहां उसो रात्रिको पर्युषणा कल्प कहे ( श्री कल्पसूत्रका पठन करे ) और योग्यक्षेत्रके अभाव से पांच पांच दिनकी वृद्धि करते चन्द्रसंवत्सर में ५० दिन तक तथा अभिवर्द्धित संवत्सर में २० दिनतक अज्ञात पर्युषणा करे परन्तु For Private And Personal Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( २० ) २० दिने तथा ५० दिने ज्ञात याने गृहस्थी लोगों की जानी हुई प्रसिद्ध पर्युषणा करे सेा यावत् कार्त्तिकतक उसी क्षेत्र में ठहरे और जघन्यसे 90 दिन, तथा मध्यम से १२० दिन और उत्कृष्ट १८० दिनका कालावग्रह होता है । और भी पर्युषणा सम्वन्धी भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, समाचारी, तथा प्रकरणादि ग्रन्थोंके अनेक पाठ मौजूद हैं परन्तु विस्तार के कारण से यहां नहीं लिखता हूं । तथापि श्रीदशाश्रुत स्कन्ध सत्रकी चूणिं, श्रीनिशीथ चूर्णि, श्री बृहत्कल्प चूर्णि वगैरह कितनेही शास्त्रों के पाठ आगेप्रशांगोंपात लिखने में भी आवेंगे । अब मेरा सत्यग्रहणाभिलाषी श्रीजिनाज्ञा इच्छुक सज्जन पुरुषोंको इतनाही कहना है कि वर्त्तमानकाल में जैन पञ्चाङ्गके अभाव से लौकिक पञ्चाङ्गानुसार जिस मासकी वृद्धि होवे उसीके ३० दिनोंमें प्रत्यक्ष पने सांसारिक तथा धार्मिक व्यवहार सब दुनियांमें करने में आता है तथा समय, आवलिका, मुहुर्त्तादि शास्त्रोक्त कालके व्यतीतकी व्याख्यानुसार और सूर्योदयसे तिथि वारोंके परावर्तन करके दिनोंकी गिनती मिश्चय के साथ प्रत्यक्ष सिद्ध है तथापि उसीकी गिनती निषेध करते हैं सेा निष्केवल हठवादने संसारवृद्धिकारक उत्सूत्र भाषण रूप बाल जीवोंको मिथ्यात्वमें गेरमेके लिये वृथा प्रयास करते हैं इसलिये अधिक मासके दिनांकी गिनती पूर्वक उपरोक्त व्याख्याओंके अनुसार आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे श्रावण में वा प्रथम भाद्रपद में पर्युषणा करना सो श्रीजिना - ज्ञाका आराधनपना है। इसलिये मैं प्रतिज्ञा पूर्वक आत्मार्थियोंको कहता हूं कि वर्तमानिक श्रीतपगच्छके मुनिमuset वगैरह विद्वान् महाशय पक्षपात रहित हो करके विवेक बुद्धिसे उपरोक्त श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्याओंका तात्प यर्थको विचारेंगे तो मासवृद्धि होनेसे अपने पूर्वजों की For Private And Personal Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ८) मर्यादाके प्रतिकूल तथा पञ्चाङ्गीके प्रमाणों के भी विरुद्ध होकरके गच्छाग्रह के पक्षपातसे दी श्रावण होते भी प्रत्यक्षपणे ८० दिने भाद्रपद में पर्युषणा करने का वृथा आग्रह कदापि नहीं करेंगे। और उपरोक्त शास्त्रानुसार तथा युक्ति पूर्वक ५० दिने दूसरे प्रावणमें वा प्रथम भाद्रपद में पर्युषणा करनेवाले श्रीजिनाजाके आराधक पुरुषों पर द्वेष बुद्धिसे वृथा उत्सूत्र रूप मिथ्याशाषणसे आज्ञा अङ्गका दूषण उगाकर बालजीवोंको भ्रममें गेरनेका साहस भी कदापि नहीं करेंगे। _ और फिर अपनी चातुराईसे आप निर्दूषण बननेके लिये जैन शास्त्रों में अधिक मासको गिनतीमें नहीं गिना है ऐसा उत्सूत्र भाषणरूप कहके अज्ञजीवोंके आगे मिथ्यात्व फैलाते हैं उसीका निवारण करने के लिये और भव्य जीवोंको निःसन्देह होनेके लिये इसजगह अधिक मासकी गिनतीके प्र. माण करने सम्बन्धी पञ्चाङ्गीके अनेक प्रमाण यहां दिखाता हूं। श्रीसुधर्मस्वामीजी कृत श्री चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र में १, तथा श्रीसूर्य प्रज्ञप्तिमूत्रमें २, औरसंवत् १३० के अनुमान श्रीमलय गिरिजी कृत उपरोक्त दोनों सूत्रोंकी दोनों वृत्तियोंमें ४, श्रीभद्रबाहुस्वामिजीकृत श्रीदशवैकालिकसूत्रके चूलिकाकी नियुक्ति में ५, तथा श्रीहरिभद्रसूरिजी कृत सत् नियुक्तिकी वृहत्तिमें ६, श्रीनिशीथसूत्रके लघुभाष्यमें, बहद्भाष्य में 9, चूर्णिमें ८ श्रीबहत्कल्पके लघुभाष्य में, सहदायमेंट, चूर्णिमें १० और वृत्ति११ श्रीसमवायांगजी में १२, तथा तदवृत्तिमें १३ औरश्रीस्थानांगजीसूत्रकी वृत्तिमें १४, श्रीने मीचन्द्रसरिजी कृत श्रीप्रवचनसारोद्वार में १५, श्रीसिद्धसेनसरिजी कृत तत्सूत्रकी वहत्ति में १६, श्रीउदयसागरजी कृत तत्सत्रकी लघुपत्तिमें १७, श्रीजिनपतिसरिजीकृत श्रीसमा. चारी ग्रन्थ में १८,श्रीसंघपटक लघवृत्तिमें, यहत्ति में १९ श्रीजि नप्रभसरिजी कृत श्री विधिप्रपासमाचारीमें २० और श्रीसमय For Private And Personal Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २ ] सुन्दरजी कृत श्रीसमाचारी शतकमें २१ और श्रीपाश्चन्द्र गच्छके श्रीब्रह्मर्षिजी कृत श्रीदशाश्रुतम्कन्ध सूत्रकी वृत्तिमें २२ इत्यादि अनेक शास्त्रों में अधिकमासको गिनतीमें प्रमाण किया हैं इसलिये जिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी पुरुष अधिकमासकी गिनती कदापि निषेध नहीं कर सकते हैं इस जगह भव्य जीवोंको निःसन्देह होनेके वास्ते थोड़ेसे अधिकमासकी गिनतीके विषयवाले पाठ लिख दिखाता हुँ श्रीतपगच्छके पूर्वज कहलाते श्रीनेमिचन्द्र सूरिजी महा. राज कृत श्रीप्रवचनसारोद्धार मूलसूत्र गुजराती भाषा सहित मुंबईवाले प्रावक भीमसिंह माणककी तरफसें श्रीप्रकरण रत्नाकरके तीसरे भागमें छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके पृष्ठ ३६४ में ३६५ तक नीचे मुजब भाषा सहित पाठ जानो-. __ अवतरणः-मासाण पञ्चभेयत्ति एटले मासना पांचभेदोन एकसोने एकतालीसमुंद्वार कहे छे। मूलः-मासाय पंचसुत्ते, नस्कत्ते चंदीओय रिउमासो ॥ आइ चोविये अवरो, भिवढिओ तहय पंवमओ ॥४॥ ___अर्थः-सूत्र जे श्रीअरिहंत परमात्मानं प्रवचन तेने विषे मास पांच कह्या छ। तेमा प्रथमजे नक्षत्रनी गणनाये थाय तेनी रीतकहे छेः-चंद्रमाचारके० संचरतो जेटले काले अभिजितादिकथी विचरतो उतराषाढ़ा नक्षत्र सुधी जाय तेने प्रथम नक्षत्र मास कहिये। बीजो चंदिओयके चंद्रथ कीथाय ते अंधारा पड़वाथकी आरंभीने अजवाली पूर्णिमा सुधी चंद्रमास केहेवाये । त्रीजोरिओके० ऋतु ते लोक रूढ़िये साठ अहोरात्रीये ऋतु कहिये। तेनो अईमास एटले त्रीस अहो. For Private And Personal Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३० ] रात्री प्रमाणनो ते ऋतुमास जाणवो। चोथो, आदित्य जे सूर्य तेहनं अयन एकगोने ज्याशी दिवप्तन होय । तेनो छटोभाग ते आदित्य मास कहिये। पांचमो अभिवर्द्धित ते तेर चंद्रमासे थाय। बार चंद्रमासे संवत्सर जांणवो परन्तु जेवारे एक वधे तेवारे तेने अभिवर्द्धित मास कहिये एनंज प्रमाण विशेष देखाड़े छे। मूल -अहरत्तसित्तवीस तिसत्त सत्तद्वि भाग नरकतो॥ चंदोअ उणत्तीस बसविभागाय बत्तीसं ॥०॥ अर्थः-ततावीत अहोरात्री अने एक अहोरात्रीना शड़सठ भाग करिये तेवा एकवीस भागे अधिक एक नक्षत्र भासथाय । अने मासना उगणत्रीस अहोरात्री तेना उपर एक अहोरात्रिना बासठभाग करिये एवा बत्रीस भागे अधिक एक चंद्रमास थाय । मूलः-उउभासो तीसदियो, आइच्चोवि तीस होइ अच। अभिवडिओअ मासो चउवीस सएण छेएण ॥९०६॥ अर्थः-ऋतुमास ते संपूर्ण त्रीरुदिवस प्रमाणनो जाणवो तथा आदित्यमास ते त्रीसदिवस अने उपर एक दिवसना साठिया जीसभाग करिये तेटला प्रमाणनो जांणवो। अने अभिवहितमाप्त ते चउवीसे अधिक एकशतछेद एटले भाग तेज देखाड़े छे ॥ ९०६ ॥ मूलः-भागाणिगवीससयं, तीसाऐगाहिया दिणाणं व। एएजह निप्पत्ति, लहंति समयाऊतहनेयं ॥ ९०७ ॥ अर्थः-ते पूर्वोक्त एकसोने चोवीसभाग एक अहोरात्रना करिये तेवा एकसो एकवीसभाग अने एकदिवसे अधिक ग्रीस एटले एकत्रीस दिवस अर्थात् एकत्रीस दिवसने एक अहोरात्रीना एकसो चोवीसभाग मांहेला For Private And Personal Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१ ] एकतोने एकवीसभाग उपर एटेलुं अभिवड़ित मासनं प्रमाण जाणवं एरीतेए पांचमानी जेम निःप्पति एडले प्राप्तिथाय छे तेसमयके सिद्धान्त थकी जांणवी इति गाथाचतुष्टयार्थ ॥ ९०७ ॥ अवतरणः--वरिमाणपंचशेयत्ति एटले वर्षना पांचभेदन एकसोने बेतालीसमु द्वार कहे छे । मूलः-संवछराउ पंबउ "चंदे चंदे भिवढिए चेव । चंदे भिवड्ढएतह बासद्वि मासे हि जुगमाणं ॥८॥ अर्थः-चंद्रादिक संवत्पर पांचकह्याछे तेमा पूर्वोक्त चंद्रमासे जे नीपन्योते चंद्रसंवत्सर जांणवो। तेनु प्रमाण त्रणसे चोपनदिवस अने एक दिवसना बाप्तठभाग करिये तेवा बारभाग उपर जाणवा तेमज बीजा चंद्रसंवत्सरनुं पण मानजाणवू । हवे चंद्रसंवत्तर थी एक अधिकमास थाय ऐटले तेने अभिवहित संवत्सरजांणवो तेनु प्रमाण त्रणसे ज्यासीदिवत अने एक दिवसना बासठभाग करी तेमांना चुमालीसभाग . एवो एक अभिवति संवत्प्तर जाणवो एकत्रीश अहोरात्र अने एकदिवसना एकसो चोवीसभाग करिये तेमाहिला एकसो एकवीसभाग उपर ए अभिवर्द्धित मासन मान जाणवू । हवे पूर्वोक्त माने अभिवहित संवत्सर बे अने चंद्रसंवत्सर त्रण एवा पांच संवत्सरे एक युगमान थाय छे ते बासठचंद्रमास प्रमाणक छ । सारांश एकयुगमा त्रण चांद्रसंवत्सर ते चांद्रसंवत्सरना प्रत्येक बारमास मली छत्रीस चांद्रमास अने बे अभिवति संवत्सर तेमां एक अभिवर्द्धित संवत्सरना तेरे चांद्रमास ए प्रमाणे बीजा वर्षना पण तेरे मलो एकंदर छत्रीसमास अने पूर्वोक्त चांद्रमास छत्रीस मलीने बासठ चांद्रमासे एक युगनुं मानथाय ॥ ८ ॥ इति For Private And Personal Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२ देखिये उपर में श्रीतपगच्छ के पूर्वज श्रीनेमिचंद्र सूरिजीनें अधिक मातकी गिनती मंजूर करके तेरह चंद्रनाससे अभिवर्द्धित संवत्सर कहा और एकयु के बासठ (६२) मासकी गिनती दिखाइ अधिक मासके दिनोंकी भी गिनती खुलासे लिखी हैं इस लिये वर्तमान में श्रीतपगच्छत्राले महाशयों को अपने पूर्वजके प्रतिकुल होकर अधिकमासकी गिनती निषेध करनी नही चाहिये किन्तु अधिकमासकी गिनती अवश्यमेव मंजूर करनी योग्य हैं । औरसुनिये —— श्रीमलयगिरिजी कृत श्रीचंद्र प्रज्ञप्ति सूत्र वृत्तिके पृष्ठ से १०० तक तत्पाठ—— संवत युगपूरक: संवत्सरः पंचविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा । चंद्रश्च द्रोऽभिवर्द्धितश्चैव उक्तंव चंदो चंदो अभिवढितोय, चंदो अभिवढितो चेव । पंवसहियं जुगमिणं, दि ते लोक्कसीहिं ॥ १ ॥ पढन विझ्याउ चंदातश्यं अभिबढियं वियाणाहिं । चंदे चेव चढत्य पंचममभिवद्वियं जाण ॥ २ ॥ तत्र द्वादशपूर्णमासी परावर्त्ता यावता कालेन परिसमाप्ति मुपयाति तावत्काल विशेषश्च ंद्र तं वत्सरः । उक्तंव | पुन्निन परियट्टा पुण बारस मासे हवइ चंदो | एकश्च पूर्णमासी परावर्त्त एकश्च द्रोमासस्तस्मिंश्च चंदे नासैऽहोरात्र परिमाण विंतायामेकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वाविंशच्च द्वाषष्टि भाग अहोरात्रस्य एतत् द्वादशभिर्गुण्यते जातानि श्रोणि शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि रात्रिदिवानां द्वादशच द्वाषष्टिभागा रात्रिदिवतस्य एवं परिमाणश्च द्रः संवत्तरः यस्मिन् संवत्सरे अधिकमास सम्भवेन त्रयोदश चंद्रस्य माता भवंति सोऽभिवर्द्धित संवत्सरः ॥ उक्तंव ॥ तेरसय चंद्रमासा तथा For Private And Personal Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५ [ ३३ ] वासो अभिवढिओय नायो । एकस्मिन् चंद्रमासे अहोरात्रा एकोनत्रिंशद् भवन्ति द्वात्रिंशच्व द्वाषष्टिभागस्य अहो - रात्रस्य एतच्चानन्तरं चोक्तं तत एष राशिस्त्रयोदशभिर्गुणितो जातानि त्रीणि अहोरात्रशतानि त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वा रिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य एतावद होरात्रप्रमाणोऽभिवर्जितसंवत्सर उपजायते कथमधिकमास सम्भवो येनाभिवर्द्धित संवत्सर उपजायते कियता वा कालेन सम्भवतीति उच्यते इह युगं चंद्राऽभवतिरूप पञ्चसं वत्सरात्मकं सूर्य्यस वत्सराप्रेक्षया परिभाव्यमान मन्य नातिरिक्तानि पञ्चवर्षाणि भवन्ति सूर्य्यमास साई त्रिंशदहोराणि प्रमाण चंद्रमास एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिनस्य ततो गणितपरिभावनया सूर्य्यसंवत्सर सत्क त्रिंशन्मासातिक्रमे एकचांद्रमासोऽधिको लभ्यते तथाच पूर्वाचार्य्यप्रदर्शितेयं करण गाथा ॥ चंदस्स जो विसेसो आइछ्चस्स य ह विज्ज मासस्स तीसह गुणिओ संतो हवइ हु अहिमासओ एक्को ॥१॥ अस्याऽक्षरगमनिका आदित्यस्य आदित्य संवत्सरः सम्बन्धिनो मासस्य मध्यात् चंद्रस्य चंद्रमासस्य यो भवति विश्लेष इह विश्लेष कृते सति यदवशिष्यते तदुपचारात् विश्लेषः स त्रिंशता गुण्यते गणितः सन् भवत्येोऽधिकमासः तत्र सूर्य्यमा सपरिमाणात् सार्द्ध त्रिंशदहोरात्ररूपात् । चन्द्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिनस्येवं रूप शोध्यते तत स्थितं पश्चाद्दिनमेकमेकेन द्वाषष्टिभागेन न्यूनं तच्च दिनं त्रिंशता गुण्यते जातानि त्रिंशद्दिनानि एकश्च द्वाषष्टिभाग त्रिंशता गुणितो जातास्त्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः ते त्रिंशद्विनेभ्यः शोध्यन्ते ततस्थितानि शेषाणि एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिं ܟ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शश्च द्वाषष्टिभागादिनस्य एतावत्परिमाणश्चन्द्रमास इति भवति सूर्य्यसंवत्सर सत्क त्रिशन्मासातिक्रमे एकोऽधिकमासो युगे च सूर्यमासाः षष्टिस्तो भूयोऽपि सर्य सम्वत्सरः सत्क त्रिंशन्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति । उक्तंच सट्ठीये अइयाए हवइ हु अहिमासगो जुगई मि बावीसे पवसए हवइ हु बीओ जुगंतमि ॥१॥ अस्यापि अक्षरगमनिका एकस्मिन् युगे अनन्तरोदित स्वरूपे पर्वणां पक्षाणां षष्टौ अतीताया षष्टिसंख्य षु पक्षेषु अतिक्रान्तेषु इत्यर्थः। एतस्मिन्नवसरे युगाई युगाईप्रमाणे एकोऽधिकोमा सो भवति द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वात्रिंशत्यधिके पर्वशते अतिक्रान्त युगस्यान्त युगपर्यवसाने भवति तेन युगमध्ये तृतीयसंवत्सरे अधिकमासः पञ्चमे चेति द्वौ युगे अभिवतिसंवत्सरी संप्रति युगे सर्वसंख्यया यावन्ति पर्वाणि भवन्ति तावन्ति निदिक्षः प्रतिवर्ष पर्वसंख्यांमाह । ता पढमस्सण मित्यादि ता इति ता युगे प्रथमस्य णमिति वाक्यालंकृतौ चन्द्रस्य संवत्सरस्थ चतुर्विंशतिपर्वाणि प्रजातानि द्वादशमासात्मको हि चान्द्रः संवत्सरः एकैकस्मिंश्च मासे द्वे वे पर्वणि ततः सर्व संख्यया चन्द्रमवत्सरे चतुर्विंशतिः पर्वाणि द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति अभिवतिसंवत्सरस्य षडुर्विंशतिः पर्वाणि तस्य त्रयोदशमासात्मकत्वात् चतुर्थस्य चान्द्रसवत्प्तरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि पञ्चमस्याभिवड़ित संवत्प्तरस्य षड़ विंशतिः पर्वाणि । कारणमनन्तरभेवोक्तं तत एवमेवोक्तेनैव प्रकारेण सपुवा वरेणंति पूर्वापर गणितमिलनेन पञ्चसांवत्सरिके युगे चतुर्विंशत्यधिकं पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकद्भिर्मया चेति । For Private And Personal Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५ ] और भी इन महाराज कृत श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति सूत्रा वृत्तिके पृष्ठ १११ से ११२ तक तत्पाठ युगसंवत्सरेणमित्यादि। ता युगसंवत्सरो युगपूरकः संवत्सरपंधविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा। चंद्रश्चांद्रोऽभिवद्धि तश्चांद्रोऽभिवर्द्धितश्चैव ॥ उक्तं व ॥ चंदो चंदो अभिवढिओय चंदोभिवडिओ चेव पंचसहियं युगमिणं दिढते लोक दंसीहि ॥ १॥ पढम बिइयाउ चंदा तइयं अभिवढि वियाणा हि चंदेचेव चउत्य पंचममभिवढियं जाण ॥२॥ तत्र द्वादशपौर्णमासी परावर्ताया यावता कालेन परिसनाप्तिमुपयांति तावत् कालविशेषश्चन्द्र संवत्सरः ॥ उक्तंच ॥ पुणिम परियहा पुण बारसभाले हवइ चंदो ॥ एकश्च पौर्णमाती परावर्त एकश्चद्रमात स्तस्मिं चांद्र मासे रात्रि दिवसपरिमाणचिन्तायां एकोनत्रिंशदहोरात्रा द्वात्रिंशत्र द्वाषष्टिभागा रात्रि दिवसस्य एतद्द्वादशभिर्गुण्यते जातानि त्रीणि शतानि चतुःपञ्चाशदधिकामि रात्रि दिवानां द्वादश च द्वाषष्टिभागां रात्रि दिवसस्य एवं परिमाणश्चान्द्रः संवत्सरः। तथा यस्मिन् संवत्सरे अधिकमास सम्भवेत् त्रयोदशचन्द्रमासा भवन्ति सोभिवर्द्धितसंवत्सरः ॥ उक्तं व ॥ तेरलय चंदमासा वासो अभिवढिओय नायबो॥ एकस्मिं चंद्रमासै अहोरात्रा एकोनत्रिंशद्भवन्ति द्वात्रिंशश्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य एतच्चानन्तरमेवोक्तं। तत एष राशिस्त्रयोदशभिर्गुण्यते जातानि त्रीणि अहोरात्रशतानियशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य एतावदहोरात्र प्रमाणोऽभिवद्धि तसंवत्सर उपजायते कथमधिकमाससम्भवो येनाभिवद्धितसंवत्सर उपजायते कियता वा कालेन सम्भवतीति उच्यते । इह युगं For Private And Personal Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चन्द्राभिवद्धितरूप पञ्चसंवत्सरात्मकं सूर्यसंवत्सरापेक्षया परि भाव्यमान मन्यूनातिरिक्तानि पंचवर्षाणि भवन्ति सूर्यमासश्च सार्वत्रिंशदहोरात्रिप्रमाण चन्द्रमास एकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशच्च द्वाषष्टिभागा दिनस्य ततो गणितसंभावनया सूर्यसंवत्सर सत्क त्रिंशन्मासातिक्रमे एकश्चन्द्रमासोऽधिको लभ्यते। स च यथा लभ्यते तथा पूर्वा वायंप्रदर्शिलेयं करणं गाथा ॥ चंदस्स जो विसेसो आइच्चस्सइ हविज्ज मासस्त तीसइ गुणिओ संतो हवइ हु अहि मासगो एक्को॥१॥अस्याक्षरगमनिका आदित्यस्य आदित्यसंवत्सरसम्बन्धिनो मासस्य मध्यात् चंद्रस्य चंद्रमासस्य यो भवति विश्लेष इह विश्लेष कृते सति यदवशिष्यते तदप्यु पचाराद्विश्लेषः स त्रिशता गुण्यते गुणितः सन् भवत्येकोऽधिकमासः तत्र सूर्यमाप्तपरिमाणात् साईत्रिंशदहोरात्ररूपं चंद्रमासपरिमाणमेकोनत्रिंशद्दिनानि द्वात्रिंशश्च द्वाषष्टिभागा दिनस्येत्येवं रूप शोध्यते ततः स्थितं पश्चादिनमेकमेकेन द्वाषष्टिभागेन न्यूनं तच्च दिनं त्रिशता गुण्यते जातानि शिद्दिनानि एकश्च द्वाषष्टिभाग त्रिंशता गुणितो जातास्त्रिंशद्वाषष्टिभागास्त त्रिंशदिनेभ्यः शोध्यन्ते तत स्थितानि शेषाणि एकोनशिद्दिनानि द्वामिांशश्च द्वाषष्टिभागा दिनस्य एतावत्परिमाणश्चान्द्रोमास इति भवति सूर्य संवत्सर सत्क शिन्मासातिक्रसे एकोऽधिकमासो युगे च मूर्यमालाः षष्टिस्तो भूयोऽपि सूर्यसम्वत्सर सत्कत्रिंशन्मासातिक्रमे द्वितीयोऽधिकमासो भवति । उक्तं च सट्ठीए अयाए हवइ हु अहिलासगो जुगद्धमि बावीसे पवप्लए हवइहु बीओ जुगतंलि ॥१॥ अस्यापि अक्षरगमनिका एकस्मिन् युगे अनंतरोदित स्वरूपे पर्वणां पक्षाणां षष्टौ अतीतायां षष्टिसंख्येषु पक्षेष्वति. For Private And Personal Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३७ ] क्रान्तेषु इत्यर्थः एतस्मिन्नवसरे युगाई युगाईप्रमाणे एकोऽधिको मासो भवति द्वितीयस्त्वधिकमासो द्वात्रिंशत्यधिके पर्वशते (पक्षशते) अतिक्रान्ते युगस्यान्त युगस्य पर्यावताने भवति तेन युगमध्ये तृतीयसम्वत्सरे अधिकमासः पञ्चमे चेति द्वौ युग अभिवद्धिततम्वत्सरौ सम्प्रति युगे सर्वसंख्यया यावन्ति पर्वाणि भवन्ति तावन्ति निदिक्षः प्रतिवर्ष पर्वसंख्या माह ॥ तापढमस्तण मित्यादि ता इति तत्र युगे प्रथमस्य णमिति वाक्यालंकृतौ चान्द्रस्य सम्वरप्तरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि प्रज्ञप्तानि द्वादशमासात्मको हि चांद्रः सम्वत्सरः एकैकस्मिंश्च माते द्वे द्वे पर्वणि ततः सर्वसंख्या चान्द्रप्तवत्सरे चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति द्वितीयस्यापि चांद्रसम्वत्सरस्य चतुर्विंशतिः पर्वाणि भवन्ति अभिवर्द्धित सम्वत्सरस्य षड़विंशतिः पर्वाणि तस्य त्रयोदशमातात्मकत्वात् चतुर्थस्य चांद्र सम्वत्सरस्य चतुर्विशतिः पर्वाणि पञ्चमस्याभिवर्द्धितसम्व. त्प्तरस्य षड्विंशतिः पर्वाणि कारणमनन्तरमेवोक्तं तत एवमेव उक्तेनैव प्रकारेण सपुवावरेणंति पूर्वापरिगणितमिलनेन पञ्चसांवत्सरिके युगे चतुर्विंशत्यधिक पर्वशतं भवतीत्याख्यातं सर्वैरपि तीर्थकृद्भिर्मया चेति ।। देखिये उपरके दोनू पाठमें खुलासा पूर्वक प्रथम चन्द्र संवत्सर दूसरा चन्द्र संवत्तर तीसरा अभिवति संवत्सर चौथा फिर चन्द्र संवत्तर और पांचमा फिर अभिवति संवत्प्तर इन पांत्र संवत्सरों से एक युगकी संपूर्णता लोकदर्शी केवली भगवान् ने देखी हैं कही हैं जिप्तमें एक चन्द्र माप्तका प्रमाण एकोनतीस संपूर्ण अहोरात्रि और एक अहो रात्रिके बातठ भाग करके बतीस भाग ग्रहण करनेसे २९ । For Private And Personal Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६ ] ३२ । ६२ अर्थात् २० दिन ३० घटीका और ५८ पल प्रमाणे एक चन्द्रमास होता हैं इसको बारह चांद्रमासों से बारह गुणा करने से एक चन्द्रसंवत्सर में तीनसे चौपन संपूर्ण अहोरात्र और एक अहोरात्र के बासठ भाग करके बारह भाग ग्रहण करने से ३५४ । १२ । ६२ अर्थात् ३५४ दिन ११ घटीका और ३६ पल प्रमाणें एक चन्द्र संवत्सर होता हैं और जिस संवत्सरमें अधिकमास होता हैं उसीमें तेरह चन्द्रमास होने से अभिवर्द्धित नाम संवत्सर कहते हैं जिसका प्रमाण तीनसे तेंयाशी अहोरात्र और एक अहोरात्रिके बासठ भाग करके चौमालीस भाग ग्रहण करने से ३८३ । ४४ । ६२ अर्थात् ३८३ दिन ४२ घटीका और ३४ पल प्रमाणे एक अभिवर्द्धित संवत्सर तेरह चन्द्रमासोंकी गिनतीका प्रमाण से होता हैं इस तरहके तीन चंद्रसंवत्सर और दोय अभिवर्द्धित संवत्सर एसे पांच संवत्सरों में एक युग होता हैं अब एक युगके सर्व पर्वो की गिनती कहते हैं प्रथम चन्द्र संवत्सर के बारहमास जिसमें एक एक मामकी दोय होय पर्वणि होने से बारहमासों की चौवीश ( २४ ) पर्वणि प्रथम चन्द्र संवत्सर में होती हैं तैते ही दूसरा चन्द्र संवत्सर में भी २४ पर्वणि होती हैं और तीसरा अभिवर्द्धित संवत्सर में छवीश (२६) पर्वणि मासवृद्धि होने से तेरहमातोंकी होती हैं तथा चौथा चन्द्र संवत्सर में २४ पर्वणि होती हैं और पांचमा अभिवर्द्धितसंवत्सर में २६ पर्वणि होती हैं सो कारण उपरके दोनुं पाठमें कहा हैं इन सर्व पर्वो की गिनती मिलने से पांच संवत्सरोंकें एक युगकी एकसो चौवोश (१२४) पर्वणि अर्थात् पाक्षिक होती हैं यह १२४ For Private And Personal · Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९ ] पर्वकी व्याख्या सर्वतीर्थङ्कर महाराजों ने अर्थात् अनन्त तीर्थङ्करों ने कही हैं तैसे ही वृत्तिकार मलयगिरिजीने चन्द्र प्रज्ञप्तिकी तथा सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्तिमें खुलासें लिखी हैं और श्रीचंद्रप्रज्ञप्ति वृत्तिमें पृष्ठ १११ से ११३ में तथा १३४ में और श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तिमें पृष्ठ १२४ से २२८ तक नक्षत्र संवत्सर १ चन्द्र संवत्तर २ ऋतु संवत्सर ३ आदित्य ( सूर्य्य ) सम्वत्सर ४ और अभिवर्द्धित संवत्सर ५ इन पांच संवत्सरों का प्रसाण विस्तार पूर्वक वर्णन किया हैं जिसकी इच्छा होवें सो देखके नि.सन्देह होना इस जगह विस्तार के कारण से सब पाठ नही लिखते हैं। और भी श्रीसुधर्मस्वामिजी कृत श्रीसमवायांगजी मूलसूत्र तथा श्रीखरतरगच्छनायक श्रीअभयदेव मूरिजी कृत. वृत्ति और श्रीपावचन्द्रजी कृत भाषा सहित ( श्रीमकसूदाबाद निवासी राय बहादुर धनपतसिंहजीका जैनागम संग्रह के भाग चौथेमें ) छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके ६१ मा और ६२ मा समवायाङ्गमें मासोंकी गिनती के सम्बन्ध वाला पृष्ठ ११९ और १२० का पाठ नीचे मुजब जानो यथा पंचसंवच्छरियस्सणं जुगस्सरिज मासैणं मिऊमाणस्स इगसठिं उऊ मासापन्नता। ___ अथैकषष्टिस्थानकं तत्र पञ्चेत्यादि पञ्चभिः संवत्सरैनिवृतमिति पञ्चसांवत्सरिकं तस्यणमित्यलङ्कारे युगस्य कालमानविशेषस्य ऋतुमासेन चन्द्रादिमाशैन मीयमानस्य एकषष्ठिः ऋतुमासाः प्रज्ञप्ताः इह चायं भावार्थः युग हि पञ्चसंवत्सरा निष्पादयन्ति तद्यथा-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवद्धितश्चन्द्रोऽभिवद्धितश्वेति तत्र एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशत द्विषष्ठिभागा For Private And Personal Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४० ] अहोरात्रस्येत्येवं प्रमाणेन २९ । ३२ । ६२ । कृष्णप्रतिपदारभ्य पौर्णमाली निष्ठितेन चन्द्रमासैन द्वादशमास परिमाणश्चन्द्रसवत्प्तरस्तस्य च प्रमाणमिदम् त्रीणि शतान्यहां चतुःपञ्चाशदुत्तराणि द्वादश च द्विषष्ठिभागा दिवसस्य ३५४ । १२ । ६२। तथा एकत्रिंशदहां एकविंशत्युत्तरं च शतं चतुविंशतीत्युत्तरशतभागानां दिवसस्येत्येवं प्रमाणोऽभिवद्धितमास इति एतेन ३१ । १२१ । १२४ । च मासेन द्वादशमास प्रमोणोऽभिवति संवत्सरो भवति स च प्रमाणेन त्रीणि शतान्यहां ज्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्विषष्टिभागा दिवसस्य ३८३ । ४४ । ६२। तदेवं त्रयाणां चन्द्रसवत्पराणां द्वयोरभिवहित संवत्तरयोरेकी करणे जातानि दिनानां त्रिंशदुत्तराणि अष्टादशशतानि अहोरात्राणां १८३० ऋतुमासश्च त्रिंशताहोरात्रैर्भवतीति त्रिंशताभागहारे लब्धा एकषष्ठिः ऋतुनासा इति। हिवे ६१ मो लिखे छे। चन्द्र १ चन्द्र २ अभिवाईत ३ चन्द्र ४ अभिवहित ५ एम पांचवर्षनो १ युगथाय ते ऋतुमासे करी मीयमानछे चन्द्रमासनोभान २९ अहोरात्रि अनेर अहोरात्रिना ३२ भाग ६२ ठिया ते कृष्ण पक्षनी पडिवाथी पौर्णमासीये पूरोथाय एहमासमान १२ गुणोकीजे तिवारे वर्षनो मान ३५४ अहोरात्रि अने १ अहोराशिना १२ भाग ६२ ठियाथाय तेहने त्रिगुणो कीजे तिवार १०६२ अहोरात्रि अने १ अहोरात्रिना ६२ ठिया ३६ भागथाय एम अभिवड़ित माप्सनो मान ३१ अहोरात्रि अनें १ अहोरात्रिमा १२४ भाग हाइय २२१ भाग प्रमाणे थाय तेहने १२ गुणो कीजे तिवारे अभिवद्धित वर्षनो मान ३३ अहोरात्रि अने १ अहोरात्रिना For Private And Personal Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Achary [ ४१ ] ४४ भाग ६२ ठिया तेहने बेगुणा कीजे ७६७ सातसी सडसठ अहोरात्रि अने १ अहोरात्रिना २६ भाग ६२ ठिया थाय तेहने पहिले ३ चन्द्रवर्षना मानमांहि घातिये तिवारे १८३० अहोरात्रिथाय ऋतु मासनो मान ३० अहोरात्रिनु तेमाटे १८३० ने भागें हरिये तो १ युगने विर्षे ६१ ऋतुमास थाय । ___ पंचसंवच्छरिएण जुगे बावठिं पुन्निमाउ बावठिं अमावसाउ पन्नता ___ अथ द्विषष्ठिस्थानकं पंचेत्यादि तत्र युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति तेषु षट्त्रिंशत् पौर्णमास्यो भवन्ति द्वौचाभिवद्धितसंवत्सरौ भवतस्तत्र चामिवर्द्धितसंवत्प्तरस्त्र योदशशिश्चंद्रमासैर्भवतीति तयो षड़ विंशतिः पौर्णमास्य इत्येवं द्विषष्ठिस्ता भवन्ति इत्येवममावास्यापीति । हिवे ६२ मो लिखे छे। पांचसंवत्प्तरानो युगहोय तेह मांहि ६२. पुनिम अने ६२ अभाव या कही १ युगमाही ३ चन्द्रवर्ष होय तेह मांहि मास ३६ बारेत्रिक ३६ पूर्णिमा अने ३६ अमावस्या होय अने युगमाहि २ अभिवद्धित वर्ष होय तेहना माम २६ होय तेमाटे पूनिन २६ अमावस्या २६ सर्व पांच वर्षनामिलि ६२ पूर्णिमा अर्ने ६२ अमावस्या होय ॥ देखिये पञ्चमगणधर श्रीसुधर्मस्वामिजीने भी उपरके श्रीसमवायाङ्गजीके मूलसूत्र पाठमें और श्रीअभयदेवसूरिजी वृत्तिकारने भी अधिक मासकी गिनती बरोबर किवी और चंद्रमासोंसें चंद्रसंवत्सरका प्रमाण तथा अभिवद्धितमाप्तोंमें अभिवद्धि तसंवत्प्तरका प्रमाण दिनोंकी गिनतीसें खुलासा करके एक युगके बासठ चंद्रमासके हिसाबसे ६२ पूर्णिमासी तथा ६२ अमावस्या और चंद्रमासकी गिनतीके प्रमाणसे For Private And Personal Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२ ] ६२ चन्द मासके १८३० दिन एक युगकी पूर्ति करनेवाले दिखाये हैं तथापि वर्तमानिक श्रीतपगच्छादि वाले मेरे धर्मबन्धु अधिक मासकी गिनती निषेध करते हैं जिनोंको विचार करना चाहिये ॥ ____और भी श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्यजी श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजी कृत श्रीवहत्कल्पवृत्ति खंभायतके भंडारवालीके दूसरे उद्देशे दूसरे खण्डमें-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में ६ प्रकारके मासोंकी व्याख्या किवी हैं जिसमें में इस जगह एक काल मासकी व्याख्या वर्तमानिक श्रीतपगच्छवालोंको अपने पूर्वजका वचन याद करानेके वास्ते और भव्य जीवोंको निःसन्देह होनेके लिये पृष्ठ १९८ वें का पाठ दिखाते हैं तथाच तत्पाठ कालमासः श्रावणादिः यद्वा कालमासो नक्षत्रादिकः पञ्चविधस्तद्यथा नक्षत्रमासः चंद्रमासः ऋतुमास आदित्यमास अभिवद्धि तमास अमीषामेव परिमाणमाह गाथाः नरकत्तो खलु मासो, सत्तावीसं हवंति अहोरत्ता ॥ भागाय एकवीसं, सत्तहि कएण बेएणं ॥१॥ अउण तीस चंदो, विसद्वि भागाय हुंति बत्ती ता॥ कम्मो तीसह दिवसो, वीसा अध्धंच आइचो ॥२॥ अभिवदिढ इकतीसा चउवीसंभाग सयंवड़तिगहीणं भावे मूलाइझ उपगयं पुण कम्म मासेणं ॥३॥ नक्षत्रेषु भवो नक्षत्रः स खलु मासः सप्तविंशत्यहोरात्राणि सप्तषष्ठी कृतेन छेदेन छिन्नस्याउहोरात्रस्यैकविंशति सप्तषष्टीभागाः तथाहि चंद्रस्य भरण्याश्लेषा स्वाति ज्येष्टा शतभिषा नामानि षट्नक्षत्राणि पञ्चदशमुहूर्तभोग्यानि तिस्र उत्तराः पुनर्वसु रोहिणी विशाखा चेति षट् पञ्चचत्वारिशन्मुहूत भोग्यानि शेषाणि तु For Private And Personal Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३ ] पञ्चदशनक्षत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानीति जातानि सर्वसंख्यया मुहूर्तानामष्टाशतानि दशोत्तराणि एतेषां च त्रिंशन्मुहूतरहो. रात्रमिति कृत्वा त्रिंशता भागो ह्रियते लब्धानि सप्तविंशति रहोरात्राणि अभिजिद्धोगश्चैकविंशति सप्तषष्टीभागा इति तैरप्यधिकानि सप्तविंशतिरहोरात्राणि सकल नक्षत्रमण्डलोपभोगकालो नक्षत्रमासो उच्यते १ चंद्र भवश्चांद्रः कृष्णपक्षप्रतिपदारभ्य यावत् पौर्णमासी परिसमाप्तिस्तावत् कालमानः स च एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य २ कर्ममाप्त ऋतुमा त इत्येकोऽर्थः स त्रिंशहिवप्तप्रमाणः ३ आदित्यमाप्तस्त्रिंशदहोरात्राणि रात्रि दिवसस्य चाई दक्षिणायनस्यो उत्तरायणस्य वा षष्टभागमान इत्यर्थः ४ अभिवद्धि तो नाम मुख्यतस्त्र योदशचंद्रमास प्रमाणः संवत्सरः परं तत् द्वादशभागप्रमाणो मासोऽपि अवयवे समुदायोपचारादभिवद्धितः स चैकत्रिंशदहोरात्राणि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागी कृतस्य चाहोरात्रस्स त्रिकहीनं चतुर्विंशतिभागानां भवति एकविंशमिति भावः एतेषां चानयनाय इयं करण गाथा॥ जुगमासेहिं उअइए, जगंमिलवं हविज्ज नाय॥ मासाणं पंचन्ह, विषयं राइदियपमाणं॥१॥ इह सूर्यस्य दक्षिण सुत्तरं वा अयनं त्र्यशीत्यधिकदिनशतात्मकं द्वि अयने वर्षनिति कृत्वा वर्षे षट्पट्यधिकानि त्रिणि शतानि भवन्ति पञ्चसंत्तरायुगमिति कृत्वा तानि पञ्चभिर्गुण्यन्त जातानि अष्टादशशतानि त्रिंशदिवसानां एतेषां नक्षत्रमासदिवसानेनाय सप्तषष्टिर्युगे नक्षत्रमासा इति सप्तषष्टया भागा ह्रियते लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशतिरहोरात्रस्य सप्तषष्टीभागाः १ तथा चंद्रमाप्त दिवसानयनाय द्वाषष्टिर्युगे चंद्रमासा इति For Private And Personal Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४४ ] द्वाषट्या तस्यैव युगदिन रात्रेागा ह्रियते लब्धाहि एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः एवं युगदिवसानामेबैकषष्टियुगे कर्ममासा इत्येकषष्ट्या भाग हियते लब्धानि कर्मनासस्य त्रिंशत् दिनानि ३ तथा युगे षष्टि सूर्यमासा इति षष्ट्या युगदिनानां भाग ह्रियते लब्धाः सूर्यमासदिवसास्त्रिंशदहोरात्रस्थाई च ४ तथा युगदिवसा एव अभिवद्धि तमासा दिवधानयनाय त्रयोदशगुणाः क्रियन्त जातालि त्रयोविंशतिसहस्त्राणि सप्तशतानि नवत्यधिकानि तेषां चतुश्चत्वारिंशते सप्तति शतैर्भागो ह्रियते लब्धा एकत्रिंशदिवसा शेषाण्यवतिष्ठन्त षद्विशत्यधिकानि सप्तशतानि चतुश्चत्वारिंशत्सप्तशतभागानां ततः उभयेषामप्यङ्कानां षड़भिरपवर्तना क्रियते जातामेकविंशशतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानामिति उक्ताः पञ्चापि कालमासाः ॥१॥ देखिये उपरके पाठमें श्रीतपगच्छके मुख्याचार्यजी श्रीक्षेमकीर्तिसूरिजी अपने (स्वयं) नक्षत्रमाल १ चंद्रमाम २ ऋतुमास ३ आदित्यमास ४ और अभिवद्धि तमास ५ इन पांचासोंकी व्याख्या करते पांचमा अभिवति मासकी और अभिवति संवत्सरकी विशेष व्याख्या खुलासे कर दिखाइ हैं कि____ अभिवतिनाम संवत्सर मुख्य तेरह चंद्रमासोंसें होता हैं एक चंद्रमासका प्रमाण गुनतीस दिन वत्रीस बासटीया भाग अर्थात् २० दिन ३० घटीका और ५८ पल प्रमाणे होता हैं जिसकों तेरह चंद्रमासोंसें तेरह गुना करने से दिन ३८३ । ४४ । ६२ भाग अर्थात् ३८३ दिन ४२ घटीका और ३४ पल प्रमाणे एक अभिवड़ित संवत्सर होता हैं चंद्रमासकी व्यख्या For Private And Personal Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ४५ ) उपर में डिबी सोही तेरह चंद्रमास के अभि वर्द्धितसंवत्सर का प्रमाणको बारह भाग में करने से एक भाग में ३१।१२४ १२९ होता है सेाही प्रमाण एक अभिवर्द्धित मासका जानना, याने ३१ अहोरात्र और एक अहोरात्रि के १२४ भाग करके उपरके तीन भाग छोड़कर बाकी के १२१ भाग ग्रहण करना अर्थात ३१ दिन तथा ५८ घटीका और ३३ पलसे दश अक्षर उच्चारण में न्यून इतने प्रमाणका एक अभिवर्द्धित मास होता है सेा अवयवोंके उच्चारणसे अभिवर्द्धित मास कहते हैं अर्थात् जिस संवत्सर में जब अधिक मास होता है तब तेरह चंद्रमास प्रमाणे अभिवर्द्धित संवत्सर कहते है उसी के तेरहवा चंद्रमास के प्रमाणको बारह भागों में करके बारह चंद्रमा के साथ मिलानेसे बारह चंद्रमासेंामें तेरहवा अधिकमास के प्रमाण ( अवयव ) की वृद्धिहुई इसलिये अबयवाके उच्चारणसे मासका नाम अभिवर्द्धित कहाजाता है एसे बारह अभिवर्द्धित मासेंासे को हुवा - संवत्सरका प्रमाण उसीको अभिवर्द्धित संवत्सर कहते हैं परंतु अधिक मास के कारणसे तेरह चंद्रमास से अभिवर्द्धित संवत्सर होता है सेा गिनती के प्रमाणमेता तेरहाही मास गिनेजायेंगे साता श्रीप्रवचनसारोद्वार, श्रीचंद्रप्रज्ञप्तिवृत्ति, श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति वृत्ति श्रीसमवायांगजी सत्रवृत्ति के जो पाठ उपर में छपगये हैं उनपाठासे खुलासा दिखता है । और पांचाही प्रकारके मासेांके निज निज मास प्रमाण से निज मिज संवत्सरका प्रमाण तथा निज निज मासके और निज निज संवत्सर के प्रमाणसे पांच वर्षोंसे एक युगके १८३० दिनांकी गिनती का हिसाब संबंधी आगे यंत्र ( कोष्टक) लिखने में आयेंगे जिससे पाठक वर्गको सरलता पूर्वक जलदी अच्छी तरह से समझ में आसकेगा । For Private And Personal Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir और भी अधिक मासकी गिनती प्रमाण करने सम्बन्धी सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, चर्णि वृत्ति और प्रकरणादि शास्त्रोके पाठ मौजद हैं परंतु विस्तारके कारण से यहां नहीं लिखताहू तपापि बिवेकी जनता उपरोक्त पाठार्थोंसे भी स्वयं समझ जायेंगे। अब इस जगह जिनाजा विरुद्ध प्ररूपणा से तथा वर्तने बर्तानेसे संसार वृद्धिका भय रखनेवाले और जिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी निष्पक्षपाती सज्जनपुरुषाको मैं निवेदन करता हु कि देखो उपरमें श्रीचन्द्रप्रज्ञप्तिऋत्तिमें तथा श्रीसूर्य प्रजाप्तिकृत्तिने सर्व ( अनन्त ) श्रीतीर्थकर महाराजाँके कप. नानुसार श्रीमलयगिरिजीने। तथा श्रीसमवायाङ्गजी सूत्र में श्रीगणधर महाराज श्रीसुधर्मस्वामीजीने और श्रीसमवाया जी सूत्रकी वृत्तिमें श्रीखरतरगच्छके श्रीअभयदेवसरिजीने और श्रीप्रवचनसारोद्धारमैं श्रीतपगच्छके पूर्वज श्रीनेमिचन्द्र मूरिजीने । तथा श्रीवृहत्कल्पपत्ति में श्रीतपगच्छके श्रीक्षेम. कीर्ति मूरिजीने इत्यादि अनेक शास्त्रों में अधिकमासको प्रमाण करके गिनतीमें मंजर किया हैं जैसे बारे मासोकी गिनतीमें कोई न्यन्याधिक नहीं हैं तैसे ही अधिकमास होनेसे तेरहमासकी गिनती में भी कोई न्यन्याधिक नहीं। किन्तु सबी हीबरोबरहैं से उपरोक पाठापोंसे प्रत्यक्ष दिखता है से विशेष करके अधिक मासकोनी महतमि, दिनों में, पक्षों में, मासेमें वर्षों में, गिनकर पांचसंवत्सरे के एकयुगकी गिनती के दिनांका, पक्षका, मासांका, वर्षों का प्रमाण श्रीअनन्ततीर्थकर भणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों ने और श्री खरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छादिके पूर्वजोंने कहा है सी For Private And Personal Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४७ ] आत्मार्थी जिनाज्ञाके आराधक पुरषोंको प्रमाण करने योग्य हैं । इस संसारको अनन्ते काल हो गये हैं जिसमें अनन्त चौवीशी ब्यतित हो गइ चन्द्र सूर्य्यादिके विमान भी अनन्त कालसे सरू हैं इस लिये जैनज्योतिष भी अनन्ते कालसें प्रचलित हैं जिसमें अधिक मास भी अनन्त कालसें चला आता हैं—मास वृद्धि के अभाव से बारह मास के संवत्सरका नाम चन्द्र संवत्सर हैं और मारुवृद्धि होनेसें तेरहमासकी गिनतीके कारणसें संवत्सरका नाम अभिवर्द्धित संवत्सर हैं तीन चन्द्रसंवत्सर और दोय अभिवति संवत्सर इन पांच संवत्सरोंसे एकयुग होता हैं एकयुगमें पांच संवत्सरोंके बासठ (६२) मातोंकी बासठ (६२) पूर्णिमासी और बासठ (६२) अमावस्या के एकसो चौवोश (१२४) पर्वणि अर्थात् पाक्षिक अनन्त तीर्थङ्करादिकोंनें कही हैं जिससे अनन्तकाल हुए अधिकerent froती दिन, पक्ष, मात, वर्षादिमें चली आती हैं किसीने भी अधिकमासको गिनती का एकदिन मात्र भी निषेध नहीं किया हैं तथपि बड़े अफसोस की वात हैं कि, वर्तमानिक श्रीतपगच्छादिवाले अधिकमास की गिनती वड़े जोरके साथ वारंवार निषेध करके एकमासके ३० दिनोंकी गिनती एकदम छोड़ देते हैं और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर महाराजोंकी श्रीगणधर महाराजोंकी श्रीपूर्वधर पूर्वाचाजी की तथा इनलोगोंके खास पूज्य श्रीतपगच्छके ही प्रभाविकाचा जी की आज्ञा भङ्गका भय नही करते हैं और श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचाय्यजी की आज्ञा मुजब वर्तमान में श्री खरतरगच्छादिवाले अधिक For Private And Personal Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४८ ] मासकों प्रमाण करके गिनती में मंजूर करते हैं जिन्होंकों आज्ञा भङ्गका मिथ्या दूषण लगाके उलटा निषेध करते हैं फिर आप आज्ञाके आराधक बनते हैं यह कितनी बड़ी आश्चर्य्यकी बात हैं । श्रीअनन्त तीर्थङ्करादिकोंने अधिकमासको गिनती में प्रमाण किया हैं इसलिये जिन्नाज्ञाके आराधक आत्मार्थी पुरुष कदापि निषेध नही कर सकते हैं तथापि वर्तमान में जो अधिक मामको गिनती में निषेध करते हैं जिन्होंकों श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वा बायकी और अपने पूर्वजोंकी आज्ञाभङ्गके सिवाय और क्या लाभ होगा सो निर्पक्षाती आत्मार्थी पाठकवर्ग स्वयं विवार लेवेंगें । प्रश्नः --- अजी तुम तो श्रीअनन्ततीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचाय्यजी की शाक्षिसे अधिकमासको दिनों में पक्षोंमें, मासोंमें, वर्षों में गिनती करनेका प्रत्यक्षप्रमाण उपरोक्त शास्त्रों के प्रमाणसें दिखाया हैं परन्तु वर्तमानिक श्रीतपगच्छादिवाले अधिकमास तो एककाल चूलारूप हैं इसलिये गिनती में नही लेना एता कहते हैं सो कैसें । उत्तरः- भो देवानुंप्रिये वर्तमानिक श्रीतपगच्छादिवाले अधिकमासको कालचूला कहके गिनती में निषेध करते हैं को कदापि नही हो सकता है क्योंकि अधिकमासको कालचूला किस कारण से कही हैं जिसका अभिप्राय और कालचूला कहने से भी विशेष करके गिनती करने योग्य हैं तथा aroorat ओपमा बहुत उत्तम श्रेष्ठ शास्त्रकारोंने दिवी हैं सो हमतो क्या कुल जैन श्वेतांबर जिनाज्ञाके आराधन करनेवाले आत्मार्थी सबी पुरुषोकों मान्य करने योग्य हैं For Private And Personal Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४९ ] और गिनती भी करने योग्य है जिसका कारण शास्त्रोंके प्रमाण सहित दिखाते हैं श्रीजिनदास महत्तराचार्यजी पूर्वधर महाराज कृत श्रीनिशीथ सूत्रकी चूर्णि श्रीमोहनलालजी महाराजके सुरतका ज्ञानभंडारसे आई थी जिसके प्रथम उद्देशेके पृष्ठ २९ में तत्पाठ इयाणिं चूलेति दारं ॥ णाम ठवणा गाहा णिरकेव गाहा ॥ कंठा ॥ णाम ठवणाउमयाउ दवचूला दुविहा आगमतो णो आगमतोय आगमउ जाणए अणुवउते णो आगमतो जाणय भवसरीरं जाणयभवसरीरवइरित्ता तिधा य दवचूला गाहा पुबई ॥ कंठं॥ पढमो वपदो वधारणे वितिउरु मुव्वये पुवढे जहा संखंमि ॥उदाहरणा ॥ सचित्तचड़ा कुक्कटचूला सा मंसपेसी चेव केवला लोकप्रतिता मीसाचूडा मोरसिहा तस्स मंसपेसीए रोमाणि भवंति अचित्ता चूला मणीकुंतगा वा आदिसद्दाउ सीहकरण पासाद थूभअग्गाणि ॥ दवचूलागता ॥ इदाणि खेत्तचूला सा तिविहा ॥ अह तिरिय उढ्व । गाह॥अह इति अधोलोकः तिरिय इति तिरियलोकः उढ्ढ॥ इति ऊर्द्ध लोकः लोगस्स सद्दो पत्तेगं चूला इति सिहाहोति । भवति । इमाइति प्रत्यक्षो तु शब्दो क्षेत्रावधारणे अहोलोगा दीण पच्छद्धरण जहा संखं उदाहरणा सीमंतग इति सीमंतगो णरगो रयणप्यभाय पुढवीउ पढमो सो अह लोगस्प्त चूला । मंदरोमेरु सो तिरियलोगस्चूलातिक्रान्तत्वात् अहवा तिरिय लोगपति ठियस्त मेरोवरि चत्तालीसंजोयणा चूला सो तिरिय लोगचूला वसद्दी समुच्चये पाय पूरणे वा इसित्ति अप्पभावे पइति प्रायो वृत्याभार इति भारवंतस्स पुरिसस्त गायं पाय सो इसिणयं भवति जाव एवं ठितासा पुढवी For Private And Personal Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५० ] इसिपभाराणाम इति एतमभिहाणं तस्स साथ सबह सिद्धि विनाणाउ उवरि वारसैहि जोयणेहिं भवति तेण सा उठुलोए भवति । गता खेत्तचूला । इयाणि काल भावचूलाउ दोविएग गाहाए भमति । अहिमास उउकाले।गाहा । बारसमास वरिसाल अहिउमासो अहिमासउ अहिवढिय वरिसे भवति सोय अधिकत्वात् कालचूला भवति तु सदीर्थप्प दरिसणेण केवलं अधिको कालो कालचूला भवति अंतो विवढ्ढमाणो कालो कालचूलाए भवति एवं जहाउसप्पिणीए अंते अंति दूस समाए सा उस्सप्पिणीए अंते कालस्सचला भवति। कालचला गता । इयाणिं भावचला । भवणं भावः पर्याय इत्यर्थः॥ तस्स चूला भावचूला सोय दुविहा आगमउय णो आगमउय आगमउजाणए उवउत्तेण णो आगमउय इमाचेव तुसहो । खउवतम भावविसैसेण दद्वन्धो इमाइति । पकप्प झयण चला एग सद्दोवधारणे चूलेगठिता चूलात्तिवा विभूसणंति वा सीहरंति वा एते एगठी॥ चलेति दारंगयं ॥ इति श्रीनिशीथसूत्रके पहिले उद्देशे की चर्णिके पृष्ठ २२ तक ___और भी १४४४ ग्रन्थकार सुप्रसिद्ध महान् विद्वान् श्री. हरिभद्रसूरिजी कृत श्रीदशवैकालिकसूत्रके प्रथम चलिकाकी वहत वृत्तिका पाठ सुनिये श्रीदशवैकालिकमूलसूत्र, अव चरि, भाषार्थ,दीपिका और वहत्वृत्ति सहित मुम्बईसे छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके पृष्ठ ६४० और ६४१का चला विषयका नीचे मुजब पाठ जानो-यथा___ अधुनौघतचड़े आरभ्यते अनयोश्वायमभिसम्बन्धः । इहा नन्तराध्ययने भिक्षुगुणयुक्त एव भिक्षुरुक्तः सचैवं भूतोऽपि कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात् कर्मणश्च बलवत्त्वात्सीदेदत For Private And Personal Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५९ ] एतत् स्थिरीकरणं कर्तव्य मिति तदर्थाधिकारवच् बड़ाद्वयमभिधीयते तत्र चूड़ा शब्दार्थमेवाभिधातुकाम आह॥व्वे खेत्ते काले, भावम्मि चलिआय निस्केवो ॥ तं पुण उत्तरतंतं, सुअ गहिअत्यं तु संगहणी ॥ २६ ॥ व्याख्या ॥ नाम स्थापनेक्षुस्मात्वादनादूत्याह द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च द्रव्यादिविषयश्चड़ाया निक्षेपो न्यास इति । तत्पुनश्चाद्वयमुत्तरतन्त्रमुत्तरसूत्रम् दशत्रैकालिकस्या वारपञ्च चूड़ावत् एतच्चोत्तरतन्त्रं श्रुतगृहीतार्थमेव दशवेकालिकाख्य श्रुतेन गृहीतोऽर्थोऽस्येति विग्रहः यद्येव न पार्थमिदम् । नेत्याह संग्रहणी तदुक्ता नुक्तार्थसंक्षेप इति गाथार्थः द्रव्य बूडा दिव्याचिख्यासयाह ॥ दव्वे सच्वित्ताई, कुक्कुट चूड़ामणी मऊराद || खेत्तमि लोगनिक्कुड़ मंदरचूड़ा अ कूड़ाइ ॥ २१ ॥ व्याख्या ॥ द्रव्य इति द्रव्यचड़ा आगम नोआगम ज्ञशरीरेतरादिव्यतिरिक्ता त्रिविधा स चित्ताद्या । सवित्ता अचित्ता मिश्राच । यथा संख्यमाहकुक्कट चड़ा सचित्ता मणिवड़ा अचित्ता मयूरशिखामिश्रा । क्षेत्र इति क्षेत्रचूड़ा लोकनिष्कुटा उपरिवर्तिनः मन्दरचूड़ा च पाण्डुकम्बला | चूड़ादयश्च तदन्यपर्वतानां क्षेत्रप्राधान्यात् आदिशब्दादधोलोकस्य सीमंतक: तिर्य्यग् लोकस्य मन्दर ऊर्द्ध लोकस्पेषतप्रागभार इति गाथार्थः ॥ अहरित अहिगमासा, अहिगा संवत्सराअकालंमि ॥ भावे खउ वसमिए, हमाउ चड़ामुणे अव्वा ॥ २८ ॥ व्याख्या ॥ अतिरिक्ता उचितकालात् समधिका अधिकमासका प्रतीताः अधिकाः संवत्सराच षष्टाब्दाद्यपेक्षया काल इति कालच हा भाव इति भावड़ा क्षायोपशमिके भावे इयमेव द्विप्रकारा चूड़ा मन्तव्या विज्ञेया क्षायोपशमिकत्वाच्कृतस्येति गाथार्थः तत्रापि प्रथमा रतिवाक्यच हा इत्यादि । For Private And Personal Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५२ ] और भी श्रीजिनभद्र गणिक्षमाश्रमणजी महाराज युगप्रधान महाप्रभाविक प्रसिद्ध है जिन्होंके शिष्य श्रीशीलाङ्गाचार्य्यजी भी महाविद्वान् श्रीआचाराङ्गादि ११ अङ्गरूप सूत्रोंकी टीका करनेवाले प्रसिद्ध है जिसमें श्रीआचाराङ्गजी तथा श्रीसूयगडाङ्गजी सूत्रको टीका तो सुप्रसिद्धिसे वर्त रही हैं और बाकी श्रीस्थानाङ्गजी आदि नवसूत्रों की टीका विच्छेद होगई थी जिससे श्रीअभयदेवसूरिजीनें दूसरी वार बनाई है सो प्रसिद्ध है श्रीशीलाङ्गाचार्य्यजी विक्रम संवत् ६५० के लगभग हुवे हैं सो श्रीआचाराङ्गजी सूत्रकी व्याख्या रूप टीका करते दूसरे श्रुतस्कन्धकी व्याख्याके आदिमें ही चूलाका विस्तार किया है परन्तु यहाँ थोड़ासा लिखता श्रीमदाबाद निवासी धनपतिसिंह बहादुरकी तरफ से श्रीआवाराङ्गजी मूलसूत्र, भाषार्थ, दीपिका और वृहत् वृत्ति सहित छपके प्रसिद्ध हुवा है जिसके दूसरा श्रुतस्कन्धके पृष्ठ ४में से चला विषयका थोड़ासा पाठ नीचे मुजब जानो यथा चड़ाया निक्षेपः नामादिः षड् विधः नामस्थापने क्ष द्रव्यचा व्यतिरिक्ता सचित्ता कुक्कुटस्य अचित्ता मुकुटस्य चड़ा मिश्रा मयूरस्य, क्ष ेत्रच हा लोकनिःकुटरूपा कालचूड़ा अधिकनातक स्वभावा भाववड़ात्वियमेव क्षयोपशमिकभाववर्तित्वात् तथा ( इसके पहले तीसरे पृष्ठ में) कालाग्रमधिकमासकः यदिवाय शब्दः परिमाणवाचक इत्यादिदेखो ऊपरोक्त शास्त्रों के कर्ता में श्रीजिनदासमहत्तराचार्य्यजी पूर्वधरगीतार्थ पुरुष प्रसिद्ध है तथा श्रीहरिभद्र सूरिजी भी पूर्वधर गत गीतार्थ पुरुष प्रसिद्ध हैं और श्रीजिनभद्रमणि For Private And Personal Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५३ ] क्षमाश्रमणजी महाराजके पदृधरशिष्य श्रीशीलांगाचार्यजी महाराज भी महाप्रभाविक गीतार्थ पुरुष प्रसिद्ध है। इस लिये उपरके पाठ सर्व जैनश्वेतांवर आत्मार्थी पुरुषोंको प्रमाण करने योग्य हैं ऊपरके पाठमें नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षोत्र, काल, भाव सें, छ ( ६ ) प्रकारकी चूला कही हैं जिसमें नाम, स्थापना, तो प्रसिद्ध हैं और द्रव्य चूलादि की व्याख्या खुलासा किवी हैं कि,-द्रव्यचूला दो प्रकारको प्रथम आगमरूप शास्त्रोंमें कही हुइ और दूसरी नो आगम सो मति, अवधि, मनपर्यव, तथा केवल ज्ञानसे जानी हुइ द्रव्य चूला सो भव्य शरीर अर्थात् ज्ञानीजी महाराज अपने ज्ञानसें पहले से ही देखके जानलेवें कि यह मनुष्य आगामी काले साधु आदि धर्मी पुरुष होने वाला हैं एसा जो मनुष्य का शरीर जिप्तको द्रव्य चूला कहते हैं, कारण कि, इस संसारमें अनन्तीवार शरीर पाया परन्तु उत्तम पदवी पाने योग्य शरीर पाना बहुत मुश्किल हैं तथापि अब पाया जिससे धर्मप्राप्तिका योग्य होवे एसें शरीर को ज्ञानी महाराजने भव्यशरीर कहा हैं सो उस शरीरको अनन्ते सब शरीरोंसें उत्तम कहो तथा श्रेष्ट कहो अथवा चूलारूप कहो सबीका तात्पर्य एकार्थका हैं-और भी प्रसिद्ध द्रव्य चला तीनप्रकारकी कही है जिसमें प्रथम कुक्कट ( मुरगा) के मस्तक उपर शिखररूप मांसपेसी सहित होनेसें उतीकों सचित्तचूला कही जाती हैं तथा दूसरी मोर ( मयूर ) के मस्तक उपर शिखररूप मांसपेसी ओर रोंम सहित होने उसीको मिश्र चूला कही जाती हैं और तीसरी मणि तथा कुन्त और मुकुटादिकके उपर शिखररूप होवे उसीकों अचित्त For Private And Personal Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५४ ] चूला कही जाती हैं इन्होंकों चूलाकी ओपमा देनेका यही कारण है कि सब भवअवयोंसे विशेष सोभाकारी सुन्दर उत्तम होनेसे शिखरकी अर्थात् चलाकी ओपमा शास्त्रकारोंने दिवी हैं, द्रव्यचलारूप भव्यशरीरकों गिनती में करके प्रमाण करने योग्य हैं, द्रव्य निक्षेपावत् अर्थात् रावण कृष्ण श्रेणिकादि अबी द्रव्य निक्षेपेमें गिने जाते हैं परन्तु जब केवल ज्ञान पावेंगे तब भाव निक्षेपेमें गिने जावेंगे तैसेही भव्यशरीर जो द्रव्यधूलामें हैं सो जब साधु आदि धर्मकी प्राप्ति होगा तब भावलामें गिना जावेगा। द्रव्यचूला की गिनती नही करोगे तो आगे भाव वलामें कैसे गिना जावेगा इस लिये द्रव्य चूलाकी गिनती प्रमाण करने योग्य हैं। ___और क्षेत्रचला भी तीनप्रकार की कही हैं जिसमें प्रथम अधोलोकमें रत्नप्रभा पृथ्वीके सीमन्तनामा नरकावासा अधो. लोकके उपर जो शिखररूप है उसीकों अधोलोक चला कही जाती हैं तथा दूसरी तिर्यग (तीरछा) लोकमें सुप्रसिद्ध जो मेरुपर्वत हैं उसीको तिर्यग लोकचूला कहते हैं कारण कि तिर्यग लोकका प्रमाण उंवा १८०० सो योजनका हैं परन्तु मेरुपर्वत तो एक लक्ष योजनका होनेसे तिर्यगलोककों भी अतिक्रान्त ( उल्लङ्घन ) करके उंचा चला गया इस लिये तिर्यगलोकके उपर शिखररूप होनेसें मेरुपर्वतकों चलामें गिना जाता हैं तथा मेरुके उपर जो ४० योजनकी चलीका हैं सो भी मेरुके शिखररूप होनेसें चलामें गिनी जाती हैं और मेरुके चार वनोंमें १६ तथा १ चलीकाका मिलके १७ मन्दिरोंमें २०४० श्रीजिनेश्वर भगवान की शाश्वती प्रतिमाजी हैं इसलिये क्षेत्रचूलाका प्रनाण एक अंशमात्र भी For Private And Personal Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५५ ] गिनती में नही छुटसकता हैं और तीसरी ऊङ्घ (उंचा) लोकमें सर्वार्थ सिद्धि विमानसें बारह योजन पर ईषत्प्राग्भारा नाम पृथ्वी जो सिद्धसिला ४५००००० लक्ष योजन प्रमाणे लंबी और चौड़ी हैं तथा बीचमें आठ योजन की जाड़ी हैं जिसके उपर श्री अनन्त सि भगवान् विराजमान हैं एसी जो सिङ्घ सिला सो ऊङ्ख लोकके शिखररूप होनेसें चलायें गिनी जाती हैं यह क्षेत्रचूला भी प्रमाण करके गिनती में करने योग्य हैं । और कालचूला उसीको कहते हैं कि जो बारह चन्द्र मासोंसें चन्द्रसंवत्सर एकवर्ष होता हैं जिसका उचितकाल हैं उसमें भी एक अधिक मासकी वृद्धि हो कर बारह मासों के उपर पड़ता हैं सो लोकोंमें प्रसिद्ध भी हैं और अनादि कालसे अधिकमासका एसाही स्वभाव है सो प्रमाण करने योग्य हैं और अधिकमास ज्यादा पड़ने से संवत्सरका नाम भी अभिवर्द्धित होजाता हैं बारहमासोंका कालके शिखररूप अधिकमास ज्यादा होनेसें उसको कालचूला कही जाती है तथा जैन ज्योतिषके शास्त्रोंसे साठ (६०) वर्षों की अपेक्षा एक वर्ष की भी वृद्धि होती थी जिसकों भी कालचूला कहते हैं और उत्सर्पिणिके अन्त में भी जो काल व सोभी कालचूला में गिना जाता हैं तथा कालचूलारूप जा अधिकमास है उसीको प्रमाण करके गिनती में मंजूर करना चाहिये क्योंकि अधिकमासको कालचलाकी जो ओपमा है सो निषेधकवाची नहीं है किन्तु विशेष शोभाकारी उत्तम होनेसे अवश्य ही गिनती करनेके योग्य है । तथापि वर्तमानिक श्रीतपगच्छादिवाले जो महाशय अधिकमास को For Private And Personal Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५६ ] कालचला कहके गिनती में नही लेते हैं और निषेध भी करते है। जिन्होंको मेरा इतना ही पूछना है कि आप लोग अधिक मासको कालचला जानके गिनती नही करते हो तो अभिवर्धित नाम संवत्तर कैसे कहते हो और अभिवर्द्धित नाम संवत्सर तो कालचूलारूप अधिकमास ज्यादा होनेसे तेरह चन्द्रमासोंकी गिनती करनेसे ही होता है तथाहि____ अभिवर्दीत्यभिवतिः अभिवर्धितश्चातौ संवत्तरोऽभिवर्द्धितसंवत्सरः अभिवर्द्ध तश्चात्राभिरद्धिरूपः अभिवृद्धिस्तु अधिकमासे नैव बोधव्य अनयारीत्या अयं संवत्सर अन्वर्थसंज्ञां लब्धवान् अन्वर्थसंज्ञायाः कारणतातु अधिकमासनिष्ठैव कारणत्वावच्छिन्नस्तु शिरोमौलिमुकुटहीरायमाणोऽधिकमास एव अधिकमासनिरुक्तिश्चेत्थं यतोऽत्र संवत्सरे द्वादशमासेभ्योऽधिकः पतति अतोऽधिकमासः एतद्गणनामन्तरेण तु अन्वर्थसंज्ञायारसङ्गत्यापत्तिरेवेति ध्येयम् । अर्थः जो और संवत्सरोंकी अपेक्षासें ज्यादा हो याने अधिक महिनावालो होय सो अभिवति संवत्सर इस वत्सरमें वृद्धि जो है सो अधिकमास ही करके है इस कारणसे इस संवत्सरका अर्थानुसार अभिवति नाम हुवा अर्थानुसार अभिवर्द्धित नाम रखने में अधिकमास कारण हुवा और अभिवद्धि तनाम कार्य हुवा इनोंका कार्य कारण भाव सिद्ध हुवा कारणताधर्मयुक्त होनेसें यह अधिकमास सब मासोंके मस्तकके शोभा करने वाला जो मुकुट जिसकी शोभा करने वाला जो हीरारत्न उसकी तुल्य हुवा और जिस कारणसें इस महिने का नाम अधिकमास हुवा सो For Private And Personal Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५७ ] कारण यह है कि यह मास इस संवत्सरमें वारहमासोंसे अधिक पड़ा इसलिये इसका नाम भी अर्थानुशार है इसकी गणनाके बिना अर्थानुसार नाम अभिवति संवत्सरका न होगा न होनेसे असङ्गति दोष रहता है यह चिन्तन करना चाहिये। अब अधिक मासकी गिनती नही करने वाले महाशय तेरह चन्द्रमासोंके बिना अभिवद्धि त संवत्सर कैसे बनायेंगे क्योंकि तेरह चन्द्रमासोंके बिना अभिवद्धितसंवत्सर नही हो सकता हैं तथा अभिवति संवत्सरके बिना एकयुगके ६२ चन्द्रमालोंकी ६२ अमावस्या और ६२ पूर्णिमासीके १२४ पाक्षिकोंकी गिनती नही बन सकेगा इस लिये कालचूलारूप अधिक मासकी गिनती करनेसें अभिवर्द्धित संवत्सर तेरह चन्द्र नातोंकी गिनतीसे होता है सोही श्रीअनन्ततीर्थङ्कर गणधर पूर्वाधरादि पूर्वाचार्य तथा खरतरगच्छके और तपगच्छादिके पूर्वाचार्योंने अधिकमासकों दिनों में पक्षों में मासोंमें वर्षोंमें गिनतीमें प्रमाण करके एकयुगके ६२ चन्द्रमासोंके १८३० दिनोंकी गिनती कही है सो उपरोक्त शास्त्रों के पाठोंसे लिख आये हैं जिनसे जिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी पुरुषों को अधिक मासकी गिनती मंजूर करनी चाहिये इसके लिये आगे युक्ति भी दिखावेंगे इति कालचूला सम्बन्धी किञ्चित् अधिकार___और चौथो भावचूला भी आगमसे तथा नो आगमसे क्षयोपशमादिकी व्याख्या प्रसिद्ध हैं और श्रीदशवैकालिकजी सूत्रकी दो चूला तथा श्रीआ वाराङ्गजी सूत्रकी दो चूला और मन्त्राधिराज महामङ्गलकारी श्रीपरमेष्टिमन्त्रको चार तूला इत्यादि सब भावजूला कही जाती हैं For Private And Personal Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५८ ] सो विभूषणा कहो, शोभारूप कहो, शिखररूप कहो, विशेष सुन्दरता मुगटरूप कहो अथवा चुलारूप कहो, सब मतलबका तात्पर्य्य एकार्थका हैं इसलिये गिनती करने योग्य है और जैसें द्रव्य, भाव, नाम, स्थापनासें चार निक्षेपे कहे हैं सो मान्य करने योग्य है तथापि द्रव्य, स्थापनादि का निषेध करने वालोंकों (श्रीखरतरगच्छवाले तथा श्रीतपगच्छादि वाले सर्व धम्मंवन्धु ) मिथ्यात्वी कहते हैं तैसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे जो चूला कही है सो अनादिकालसें प्रवर्त्तना सरु हैं श्रीतीर्थङ्करादि महाराजोंने प्रमाण raat है सो आत्मार्थियोंकों प्रमाण करके मान्य करनें योग्य है तथापि क्षेत्रकालादि चूलायोंकों गिनती में मान्य नही करते उलटा निषेध करते हैं और जो मान्य करते हैं जिन्होंको दूषण लगाते हैं ऐसे श्रीतीर्थङ्करादि महाराजों के विरुद्ध वर्तने वाले विद्वान् नामधारक वर्तमानिक महाशयोंको आत्मार्थी पुरुष क्या कहेंगे जिसका निष्पक्षपाती श्रीखरतरगच्छ के तथा श्रीतपगच्छादिके पाठक वर्ग स्वयं विवार लेवेंगे और अधिक मासको कालचूला कहने से भी गिनती में निषेध कदापि नही हो सकता है किन्तु अनेक शास्त्रोंके प्रमाणे से श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराज की आज्ञानुसार अवश्यमेव गिनती में प्रमाण करणा योग्य है तथापि जैन सिद्धान्त समाचारकारनें कालचूलाके नामसें अधिकमासकी गिनती उत्सूत्र भाषण रूप निषेध किवी है जिसका उतारा प्रथम इसजगह लिख दिखाते हैं और पीछे इसकी समालोचनारूप समीक्षा कर दिखायेंगे, जैनसिधान्त समाचारीके पृष्ठ की For Private And Personal Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५९ ] पंक्ति १६॥ से पृष्ट ११ की पंक्ति १३ वीं तक चूला सम्बन्धी लेखका उतारा नीचे मुजब जानो [हम अधिक मासको कालचूला मानते हैं सो अब दिखाते हैं, चूला चार प्रकारकी शास्त्र में कथन करी है, यथा-निशीथे दशवैकालिक वृत्तौ च ॥ तथाहि-'चला चातुर्विध्यं । द्रव्यादिभेदात् तत्र द्रव्य चूला ताम्र च लादि १ क्षेत्रचूला मेरोश्चत्वारिंशद्योजन प्रमाण चूलिका २ कालचुला युगे तृतीयपञ्चमयोर्वर्षयोरधिकमासकः ३. भावव ला तु दशवैकालिकस्य चलिकाद्वयं ४ इति॥ (भावार्थः ) जैसें निशीथसूत्र विषे और दशवैकालिक वृत्ति विषे है तैसें दिखाते हैं, चूला चार प्रकारकी है, द्रव्यादि भेद करके तिसमें द्रव्य वला उसको कहते है किजो मुरगादिके शिरपर होती है. १ क्षेत्रच ला यह है किमेरुपर्वतकी चालीश योजन प्रमाण जो चला है. २ काल च ला उसको कहते है कि-जो तीसरे वर्ष और पाँचमें वर्षमें अधिक मास होता है. ३ भावच ला उसको कहते है कि-जो दशवैकालिक की चूलिका है ॥४॥ ___ (पूर्वपक्ष ) काल जूला कहने से आपकी क्या सिद्धि (उत्तर) हे परीक्षक ! काल चूला कहने से यह सिद्ध होता है कि-चलावाले पदार्थके साथ प्रमाणका विचार करना होवे तो उस पदार्थ से चला न्यारी नही गिनी जाती है जैसें मेरुका लक्ष योजन प्रमाण कहेंगे तब च लिकाका प्रमाण भिन्न नही गिणेगे। तैसें चतुर्मासके विचारमें और वर्षके विचार करनेके For Private And Personal Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६० ] अवसर में अधिक मासका विचार न्यारा नही करेंगे. इस वास्तळे अधिक मासकों कालचूला कहते है ] । उपरके लेखकी समीक्षा करते हैं कि - प्रथमतो जैन सिद्धान्त समाचारकारने निशीथ सूत्रके नामसे चूलाका पाठ लिखा है सो सूत्र में बिलकुल नही है किन्तु निशीथ सूत्रकी चूर्णिमें जिनदास महत्तराचार्य्यजीने चूलासम्बन्धी व्याख्या किवी है और दशवैकालिक सूत्रकी वृत्तिके पाठका नाम लिखा सोभी नही है किन्तु दशवैकालिक सूत्रकी प्रथम चूलिका की वृहत् वृत्तिमें पाठ हैं और उपरमें जो चूला चतुर्विध्यं इत्यादि पाठ लिखा है सो न तो चूर्णि - कारका है और न वृत्तिकारका है क्योंकि चूर्णिकार ने और वृत्तिकारने द्रव्यचूला, आगन नो आगमसे भव्यशरीर और सचित्त, अचित्त, मिश्र, तथा क्षेत्रचूला भी सिद्धतिला और मेरुपर्वत अथवा मेरुचूलिका इत्यादि कालचूला भाव चूलाकी विस्तार से व्याख्या किवी हैं सो हम उपर में सम्पूर्ण पाठ लिख आये हैं । जिसको और जैन सिद्धान्त समाचारी कारका लिखा पाठको वांचकवर्ग आपस में मिलावेंगे तो स्वयं मालुम हो सकेगा कि जैनसिद्धान्त समाचारकारने जो पाठ लिखा है सोनिकेवल बनावटी है क्योंकि हमने उपरमें सम्पूर्ण पाठ लिखा है जिसके साथ इस पाठका अक्षर अक्षर और पंक्ति पंक्ति नही मिलती है तथा चूर्णिकार की प्राकृत संस्कृत मिली हुवी भाषा है और वृत्तिकारकी निर्युक्ति सहित व्याख्या किवी हुई है । जिनसे उपरका पाठ बिलकुल भाषा वर्गणादिमें बरोबर नही है इस लिये उपरका पाठ बनावटी हैं— सो प्रत्यक्ष दिखता है तथापि For Private And Personal Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६९ ] जैन सिद्धान्त सनावारी कारने ( यथा निशीथे दशवैकालिक वृत्तौच — इस वाक्यसें जैसे निशीथ सूत्र विषे और दशवैका - लिक वृत्तिविषे है तैसे दिखाते हैं ) एसा लिखके भोले जीवोंको शास्त्र के नाम लिख दिखाये परन्तु शास्त्रकारका बनाया पाठ नही लिखा एसा करना आत्मार्थी उत्तम पुरुषको योग्य नही है और पाठका भावार्थ लिखे बाद पूर्वपक्ष उठाके उत्तर लिखा है जिसमें भी शास्त्रों के विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप बिलकुल सर्वथा अनुचित लिख दिया है क्योंकि ( चूलावाले पदार्थ के साथ प्रमाण का विचार करना होवे तो उस पदार्थसे चूला न्यारी नहीं गिनी जाती है ) इन अक्षरो करके चूलाकी गिनती भिन्न नही करनी करते है सो भी मिथ्या है, क्योंकि शास्त्रकारों नें चूला गिनती भिन्न करके मूलके साथ जिलाइ है सोही दिखाते है कि- देखो जैसे श्रीमन्त्राधिराज महामङ्गलकारी श्रीपरमेष्टि मन्त्रमें मूल पांचपदके ३५ अक्षर है तथा चार चूलिका के ३३ अक्षर हैं सो मूलके साथ मिलने से नवपदोसें चूलि - कायों सहित ६८ अक्षरका श्रीनवकार परमेष्टि मन्त्र कहा जाता है और श्रीशवेकालिकजी मूलसूत्रके दश अध्ययन है तथा दो चूलिका है जिसको भी शास्त्रकारोनें अध्ययन रूप ही मान्य किवी है और निर्युक्ति, चूर्णि, अवचूरि, वृहद् - वृत्ति, लघुवृत्ति, शब्दार्थवृत्ति वगैरह सबी व्याख्याकारोंने जैसे दश अध्ययनोंका अनुक्रमे सम्बन्ध मिलायके व्याख्या किवी है तैसे ही दो चूलिकारूप अध्ययनकी भी अनुक्रमणिका सम्बन्ध मिलायके व्याख्या किवी है और व्याख्यायोंके श्लोकोंकी संख्या भी चूलिकाके साथ सामिल करनेमें आती For Private And Personal Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २ ] है एसे ही श्रीआचारांगजीकी चलिका, श्रीव्यवहार सूत्रजी की चूलिका, श्रीमहानिशीथसूत्रकी चूलिका वगैरह सबी चलिकायोंकी गिनती शास्त्रोंके साथ श्लोकोंकी संख्या में आती है तथा व्याख्यानावप्तरमें भी चूलिका साथ सूत्र वांचनेमें आता है। परन्तु चलिकाकी गिनती नही करनी ऐसे तो किसी भी जैन शास्त्र में नही लिखा हैं इस लिये जो जो चलावाले पदार्थ है उसीके प्रमाणका विचार और गिनतीका व्यवहारमें चलाका प्रमाण सहित गिना जाता हैं और क्षेत्र चलाके विषयमें जैन सिद्धान्त समाचारीकारने लिखा है कि ( जैसे मेरुका लक्षयोजनका प्रमाण कहेंगें तब चलिकाका प्रमाण भिन्न नही गिर्नेगे ) इन अक्षरोंको लिखके मेरुपर्वतके उपर जो चालीस योजनके प्रमाणवाली चलिका है। जिसके प्रमाणकी गिणती मेरुसे भिन्न नही कहते हैं सोभी अनुचित है क्योंकि शास्त्रों में मेरुके लक्षयोजनका प्रमाण तथा चलिकाका चालीस योजनका प्रमाण खुलासा पूर्वक भिन्न कहा हैं सोही दिखाते हैं कि-खास जैन सिद्धान्त समाचारीकारके ही परम पूज्य श्रीरत्नशेखर सूरिजीनें लघुक्षेत्र समाप्त नामा ग्रन्थ बनाया हैं सो गुजराती भाषा सहित श्रीमुंबईवाला श्रावक भीमसिंहमाणक की तरफसे श्रीप्रकरण रत्नाकरका चौथाभागमें छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके पृष्ठ २३४ में मेरुकी चूलिकाके सम्बन्धवाली ११३ भी गाथा भाषा सहित नीचे मुजब जानो यथा तदुवरि चालीसुच्चा, वहामूलुवरि बारचउपिहला वेरुलिया वरचूला, सिरिभवण प्रमाण चेइहरा ॥ १९३ ॥ अर्थः--तदुपरि के, ते लाखयोजन प्रमाणना उंचा For Private And Personal Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६३ ] मेरुपर्वत उपरे, चालीसुच्चा के०, चालीस योजननी. उंची, अने, वह के०, वर्तुल तथा, मूलुवरि बारचउपिहुला के०, मूलने विषे बार योजन पहोली अने उपर चारयोजन पहोली, तथा, बेरुलिया के०, वैडूर्यनामे जे नीलारत्न तेनी, वर के०, प्रधान, चूला के०, चूलिका छे तेवली चूलिका केहवी छे, सिरिभवण पमाण चेइहरा के०, श्रीदेवीना भवन सरखा चैत्यग्रह एटले जिन भवण तेणे करि महाशोभित छे इति गाथार्थ ॥ ११३ ॥ उपरकी श्रीरत्नशेखर सूरिजी कृत गाथासे पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे कि, प्रगट पनेसे लक्षयोजनका मेरुके उपरकी चूलिकाके चालीस योजन का प्रमाण भिन्न गिना हैं तथापि जैनसिद्धान्त समाचारीकार भिन्न नही गिनना कहते हैं सो कैसे बनेगा तथा और भी सुनिये जो चूलिकाके प्रमाणको भिन्न नही गिनोंगे तो फिर चूलिकाके उपर एक चैत्य है जिसमें १२० शाश्वती श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाजी है उन्होंकी गिनती कैसे करोगे क्योंकि मेरुमें तो १६ चैत्य कहे है जिसमें १९२० प्रतिमाजी है। तथा एक चूलिकाके चैत्यको १२० प्रतिमाजीकी गिनती शास्त्रकारोंने भिन्न किवी है सो, जैनमें प्रसिद्ध है। इस लिये चूलिकाकी गिनती अवश्यमेव करनी योग्य है तथापि जो मेरुके चूलिकाकी गिनती भिन्न नही करते हैं जिन्होंको एक चैत्यकी १२० शाश्वती जिन प्रतिमाजीकी गिनतीका निषेधके दूषणकी प्राप्ति होनेका प्रत्यक्ष दिखता है। और भी आगे कालचूलाके विषयमें जैन सिद्धान्तसमाचारीके कर्त्ताने ऐसे लिखा है कि ( तैसे चतुर्मासके विचारमें और वर्ष के विचार करनेके अवसरमें अधिक मासका विचार For Private And Personal Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६४ ] न्यारा नही करेंगे इस वास्ते अधिकमासको कालचू कहते हैं ) इन अक्षरोंको लिखके अधिक मासको का चूला कहनेसें चतुर्मासको और वर्षकी गिनती में नही ले ऐसा कहते हैं सो भी अयुक्त है क्योंकि अधिक मास कालचूला कहनेसें भी अवश्यमेव गिनती में लेना योग सो उपर में विस्तार से लिख आये है, इसलिये अ मासकी गिनती कदापि निषेध नही हो सकती है श्रीती रादि महाराजांने प्रमाण किवी है और अधिकमासको व चलाकी ओपमा देने वाले श्रीजिनदास महत्तराचार्य्यजी पूर्व महाराज भी अधिक मासकी गिनती निश्चयके साथ क हैं सोही दिखाते हैं श्रीनिशीथसूत्रकी चूर्णिके दशवें उद्द पर्युषणाकी व्याख्या के अधिकार में पृष्ठ ३२२का तथाच तत्पात अभिवयि वरिसे वीसती राते गते गिहिणा तं कर तिसुचन्दवरिसे सबीसति राते गते गिहिणा तं कर जत्य अधिमासगो पड़ति वरिसे तं अभिवद्दिय वां भस्मति जत्य ण पड़ति तं चन्द वरिसं— सोय अधिमा जुगस्सगंते मज्जे वा भवंति जतितो णियमा दो आस भवंति अहमज्जे दो पोसा- सीसो पुछति जम्हा अभिव वरिसे वीसति रातं, चन्द वरिसे सवीसति मासो उच जम्हा अभिवद्दिय वरिसे गिम्हे चेव सो मासो अतिक तम्हा वीस दिना अणभिग्गहिय करंति, इयरेसु तिसु वरिसेसु सवसति मासो इत्यर्थः ॥ 'देखिये उपरके पाठ में अधिक मास जिस वर्ष में प मैं उसीको अभिवति संवत्सर कहते हैं जहाँ अधिक जिस वर्ष में नही पड़ना है उसीको चन्द्र संवत्सर कहते For Private And Personal Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६५ ] सो अधिक मास नियम करके होनेसे युगके मध्यमें दो पौष तथा युगके अन्तमें दो आषाढ़ होते हैं जब दो आषाढ़ होते हैं तब ग्रीष्म ऋतुमें चेव निश्चय वो अधिकमास अफ्रिान्त (व्यतित) होगया इस लिये अभिवद्धित संवत्सरमें आषाढ़ चौमासीसे वीश दिन तक अनियत वास, परन्तु वीशने दिन जो श्रावण शुक्लपञ्चमी उसी दिन से नियत वास निश्चय पर्युषणा होवे और चन्द्र संवत्सरमें पचास दिन तक अनियत वास, परन्तु पचासमें दिन जो भाद्रपदशुक्लपञ्चमी उसी दिनसै नियत वास निश्चय पर्युषणा होवे___ अब उपरके पाठसे पाठकवर्ग पक्षपात रहित होकर स्वयं विचार करेंगे तो प्रत्यक्ष निर्णय हो सकेगा कि सास चूर्णिकार महाराजने माप्त वृद्धिको गिनतीमें चेव (नि) अवश्यमेव कहा है और प्रथम उद्देशेका जो पहिले पाठ लिखचुके हैं जिसमें कालचूलाकी भी उत्तम ओपना दिवी है मो अधिक मासकी गिनती करनेसेही अभिवति नाम संवत्सर बनता है सो विशेष उपर लिख आये है तथापि जैन सिद्धान्त समाचारीके कर्त्ताने चूर्णिकार महाराजके विरुद्वार्थमें कालचूला कहनेसें अधिक मासकी गिनती नहीं करना ऐसा लिखने में क्या लाभ उठाया होगा सो पाठकवर्ग विचार लेना-इति ॥ ___ तथा और इसके अगाड़ी श्रीतपगच्छके अर्वाचीन (थोड़े कालके) तथा वर्त्तमानिक त्यागी, वैरागी, संयमी, उत्क्रष्टि क्रिया करनेवाले जिनाज्ञा मुजब शास्त्रानुसार चलने वाले शुद्ध रूपक सत्यवादी और सुप्रसिद्ध विद्वान् नाम धराते भी प्रथम श्रीधर्मप्तागरजीने श्रीकल्पकिरणावली में For Private And Personal Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दूसरे श्रीजयविजयजीने श्रीकल्पदीपिकामें तीसरे श्रीविनय विजयजीने श्रीसुखबोधिकामें चौथे न्यायांभोनिधिजी श्रीआत्मारामजीनें जैन सिद्धान्त समाचारी नामा पुस्तक पांचवें। न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजीने मानवधर्म संहिता पुस्तकमें छठे श्रीवल्लभकिजयजीने वर्तमानिक जैन पत्र द्वारा सातवें श्रीधर्मविजयजीने पर्युषणा विचारनामकी छोटीसी १० पृष्ठकी पुस्तकों और आठवा श्रावक भगुभाई फतेचंदने भी पर्युषणा विचार नानका लेख खास जैन पत्रके २३ में अङ्कके आदिमें । इन सबीमहाशयोंने जैन शास्त्रोंके अति गम्भिरार्थका तात्पर्य गुरुगमसे समझे विना श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंके तथा खास श्रीतपगच्छकेही पूर्वाचार्यों के भी विरुद्ध होकर शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप अधूरे अधूरे पाठ लिखके (परभवका भय न रख्खत मिथ्या) अपनी अपनी इच्छानुसार अधिक मास की गिनती निषेध सम्बन्धी अनेक तरह के विकल्प श्रीखरतरगच्छादिवालोंके ऊपर आक्षेपरूप किये है। जिप्सको पढ़ने से भोले जीवोंकी श्रद्धा भङ्ग होने का कारण जानके निपक्षपाती आत्मार्थी जिनाज्ञाके आराधक सत्यग्राही भव्य जीवोंको सत्यासत्यका निर्णय दिखानेके लिये उपरोक्त महाशयों के लिखे हुए लेखोंकी समालोचनारूप समीक्षा शास्त्रानुसार तथा ग्रन्थ कार महाराजके अभिप्राय सहित और युक्तिपूर्वक लिख दिखाता हुं प्रश्न:-तुम उपरोक्त महाशयों के लिखे हुए लेखोंकी समीक्षा करोगें जिसमें जैन सिद्धान्त समाचारी की पुस्तक श्रीआत्मारामजी की बनाई हुई नहीं है किन्तु उनके शिष्य For Private And Personal Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६७ ] श्रीकान्तिविजयजी तथाने श्रीअमरविजयजी ने बनाई है ऐसा उप्त पुस्तकमें छपा है फिर श्रीआत्मारामजीका नाम उपरमें क्यों लिखा है और पर्युषणा विचार नामकी छोटी पुस्तकके लेखक भी श्रीधर्मविजयजी नही है किन्तु उनके शिष्य विद्याविजयजी हैं फिर श्रीधर्मविजयजीका नाम उपरमें क्यों लिखा है। ___ उत्तरः-भो देवानुप्रिय ! मैंने उपरमें श्रीआत्माराम जीका और श्रीधर्मविजयजीका नाम लिखा है जिसका कारण यह हैं कि जैन शास्त्रानुसार गुरु महाराज की आज्ञा विना शिष्य कोई कार्य नही कर सकता है इस लिये शिष्यके जो जो कार्य करने की जरूरत होवे सो को गुरु महाराजसे निवेदन करे जब गुरु महराज योग्यता पूर्वक कार्य करने की आज्ञा देंवें तब शिष्य गुरु महाराजकी आज्ञानु तार जो कार्य करना होवे सो कर सकता हैं उन कार्य के लाभालाभके अधिकारी गुरु महाराज होते हैं परन्तु शिष्य गुरु महाराजकी आज्ञानुसार कार्यकारक होता है इस लिये उस कार्य को कराने के मुख्य अधिकारी गुरु महाराज हैं इस न्यायके अनुसार प्रथम श्रीकान्तिविजयजीने तथा श्री. अमरविजयजीने, जैन सिद्धान्त तमा बारीकी पुस्तक वनानेके लिये श्रीआत्मारामजीसे आज्ञा मांगी होगी और बनाये पीछे भी अवश्यमेव दिखाई होगी जितको श्रीआत्माराम जीने पढ़के छपानेकी आज्ञा दिवी होगी तब छपके प्रसिद्ध हुई है जो श्रीआत्मारामजी बनानेकी तथा छपाके प्रसिद्ध करनेकी आज्ञा न देते तो कदापि प्रसिद्ध नहीं हो सकती इस लिये जैन सिद्दान्त समाचारीकी पुस्तकके प्रगटकारक For Private And Personal Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीआत्मारामजी ठहरे, आप कोई कार्य करना अथवा आप आज्ञा देकर कोई कार्य कराना सो भी बरोबर है जिससे मेंने श्रीआत्मारामजीका नाम लिखा है इसी न्यायसे श्रीधनविजयजीका भी नाम जानो-कदाचित् कोई ऐसा कहेगा कि गुरु महाराजकी आज्ञाविनाही प्रसिभ कर दिवी होगो तो इसपर मेरा इतनाही कहना है कि गुरु महाराजकी आज्ञा विना जो कोई भी कार्य शिष्य करे तो उसको गुरु आज्ञा विराधक अविनित तथा अनन्त संसारी शास्त्र कारोंने कहा हैं ऐसेको हितशिक्षारूप प्रायश्चित्त दिया जाता हैं तथापि अविनित पमेसें नही माने तो अपने गच्छसे अलग करनेमें आता है सो बात प्रसिद्ध है इसलिये जो श्रीआत्मारामजीकी आज्ञासे जैन सिद्धान्तसमाचारीकी पुस्तक तथा श्रीधर्मविजयजीकी आज्ञासे पर्युषणा विचारकी पुस्तक प्रसिद्ध हुई होवे तब तो उस दोनो पुस्तकमें शास्त्रकारों के विरुसार्थ में अधूरे अधूरे पाठ लिखके उत्सूत्रभाषणरूप अनुचित बाले लिखी है जिसके मुख्य लाभार्थी दोनो गुरुजन है इसी अभिप्रायसे मैंने भी दोनो गुरुजनके नाम लिखे हैं और अब उपरोक्त महाशयोंके लिखे लिखोंकी समीक्षा करते हैं जिसमें प्रथम इस जगह श्रीविनयविजयजी कत श्रीकल्पसूत्रकी सुबोधिका ( मुखबोधिका ) वृत्तिविशेव करके श्रीतपगच्छमें प्रसिद्ध हैं तथा वर्तमानिक श्रीतपराच्छके साधु आदि प्रायः सब कोई शुद्ध श्रद्धापूर्वक सरल जानके उसीको हर वर्षे गांव गांवके विषे श्रीपर्युषणापर्वमें वांचते हैं जिर में अधिक मासकी गिनती निषेध करने के लिये लिखा हैं जिसको यहाँ लिखकर पीछे उसी में जो अनुचित्त है For Private And Personal Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जिसकी समीक्षा करके दिखावंगा जिससे आत्मार्थी प्राणियोंको सत्यासत्यकी स्वयंमालुम हो सकेगा श्रीसुखबोधिका वृत्ति मेरे पास हैं जिसके पृष्ठ १४६ की दूसरी पुठीकी आदि से लेकर पृष्ठ १४७ की दूसरी पुठीकी आदि तकका नीचे मुजब पाठ जानो यथा___ अन्तरावियत्ति अर्वागपि कल्पते परं न कल्पते तां रात्रिं भाद्रशुक्लपञ्चमी उवायणा वित्तएत्ति अतिक्रमयितुं तत्र परिसामस्त्येन उषणं वसनं पर्युषणा सा द्वेधा गृहस्थ ज्ञाता गृहस्थै अज्ञाताच तत्र गृहस्थै अज्ञाता यस्यां वर्षायोग्य पीठफलकादौ प्राप्त कल्पोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्थापना क्रियते साधाषाढ़पूर्णिमायां योग्यक्षेत्राभाधे तु पञ्च पञ्चदिन वृद्धया दशपर्वतिथि क्रमेण यावत् भाद्रपद सितपञ्चम्यां एवं गृहिज्ञाता तु द्वेधा सांवत्तरिक कृत्य विशिष्टा गृहिज्ञातमात्राच तत्र सांवत्सरिक कृत्यानि॥संवत्सरप्रतिक्रान्ति लुञ्चनं २ चाष्टमं तपः३ सर्वार्हद्भक्तिपूजा च ४ संघस्य क्षामणं मिथः ५॥१॥ एतत्कृत्य विशिष्टा भाद्रसितपञ्चम्यामेव कालिकाचार्यादेशाचतुर्थ्यामपि केवलगृहिज्ञाता तु सा यत् अभिवद्धिते वर्षे चतुर्मासकदिनादारभ्य विंशत्यादिनैः वयमत्र स्थितास्म इति पृच्छतां गृहस्यानां पुरो वदन्ति । तदपि जैनटिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते चाषाढ़ो व ते नान्येमासास्तहिप्पनकंतु अधुना सम्यग न ज्ञायते ततः पञ्चाशतैश्च दिनैः पर्युषणायुक्तति वृद्धाः अत्र कश्चिदाह ननु श्रावणवृद्धौ श्रावणसित चतुर्थ्यामेव पर्युषणायुक्ता नतु भाद्रसितचदुर्थ्यां दिनानामशीत्यापत्तेः। वासाणं सवीसइराए मासैवइक्वते इति वचनबाधा स्यादिति चेन्मैवं अहो देवानां प्रिय एवमाश्विन For Private And Personal Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ 9 ] वृद्धौ चतुर्मासककृत्य माश्विनसिप्तचतुर्दश्यां कर्तव्यं स्यात् कार्तिकसित चतुर्दश्यां करणे तु दिनानां शतापत्या ॥ समणे भगवं महावीरे वासाण सवीसइराए मासे वइक्वते सत्तरिराइंदिएहिं॥ इति समवायांगवचमबाधा स्यात् । नच वाच्यं चतु. सिकानां ही आषाढ़ादिमासप्रतिबद्धानि तस्मात्कार्तिकचतुर्मासिकं कार्तिकसितचतुर्दश्यामेव युक्तं दिनगणनायां त्वाधिकमासः कालचूलेत्यविवक्षणादिनानां सप्ततिरेवेति कुतः समवायांगवचनबाधा इति यतो यथा चतुर्मासकानि आषाढ़ादिमास प्रतिबद्धानि तथा पर्युषणापि भाद्रपदमास प्रतिबद्धा तत्रैव कर्त्तव्या दिनगणनायां त्वधिकमासः कालचूलेत्यविवक्षणादिनानां पञ्चाशदेव कुतोऽशीतिवार्तापि नच भाद्रपदप्रतिबद्ध तु पर्युषणा अयुक्तं बहुवागमेषु तथा प्रतिपादनात् ॥ तथाहि ॥ “अन्नया पज्जोसवणादिवसे आगए अज्ज कालगेण सालवाहणो भणिओ, भद्दवयजुरह पंचमीए पज्जोसवणा" ॥ इत्यादि॥ पर्युषणाकल्पचूी तथा “तत्य य सालवाहणो राया, सो अ सावगो, सो अ कालगज्ज इंतं सोऊण निग्गओ, अभिमूहो समणसंघो अ, महाविभूईए पविट्ठो कालगज्जो, पविट्ठीहिं अ भखिअं, भद्दवयसुद्धपंचमीए पज्जोसविज्ज इ, समणसंघेण पडिवण, ताहे रमा अणिअं, तदिवसं मम लोगाणुवत्तीए इंदो अणुजाणेयो होहित्ति साहू चेइए अणुपज्जुवासिस्सं, तो छट्ठीए पज्जोसवणा किज्जइ, आयरिएहिं अणिअं, न वढ्ढति अतिक्कमितुं, ताहे रमा भणिअं, ता अणा गए चउत्थीए पज्जोसविज्जति, आयरिएहिं भणिअं, एवं भवउ, ताहे चउत्योए पज्जोसवितं एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्थी पत्तिआ, सा घेवाणुमतासवसार For Private And Personal Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११ ] णमित्यादि ॥ श्रीनिशीथ चूर्णो दशमी शके एवं यत्र कुत्रापि पर्यूषणानिरूपणम् तत्र भाद्रपदविशेषितमेव नतु काप्यागमे भवयसुद्वपंचमीए पज्जोसविज्ज इति पाठवत् अभिवद्विअ वरिसे सावणसुद्ध पंचमीए पज्जोसविज्जइति पाठ उपलभ्यते ततः कार्तिकमासप्रतिबद्द चतुर्मासिकः कृत्य करणे यथा नाधिकमासः प्रमाणं तथा भाद्रमासप्रतिबड पर्युषणा करणेऽपि नाधिकमासः प्रमाणमिति त्यजकदाग्रहम् । श्रीविनयविजयजी कृत उपरके पाठका संक्षिप्त भावार्थ:अन्तरा विपत्ति इत्यादि कहने से आषाढ़ पूर्णिमासे पचास में दिन भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी जिसके अन्तरमे कारण योगे पर्युषणा करना कल्पे परन्तु पञ्चमीको उल्लङ्घन करना नही कल्पे वर्षाकाल में सर्वथा एकस्थान में निवास करना सो पर्युषणाजिसमें योग्यक्षेत्र के अभाव से पांच पांच दिनको वृद्धि करते दशपर्व तिथि में यावत् पचासमें दिन भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीको परन्तु श्रीकालकाचार्य्यजी से चतुर्थी की गृहस्थी लोगोंकों साधुके वर्षाकालका निबास अर्थात् पर्युषणाकी मालुम होती थी सो चन्द्रसंवत्सर की अपेक्षा से परन्तु मास वृद्धि होनेसें अभिवर्डितनाम संवत्सर में वीशदिने गृहस्थीलोगोंको साधुके निवास (पर्युपणा) की मालुम होती थी सो जैन टिप्पनाके अनुसारे एकयुग के मध्य में पोषकी तथा अन्तमें आषाढ़ की वृद्धि होती थी इसके सिवाय और मासों के बुद्धिका अभावथा तब चन्द्रमें पचास दिनका तथा अभिवर्द्धितमें वीशदिनका नियम था, परन्तु अब वर्त्तमानकाले जैन टिप्पना नहीं वर्तता है तथा लौकिक टिप्पनामें हरेकमासोंकी वृद्धि होती है इस लिये - पंचाशतैश्च दिनैः पर्युषणायुक्तेति वृद्धा: - अर्थात् इस For Private And Personal Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir . [ २ ] कालमें मास रहि हो अथवा न हो परन्तु पचासदिने पर्युषणा करना योग्य है ऐसे वृद्धाचार्य कहते हैं यहाँ कोई कहते हैं कि इस न्यायानुसार वर्तमान कालमें जब दो श्रावण होते हैं तब तो पचास दिनकी गिनतीसे दूजा श्रावण सुदी चौथके दिन पर्युषणा करना योग्य है परन्तु दो श्रावण होते भी माद्रव सुदी चौथ के दिन पर्युषणा करना योग्य नही है क्योंकि ८० दिन होजावेंगे, और श्रीकल्पसूत्रमें-वासाणं सवोसइराए मासे वीइक्कते-अर्थात् आषाढ़ चौमासीसें एक मात और वीशदिन उपर, कुल पचाशदिन जानेसे पर्युषणा कहा है तथापि ८० दिने करनेसे सूत्रका इस वाक्यको बाधा आती हैं इस लिये ८० दिने पर्युषणा करना योग्य नहीं है,ऐता प्रश्नरूप वाक्य सुनके इसका उत्तर रूप वाक्य श्रीविनय विजयजी अपनी विद्वत्ताके जोरसे कहते हैं कि अहो देवानां प्रिय-अहो इति आश्चर्य हेमूर्ख-अधिकमासकी गिनती करके दो श्रावण होनेसे दूजा श्रावणमें ५० दिने पर्युषणा करना कहता है तो दो आश्विन ( आसोज ) मास होनेसे ७० दिन की गिनती से दूजा आश्विन मासमें तेरेको चतुर्मासिक कृत्य करना पड़ेगा तथापि कार्तिक मासमें चतुर्मासिक कृत्य करेगा तो १०० दिन हो जावेगें, क्योंकि समणे भगवं महावीरे वासाण सवीसइराए मासेवइ कंते रुत्तरिएराईदिएहिं इति। श्रीसमवायांगजीमें पीछाडीके 90 दिन रहना कहा है इतवास्ते दूजा आसोजमें चौमासिक कृत्य करना पड़ेगा तथापि कार्तिकमें करेगा तो १०० दिन होजावेंगें तो श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके वचनको बाथा आवेगी इस लिये अधिक मासकी गिनती करनेसे दूजा श्रावणमें पर्युषणा करना योग्य For Private And Personal Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३ ] है। ऐसा नहीं कहना क्योंकि चतुर्मासिक कृत्य आपाढ़ादिमासों में करने का नियम हैं तिप्त कारणसें दो आश्विनलास होवे तोभी कार्तिक चौमासी कार्तिक शुदी चतुर्दशीके दिन करना योग्य है जिसमें अधिकमास कालचूला होनेसे दिनों की गिनतीमें नही आता है इसलिये दो आश्विन होवे तो भी कार्तिकमें १०० दिने चौमासी किया ऐसा नही समझना किन्तु ७० दिने ही किया गया ऐसा कहनेसे श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके वचनमें बाधा नहीं आती हैं इस कारण, जैसे चतुर्मासिक आषाढ़ादि मातों में करने का नियम हैं तैसे ही पर्युषणा भी भाद्रपद मास में करने का नियम हैं जिससे उत्ती ( भाद्रवे ) में करना चाहिये जिसमें भी अधिकमास आवे तो दिनोंकी गिनती में नही लेने से दो श्रावण होते भी भाद्रवेमें पर्युषणा करनेते ५० दिने ही किया ऐसा गिना जाता है इस लिये ८० दिनोंकी वार्ता भी नही समझना तथा पर्युषणा भाद्रवेमें करनेका नियम है सो ही बहुत आगमों में कहा है तैसा ही श्रीविनयविजयजीने यहाँ श्रीपर्युषणा कल्प वूर्णिका तथा श्रीनिशीथ चूर्णिका पाठ लिख दिखाया जिसमें भी श्रीकालका वार्यजी महाराज आषाढ़ चतुर्मासीके पीछे कारणयोगे विहार करके सालिवाहनराजा की प्रतिष्ठानपुर नगरीमें आने लगे तब राजा और श्रमण सङ्क आवार्यजी महाराजके सामने आये, और महा महोत्सवपूर्वक नगरी में प्रवेश कराया और पर्यषणा पर्व नजिक आये थे जब आचार्यजी महाराजके कहनेसे भाद्रव शुदी पञ्चमीके दिन पर्युषणा करनेके लिये सर्व सङ्घने मंजूर किया तब राजाने कहा कि महाराज उसी ( पञ्चमी ) के For Private And Personal Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir t ५४ J दिन मेरे नगरीके लोगोंको सम्मतीसे इन्द्रध्वजका महोत्सव होता है जिससे एक दिनमें दो कार्य्य के महोत्सव बननेमें तकलीफ होगा इस लिये पर्युषणा छटकी करो तब आता जी महाराजने कहा कि छठको पर्युषणा करना नही कल्पे अब फिर राजाने कहा कि चौथकी करो तब आचार्य जीने कहा यह बन सकता है, युगप्रधान महाराजकी इस वातको ने भी प्रमाण किवी है इत्यादि श्रीनिशीथ चूर्णिके दशवे उद्देशे में इसी प्रकारने पर्युषणाकी व्याख्या है सो भाद्रव मासमें करने की हैं जैसे ही मासवृद्धि होने से अभिवति संवत्सर (वर्ष) में श्रावण शुदी पञ्चमीकी पर्युषणा करनी ऐसा पाठ कोई भी आगममें नही मिलता है तिस कारणसे कार्तिकात बद्ध ( आश्री ) चतुर्मासिक कृत्य करने में जैसे अधिक मास प्रमाण नही है तैसे ही भाद्रव मास प्रतिबद्ध पर्युषणा करने में भी अधिकमास प्रमाण नही है इति अधिकमा की गिनती करनेका काग्रहको छोड़ोउपरका लेख अधिकमासको गिनती में निषेध करनेके लिये श्रीविनयविजयजीकृत श्रीसुखबोधिकावृत्तिके उपरोक्त पाठसे हुवा है इसी ही तरह के मतलबका लेख श्रीधर्म्मसागरजीने श्रीकल्यकिरणावली वृत्ति में तथा श्रीजयविजयजी ने श्रीकल्प दीपिका वृत्तिसे अपने स्वहस्ये लिखा है सो यहाँ गौरवता ग्रन्थ बढ़ जानेके भय से नही लिखते है जिसकी इच्छा होवे सो किरणावली के तथा दीपिकाके नवमा व्याख्यानाधिकारे देख लेना इस तीनों महाशयों के लेख प्रायः एक सदृश ( तुल्य ) है जिसमें भी विशेष प्रसिद्ध सुखबोधिका होने से मैंने उपर लिखा है सोही भावार्थः तथा पाठ तीनो महा For Private And Personal Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७५ ] शयोंके जान लेना-अब तीनो महाशयोंके लेख की शास्त्रानु सार और युक्तिपूर्वक समीक्षा करता हु-इन तीनो महाशयों का मुख्य तात्पर्य्य सिर्फ इतना ही है कि अधिकमासको गिनतीमें नहीं लेना इस बातको पुष्ट करने के लिये अनेक तरहके विकल्प लिखे हैं जिसको और अबमें समीक्षा करता हुँ उमीको मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही पुरुष निष्पक्षपातसे पढ़के सत्यासत्यका स्वयं विचारके गच्छका पक्षपातके दृष्टि रागका फंदको न रखते असत्यको छोड़ना और सत्यको ग्रहण करना येही सज्जन पुरुषोंकी मुख्य प्रतिज्ञाका काम है अब मेरी समीक्षा को सुनिये-श्रीधर्म सागरजी तथा श्रीजय विजयजी और श्रीविनयविजयजी इन तीनों श्रीतपगच्छके विद्वान् महाशयोंको प्रथमतो अधिक मासको कालचूला जानके गिनतीमें निषेध करना ही सर्वथा अनुचित है क्यों कि श्रीअनन्ततीर्थङ्करगणधर पूर्वधरादि पूर्वाचाोंने तथा श्रीतपगच्छके पूर्वज और प्रभाविकाचार्याने अधिक मासकी दिनोंमें, पक्षों में, मासों में, वर्षों में, गिनती खुलाला पूर्वक किवी है तथा कालचूलाको उत्तम ओपमा भी शास्त्रकारोंने गिनती करने योग्य दिवी है और कालचूलाकी ओपमा देनेवाले श्रीजिनदास महत्तराचार्यजी पूर्वधर भी अधिक मासको निश्चयके साथ गिनते हैं जिसका और श्रीतीर्थङ्करादि महाराजांने अधिक मासको गिनतीमें लिया है जिसके अनेक शास्त्रोंके प्रमाणों सहित विस्तार पूर्वक उपरमें लिख आया हुं जिन शास्त्रों के पाठोंसें जैन श्वेताम्बर सामान्य पुरुष आमार्थी होगा और शास्त्रों के विरुद्ध परूपनासे संसार वृद्धिका भय रखनेवाला सम्यकत्वी नामधारी होगा सो भी कदापि For Private And Personal Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६ ] अधिक मासकी गिनती निषेध नहीं करेगा तथापि श्रीतपगच्छके तीनो महाशय विद्वान् नाम धराते भी अपने बनाये ग्रन्थों में अपने स्वहस्त श्रीतीर्थङ्करादि महाराजांके विरुद्ध होकर अधिक मासकी गिनती निषेध करते हैं सो कैसे बनेगा अपितु कदापि नहीं इस लिये इन तीनो महाशयोंका कालचूलाके नामसे अधिक मासको गिनतीमें निषेध करना सर्वथा जैन शास्त्रों के विरुद्ध है तथा और भी सुनिये जैन शास्त्रों में पांच प्रकारके मासों से और पांच प्रकारके संवत्तरोंसे एक युगके दिनोंका प्रमाण श्रीतीर्थङ्करादि महाराजांने कहा है सो सर्वही निश्चयके साथ प्रमाण करके गिनती करने योग्य है जिसके कोष्टक नीचे मुजब जानो यथा दिनांका और उपर एक अहोरात्रिके मासों के नाम प्रमाण | भाग करके ग्रहण करना २१ ३२ नक्षत्र मास चन्द्र मास ऋतु मास सूर्य मास अभिवद्धित मास ३१ ।। - ३२७ संवत्सरों के नाम दिनांका और उपर एक अहोरात्रिके | प्रमाण भाग करके । ग्रहण करना नक्षत्र संवत्सर चन्द्र संवत्तर ३५४ ऋतु संवत्सर सूर्य संवत्सर ३६६ अभिवद्धित सं० ३३ । 2005 ० ० 20 For Private And Personal Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ 9 ] मासकी गिनती संवत्सरोंके तथा मासांके | एक युगकेदिनों तथा मासोके नाम प्रमाणसें का प्रमाण पाँच नक्षत्र संवत्सर ६७ नक्षत्र मासके एक युगके और उपर सात नक्षत्र १८३० दिन मास जानेसे पाँच संवत्सर जिसमें बारह बारह मासौके तीन चन्द्र संवत्सर और ६२ चन्द्र मासके | एक युगके तेरह तेरह मासोंके दो । १८३० दिन अभिवद्धित संवत्सर एसे पाँच संवत्सर जानेसे ६१ ऋतु मासके पाँच ऋतु संवत्सर और एक युगके उपर एक ऋतुमास जानेसे १८३० दिन पाँच सूर्य्य संवत्सर एक युगके जानेसे १८३० दिन ६० सूर्य मासके ५७ अभिवर्द्धित चार अभिवद्धित संव. मास तथा उपर त्सरके उपर नव () ७ दिन और एक अभिवाईत मास और मास और | एक युगके अहोरात्रिके १२४ ७ दिनके उपर एक अहो १८३० दिन भाग करके ४७ रात्रिके १२४ भाग करके भाग ग्रहण करनेसे ४७ भाग ग्रहण करे जि तना काल जानेसे For Private And Personal Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ७८ } उपरोक्त कोष्टकों में पाँच प्रकारके मासोका प्रमाणसे पाँच प्रकारके संवत्सरोंका प्रमाण, और एक युगके १८३० दिन का प्रमाण श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने कहा है जिसके अनुसार श्रीतपगच्छके श्रीक्षेमकीर्त्ति सूरिजीने भी श्रीबृहत्कल्पवृत्ति में लिखा है सो पाठ भी उपर लिख आया हु जैन शास्त्रों में सूर्य्य मासकी गिनतीकी अपेक्षासे एकयुग के ६० सूर्य्य मासेंाके पाँच सूर्य्य संवत्सरों में एक युगके १८३० दिन होते हैं जिसमें सूर्य्यमासको अपेक्षा लेकर गिनती करनेसे मासवृद्धिका ही अभाव है परन्तु एकयुग के १८३० दिनकी गिनती बरोबर सामिल होनेके लिये खास ऋतुमासाकी अपेक्षासे पाँच ऋतु संवत्सरोंमें सिर्फ एकही ऋतुमास बढ़ता है और चन्द्रमासों की अपेक्षा पाँच चन्द्रसंवत्सरोंमें दो चन्द्रमा बढ़ते हैं तथा नक्षत्रमासों की गिनतीकी अपेक्षासे पाँच नक्षत्र संवत्सरों में सात नक्षत्रमास बढ़ते है और अभिवर्द्धित मासोंकी गिनतीकी अपेक्षासे तो चार अभिवर्द्धित संवत्सर उपर . अभिवर्द्धित मास और सात (७) दिन तथा एक अहो रात्रिके १२४ भाग करके ४१ भाग ग्रहण करे जितना काल जानसे ( नक्षत्रमास, चन्द्रमास ऋतुमास, सूर्य्यमास, और अभिवर्द्धित, मास इन सबके हिसाबके प्रमाण से ) एक युगके १८३० दिन होजाते है सो उपरके कोष्टों में खुलासा है उपरका प्रमाण श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि पूर्वावायें का तथा श्री खरतरच्छके और श्रीतपगच्छके पूर्वज पुरुषों का कहा हुवा होनेसे इन महाराजोंकी आशातनासे डरनेवाला प्राणी १८३० दिनोंकी गिनतीमेंका एक दिन तथा घड़ी अथवा पल मात्र भी गिनतीमें निषेध नही कर सकता है तथापि For Private And Personal Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ] श्रीतपगच्छके अर्वाचीन तथा वर्तमानिक त्यागी, वैरागी संयमी, उत्क्रष्टिक्रिया करनेवाले जिनाज्ञाके आराधक शुद्ध परूपक श्रद्धाधारी सम्यकत्वी विद्वान् नाम धराते भी महान् उत्तम श्रीतीर्थङ्कर गणधर और पूर्वधरादि पूर्वाचार्य तथा खास श्रीतपगच्छकेही पूर्वजपूज्य पुरुषोंकी आशातनाका भय न रखते चन्द्रमासेांकी अपेक्षासै जो अधिक मास होता है जिसकी गिनती निषेध करके उत्तम पुरुषोंके कहे हुवे पाँच प्रकारके मासेंका तथा संवत्सरोका प्रमाणको भङ्ग करके एकयुगके दिनोंकी गिनतीमें भी भङ्ग डालते है जिन्होंकी विद्वत्ताको में कैप्ती ओपमा लिखु इसका विचार करता था जिसमें श्रीआत्मारामजीकाही बनाया अज्ञानतिमिर भास्कर ग्रन्थका लेख मुजे उसी वख्तयाद आया सो लिख दिखाता हुं अज्ञानतिमिर भास्कर ग्रन्थके पृष्ठ २९४ के अन्तसे पृष्ठ २९६ के आदि तक का लेख नीचे मुजब जानो____ संविज्ञ गीतार्थ मोक्षाभिलाषी तिस तिसकाल सम्बन्धी बहुत आगमे के जानकार और विधिमार्गके रसीये बहुमान देनेवाले संविज्ञ होने से पूर्वसूरि चिरन्तन मुनियों के नायक जो होगये हैं तिनीने निषेध नही करा है ; जो आचरित आचरण सर्वधर्मी लोक जिप्त व्यवहारको मानते हैं तिसकों विशिष्ट श्रुत अवधि ज्ञानादि रहित कौन निषेध करे ? पूर्व पूर्वतर उत्तमा वायोंकी आशातनासे डरनेवाला अपितु कोई नही करे बहुल कर्मीकों वर्जके ते पूर्वोक्तगीतार्थो ऐसे विधारते हैं जाज्वल्यमान अग्निमें प्रवेश करनेवाले भी अधिक साहत यह है उत्सूत्र प्ररूपणा, सूत्र निरपेक्ष देशना, कटुक विधाक, दारुण, खोटे फलकी देनेवाली, ऐसे जानते हुए भी For Private And Personal Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८० । देते हैं, मरीचिवत, मरीचि एक दुर्भाषित वचनसे दुःखरूप समुद्रको प्राप्ता हुआ; एक कोटा कोटी सागर प्रमाण संसार में भ्रमण करता हुआ जो उत्सूत्र आचरण करे सो जीव चीकणे कर्मका बन्ध करते हैं। संसारकी वृद्धि और माया मृषा करते हैं तथा जो जीव उन्मार्गका उपदेश करें, और सन्मार्गका नाश करे सो गूढ़ हृदयवाला कपटी होवे, धूर्ताचारी होवे शल्य संयुक्त होवे सो जीव तिर्यंच गतिका आयुबन्ध करता है। उन्मार्गका उपदेश देनेसें भगवन्तके कथन करे चारित्रका नाश करता है, ऐसे सम्यग् दर्शनसें भ्रष्टकों देखना भी योग्य नही है, इत्यादि आगम वचन सुनके भी ख अपने आग्रहरूप ग्रहकरी ग्रस्त चित्तवाला जो उत्सूत्र कहता है क्योंकि जिसका उरला परला कांठा नही है ऐसे संसार समुद्र में महादुःख अंगीकार करने में। प्रश्न-क्या शास्त्रको जानके भी कोई अन्यथा प्ररूपणा करता है। उत्तर--करता है सोई दिखाते हैं देखने में आते हैंदुषमकालमें वक्रजड़ बहुत साहसिक जीव भवरूप भयानक संसार पिशाचसे न डरने वाले निजमतिकल्पित कुयुक्तियों करके विधिमार्गकों निषेध करने में प्रवर्तते है कितनीक क्रियांकों जे आगममें नही कथन करी है तिनको करते हैं और जे आगमने निषेध नही करी है चिरंतन जनोंने आचरण करी है तिनको अविधि कह करके निषेध करते हैं और कहते हैं—यह क्रियाओ धर्मीजनोंकों करने योग्य नही है। उपरमें श्री आत्मारामजीके लेखमें जो पूर्वाचाय्याने आवरीत ( प्रमाण ) करी हुई बातको निषेध करनेवालाकों For Private And Personal Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१] यावत् सम्यग् दर्शन से भ्रष्टको देखना भी योग्य नही है इत्यादि कहा तो इस जगह पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुष विचार कि श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंनें चंद्रमासकी अपेक्षा से जो अधिकमासको वृद्धि होती है जिसको गिनती में प्रमाण किया है, तथापि श्रीतपगच्छ के तीनो महाशय तथा वर्तमानिक विद्वान् नाम धराते भी निषेध करते हैं जिन्होंका त्याग, वैराग्य, संयम और जिनाज्ञाके शुद्ध श्रद्धाका आराधकपना कैसे बनेगा और शुद्ध परूपनाके बदले प्रत्यक्ष अनेक शास्त्रों के प्रमाण विरुद्ध, उत्सूत्र भाषणका क्या फल प्राप्त करेंगे सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना और श्रीधर्म्य सागरजी श्रीजय विजयजी और श्रीविनयविजय जी ये तीनो महाशय इतने विद्वान् हो करके भी गच्छ कदाग्रहका पक्षपातसे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध परूपनाके फल विपाकका बिलकुल भय न करते सर्वथा प्रकार से अधिक सासकी गिनती निषेध कर दिवी तथा औरभी अपने लिखे वाक्यका भी क्या अर्थ भूल गये सो अधिक माकी गिनती निषेध करते अटके नहीं क्योंकि इन तीनो महाशयोंके लिखे वाक्य से भी अधिक मास गिनती में सिद्ध होता है सोही दिखाते हैं ( अभिवर्द्धित वर्षे चतुर्मासिकदिनादारभ्य विंशत्यादिनैर्वयमत्र स्थिताः स्म ) यह वाक्य तीनो महाशयोंने लिखा है इस वाक्यमें अभिवर्द्धित वर्ष ( संवतर) लिखा है सो अभिवर्द्धित वर्ष मास वृद्धि होनेसे तेरह चन्द्रमामोंकी गिनती से होता है इसमें अधिक मासकी गिनती खुलाता पूर्वक प्रमाण होती है और अधिकमास की गिनती के बिना अभिवर्द्धित नाम संवस्तर नही बनता है ११ For Private And Personal Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २ ] क्योंकि अधिक मासकी गिनती नही करनेसे बारह चन्द्रमाप्तोंसे चन्द्र संवत्सर होता है परन्तु अभिवति नाम नही बनेगा जब अधिक मासको गिनती होगा तब ही तेरह चन्द्रमासैसे अभिवति नाम संवत्सर बनेगा जिसका विस्तार उपर लिख आये हैं इस लिये अधिक मासकी गिनती तीनो मलाशयोंके वाक्यसै सिद्ध प्रत्यक्ष पने होती है और फिरभी इन तीनो महाशयोंने ( जैन टिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्त च आषाढ़ो एव वई ते नान्येमासाः तच्चाधुना सम्यग न ज्ञायते ततः पञ्चाशतैव दिनैः पर्युषणा सङ्गति शुद्धाः ) यह भी अक्षर लिखे हैं सो इन अक्षरोंसे भी सूर्यवत् प्रकाशकी तरह प्रगट दिखाव होता है कि जैन टिप्पनामें पौष और आषाढ़की वृद्धि होती थी सो टिप्यना इस कालमें नही हैं इस लिये पचास दिने पर्युषणा करना योग्य है यह श्रीतपगच्छके पूर्वज शुद्धाचार्यों का कहना है सो बातभी सत्य है क्योंकि इन तीनो महाशय के परमपूज्य श्रीतपगच्छके प्रभाविक श्रीकुलमराउन सूरिजीने भी लिखी है जिसका पाठ इसी पुस्तकके नवमें (९) पृष्ठमें छप गया हैं____ अधिक मासकी गिनती अनेक जैन शास्त्रोंसे तथा उपरके वाक्यसे भी सिद्ध होती है और पचास दिने पर्यु. षणा करना अपने पूर्वजे की आज्ञासे तीनो महाशय लिखते हैं जिससे पाठकवर्ग विचार करे तो शीघ्र ही प्रत्यक्ष मालुम हो सकता है कि वर्तमानमें दो श्रावण होतो दूजा श्रावणमें अथवा दो भाद्रव होतो भी प्रथम भाद्रवमें पचास दिनांकी गिनतीसे ही पर्युषणा करना चाहिये यह न्याय स्वयं सिद्ध है For Private And Personal Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ] इन तीनो महाशयांने प्रथम अभिवर्द्धित वर्षे इत्यादि वाक्य लिखे जिससे अधिक मासको गिनती ति हुई और (पञ्चाशतैश्च दिनैः पर्युषणा युक्तेति वृधः ) यह वाक्य लिखके इस काल नें पचास दिने पर्युषणा करना ऐसे सिद्ध किया जिसमें जैन टिप्पनाके अभाव से भी पचास दिनका तो निश्चय रक्खा इस लिये वर्तमान काल में पर्युषणा सर्वथा भाद्रव पदमें ही करनेका नियम नही रहा क्योंकि श्रावण मासको वृद्धि होने से दूजा श्रावण में और दो भाद्रव होनेते प्रथम भाद्रवमें पचास दिनकी गिनती पूरी होती है यह मतलब तीनो महाशयोंके लिखे हुवे वाक्यसेभी विद होता है तथापि उपर का मतलबको ये तीनो महाशय जानते भी गच्छके पक्षपात के जोर से अपनी विद्वत्ताको लघुता कारक और अप्रमाण रूप विसंवादी (पूर्वापर विरोधि ) वाक्य अपने स्वहस्ते लिखते बिलकुल विचार न किया और आषाढ़ चौमासीसे दो श्रावण होनेके कारणसे भाद्रव शुड़ी तक ८० दिन प्रत्यक्ष होते हैं जिसको भी निषेध करनेके लिये (पर्युषणावि भाद्रपदमास प्रति बढ़ा तत्रैव कर्तव्या दिनगणनालधिक मासः कालचूलेत्य विवक्षणाद्दिनानां पञ्चाशतैव कुतोऽशीति वार्त्तापि ) इन अक्षरोंको तीनो महाशयोंने लिखे है जिस में मास वृद्धि होने से भी भाद्रपदमें पर्युषणा करना और दो श्रावण होवे तो भी भाद्रवेमें पर्युषणा करनेते ८० दिन होते हैं ऐसी वार्त्तापि नही करना क्योंकि अधिक मास कालचूला होनेसे दिनांकी गिनतीमें नही आता है इस लिये ५० दिने पर्युषणा किया समझना ऐसे मतलब के वाक्य लिखना दोनो महाशयोंके पूर्वापर विरोधी तथा पूर्वाचाय्योंकी आज्ञा For Private And Personal Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८४ 1 खण्डनरूप सर्वथा जैन शास्त्रोंसे और युक्ति से भी प्रतिकुल हैं क्योंकि प्रथमतो अधिक मासको गिनती में लेनेसेही अभि वर्षित नाम संवत्तर बनता हैं सो अभिवर्धित संवत्सर तीनो महाशयोंने उपरमें लिखा हैं जो अभिवति संवत्सर का नाम श्रीतीर्थङ्करादि महाराजांकी आज्ञानुसार कायम तीनो महाशय रक्खेंगें तो अधिकमास कालचूला है सो दिनोंकी गिनती में नहीं आता है ऐसे मतलबका लिखना तीनो महाशयोंका सर्वथा मिथ्या हो जायगा - और अधिकमास कालचूला है तो दिनोंकी गिनती में नही आता है ऐसे मतलबको कायम रक्खेंगे तो जो अधिकमास की गिनती से अभिवर्द्धित नाम संवत्सर होता है सो नही बनेगा यह दोनो बात पूर्वापर विरोधी होनेसे नही बनेगे इस लिये अबजो ये तीनो महाशय अधिकमासको दिनोकी गिनती में नही लेवेंगें तब तो श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि तथा श्रीतपगच्छके नायक पूर्वा वार्येने अधिक मासको दिनो की गिनती में लिया है जिन महाराजोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणरूप तीनो महाशयोंका वचन होगया सो आत्मार्थियोंको सर्वथा त्यागने योग्य हैं इस लिये तीनो महाशयों को जिनाज्ञा विरुद्ध परूपणाका भय होता तो अधिकमासकी गिनती निषेध किवी जिसका मिथ्या दुष्कृत्यादिसे अपनी आत्मा को उत्सूत्र भाषणके कृत्योंसे बचानी थी सो तो वर्तमान कालमें रहे नही है परलोक गयेको अनेक वर्ष होगये हैं परन्तु वर्तमान काल में श्रीतपगच्छके अनेक साधुजी विद्वान् नाम घराते हैं और उन्ही तीनो महाशय के लिखे वाक्यको सत्य मानते है तथा हर वर्षे उसीको पर्युषणा में बाँचते है For Private And Personal Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir जिसमें प्रायः करके गांव गांवमें श्रीतपगच्छके सब साधजी अधिकमासकी गिनती निषेध जैन शास्त्रों के विरुद्ध करते है जिससे श्रीतीर्थङ्करगणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्य्य तथा श्रीतपगच्छके पूर्वज पुरुषांकी आज्ञाभङ्गका कारण होता है सो आत्नार्थी पुरुषको करना उचित नही हैं इसलिये जो श्रीतपगच्छके वर्तमानिक मुनिमहाशयोंको जिनाज्ञा विरुद्ध परूपणाका भय होवे तो अधिकमासकी गिनती निषेध करने का छोड़ देना ही उचित है और आजतक निषेध किया जिप्तका मिथ्या दुष्कृत्य देकर अपनी आत्माको उत्सूत्र भाषणके पापक त्योंसे बचानी चाहिये, तथापि विद्वत्ताके अभिमानसे और गच्छके कदाग्रहका पक्षपातके जोरसे उपर की बातको अङ्गीकार नही करते हुए अधिकमासकी गिनती निषेध करते रहेगे तो आत्मार्थीपना नही रहेगा तथा अधिकमासकी गिनती निषेध जैन शास्त्रोंके विरुद्ध होनेसे कोई आत्मार्थी प्रमाण नही कर सकता है इस लिये जैन शास्त्रानुसार श्रीतीर्थङ्करगणधरादि महाराजोंकी तथा अपने पूर्वाचार्योंकी आज्ञा मुजब अधिकमासकी गिनती सर्वथा प्रकारसे अवश्यमेव प्रमाण करनी सोही सम्यक्त्व धारी पुरुषोंका काम है जैनटिप्यनानुसार पौष तथा आषाढमासकी द्धि होती थी जब भी गिनतीमें लेते थे इस कारणसे तेरह चन्द्रमासोंसे संवत्सरका नाम अभिवर्द्धित होता था, सो वर्तमान कालमें भी अनेक जैन शास्त्रों में प्रसिद्ध है तथा श्रीधमंतागरजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी, ये तीनो महाशय भी अभिवर्द्धित संवत्सर लिखते हैं जिसमें अधिकमासकी गिनती आजाती है इस मतलबका For Private And Personal Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६] विचार न करते उलटा विरुद्धार्थ में तीनो महाशयोंने अपने स्वयं विसंवादी (पूर्वापरविरोधि) वाक्यरूप अधिक मास कालचूला है सो दिनोंकी गिनती में नही आता है ऐसा लिख दिया, और विसंवादी वाक्यका विचार भी न किया । विसंवादी पुरुषका दुनियां में भी कोई भरोसा नही करता है तथा राजदरबार में भी विसंवादी पुरुष झूठा अप्रमाणिक होता है और जैनशास्त्रोंमें तो श्रावककों भी धर्म व्यवहार में विसंवादी वचन बोलनेका निषेध किया है सोही दिखाते हैं श्रीआत्मारामजीने अज्ञानतिमिरभास्कर ग्रन्थके पृष्ठ २५६ में श्रावककों यथार्थ कहना अविसंवादी वचन धर्म्म व्यवहार में ॥ तथा श्रीधर्म्मसंग्रह वृत्तिके ग्रन्थ में भी यही बात लिखी है और श्रीधर्म्मरत्नप्रकरण वृत्ति में भी यही बात लिखी है सोही दिखाते हैं । श्रीधर्म्म रत्नप्रकरण वृत्ति गुजराती भाषा सहित श्रीपालीताणा में श्रीविद्याप्रसा रकवर्ग है जिसकी तरफ से छपके प्रसिद्ध हुवी है जिसके दूसरे भाग में पृष्ठ २१४ विषे यथा - ऋजुप्रगुणं व्यवहरणमृजुव्यवहारो भावश्रावक लक्षणश्चतुर्द्धा चतुःप्रकारो भवति तद्यथा - यथार्थ अणनमविसंवादि वचनं धर्मव्यवहारे । अर्थ-ऋजु एटले सरल चालबुं ते ऋजुव्यवहार ते चार प्रकारनो छे जेमके एकतो यथार्थ भगन एटले अविसंवादी बोलवं ते धर्मनीबाबतमां । देखिये अब उपर में श्रावककों भी धर्म्म व्यवहारमें विसंवादीरूप मिथ्याभाषण बोलनेका जैन शास्त्रोंमें नही कहा है । तो फिर विद्वान् साधुजी होकर विसंवादी वाक्य For Private And Personal Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८७ ] अपने बनाये ग्रन्थमें लिखना क्या उचित है। कदापि नही और इसी ही श्रीधर्मरत्नप्रकरणके दूसरे भागमें पृष्ठ २४६ की आदिसे पृष्ठ २४७ की आदि तकका लेखमें विसंवादी आदि धाक्य बोलने वालेको जो फलकी प्राप्ति होती है सो दिखाते है यथा अन्यथा भणनमयथार्थजल्पनमादिशब्दाद्वंचक क्रिया दोषोपेक्षाऽसद्भावमैत्री परिग्रहस्तेषु सत्सु श्रावकस्येति भावः-अबोधेर्धर्माप्राप्तीजं मूलकारणं परस्य मिथ्या द्रष्टनियमेन निश्चयेन भवतीति शेषः । ___ तथाहि-श्रावकमेतेषु वर्तमानमालोक्य वक्तारः सम्भधन्ति ॥ धिगस्तु जैन शासनं ? यत्र श्रावकस्य शिष्टजननिन्दितेऽलीकभाषणादौ कुकर्मणि नितिर्नोपदिश्यते ॥ इति निन्दाकरणादमी प्राणिनो जन्मकोटिष्वपि बोधिं न प्राप्नुवन्तीत्यबोधि बीजमिदमुच्यते ततश्चाबोधिबीजाद् भवपरिवद्धिर्भवति तन्निन्दाकारिणस्तन्निमित्तभूतस्य श्रावकस्यापि यदवाचि-शासनस्योपघातेयो-नाभोगेनापि वर्तते सतमिथ्यात्वहेतुत्वादन्येषां प्राणिनामिति ॥१॥ बध्नात्यपि तदेवालं परं संसारकारणं विपाकदारुण घोरं सर्वानर्थ विवर्द्धन ( मिति ) ॥२॥ टीकानो अर्थः-अन्यथा भणन एटले अयथार्थ भाषण आदि शब्द थी वंचक क्रिया दोषोनी उपेक्षा तथा कपट मैत्री लेवी अदोषो होय तो श्रावक बीजा मिथ्या दृष्टि जीवने नक्कीपणे अबोधिनं बीजथइ पड़ेछे एटले के तेथी बीजा धर्मपामी शक्ता नथी । कारणके जे दोषोमां वर्तता श्रावकने जोह तेओ येवबोलेके "जिन शासनने धिक्कार For Private And Personal Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८८ ] थाओ" के ज्यां श्रावकोने आवा शिष्टजनने निन्दनीय मृषा भाषण वगेरा कुकर्म थी अटकाववानो उपदेश करवामां नथी आवतो अवी रीते निन्दा करवाथी ते प्राणिओ क्रोड़जन्मो लगी पण बोधिने पामी शकता नथी तेथी ते अबोधिबीज कहवायें छे अने ते अबोधिबीजथी तेवी निन्दा करनारनो संसारवधे छे एटलुज नहीं पण तेना निमित्त भूत श्रावकनो संसार वधे छे, जे माटे कहेलुछे के–जे पुरुष अजाणतां पण शासननी लघुता करावे ते बीजा प्राणिओंने तेवी रीते मिथ्यात्वनो हेतु थई तेना जेटलाज, संसारनु कारण कर्म बांधवा समर्थ थई पड़े छे के जे कर्मविपाक दारुण घोर अने सर्व अनर्थन वधारनार थइ पड़ेछे ॥ १-२ ॥ उपरमें अन्यथा अयथार्थ भाषण अर्थात् विसंवादी वाक्यरूप मिथ्याभाषणादि करने वाला श्रावक निश्चय करके मिथ्या दृष्टि जीवोंको विशेष मिथ्यात वढ़ानेवाला होता है और उससे दूसरे जीव धर्म प्राप्त नही कर सकते हैं किन्तु ऐसे श्रावकको देखके जैन शासनकी निन्दा करने वालोंको संसारकी वृद्धि होती है। और विसंवादीरूप मिथ्याभाषण करनेवाला श्रावक भी निन्दा करानेका कारणरूप होनेसे अनन्त संसारी होता है तो इस जगह पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुषोंको विचार करना चाहिये कि श्रीधर्मसागरजी श्रीजयविजयजी श्रीविनयविजयजी ये तीनो महाशय इतने विद्वान् होते भी अनेक जैनशास्त्रोंके विरुद्ध और अपने स्वहस्ते अभिवति संवत्सर उपरमें लिखा है जिसका भी भङ्ग कारक अधिकमास की गिनती निषेधरूप विसंवादी मिथ्या वाक्य भी अपने स्वहस्ते लिखते अनन्त संसार वृद्धिका भी For Private And Personal Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ 1 भय नही करते हैं तो अब ऐसे विद्वानोंको आत्मार्थी कैसे कहे जावे और अधिक मासकी गिनती निषेधरूप विसंवादी मिथ्या वाक्य इन विद्वानोंका आत्मार्थी पुरुष कैसे ग्रहण करेगें अपितु कदापि नही तथापि जो अधिक मासकी गिनती निषेध श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा विरुद्ध होते भी वर्तमानिक पक्षपाती जन करते हैं जिन्हें को सम्यक्त्वरूप रत्न कैसे प्राप्त होगा इस बातको पाठकवर्ग स्वयं विचार शकते हैं और जैनशास्त्रानुसार अधिकमासके दिनोकी गिनती करनाही युक्त है इस लिये अधिकमास कालचूला है सो दिनोंकी गिनती में नही आता है ऐसा मतलब तीनो महाशका शास्त्रोंके विरुद्ध है सो उपरोक्त लेख से प्रत्यक्ष दिखता है इन शास्त्रों के न्यायानुसार वर्तमानकाल में दो श्रावण होनेसे भी भाद्रपद में पर्युषणा करने से ८०दिन प्रत्यक्ष होते हैं सो बात जगत् भी मान्य करता हैं तथापि ये तीनो महाशय और वर्तमानिक श्रीतपगच्छके महाशय भो मंजूर नही करते हैं तो इस जगह एक युक्ति भी दिखलाने के लिये श्रीतपगच्छ के विद्वान् महाशयोंसें मेरा इतना ही पूछना है कि आषाढ़ चतुर्मासीसे किसी पुरुष वा स्त्रीने उपवास करना सरू किया तथा उसी वर्ष में दो श्रावण हुवे तो उस पुरुष वा स्त्रीको पचास (५०) उपवास कब पूरे होवेंगे और अशी (८०) उपवास कब पूरे होवेंगे इसका उत्तरमें श्रीतपगच्छके सर्व विद्वान् महाशयों को अवश्यमेव निश्चय कहना ही पड़ेगा किदो श्रावण होनेसे पचास उपवास दूजा श्रावण शुदी में और ८० उपवास दो श्रावण होनेके कारणसे भाद्रपद में पूरे होवेंगे १२ For Private And Personal Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ] इस युक्तिसे अधिक मासकी गिनती निश्चय के साथ मीतपगच्छके विद्वान् महाशयोंके कहने से भी सिद्ध होगई तथा अनेक शास्त्रानुसार ५० दिने दूजा श्रावण शुदीमें श्रीपर्युषणा पर्वका आराधन करनेवाले जिनाशा के आराधक सिद्ध हो गये और दो श्रावण होते भी भाद्रपद में ८० दिने पर्युषणा करने वाले, शास्त्रोंकी मर्यादाके विरुद्ध होनेमें कोई शंसय भी करेगा अपितु नही, तथापि इन तीनो महाशयांने ( दो श्रावण होते भी भाद्रपद तक ८० दिनकी वार्त्ता भी नही समझाना ) ऐसे मतलबको लिखा है सो कैसे सत्य बनेगा तथापि वर्तमानिक श्रीaurच्छके मुनिमहाशय विद्वान् होते भी उपरकी इस मिथ्या बातको सत्य मानके वारंवार कहते हैं जिन्हों को मृषावादका त्यागरूप दूजा महाव्रत कैसे रहेगा सो भी विचारने की बात है, इस उपरोक्त न्यायानुसार भी अधिक मासकी गिनती निषेध कदापि नही हो सकती हैं तथापि तीनो महाशय करते हैं सो सर्वथा महा मिथ्या है इसलिये दो श्रावण होनेसें भाद्रव शुदी तक प०दिन अवश्यमेव निश्चय होते हैं जिससे गिनती निषेध करना हो नही बनता है और मासवृद्धि होने से भी पर्युषणा भाद्रपद मास प्रतिबद्ध है ऐसा लिखना भी तीनो महाशयोंका सर्वथा शास्त्रों से प्रतिकुल है क्योंकि प्राचीनकाल में भी मासवृद्धि होती थी जब भी वीश दिने आवण शुक्लपञ्चमी के दिन पर्युषणा करने में आते थे जैसे चन्द्र संवत्सर में पचास दिनके उपरान्त सर्वथा विहार करना नही कल्पे तैसे ही अभिवर्द्धित संवत्सरमें बीश दिनके उपरान्त सर्वथा विहार करना नही कल्पे और वोश दिन तक अज्ञात पर्युषणा परन्तु बीशमें For Private And Personal Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१] दिनसे ज्ञात पर्युषणा करे सो १०० दिन यावत् कार्तिक पूर्णिमा तक उसी क्षेत्र में ठहरे ऐसा श्रीतपगच्छ के श्रीक्षेमकीर्त्ति सूरिजी कृत श्रीवृहत्कल्पवृत्तिका पाठमें विस्तारपूर्वक कहा है ऐसे ही अनेक शास्त्रोंमें कहा है जिसके पाठ भी सीवृहत्कल्प वृत्यादिकके कितने ही पहिले लिस आया हु और आगे भी लिख दिखाउंगा और खास सोनी महाशयोंके लिखे पाठ भी अभिसमें बीय दिने श्रावण शुक्लपचमीको पर्युषणा करनेमें आतेथे इसका विशेष खुलासा के साथ आगे विस्तार पूर्वक लिसुंगा जिससे वहां प्राचीनकालका तथा वर्तमानिक कालका भच्छी तरहसे निर्णय हो जायेगा और आगे वन लीजो महाशयांने श्रीपर्युषणा कल्पचूर्णिका तथा श्रीतिीयपूर्णिका पाठ लिखके मासवृद्धि वर्तमानिक दो श्रावण होते भी साद्रव मासमें ही पर्युषणा करने का दिखाया है इस पर मेरा इतना ही कहना है कि इन तीनो महाराने (पर्युपना कल्पपूर्णिमें और श्रीनिशीथचूर्णिमें ग्रन्थकार महाराजने पर्युषणा सम्बन्धी विस्तारपूर्वक पाठ लिखाया जिसके आगे और पीछे का संपूर्ण सम्बन्धका पाठको कोहके राज्यमकार महाराजके विरुद्धार्थमें उल्सूत्रभाषणरूप माया इपिसे अधूरा पोडासा पाठ लिखके भोले जीवों के पाउ लिख दिखाये और अपनी विद्वत्ताको बात दृष्टिरियोंमें समाई हैं इस लिये इस जगह भव्य जीवोंको जिःसन्देह होनेसे सत्य सतपर शुद्धश्रद्धा हो करके सत्यबाद ग्रहण करे इस लिये दोनो पूर्णिकार पूर्वधर महाराज कल संपूर्ण पर्युषण सम्बन्धी पाठ यहाँ लिख दिखाता हु श्रीपूर्वथर पूर्वाचार्य्यमी कृत श्रीपर्युषणा कल्प For Private And Personal Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २ ] (दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रका अष्टम अध्ययनके ) चूर्णिके पृष्ठ ३१ से ३२ तक तत्पाठः आसाढ़चातम्मासियं पडिक्कमंति, पंचहिं दिवसेहिं पज्जो सवणा कप्पं कढ्ढेति, सावण बहुल पंचमीए पज्जोसवेति णच वाहिद्वितेहिं ण गहिता णित्थरादीणि, ताहे कथं कहता घेव गिरहंति मलयादीणि एवं आसाढ़पुरिममाए ठिता, जाव मग्गशिरबहुलस्स दसमी, तावएगंमि खेत्ते अच्छज्जा, तिन्निवा दस्सराता, एवंतिनिपुण दस राता, चिरकलादीहि कारणेहिं॥ एत्थउ गाथा पत्थंति पज्जोसविते, सवीसति राय मासस्स आरात्तो जति गिहत्या पुच्छंति, तुभ्भे अज्जो वासा रत्तं ठिता, अहवा ण ठिता एवं, पुच्छितेहिं, जति अहिवढिढय संवच्छरे, जत्य अहिमासतो पडिति तो, आसाटपुणिमाओ वीसति राते गते अमति, ठितामोति आरतो ण कथयति वोत्थं ठिता मोति, अथ इतरे तिन्नि बंद संवच्छरा तेसु रुवीसति राते मासे गते भमति, ठितामोति आरतो ण कथयति वोतुंठिता मोति, किं कारणं असिवादि, गाथा कयाइ, असिवादीणि उप्प ज्जेज्ना जेहिं निग्गमण होज्जा ताहेति, गिहत्था मज्ज, ण किंचि एते जाणंति, मुसावात वाउलावेंति, जेण ठितामोति भणित्ता, निग्गत्ता, अहवा कासं ण सुट्ठ आरद्धं, तेण लोगो भीता धणज्जंपितुं,ठितो साहूहिं भणितो ठियामोति जाणति, एते वरिसास्सति तो सुयामो धरम विक्किणामो, अधि करणं घराणियत्थप्पंति, हलादीणय संवप्पं करेंति, जम्हा एते दोसा, तम्हा वीसती राते आगते, सवीसति राते वा मासे आगते, ण कथंति वोतुंठितामोति॥ एत्थउ गाथा॥ आसाढ़पुसिमाए ठिताणं जतितणडगलादीणि गहियाणि,पज्जोसवणा कप्पोय For Private And Personal Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३ ] या कहितो, तो सावण बहुलपञ्चमीएपज्जो सर्वेति असति खेते सावण बहुलदसमीए, असति खेते सावणबहुलस्स पसरसीए, एवं पंचपंच उसारं तेण जाव, असति भद्दव सुद्ध पंचमीए, अतो परेण ण वहति अतिकमितु, आसाढ़पुसिमातो अढत्त मग्गंताण, जाव भट्टवय जोरहरु पञ्चमीए एत्यन्तरे जति व ल ताहे रुरकरस ठेवितो तोविपज्जोसवेयवं, एतेषु पर्व्वसु जहा लंभे पज्जोसवेयव, अपछे ण वहति कारिणिया चउत्थीवि अज्ज कालएहिं पवित्तिता कहं पुण उज्जेणीए णगरीए, बलमित्त भाणुमित्तो रायाणो, तेसिं भाइणेज्नो अज्ज कालए पवाविता, तेहिराईहं पटुट्ट हिं, अज्ज कालतो निव्विसत्तोकत्तो सोप तिद्वाणं आगतो, तत्थ्य सालवाहणो राया सावगो तेण सम जपुयात्यणो पवित्तितो ॥ अंते पुरंच भणितं अमावसाए स्ववासं काउइअट्ठमिमाईसु उववास काउ ॥ इति पाठांतरं ॥ पारणए साहूण भिरकं दातुं पारिज्जव ॥ अन्नय पज्जो सवणादिवसे आसरम आगते अज्न कालएण सालवाहणो भणितो, भट्टवय जोएहस्स पंचमीए पज्जोसवणा, रखा भणितो तद्दिवसं मम इंदो अणुजातको होहित्ति तो निप्पज्ज वासिताणि चेतियाणि साहूणोय भविस्संतित्ति कोऊं तो हट्टीए पज्जोसवणा भवतु, आयरिएण भणितं न वहति अतिक्कामेसु, रणा भणिय तो चटत्थीए भवतु आयरिएण भणितं एवं होउत्ति ॥ उत्थए कतो पज्जोसवणा एवं चउत्थीविजाता कारणिता, सुद्ध दसमी ठिताण आसाढ़ी पुसिमो सरणति जत्य आसाढ़मासकप्पो कतो तत्थ खेतं वासावासं पाउग्गं अम्मच णत्थि खेत वासावासं पाउगं अथवा अज्जासे चेव अली खेत्तं वासावास पाउग्गं सवंच पडिपु संधारग डग्ग For Private And Personal Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४ ] लगाइ कययभूमीय बद्ध वासंच गाद भणोरयं आढ़त, ताहे आसाढ़पुसिमाए चेव पज्जोसविज्जति, एवं पंचाहं परिहाणि मविकत्योध्यते, श्य सत्तरी गाथा, इय प्रदर्शने आसाढ़चार मासिया तो सवीसति राते मासे गते पज्जोसर्वेति, तेसि सत्तरी दिवसा जहणतो जेटोग्गहो पति, कहं पुण सत्तरी, चयह मासाणं सवीसं दिवस सत भवति, ततो सवीसत्ति रातो मा ।, यासंदिवसा सो वितो सेसा सत्तरी, दिवसा जे भदवय अहुलस्स दसमीए पज्जोसवेति, तेसिं असीति दिवसा जेटोग्गहो, जे सावण पुसिनाए पज्जोसर्वेति तेसि णउतिदिवसा जेटोग्गहो, जे सावण बहुल दसमी ठिता तेसिं दसुत्तरं दिवप्तसत जेट्ठोग्गहो, एवमादीहिं पग्गारोहिं परिसारत्तं एग खेत्ते अत्थिता कत्तिय चाउमासिए णिग्गंतवं, अह वासण उवरमति, तो मग्गसिरे मासे जं दिवस पक्क मद्वियं जात तदिवस चेव निग्गंतवं, उक्कोसेण तिन्नि दसराया न निगच्छज्जा मगसिर पुसिमाएत्ति भणियं हरेइर मग्गसिर पुस्मिमाए परेण, जइविप्लवंतेहिं तहवि णिग्गंतवं, अथ न निगच्छंति तो चउलहुग्ग, एवं पंचमासिसं जेट्ठोग्गहो जाओ, कातरा गाहा लासाढ़नासकप्पं का जत्य अन्न वासा वासे पारणे अत्य आमाडमासकप्यो को तत्य व पज्जोसविते आसाढ़ पुतिमाए वा सालंबणाणं मांगसिर पिसव, वासा णतो विरमति से या जिग्गता असीवादीणिवा वाहिपवं सालंबणाणं मासि तो जेटोग्गहो ॥ इत्यादि । __ और श्रीजिनदास महतराचार्यजी पूर्वधर महाराज कत श्रीनिशीथ सूत्रकी चूर्णिके दशमे उद्देशेके पृष्ठ ३२१ से पृष्ठ ३२४ तक का पर्युषणा सम्बन्धीका पाठ नीचे मुजब जानो, यथा-- For Private And Personal Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५ ] वासावासैकंमि खेत्तकंमि काले पवेसियङ्घ, अतो सम्मति, आसाढ पुखिना ॥ गाहा ॥ वायवंति उस्सग्गेण पज्जोसवेयव, अहवा प्रवेष्टव्यं, तंमि पविठा उस्सग्गेण कत्तिय पुस्सिमं जाब अच्छंति, अववादेण मग्गसिर बहुल दसमी जाव तंमि एग खेत्ते अच्छति, दसरायगाहणातो अववातो दसितो अणे विदो दसराता अलेक्जा, अववातेण मार्गसिरमासं तत्रैवास्त्येत्यर्थः ॥ कहं पुण वासा पाउगं खेलं पविसंति, इमेण विहिता वाहिठिता । गाहा ॥ वाहिठियत्ति जत्य, आसाढमासको कतो अणत्या आसा ठिता वा समायारी खेत्त, बसभेहिं गार्हति चावतीत्यर्थः ॥ आसपसमाए पविठा, परिवयाल आरम्भ पंचदिणा, संधारग तण डलगबार मन्नादीयं गिरहति, तंमिचेवपण गेरातिए पज्जा सबणा कप्पं कहेंति, ताई सावण बहुल पञ्चमीए वासकाल सामायारिं ठवेति, एत्थउअ ॥ गाहा ॥ एस्थंतिएत्य, आसाढपुलिमाए, सावण बहुलपञ्चमीए, वासावासं पज्जोसविएवि, अप्पणी अणभिग्गहिय, अहवा जति गिहत्या पुच्छंति अज्जा तुम्भे, अत्थेव वारिसाकालं ठिया, अहवा ण ठिया, एवं पुच्छिएहिं, अणभिग्गहियंति संदिग्धं वक्तव्य, अह अन्यउबाह्यपि निश्चयो भवतीत्यर्थः ॥ एवं सन्दिग्धं कियत्कालं वक्तव्यं ॥ उच्यते ॥ वीसतिराय, वीसतीमासं, जति अभिवढ़िढयवरिसं, तो, वोसतिराय, जाव अगाभिग्गहिय, अह चंदवरिस तो सवीनतिराय, नाव अणभिग्गहियं भवति तेषां तत्कालातपरतः अप्पणी अभिरामुख्य ेन गृहीतं, अभिगृहीतं इदं व्यवस्थिता इति, हट्टियामो बरिसाकालंति किं पण कारणंति, वीसति राते, सवोसतिराते वा मासे गते, अप्पयो अभिग्गहियं गिहिणा For Private And Personal Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ह] तंवा कहेंति ॥ आरतो न कहेंति उच्यते ॥ असिवादि गाहा कयाइ ॥ असिवं भवे आदिगाहणतो रायदुठाइ वा वासं या मुट्ठ आर वासितुं, एवमादिहिं कारणेहिं, जइ अच्छंति तो आणा तीता दोसा, अहगच्छंति ततो गिहत्या भणति एते, सपुत्तगा ण किचिजारांति, मुसावाय भासंति, ठितामोत्ति भणित्ता जेण णिग्गता लोगो वा भणिज्न साहूएत्य वरिसारतं ठिता, अवस्स' वास भविस्सति, ततो ध विक्कणति, लोगो घरादीनिच्छादेति, अह हलादिकं माणिवाम ठवेति, अणिगाहिते गिहिणा तेय आरतो कतो, जम्हा एवमादिया अधिकरणदोसा, तम्हा अभिवदियवरिसे, वीसतीराते गते गिहिणा त करेंति, तिसु चंदवरिसे सवीसति राते मासे गते गिहिणा तं करेंति, जत्य अधिमासगो पडति वरिसे, तं अभिवद्दियवरिसं भस्मति, जत्य णु पडति, तं चंदवरित सोय अधिमासगो जुंगस्सगंते मज्जे वा भवन्ति, जइ तो नियमा दो आसाढा भवंति, अहमज्जे दो पोसा, सीसो, पुच्छति जम्हा अभिवद्वियवारिसे वीसतिरात, चन्दवरिसे सवीसतिमासो ॥ उच्यते ॥ जम्हा अभिवयरिसे, गिम्हे चेव सो मासो अतिक्क तो, तम्हा वीस दिना अणमिगाहियं तंकरेंति, इयरेषु तिसु चंदवरिसेषु सवीसतिमाता इत्यर्थः ॥ एत्य पणगं गाहा ॥ एत्थत आसाढ पुसि माए, ठिया डगलादीय गिरहंति, पजजोसवणाकप्पंच कहेंति, पंचदिणा ततो सावण बहुल पञ्चमीए, पज्जोसवेंति, खेत्ता भावे कारणेन पणगेसु बुढ्ढे दसमीए, पज्जोसवेंति, एवं पण सीए, एवं पणग्गवढ्ढी, ताबकज्जति, जाव सवीसति मासो, पुणो सोय सवीमति मासो भट्टवयसुद्ध पचनी पयुज्जति, For Private And Personal Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ] अहवा आसाढ़ सुद्ध दसमीए वासा खेत्त पविठा, अहवा, जत्थ आसाढमासकप्पोकओ तं वासप्पाउग्गं खेत्त, अपघणस्थि वास पाउग्गं ताहे तत्थेव पउजोसचेति,वासंच गाढं अणु वरयं आषाढ पुणिमाहिं नत्थेव पोसवेति, एकारसीओ आढवेठ टुगलादो तं गेराहंति पज्जोसवणा कप्प कहें ति, ताहे आसाह पुणिमाए पोसवेंति, एस उस्सागो, सैस काल पनमोसवे. ताणं सबो अववातो,अववातेवि सवोसति रातमासा तो परेण अतिक्कामेस ण वदृति, सघोसति राते मासे पुणे जतिवासखेत ण लभ्नति तो रूरक हेढवि परजोसवेयश्च तं पसिमाए पञ्चमीए दसमीए एवमादि पसु पज्जो सवेयव, णोअपर्छ । सोसो पुच्छति इयाणि कई चउत्थिए अपव्वे पजजोसवि. जाति, आयरिओ भणति, कारणिया चउत्यो, अजज काल गायरियाहिं पवत्तिपा, कहं भय ते कारणं, कालगायरिओ विहरंतो, उजजेणि गतो तत्थ वासावा सो वासातरंटितो तस्य ॥णगरीए बलमित्तो राया, तस्त कणिट्टो भाया भाणुमित्तो जुधराया, तेसिं भगणी आणुसिरी णानं तस्त पुत्तो बलाणू णाम, सोय पगितिभद्दविणीययाए साहू तो पज्ज वासति आयरिहिं सै धम्मी कहिंतो पत्रुिहोपवावितोय, तेहि य बलमित्त भाणु मित्त हिं का लग्गज्जापज्जोसवितेणि विपतो कत्तो, आयरिया अणंति जहा, वलमित्त भाणुमित्ता कालगायरियाणं भागिणे ज्जा भवंति, माउलोत्ति, काउ महंत आयरं करेंति, अभ्भुठाणदियंतं च पुरोहियस अप्पत्तिय पाणातिय, ए समुद्दपासंहोवेतादितादिरोहणे अ अतो पुणो पुणो उन्मावें तो, आयरिएण णिप्प ठप्प सिण वागरसो कतो, ताहे.सो पुरोहितो आयरियस्स पदुट्टो, रायाणं आणुलोमेहिं For Private And Personal Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विप्परिणामेति एते रिसितो महाणुभावा एते जेण गच्छन्ति तेण पहेण जति रणो णागच्छति पताणि वा असमितो असिवं भवति, तम्हा विसज्जाहं ताहे विसज्जिता अणे भणंति, रमा उवाएण विसज्जिता कहं सव्व मिण गारकिल रणा अस समा करा विता, ताहे णिग्गता एवमादियाण कारणाण अणुक्कमेण णिगता विहरता पतिठाणणयर, तेण पविठा पतिट्ठाण समणसंघस्सय अज्नकालगेहिंसदिठं, जावाहं आगच्छामि ताव तुभ्भेहिं यो पज्जोसविच्छ, तत्य सालवाहणोराया सोसावगो सोयकालगञ्जएतं सोरणणिग्गतो अभिमुहो समणसंघोय महसा विभूतीए पविठो, कालगज्जो पविठेहिं भणिय भद्दवय सुद्ध पञ्चमीए पज्जोसविज्जति, समणसंघेण पड़िवम,ताहे रमा भणिय तदिवसं मम लोगाणुवत्तीए इन्दो अणुजायो होहेत्ति, साहूचेतितेणपज्नवासे स्तती तो छट्ठीए पज्जोसवणाकिज जउ, आयरिएहिं भणिय, ण वदृति, अतिकामेउ ताहे रस्सा भणिय, तो अणागए, चतत्योए पजोसविज्जति, आयरिएहिं भणियं एवं भवठ, ताहे घटस्थोए पज्जोसवियं, एवं जुगप्प हाणेहिं चउत्थी कारणे पत्तिता, साचेवाणु मत्ता सव्व साधूण, रसा अंते पुरियाठ भणिता तुभ्भे अमावताए उवावासंका पहिवयाए सब खज्ज भोज्ज विहीहिं साधू उत्तरपारणए पडिलाओत्ता पारे जजाहा, पज्जोसवणाए अट्ठमतिकाउ पडीवयाए उत्तरपारणयं भवति तंच सवभोगेण विकयंततोपमिति मरहठविषपसवण पूबउत्तिषणोपवले ॥ याणि पंचगपरिहाणि. मधिकृत्य कालावप्राहोच्यते ॥ इय सत्तरी गाहा॥ इय इति व प्रदर्शने जे आगराउमालिया तो सधीसति राते For Private And Personal Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मासे गते पज्जोसवेति, तेसिं सत्तरी दिवसा जहलो घासा कालीगाहो भवति, कहं सत्तरी उच्यते, चउरहं मासाण विसुत्तरं दिवसमतं भवति, सवीसति मासो पसासं दिवप्ता, ते वीसुत्तरमज्जतो साधितो, सैसा सत्तरी, जे भद्दवय बहुलदरा मीए पज्जोसवेंति, तेसिं असति दिवसा मझिमो वासा कालो गाहो भवति, सावणपुस्मिनाए पज्जो सवैति तेसिं णिउति दिवसा मज्झिमो चेव वासकालो गाहो भवति, जे सावण बहुल इसमी पज्जोसवेंति तेसिं दसुत्तरं सतंमज्झिमो चेव वासा कालीगाहो भवति, जे आसाढ़पुसिनाए पज्जोसवेंति, तेसिं वीसुत्तर दिवपसय जेठो वासोग्गहोभवइ सैसन्तरेसु दिवत्त पमाण वत्तव, पमातिप्पगारेहिं वरिसारत्तं एग्गखेत्ते, कत्तिय घउम्मासिय, पडिवयाए अवस्प्त णिग्गंतवं, अह मग्गसिर मासे वासति चिरकलाजलाउलापंथा तो अववातेण एक उक्कोसेण तिमि या दसराया जावतम्मिखेत्ते अच्छंति, मार्गसिरपौर्णमासीयावेत्यर्थः॥ मग्गसिर पुसिमाए जं परतो जतिचिरकल्ला पंथा वास वा गाढ़ अणावरय वासति, जति विप्लवंतेहिं तहावि अवस्स णिग्गंतवं, अह ण णिग्गच्छति, तो चउगुरूगा, एवं पञ्चमासि तो जेठो गाहो जातो,काउण मास गाहा, जंमि खेत्ते कतो आसाढ़मासकप्पो तंच वासावास पाउग्गं खेत्ते. अण मिअल? वास पाउग्गे खेत्ते जत्थ आसाढ़मासकप्पो कतो तत्थेव वासावास ठिता तीसे वासा वासे चिरकल्लादिएहिं कारणेहिं तत्थेव मग्गसिर ठिता एवं सालंवणाण कारणे अवंवातेण छ मासितो जेठो गहो भवतीत्यर्थः ॥ उपरोक्त दोन पाठ मेरे देखने में आयेथे वैसेही छपा दिये हैं For Private And Personal Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०० ] इसलिये कुछ विशेष अशुद्धता होवे तो दूसरी शुद्ध पुस्तक उपरोक्त दोनों पाठका मिलान करके बाँचना अब्ज उपरोक्त दोj पाठका संक्षिप्त भावार्थः सुनो-वर्षाकालके लिये एक क्षेत्रमें प्रवेश करना ठहरना सो कितना काल तक मोही कहते हैं आपाड़पूर्णिनासे लेकर उत्सर्गते पर्युषणा करे अथवा प्रवेश करे सो यावत् कार्तिक पूर्णिमा तक रहे और अपवादसे मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी तक यावत् रहे तथा फिर भो कारणयोगे दो दशरानि ( बोशदिन ) याने मार्गशीर्ष पूर्णिमा तक भी रहना कल्प सो प्रथम किस विधिले प्रवेश करके पर्युषणा करे वह दिखाते हैं---जहां आषाढ़मानकल्प रहा होथे वहाँ अथवा अन्य क्षेत्र में आपाळ पूर्णिमाके दिन चौमाली प्रतिक्राण किये बाद प्रतिपदा ( एकल ) से लेकर पाँच दिनमें उपयोगी वस्तु ग्रहण करके पञ्चमी रात्रि याने श्रावण कृष्ण पञ्चमीकी रात्रिको पर्युषणा कल्प कहके वर्षाकालको समाचारी को स्थापन करे, याने पर्युषणा करे, सो अधिकरण दोष न होने के कारण और उपद्रवादि कारणले दूसरे स्थानमें जावेतो अवहेलना न होवे इसलिये अनिश्चय पर्युषणा करे, अधिकरण दोषोंका वर्णन संक्षेपसे पहिलेही लिखा गया है इसलिये पुनः नही लिखता हु और निश्चय पर्यु घसा कब करे सो कहते हैं कि अभिवद्धित वर्ष में वोशदिने और चन्द्रवर्ष में पधाशदिने निश्चय पर्यषणा करे, क्योंकि जैसे युगान्त में जब दो आषाढ़ होते हैं तब ग्रीष्म ऋतु में चेव निश्चय अधिक मास व्यतीत होजाता है इसलिये अभिवद्धित वर्षमें आयाढ़ चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद प्रतिपदासे वीशदिन तक अनिश्चय पर्युषणा For Private And Personal Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०१ ] परन्तु वीशमें दिन श्रावतशुक्लपची निश्चय प्रसिद्ध पर्यु - पणा होवे, और चन्द्रवर्ष में पचाश दिन तक अनिश्चय पर्युषण परन्तु पचाश दिन भाद्रपद शुक्लपञ्चतीसे निश्चय प्रसिद्ध पर्युषणा होवे, सो जब आषाढ़ पूर्णिमासेही योग्यक्षेत्र मिले और उपयोगी वस्तुका योग्य होवे तो ग्रहण करके start प्रतिक्रमण किये बाद उसी रात्रिको पर्युपखा कल्प कहे याने जो अकेला साधु होवे तब तो उस रात्रिको श्री कल्पसूत्रका पठन करके अनिश्चय पर्युषणा स्थापन करे और साधुओंका रुमुदाय होवे तो सर्व साधु कायोत्सर्ग में सुने और वृद्धसाधुजी मधुर स्वर से श्रीपर्युषणा कल्पका उच्चारण करके अनिशय पर्युषणा स्थापन करे तथा योग्यक्षेत्र न मिले तो फिर पाँच दिन तक दूसरे स्थान (गांव) में जाके उपयोगी वस्तु ग्रहण करके श्रावण कृष्णा पञ्चमीको पर्युषणा करे इसी तरहसे योग्यक्षेत्राभावादि कारणे अपवादसे पांच पांच दिनकी वृद्धि करते यावत् भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको अवश्य ही पर्युषणा निश्चय करे तथापि भाद्रपद शुक्लपञ्चमी तक योग्यक्षेत्र नही मिलेतो जङ्गल में वृक्ष नीचे भी अवश्यही पर्युषणा करे परन्तु पञ्चमीकी रात्रिको उल्लङ्घन करना नही कल्पे और भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीके पहले आषाढ, पूर्णिमासे योग्यता मिलने से अनिश्चय पर्युषणा स्थापन करने में आते है जिसमें स्थापन करे उसी रात्रिको श्रीपर्युषण कल्प कहके पर्युषणा स्थापे जिसको गृहस्थो लोगों के न जानी हुई पर्युषणा कहते हैं और पचासमें दिन भाद्रपद शुक्लपञ्चमी की निश्चय प्रसिद्ध पर्युषणा उसीमें सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करे जिसको गृहस्थी लोगों के For Private And Personal Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०२ ] जानी हुई पर्युषणा कहते हैं और भाद्रपद शुक्लपञ्चमी के उपरान्त विहार करना सर्वथा नही कल्पे इस लिये योग्यक्षेत्र के अभाव से वृक्ष नीचे भी अवश्य ही निवास ( पर्युषणा ) करना कहा है जैसे चन्द्रवर्षमें पचास दिनका निश्चय है तैसे ही अभिवर्द्धितवर्ष में वीशदिने श्रावण शुक्ल पञ्चमीकी निश्चय पर्युषणा करने का नियम था परन्तु वीशदिनमें श्रावण शुक्लपञ्चमीकी रात्रिको उल्लङ्घन करना सर्वथा प्रकारसे नही कल्पे इस तरह पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमादि पर्व तिथि में पर्युषणा करे, परन्तु अपर्वमें नही, जब शिष्य पूछता है कि आप अपर्व में पर्युषणा करना नही कहते हो फिर चतुर्थीका अपर्व में कैसे पर्युषणा करते हो तब आचार्य्यजी महाराज कहते है कि कारस्म से चतुर्थी को पर्युषणा करनेमें आते हैं सोही कारण उपरोक्त पाठानुसार जैन इतिहासों में तथा श्रीकल्पसूत्र की व्याख्याओंमें प्रसिद्ध है और इसी पुस्तक में पहिले संक्षेप से लिखा गया है इस लिये यहां भाषार्थ में विस्तार के कारण से नहीं लिखता हुं, अब जघन्य, मध्यम, और उत्कृष्ट से पर्युषणाके कालावग्रहका प्रमाण कहते है कि चार मासके १२० दिनका वर्षाकाल होता है तब आषाढ चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद पचास दिने पर्युषणा करे तो सत्तर (90) दिवस जघन्यते कार्त्तिक चौमासी तक रहते हैं परन्तु योग्यक्षेत्र भिलनेते भाद्रव कृष्ण दशमी को ही पर्युषणा कर लेवे उतीको ८० दिन मध्यमते रहते हैं तथा श्रावण पूर्णिमा को पर्युषणा करे तो ० दिन मध्यमसे रहते हैं । इसी तरह यावत् श्रावण कृष्ण पञ्चमी को तो ११५ दिन मध्यम से रहते हैं और आषाढ पूर्णिमासे ही पर्युषणा किवी हो For Private And Personal Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०३ ] पर्युषणा किवी होवे तो उत्कष्ट से १२० दिन रहते हैं पीछे कार्तिक पूर्णिमाको अवश्य विहार करे, परन्तु वर्षादि कारणसे चिख्खल कईमादि कारण योगे अपवाद से मार्गशीर्ष पूर्णिमा तक भी रहना कल्पे पीछे तो अपवाद से भी अवश्य निकले विहार करे, नही करे तो प्रायश्चित आवे जहां आषाढमास कल्प किया होवे वहां ही चौमासी ठहरे तथा मार्गशीर्ष पूर्णिमाको बिहार करे तो उत्कृष्ट छ का कालावग्रह होता है इत्यादि 1 अब पाठकवर्ग देखिये उपरका दोनु पाठ प्राचीनकाल में पूर्वधरोंके समयका उग्रविहारी महानुभाव पुरुषोंको जैन ज्योतिषानुसार वर्तने का है जिसमें उत्सर्ग से आषाढ़ पूमा से कार्तिक पूर्णिमातक पर्युषणा करे और अपवादसे श्रावण कृष्ण । ५ । १० । ३० । श्रावण शुक्ल ५ । १० । १५ । भाद्र कृष्णा । ५ । १० । ३२ । और भाद्र शुक्ल ५ । इन दिनोंमें जहां योग्यक्षेत्र मिले वहां हो पर्युषणा करे । परन्तु पञ्चमीको उलङ्घन नहीं करे, जिससे जघन्य में 90 दिनकी पर्युषणा होती है तथा मध्य से । १५ । ८० । ८५ । ९० । ९५ । १०० । १०५ । १९० । ११५ । ऐसे नव प्रकार की पर्युषणा होती है और उत्कष्ट से १२० दिन की पर्युषणा होती है । जिसमें चन्द्र संवत्सर में अपवादसे भी पचास दिन की भाद्रशुक्ल पञ्चमीको उल्लङ्घन नहीं करे जिससे पीछाड़ी के 90 दिन रहते हैं तैसेही अभिवर्द्धित संवत्तर में अपवाद से भी बीशमें दिनकी श्रावण शुक्लपञ्चमी को उल्लङ्घन नहीं करे जिससे पीछाड़ीके कार्तिकपूर्णिमा तक १०० दिन रहते हैं और श्रावण शुक्लपञ्चमीको सांवत्सरिक For Private And Personal Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०४ ]. प्रतिक्रमणादि भी पूर्वधरों के समय में जैन ज्योतिषानुसार करने में आतेथे सो उपरमें लिख आया हु और आगे भी खुलासापूर्वक लिखंगा वहां विशेष निर्णय होजावेगा__ और आषाढ़ चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद योग्यतापूर्वक पांच पांच दिने पर्युषणा करे सो सिर्फ एक श्रीकल्पसूत्रका रात्रिको पठण करके पर्युषणा स्थापन करे परन्तु अधिकरण दोष उत्पन्न होने के कारणसे गृहस्थो लोगों को कहे नही और अभिवद्धित संवत्सरमें वोशदिने तथा चन्दसंवत्सरमें पचासदिने वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करने से गृहस्थी लोगों को पर्युषणाको मालुम होती है सो यावत् कार्तिक पूर्णिमा तक उत्ती क्षेत्र में साधु ठहरे सर्वथा प्रकारसै एक स्यानमें निवास करना सो पर्युषणा कही जाती है इश्व लिये आषाढ़ चौमाप्ती पीछे योग्यतापूर्वक जहां निवास करे उतीको पर्युषणा कहते हैं सो अज्ञात पर्युषणा कही जाती है और चन्द्र संवत्सरमें पचास दिने तथा अभिवद्धितमें वीशदिन सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करने से ज्ञात पर्युपणा कही जाती है इसका विशेष विस्तार आगे भी करने में आवेंगा और श्रीदशाश्रुतस्कन्धचूर्णािके तीस (३२)के पृष्ठ में (पढमंकाल ठवणा अशामि किंकारमजेण एवं सुत्त काल ठवणाएसुत्ता देसे ण परुवेयव कालो समयादिओ,गाथा--असंखेज्ज समया आवलिया एवं सुत्तालावएण जावसंवच्छ एत्थपुण उदूवढे वासारतेण पयगंतं अधिकारेत्यर्थः ) इत्यादि व्याख्या प्रथम किवी हैं सो इस पाठमें कालकी व्याख्यासूत्रानुसार करनी कही है। समयादि काल करके असंख्याते समय जाने से एक For Private And Personal Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०५ ] आवलिका होती हैं १,६७,99,२१६ आवलिका जाने से एक मुहूर्त होता है त्रीश मुहूर्त से एक अहोरात्रिरूप दिवत होता है ऐसे पन्दरह दिवसोंसे एकपक्ष होता हैं दो पक्षसे एकमास होता है इसी तरह से अनुक्रमे वर्ष, युग, पूर्वाङ्ग, पूर्व, पल्योपम, सागरादि कालकी व्याख्या अनेक जैन शास्त्रों में विस्तारपूर्वक प्रसिद्ध है। अब इस जगह पाठकवर्ग सज्जन पुरुषोंसे मेरेको इतना ही कहना है कि श्रीदशाश्रतस्कन्धचूर्णिमें और श्रीनिशीथ चूर्णिमें खुलासा पूर्वक अधिकमासको निश्चयके साथ प्रमाण करके गिनतीमें भी लिया है और अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीशदिने तथा चन्द्र संवत्सरमें पचास दिने निश्चय पर्युषणा कही हैं और मासवृद्धिके अभावसेही भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीको पचास दिनके अन्तरमें कारणयोगे श्रीकालकाचार्यजीने पर्युषणा किवी सो दिखाया है और पचासदिने योग्यक्षेत्रके अभावसे जंगल में रक्ष नीचे भी पर्युषणा करनी कही है परन्तु पचासमें दिनकी रात्रिको उल्लङ्घन करना भी नही कल्पे इत्यादि विस्तारपूर्वक संपूर्ण सम्बन्धके दोनो पूर्वधर महाराज कत पाठ उपरोक्त छधगये है जिसको विचारो और श्रीधर्मसागरजी तथा श्रीजयविजयजी और श्रीविनयविजयजी इन तीनों महाशयोंने दोनों चूर्णिकार पूर्वधर महाराजके विरुद्वार्थ में वर्तमानमें मासवृद्धि दो श्रावण होनेसे भी आषाढ़ चौमासीसे यावत् ८० दिने भाद्रपदमें पर्युषणा सिद्ध करने के लिये आगे और पीछेके सम्बन्धके पाठको और अधिकमासके प्रमाण करनेके पाठको छोड़कर अधूरा बिना सम्बन्धका थोडासा पाठ लिखके भोले जीवोंको शास्त्रोंके नामसे पाठ १४ For Private And Personal Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०६ ] लिख दिखाया जिसमें भाद्रपदका ही नाममात्र लिखा परन्तु मासवृद्धिके अभाव भाद्रपद है किंवा मासद्धि होते भी भाद्र पद है जिसका कुछ भी लिखा नही और चूर्णिकार महाराजने समयादिसे कालका प्रमाण दिखाया है जिसमें अधिक मात भी गिनती में सर्वथा आता है तथापि तीनो महा शयोंने निषेध करदिया और मासवृद्धिके अभावसे भाद्रपदकी व्याख्या चूर्णिकारने किवी थी जिसको भी माशद्धि होते लिख दिया इस तरहका तीनो महाशयोंको विरुद्धार्थका अधूरा थोडासा पाठको विचारो और निष्पक्षपातसे सत्यासत्यका निर्णय करो जिसमें असत्यको छोड़ो और सत्यको ग्रहण करो जिससे आत्म कल्याणका रस्ता पावो यही सज्जन पुरुषोंको मेरा कहना है। और बुद्धिजन सर्व सज्जन पुरुष प्रायः जानते भी होवेगे कि-जैन शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में एक मात्रा, बिंदु तथा अक्षर वा पद की उलटी जो परूपना करे तथा उत्थापन करे और उलटा वर्ते वह प्राणी मिथ्या दृष्टि संसारगामी कहा जाता है, जमालीवत् अनेक दृष्टान्त जैनमें प्रसिद्ध है तथापि इन तीनों महाशयोंने तो संसार वृद्धिका किञ्चित् भी भय न किया और चूर्णिकार महाराजने अधिक मासकी गिनती विस्तार पूर्वक प्रमाण किवी थी जिसको निषेध कर दिवी और अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीशदिने प्रसिद्ध पर्युषणा कही थी जिसके सब पाठको उत्थापन करके यावत् ८० दिने पर्युषणा चूर्णिकार महाराजके विरुद्वार्थ में स्थापन करके भोले जीवोंको कदाग्रहमें गेरे हैं, 'हा, हा, अति खेदः ॥--- For Private And Personal Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १८७ ) और इसके अगाड़ी फिर भी तीनो महाशयांने प्रत्यक्ष मायावृत्तिसे उत्सूत्र भाषणरूप अनेक शास्त्रों के विरुद्ध लिखके अपनी बात जमाई है कि ( एवं यत्र कुत्रापि पर्युषणा निरूपणम् तत्र भाद्रपदविशेषितमेव नतु काप्यागमे अहवयसुद्ध पञ्चमीए पज्जोसविज्जाति पाठवत् अभिवढियवरिसे सावण सुद्धपञ्चमीए पज्जासविनइति पाठ उपलभ्यते) इन वाक्योंको तीनो महाशयोंने लिखके इसका मतलब ऐसे लाये है कि श्रीपर्युषणा कल्प चर्णिमें तथा श्रीनिशीथचर्णि में भाद्रपदमें पर्युषणा करनी कही है इसी प्रकारसे जिस किसी शास्त्र में पर्युषणाकी व्याख्या है तहा भाद्रपद के नामसे है परन्तु कोई भी शास्त्र में भाद्रपदशुक्लपञ्चमीको पर्युषणा करनी ऐसा पाठकी तरह मासवृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित सम्बत्सरमें प्रावण शुक्लपञ्चमीको पर्युषणा करनी ऐसा पाठ नही दिखता है, इस तरह के तीनो महाशयों के लेख पर मेरा स्तनाही कहना है कि इन तीनो महाशयांने ( अभिव. चित सम्बत्सर में प्रावण शुक्ल पञ्चमीको पर्युषणा करनेका कोई भी शास्त्रोंमें पाठ नहीं दिखता है) इस मतलबको लिखा है सो सर्वथा मिथ्या है क्योंकि जिन जिन शास्त्रोंमें चन्द्र. संवत्सरमें पचास दिने, ज्ञात, याने-गृहस्थी लोगोंकी जानी हुई पर्युषणा करनेका निमय दिखाया है उसी शास्त्रों में भभिवदित संवत्सरमें वीश दिने सात पर्युषणा करनेका नियम दिखाया है सो यह बात अनेक शास्त्रों में खुलासा पूर्वक प्रगटपने लिखी है तथापि इन तीनो महाशयोंमे मोले जीवको मिथ्या भ्रममें गेरनेके लिये अभिवर्द्धित संवत्सरमें श्रावण शुक्लपञ्चमीको पर्युषणा करने का कोई भी शाखमें पाठ नहीं दिखाता है ऐसा लिख दिया है तो सब ऐसे मिथ्या श्रमको दूर करनेके डिये इस जगह शाखों के प्रमाण For Private And Personal Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १०८ ) भी दिखाते हैं कि- श्री निशीथसत्र के लघुभाष्य में १ तथा बृहद्भाष्य में ३, और चूर्णिमें ३, श्रीदशाश्रुतस्कन्ध चूर्णिमें ४, और वृत्ति में ५, श्री बृहत्कल्पसन के उघमाष्य में ६, वृहद्रा ण्य में 9, तथा चूर्णिमेंद, और वृत्तिमें ल, श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रकी - ति १०, श्रीकल्पसूत्रकी नियुक्ति में ११ तथा नियुक्तिकी वृत्ति में १२ और श्रीकल्पसूत्रकी चार वृत्तिओं में १६, श्रीमच्छाचारपयन्नःकी वृत्तिमें ११, श्रीविधिप्रपासमाचारी १८, श्री समाचारशतक में १९, इत्यादि अनेक शास्त्रों में खुलासा पूर्वक लिखा है कि- अभिवर्द्धित संवत्सर में आषाढ़ चौमासीसे लेकर के २० दिने, याने श्रावण सुदी पञ्चमीको पर्यषणा करने में आती थी । सो हमीही विषय सम्बन्धी इसी ग्रन्थको आदिमेंही श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्याओंके पाठ भावार्थ सहित तथा श्रीवृहत्कल्पवृत्तिका पाठ पृष्ठ २३ २४ में, श्रीपर्युषणाकल्पचूर्णिका पाठ पृष्ठ ९२ में तथा श्रीनिशी चूर्णिका पाठ पृष्ठ ९५ । ९६ में छप गया है और आगे भी कितनेही शास्त्रोंके पाठ छपेगे जिनको और अब इसीही वातका विशेष खुलासा करता हूं जिसका विवेक बुद्धिसे पक्षपात रहित होकर पढ़ोगे तो प्रत्यक्ष निर्णय हो जावेगा कि अभिवर्द्धितमें वोशदिने पर्युषणा होती थी इसके विषय में उपरोक्त अनेक शास्त्रोंके पाठोंके साथ श्रीपगच्छके श्री क्षेम कीर्त्तिसरिजी कृत श्रीष्ट हत्कल्पवृत्तिका पाठ भी पृष्ठ २३ तथा २४ में विस्तार पूर्वक उपगया है त - थापि इस जगह थोड़ासा फिर भी लिख दिखाता हूं तथाच तहपाठ यथा इत्थमनभिगृहीतं कियन्तं कालं वक्तव्यं, उच्यते । यद्यभि वर्द्धितो सौ सवत्सरस्ततो विंशतिरात्रिदिवानि अथ चंद्रोसी ततः सविंशतिरात्रं मास यावदनभिगृहीतं कर्त्तव्यं । तेणन्ति For Private And Personal Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०९ ] विभक्तिव्यत्यया ततःपरं विंशतिरात्रमासा चोर्द्ध मनभिहीतं निश्चितं कर्त्तव्यं गृहीज्ञातंच गृहिस्थानां पृच्छतां ज्ञापना कर्तव्या यथा वयमत्र वर्षाकालस्थिताः एतच्च गृहिज्ञात कार्तिकमासं यावत् कर्तव्यं इत्यादि इसका भावार्थः ऐसा है कि-वर्षाकालमें साधु एक स्थानमें ठहरने रूप निवासको पर्युषणा करे सो प्रथम गृहस्थो लोगोंके न जानी हुई अनिश्चय पर्युषणा होती है और दूसरी जानी हुई निश्चय पर्युषणा होती है इस प्रकारकी न जानी हुई पर्युषणा कितने काल तक और जानी हुई पर्युषणा कितने काल तक होती है सो कहते है कि-एक युगमें पाँच संवत्सर होते हैं जिसमें दो अभिवर्द्धित और तीन चन्द्रसंवत्सर होते हैं जब अभिवर्द्धित संवत्सर होता है तब आषाढ़चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद वीश अहोरात्रि अर्थात् श्रावण शुक्ल पञ्चमी तक और चन्द्र संवत्सर होता है तब पचास अहोरात्रि अर्थात् भाद्रपद शुक्लपञ्चमी तक गृहस्थी लोगोंके न जानी हुई अनिश्चय पर्युषणा होती है परन्तु पीछे जानी हुई निश्चय पर्युषणा होती है और कोई गृहस्यो लोग साधुजीको आषाढ चौमासी बाद पूछे कि आप यहाँ वर्षाकालमें ठहरे अथवा नही तब उसीको साधुजी अभिवर्द्धितमें वीशदिन और चंद्रमें पचास दिनतक, हम यहाँ ठहरे हैं ऐसा अधिकरण दोषोंकी उत्पत्तिके कारणसे न कहे और पीछे याने अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावण शुक्ल पञ्चमी के बाद और चंद्र में पचास दिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीके बाद गृहस्थी लोगोंको कह देवें कि-हम यहाँ वर्षाकालमें ठहरे हैं ऐसा कहनेसे गृहस्थी लोगोंको जानी हुई पर्युषणा कही For Private And Personal Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९० ] जाती हैं ऐसी गृहस्थी लोगोंके जानी हुई पर्युषणा यावत् कार्तिक पूर्णिमा तक याने जो अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावण शुक्ल पञ्च नोको जानो हुई पर्युषणा करे सो कार्तिक पूर्णिमा तक १०० दिन उसी क्षेत्र में ठहरे और चन्द्रमें पचास दिने भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीको जानी हुई पर्युषणा करे सो कार्तिक पूर्णिमा तक 90 दिन उसी क्षेत्रमें ठहरे। ___उपरोक्त श्रोतपगच्छके श्रीक्षेमकोर्तिसूरिजी कृत पाठके भावार्थः मुजबही अनेक जैन शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक व्याख्या हैं सो उपरमें श्रीनिशीथचूर्णि श्रीदशाश्रुतस्कन्धचूर्णि श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्यों वगैरहके पाठ भी छपगये हैं और कितनेही शास्त्रों के पाठ इस ग्रन्थमें विस्तारके भयसे नही छपाये हैं सो अबी मेरे पास मोजूद है जिसमें भी उपर मुजबही चतुर्मासीमें पर्युषणा संबन्धी अज्ञात और ज्ञातको खुलासा पूर्वक व्याख्या हैं। उपरके पाठमें श्रावण तथा भाद्रव माखका नाम नही हैं परन्तु वीश तथा पचास दिनका नाम लिखा है जिससे वीश दिनकी गिनती आषाढ़पूर्णिमासे श्रावण शुक्ल पञ्चमीको और पचास दिनकी गिनती भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीको पूरी होती हैं इस लिये भावार्थमें श्रावण तथा भाद्रपदका नाम तिथि सहित लिखा जाता है उपरोक्त पाठमें आषाढ़ चौमासीसे कार्तिक चौमासी तककी व्याख्या दिनांकी गिनती सहित खुलासा पूर्वक पर्युषणा सम्बन्धी करी है परन्तु आषाढ़ चौमासीसे इतने दिन गये बाद पर्युषणामें वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि अमुक दिने करे ऐसा नही लिखा हैं परन्तु For Private And Personal Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १११ ] आषाढ़ चौमासीसे अभिवर्द्धितमें वीशदिन तथा चन्द्र में पचास दिन तक गृहस्थी लोगोंके न जानी हुई अनिश्चय और वीश तथा पचासके उपर जानी हुई निश्चय यावत् कार्तिक तकका लिखा है और श्रीकल्पसूत्रकी अनेक टीका में पाँच पाँच दिनकी वृद्धिसे पचासदिन तक न जानी हुई पर्युषणा परन्तु पचाश दिने वार्षिक कृत्यों करके प्रसिद्ध जानी हुई पर्युषणा चंद्र संवत्सरमें खुलासा लिखी है तैसेही अभिवर्द्धितमें वीशदिने पर्युषणा जानी हुई लिखी है इस लिये अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावण शुक्ल पञ्चमीको वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करने से गृहस्थी लोगों को पर्युषणाकी मालुम होती थी और चंद्रमें पचासदिने भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीको वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करनेसे गृहस्थी लोगों को पर्युषणाकी मालुम होती थी क्योंकि जैसे न जानी हुई पर्युषणा वीश तथा पचास दिन तक शास्त्रकारोंने खुलासा कही है तैसेही जानी हुई पर्युषणा अभिबर्द्धितमें १०० दिन और चंद्रमें ७० दिन तक ऐसा खुलासा पूर्वक लिखा हैं सो पाठ भी सब उपरमें छप गया है। ___और पर्युषणा अज्ञात तथा ज्ञात दो प्रकारकी कही है परन्तु अमुकदिने ज्ञात पर्युषणा करे तथा अमुक दिने वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करे ऐसा कोई भी प्राचीन शास्त्रों में नही दिखता है इसलिये ज्ञात पर्युषणा होवे उसी दिन वार्षिककृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमण केशलंच नादि समझने क्योंकि सबी शास्त्रकारोंने गृहस्थी लोगोंको ज्ञात पर्युषणा यावत् कार्तिकमास तक खुलासा लिख For Private And Personal Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११२ ] • दिया है जिससे ज्ञात पर्युषणा आषाढ़ चौमासीसे वीशे तथा पचाशे करे और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि अन्य अमुकदिने करे ऐसा कदापि नही बनता है किन्तु जहाँ ज्ञात पर्युषणा वहाँ ही वार्षिक कृत्य बनते हैं इसलिये अभिवर्द्धित संवत्सरमें आषाढ़ चौमासीसे लेकर वीशदिने श्रावण शुक्लपञ्चमीको और चंद्र संवत्सर में पचासदिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि वार्षिक कृत्य अवश्यमेव निश्चय करनेमें आते थे यह निःसन्देहकी बात हैं तथा और भी जो पहिले तीनो महाशयांने लिखा है ( अभिवर्द्धिते वर्षे चतुर्मासिकदिनादारभ्यः विंशत्यादिनैः वयमत्र स्थिताः स्म इति पृच्छतां गृहस्थानां पुरो वदन्ति ) और इसका मतलब ऐसे लाये है कि अभिवर्द्धित संवत्सर में आषाढ़चतुर्मासीसे लेकर वीशदिने याने श्रावण शुक्लपञ्चमी सेही कोई गृहस्थी लोग पूछे तो कह देवे कि वर्षाकाल में हम यहाँ ठहरे हैं । वर्षाकाल में एक स्थानमें सर्वथा निवास करना सो पर्युषणा हैं इस मतलब से भी आषाढ़ चौमासीसे वीशदिने गृहस्थो लोगोंको जानी हुई पर्युषणा करे सो यावत् १०० दिन कार्तिक पूर्णिमा तक उसी क्षेत्र में ठहरे ॥ उपरोक्त तीनो महाशयोंके लिखे वाक्यार्थको भी विवेकी बुद्धिजन पुरुष निष्पक्षपातसे विचारेंगे तो प्रत्यक्ष मालुम हो जावेंगा कि प्राचीन कालमें अभिवर्द्धित संवत्सर में वीश दिने श्रावण शुक्ल पञ्चमी से गृहस्थी लोगों की जानी हुई पर्यु - षणा करनेमें आती थी क्योंकि जिस जिस शास्त्रानुहार चंद्र संवत्सर में पचासदिने जो जो कार्य्य करनेमें आते हैं For Private And Personal Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ९९३ ] सोही कार्य प्राचीन कालमें अभिवर्द्धित संवत्सर में वीश दिने करने में आतेथे यह बात उपरोक्त अनेक शास्त्र के न्यायानुसार सिद्ध होगई तथा और आगे भी लिखनेने आवेगा इसलिये इन तीनो महाशयोंका ( अभिवर्द्धित संवत्सर में श्रावण शुक्लपञ्चमीका पर्युषणा करनेका कोई भी शास्त्र में नहीं दिखता है ) ऐसा लिखना सर्वथा अप्रमाण हो गया सो आत्मार्थी निष्पक्षपाती पाठकवर्ग विचार लेना और अभिवर्द्धित संवत्सरमें आषाढ़ चौमासीसे वीश दिने निश्चय पर्युषणा वार्षिक कृत्योंसे भी करनेमें आती थी तथापि इन तीनो महाशयोंने पक्षपातके जोरसे उसको निषेध करनेके लिये गृहस्थी लोगों के जानी हुई पर्युषणा दो प्रकारकी ठहराकर अभिवर्द्धितमें वीशदिनकी पर्युषणाको केवल गृहस्थी लोगोंके जानी हुई कहने मात्रही ठहराते है सो भी मिथ्या है क्योंकि अभिवर्द्धित संवत्सर में वीशदिने गृहस्थी लोगोंको कह देवे कि हम यहाँ वर्षाकालमें ठहरे हैं ऐसा कहकर फिर एक मासके बाद भाद्रपद में वार्षिक कृत्य करे इस तरहका कोई भी शास्त्र में नही लिखा है इसलिये इन तीनों महाशयों का कहना शास्त्रोंके प्रमाण बिनाका होनेसे प्रत्यक्ष उत्सूत्रभाषणरूप है और आषाढ़ पूर्णिमासे योग्यक्षेत्राभावादि कारणे पाँच पाँच दिनको वृद्धि करते दशवे पंचकमें याने पचास दिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको पर्युषणा करे इस वाक्यको देखकेजो तीनो महाशय अभिवर्द्धित संवत्सर में वीशदिनकी पर्युषणाको गृहस्थी लोगोंके जानी हुई सिर्फ कहने १५ For Private And Personal Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११४ ] मात्रही ठहरा कर फिर वार्षिक कृत्य अभिवर्द्धित संवत्सरमें भी दशपञ्चके पचासदिने ठहराते होगे तो भी तीनों महाशयोंको जैन शास्त्रोंका अति गम्भिरार्थका तात्पर्य्य समझमें नही आया मालुम होता है क्योंकि जिस जिस शास्त्र में दशपञ्चके पचासदिने अवश्य पर्युषणा करनी कही है सो निकेवल चंद्रसंवत्सरमें ही करनी कही है नतु अभिवर्द्धित संवत्सर में क्योंकि दशपञ्चक तकका विहार चंद्रसंवत्सरमेंही होता है और अभिवर्द्धित संवत्सरमें तो निकेवल चारपञ्चकमें वोशदिने निश्चय प्रसिद्ध पर्युषणा किवी जाती थी सो उपरमें भी विस्तार पूर्वक लिख आया हु-जिससे चारपञ्चकके उपर सर्वथा प्रकारसे विहार करनाही नही कल्पे तथापि अभिवर्द्धितमें वीशदिनके उपरान्त विहार करे तो छकायके जीवोंको विराधना करने वाला और आत्मघाति आज्ञा विराधक कहा जाता है सो श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रकी वृत्ति वगैरह शास्त्रोमें प्रसिद्ध है इसलिये अभिवद्धित संवत्सरमें दशपञ्चक कदापि नही बनते हैं जहाँ जहाँ दशपञ्चके पचाप्तदिने पर्युषणा करनेकी व्याख्या लिखी है सो सब चंद्रसंवत्सरमें करने की समझनी___ और अभिवर्द्धित संवत्सरमें वोशदिने गृहस्थी लोगोंको साधु कह देखें कि हम यहां वर्षाकालमें ठहरे हैं इस वाक्यको देखके तीनों महाशय वीशदिनको पर्युषणाको कहने मात्रही ठहराते होवेंगे तब तो इन तीनों महाशयोंकी गुरुगम रहित तथा विवेक बिनाकी अपूर्व विद्वत्ताको देखकर मेरे को वड़ा आश्चर्य आता है क्योंकि जैसे अभिवर्द्धित संवत्सर में वीश दिने गृहस्थी लोगोंको साधु कह देखें कि हम यहाँ For Private And Personal Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११५ ] वर्षाकाल में ठहरे हैं तै तेही चंद्र संवस्तर में भी पचासदिने कह देवें कि हम वर्षाकाल में यहाँ ठहरे हैं ऐसे अक्षर खुलासा पूर्वक चन्द्र के तथा अभिवर्द्धितके लिये अनेक शास्त्रकारोंने लिखे है सो इन शास्त्रकारोंके लिखे वाक्य परसे तो इन तीनों विद्वान् महाशयोंकी विद्वत्ताके अनुसार चन्द्र संवत्सर में पत्रास दिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको पर्युषणा भी गृहस्थी लोगोंके कहने मात्रही ठहर जावेंगे और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि वार्षिक कृत्य करनाही नही बनेगा क्योंकि ज्ञात पर्युषणा चन्द्रमें पचासदिने तथा अभिवर्द्धित संवत्सर में वीशदने करे सो यावत् कार्त्तिकपूर्णिमा तक खुलासा पूर्वक शास्त्रकारोंने लिख दिया है और अमुक दिने ज्ञात पर्युषणा करे और अमुक दिने वार्षिक कृत्य करे ऐसा कोई भी जगह नही लिखा है इसलिये तीनों महाशय जो ज्ञात पर्युषणा के दिन वार्षिक कृत्य मानेंगे तब तो अभिवर्द्धित संवत्सर में वो दिने वार्षिक कृत्य भी माननें पड़ेंगे और वीश दिनकी पर्युषणा कहने मात्रही है ऐसा लिखना भी मिथ्या होने में कुछ बाकी नही रहा और चन्द्रसंवत्सरमें पचासदिने ज्ञात पर्युषणा में वार्षिक कृत्य मानोगें और अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीशदिने ज्ञात पर्युषणामें वार्षिक कृत्य नही मानोगे ऐसा मन कल्पनाका अन्याय तीनों महाशयोंका आत्मार्थी बुद्धिजन पुरुषं कदापि नहीं मान सकते हैं किन्तु वीशे तथा पचासे ज्ञात पर्युषणा वहाँ ही वार्षिक कृत्य यह न्यायशास्त्रानुसार होनेसे सर्व आत्मार्थियोंको अवश्यही प्रमाण करने योग्य है इसलिये अभिवर्द्धित संवत्सर में वीश दिने श्रावण शुक्लपञ्चमीको ज्ञात पर्युषणा वार्षिक कृत्यों For Private And Personal Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११६ ] सहित होती थी सो निश्चय निःसन्देहकी बात है और पर्युषणा अज्ञात तथा ज्ञात दो प्रकारकी सबी शास्त्र कारोंने कही है इसलिये इन तीनों महाशयोंने ज्ञात पर्युषणाका भी दो भेद लिखके वीशदिनकी कहने मात्र ठहराई तथा पचासदिनकी वार्षिक कृत्योंसे ठहराई सो सर्वथा शास्त्र विरुद्ध हैं क्योंकि जैसी ज्ञात पर्युषणा चंद्रसंवत्सरमें पचास दिने होती थी तैसीही अभिवर्द्धित संवत्सरमे वीशदिने होती थी सो ज्ञात पर्युषणाका एकही भेद सर्व शास्त्रकारोंने लिखा है परन्तु ज्ञात पर्युषणाका दो भेद कोई भी प्राचीन शास्त्रोंमें नहीं है इसलिये तीनों महाशयोंका ज्ञात पर्युषणा दो प्रकारकी लिखना प्रत्यक्ष शास्त्र विरुद्ध हैं.--- और आषाढ़पूर्णिमाको योग्यक्षेत्राभावादि कारणे प्रावण कृष्ण पञ्चमी, दशमी वगैरह पाँच पाँचदिने जो पर्युषणा कही है सो गृहस्थी लोगोंकी न जानी हुई और अनिश्चय होती हैं इसलिये अज्ञात और अनिश्चय पर्युषणामें वार्षिक कृत्य नही बनते हैं किन्तु वीशे तथा पचासे ज्ञात और निश्चय पर्युषणामें वार्षिक कृत्य बनते हैं। और श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रके अष्टमाध्ययन (पर्युषणाकल्प) की चूर्णिका और श्रीनिशीथसूत्रके दशवें उद्देशेको चूर्णिका पाठमें श्रीकालकाचार्यजीने कारणयोगे चतुर्थीकी पर्युषणा किवी है सो भी चंद्रसंवत्सरमें किवी थी नतु अभिवर्द्धितमें क्योंकि खास चूर्णिकार महाराजने अभिवर्द्धितमें वीशे तथा चंद्रमें पचासे ज्ञात निश्चय पर्युषणा करनी कही है जिसका सब पाठ उपरोक्त छपगया हैं इसलिये मासद्धि होते भी भाद्रपदमें पर्युषणा स्थापते हैं सो मिथ्यावादी है क्योंकि For Private And Personal Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७ ] प्राचीनकालमें जैन ज्योतिषके पञ्चाङ्गकी रीतिसे चंद्र में पचासदिने भाद्रपद शुक्रपञ्चमीको और अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावणशुक्लपञ्चमीको प्रसिद्ध निश्चय पर्युषणा वार्षिक कृत्यों से करनेमें आती थी जब जैन पञ्चाङ्गमें सिर्फ पौष तथा आषाढ़ मासको वृद्धि होती थी और मासोंकी वृद्धिका अभाव था जिपसे वर्षाकालके चारमासमें श्रावणादि कोई भी मास की वृद्धि नही होती थी परन्तु अब वर्तमानकाल में जैनज्योतिषके पञ्चाङ्गका अभाव होनेसे लौकिक पञ्चाङ्ग में हरेक मामोंकी वृद्धि होती है जिससे वर्षाकालमें श्रावण भाद्रपदादि मास भी बढ़ने लगे और अभिवर्द्धित संवत्सरमें योग्यक्षेत्राभावादिकारणे पाँच पाँच दिनको वृद्धि करते यावत् चारपञ्चके वीशदिने पर्युषणा करनेका तथा चंद्रसंवत्सरमें भी योग्यक्षेत्राभावादि कारणे पाँच पाँच दिनकी वृद्धि करते यावत् दशपञ्चके पर्युषणा करनेका कल्प कालानुसार श्रीसङ्घकी आज्ञासै विच्छेद हुआ है इसका विशेष विस्तार आगे करने में आवेगा] ___ इसलिये वर्तमानकालमें मासवृद्धि होवे तो भी आषाढ़ चौमासीसे पचास दिनकी गिनतीसे पर्युषणा करनेकी श्रीखर तरगच्छके तथा श्रीतपगच्छादिके पूर्वज पूर्वाचार्योंकी आज्ञा है जिससे दो श्रावण हो तो दूजा श्रावणमें तथा दो भाद्रपद हो तो प्रथम भाद्रपदमें प्रसिद्ध पर्युषणा श्रीजिनेश्वर भगवान्की तथा श्रीपूर्वाचार्योंकी आज्ञाके आराधन करनेवाले मोक्षार्थी प्राणी अवश्य करते हैं इसलिये दो श्रावण तथा दो भाद्रपद अथवा दो आश्विनमास होनेसे पांचमासके १५० दिनका अभिवर्द्धित चौमासा होता है जिसमें पचासदिने For Private And Personal Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११८ ] पर्युषणा करनेसे कार्तिक चौमासी तक पीछाडीके १००दिन रहते हैं तो भी कोई दूषण नहीं कहा है परन्तु मासद्धि की गिनती निषेध करनेसे श्रीअनन्ततीर्थङ्करगणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लङ्घनरूप महान् मिथ्यात्वके दूषणकी अवश्यही प्राप्ति होती है तथापि इन तीनों महाशयोंने उपरके दूषणका जरा भी विचार न किया और श्रीगणधर महाराज श्रीसुधर्मस्वानिजी कृत श्रोसमवायाङ्गनी सूत्रके पाठका उत्यापनका भी बिलकुल विवार. न करते सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थमें पाठ लिखके भोले जीवोंको सत्य बात परसे श्रद्धा उतारके जिनाजा विरुद्ध मिथ्यात्वरूप झगड़ेकी होर हाथमें देकर कदाग्रहमें गेरदिय हैं और अधिकमासको गिनती में लेने वालेको उलटा मिथ्या दूषण दिखाते हैं और अधिक मासकी गिनती नहीं करते भी आप निर्दूषण बनके श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठसे सत्यवादी तथा आज्ञा के आराधक बनते हैं जिसका पाठ इसी पुस्तकमें पृष्ठ ६९ । 90 में और भावार्थः पृष्ठ ७२ । १३ में छपगया है इसलिये इस जगह पुनः पाठ न लिखते थोडासा मतलब लिखके पीछे उसमें जो जो शास्त्र विरुद्ध है सो दिखावेंगें-तीनों महाशयोंका खास अभिप्रायः यह है कि अधिक मासको गिनती में करनेवालोंको दो आश्विन मास होनेसे दूजा आश्विनमें चौमासी कृत्य करना पड़ेगा और दूजा आश्विनमें चौमासी कृत्य न करते कार्तिकमें करेगे तो पर्युषणाके पीछाड़ी १०० दिन हो जावेगे तो श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके वचनको बाधा आवेगा क्योंकि-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसहराइ मासे विइक्वंते सत्तरिएहिराइंदिएहिं इत्यादि श्रीसम For Private And Personal Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११९ ] वायाङ्गशीमें पीकाडोके ७० दिन रखना कहा है ऐता लिखके तीनों महाशयोंने पर्युषणाके पीछे अवश्य ही १० दिन रखनेका दिखाकर अधिक मासकी गिनती करके पर्युषणा करनेवालों को कार्तिक तक १०० दिन होनेसे श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठके बाधक ठहराये [ इस न्यायानुसार तो तीनों महाशय तथा तीनों महाशयोंके पक्षवाले सबी महाशय भी श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके बाधक ठहर जाते हैं क्योंकि दो आश्विन होनेसे भी चौमासी कृत्य कार्तिक मासमें करनेसे पर्युषणाके पीछाडी १०० दिन होते हैं तथापि अब आप निर्दूषण बननेके लिये फिर लिखते हैं कि कार्तिक चौमासी कार्तिक शुदीमें करना चाहिये जिसमें दो आश्विनमास होवे तो भी १०० दिन हुआ ऐसा नही समझना किन्तु अधिकमासको गिनती में नही लेनेसे 90 दिनही हुआ समझना और दो श्रावण होवे तो भी भाद्र पदमें पर्युषणा करनेसे ८० दिन हुआ ऐसा नही समझना किन्तु अधिकमाप्तको गिनतीमें नहीं लेनेसे ५२ दिनही हुआ समझना, दो श्रावण हो तथा दो. आश्विन हो तो भी गिनतीमें नही लेनेसे श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके वचनको बाधा भी नही आवेगी और शास्त्रोंके कहे पर्युषणाके पहिले ५० दिन तथा पीछाड़ी 90 दिन यह दोनं बात रह जाती है ] इप्त तरहका तीनों महाशयों का मुख्य अभिप्राय है ॥ इस पर मेरेको बड़ा खेद उत्पन्न होता है कि तीनों महाशयोंने कदाग्रहके जोरसे अपनी हठवादको मिथ्या बातको स्थापनेके लिये सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में For Private And Personal Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२० ] उत्सूत्र भाषणरूप था क्यों परिश्रम करके भोले जीवोंको भ्रमजालमें गेरते संसारद्धिका भय कुछ भी नही रक्खा है इसलिये अब लाचार होकर भव्यजीवोंकी शुद्धश्रद्धा होनेके कारणरूप उपकारके लिये और तीनों महाशयोंका सूत्रकारके विरुद्ध उत्सूत्रभाषणके कदाग्रहको दूर करनेके वास्ते सूत्रकार और वृत्तिकार महाराजके अभिप्राय को ईस जगह लिख दिखता हूं--- श्रीसुधर्मस्वामिजी कृत श्रीसमवायाङ्गजीमूलसूत्र तथा श्रीखरतरगच्छनायक श्रीअभयदेवमूरिजी कृत वृत्ति और गुजराती भाषा सहित छपके प्रसिद्ध हुआ है जिसके पृष्ठ १२७ में तथाच तत्पाठः__समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराइ मासै वइक्कते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहिं वासावासंपज्जोसवेद ॥ अथ सप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते समणेत्यादिवर्षाणां चातुर्मासप्रमाणस्य वर्षाकालस्य सविंशतिदिवाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशतिदिनेष्वतीतेवित्यर्थः सप्तत्याच रात्रिदिनेषु शेषेषु भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यामित्यर्थः, वर्षास्वावासो वर्षावासः वर्षावस्थानं पज्जोसवेइत्ति परिवसति सर्वथा करोति पञ्चाशतिप्राक्तनेषु दिवसेषु तथाविध वसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति अतिभाद्रपद शुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदयमिति ॥ भावार्थः-श्रमण भगवन् श्रीमहावीरस्वामिजीने वर्षाकाल के चारमास कहे है जिसके १२० दिन होते हैं जिसमें एकमास अधिक वीशदिन याने ५० दिन जानेसे और ७० दिन पीछाड़ी बाकी रहनेसे भाद्रपद शुक्लपञ्चमीके For Private And Personal Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२९ ] दिन वर्षाकालमें रहनेका सर्वथा प्रकारसे अवश्यही निश्चय करना मो ‘पज्जोसवणा' अर्थात् पर्युषणा है जिस्ट में भाद्रपद शुक्ल पञ्चमीके पहिले ५० दिनके अन्दरमें योग्य क्षेत्रासादादि कारणे दूसरे स्थानमें भी विहार करके जाना बन सकता है परन्तु पचासमें दिन योग्य क्षेत्रके अभावले जङ्गलमें वृक्ष मीचे भी अवश्यही पर्युषणा करे यह मुख्य तात्पर्य है। ___और चन्द्र संवत्सरमें पचास दिने पर्युषणा करनेसे पी. छाही ७० दिन रहते हैं तैसे ही मास वृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सरमें धीस दिने पर्युषणा करनेसे पीछाही १०० दिन रहते हैं सो उपरमें अनेक जगह खुलासा पूर्वक छप गया है तैसेही इन्हीं वृत्तिकार महाराज, श्रीस्थानांगजी सत्रकी वृत्तिमें कहा है जिसका यहाँ पाठ दिखाता हुं। छपी हुई श्रीस्थानांगजी सूत्र वृत्तिके पृष्ठ ३६५ का तथाच तत्पाठः___ पढमपाठसंसित्ति ॥ इहाषाढ श्रावणी प्रावट आषावस्तु प्रथम प्रावट ऋतुनां वा प्रथम इति प्रथमप्रावट अथवा चतुर्मासप्रमाणो वर्षाकालः प्रावृहिति विवक्षित सत्र सप्ततिदिनप्रमाणे प्रावषे द्वितीये भागे तावन्नकल्पत एव गन्तु म्प्रथम भागेऽपि पञ्चाशद्दिनप्रमाणे विंशति दिनप्रमाणे वा न कल्पते जीवव्याकुलभूतत्वा दुक्तंच एत्थय अणभिगहियं, वीसहराइसवीसईमासं ॥ तेणपरमभिग्गहियं, गिहिनायंकत्तियंजावत्ति ॥ १॥. अनभिगृहीत, ममिश्चित मशिवादिभि निर्गमभावात् आहच असिवादिकारणेहिं, अहवावासंनमुटु- आरद्धअभिवढियंमिवीसा, दहरेसु सवीसईमासो ॥१॥ यत्र संवत्सरेऽधिकमासको भवति तत्राषाढ्याः विंशतिदिनानि याव दनभिग्रहिक आवासो ऽन्यत्र For Private And Personal Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२२ ] सविंशतिरात्रं मासं पंचाशतं दिनानीति अत्र चैते दोषाः छक्कायविराहणया,आवडणं विसमखाणुकंटेसु॥ वुझणअभिहणरुक्खो, लसावपतेण उवधरए ॥१॥ अक्खुन्नेसु पहेस, पुढवी उदगंवहोइदुविहंतु ॥ उल्लपयावणअगणि, इहरापण ओहरियकुंथुत्ति ॥ २॥ तत स्तत्र प्रावृषि किमत आह एकस्माद् ग्रामा दवधिभूता दुत्तरग्रामाणा मनतिक्रमो ग्रामानुग्राम तेन ग्रामपरम्परयेत्यर्थः अथवा एक ग्रामालपपश्चाद्ग्रामाभ्यां ग्रामोऽनुग्रामो गामोय अणगामोय गामाणुगामं तत्र दूइज्जित एत्ति द्रोतुं विहर्तुमित्युत्सगों पवादमाह पंचेत्यादि तथैव नवर मिह प्रत्यथेत ग्रामाचालये निष्काशयेत् कश्चित् उदकौघेवा आगच्छति ततो नश्येदिति उक्तंच आवाहे दुम्भिख्खे, भएदओघंसिघामहंतंसि ॥ परिभवणं तालणवा, जया परोवाकरेज्जासित्ति ॥१॥ तथा वर्षासु वर्षाकाले वर्षावृष्टिः वर्षावर्षावर्षासु वा आवासोग्वस्थानं वर्षावास स्तं स च जघन्यत आकार्तिक्या दिन सप्ततिप्रमाणो मध्यमवृत्या च चतुर्मासप्रमाण उत्कृष्टतः षण्मासमान स्तदुक्तं इयसत्तरीजहन्ना, असिईनउईविमुत्तरसयंच ॥ जयवासेमग्गसिर, दसरायातिनिउक्कोसा ॥१॥ [मासमित्यर्थः] काऊणमासकप्प, तथेवठियाणतीत मग्गसिरे ॥ सालं वणाणछम्मा, सिओउ जिठोगहोहोइत्ति ॥ २॥ पज्जोसवियाणति परीति सामस्त्येनो पितानां पर्युषणाकल्पेन नियमवद्वस्तु मारब्धानामित्यर्थः पर्युषणा कल्पश्च न्यूनोदरताकरणं विकृतिनवकपरित्यागः पीठफलकादि संस्तारकादान मुच्चारादि मात्रकसंग्रहणं लोचकरणं शैक्षाप्रब्राजनं प्रारगृहीतानां भस्मसगलकादीना परित्यजन मितरेनां ग्रहणं द्विगुणवर्षांवग्रहो For Private And Personal Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२३ ] पकरणधरण मभिनवोपकरणग्रहणं स क्रोशयोजनात्परतो गमनवर्जन मित्यादि। देखिये उपरोक्त पाठमें श्रीवृत्तिकार महाराज, चार मासके वर्षाकालमें अभिवहित संवत्सरमें वीस दिन और चन्द्र संवत्सरमें पचास दिन के उपरान्त विहार करने वालोंको छ कायके जीवों की विराधना करने वाला कहा अर्थात् वीसे और पचासै अवश्यही पर्युषणा करनी कही सो यावत् कार्तिक तक याने अभिवद्धि तमें वीस दिने पर्युषणा करनेसे पीछाडी १०० दिन और चन्द्रमें पचास दिने पर्युषणा करनेसे पीछाडी 90 दिन उसी क्षेत्रमें ठहरे ॥ इत्यादि ॥ - अब श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाके आराधन करने वाले मोक्षाभिलाषि निपक्षपाती सज्जन पुरुषों को इस जगह विचार करना चाहिये कि श्रीगण धर महाराज, श्रीसमवायांगजी मूलसूत्र में और श्रीअभयदेवसरिजी महाराजनें वृत्तिमें मास वृद्धिके अभावसे चन्द्रसंवत्सर में जैन ज्योतिषके पंचाङ्गकी रीतिमुजब वर्तने के अभिप्रायले चार मासके वर्षाकालमें प्रथम पचास दिन जानेसे और पीछाडी ७० दिन रहने से पर्युषणा करनी कही है तथा विशेष खुलासा करते वत्तिकार महाराजने योग्यक्षत्रके अभावसे वृक्ष नीचे भी पचास दिने अवश्यही पर्युषणा करनी कही और अभिवर्द्धित संवत्सरमें वत्तिकार महाराजने और पूर्वधरादि महाराजोंने वीस दिने अवश्यही पर्युषणा करनी कही है जिससे पीछाडी एकसो दिन रहते हैं;-तथापि ये तीनों महाशय अपनी कल्पनासें वृत्तिकार और पूर्वधारादि महाराजों का ( अनिवर्द्धितमें वीस दिने पर्युषणा करनेसे पीछाडी एकसो For Private And Personal Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२४ ] दिन रहते हैं) इस अभिप्राय के व्यवहारको जड़मूलसे ही उड़ा करके अभिवर्द्धितमें भी पचास दिने पर्युषणा और पीछाडी ७० दिन रखनेका शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में वृथा आग्रहसे हठ करते हैं क्योंकि श्रीगणधर महाराजने श्रीसमवायांगजी मूलसत्र में और श्रीअभयदेवसरिजीने वृत्तिमें प्रथम पचास दिन जानेसे और पीछाडी 90 दिन रहनेसे जो पर्युषणा करनी कही है सो चन्द्र संवत्सरमें नतु अभिवर्द्धितमें तथापि तीनों महाशय श्रीसमवायांगजीका पाठको अभिवर्द्धितमें स्थापन करते हैं सो निःकेवल श्रीगणधर महाराजके और वृत्तिकार महाराजके अभिप्रायके विरुद्वार्थमें उत्सूत्र भाषण करते हैं इसलिये मास वृद्धि होते भी पीछाडी ७० दिन रखनेका पाठको दिखाकर संशय रूप भ्रमजालमें भोले जीवोंको गेरना सर्वथा शास्त्रकारों के विरुदार्थमें है इसलिये मास वद्धि होते भी वीन दिने पर्यषणा करनेसे पर्युषणा के पीलाही एकसो दिम प्राचीन कालमें भी रहते थे उसमें कोई दूषण नहीं-और अब जैन पंचाङ्ग के अभावसे वर्तमानिक लौकिक पंचाङ्गमें श्रावणादि हरेक मासोंकी वृद्धि होनेसे शास्त्रानुसार तथा पूर्वाचार्योंकी आज्ञा मुजब पचास दिने दूजा श्रावण शुदीमें पर्युषणा श्रीखरतरगच्छादि वालोंके करनेमें आती है जिन्होंको पर्युषणाके पीछाडी कार्तिक तक एकसो दिन स्वाभावसेही रहते हैं सो शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक हैं क्योंकि दो प्रावणादि होने से पाँच मासके १५० दिनका अभिवर्द्धित चौमासा होता है जिसमें पचास दिने पर्युषणा होवे तब पीछाडीके एकसो दिन नियमित्त रीतिसै रहते हैं यह बात जगत् प्रसिद्ध है इसमें कोई भी दूषण नहीं है इसलिये For Private And Personal Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२५ ] अधिक मासकी गिनती करने वाले श्रीखरतरगच्छादि वालोंको पर्युषणाके पीछाडी एकसो दिन होते हैं परन्तु कोई शास्त्रके वचनको बाधाका कारण नहीं है और श्रीसमवायांगजीमें पीछाडी ७० दिन रहने का कहा है सो मास वृद्धि के अभा वसे है इसका खुलासा उपरोक्त देखो इसलिये मास रद्धि होनेसे १०० दिन होवे तो भी श्रीसमवायांगजी सूत्रके वचनको कोई भी बाधाका कारण नहीं है। तथापि तीनों महाशय श्रीसमवायांगजी सूत्रके नामसे पीछाडीके ७० दिन रखनेका हठ करते है। और श्रीखरतरगच्छादि वालोंके उपर आक्षेपहप पर्युषणाके पीछाड़ी ७० दिन रखने के लिये दो आश्विनमास होने से दूजा आश्विनमें चौमासी कृत्य करनेका दिखाते है। और कार्तिक में करनेसें १०० दिन होते है जिससे श्रीसमवायांगजी सूत्रका पाठके बाधक ठहराते हैं सो मिथ्या हैं क्योंकि श्रीखरतरगच्छवाले श्रीसमवायांगजी सूत्रका पाठके बाधक कदापि नही ठहरते हैं किन्तु तीनों महाशय और तीनों महाशयोंके पक्षधारी सब ही श्रीसमवायांगजी सूत्रके पाठके उत्थापक बनते हैं सो ही दिखाताहुं। तीनों महाशय (समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइ राइमासे वीइक्ते इत्यादि ) पाठको तो खास करके मंजूर करते हैं। इस पाठमें पचास दिन कहे हैं, वर्तमानिक कालानुसार पचास दिने पर्युषणा इस पाठसे करनी मानों तो श्रावणमासकी वृद्धि होते दूजा श्रावण शुदीमें पचासदिने पर्युषणा तीनों महाशयोंको और इन्हों के पक्षधारिओंको मंजर करनी चाहिये। सो नही करते हैं और दो प्रावण होते भी ८० दिने पर्युषणा करते For Private And Personal Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२६ ] हैं इसलिये श्रीसमवायांगजी सत्रका इसी ही पाठको न माननेवाले तथा उत्यापक तीनों महाशय और इन्होंके पक्षधारी प्रत्यक्ष बनते है । तथापि निर्दूषण बनने के लिये अधिक मासकी गिनती निषेध करके, ८० दिनके बदले ५० दिन मानकर निर्दूषण बनते है। और पर्युषणाके पीछाड़ी दो आश्विनमास होनेसे कार्तिक तक १०० दिन होते हैं । तथापि इसको निषेध करने के लिये अधिकमासकी गिनती निषेध करके १०० दिनके बदले 90 दिन मानकर अपनी मनो. कल्पनाले निर्दूषण बनते है और श्रीसमवायांगजी सत्रका पाठके आराधक बनते है। परन्तु शास्त्रार्थको आस्मार्थी पुरुष निपक्षपातसै देखके विचार करते हैं तबतो दोनों अधिक मासका गिनतीमें निषेध करनेका तीनों महाशयोंका और इन्होंके पक्षधारिओंका महान् अनर्थ देखके बड़े आश्चर्य सहित खेदको प्राप्त होते हैं क्योंकि तीनो महाशय और इन्होंके पक्षधारी अधिकमासकी गिनती निषेध करके श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठके आराधक बनते है परन्तु खास इसी ही श्रीसमवायांगजी मूलसूत्र में अनेक जगह खुलता पूर्वक अधिकमासको प्रमाणकिया हैं जिसमें का ६१ और ६२ वा श्रीसमवायांगका पाठ भी वृत्ति भाषा सहित इसी ही पुस्तकमें ३९ । ४० । ४१ पृष्ठ में छप गया है जिसमें पांच संवत्सरोंका एक युगर्भ दोनु अधिकमास को दिनोमें पक्षोमें मासोमें वर्षों में खुलासा पूर्वक गिनके प्रमाण दिखायाहै इस लिये अधिकमासकी गिनतीका निषेध कदापि नही हो शकता है तथापि अधिकमासकी गिनती निषेध करके जो श्रीसमवायांगजी सूत्रका पाठके आराधक बनते है सो आराधकके बदले For Private And Personal Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२७ ] उलटे विराधक बनते हैं और मासवृद्धि दो श्रावणादि होते भी भाद्रपदमें ८० दिने पर्युषणा करणी और वर्तमानिक पाँचमास के १५० दिनका अभिवर्द्धित चौमासा होते भी पर्युषणाके पीछाडी 90 दिन रखनेका आग्रहसे हठकरना, और पर्युषणाके पीछाड़ी मास वृद्धि होनेसे १०० दिन मानने वालोंको दूषित ठहराना। और अधिक मासकी गिनती निषेध करके भी आप निर्दूषण बनना। ऐसा जो जो महाशय वर्तमानकालमें मानते है श्रद्धारखते है तथा परूपते. भी है-सो निःकेवल अनेक शास्त्रोंके विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषण करते दृष्टिरागी भोलेजीवों को जिनाज्ञा विरुद्ध कदाग्रहकी भ्रमजालमें गेरके अपनी आत्माको संसारगामी करते है इसलिये अधिकमासके निषेध करने वाले कदापि निर्दूषण मही बनशकते है,-और अधिकमासका निषेध करने की ऐसी बाललीला मिथ्यात्व रूप मन कल्पमा की गपोल खीचड़ी, क्या, अनन्तगुणी अविसंवादी सर्वज्ञ महाराज अतिउत्तमोत्तम श्रीतीर्थङ्कर केवलज्ञानी भगवान् उपदेशित शास्त्रोंमें कदापि चल शकती है अपितु सर्वथा प्रकारसे नहीं, नही, नही, क्योंकि अधिकमास को श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराज खुलासा पूर्वक गिनती में प्रमाण करते हैं। इसलिये तीनों महाशय तथा इन्होंके पक्षधारी वर्तमानिक महाशयोंकी अधिक मासके निषेध करनेकी सर्व कल्पना संसार वृद्धि कारक मिथ्यात्वकी हेतु हैं इसलिये वर्तमानिक श्रीतपगच्छादि वाले आत्मार्थी मोक्षाभिलाषि निर्यक्षपाती सज्जन पुरुषोंसे मेरा यही कहना है कि-हे धर्म बन्धवों तुमको संसार वृद्धिका For Private And Personal Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२८ ] भय होवे और श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाके आराधन करने की इच्छा होवे तो अधिक मासकी गिनतीको प्रमाण करो और दो श्रावण हो तो दूजा प्रावणमें तथा दो भाद्र पद हो तो प्रथम भाद्रपदमें पचास दिने पर्युषणा करनी मंजर करो करावो श्रद्धो परूपो और मास वृद्धि होनेसे पर्युषणाके पीछाडी १०० दिन स्वभाविक होते है जिसको मान्य करो इस तरह का जब प्रमाण करोगे तब ही जिनाजाके आराधक निर्दूषण बनोंगे। नहीं तो कदापि नही, आगे, इच्छा तुम्हारी-इतने परमी श्रीसमवायांगजी सूत्रका पर्युषणा के पहिले ५० और पीछाड़ी ७० दिनका पाठको दिखाकर मास वृद्धि होते भी दोन बात रखने के लिये जितनी जितनी कल्पना जोजो महाशय करते रहेंगे सोसो सूत्रकारके विरुद्धार्थमें वृथा परिश्रम करके उत्सूत्र भाषक बनेंगेक्योंकि ५० और 90 दिन चारमासके १२० दिनका वर्षाकाल संबंधी पाठ है इसलिये दो श्रावणादि होनेसे पाँचमासके १५० दिनका वर्षाकालमें श्रीसमवायांगजीका पाठको लिखना सो प्रत्यक्ष सूत्रकारके वृत्तिकार के और न्याय युक्तिसे भी सर्वथा विरुद्धार्थ में हैं इसका विशेष खुलसा उपरोक्त देखो। और एक युगके पांच संवत्सरोमें दोनु अधिकमासकों खास श्रीसमवायाङ्गजी मूलसूत्रमें तथा वृत्ति वगैरह अनेक शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक प्रमाण किये है जिसके विषयमें २२ शास्त्रोंके प्रमाण तो इसी ही पुस्तक के पृष्ठ २७ तथा २८ और २९ मे छपगये है और भी सूत्र, वृत्ति, प्रकरण, वगैरह अनेक शास्त्रोंके प्रमाण अधिक मासको गिनतीमें करने के लिये हमको मिले है सो आगे लिखने में आवेंगे, अधिक For Private And Personal Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२ ] भासको दिनो, यावत् मुहूतामें भी खुलासासे प्रमाण किया है इसलिये अधिकमासकी गिनती निषेध करने वाले तीनों महाशय और इन्होंके पक्षधारी वर्तमानिक महाशय भी श्रीअनन्ततीर्थङ्कर, गणधर, पूर्वधर पूर्वाचार्यो के और अपने ही पूर्वजों के वचनों का खण्डन करते, सूत्र, वृत्ति, भाष्य, चूर्णि, नियुक्ति, और प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंके पाठोंके न मानने वाले तथा उत्थापक प्रत्यक्ष बनते है और भोले जीवोंको भी उसी रस्ते पहोचाते मिथ्यात्वकी वृद्धिकारक संसार बढ़ाते है । इस लिये गच्छके पक्षपातका कदाग्रहको छोड़के शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक अधिक माप्तको प्रमाण क नेकी सत्यबातको ग्रहण करना और सब जनसमाजको ग्रहण कराना यही सम्यक्त्व धारीसज्जन पुरुषों का काम हैं ;---- और भी तीनों महाशय चौमासी कृत्य आषाढ़ादिमास प्रतिबद्धा की तरह मास वृद्धि होने से पर्युषणा भी भाद्रपदभास प्रतिबद्धा ठहराते है को भी शास्त्रों के विरुद्ध है क्योंकि प्राचीन काल में भी मात वृद्धि होनेसे श्रावणमास प्रतिवद्धा पर्युषणाथी और वर्तमान कालमें भी दो श्रावण होनेसे कालानुसार दूजा श्रावण में पर्युषणा करने की शास्त्रकारों की आज्ञा हैं सोही श्रीखरतरगच्छादिमे करने में आती हैं इसलिये मास वृद्धि होते भी प्राचीन कालमें भाद्र. पद प्रतिवद्धा और वर्तमानमें दो श्रावण होते भी भाद्रपदप्रतिबद्धा पर्युषणा ठहराना शास्त्रोंके विरुद्ध है इस बातका उपर में विशेष खुलासा देखके सत्यासत्यका निर्णय पाठकवर्ग स्वयं कर सकते हैं। और जैसे चौमाती कृत्यमें अधिक मासको गिना जाता है तैसे ही पर्यषणा में भी अधिक मास को For Private And Personal Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३० ] अवश्यही गिना जाता हैं इस लिये धर्मकायों में और गिनती का प्रमाणमें अधिक मासका शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक प्रमाण करना ही उचित होनेसे आत्मार्थियों को अवश्य ही प्रमाण करना चाहिये। अधिक मास को प्रमाण करना इसमें कोई भी तरहका हठवाद नहीं हैं किन्तु अधिक मास की गिनती निषेध करना सो निःकेवल शास्त्र कारों के विरुद्धार्थमें हैं.--तथापि इन तीनों महाशयोंने बड़े जोरसे अधिक माप्तकी गिनती निषेध किवी तब उपरोक्त समीक्षा मुजेभी अधिक मासकी गिनती करने के सम्बन्ध की करनी पड़ी और आगे फिर भी इन तीनों महाशयोंने अपनी चातुराई अधिक मास को निषेध करने के लिये प्रगट किवी है जिसमें के एक तीसरे महाशय श्री विनयविजयजी कृत श्रीसुखबोधिका वत्तिका पाठ इसही पुस्तक के पृष्ठ ६९।७०1७१ मे छपा था जिसमेका पीछाडीका शेष पाठ रहा था जिसको यहाँ लिखके पीछे इसीकी समीक्षा भी करके दिखाता हु श्रीसुखबोधिकावृत्ति के पृष्ठ १४७ की दूप्तरी पुठी की आदि से पृष्ठ १४८ के प्रथम पुठी की मध्य तक का पाठ नीचे मुजब जानो यथा:---- किं काकेन अक्षितः किं वा तस्मिन्मासे पापं न लगति उत बुभुक्षा न लगति इत्याधु पहस मास्वकीयं ग्रहिलत्वं प्रकटयत स्त्वमपि अधिकमासे सति त्रयोदशषु मासेषु जातेप्वपि साम्वरूरिक क्षामणे, बारसरहं मासाणमित्यादिकं वदनााधिकमार मंगीकरोषि एवं चतुर्भास क्षामणे ऽधिकमास सद्भावेपि, उल्हमासाणमित्यादि पक्षिक क्षामणके. ऽधिक तिथि मवेपि, एनरसण्हं दिवसाणमिति च वषे For Private And Personal Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३१ ] तथा नवकल्पिविहारोहि लोकोत्तरकार्येषु,आसाढेमासे दुप्पया, इत्यादि सूर्य चारे,लोकेपि दीपालिका अक्षय तृतीयादि पर्वसु धन कलत्रादिषु च अधिकमासो न गण्यते तदपि त्वं जानासि अन्यत्र सर्वाणि शुभकार्याणि अभिवद्धिते मासे नपंसक इति कृत्वा ज्योतिः शास्त्रे निषिद्धानि अतएव आस्वा मन्योभिवर्द्धितो भाद्रपद वद्धौ प्रथमो भाद्रप. दोपि अप्रमाणमेव यथा चतुर्दशी वृद्धौ प्रथमां चतुर्दशी. मवगण्य द्वितीयायां चतुर्दश्यां पाक्षिक कत्यं क्रियते----- तथात्रापि एवं तर्हि अप्रमाणे मासे देवपूजा मुनि दानाऽवश्यकादि कार्यमपि न कार्यमित्यपि वक्तुमाधरौष्टं चपलय यतो यानि हि दिनप्रतिबद्धानि देवपूजा मुनि दानादि कृत्यादि तानि तु प्रतिदिन कर्त्तव्यान्येवं यानि च सन्ध्यादि समय प्रतिबद्धानि आवश्यकादीनि तान्यपि य कञ्चन सन्ध्यादि समय प्राप्य कर्तव्यान्येव यानि तु भाद्रपदादि मास प्रतिबद्धानि तानि तु तद्द्यसम्भवे कस्मिन्क्रियते इति विचारे प्रथम मवगण्य द्वितीये क्रियते इति सम्यग विचारय तथाच पश्य अचेतना वनस्पतयोपि अधिकमाम नांगी कुर्वते येनाधिकमासे प्रथमं परितज्य द्वितीय एव मासे पुष्पति-यदुक्तम् आवश्यकनियुक्तौ, जइपुल्ला कमि आरडा, चूअग अहिमासयंमिह मि॥ तुहनखमं फुल उ, जइपच्चंताकरिति हमराइं ॥१॥ तथा च कश्चित् ॥ अभिवढियंमिवीसा, इयरेसु सवीसइ मासो,। इति वचन बलेन मासाभिवृद्धौ विंशत्यादि तैरेव लोचादि कृत्य विशिष्टां पर्युषणां करोति तदप्पयुक्तं, यन अभिवढियंमिवीमा इति वधनं गृहिज्ञातमात्रापेक्षया अन्यथा भाताद. For Private And Personal Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३२ } पुमाए पज्जोसवेंति एसउस्सग्गो सेसकाल पज्जीसविताणं अववाउत्ति, श्रीनिशीथ चूर्णि दशमोद्ददेशक वचनादाषाढ पूर्ति मायामेव लोचादि कृत्यविशिष्टा पर्युषणा कर्त्तव्या स्यात् इत्यलं प्रसंगेन उपरोक्तपाठ जैसा मैंने देखा बैसा ही यहाँ छपा दिया है और जैसे श्री विनयविजयजी ने उपरोक्त पाठ लिखा हैं वैसा ही अभिप्रायः का श्रीधर्मसागरजीने श्रीकल्यूकिरणाबली वृत्तिमें और श्रीजय विजयजी ने श्रीकल्पदीपिका वृत्ति में अपनी अपनी विद्वत्ताको चातुराई से अनेक तरहके उटपटांग, पूर्वापर विरोधी विसंवादी और उत्सूत्र भाषण रूप शास्त्र कारोंके विरुद्धार्थ में अपनी मनकल्पना से लिखके गदाग्रही दृष्टि रागी श्रावकों के दिलमें जिनाज्ञा विरुद्धमिध्यात्वका भ्रनगेरा हैं । जिसका सबपाठ यहाँ लिखने से ग्रन्थ बढ़जावे, और वा वकवर्गको विस्तार के कारण से विशेष लगे इसे नही लिखा और तीनों महाशयों का अभिप्राय उपरके पाठ मुजब ही खास एक समान है, इसलिये तीनों महाशयोंके पाठको न लिखते एकही श्री सुखबोधिका वृत्तिका पाठ उपर में लिखा है उसीकी समीक्षा करता हु सो तीनों महाशयोंके अभिप्रायका लेखकी समझ लेना- -अब समीक्षासुनो तीनों महाशय अधिकमासकी गिनती निषेध करके फिर उसीकों ही पुष्टी करने के लिये प्रश्नोत्तर रूपमें लिखते है कि-अधिकमासको गिनती में नही करते होतो ( किं का केनः भक्षित; - इत्यादि) क्या अधिकमासको काकने भक्षण कर लिया किं वा तिस अधिक मासमें पाप नही लगता हैं और उस अधिकमास में क्षुधा भी नही लगती है --- For Private And Personal - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३३ ] सी अधिकमाप्तको गिनतीमें नही लेते हो अर्थात् जो अधिक मास में पाप लगता होवे और क्षधा भी लगती होवे तो अधिकमासको गिनतीमें भी प्रमाण करके मंजूर करणा चाहिये--इत्यादि मतलबसे उपहास करता प्रश्नकार वादीको ठहराकर फिर श्रीविनयविजयजी अपनी विद्वत्ता के जोरसे प्रतिवादी बनके उपर के प्रश्नका उत्तर देने मे लिखते है किमास्वकीय अहिलत्वं प्रगटयत स्त्वमपि अधिक मासे सति त्रयोदशषु मासेषु जातेष्वपि-इत्यादि अर्थात् अधिकमासको क्या काकने भक्षण करलिया तथा क्या तिस अधिकमासमें पापनही लगता है और क्षुधा भी नही लगती है सो गिनतीमे नही लेते हो इत्यादि उपहास करता हुवा तेरा पागलपना प्रगट मत कर क्योंकि-त्वमपि अर्थात् हमारी तरह जिस संवत्सरमें अधिकमास होता है उसी संवत्सरमें तेरहवात होते भी सहवत्सरिक क्षामणे 'बारसरहमासाणं' इत्यादि बोलके अधिकमासको गिनती में अङ्गीकार तु भी नहीं करता है और तैसे ही चौमासी क्षामणेमें भी अधिकमास होने से पांच मासका सद्भाव होते भी 'चउरहमासाणंइत्यादि बोलके अधिकमासकी गिनती नही करता हैं ; अब हम उपरके मतलब की समीक्षा करते हैं कि हे पाठकवर्ग ! भव्यजीवों तुम इन तीनों विद्वान् महाशयों की विद्वत्ताका नमुना तो देखो-प्रथम किस रीतिसे प्रश्न उठाते हैं और फिर उन्तीका उत्तरमें क्या लिखते हैं प्रश्नके समाधानका गन्ध भी उत्तरमें नहीं लाते और और बाते लिख दिखाते हैं क्योंकि उपरोक्त प्रश्नमें अधिक मासको गिनती में नहीं लेते हो तो क्या काकने For Private And Personal Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३४ ] अक्षण करलिया इत्यादि प्रश्न उठाकर इसका संबंध छोड़के-तभी साम्वत्सरिक क्षामणामें तेरहमास होते भी बारहमासके क्षामणे करता है इत्यादि लिख कर क्षामणाका संबंध लिख दिखाया और प्रश्न कारके उपर ही गेरके अपनी विद्वत्ता दिखाई परन्तु सम्पूर्ण प्रश्न के संबंधका समाधान उत्तरमें शास्त्रों के प्रमाणसे तो दूर रहा परन्तु युक्ति पूर्वक भी कुछ नहीं कर शके क्या अलौकिक अपूर्व विद्वत्ता प्रश्नके उत्तर देने में तीनों विद्वानोंने खर्च किवी हैं सो पाठक वर्ग बुद्धि जन पुरुष स्वयं विचार लेना, और तु भी अधिकमास होनेसे तेरह मासके क्षामणा न करते बारह मासका करके अधिक मासको अङ्गीकार नहीं करता हैं इत्यादि तीनों महाशयोंने लिखा हैं सो मिथ्या हैं क्योंकि अधिक मासकी गिनती करने वाले मुख्य श्रीखरतर गच्छवाले जब अधिकमास होता है तब अभिवर्द्धित संवत्सराश्रय सांवत्सरिक क्षामणे में तेरह मास तथा छवीश पक्षादि और अभिवर्द्धित् चौमासेमें भी पांचमास तथा दशपक्षादि खुलासा कहकर सांवत्सरिक और चौमासी क्षामणेमें अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण करते हैं इसलिये अधिक मासको क्षामणामें अङ्गीकार नही करता हैं ऐसा तीनो महाशयों का लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या हो गया और इस जगह किसीको यह संशय उत्पन्न होगा कि तेरह मास छवीश पक्षादि किस शास्त्रमें लिखे है तो इस बातका सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजी के नामसे पर्युषणा विचार नामकी छोटीसी पुस्तक की आगे में समीक्षा करूंगा वहाँ विशेष खुलासा शास्त्रोंके प्रमाणसे लिखा जायगा सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा। For Private And Personal Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३५ ] और पाठकवर्ग तथा विशेष करके श्रीतपगच्छके मुनि महाशय और श्रावकादि महाशयों को मेरा इस जगह इतना ही कहना है कि आप लोग निष्पक्षपातसे विवेक बुद्धि हृदय में लाकर तीनों महाशयों के लेखको टुक नजरसे थोड़ासा भी तो विचार करके देखो इस जगह क्षामणा के सम्बन्धमें दूसरों को कहने के लिये तीनों महाशयोंने 'अधिकमासति त्रयोदशषु मासेषु जातेष्वपि, इत्यादि । तथा 'एवं चतुर्मासकक्षामणेऽधिक मास सद्भावेऽपि, यह वाक्य लिखके अधिकमास को गिनतीमें लेकर तेरह मास अभिवर्द्धित सम्वत्सरमें और चौमासामें भी अधिक मातका सद्भाव मान्यकर अभिवद्धित चौमासा पाँचमास का दिखाया । इस जगह उपरोक्त इस वाक्यसे अधिकमासको तीनों महाशयोंने प्रमाण करके मंजूर करलिया और पहिले पर्युषणाके सम्बन्धमें अधिक श्रावणकी और अधिक आश्विनकी गिनती निषेध कर दिवी, जब क्षामणा के सम्बन्ध में अधिक मासको गिनतीमें खुलासा मंजूर करलिया तो फिर विप्तम्वादी वाक्यरूप संसार वृद्धिकारक अधिक मासकी गिनतीका निषेध वृथा क्यों किया इसका विशेष विचार पाठकवर्ग स्वयं करलेना, और अब श्रीतपगच्छ के वर्तमानिक महाशयोंको मेरा इतनाही कहना है कि आपलोग तीनों महाशयोंके वचनोंको प्रमाण करते हो तो इन्होंके लिखे शब्दानुसार अधिक मासकी गिनती मंजूर करोगे किम्वा विसंवादी पूर्वापर विरोधी वाक्यरूप निषेधको मंजूर करोगे जो गिनती मंजूरकरोगे तबतो वर्तमानिक लौकिक पञ्चागमें दो श्रावण वा दो भाद्रपद अथवा दो आश्विनादि मामोंकी वृद्धि होनेसे अधिक मामका गिनतीमें For Private And Personal Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३६ ] निषेध करनाही नही बनेगा,और जो निषेध को मंजर करोगे तब तो अनेक सूत्र, वत्ति भाष्य, चूर्णि, नियुक्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंके न मानने वाले उत्यापक बनोंगे इसलिये जैसा तुम्हारी आत्माको हितकारी होवें वैसा पक्षपात छोड़कर ग्रहण करना सोही सम्यक्त्वधारी सज्जन पुरुषों को उचित है मेरा तो धर्मबन्धुओंकी प्रीति से हितशिक्षारूप लिखना उचित था सो लिख दिखाया मान्य करना किंवा न करना सो तो आपलोगों की खुसी की बात है ;-- ____ और आगे भी सुनो, तीनों महाशयोंने पाक्षिक क्षामणे अधिक तिथि होते भी “पन्नरसणहंदिवसाणं", ऐसा कहके अधिक तिथि को नहीं गिनता है यह वाक्य लिखा है 'इससे मालुम होता है कि तिथिओंकी हाणी वृद्धि की और पाक्षिक क्षामणा संबंधी जैन शास्त्रकारों का रहस्यके तात्पर्य्यको तीनों महाशयों के समजमें नही आया दिखता है नही तो यह वाक्य कदापि नही लिखते इसका विशेष खुलासा श्रीधर्मविजयजीके नामसे पर्युषणा विचार नामकी छोटीसी पुस्तक की में समीक्षा आगे करूंगा वहाँ अच्छी तरह सैं तिथियों की हाणी वृद्धि संबंधी और पाक्षिक क्षामणा सम्बधी निर्णय लिखने में आवेगा-और नवकल्पि विहारका लिखा सो मासवद्धिके अभावसे नतु पोषादिमास वृद्धि होते भी क्योंकि मासवृद्धि पौष तथा आषाढ़ की प्राचीन कालमें होती थी जब और वर्तनानमें भी वर्षाऋतुके सिवाय मास वृद्धि में अधिक मासकी गिनती करके अवश्यही दशकल्पि विहार होता है यह बात शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक है इस का भी विशेष निर्णय वहाँ ही करने में आवेगा-और For Private And Personal Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३७ । ( आसाढ़े मासे दुप्पया इत्यादि सूर्यचारे ) इस वाक्य को लिखके तीनों महाशय अधिक मासमें सूर्य चार नहीं होता है ऐसा ठहराते है सो भी मिथ्या हैं क्योंकि अधिक मासमें अवश्यही निश्चय करके सूर्यचार आनादिकाल से होता आया है और आगे भी होता रहेगा तथा वर्तमान कालमें भी होता है सो देखिये शास्त्रोंके प्रमाण श्रीचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र में १ तथा वृतिमें २ श्रीसूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रमें ३ तथा वृत्ति में ४ श्रीयहत्कल्प वृत्तिमें ५ श्रीभगवतीजी मूलसूत्रके पञ्चम शतकके प्रथम उद्देशेमें ६ तत्वृत्तिमें ७ श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र में ८ तथा इन्हीं सूत्रकी पांच वृत्तियों मे १३ श्रीज्योतिषकरंडपयन्न की वृत्ति में १४ श्रीव्यवहारसूत्र वृत्ति में १५ और लघु तथा हत्दोर्नुसंग्रहणीसूत्र में १७ तथा तिस की चार वृत्तियों में २१ और क्षेत्रसमास के तीन मूल ग्रन्थों में २४ तथा तीन क्षेत्रसमासों की सात वृत्तिओं में ३१ इत्यादि अनेक शास्त्रोंमें अधिक मासमें सूर्यचार होनेका कहा है अर्थात् सूर्यचारके १८४ मांडलेके १८३ अन्तरे खुलासा पूर्वक कहे है जिसमें दिन प्रते सूर्य अपनी मर्यादा पूर्वक हमेसां गति करके १८३ दिने दक्षिणायनसे उत्तरायण और फिर १८३ दिने उत्तरायणसे दक्षिणायन इसीही तरहसे एक युगके पांच सूर्य संवत्सरोंके १८३० दिनोंमें सूर्यचारके १० आयन होते हैं जिसमें चन्द्रमासकी अपेक्षासे दो मासकी वृद्धि होने से ६२ चन्द्रमासके १८३० दिन होते हैं इसलिये अधिक मासके दिनोंकी गनती करनेसेही सूर्यचारके गतिका प्रमाण मिल शकेगा, अन्यथा नहीं? और लौकिक पञ्चांगमें भी अधिक मासके दिनोंकी गिनती सहित सूर्यचार होता है सोही वर्तमानिक संवत्सर For Private And Personal Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३८ ] को दिखाता हु,-सम्वत् १९६६ का जोधपुरी चंड पञ्चांगमें आषाढ़ शुक्ल ५ के दिन सूर्य उत्तरायनसे दक्षिणायन में हुवा था जिसमें मास वृद्धिसे दो श्रावण मास हुवे तब अधिक मासके दिनोंकी गिनती सहित चन्द्रमासकी अपेक्षासे तिथियोंकी हाणी वृद्धि हो करके भी १८३ वें दिन मार्गशीर्ष शुक्ल ए के दिन फिर भी सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायन में हुवा है सो पाठकवर्ग के सामनेकी ही बात हैं, इसी तरहसे लौकिक पञ्चाग में हरेक अधिक मासोंकी गिनतीसे सूर्यचारकी गिनती समझ लेना और सम्बत् १९६९ में खास दो आषढ़ मास होवेगें तबभी सर्यचारकी गतिको देखके पाठकवर्ग प्रत्यक्ष निर्णय करलेना-और मेरेपास विक्रम सम्वत् १९०१ से लेकर सम्वत् १९९वें तकके अधिक मासोंका प्रमाण मौजूद है परन्तु ग्रन्थगौरवके कारणसे नहीं लिखता हुं, इसलिये तीनों महाशय अधिक मास में सूर्यचार नहीं होता है ऐसा ठहराते है सो जैनशास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वक और लौकिक पञ्चाङ्गको रीतिसे भी प्रत्यक्ष मिथ्या हैं तथापि तीनों महाशयोंने भोले जीवोंकों अपने पक्ष में लानेके लिये ( आसाढ़ेमासे दुप्पया) इस वाक्यको लिखके सत्रकार गणधर महाराजका अभिप्रायके विरुद्ध हो करके और फिरभी अधरालिख दिया क्योंकि गणधर महाराज श्रीसुधर्मस्वामिजीने श्रीउत्तराध्ययनजी सूत्रके छवीश ( २६ ) वें अध्ययन में साधसमाचारी सम्बन्धी पौरस्थाधिकारे-असाढ़े मासे दुप्पया, पोसेमासे चउप्पया ॥ चित्तासोएसु मासेसु, तिप्पया हवइपोरसी ११ इत्यादि १२।१३।१४।१।१६ गाथाओं से खुलासा पूर्वक व्याख्या मास यद्धिके अभावसे स्वभाविक For Private And Personal Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir रीतिसे किवी थी और इन्हीं गाथाओंकी अनेक पूर्वाचायोने विस्तार करके अच्छी तरहसे टीका बनाई हैं उन सब व्याख्यायोंको और सत्रकारके सम्बधकी सब गाथायोंको छोड़करके सिर्फ एक पद लिखा सोभी मास वृद्धिके अभावका था जिसको भी मास वद्धि होते भी लिखके दिखाना सो आत्मार्थी भवभीरु पुरुषोंका काम नहीं हैं और में इस जगह श्रीउत्तराध्ययनजीसूत्र के २६ वा अध्ययनकी गाथा ११ वी,से १६ वी तक तथा व्याख्यायों के भावार्थ सहित विस्तार के कारणसे नहीं लिख सक्ता हुं परन्तु जिसके देखनेकी इच्छा होवे सो रायबहादुर धनपतसिंहजी की तरफसे जैनागम संग्रहका ४१ वा भागमें श्रीउत्तराध्ययनजी मूलसत्र तथा श्रीलक्ष्मीवल्लभगणिजी कृत वृत्ति और गुजराती भाषा सहित छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके २६ वा अध्ययन में साधुसमाचारी संम्बधी पौरषीका अधिकार पृष्ठ ७६६ में ७६९ तक गाथा ११वी से १६वी तथा वृत्ति और भाषा देखके निर्णय करलेना और जिसके पास हस्तलिखित पुस्तक मूल की तथा वृत्ति कीहोवे सोभी उपरोक्त अध्ययनकी गाथा और वृत्ति देखलेना और श्रीउत्तराध्ययनजी सूत्रकार श्रीगणधर महाराज अधिक मासको अच्छी तरहसे खुलासा पूर्वक यावत् मुहीमें भी गिनती करके मान्य करने वाले थे तथा अधिक मासके भी दिनोंकी गिनती सहित सर्यचार को मान्यने वाले थे इसलिये सूत्रकार गणधर महाराजके अभिप्रायः के सम्बन्धका सब पाठको छोड़के एकपद लिखनेसे अधिक मासमें सर्यवार नहीं होता है ऐसा तीनों महाशयोंका लिखना कदापि सत्य नहीं होशक्ता हैं अर्थात् सर्वथा मिथ्या हैं। For Private And Personal Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४० 1 और भी तीनों महाशय दो भाद्रपद होनेसें प्रथम भाद्रपको अप्रमाण ठहरा कर छोड़ देना और दूसरे भाद्रपद में पर्युषणा करना कहते है इसपर मेरेकों वड़ाही आश्चर्य सहित खेद उत्पन्न होता है क्योंकि जैसे अन्य मतवाले जिस देवकी अनेक तरहसें अज्ञान दशाके कारणसें विटंबना बहोत सी करते है फिर उन्हीं देवकों अपने परमेश्वर मानकर पूजते भी है तैसेही इन तीनों महाशयोंने भी अज्ञानी मिथ्यात्वियोंका अनुकरण किया अर्थात् जिस अधिक मास को कालचुला मान्यकरके गिनतीमें नही लेना ऐसा सिद्धकरके फिर अनेक तरहके विकल्पोंसें अधिक मासको दूषण लगाके निंदते हुवे निषेध करते है फिर उन्हीं अधिक मासमें धर्मका पर्युषण पर्व करना मंजूर कर लिया, क्योंकि तीनों महाशय अधिक मासको कालचूला कहनेसें गिनती में नहीं आता है ऐसा तो पर्युषणा के सम्बधमें प्रथम लिखते हैं इसपर पाठकवर्ग बुद्धिजनपुरुष निष्पक्षपात से विचार करो कि, कालचूला उसको कहते हैं जो एक वर्षका कालके उपरमे बढ़े एक वर्षके बारह मास स्वाभाविक होते ही हैं परन्तु जब तेरहवा मास बढ़ेगा तब उसीको कालचूलाकी ओपमा होगा नतु बारहवा मासको जब तेरहवा मास को कालचूलाकी ओपमा हुई उसीकों गिनती में निषेधभी करदेना, और प्रमाणभी करलेना यह कैसी विद्वत्ताका न्याय हुवा जो कालचूलाको निषेध करेंगे तब तो दूसरा भाद्रपदको कालचूलाकी ओपना होती है उसीमें पर्युषणापर्व स्थापना नहीं बनेगा, और जो दूसरे भाद्रपद में कालचूला जानके भी पर्युषणा स्थायेंगे तब तो दो श्रावण होनेमे दूसरे श्रावणको For Private And Personal Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४१ ] निषेध करना नहीं बनेगा, और अधिक मासको निषेध करनेके लिये जो जो कल्पना उपरके पाठ में लिखी है सो सबही वृथा होजावेगी सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना; और जैसे श्रीजिनेश्वर भगवान्‌की प्रतिमाजीके निंदक जैनाभास ढूंढिये और तेरहा पन्थी हठग्राही कदाग्रहीलोग अपने पक्षको भ्रमजाल में भोले जीवोंको फसानेके लिये जिस सूत्रका पाठ लोगोंको दिखाते हैं उन्हीं सूत्रके पाठको जड़ मूलसेही उत्थापन करते है तैसेही इन तीनों महाशयोंने भी किया अर्थात् श्रीदशाश्रुतस्कंधसूत्र के अष्टमाध्ययनरूप पर्युषणा कल्पचूर्णिका और श्रीनिशोथसूत्रको घूर्णिके दशवें उद्देशेका पाठ लिखके भोले जीवोंको दिखाया था उन्हीं चूर्णिके पाठको जड़मूल से उत्थापन भी कर दिया, क्योंकि प्रथम पर्युषणा भाद्रपद में ठहरानेके लिये दोनु चूर्णिके पाठ लिखे थे जिसमें स्वभाविक रीतिसे आषाढ़ चौमासीसें पचास दिनके अन्तर में कारण योग सें श्रीकालकाचार्यजीने पर्युषणा किवी थी सोभी प्राचीनकालाश्रय गुनपचास (४९) वें दिन मास वृद्धि के अभावसै परन्तु शास्त्रोंके प्रमाण उपरान्त एकावन दिने पर्युषणा नहीं किवी थी, तथापि इस जगह उन्हीं पाठको तीनों महाशयोंने जड़भूलसेही उत्थापन करके स्वभाविक रीति से प्रथम भाद्रपद था उसीको छोड़कर दूसरे भाद्रपद में ८० दिने पर्युषणा करनी लिख दिया, फिर निर्दूषण बनने के लिये उन्हीं दोनु चूर्णिमें अधिक मासको प्रमाण किया था उन्हीं चूर्णिके पाठको उत्थापनरूप अधिक मासको निषेध भी कर दिया, हा. आफसोस ; अब सज्जन पुरुषोंसे मेरा इतनाही कहना हैं कि दो For Private And Personal Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४२ ] भाद्रपद होनेसे प्रथम भाद्रपदमें ही पर्युषणा करनी जिनाज्ञामुजब शास्त्रानुसार है नतु दूसरे में, इतनेपर भी हठवादीजन शास्त्रोंके विरुद्ध होकरके भी दूसरे भाद्रपद में पर्युषणा करेंगे तो उन्होंके इच्छाकी बात ही न्यारी है;___ और तीनों महाशय दो चतुर्दशी होनेसे प्रथम चतुर्दशी को छोड़कर दूसरी चतुर्दशीमें पाक्षिक कृत्य करनेका कहते है सोभी शास्त्रविरुद्ध है इसका विशेष खुलासा तिथिनिर्णयका अधिकारमें आये विस्तार पूर्वक शास्त्रोंके प्रमाण सहित करने में आवेगा ,- और अधिक मासमें देवपूजा, मुनिदान, पापकृत्योंकी आलोचनारूप प्रतिक्रमणादि कार्य दिन दिन प्रति करनेका कहकर अधिक मासके तीस ३० दिनोंमें धर्मकर्मके कार्य करनेका तीनों महाशय कहते है परन्तु अधिक मासको गिनती में लेनेका निषेध करते हैं, इसपर मेरेकों तो क्या परन्तु हरेक बुद्धिजन पुरुषोंकों तीनों महाशयोंकी अपूर्व बालबुद्धिकी चातुराईको देखकर बड़ाही आश्चर्य को उत्पन्न हुये बिना नहीं रहेगा क्योंकि जैसे कोई पुरुष एक रुपैये को अप्रमाण मानता है परन्तु १६ आने, तथा ३२ आधाने और ६४ पाव आने, आदिको मान्य करता हैं और एक रुपैये को मानने वालोंका निषेध करता है, तैसेही इन तीनों महाशयोंका लेखझी हुवा अर्थात् अधिक मासके ३० दिनों में धर्मकर्म तो मान्य किये, परन्तु अधिक मासको मान्य नहीं किया और मान्य करनेवालोंका निषेध किया सो क्या अपूर्व विद्वत्ता प्रगट तीनों महाशयोंने किवी है, जैसे उस पुरुषने जब १६ आने तथा ३२ आध आने चौसठ पाव आने को For Private And Personal Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४३ ] मान्य करलिये तब एक रुपैया तो स्वयं मान्य होगया, तथापि निषेध करना, सो बे समझ पुरुषका काम है तैसेही तीनों महाशयोंने भी जब देवपूजा, मुनिदानावश्यक (प्रतिक्रमण) वगैरह धर्मकर्म ३० दिनोंमें मान्य लिये तब तो ३० दिनका एक अधिक मास तो स्वयं मान्य होगया, तथापि फिर अधिक मासको गिनती करने में निषेध करना सो हठवादसे निःकेवल हास्यका हेतु लज्जाका घर और तीनों महाशयोंकी विद्वत्ताकी लघुताका कारण है ,___ तथा और भी सुनिये जब इस जगह तीनों महाशय ३० दिनोंमें धर्मकर्म मान्य करते है जिससे अधिक मास भी गिनती में सिद्ध होता हैं फिर पर्युषणाके संबंधमें दो प्रावण के कारणसें भाद्रपद तक प्रत्यक्ष ८० दिन होते है जिसको निषेध करके ८० दिनके ५० दिन बनाते है और अधिक मासको निषेध करते है सो कैसे बनेगा अपित कदापि नही, इस लिये जो ८० दिन के ५० दिन मान्य करेगे तब तो अधिक मासके ३० दिनों में देवपूजा मुनिदानावश्यकादि कुछ भी धर्मकर्म करनाही नहीं बनेगा और अधिक मासके ३० दिनोंमें धर्मकर्म करना तीनों महाशय मंजर करेंगे तो अधिक मासके ३० दिनका धर्मकर्म गिनतीमें आजावेगा तब तो दो श्रावण हनेसे भाद्रपद तक ८० दिन होते है जिसका निषेध करनाही नही बनेगा और ८० दिने पर्युषणा करनी सो भी शास्त्रोंके प्रमाण बिना होनेसे जिनाज्ञा विरुद्ध तीनों महाशयोंके वचनसे भी सिद्ध होगई—इस बातको पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुष विशेष स्वयं विचार लेना , और आगे फिरभी तीनों महाशयोंने अभिवर्द्धित For Private And Personal Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । १४४ ] संवत्सरमें वीश दिने पर्युषणा होतीथी उसीको गृहस्थी लोगोंके करने मात्रही ठहरानेके लिये श्रीनिशीथ चूर्णिका दशवा उद्देशाके पर्युषणा विषयका आगे पीछेका संबंध को छोड़कर चूर्णिकार महाराजके विरुद्धार्थ में सिर्फ दो पद, लिखके सथा परिश्रम करके वड़ी भूल किवी हैं क्योंकि जो आषाढ़पूर्णिमाको पर्युषणा कही हैं सो गृहस्थी लोगके न जानी हुई, अप्रसिद्ध तथा अनिश्चय से होती हैं उसमें लोचादिकृत्य करनेका कोई नियम नही हैं परन्तु वीशे, और पचासे, गृहस्थी लोगोंकी जानी हुई प्रसिद्ध निश्चय पर्युषणा होती है उसी में लोचादिकृत्योंका नियम है इस लिये वोश दिनकी भी पर्युषणा वार्षिक कृत्योंसे होती थी इसका विशेष विस्तार उपरमें पहिले अनेक जगह छपगया है और श्रीनिशीथचूर्णिके १० वे उद्देशेका पर्युषणा संबंधी संपूर्ण पाठ भी उपरमे पृष्ठ ९५ से 6 तक और भावार्थ १०० से १०४ तक छपगया है और आगे पृष्ठ १०६ से यावत् ११७ तक उसी बातके लिये अनेक शास्त्रोंके प्रमाणसे और युक्तिपूर्वक विस्तारसे छपगया है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय होजावेगा और आगे लौकिकमें दीवाली, अक्षयतृतीयादि पर्व वगैरह तथा अन्यभी सर्व शुभकार्य अधिक मासको नपंशक कहके ज्योतिषशास्त्र में वर्जन किये हैं और अधिक मास में वनस्पति प्रफुल्लित नही होती हैं, इत्यादि बाते जो जो तीनों महाशयोंने लिखी हैं सो निःकेवल शास्त्रकारोंके अभिप्रायःकों जाने बिना विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणरूप भोले जीवोंको अपने फन्दमें फसानेके लिये लिखके मिथ्यात्वके कारणमें वृथा परिश्रम For Private And Personal Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४५ । करके समय खोया है और आपका तथा आपके लेखको सत्य माननेवालोंका संसार वृद्धिका कारणभी खुब किया है सो इन मब बातों का जबाब शास्त्रों के प्रमाणसे शास्त्रकार महाराज के अभिप्रायः समेत तथा न्यायपूर्वक युक्ति सहित अच्छी तरह से खुलासाके साथ आगे चौथे महाशय श्रीन्यायां. भोनि, नी और सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नाम से लिखने में आवेगा, परन्तु इस जगह निष्पक्षपाती सत्यग्राही श्रीजिनेश्वर भगवन्की आज्ञाके आराधक सज्जन पुरुषोंसें थोडीसी वार्ता दिखाकर पीछे तीनों महाशयोंकी समीक्षाको पूर्ण करूंगा सो वार्ता अब सुनो ; तीनों महाशयोंने श्रीकल्यसूत्रके मूलपाठकी [अंतरा वियो कप्यइ नोसे कप्पइ तं रयणिं उवायणा वित्तएति] इस पदकी व्याख्या [अर्वागपि कल्पे परं न कल्पेतां रात्रिं (रजनी) भाद्रपदशुक्ल पञ्चमी उवायणा वित्तएति अतिक्रमीतु इत्यादि] व्याख्या खुलासा पूर्वक किवी हैं जिसमें। प्रथन । आषाढ़चौमातीसें पचास दिन के अंदर में कारण योगे पर्युषणा करना कल्पे परन्तु पचासवें दिनकी भाद्रपदशुक्र पञ्चमीकी रात्रिको उल्लङ्कन करना नही कल्पे। तथा दूसरी। पाँच पाँच दिन की वृद्धि करते दशवें पञ्चकमें पचास दिने पर्युषणा जैन पञ्चाङ्गानुशार मासवृद्धिके अभावसे लिखी। और तीसरी। जैन पञ्चाङ्गानु तार एक युगमें पौष और आषाढ़ दो मासकी वृद्धि होने से वीशदिने पर्युषणा लिखी। और चौथी। अबी वर्तमानकालमें जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिकपञ्चाङ्गमें हरेक मासोंकी वृद्धि होती है इसलिये आषाढ़ १८ For Private And Personal Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४६ ] चौमासीसे पचास दिने पर्युषणा करनेकी पूर्वाचार्योंकी आज्ञा है। इस तरहसे तीनों जहाशयोंने चार प्रकारसे खुलासा लिखा है इस पर बुद्धिजन पुरुष तत्त्वग्राही होके विचार करो कि प्राचीनकालमें पाँच पाँच दिनकी वृद्धि करते दशवें पञ्चकमें पचास दिने सासवृद्धि के अभावसे जैन एचाङ्गानुसार भाद्रपदशुक्ल पञ्चमी परन्तु श्रीकालकाचार्यजीसें चतुर्थीको पर्युषणा होती है परन्तु अब लैकिक पञ्चाङ्गमें हरेक मासकी वृद्धि होने से प्रावणभाद्रपदादि मास भी बढ़ने लगे इसलिये मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करनेकी पूर्वाचार्यों की आज्ञा हुई तब सासवृद्धि होते भी भाद्रपद मेंही पर्युषणा करनेका निश्चय नही रहा किन्तु दो श्रावण होने से दूजा श्रावणमें और दो भाद्रपद होनेसे प्रथम भाद्रपदमें पचास दिने पर्युषणा करने का नियम इस वर्त्तमानिक कालमें रहा जिससे दो श्रावण तथा दो भाद्रपद और दो आश्विन मास होनेसें पर्युषणाके पीछाड़ी ७० दिनका भी नियम नही रहा अर्थात् मासवृद्धि होने से पर्युषणाके पीछाड़ी १०० दिन श्रीतपगच्छ के ही पूर्वजोंकी आज्ञानुसार रहते हैं यह तात्पर्य तीनों महाशयों के लिखे वाक्य परमें सर्यकी तरह प्रकाश कारक निकलता हैं सो न्यायकीही बात है इस बातको अपने पूर्वजों की आशातनासे डरनेवाला कोई भी प्राणी निषेध नही कर सकता है तथापि इन तीनों महाशयोंने अपनी विद्वत्ताकी बात जमानेके लिये वाप्त अपनेही पूर्वजोंका उपरोक्त वाक्यको जड़ मूलसेही उठाकर अपने पूर्वजोंकी आज्ञा लोपते हुवे दो श्रावण होते. भी भाद्रपद में पर्युषणा करनेका और मारु वृद्धि For Private And Personal Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । १४७ } होते भी पर्युषणाके पीछाड़ी ७० दिन रखनेका झगड़ा उठाया___ और श्रीलीर्थङ्कर गणधरादि पूर्वधर पूर्वाचार्य और प्राचीन सब गच्छों के पूर्वाचार्य जिप्तमें श्रीतपगच्छकेही पूर्वज पूर्वाना-दि महाराजोंने अधिक मासको प्रमाण किया था सो इन तीनों महाशयोंने उपरोक्त महाराजोंकी आशातनाका भय न रखते हुए अधिकमासको निषेध कर दिया और श्रीतीर्थङ्कर गणधररादि महाराजोंने जैसे सुमेरु पर्वतके उपर चालीशयोजनके शिखरको तथा अन्य भी हरेक पर्वतोंके शिखरोंको और देव मन्दिरादिकके शिखरोंको क्षेत्र चूलाकी उत्तम ओपमा कही है तेही चंद्र संवत्मरके बार मासोंके उपर शिखररूप तेरह वा अधिकमासको भी कालचूलाकी उत्तन ओपना देकर गिनती में लिया था जितको इन तीनों महाशयोंने धर्मकार्यो की गिनती में निषेध करने के लिये अधिकमास को नपुंशकादि हलकी ओपमा देकर श्रीतीर्थकर गणधरादि महाराजोंकी विशेष बड़ी भारी आशातना किवी हैं और अपनी बात जमाने के लिये श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्र की चूर्णि तथा श्रीनिशीथचूर्णि और श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठ लिखके दृष्टि रागियोंको दिखाये थे सोभी शास्त्रकार महाराज के विरुद्धार्थ में तथा उन्ही तीनों शास्त्रों में अधिकमास को अच्छी तरह से प्रमाण कियाथा तथापि इन तीनों महाशयोंने उन्ही तीनों शास्त्रोंके पाठोंको जड़ मूलसे ही उत्थापन करके अधिक. मासको निषेध कर दिया और मासवृद्धिके अभावों पचास दिने भाद्रपद में पर्युपणा कही थी तब पर्युषणाके पीझाड़ी १० For Private And Personal Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४८ ] दिन भी स्वभाविक रहते थे तथापि इन तीनों महाशयोंने उत्सूत्र भाषणरुप सासवृद्धि होनेसें वर्तमानिक दो श्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा और पीछाड़ी के 90 दिन शास्त्रोंके प्रमाण विरुद्ध हो करके स्थापन किये और तीनों महाशय खात आप भी स्वयं एक जगह अधिकमास को कालचूला की उत्तन ओपमायें लिखते हैं दूसरी जगह नपुंशककी ओपसासें लिखते हैं आगे और भी एक जगह तुच्छ अधिकमा ३० दिनोंका धर्मकर्मको गिनती में लेते हैं दूसरी जगह ३० दिनोंको ही सर्वथा निषेध करते है इसी तरहसे कितनी ही जगह पूर्वापरविरोधी (विहस्वादी ) उटपटांगरूप वाक्य लिखके गच्छ पक्षी जनों को शास्त्रानुसार की सत्य बात परसें श्रद्धा छोड़ा कर शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में मिथ्यात्वरूप कदाग्रह में गेर दिये तथा आगे अनेक जीवोंको गेरनेका कार्य कर गये हैं इसलिये खास तीनों महाशयों की और इन्होंके शास्त्र विरुद्ध लेखको सत्य मान्यकर उसी तरह सें अधिक मासको निषेधरूप मिथ्यात्व के पीष्ट पेषणको पीसते रहेंगे जिससे भोले जीव भी उसी में फसते रहेंगे उन्होंकी आत्मा कैसे सुधारा होगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने तथा और भी थोड़ासा सुन लिजिये श्रीभगवतीजी सूत्र में १ और तत् वृत्ति में २ श्रीउत्तराध्ययनजी सूत्रमें ३ और तीनकी छ व्याख्यायों में श्रीदशवैकालिक सत्र में १० और तीनकी चार व्याख्यायों में १४ श्रीधर्मरत्नप्रकरणवृत्ति में १५ श्रीसङ्घपटक बृहत् वृत्ति में १६ श्रीश्राद्धविधिवृत्ति में १९ इत्यादि अनेक शास्त्रों में उत्सूत्रभाषक श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वाचार्य्यादि परम गुरुजन महा For Private And Personal Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १४९ ] राजोंकी आशातना करने वाला और उन्हीं महाराजोंका वाक्यको न मानता हुवा उत्थापन करने वाला प्राणीको यावत् दुलभ बोधि मिथ्यात्वी अनन्त संसारी कहा है तैसे ही न्यायांभोनिधिजी श्रीआत्मारामजीने भी अज्ञान तिमिरभास्कर ग्रन्थके पृष्ठ ३२०में लिखा है-छठ दशम द्वादसे हिं, मासटुमासखमणे हिं। अकरन्तो गुरुवयणं, अनन्त संसारिओ भणिओ ॥१॥ तथा और भी पृष्ठ २९५ का लेख इसी ही पुस्तकके पृष्ठ 6 और ८०, में छपगया है इससे भी पाठकवर्ग विचार करो कि श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों को और अपने ही गच्छके पूर्वाचार्योंकी इन तीनों महाशयोंने अधिकमासको निषेध करने के लिये कितनी बड़ी आशातना करके कितने शास्त्रोंके पाठोंको उत्थापन किये है तो फिर इन तीनों महाशयों में अनन्त संसारका हेतु रूप मिथ्यात्वके सिवाय सम्यक्त्वका लेश मात्र भी कैसे सम्भव होगा क्योंकि श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंकी आशातना करने वाला तथा आज्ञा न मानने वाला और उलटा उन्ही महात्माओं के वचनोंका उत्थापन करने वालाको जैन शास्त्रोंके जानकार बुद्धिजन पुरुष सम्यक्त्वी नही समझ सकते हैं इसलिये अब पाठक वर्ग पक्षपातका दृष्टिरागको छोड़कर और श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञानुसार सत्य बातके ग्रहण करनेकी इच्छा रखकर उपरकी वार्ताको अच्छी तरहसें पढ़के सत्यासत्यका निर्णय करके असत्यको छोड़ो और मत्यको ग्रहण करो यही मोक्षाभिलाषि भवभिरु पुरुषों, मेरा कहना है और प्रथम श्रीधर्मागरजीने श्रीकल्पकिरणावलीवत्तिमें For Private And Personal Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । १५० ] तथा दूसरे श्रीजयविजयजीने श्रीकल्पदीपिका वत्तिमें और तीसरे श्रीविनयविजयजीने श्रीसुखबोधिकावृत्ति में इन तीनों महाशयोंने श्रीकल्पसूत्रका मूलपाठके विरुद्धार्थमें उत्सूत्रभाषणरूप अपने हठवाइके कदाग्रहको जमानेके लिये जो जो बाते लिखी है उन बातोंको श्री उपगच्छके वर्तमानिक मुनिजनादि गांम गांममें हर वर्ष पर्युषणामें भोले जीवों को सुनाते हैं जिससे आत्ममाधनका धर्मके बदले जिनाज्ञा विरुद्ध मिथ्यात्व की श्रद्धामें गिरके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लङ्घन करके वड़ी आशातना करते हुए दुलभ बोधिका साधन करनेके कारण में पड़ते हैं इस विषयके सम्बन्धी प्रथम श्रीधर्ममागरजीने वडी धूर्ताई करके श्रीतपगच्छमें पर्युषणा संबन्धी अधिकमासको निषेध करने के लिये श्री कल्प किरणावली वत्ति में प्रथम ही मिथ्या. त्वकी निव लगाई है इस बातका खुलासा [ आठो ही महाशयों के उतसूत्र भाषणके लेखोंकी समीक्षा हुवे बाद ] अन्तमें विस्तारपूर्वक लिखुगा और इन तीनों महाशयोंने इस तरहसें मायावृत्तिका लेख लिखा है कि जिसमें भोले जीव तो फसे उसमें कोई आश्चर्य नही है परन्तु न्यायाम्भोनिधिजी श्रीआत्मारामजी जैसे प्रसिद्ध विद्वान् होते भी फस गये और उन्होंकी तरह श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की आशातनाका कारणरूप और पूर्वापर विरोधि अधिक मासका निषेध आपभी आगेवान होकर कराया है इसलिये अब इन्होंके लेखकी भी समीक्षा आगे करता हु ॥ इति तीनों महाशयों के नामकी संक्षिप्त समीक्षा ॥ For Private And Personal Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५१ ] अब आगे चौथे महाशय न्यायांभोनिधिजी श्रीआत्मारामजीने, जैनसिद्धांतसमाचारी, नामा पुस्तक में पर्युषणा सम्ब न्धी लेख लिखाया है जिसकी समीक्षा करके दिखाता हुं ;जिसमें प्रथम श्रीखरतरगच्छके श्रावक रायबहादुर मायसिंहजी गेघराजजी कोठारी श्रीमुर्शिदाबाद अजीमगञ्ज निवासीको तरफसे, शुद्धसमाचारी, नामा पुस्तक छपके प्रसिद्ध हुई थी, जिसमें श्रीतीर्थंकर गणधर,चौदहपूर्वधरादि पूर्वाचार्योंके अनेक शास्त्रोंके पाठों करके सहित और युक्ति पूर्वक देश कालानुसार श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञा मुजब अनेक सत्य बातों की प्रगट किवी थी, जिसको पढने में श्रीन्यायांभोनिधिजी तथा उन्होंके सम्प्रदायवाले मुनिजन और उन्हों के दृष्टिरागी श्रावकजन समुदाय सत्यबातको ग्रहण तो न कर सके परन्तु अंतर मिथ्यात्व और द्वेषबुद्धिके कारणसे उसका खण्डन करने के लिय अनेक शास्त्रों के आगे पीछे के पाठोंको छोड़कर शास्त्रकार महाराज के विरुद्धार्थ में उलटा संबंध लाकर अधरे अधूरे पाठ लिखके शुद्धसमाचारी कारकी सत्य बातोंका खण्डन किया और अपनी मिथ्या वातोंको उत्सूत्र भाषण - रूप स्थापन किवी जिसके सब बातोंकी समालोचनारूप समीक्षा करके उसमें शास्त्रों के सम्पूर्ण सम्बन्धके सब पाठ तथा शास्त्रकार महाराजके अभिप्रायः सहित और युक्ति पूर्वक भव्य जीवोंके उपगारके लिये इस जगह लिखके न्यायांसोनिधिजीके न्यायान्यायका विवारको प्रगट करना चाहु तो जरूर करके अनुमान ६०० अथवा ७०० पृष्ठका वडा शारीएक ग्रन्थ बन जावे परन्तु इस जगह विस्तारके कारण और हमारे विहारका समय मजिक आनेके सबबसे सबक For Private And Personal Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५२ ] लिखते थोडासा नमुनारूप पर्युषणाके सम्बन्धी लेखकी समीक्षा करके लिख दिखाता हूं--जिसमें पहिले जो किशुद्ध समाचारी पुस्तकके बनाने वालेने पर्युषणा सम्बन्धी लेख लिखा है उसीको इस जगह लिखके फिर उसीका खण्डन जैनसिद्धान्त तमाचारी में न्यायांभोनिधिजीने कराया है उसीको लिख दिखाकर उसपर मेरी समीक्षा को लिखुङ्गा सो आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको दृष्टिरागका पक्षको न रखते न्याय दृष्टि से पढ़कर सत्य बातको ग्रहण करना सोही उचित हैं ;-अब शुद्धसमाचारी कारके पर्युषणा सन्बन्धी लेखका पृष्ठ १५४ पंक्ति १५ वी से पृष्ठ १६० की पंक्ति 9 वी तकका (भाषाका सुधारा सहित ) उतारा नीचे मुजब जानो ; शिष्य प्रश्नः करता है कि अपने गच्छमें जो श्रावणमास बढ़े तो दूसरे श्रावण शुदीमें और भाद्रपद वढ़े तो प्रथम भाद्रव शुदीमें, आषाढ़ चौमासीसें, ५० में दिनही पर्युषणा करना, परन्तु ८० अशीमें दिन नहीं करना ऐसा कोई सिद्धान्तोंमें प्रमाण हैं। __ उत्तर–श्रीजिनपतिसूरिजी महाराजनें अपनी ११ मी समाचारीके बिषे कहा है ( तथाहि ) सावणे भदवए वा, अहिग मासे चाउम्मासीओ॥ परमासइमेदिणे, पज्जोसवणा कायवा न असीमे इति ॥ भावार्थः श्रावण और भाद्रपद मास, अधिक हो तो आषाढ़ चौमासीकी चतुर्दशीसें पचाश दिने पर्युषणा करना परन्तु अशीमें दिन न करना । प्रश्नः—जो अधिकमास होनेसे अशीमे दिन पर्युषणा सांवत्सरिक पर्व करते हैं तिसका पक्षको किसीने कोई ग्रन्थमें दूषित भी किया है वा नहीं । For Private And Personal Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १५३ ] उत्तर- श्रीजिनवल्लभसूरिजी कृत संघप की श्रीजिनपतिसूरीजी कृत वृहदत्तिमें ८० दिने पर्युषणा करने वालोंके पक्षको जिन वचन बाधाकारी कहा है सोई काव्य लिखते हैं यथा-वही लोक दिशा नास्य नासोः, सत्यां श्रुतोक्तं दिनं॥ पञ्चासं परिह य ही शुचिभयात्, पश्चाच्चतुर्मासकात् ॥ तत्राशीतितमे कथं विदधते, मूढामहं वार्षिकं ॥ कुग्रहाधिगणय्य जैन व चमो, बाधा मुनि व्यंसकाः ॥ १॥ भावार्थ:--लौकिक रीतिसें श्रावण और भाद्रपद मास अधिक होता है जब शास्त्रों में आषाढ़ चतुर्मासीसे पचास दिने पर्युषणापर्व करने का कहा है जिसको छोड़कर मूढ़ लोग अपना कदाग्रह से ८० दिने क्यों करते हैं क्योंकि ८० दिने पर्युषणा करने से जिन वचनको बाधा आती है याने शास्त्र विरुद्ध होता है जिपको नही गिनते हैं इस लिये ८० दिने पर्युषणा करने वाले लिङ्गधारी चैत्यवासी हठग्राही मुनिजन मध्ये ठग धूतारे हैं। प्रश्नः-कैसे तिसका पक्ष जिन वचन बाधाकारी है। उत्तर-श्रवण करो, प्रथम तो श्रावण और भाद्रव मालकी जैन सिद्धान्तकी अपेक्षायें वृद्धिका ही अभाव है केवल पौष और आषाढ़की वृद्धि होती थी और इस समयमें लौकिक टिप्पणाके अनु तारे हरेक मास वृद्धि होनेसें श्रावण और भाद्रपद मासकी भी वृद्धि होती है तब उनोकी वद्धि होनेसे भी दशपञ्चके अर्थात् आषाढ़ चौमासीसे पचाप्त दिने ही पर्युषणा करना सिद्ध होता है। सोई श्रीमान् चौदह पूर्वधारी श्रीभद्रबाहुखामीजी श्रीकल्प पत्रके विषे कहते हैं। यथा--तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं For Private And Personal Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५४ ] महावीरे बाप्ताणं सवीसइ राइमासे व इक्वन्ते वासावास पज्जोसवेइ। भावार्थ:--आषाढ़ चौमासीसे वीश दिन अधिक, एक मास अर्थात् ५० दिन जानेसे, श्रीमहावीर स्वामी पर्युषणा करे। इसी तरहसे वृहत् कल्पचूर्णिके विषे, दशपञ्चके पर्युषणा करना कहा है। यथा-आसाढ चउमासे पडिक्वन्ते, पंचेहिं पंचेहिं दिवसेहिं गएहिं, जत्य २ वासजोग्गं खेत्त पड़िपुन्न । तत्थ २ पज्जोसवेय। जाव सवीसइ राइमासो इत्यादि। भावार्थः-आषाढ़ चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद पांच पांच दिन व्यतीत करते जहां जहां वर्षाघास योग्य स्थान प्राप्त होय। वहां वहां पर्युषणा करें, यावत् दशपञ्चक एक मास और वीश दिन तक पर्युषणा करें। और दशमा पंचक में अर्थात् पचासमें दिन तो योग्यक्षेत्र नही मिले तो वृक्षके नीचे भी रहकर पर्युषणा करें, इसी तरह श्रीसमवायाङ्गजी सूत्र तथा रत्तिके विषे ७०वे समवायाङ्गमें कहा हे । तथाहि । समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइ राइमासै वइक्वन्ते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइ । भावार्थः-श्रमण भगवन् श्रीमहावीर स्वामीजी वर्षाकालके एकमास और वीश दिन गए बाद पर्युषणा करें। इसलिये पचास दिने करके ही पर्युषणा करना अवश्य है और पीछाडी 90 दिन कहे सो मास वृद्धि के अभावसे न कि मासवृद्धि होते भी। और ऐसा भी न कहना कि मासवृद्धि होनेसे अधिक मास गिनतीमें न आता है क्योंकि बृहत् कल्यभाष्य तथा चर्णिके विषे, अधिक For Private And Personal Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५५ ] भाप्तकी गिनती प्रमाण किवी है। और ऐसा भी न कहना कि ज्योतिषादिक ग्रन्थों में प्रतिष्ठादिक शुभकार्य निषेध किया है तो पर्युपणा पर्व कैसे हुवें सो तो नार चन्द्रादिक ज्योतिष ग्रन्थों में, लग्न, दीक्षा, स्थापना, प्रतिष्ठादिकार्य कितनेही कारणों से निषेध किये है नार चन्द्र द्वितीय प्रकरणे यथा ॥ रविक्षेत्र गतेजीवे, जीवक्षेत्र गते रवौ । दिक्षां स्थापनांचापि, प्रतिष्ठां च न कारयेत् ॥१॥ इसवास्ते अधिक मासमें पर्युषणा करनेका निषेध किसी जगह भी देखने में नही आता है। इसी कारण से पूर्वोक्त प्रमाणोंसें श्रावण मासकी वृद्धि होनेसे दूसरे श्रावण शुदी ४ कों और भाद्रव मासकी वृद्धि होनेप्से पहिले भाद्रव शुदी ४ चौथकों पर्युषणापर्व ५० पचास दिने करना सिद्ध होता है परन्तु अशी में दिने नहीं। एस्थल अति गम्भीरार्थका है मैंने तो पूर्वगीतार्थ प्रतिपादित सिद्धान्ताक्षरों करके और युक्ति करके लिखा है इस उपरान्त विशेष तत्त्व केवली महाराज जानें, जो ज्ञानी भाव देखा है, सो सच्चा है और सर्व असत्य है। मेरे इसमें कोई तरहका हठवाद नहीं, इति श्रावण और भाद्रपद वढ़ते पचास दिने पर्युषणा करणाधिकारः ॥-- अब पाठकवर्ग उपरका लेख शुद्धतमाचारी प्रकाशनामा ग्रन्थका पढके विचार करोकी लेखक पुरुषनें कैती सरलरीतिसे लिखा है और अन्तमें किसी गच्छवालेकों दूषित न ठहराते, (विशेष तत्त्व केवली महाराज जानें जो ज्ञानी भाव देखा है सो सच्चा है और सर्व असत्य है मेरे इसमें कोई तरहका हठवाद नही है) ऐसा लिखने में लेखक पुरुष पं० प्र० यतिजी For Private And Personal Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५६ । श्रीरा यवन्द्रजी न्याययुक्त निष्पक्षपाती भवभिरू थे सो तो पाठकवर्ग भी विशेष विचार शकते हैं और उपरके लेखमें श्रीसङ्घपट्टक वहत् वृत्तिका जो श्लोक लिखा हैं सो श्रीतपगच्छवालोंके लिये वृत्तिकार महाराजने नहीं लिखा था, तयापि श्रीतपगच्छवालोंके लिये उपरोक्त श्लोक समझते है उन्होंके समझ में फेर है क्योंकि श्रीसङ्घपट्टक की वृहद्वृत्ति सम्वत् १२५० के लगभग बनी थी उसी वरूत तपगच्छही नहीं हुवा था क्योंकि श्रीचैत्रवालगच्छके श्रीजगच्चन्द्रमरिजी महाराजसै सम्बत् १२८५ वर्षे तपगच्छ हुवा है और श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्य जितने हुवे है सो सबीही अधिक मासको गिनतीमें मान्य करनेवाले तथा ५० दिने पर्युषणा करनेवाले थे इसलिये उपरका श्लोक श्रीतपगच्छवालोंके लिये नहीं हैं किन्तु उस समयमें कदाग्रहीशिथिलाचारी उत्सत्रभाषक चैत्यवाशी बहुत थे वे लोग शास्त्रों के प्रमाण बिनाभी ८० दिने पर्युषणा करते थे और भी श्रीचन्द्रपन्नति श्रीमर्यपन्नति श्री जम्बूद्वीपपन्नति श्रीसमवायत्री वगैरह अनेक सूत्रवृत्ति चूण्यादि शास्त्रानुसार और अन्नमतके भी ज्योतिष मुजब वे चैत्यवाशीजन प्रायःकरके ज्योतिषशास्त्रोंके विशेष जान कार थे, इसलिये अधिक मासकी उत्पत्ति का कारण कार्यादिकको जानते हुये अधिक मासको अङ्गीकार करनेवाले थे तथापि मिथ्यात्वरूप अज्ञानदशाके हठवादने लौकिक पञ्चाङ्ग में दो श्रावण होतेभी भाद्रपद में पर्यषा चैत्यवाशी लोग करते थे जिसमें ८० दिन होते थे उन्होंके लिये उपरका श्लोक लिखा गया है नतु कि श्रीतपगच्छवालोंके लिये। भब उपरोक्त शुद्ध समाचारीप्रकाशका लेखपर जो न्यायां For Private And Personal Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५७ ] भोनिधिजीने जैनसिद्धान्त समाचारीमें उसीका खण्डन कराया है उसीको लिखके दिखाकर उसीके साथसाथमें मेंभी समीक्षा न्यायांभोनिधिजीके नामसे करता हुं जिसका कारण पृष्ठ ६६।६७।६८ में इसी ही पुस्तक में छपा हैं इसलिये न्यायांभोनिधिजी के नामसे ही समीक्षा करना मूजे उचित है सो करता हु-जैनसिद्धांत समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ ८७ की पंक्ति २२ वीसें पृष्ठ ८८ की पंक्ति १० वी तक का लेख नीचे मुजब जानो-शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५४ पंक्ति १४ में लिखा हैं कि [श्रावण मास वढ़े तो दूसरे प्रावणशुदी में और भाद्रव मास वढ़े तो प्रथम भाद्रव शुदी में अषाढ चौमासी से ५० में दिन ही पर्युषणा करनी परन्तु ८० अशीमें दिन नही करनी, ऐसा लिखके पृष्ठ १५५में अपनेही गच्छके श्रीजिनपति सरिजी की रचित समाचारीका प्रमाण दिया है आगे इसी पृष्ठके पंक्ति११ में लिखा है कि तिसका पक्षको कोई ने कोई ग्रन्थमें दूषित भी किया है वा नहीं, इसके उत्तरमें श्रीजिनवल्लभ सरिजीके सङ्घपट्टे की वडी टीकाकी शाक्षी दिवी हैं--( इस तरहका लेख शुद्ध समाचारी प्रकाशकी पुस्तक सम्बन्धी लिखके न्यायाम्भोनिधिजी अब उपरके लेखका लिखते हैं) उत्तर-हे मित्र ! इस लेख में आपकी सिद्धि कभी न होगी क्योंकि तुमने अपने गच्छका मनन दिखाके अपनेही गच्छका प्रमाण पाठ दिखाया हैं यह तो ऐसा हुवा कि किसी लड़ केने कहा कि मेरी माता सति है शाक्षी कौन कि मेरा भाई इस वास्त यह आपका लेख प्रमाणिक नही हो सकता है। अब हम उपरके लेखकी समीक्षा करते हैं कि हे सज्जन पुरुषों जैसे शुद्ध समाचारी कारने अपना कार्यसिद्ध करनेके For Private And Personal Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५८ ] लिये अपने ही गच्छके पूर्वाचार्यजी श्रीजिनपति सरिजी कृत ग्रन्थका पाठ दिखाया है उसको श्रीन्यायाम्भोनिधिजी अप्रमाण ठहराते हैं इस न्यायानुसार तो श्रीन्यायाम्भो निधिजीने अपना कार्यसिद्ध करनेके लिये अपनेही गच्छके पूर्वाचायोंके पाठ दिये हैं वह सर्व पाठ अप्रमाण ठहरनेसें श्रीन्यायाम्भोनिधिजीको अपने पूर्वाचार्योका पाठ लिख दिखाना भी सर्व वृथा होगया तो फिर जैनसिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ ३१ वा में श्रीधर्मघोष सूरिजी कृत श्रीसङ्काचार भाष्यत्तिका पाठ, पृष्ठ ३३ में श्रीदेवेन्द्रसरिजी कृत श्रीधर्मरत्नप्रकरण वृत्तिका पाठ, पृष्ठ ३३॥ ४६ । ५२ । ५९ । ६३, में श्रीरत्नशेखरसूरिजीकृत श्रीश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र कृत्तिका पाठ, पृष्ठ ३५ में श्रीजयचन्द्रसरिजी कृत श्रीप्रतिक्रमणगर्भहेतु नामा ग्रन्थका पाठ, पृष्ठ ४१ में श्री विजयसेन . सरिजीका प्रश्नोत्तर ग्रन्थका पाठ, और पृष्ठ ५१ । ६१ में श्री कुलमण्डन सूरिजी कृत विचारामृतसंग्रहका पाठ, इत्यादि अनेक जगह ठाम ठाम अपनेही गच्छके पूर्वाचायोंका प्रमाण श्रीन्यायाम्भोनिधिजीने लिखके वृथा क्यों अन्याय किया होगा सो पाठकवर्ग भी विचार लेना ॥ अब दूसरा सुनो-श्रीन्यायाम्भोनिधिजी जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ १२ में श्रीखरतरगच्छके श्रीउपाध्यायजी श्रीक्षमाकल्याणजी गणिजी कृत श्रीगणधरसार्द्धशतक प्रश्नोत्तर ग्रन्थका पाठ, पृष्ठ ३॥ ३६ में श्रीखरतरगच्छके श्रीअभयदेव सूरिजीकृत श्रीभगवतीजी वृत्तिका और समाचारी ग्रन्थका पाठ, पृष्ठ ७२ । ८१में श्रीखरतरगच्छके श्रीजिनदत्त सूरिजीका पाठ, पृष्ठ १२ में श्रीखास श्रीजिनपति सूरिजीके शिष्य श्री For Private And Personal Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५९ ] सुमतिगणिजीका पाठ, पृष्ठ ८१ में श्रीउपाध्यायजी श्रीजय सागरजीका पाठ, पृष्ठ ८२।८६ । १में श्रीजिनप्रभ सूरिजीका पाठ, और पृष्ठ ८४ में श्रीजिनवल्लभ सूरिजीका पाठ इसी तरहसे शुद्ध समाचारी कारके पूर्वाचार्य श्रीखरतरगच्छ के प्रभाविक पुरुषोंका पाठ श्रीन्यायाम्भोनिधिजी अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये तो खास मान्य करके दिखाते हैं और शुद्ध समाचारी कारने अपना कार्यसिद्ध करनेके लिये अपनेही पूर्वजोंका ( शास्त्रानुसार युक्ति सहित न्यायपूर्वक सत्य ) पाठ लिख दिखाये उसीको श्रीन्यायाम्भोनिधिजी अप्रमाणिक ठहराते हैं यह तो प्रत्यक्ष वड़े अन्यायका रस्ता श्रीन्यायाम्भोनिधिजीने ग्रहण किया है सो विशेष पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना। _ अब तीसरा और भी सुनो श्रीआत्मारामजीने खास ( चतुर्थ स्तुतिनिर्णयः ) नामा ग्रन्थ तीन स्तुति वालोंका खण्डन करनेके लिये बनाया है सो छपा हुवा प्रसिद्ध है उसीके पृष्ठ ८३।८४८५ में श्रीखरतरगच्छके श्रीजिनप्रभसूरीजी कृत श्रीविधिप्रपाग्रन्थका पाठ और उसीकी भाषा पृष्ठ ८४८६ ८८८ के आदि तक लिखके पुनः पृष्ट ८८ के मध्यमें लिखते हैं कि-( इस विधिमें पडिक्कमणेकी आदिमें चारथइसें चैत्यवंदना करनी कही है और श्रुत देवता अरू क्षेत्र देवता का कायोत्सर्ग अरु इन दोनोको थुइ करनी कही है-इस लेखको सम्यक्त्वधारी मानते हैं और मानतेथे फेर मानेंगे भी परन्तु मिथ्या दृष्टि तो कभी नहीं मानेगा इस वास्त सम्यक दृष्टि जीवको तीन थइका कदाग्रह अवश्य छोड़ देना योग्य है ) इस तरहसे श्रीआत्मारामजी श्रीखरतरगच्छके For Private And Personal Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १६० ] श्रीजिनप्रभ मूरिजीके लेखको न मानने वालेको मिथ्या दृष्टि ठहराते हैं तो इस जगह पाठकवर्ग विचार करो कि श्रीजिनप्रभसरिजीके ही खास परमपूज्य और पूर्वाचार्य श्रीजिनपति सरिजीके सत्य लेखको न मानने वाले तो स्वयं मिथ्या दृष्टि सिद्ध होगये फिर श्रीआत्मारामजी न्यायांभोनिधिजी न्यायके समुद्र हो करके अपने स्वहस्थे जिन्हीं के सन्तानिये श्रीजिनप्रभसरिजीके लेखको न मानने वालोंको मिथ्या दृष्टि लिखते है और श्रीजिनप्रभसूरिजीके ही पूर्वाचार्यजी श्रीजिनपति सूरिजीके सत्य लेखको अप्रमाण मान्यके खास आपही मिथ्या दृष्टि बनते है । हा अतिखेद ! इस बातको पाठकवर्ग निष्पक्षपातसे सत्य बातके ग्राही होकर अच्छी तरह से विचार लेना ;___ अब चौथा और भी सुनो श्रीआत्मारामजी इन्ही चतुर्थस्तुतिनिर्णयः पुस्तकके पृष्ठ १०१ । १०२ । १०३ में श्री वृहत्खरतरगच्छके श्रीजिनपतिसरिजी कृत समाचारीका पाठ लिखके उसीको श्रीजिनप्रभसरिजी कृत पाठकी तरह प्रमाणिक मानते हैं और श्रीजिनपतिसूरिजी कृत पाठकी श्रीजिनप्रभसरिजी कृत पाठके साथ भलामण देते है जिसमें श्रीजिनपतिसूरिजीका पाठको भी न मानने वालोंको मिथ्या दृष्टि सिद्ध करते है। और फिर आपही श्रीजिनपतिसरिजीकृत सत्य पाठको जैनसिद्धान्त समाचारीमें अप्रमाण ठहराकर नही मानते है जिससे (उपरोक्त न्यायानुसार करके ) मिथ्या दृष्टि बननेका कुछ भी भय न करते कितने अन्यायके रस्ते चलते है सो भी आत्मार्थी सज्जन पुरुष विचार लेना ; For Private And Personal Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १६९ ] अब पांचमा और भी सुन लिजिये श्रीआत्मारामजीने तत्वनिर्णय x दग्रन्थ बनाया है सो छपा हुवा प्रसिद्ध हैं जिसके पृष्ठ लिखा है कि [अब पक्षपात न होने में हेतु कहते हैपक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्य्यः परिग्रहः ॥३८॥ व्याख्या-मेरा कुछ श्रीमहावीरजीके विषे पक्षपात नही है कि जो कुछ महावीरजीने कहा है सोइ मैंने मानना है अन्यका कहा नही ; और कपिलादि मताधिपोंसे द्वेष नही है कि कपिलादिकोंका नही मानना किन्तु जिसका वचन शास्त्र युक्तिमत् अर्थात् युक्तिसें विरुद्ध नही है तिसका वचन ग्रहण करनेका मेरा निश्चय है ॥३८॥] __ और इन्ही तत्त्वनिर्णय प्रासादकी उपोद्घात श्रीवल्लभ विजयजीने बनाई है जिसके पृष्ठ ३१ वे में लिखा है कि ( पक्षपात करना यह बुद्धिका फल नही है परन्तु तन्धका विचार करना यह बुद्धिका फल है "बुद्धः फलं तत्त्वविचारणं चेति वचनात्" और तत्त्वविचार करके भी पक्षपातको छोड़ कर जो यथार्थ तत्त्वका भान होवे उसको अङ्गीकार करना चाहिये किन्तु पक्षपात करके अतत्त्वकाही आग्रह नही करना चाहिये यतः-आगमेन च युक्त्या च, योऽर्थः समनिगम्यते । परिक्ष्य हेमवद्ग्राह्यः, पक्षपाताग्रहेण किम् भावार्थः आगम (शास्त्र) और युक्ति के द्वारा जो अर्थ प्राप्त होवे उसको सोनेके समान परीक्षा करके ग्रहण करना चाहिये पक्षपातके आग्रह (हठ)से क्या है ) अब पाठकवर्ग श्रीआत्मारामजीके और श्रीवल्लभ For Private And Personal Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । १६२ ] विजयजीके उपरोक्त लेखसे पक्षपात रहित विचारो किजिस पुरुषका वचन शास्त्र और युक्ति सहित होवे उसको सोनेके समान जानके सज्जन पुरुषोंको ग्रहण करना ही उचित है, और शास्त्र तथा युक्ति रहित वचनको हठवादसे ग्रहण करना सो निर्बुद्धि पुरुषोंका लक्षण है ऐसा दोनोंका कहना है तो इस पर मेरेको वड़ेही खेदके साथ लिखना पड़ता है कि श्रीआत्मारामजी न्यायांभोनिधि नाम धारण करते न्याय और बुद्धिके समुद्र होते भी श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञामुजब शास्त्रानुसार युक्ति करके सहित और सत्यवचन शुद्ध समाचारी कारने श्रीजिनपतिसूरिजी महाराजका लिखा था सो ग्रहण करने योग्य था तथापि उनको गच्च के पक्षपातसें वृथा क्यों निषेध किया होगा क्योंकि श्रीजिनपतिसूरिजीका (श्रावण और भाद्रव मास अधिक होवे तो भी पचासदिने पर्युषणा करना परन्तु ८० में दिन नही करना इतने पर भी ८० दिने पर्युषणा करते है सो शास्त्रविरुद्ध है) यह वाक्य श्रीशुद्धसमाचारी ग्रन्थका और श्रीसंघपटक वृहद्वत्तिका लिखा है सो शास्त्रानुसार सत्य है इसी ही बातका खुलासा इन्ही पुस्तकमें अनेक जगह ठामठाम शास्त्रोंके प्रमाण सहित युक्तिपूर्वक विस्तारसैं छप गया है इसलिये उपरकी बातका निषेध करनाही नही बनता है शुद्ध समाचारीकारने श्रीजिनपतिसूरिजी महाराज कृत ग्रन्थानुसार ५० दिने पर्युषणा ठहराई और ८० दिन करने वालोंको जिनाज्ञाके बाधक कहे है इसको श्रीआत्मारामजीने अप्रमाण व्हाया तब इसका तात्पर्य यह निकला कि ५० दिने पर्युषणा करनेवालोंकों दूषित ठहराये और ८० दिने पर्युषणा For Private And Personal Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १६३ ] करनेवालोंकों निर्दूषण ठहराये (हा अति खेदः) इससे विशेष अन्याय दूसरा श्रीन्यायाम्भोनिधिजीका कौनसा होगा, किसूत्र, वृत्ति, भाष्य, चूर्णि, नियुक्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रों में श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्य और श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छकेही पूर्वाचार्य सबी उत्तम पुरुष ठामठाम कहते हैं कि पर्युषणा पचास दिने करना कल्पे परन्तु पचासमें दिनकी रात्रिको भी उल्लङ्घन करके एकावनमें दिनकी करना न कल्पे इसलिये योग्यक्षेत्र न मिले तो जङ्गलमें वृक्षनीचे भी पर्युषणा करलेना इतने पर भी कोई पचास दिनकी रात्रिको उल्लङ्घन करके एकावनमें दिन पर्युषणा करे तो श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाका लोपी होवें यह बात तो प्रायः जैनमें प्रसिद्ध भी है सो भी मासद्धि के अभावकी जैनपञ्चाङ्ग की रीतिसें वर्त्तनेकी थी परन्तु अब लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करनी सोभी जिनाज्ञा मुजब है इसीही कारणसें श्रीजिनपतिसरिजीने मासवृद्धि हो तोभी पचास दिने पर्युषणा कर लेनेका लिखा है सो सत्य है। और एकावन दिने भी पर्युषणा करने वाला जिनाज्ञाका लोपी होता है तो फिर ८० दिने पर्युषणा करने वाले क्या जिनाज्ञाके आराधक बन सकते हैं सो तो कदापि नही अर्थात् ८० दिने पर्युषणा करने वाले सर्वधा निश्चय करके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की आज्ञाके लोपी है इसलिये ८०दिने पर्युषणा करने वालों को श्रीजिनपतिसरिजीने जिनाज्ञाके विराधक ठहराए सो भी सत्य है इसलिये श्रीजिनपतिसरीजी महाराजका दोन वाक्य निषेध नही हो सकते हैं इतने परभी For Private And Personal Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १६४ ] श्रीन्यायांभोनिधिजी निषेध करते हैं सो निःकेवल शास्त्र विरुद्ध उत्सत्र भाषण करके भोले जीवोंको कदाग्रहका रस्ता दिखाया हैं। ___ आगे छठा और भी सुनिये शुद्धसमाचारी कारके सत्य वाक्यको निषेध करनेके लिये अपना पक्षपातके जोरसें श्रीआत्मारामजीने ( तुमने अपने गच्छका मनन दिखाके अपनेही गच्छका प्रमाण पाठ दिखाया है यह तो ऐसा हुवा कि किसी लड़केनें कहा कि मेरी माता सती है साक्षी कौन कि मेरा भाई इसवास्ते यह आपका लेख प्रमाणिक नही हो सकता है) यह वाक्य लिखे हैं इसकी पांच तरहसें तो समीक्षा उपरमें होगई है और भी छठी तरहसे अब सुनाता हुं, कि-उपरोक्त लेखमें श्रीआत्मारामजीने शुद्ध समाचारीकारका उपहास करनेके लिये विद्वत्ताके अभिमानसे एक लड़केका दृष्टान्त दिखाया है परन्तु शुद्ध समाचारी कारके पूर्वाचार्य श्रीजिनपतिमूरिजी, श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार शास्त्रोंकी मर्यादा पूर्वक सत्य वाक्य लिखा हैं इसलिये लड़केका दृष्टान्त शुद्ध समाचारी कारके उपर किञ्चिन्मात्र भी नही घट सकता है तथापि श्रीआत्मारामजीने लिखा है सो निःकेवल वर्त्तमानिक गच्छके पक्षपातसें श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी अवज्ञा कारक है, और जैसे ग्रीष्म ऋतुमें मध्याहूका समयके सूर्यको किसीने पत्थर फेंका तो भी सूर्य पर न गिरते पीछा लोट कर फेंकने वालेके शिर परही के गिर सकता है तैसेही श्रीआत्मारामजीका न्याय हुवा अर श्रीआत्मारामजीने लड़केका दृष्टान्त शुद्ध समाचारीकार पर दिया था परन्तु For Private And Personal Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १६५ ] शुद्धसमाचारी कारके वचन जिनाज्ञा मुजब सत्य होनेसे न गिर सका परन्तु वह लड़केका दृष्टान्त पीछाही फिरके श्री आत्मारामजी तथा उन्होंके परिवार वालोंके उपरही आकर गिरता है क्योंकि खास श्रीआत्मारामजीनेही जैन सिद्धान्त समाचारीको पुस्तकमें अपनाही कार्यसिद्ध करनेके लिये अपनाही मनन दिखाकर और अपनेही गच्छके अर्वाचीन (थोड़े कालके) पाठ दिखाये हैं सो भी श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाके विरुद्ध उत्सूत्र भाषण रूप हैं और खास श्रीतपगच्छकेही पूर्वाचार्योंके विरुद्धार्थमें ग्रन्थकार महाराजका अभिप्रायःके विरुद्ध होकरके आगे पीछेका सम्बन्धको छोड़ कर अधूरे अधूरे पाठ लिखके फिर अर्थ भी उलटे उलटे किये है (इसका नमुना मात्र खुलासा संक्षिप्तसे आगे करनेमें आवेगा) इसलिये उपरोक्त लड़केका दृष्टान्त श्री आत्मारामजी तथा उन्होंके परिवार वालोंके उपर अवश्य ही बरोबर घटता है इसवास्ते श्रीआत्मारामजीने शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थमें जो जो बाते लिखी है सो तो सर्वही आत्मार्थियोंको त्यागने योग्य होनेसे प्रमाणिक नही हो सकती है ;-और सातमी तरहसे आगे (श्रीवल्लभविजय जीके नामसे समीक्षा होगा उसमें विस्तारसे लिखने में आवेगा ) वहांसे समझ लेना ;-अब आगे की भी समीक्षा करते हैं जैन सिद्धान्त समाचारीके पृष्ठ ८८ पंक्ति ११ वी से पृष्ठ ८९ की पंक्ति १९ वी तकका लेख नीचे मुजब जानो [और पृष्ठ १५६-१५७ में लिखा है, कि-"श्रावण और भाद्रव मासकी जैन सिद्धान्तकी अपेक्षायें वृद्धिकाही अभाव है। केवल पौष आषाढ़ की वृद्धि होती थी, और इस समय For Private And Personal Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १६६ में लौकिक टिप्पणाके अनुसार हरेक मासोंकी वृद्धि होनेसे श्रावण और भाद्रवकी भी वृद्धि होती है ॥ तिसमें उनकी वृद्धि होनेसें भी दशपञ्चक व्यवस्थाके विषे, आषाढ़ चौमासी से पचाश दिनेही पर्युषणा करना सिद्ध होता है" ॥ आगे इसीकी सिद्धिके वास्त कल्प सूत्रका ओर विशेष कल्प भाष्य चूर्णिका पाठ दिखाया है, कि-"जाव सीसइ राइमासो" इत्यादि (इतना लेख शुद्धसमाचारी प्रकाशकी पुस्तक सम्बन्धी अधूरा लिखके इसका न्यायाम्भोनिधिजी लिखते हैं उत्तर ) हे मित्र ! मासवृद्धिका जो जैन टिप्पणादिकका विशेष दिखाया है, यह तो अज्ञजनोंको केवल भरमानेके वास्ते है क्योंकि यद्यपि जैन टिप्पणाके अनुसार श्रावण और भाद्रव मासकी वृद्धिका अभाव है तो भी पौष और आषाढमास की तो वृद्धि होती थी, अब हम आपको पूछते है कि-जैन टिप्पणाके अनुसारे जब पौष अथवा आषाढ़मासकी वृद्धि हुई तब संवछरीको अप्भुढिओ सत्रके पाठमें क्या 'तेराणं मासाणं छवीस पखाणं' वैसा पाठ कहोगें? क्योंकि तिस वर्ष में तेरह मासतो अवश्य होजायगें। और जैनसिद्धान्तो में तो किसी भी स्थानमें वैसा नही लिखा है कि अधिक मास होवे तब तेरहमास और छवीस परुख संवछरीकों कहना। तो अब आपका प्रयास क्या काम आया परन्तु यह तो निःशङ्कित मालुम होता है कि-जैनटिप्पणाके अनुसारसे भी अधिक मासकों कालचूलामें ही गिनना पड़ेगा। पूर्व पक्ष-कालचूला क्या होती है ? उत्तर हे परीक्षक ! आगे दिखावेंगे और दशपञ्चक व्यवस्था लिखते हो। सो तो कल्पव्यवच्छेद हुवा है, यह सर्वजन प्रसिद्ध है। और लौकिक टिप्पणाके For Private And Personal Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १६७ ] अनुसार, हरेक वर्ष में आषाढ़ शुदि चतुर्दशीसे लेके भाद्रव शुदि४ और तुमारे कहनेसे दूसरे श्रावण शुदि ४ तक ५० दिन पूर्ण करने चाहोगें तो भी नही हो सकेगें। क्योंकि तिथियां वध घट होती है तो किसी वर्षमें ४९ दिन आजायगें और किसी वर्षमें ४८ दिन भी आजायगे तब क्या आपकों जिन आज्ञा भङ्गका दूषण नही होगा ? ] अब उपरके न्यायांभोनिधिजीके लेखकी समीक्षा करके आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंसे दिखता हुं, कि हे भव्य जीवों न्यायांभोनिधिजीके उपरका लेखकोमें देखता हूं तो मेरेको वड़ाही खेदके साथ बहुत आश्चर्य्य उत्पन्न होता है क्योंकि श्रीन्यायाम्भोनिधिजीने तो शुद्धसमाचारी कारके वचनको खण्डन करना विचारके उपरका लेख लिखा था परन्तु शुद्ध समाचारी कारके सत्यवचन होनेसे खण्डन न हो सके, परन्तु न्यायाम्भोनिधिजी के लिखे वाक्यसें अवश्यही श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी और अपने ही गच्छके पूर्वाचायोंकी अवज्ञा (आशातना ) का कारण होनेसे न्यायाम्भोनिधिजी को लिखना सर्वथा उचित नहीं था क्योंकि देखो शुद्धसमाचारी की पुस्तक के पृष्ठ १५६ के अन्तमें और पृष्ठ १५७ के आदिमें ऐसा लिखा था कि (श्रावण और भाद्रपदमास की जैन सिद्धान्त की अपेक्षायें द्धिका ही अभाव है केवल पौष और आषाढमासकी ही रद्धि होती थी और इस समयमें तो लौकिक टीप्पणाके अनुसार हरेक मासोंकी वद्धि होनेसे श्रावण और भाद्रपद की वृद्धि होती है) इस शुद्ध समाचारी का लेखको खण्डन करने के लिये न्यायाम्भोनिधिजी लिखते हैं कि-( हे मित्र मासवृद्धिका For Private And Personal Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १६८ ] जो जैन टिप्पणादिकका विशेष दिखाया है यह तो अश जनकों केवल भ्रमाने के वास्ते है ) अब हे पाठकवर्ग सज्जन पुरुषों उपरके न्यायाम्भोनिधिजी के वाक्यको पढ़के अच्छी तरहसे विचार करो कि श्रीतीर्थङ्कर गणधर केवली भगवान् और पूर्वधरादि महान् धुरन्धर प्रभाविक पूर्वाचार्य तथा खास न्यायाम्भोनिधिजीके ही पूज्य पूर्वाचार्य सबी महाराज जैनसिद्धान्त (शास्त्रों ) की अपेक्षायें जैनपञ्चाङ्ग में युगके मध्यमें पौष और अन्त में आषाढ़ मासकी मर्यादा पूर्व वृद्धि होती है ऐसा कहते हैं सो अनेक शास्त्रों में प्रसिद्ध है जिसमें अनुमान पचाश शास्त्रोंके पाठों की तो मुझे भी मालुम है कि जैन शास्त्रोंमें पौष और आषाढ़ की वृद्धि श्रीतीर्थङ्करादिकोने कही है इसी ही अनुसार शुद्धसमाचारी कारने भी पौष और आषाढ़ की जैन सिद्धान्तों की अपेक्षायें वृद्धि लिखी हैं जिसको न्यायाम्भोनिधिजी अज्ञ जनोंको भ्रमानेका ठहराते है सो यह तो ऐसा न्याय हुवा कि जैसे श्रीअनन्त तीर्थङ्करादि महाराज अनादिकाल हुवा उपदेश करते आये है कि । हे भव्यजीवों तुम्हारी आत्माको सुख चाहो तो द्रव्य भाव जीवदया पालो इस वाक्यानुसार वर्तमानमें भी उपगारी पुरुष उपदेश करते है जिस उपदेशकों कोई भी जैनाभास द्वेषबुद्धिवाला अज्ञजनोंको केवल भ्रमानेका ठहरावें तो उस पुरुषनें श्रीअनन्त तीर्थ रादि महाराजांकी आशातना करके अनन्त संसार वद्धिका कारण किया यह बात सर्वसज्जन पुरुष जैनशास्त्रोंके जानकार मंजूर करते है तैसे ही श्रीअनन्त तीर्थङ्करादि महाराज अनादि काल हुवा जैन सिद्धान्तोंकी अपेक्षायें पौष For Private And Personal Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir और आषाढ़ की वृद्धि कहते है सोही बात शुद्धसमाचारी कारने भी जैन सिद्धान्तोंकी अपेक्षायें लिखी है सो सत्य है इसलिये निषेध नही हो सकती है। तथापि न्यायाम्भोनिधिजी उपर की सत्य बातकों अन जनोंको केवल भ्रमानेका टहराते हैं हा ! हा ! अतिव खेदः। उपरोक्त न्यायानुसार न्यायांभोनिधिजीने श्रीअनन्त तीर्थङ्करादिमहाराजोंकी और अपने ही पूर्वजोंकी आशातना कारक अनन्त संसार वृद्धिका कारणरूप वधा क्योंकिया होगा इसको विशेष पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना ; तथा थोडामा और भी सुन लिजीये-शुद्ध समाचारी कारने जैन सिद्धान्तों की अपेक्षा पौष और आषाढ़ मास की वृद्धि दिखाई और लौकिक टिप्पणा की अपेक्षायें हरेक मासेांकी वृद्धि दिखाई सो सत्य है तथापि न्यायाम्भोनिधिजी ( अज्ञजनोंको केवल भ्रमानेका ) ठहराते है तो इस लेखसे तो न्यायाम्भोनिधिजीने खास अपने ही पूज्य गुरुजन पूर्वाचार्यों को भी अज्ञजनोंको भ्रमाने वाले ठहरा दिये क्योंकि जैसे उपरोक्त शुद्ध समाचारी कारने अधिक नास सम्बन्धी लिखा है तैसे ही श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्यों ने भी लिखा है। जब शुद्ध समाचारी कारके लेखको न्यायाम्भोनिधिजी अज्ञजनोंको भ्रमानेका ठहराते है तब तो न्यायाम्भोनिधिजीके पूर्वाचार्योका लेख भी अज्ञजनोंको भ्रमानेवाला ठहर गया जब न्यायाम्भोनिधिजीने अपने पूर्वाचा योंकी आशातनाका कुछ भी भय न रस्खा तो फिर न्यायाम्भोनिधिजीको न्याययुक्त आत्मार्थी कैसे मान सकते है अपितु नही इस बातको भी पाठकवर्ग विचार लो, For Private And Personal Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७० ] और आगे लिखा है कि ( यद्यपि जैन टिप्पणाके अनु सार श्रावण और भादव मासकी वृद्धिका अभाव है तो भी पौष और आषाढमास की तो वृद्धि होती थी अब हम आपको पूछते है कि जैन टिप्पणाके अनुसार जब पौष अथवा आषाढ़मासकी वृद्धि हुई तब संवच्छरीको अम्भुठिओ सूत्रके पाठमें तेराणं मासाणं छवी पखाणं वैसा पाठ कहोगें क्योंकि तिस वर्ष में तेरह मास तो अवश्य हो जायगें और जैन सिद्धान्तोंमें तो किसी भी स्थानमें वैसा नही लिखा है कि अधिक मास होवे तब तेरह मास और छवीश पक्ष संवच्छरीको कहना तो अब आपका प्रयास क्या काम आया ) इस लेखको देखता हु तो न्यायाम्भोनिधिजीके बुद्धिकी चातुराईका वर्णन में नही कर सकता हुँ क्योंकि जब शुद्ध समाचारी कारने जैन सिद्धान्तोंकी अपेक्षायें पौष और आषाढ़मासकी वृद्धि लिखी जिसको तो न्यायांभोनिधिजी ( अज्ञ जनोंको केवल भ्रमानेका ) ठहराते हैं और फिर आप भी शुद्ध समाचारीके मुजब उसी तरह से पौष और आषाढमासकी वृद्धि इस जगह मंजूर करते हैं यह न्यायांभोनिधिजीके अपूर्व विद्वत्ताका नमुना है क्योंकि दूसरेकी बातका खण्डन करना और उसी बातको आप मंजूर भी करलेना ऐसा अन्याय करना आत्मार्थियोंको उचित नही हैं और क्षामणाके सम्बन्धमें लिखा है सो भी जैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना प्रत्यक्ष मिथ्या लिखके भोले जीवोंको संशयमें गेरे हैं क्योंकि जब जिस संवत्सर में अवश्य करके तेरह मास और छवीश पक्ष होगये तथा धर्मकर्म और संसारिक सावध कार्य्य तेरह मासके For Private And Personal Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७१ ] किये जाते हैं जिसमें पुण्य और पाप तेरह मासके लगते हैं तो फिर बारह मासकी आलोचना करके एक मासके पुण्यकार्योंकी अनुमोदना और पापकार्योंकी आलोचना नही करना यह तो प्रत्यक्ष अन्याय अल्पबुद्धिवाला भी कोई मंजूर नही कर सकता है और जिन्होंके ज्ञानमें एक समय मात्र भी धर्म अथवा कर्म बंधके सिवाय वृथा नही जाता है ऐसे श्रीसर्वज्ञ भगवान्के शास्त्रों में एक मासके धर्म और कर्मका न गिनना यह तो कभी नही हो सकता है इस लिये अधिक भास होनेसे अवश्य करके तेरह मास और छवीश पक्षादिकी आलोचना साम्बत्सरिमें करनी जैन शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक है इसका विशेष विस्तार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी आगे समीक्षा होगा उसमें शास्त्रों के प्रमाण सहित अच्छीतरहसे करने में आवेगा सो पढ़के विशेष निर्णय कर लेना और आगे लिखा है कि-अधिकमास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षके क्षामणे किसी भी स्थानमें नही लिखा हैं यह वाक्य भी मिथ्या है क्योंकि अनेक जगह अधिकमास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षके क्षामणे लिखे हैं जिसका भी वहांही आगे निर्णय होगा।____ और ( आपका प्रयास क्या काम आया ) इस लेखपर तो मेरेकों इतना ही कहना उचित है कि शुद्धसभाचारी कारने तो सिर्फ अधिकमासको गिनतीमें सिद्ध करके पचास दिने पर्युषणा दिखानेका प्रयास किया था सो शास्त्रानुसार न्याययुक्ति सहित होने से उन्हका प्रयास सफल हैं परन्तु न्यायाम्भोनिधिजी हो करके अन्यायसें और शास्त्रोंके For Private And Personal Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १२ विरुद्ध हो करके अधिकमासकी गिनती निषेध करनेका प्रयास करते है सो बड़ी ही शर्मकी बात है और काल• चूलासम्बन्धी न्यायाम्भोनिधिजीने आगे लिखा हैं उसकी समीक्षा में भी आगे करूगा___और ( दशपञ्चक व्यवस्था लिखते हो सो तो कल्पव्यवच्छेद हुवा है यह सर्वजन प्रसिद्ध है ) इन अक्षरों कोभी में देखता हु तो न्यायांभोनिधिजीका अन्याय देखकर मूके बड़ाही आफसोस आता है क्योंकि शुद्ध समाचारी कारने जिस अभिप्रायसें लिखा था उसीको समझे बिना अन्याय मार्ग खण्डन करना न्यायांभोनिधिजीको उचित नहीं हैं क्योंकि शुद्धसमाचारी कारने तो इस काल में पचास दिनेही पर्युवणा करनी चाहिये इस बातकी पुष्टि के लिये शुद्ध समाचारीके पृष्ठ १५७ । १५८ में श्रीकल्पसूत्रजीका मूलपाठ, श्री. हत्कल्पचूर्णिका पाठ, और श्रीसमवायाङ्गजीका पाठ, लिखके पचास दिनेही पर्युषणा दिखाई थी परन्तु दशपञ्चक लिखके कुछ पाँच पाँच दिने प्राचीन कालकी रीतिसे पर्युषणा नही लिखी थी तथापि न्यायांभोनिधिजी शुद्धसमाचारी कारके अभिप्रायके विरुद्धार्थमें दशपञ्चकका कल्पविच्छेदकी बात लिखके पचास दिनकी पर्युषणाको निषेध करना चाहते हैं सो कदापि नही हो सकेगा और आगे फिर भी लिखा है कि-( लौकिक टिप्पणाके अनुसारसे हरेक वर्षमें आषाढ़ शुदी चतुर्दशीसे लेके भाद्रवा शुदी ४ और तुम्हारे कहने में दूसरे श्रावण शुदी ४ तक ५० दिन पूर्ण करने चाहोगें तो भी नही हो सकेगे क्योंकि तिथियां वध घट होती है तो किसी वर्ष में ४ दिन आजायगे और किसी वर्षमें For Private And Personal Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७३ ] ४५ दिन भी आजायगें तब क्या आपको जिनाशा भङ्गका दूषण नही होगा ) इस उपरके लेखसैं तो न्यायांभो निधिजीनें श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचाय्यकी और अपनेही गच्छके पूर्वाचाय्योंकी आशातना करके और सबी उत्तम पुरुषों को दूषित ठहरानेका कार्य्य करके नय गर्भित व्यवहारको और श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठको उत्थापन करके बड़ाही अमर्थ कर दिया है क्योंकि जैसे सूत्र, चूर्णि, भाष्य, वृत्ति, प्रकरण, चरित्रादि अनेक शास्त्रों में एक नही किन्तु सैकड़ों बाते व्यवहार नयकी अपेक्षासें श्रीतीर्थङ्करादि महाराज कहते हैं तैसेही शुद्ध समाचारी कारने भी व्यवहार नयसें पचास दिने पर्युषणा कहीं है और श्रीकल्प सूत्रज जीके मूल पाठका ( अन्तरा वियसे कप्पई) इस वाक्यसे पचास दिनके अन्दर में पर्युषणा होवे तो कोई दूषण भी नही कहा है तथापि न्यायांभोनिधिजी न्यायके समुद्र होते भी व्यवहार नयगर्भित श्रीजिनेश्वर भगवान् की व्याख्याका और श्रीकल्पसूत्र के मूल पाठका उत्थापनके भयका जरा भी विचार न करते विद्वत्ताके अभिमानसें और पक्षपातके जोर ४८ । ४० दिन होने का दिखाकर मिथ्या दूषण लगाते हैं सो कदापि नही बनता है, –याने सर्वथा उत्सूत्र भाषणरूप है और भी दूसरा सुनिये जो तिथियोंके हानी वृद्धिकी मिनती से कोई वर्ष में भाद्रपद शुक्ल चौथ तक ४८ दिन होनेका लिखकर न्यायाम्भोनिधिजी शुद्धसमाचारी कारको दूषित ठहराते हैं इससें मालुम होता है कि तिथियोंके हानी वृद्धिकी गिनती भाद्रपद शुक्ल छठ (६) के दिन पूरे पचास दिन मान्य करके न्यायाम्भोनिधिजी पर्युषणा करते होवेंगे For Private And Personal Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११४ ] तब तो अनेक शास्त्रों के विरुद्ध है और आप चौथकाही पर्युषणा करते होवेंगे तब तो शुद्धसमाचारी कारको दूषण लगाना वृथा है इसको भी पाठकवर्ग विचार लो ; और पर्युषणाके पीछाड़ी जो १० दिन न्यायाम्भोनिधि जी रख्खना कहते हैं सो किस हिसाब से गिनती करके ररूखते हैं इसका विवेक बुद्धिसे हृदयमें विचार किया होता तो शुद्ध समाचारी कारको दूषण लगानेका लिखनाही भूल जाते क्योंकि तिथियोंकी हानी बृद्धिसें किसी वर्ष में ६९ और किसी वर्षमें ६८ दिन भी होजाते हैं सो पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुष न्याय दृष्टिसे विचार कर लेना ; और भी आगे जैन सिद्धान्तसमाचारी पुस्तकके पृष्ठ की पंक्ति २० वीं सें पृष्ठ ९० की पंक्ति ११ वीं तक ऐसे लिखा है कि [ पूर्वपक्ष, आप तो मुखसेंही बाता बनाई जाते हो परन्तु कोई सिद्धान्तके पाठसें भी उत्तर है वा नही-उत्तरहे समीक्षक दृढ़तर उत्तर देते हैं देखो कि श्रावणमास बढ़ने से दूसरे श्रावणमें और भाद्रव बढ़ने से प्रथम भाद्रव मासमें पर्युषणा करना यह तुमने ८० (अशी) दिनकी प्राप्तिके भयसे अङ्गीकार किया परन्तु श्रीसमवायाङ्गजी सूत्र में ऐसा पाठ है, यथा-सवीसह राइमासे वइकुंते सत्तरिराइदिएहिं सेसेहिं वासावासं पज्जोसवेइत्ति, भावार्थ:- जैसे आषाढ़ चौमासेके प्रतिक्रमण किये बाद एकमास और वीश दिनमें पर्युषणा करें तैसे पर्युषणा के बाद 90 सत्तर दिन क्षेत्रमें ठहरे – हे परीक्षक - अब इस पाठके विचारणेसें तुमको मास की वृद्धि हुये कार्त्तिक सम्बन्धी कृत्य आश्विनमासमें करना पढ़ेगा और कार्त्तिक मासमें करोंगे तो १०० रात दिनकी For Private And Personal Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०५ ] प्राप्ति होनेसे सिद्धान्त विरुद्ध होगा, फिर तो ऐसा हुवा कि एक अङ्गको आच्छादन किया और दूसरा अङ्ग खुल्ला होगया तात्पर्य्य कि तुमने आज्ञाभङ्ग न हुवे इस वास्ते यह पक्ष अङ्गीकार किया तोभी आज्ञाभङ्गरूप दूषण तो आपके शिर परही रहा-पूर्वपक्ष-इस दूषणरूप यन्त्रमें तो आपको भी यन्त्रित होना पड़ेगा-उत्तर-हे समीक्षक यह आज्ञाभङ्गरूप दूषणका लेश भी हमको न समझना क्योंकि हम अधिक मासको कालचूला मानते हैं-] अब उपरके लेखकी समीक्षा करते है कि हे सत्यग्राही सज्जन पुरुषों उपरके लेखमें न्यायाम्भोनिधिजीने अपनी चतुराई प्रगट कारक और प्रत्यक्षउत्सूत्र भाषणरूप भोले जीवोंको श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध रस्ता दिखानेके लिये अनुचित क्यों लिखा है क्योंकि प्रथमतो पूर्वपक्षमें ही [आप तो मुखसे ही बाता बनाइ जाते हो ] यह अक्षर लिखे है इससे मालुम होता है कि पहिले जो जो लेख न्यायांभोनिधिजीने लिखा है सो सो शास्त्रोंके प्रमाण बिना अपनी कल्पनासें लिखा है इसलिये न्यायांभोनिधिजीके जैसी दिलमें थी वैसीही पूर्वपक्षके अक्षरों में लिख दिखाई है सो, हास्यके हेतुरूप है सो तो बुद्धिजन विद्वान् पुरुष समझ सक्त है और इसके उत्तरका लेखमें भी सूत्रकार महाराजके अभिप्राय को जानेबिना उलटा विरुद्धार्थ में तीनों महाशयोंकी तरह चौथे न्यायाम्भोनिधिजीनें भी कर दिया क्योंकि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ मासवृद्धिके अभावका है। और पर्युषणा के पीछाड़ी १०० दिन होनेसें कोई भी दूषण नही है याने मास वृद्धि होनेसें पर्युषणाके For Private And Personal Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७६ ] पीछाही १०० दिन शास्त्रानुसार रहते हैं इस लिये मासवृद्धि होते भी पर्युषणाके पीछाड़ी 90 दिन रहने का और १०० होनेसे दूषण लगाने का न्यायाम्भोनिधिजीका लिखना सर्वथा वृथा है इसका विशेष निर्णय तीनों महाशयों की समीक्षा सूत्रकार वृत्तिकार महाराजके अभिप्राय सहित संपूर्ण पाठसमेत युक्तिपूर्वक विस्तारसे पृष्ठ ११८सें पृष्ठ १२ तक छपगया है और आगे भी कितनीही जगह छप चुका है सो पढ़नेसे अच्छी तरह से निर्णय होजावेगा तथापि उपरोक्त लेखमें न्यायाम्भोनिधिजीनें उटपटाङ्ग लिखा है जिसकी समीक्षा करके दिखाता हुं-[ श्रावणमास बढ़ने से दूसरे श्रावणमें और भाद्रव बढ़नेसें प्रथम भाद्रव मासमें पर्युषणा करना यह तुमने अशीदिनका प्राप्तिके अयसें अङ्गीकार किया] इस लेखको लिखके आगे श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका (सवीसइ राइमासै वइक्कन्ते) इस पाठसें पचासदिने पर्युषणा दिखाई ॥ इन अक्षरोंसें तो जैसे शुद्ध समाचारी कारने ५० दिने पर्युषणा ठहराई थी तैसेही न्यायाम्भोनिधिजीने भी ठहराई इसमें तो शुद्ध ससाचारी कारका लेखको विशेष पुष्टिमिली और न्यायांसोनिधिजीको अपमा स्वयं लेख भी बाधक होगया तो फिर दो श्रावण होनेसें भी भाद्रपदमें और दो भाद्रपद होनेसे दूसरे भाद्रपदमें न्यायांभोनिधिजी पर्युषणा करते हैं तब तो प्रत्यक्ष ८० दिन होते है और श्रीसमवायाङ्गजी आदि अनेक शास्त्रों में ५० दिने पर्युषणा करनी कही है और अधिकमास भी अनेक शास्त्रों में प्रमाण किया है तैसे ही खास न्यायांसोनिधिजी भी क्षामणा के सम्बन्धमें अधिकमास होनेसें [ तिसवर्षमें तेरांमास तो For Private And Personal Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७७ ] अवश्य होजायगें] यह अक्षर पृष्ठ ८९ की पंक्ति ३।४ में लिखें हैं अब पाठकवर्ग विचार करो कि अधिकमास होनेसें तेरह मास अवश्य करके न्यायांभोनिधिजीने मान्य करलिये जब अधिकमास गिनतीमें मंजूर हो चुका तब दो श्रावण होनेसें भाद्रपद तक ८० दिन न्यायांभोनिधिजीके वाक्यसें भी सिद्ध होगये तो फिर पचास दिने पर्युषणा करनेका पाठ दिखानी और ८० दिने अपनी कल्पनासें पर्युषणा करना यह कोई बुद्धिवाले विवेकी श्रीजिनाज्ञाके आराधक पुरुष का काम नही है सो पाठकवर्ग भी विचार लेना ;____ और भी दूसरा सुनो (श्रावणमास बढ़नेसें दूसरे श्रावण में और भाद्व बढ़नेसें प्रथम भादव मासमें पर्युषणा करना यह तुमने ८० ( अशी ) दिनकी प्राप्तिके भयसे अङ्गीकार किया ) इन अक्षरोंका तात्पर्य ऐसे निकलता है कि शुद्ध समाचारीकारकों तो ८० दिने पर्युषणा करनेसे शास्त्रविरुद्धका भय लगा तब पचास दिने पर्युषणा करनेका अङ्गीकार किया परन्तु न्यायाम्भोनिधिजीको ८० दिने पर्युषणा करनेसे शास्त्र विरुद्धका भय नही लगता है इस लिये दो प्रावण होते भी भाद्रपद में और दो भाद्रपद होनेसे दूसरे भाद्रपद में ८० दिने पर्युषणा शास्त्रविरुद्धताको न गिनके करते हैं यह बात सिद्ध होगइ इस बातको पाठकवर्ग भी विशेष करके विचार लो;___ और श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठको दिखाकर दो श्रावणादि होते भी 90 दिन पर्युषणाके पिछाड़ी रखने का जो न्यायांभोनिधिजी कहते है सो भी सूत्रकार तथा वृत्तिकार महाराजके और युक्ति के भी विरुद्ध है क्योंकि For Private And Personal Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । १८ ] आषाढ़ चौमासीसें प्रथम पचासदिन जानेसें और पिछाड़ी ७० दिन रहनेसें एवं चार मासके १२० दिनका वर्षाकाल सम्बन्धी श्रीसमवायाङ्गजी का पाठ है सो तो अल्पबुद्धिवाला भी समझ सकता है तो फिर न्यायांसोनिधिजी न्यायके और बुद्धि के समुद्र इतने विद्वान् होते भी दो श्रावणादि होने में पांचमास के १५० दिन का वर्षाकाल में पर्यषणाके पिछाड़ी 90 दिन रखने का आग्रह करते कुछ भी विचार नही किया वड़ीही शरमकी बातहै और दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें ८० दिने पर्युषणा करके पिछाड़ी के ७० दिन रखने का न्यायांभोनिधिजी चाहते होवे तोभी अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध है क्योंकि व्यवहारिक गिनतीसें पचास दिने अवश्य ही निश्चय करके पर्युषणा करनी कही है, और दिनोंकी गिनती में अधिकमास छुट नही सकता है इस लिये ८० दिने पर्युषणा करके पिछाड़ी 90 दिन रखेंगे तो भी शास्त्रविरुद्ध है और अधिक मासको गिनती में छोड़ कर पर्युषणा के पिछाड़ी ७० दिन रखेंगे तो भी अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध है क्योंकि अधिक मासको अनेक शास्त्रों में और खास श्रीसमवायांगजी सूत्र में प्रमाण किया है इस लिये अधिकमास को गिनतीमें निषेध करना भी न्यायांभोनिधिजीका नहीं बन सकता है और चारमासके सम्बन्धी पाठको पांचमासके सम्बन्धमें न्यायांभोनिधीजी को सूत्रकार महाराज के विरुद्धार्थ में लिखना भी उचित नही है इस लिये श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ पर अपनी कल्पनासें न्यायांसोनिधिजी अथवा उन्होंके परिवारवाले और उन्होंके पक्षधारी वर्तमानिक श्रीतपगच्छके महाशय For Private And Personal Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ १७९ ] जो जो कल्पना मासवृद्धि होते भी पर्युषणा पिछाड़ी १० दिन रखने के लिये करेंगे सो सो सबीही उत्सूत्र भाषण रूप भोले जीवोंको मिथ्यात्व में गेरने वाले होवेंमें इसलिये श्री जिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके आराधक सत्यग्राही सर्वसज्जन पुरुषोंसे मेरा यही कहना है कि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रमें मासवद्धिके अभाव से 90 दिनके अक्षर देखके मास वृद्धि होते भी आग्रह मत करो और भारवृद्धिको मंजूर करके दूजा श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपदमें पचास दिने पर्युषणा करके पिछाड़ी १०० दिन मान्यकरो जिससे उत्सूत्र भाषक न बनके श्रीजिनाज्ञा के आराधक बनोगे मेरा तो येही कहना है । मान्य करेंगें जिन्होंकी आत्माका सुधारा है इतने पर भी जो हठग्राही नहीं मानेंगे जिन्होंकी सम्यक्त्व रत्न बिना आत्माका सुधारा कैसे होगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जानें ; Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir और श्रीसमवायाजी सूत्रका पाठपर न्यायाम्भोनिधि जीनें अपनी चातुराई प्रगट किवी है कि ( हे परीक्षक अब इस पाठके विचारणेसे तुमको मास वृद्धि हुये कार्त्तिक सम्बन्धी कृत्य आश्विन मास में करना पड़ेगा और कार्त्तिक मासमें करोंगे तो १०० रात दिनकी प्राप्ति होने से सिद्धान्त में विरुद्ध होगा फिर तो ऐसा हुवा कि एक अङ्गको आच्छादन किया और दूसरा अङ्ग खुल्ला होगया तात्पर्य्य कि- तुमने आज्ञाभङ्ग न हुवे इस वास्ते यह पक्ष अङ्गीकार किया तो भी आज्ञा भङ्गरूप दूषण तो आपके शिरपर ही रहा ) इस लेखको समीक्षा अब सुन लीजियें -- हे पाठकवर्ग देखो न्यायांभोनिधिजीनें तो शुद्धसमाचारी कारको दूषित ठह For Private And Personal Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १८० ] राने के लिये उपरका लेख लिखाथा परन्तु खास शुद्धसमाचारीकारने ही श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका इस ही पाठको अपनी शुद्धसमाचारीको पुस्तकमें लिखा है। और इन्ही श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रकी वृत्तिकारक ( शुद्धसमाचारी कारके परम पूज्य श्रीखरतरगच्छ नायक ) श्रीनवांगी वृत्तिकार श्रीअभयदेव सूरीजी प्रसिद्ध है जिन्होंने इन्ही पाठकी वृत्ति में चारमासके एकसो वीश ( १२० ) दिनका वर्षाकाल सम्बन्धी अच्छी तरहका खुलासाके साथ व्याख्या किवी है। सो प्रसिद्ध है और मैंने भी मूलपाठ तथा वृत्ति और भावार्थ सहित इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १२० । १२१ में छपा दिया है इस लिये घारमास सम्बन्धी पाठको पांच मासके अधिकार में लिखना भी न्यायाम्भोनिधिजी को अन्याय कारक है और दो श्रावण होनेसें पांचमासके वर्षाकालके १५० दिन होते हैं यह तो जगत प्रसिद्ध है जिसकों अल्पबुद्धि वाले भी समझ सकते है जिसमें जैन शास्त्रों की आज्ञानुसार वर्तमान काले पचाप्त दिने पर्युषणा करनेसें पर्युषणाके पिछाढ़ी १०० दिन तो स्वाभाविक रहते ही है यह बात भी शास्त्रानुसार तथा प्रसिद्ध है तथापि न्यायाम्भोनिधिजी होकरके अन्याय के रस्तेमें वर्तके पांचमासके वर्षाकालमें पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन स्वभाविक रहते हैं जिसको शास्त्र विरुद्ध कहकर चारमास सम्बन्धी पाठ लिखके दूषित ठहराते है। यह तो प्रत्यक्ष उत्सत्र भाषणरूप वृथा है और वर्तमानमें दो श्रावणादि होनेसे पचास दिने पर्युषणा और पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन रहनेका श्रीतपगच्छके ही पूर्वाचार्योंने कहा है जिसका खुलासा इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १४६ में छप गया है For Private And Personal Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१८१] जिसको भी शास्त्र विरुद्ध ठहराकर न्यायाम्भोनिधिजी अपने ही पूर्वाचार्य्योकी आशातनाके फलविपाकका भय मही करते है सो बड़ीही अफसोसकी बात है और मासवृद्धि होनेसें कार्त्तिक सम्बन्धीकृत्य आश्विनमासमें करने का न्यायाम्भोनिधिजी लिखते हैं सो भी उन्हकी समझ में फेर है क्योंकि शुद्धसमाचारोकार तथा श्रीखरतरगच्छ वाले मासवृद्धि होनेसे शास्त्रानुसार पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन मान्य करते हैं इस लिये उन्होंको तो कार्त्तिक सम्बन्धीकृत्य आश्विन मासमें करने की कोई जरूरत नही है, और आगे ( एक अङ्गका आच्छादन किया और दूसरा अङ्ग खुल्ला होगया) इन अक्षरोंको लिखके न्यायाम्भोनिधिजीनें अङ्ग याने शरीरका दृष्टान्त दिखाया परन्तु यह दृष्टान्त शुद्धसमाचारीकार तथा श्रीखरतरगच्छवालोंके उपर किञ्चित् भी नही घट सकता हैं क्योंकि मासवृद्धिके अभाव से श्रीसमवायाङ्गजीमें कहे हुवे पर्युषणाके पिछाड़ीका 90 दिन मान्य करके उसी मुजब वर्त्तते हैं और मासवृद्धि दो श्रावणादि होनेसे अनेक शास्त्रोंके प्रमाणसे पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिनको भी मान्य करके उसी मुजब वर्त्तते हैं इसलिये उन्होंका तो शास्त्रानुसार वर्त्तनेका होने से श्रीजिनाज्ञारूपी वस्त्रों करके सर्व अङ्ग परिपूर्णतासें ( आच्छादन ) याने ढका हुवा है इसलिये एक अङ्ग खुला रहने का दूषण लगाना न्यायां भोनिधिजीका प्रत्यक्ष मिथ्या है परन्तु इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १६४ और १६५ में आ न्याय छपा है इसी न्यायानुसार उपरोक्त खुल्ला अङ्गका दृष्टान्त खास करके दोनों तरहसे न्यायां भोनिधिनी के For Private And Personal Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १८२ ] तथा उन्होंके परिवारवालोंके उपर बरोबर न्याय युक्त अच्छी तरहसे घटता है सोही दिखाता हूं कि देखो न्यायभोनिधिजी तथा इन्होंके परिवारवाले और उन्होंके पक्षधारी वर्त्तमानिक श्रीतपगच्छ के सबी महाशय - विशेष करके श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठको पर्युषणा सम्बन्धी सब कोई लिखते हैं मुखसे कहते हैं और उन्ही पर पूर्ण श्रद्धा रखके वड़ाही आग्रह करते हैं उस पाठ में वर्षाकालके पंचास दिन जानेसें और पिछाड़ी 90 दिन रहने पर्युषणा करणा कहा है यह पाठ भावार्थ: सहित आगे बहुत जगह छप गया हैं इस पर बुद्धिजन सज्जन पुरुष विचार करों कि - वर्त्तमानमें दो श्रावण होनेसे भाद्रपद में पर्युषणा करने वालोंको ८० दिन होते हैं जिससे पूर्वभागका एक अङ्ग सर्वथा खुल्ला हो जाता है और दो आश्विन मास होनेसें कार्तिक तक १०० दिन होते हैं जिससे उत्तर भागका एक अङ्ग भी सर्वथा खुल्ला हो जाता है इस तरह से न्यायांभो निधिजी आदि जो श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठसें दो श्रावण होते भी भाद्रपद तक ५० दिने पर्युषणा और दो आश्विन होते भी कार्त्तिक तक पर्युषणाके पिछाड़ी 90 दिन रखना चाहनेवाले महाशयोंको श्रावण और आश्विन मास बढ़ने से दोनों अङ्गः श्रीजिनाज्ञारूपी वस्त्र करके रहित प्रत्यक्ष बनते हैं यह तो ऐसा हुवा कि दोनों खोईरे जीगटा मुद्रा और आदेश - किं वा - कोई एक संसारिक गृहस्थाश्रम छोड़के साधु हुवा परन्तु साधुकी क्रिया न करसका और पीछा गृहस्थ भी न हो सका उसीको उभय भ्रष्ट याने न साधु और न गृहस्थ ऐसे को 'यतो For Private And Personal Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १८३ ] भ्रष्टा ततो भ्रष्टा' कहने में आता है । अथवा। कोई एकस्त्री थी जिलने टाहीने हाथमे विधवाका बिहू लम्बी काँचली और वाम हायमें सघवाका चिहू चुड़ा धारण किया था उत्तीनेही थोड़ी देर बाद फिर उससे विपरीत, याने, वाम हाथमे विधवाका चिहू लम्बी काँचली और डाहीने हाथमे सधवाफा चिहू चुहा धारण किर लिया ऐसी पागल स्त्री न तो विधवाकी और न सधवाकी गिनतीमें आसकती है तैसेही दो श्रावण होते भी भाद्रपद तक पचास दिनका और दो आश्विन होते भी कात्तिंक तक 90 दिन का आग्रह करने वालोंको श्रावण और आश्विन बढ़नेसे एक तरफ भी श्रीजिनाज्ञाके आराधक नही हो सकते हैं क्योंकि दोनों अङ्ग खुल्ले रहते हैं इसलिये उपरोक्त दृष्टान्तका न्याय उपरके महाशयोंको बरोबर घटता है इसलिये अब उपरकी बातको म्यायांभोनिधिजीके परिवारवालोंको और उन्होंके पक्षधारियों को अवश्य करके विचारनी चाहिये और पक्षपातको छोड़के सत्य बातको ग्रहण करना सोही उचित है। और शुद्धसमाचारीकार दो श्रावणादि होनेसे ५० दिने पर्युषणा करके पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन अनेक शास्त्रानुसार न्याययुक्ति सहित मान्य करता है इस लिये एक अंग खुम्लेका दृष्टान्त न्यायाम्भोनिधिजी कों लिखके आज्ञाभङ्ग रूप दूषण शुद्धममाचारीकार को दिखाना सर्वथा करके उत्सूत्र भाषणरूप वृथा है ! और आगे लिखा है कि--(पूर्वपक्ष इस दूषणरूप यन्त्र में तो आपको भी यन्त्रित होना पड़ेगा उत्तर-हे समीक्षक ? यह आज्ञाभङ्गरूप दूषणका लेशभी हमको च For Private And Personal Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १८४ ] समझना क्योंकि हम अधिक मासको कालचूला मानते है) इन अक्षरोंको लिखके न्यायाम्भोनिधिजी दो श्रावण होनेसे भाद्रपद तक ८० दिन होते हैं जिसमें अधिक मासको मिनती में छोड़कर ८० दिनके ५० दिन और दो आश्विन मास होमेसें पर्युषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक १०० दिन होते है जिसको भी ७० दिन अपनी कल्पनासे मान्य करके निर्दूषण बनना चाहते है सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि अधिक मासको कालचूला की उत्तम ओपमा गिनती करने योग्य शास्त्रकारोने दिवी है जिसका विशेष निर्णय तीनों महाशयोंके नामकी समीक्षामें अच्छी तरहसे छपगया है और आगे फिर भी कालचूला सम्बन्धी श्रीनिशीथ चूर्णिकां अधूरा पाठ और श्रीदशवैज्ञालिक सूत्रके प्रथम चूलिकाकी वृहद्वृत्तिका अधूरा पाठ लिखके भावार्थ लिखे बाद फिर भी अपनी कल्पनासे पूर्व पक्ष उठा कर उसीका उत्तरमें भी पृष्ठ ९९ की पंक्ति १३ तक उत्सूत्र भाषणरुप लिखा है जिसका उतारा इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ५९ और ६० की आदि तक छपाके उसीकी समीक्षा पृष्ठ ६० में ६५ तक इन्ही पुस्तकमें अच्छी तरहसें खुलासा पूर्वक छपगई है और श्रीनिशीथचूर्णिके प्रथमोशेका काल. चूलासम्बन्धी सम्पूर्ण पाठ और श्रीदशवकालिककी प्रथम चूलिकाके वृहद्वत्तिका सम्पूर्ण पाठ भावार्थके साथ खलासा पूर्वके इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ४९ में पृष्ठ ५- तक विस्तारसें छपगया है और तीनों महाशयोंके नामकी समीक्षा में भी इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ७५ से ७८ तक और आगे भी कितनी ही जगह छप गया है उसीको पड़नेसे पाठक For Private And Personal Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir धर्गको अवश्यही निर्णय हो जावेगा कि अधिक मासको कालचूला की उत्तम ओपमा अवश्य ही गिनती करने योग्य शास्त्रकारोंने दिवो है इस लिये अधिकमासकी निश्चय करके मिनती करना ही सम्यक्त्वधारियोंको उनित है तथापि मायाम्भोनिधिजी अधिक मालको गिनती निषेध करते हैं सो कदापि नही हो सकती है इतने पर भी आगे फिर भी पृष्ट १९ के पंक्ति १४ वीं से पंक्ति १८ वो तक लिखते है कि (इस अधिकमासकों कालचूलामें तुमको भी अवश्य ही मानना पड़ेगा और नही मानोंगे तो किसी तरहसे भी आज्ञा भङ्ग रूप दूषणको गठड़ीका भार दूर नही होगा क्योंकि पर्युषणाके बाद १० ( सत्तर ) दिन रहने का कहा है कालचूला न मानोंगे तो १२० दिन हो जायगे ) इन अक्षरोंको लिखके शुद्धसमाचारी कारको पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन होनेसे दूषण लगाते हैं सो न्यायाम्भानिधिजीका सर्वथा मिथ्या है क्योंकि मासाद्ध होते पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन होने में कोई दूषण नहीं है इसका विस्तार उपरमें तथा तीनों महाशयों के नामकी समीक्षामें और भी कितनी ही जगह छप गया है उसीकों पढ़ के पाठकवर्ग सत्यासत्यका निर्णय कर लेना ;___और शुद्धसमाचारीकार तथा श्रीखरतरगच्छवाले अधिक मासको कालचूलाको उत्तम ओपमा जानके विशेष करके गिनतीमें बरोबर लेते हैं और न्यायांसानिधिजो अधिक मासको कालचूला कह करके भी शास्त्रकारोंका तात्पर्य्य सम बिना श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके तथा श्री. निशोथचूर्णिकार और श्रीदशवैकालिकके चूलिकाको वृहद् For Private And Personal Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १८६ । वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थ में अधिकमासकी गिनती निषेध करते पर भवका भय कुछ भी नही किया यह वडाही अफसोस है। __और आगे जैन सिद्धान्त समाचारी की पुस्तकके पृष्ठ ९९ की पंक्ति १० वी से पृष्ठ ९२ वें की प्रथम पंक्ति तक ऐसे लिखा है कि ( पर्युषणा पर्व केबल भाद्रव मासके साथ प्रतिवन्धवाला है क्योंकि जिस किमी शास्त्र में पर्युषणापर्व का निरूपण किया है तिसमें भाद्रवमासका विशेषणके साथ ही कथन किया है परन्तु अधिक मास होवे तो श्रावण माप्तमें पर्युषणा करना ऐषा तो तुमारे गच्छवाले की नही कह गये है देखो, सन्देहविषौषधी ग्रन्थ में भी भाद्रव मास ही के विशेषण करके कहा है परन्तु ऐसा नहीं कहा कि अधिक माग होवे तो श्रावणमासमें करना ऐसा पर्युषणा पर्वके साथ विशेषण नही दिया है ) उपरके लेखकी समीक्षा करके पाउकवर्गकों दिखाता हुं कि हे सज्जन पुरुषो न्यायाम्भोनिधिजीके उपर का लेखको में, देखता हुँ तो मेरेकों न्यायाम्भोनिधिजी में मिथ्या भाषणका त्यागरूप दूजा महात्रतही नही दिखता है क्योंकि उपरके लेखमें तीन जगह प्रत्यक्ष मिथ्या भोले जीवोंको भ्रमाने के लिये उत्सूत्र भाषणरूप लिखा है सोही दिखाता हुं कि प्रथमतो (पर्यु षणापर्व केवल भाद्रव मासके साथ प्रतिबन्धवाला है क्योंकि जिल किमी शास्त्र में पर्युषा पर्वका निरूपण किया है तिसमें आद्रवमासका विशेषणके साथही कथन किया है) यह अक्षर लिखके मासद्धि होते भी भाद्रपद मासप्रतिबन्ध पर्यषणा न्यायांसोनिधिजी ठहराते है मो मिथ्या है क्योंकि For Private And Personal Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १७ ] भाष्य, चूर्णि, वृत्त्यादि अनेक शास्त्रोंमें भासवृद्धि होने से प्रावणमासमें पर्युषणा करना लिखा है इसका विशेष निर्णय तीनों महाशयोंकी समीक्षामें शास्त्रोंके प्रमाण सहित न्याययुक्तिके साथ अच्छी तरह से इन्ही पस्तकके पृष्ठ १०७ सें पृष्ठ ११७ तक छप गया है उसीकों पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा और दूसरा ( अधिक मास होवे तो श्रावण मासमें पर्युषणा करना ऐसा तो तुमारे गच्छ वाले भी नही कहगये है ) यह लिखा है सोभी प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि श्रीखरतरगच्छके अनेक पूर्वाचार्योंने अनेक ग्रन्थो में दो श्रावण होनेसें दूसरा श्रावणमें पर्युषणा करनी कही है सोही देखो श्रीजिनपतिमूरिजी कृत श्री सडपट्टक वृहद्वत्तिमें १। तथा श्रीसमा चारी ग्रन्थ में । २ । श्रीजिनप्रभ सूरिजी कृत श्रीसन्देहविषौषधी वृत्तिमें । ३ । तथा श्रीविधिप्रथा ग्रन्थमें । ४। श्रीउपाध्यायजी श्रीसमयसुन्दरजीकृत श्रीकल्पकल्पलता वृत्तिमें । ५। तथा श्रीसमाचारी शतकमें। ६। और श्रीलक्ष्मीबल्लभगणिजी कृत श्रीकल्पद्रमकलिका इत्तिमें।७। और श्रीतप गच्छ तथा श्रीखरतरगच्छ सम्बन्धी (तषा खरतर प्रश्नोत्तर)नाम ग्रन्थ है उसीमें। ८। और श्रीपर्युषणा सम्बन्धी चर्चापत्रमें । & । इत्यादि अनेक जगह खुलासापूर्वक दूसरे श्रावण में पर्युषणा करनेका श्रीखरतरगच्छके पूर्वाचार्योने कहा है तैसें ही श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्योने भी अनेक ग्रन्थों में दूसरे श्रावणमें ही पर्युषणा करना कहा है और खास न्यायाम्भोनिधिजी भी शुद्धसमाचारी पुस्तक सम्बन्धी अपनी जैन सिद्धान्त समाचारी की पुस्तकके पृष्ट ८७ को पक्कि २२ वी में पृष्ठ ८८ प्रथम पंक्ति तक लिखते हैं कि ( श्रावण मास वढे For Private And Personal Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १८ ] तो दूसरे श्रावण शुदीमें और भाद्रव बढ़े तो प्रथम भाद्रव शुदीमें आषाढ़ चौमासेसें ५० में दिनही पर्युषणा करना परन्तु ८० अशीमें दिन नही करना ऐसा लिखके पृष्ठ १५५ में अपनेही गच्छके श्रीजिनपति सूरिजी रचित समाचारीका प्रमाण दिया है ) इन अक्षरोंको न्यायाम्भोनिधिजी लिखते हैं और उपरोक्त श्रीखरतरगच्छके पूर्वाचार्योंके ग्रन्थोंका दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करने सम्बन्धी पाटोंको भी जानते हैं तथापि ( अधिक मास होवे तो श्रावण मासमें पर्युषणा करना ऐसा तो तुमारे गच्छवाले भी नही कह गये हैं) इतना प्रत्यक्ष मिथ्या लिखके अपना महाव्रत भङ्गके सिवाय और क्या लाभ उठाया होगा सो पाठकवर्ग विचार लेना--- ___ और तीसरा ( देखो सन्देहविषौषधी ग्रन्थमें भी भाद्रव मासहीके विशेषण करके कहा है परन्तु ऐसा नही कहा है कि अधिक मास होवे तो श्रावण मासमें पर्युषणा करना ऐसा पर्युपणापर्वके साथ विशेषण नही दिया है) यह लिखा है तो भी मायावृत्ति से प्रत्यक्ष सिध्या लिखा है क्योंकि श्री जिनप्रारिजीने श्रीसन्देहविषौषधी वृत्तिमें खुलासा पूर्वक दो श्रावण होने से दूसरे श्रावणभे पर्युषणा करनी कही है जिसका पाठ अध्यजीवोंको निःसन्देह होनेके लिये इस जगह लिरा दिलाता हुं श्रीसन्देहविधौषधी वृत्तिके पृष्ठ ३० और ३१ का तथाच तत्पाठः---- ___ साम्प्रतं पर्युषणा समाचारी विवक्षुरादौ पर्युषणा कदा विधेयेति श्रीमहावीरस्तद्गणधरशिष्यादीन् दृष्टान्तेनाह तेणं कालेणमित्यादि। वासाणंति। आषाढ़चतुर्नाहकदिनादारभ्य सविंशतिरात्रेमासे व्यतिक्रान्ते भगवान् पज्जोसवे For Private And Personal Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १८९ ] इति । पर्युषणामकार्षीत् सेकेण?णमित्यादि। प्रश्नवार्य जउणं इत्यादि । निवंचनवाक्यं । प्रायेणागारिणां। गृहस्थानामागाराणि गृहाणि। कष्डियाई कटयुक्तानि उकंपियाई धवलितानि। छन्नाई तृणादिभिः लित्ताई छगणा दिभिः क्वचित् गुत्ताइंति पाठस्तत्र गुप्तानि वृत्तिकरद्वारपिधानादिभिः घट्ठाई विषमभूमिभञ्जनात् । मलाई लक्ष्णीकृतानि क्वचित् संमट्ठाइत्ति पाठस्तत्र समंतात् सृष्टानि मसृणीकृतानि संपधूमियाई सौगन्ध्यापादनार्थं धूपनैर्वासितानि। खातोदगाई कृतप्रणालीरूपजलमार्गाणि खायनिटुमणाई निर्द्धमणं खालं गृहात् सलिलं येन निर्गच्छति अप्पणो अढाए आ. मार्थ स्वार्थ गृहस्थैः कृतानि परिकभितानि करोति काण्ड करोतीत्यादाविव परिकर्थित्वात् परिभुक्तानि तैः स्वयं परिभुज्यमानत्वात् अतएव परिणामितानि भवन्ति । ततः मविंशतिरात्रे मासे गते अमी अधिकरणदोषा न भवन्ति । यदि पुनः प्रथममेव साधवः स्थिना स्म। इति युः तदा ते गृहस्था मुनीनां स्थित्या सुभिक्षं संभाव्य तप्तायोगोलकल्पाः दन्तालक्षेत्रकं कुर्यः तथा चाधिकरणदोषाः अतस्तत्परिहाराय पञ्चशतादिनैः स्थिता स्म इति वाच्य चूर्णिकारस्तु कडियाइं पासहिंतो कंवियाणि उवरिं इत्याह । स्थविरा स्थविर कल्पिकाः अद्यत्ताएत्ति अद्यकालीनाः आर्यतया व्रत स्थविरत्वेन इत्येके अंतरावियसे इत्यादि अंतरापि च अर्वागपि कल्पते, पर्युषितुं न कल्पते तां रजनी भाद्रपदशुक्लपञ्चमी उवायणावित्तएत्ति अतिक्रमितुं । उसनिवासे इत्यागमिको धातु। इह हि पर्युषणाद्विधा गृहिज्ञाताऽज्ञातभेदात् । तत्र गृहिणामाता यस्यां वर्षायोग्य पीठफलकादौ For Private And Personal Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १० यत्र न कल्पोक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, स्थापना क्रियते । साषाढ़ पौर्णमास्यां पञ्चपञ्चदिनवृद्धया यावद्भाद्रपदशितपञ्चम्यां साचैकादशसु पर्वतिथिषु क्रियते । गृहिज्ञाता तु यस्यां साम्वत्मरिकातिचारालोचनं लुञ्जनं पर्युषणाकल्पमूत्रकर्षणं चैत्य परिपाटी अष्टमं साम्वत्सरिकप्रतिक्रमणं च क्रियते ययाच व्रतपर्याय वर्षाणि गण्यन्ते सा नभस्य शुक्ल पञ्चम्यां कालिकसूर्यादेशाच्चतुर्थ्यामपि जनप्रकटं कार्या। यत्पुनरभिवर्द्धितवर्षे दिनविंशत्या पर्युषितव्यमित्युच्यते। तत्सिद्धान्तटिप्पणानामनुसारेण तत्र हि युगमध्ये पौषो युगान्ते चाषाढ़ एव वर्द्धते नान्येमासा स्तानि चाधुना सम्यक् न ज्ञायन्ते ततो दिनपञ्चाशतैव पर्युषणासङ्गतेति वृद्धाः ततश्च कालावग्रहश्चात्र जघन्यतो ननस्य शितपञ्चम्या आरभ्य कार्तिकचतुर्मासांतः सप्ततिदिनमानः उत्कर्ष तो वर्षायोग्य क्षेत्रान्तराभावादाषाढ़मासकल्पेन सह वष्टिप्सद्भावात् मार्गशीर्षणापि सह घण्मासा इति । देखिये उपरके पाठमें एकमास और वीश दिने पर्युषणा श्रीतीर्थङ्कर गणधर स्थिविराचार्यादि करते थे तैसेही वर्तमानमें भी एकमास वीश दिने याने पचास दिने पयुषणा करने में आती है और मासवृद्धि होनेसे वीश दिने पर्युषणा जैन टिप्पणानुसार दिखाई और वर्तमानमें जैन टिप्पणाके अभावसे पचास दिनेही पर्युषणा करनी कही इससे दो श्रावण हो तो दूसरे श्रावणमें अथवा दो भाद्रपद हो तो प्रथम भाद्रपदमें पचास दिनेही पर्युषणा सम्यक्त्वधारियोंको करनी योग्य है, तैसेही श्रीखरतरगच्छवाले करते हैं परन्तु हठवादियोंकी बातही जूदी है For Private And Personal Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ९९१ ] और इन्ही महाराज श्रीजिनप्रभसूरिजीने श्रीसन्देहविषौषधी वृत्ति में श्रीकल्पसूत्र जीके मूलपाठकी व्याख्या किये बाद इन्ही श्रीकल्पसूत्रकी निर्युक्ति जो कि सुप्रसिद्ध श्रीभद्रबाहु स्वामीजी कृत है उसकी व्याख्या किवी है उसीमें काल aणाधिकारे समयादि कालसे आवलिकर, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, सम्वत्सर, युगादिकी व्याख्या करके आगे अधिक मासको अच्छी तरहसे प्रमाण किया है और प्राचीनकालाश्रय जैसे चन्द्रसंवत्सर में पचास दिने पर्युषणा तैसेंही अभिवर्द्धित संवत्सर में वीश दिने पर्युषणा खुलासा पूर्वक कही है और श्रीनिशीथ चूर्णिके दशवे उद्दशेमें जैसे पर्युषणा सम्बन्धी व्याख्या है तैसेही उन्ही महाराजने भी प्रायः उसीके सदृश अच्छी तरहसें व्याख्या किवी हैं और इन्ही महाराज श्रीजिनप्रभ सूरिजीने श्रीविधिप्रपा नाम ग्रन्थ बनाया है उसीके पृष्ठ ५३ में जैसा पाठ है वैसाही नीचे मुजब जानो ; आसाढ चम्मा सियाओ नियमा पसासइमे दिणे पज्जो सवणा काय न इक्कपंचासइमे जयावि लोइय टिप्पणयाणुसारेण दो सावणा दो भट्त्रया वा भवंति तयावि पा सहमे दिणे नउण कालचूलाविस्काए असीहमे सates राइमासे वकते पज्जोसवर्णतित्ति वयणाउं जंच अभिवढियंमि वीसत्तवृत्तं तं जुगमज्जे दो पोसा जुगअंते दक्षेवी आसाढत्ति सिद्धतटिप्पणयाणुरोहेणं चेव घडइ ते संपयं नवह तित्ति जहुत्तमेव पज्जोरावणादिणति ॥ अब सत्यग्राही सज्जन पुरुषों से मेरा इतनाही कहना है कि उपरमें श्रीखरतरगच्छ के श्रीजिनप्रभयरिजीने श्रीसन्देह For Private And Personal - Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विषौषधी वृत्ति में और श्रीविधिप्रपामें खुलासाके साथ मासद्धिकी गिनतीसें वर्तमानमें पचास दिने पर्युषणा कही है सो दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणा करनी यह प्रसिद्ध बात है और न्यायाम्भोनिधिजो खास करके श्रीमन्देहविधौषधी वृत्तिका और श्रीविधिमया ग्रन्थका उपरोक्त पर्युषणा सम्बन्धी पाठको अच्छी तरह जानते थे क्योंकि नीविधिप्रपा ग्रन्थका पाठ खास आपने चतुर्थ स्तुति निर्णयः पुस्तकके पृष्ठ ८३। ८४ । ८५ में लिखा है। और मैंने जो उपरमें श्रीविधिप्रपा ग्रन्थका पाठ पर्युषणा सम्बन्धी लिखा हैं उसी पाठके पहलो पंक्तिका पाठ दोनु जगहसे काटकरके अधूरा ग्रन्थकार महाराजके विरुद्धार्थने उत्सूत्र झायणरूप और श्रीखरतरगच्छके तथा दूसरे भोले श्रावकोंको भ्रम में गेरनेके लिये न्यायाम्भोनिधिजीने जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ ८२ के अन्तमें लिखा है (जिसका खुलासा आगे करनेमें आवेगा) इससे पर्युषणा सम्बन्धी उपरका पाट न्यायाम्भोनिधिजी जानते थे तथापि अपनी मिथ्या बात रखने के लिये ( अधिकमास होवे तो श्रावण मासमें पर्युषणा करना ऐसा तो तुमारे गच्छवाले भी नही कह गये है ) यह वाक्य और सन्देहविषौषधी ग्रन्थमें भी ( ऐसा नही कहा कि अधिक मास होवे तो श्रावणमासमें पर्युषणा करना ) यह वाक्य म्यायाम्भोनिधिजी माया वत्तिसें प्रत्यक्ष मिथ्या कैसे लिख गये होंगे सो मेरेकों बड़ाही अफसोम है ;-इस लिये मेरे कों इस जगह लिखना पड़ता है कि श्रीजिनप्रभ सूरिजीने श्रीसन्देह विषौषधी वृत्तिमें तो कदाग्रही और सन्देहकारी For Private And Personal Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३ ] पुरुषोंका अच्छी तरहसे सन्देहका (पर्युषणा सम्बन्धी और कल्याणक सम्बन्धी भी) निवारण किया है जो स्थिरचितसे वाँचके सत्यग्राही होगा उसीका तो अवश्य करके मिथ्यात्व रुप सन्देह निकलके सम्यक्त्वरूप सत्यबातकी प्राप्ति हो जावेगा इसमें कोई शक नही-- ____ और श्रीखरतरगच्छ के तो क्या परन्तु श्रीतपगच्छ के ही पूर्वाचार्योंने मासवृद्धिके अभावसे भाद्रपदमें पर्युषणा करनी कही है और दो श्रावण होनेसे पचासदिने दूजा श्रावणमें भी पर्युषणा करनी कही है इसका विस्तार उपरमें अनेक जगह छपगया है। इसलिये श्रीखरतरगच्छके पूर्वाचार्यजी कृत ग्रन्थका मासद्धि सम्बन्धी पाठको छुपाकर मासवृद्धिके अभावका पाठ भासवृद्धि होते भी भोले जीवोंको दिखा कर सत्य बात परसें श्रद्धाभङ्ग करके अपनी कल्पित बातमें गेरनेका कार्य करना न्यायांभोनिधिजीकों उचित नही था ;____ और आगे फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीने अपनी जैन सिद्धान्त समाचारीको पुस्तकके पृष्ठ ९२ की दूसरी पंक्ति में सोलवी पंक्ति तक जो लिखा है सो नीचे मुजब जानो, [पृष्ठ १५९ पंक्ति ६ में नारचंद्र ज्योतिष ग्रन्थका प्रमाण दिया है सो तो हीरीके स्थानमें वीरीका विवाह कर दिया है । क्योंकि इसी द्वितीय प्रकरणमें ऐसा श्लोक है। यथा--हरिशयनेऽधिकमासे, गुरुशुक्रास्तनलममन्वेष्य ॥ लग्नेशांशाधिपयो,र्नीचास्तगमे च न शुभं स्यात् ॥ १॥ भावार्थः अधिक मासादिक जितने स्थान बताये उसमें शुभ कार्य नही होते है। तो अब बारामासिक पर्युषणा For Private And Personal Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९४ ] पर्व कैसे करनेकी सङ्गति होगी ? और रत्नकोपाख्य ज्योतिःशास्त्र विषे भी ऐसा कहा है। यथा - 'यात्राविवाहमण्डन, मन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि ॥ परिहर्तव्यानि बुधैः, सर्वाणि नपुंसके मासि ॥ १ ॥ भावार्थ: यात्रा मण्डन, विवाहमण्डन, और भी शुभकार्य्य है सो भी पण्डित परुषोंमें सर्व नपुंसके मासि कहने सें अधिक मास में त्यागने चाहीये। अब देखीये । इस लेख सें भी अधिक मासमें अति उत्तम पर्युषण पर्व करनेकी सङ्गति नही हो सकती है । ] ऊपरके न्यायाम्भोनिधिजीका लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि ( पृष्ठ १५० में नारचन्द्र ज्योतिष ग्रन्थका प्रमाण दिया है सो तो होरीके स्थान में वोरीका विवाह कर दिया है ) इन अक्षरोंको लिखके जो शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५० में नारचन्द्र ज्योतिषका श्लोक है उसी को न्यायांभोनिधिजी निषेध करना चाहते हैं सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि उसी लोकका मतलब सत्य है देखो शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५० में नारचन्द्रके दूसरे प्रकरणका ऐसा श्लोक है यथा--रविक्षेत्रगते जीवे, जीव क्षेत्रगते रथौ । दीक्षां स्थापनां चापि प्रतिष्ठा च न कारयेत् ॥ १ ॥ इस श्लोक लिखने का तात्पर्य ऐसा है कि वादी शङ्का करता है कि अधिकमास में शुभकार्य्य नही होते हैं तो फिर पर्युपणापर्व भी शुभकार्य्य अधिकमास में कैसे होवे इस शङ्काका समाधान शुद्धसमाचारीकार पं० प्र० यतिजी श्रीरायचन्द्रजी ऐसे करते हैं कि अधिक मासके सिवाय भी 'रविक्षेत्रगते जीवे, याने सूर्य्यका क्षेत्रमें गुरुका जाना होवें For Private And Personal Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १५ ] अर्थात् सिंहराशि पर गुरुका आना होवे तब सिंह गुरु सिंहस्थ तेरह मास तक कहा जाता है उसी में और 'जीवक्षेत्र गते रवी, याने गुरुका क्षेत्रमें सूर्यका जाना होवे अर्थात् गुरुका क्षेत्रमें सूर्य धन और मीन राशिपर पौष और चैत्र मासमें आता है तब उसीको मलमास कहे जाते हैं उसीमें अर्थात् सिंहस्थ का और मलमासका ऐसा योग बने तब गृहस्थको दीक्षा देना तथा साधुको सूरि वगैरह पद में स्थापन करना और प्रतिष्ठा करनी ऐसे कार्य नही करना चाहिये क्योंकि एसे योगमें दीक्षादि कार्य करनेसे इच्छित फलप्राप्त नही हो सकता है इसलिये उपरोक्तादि अनेक कारणयोगे मुहूर्त के निमित्त कारणसे जो जो कार्य करने में आते हैं सो निषेध किये हैं परन्तु आत्मसाधनका धर्मरूपी महान् कार्य तो बिना मुहूर्त्तका होनेसे किसी जगह कोई भी कारणयोगे निषेध करने में नहीं आया है और अधिक मासमें धर्मकार्य पर्युषणादि करनेका कोई शास्त्रमें निषेध भी नही किया है इसलिये अधिक मासादिमे धर्मकार्य अवश्यही करना चाहिये यह तात्पर्य शुद्धसमाचारी कारका जैनशास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक न्यायसम्मत होनेसे मान्य करने योग्य सत्य है इसलिये निषेध नहीं हो सकता है तथापि म्यायांभोनिधिजी अपनी कल्पित बातको स्थापनेके लिये शुद्धसमाचारीकारकी सत्य बातका निषेध करते हैं सोभी इस पंचमें कालके न्यायके समुद्रका नमुना है और शुद्धसमाचारीकार पं० प्र० यतिजी श्रीराय - चन्द्रजी थे, इसलिये ( हीरीके स्थानमें वीरीका विवाह कर दिया है) यह अक्षर न्यायांभोनिधिजीको बिना विचार For Private And Personal Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९६ ] किये ऐसे मिथ्या लिखना उचित नही था, इसका विशेष विचार पाठकवर्ग अपनी बुद्धिसे स्वयं कर लेना ; और ( इसी द्वितीय प्रकरण में ऐसा श्लोक है यथाहरिशयनेऽधिकमासे, गुरुशुक्रास्ते न लग्नमन्वेष्यं ॥ लग्न शांशाधिपयो,र्नीचास्तगमे च न शुभं स्यात् ॥१॥ भावार्थः अधिक मासादिक जितने स्थान बतायें उसमें शुभकार्य नही होते हैं तो अब बारा मासिक पर्युषणापर्व कैसे करनेकी सङ्गति होगी ) इस उपरके लेखसें न्यायांभोनिधिजीने अधिक मासमें पर्युषणा करनेका निषेध किया इस पर मेरेकों प्रथमतो इतनाही लिखना पड़ता है कि उपरके श्लोकका अधूरा भावार्थ लिखके न्यायाम्भोनिधिजीने भोले जीवोंकों भ्रममें गेरे हैं इसलिये इस जगह उपरके श्लोकका पूरा भावार्थ लिखने की जरूरत हुई सो लिखके दिखाता हूंहरिशयने, याने, जो श्रीकृष्ण जीका शयन (सोना) लौकिक में आषाढशुक्ल एकादशी (११) के दिनसे कार्तिकशुक्ल एकादशीके दिन तक चार मासका ( परन्तु मासवृद्धि दो श्रावणादि होनेसे पांच मासका ) कहा जाता हैं उसी में १, और वैशाखादि अधिक मासमें २, गुरुका अस्तमें ३, शुक्रका अस्तमें ४, और ज्योतिष शास्त्र मुजब लग्नके नवांशांका अधिपति नीचा हो ५, अथवा अस्त हो ६, इतने योगों में पण्डित पुरुषको लग्न नहीं देखना चाहिये क्योंकि उपरके योगोंमें लम देखे तो शुभ फल नही हो सकता है इसलिये ज्योतिषशास्त्रोंमें उपरके योगों में लग्न देखने की मनाई किवी है इस तरहसे उपरोक्त शोकका भावार्थ होता है ॥ १॥ अब न्यायाम्सोनिधिजीने नारचन्द्रके दूमरे प्रकरणका For Private And Personal Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९७ ] जो ऊपर में श्लोक लिखके पर्युषणा पर्वका निषेध किया है उस सम्बन्धी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं जिनमें प्रथमतो शुद्धतमाचारीकारने इसीही नारचन्द्र के दूसरे प्रकरणका जो लोक लिखाथा उनीको भावार्थ सहित में ऊपर में लिख आया हु - जिसमें खुलासे लिखा है कि तेरहनात तक सिंहस्थ में और पौष तथा चैत्र ऐसे मलमासमें मुहूर्त्त के निमित्तिक शुभकार्य नही होते हैं परन्तु बिना मुहूर्त्त का धर्म कार्य करने में हरजा नही क्योंकि तेरहमासका सिंहस्थ में पर्युषणादि धर्मकार्य्यं तो अवश्य ही करने में आते है और पौषमास में श्रीपार्श्वनाथस्वामिजीका जन्म और दीक्षा कल्याणकके धर्मकार्य और चैत्रमासमें श्री आदिजिनेश्वर भगवान्का जन्म और दीक्षा कल्याणकके धर्मकार्य करने में आते हैं और चैत्रमासमें ओलियांकी भी तपश्च वगैरह करने में आती है और खास अधिकमास में भी पाक्षिकादि धर्मकार्य करने में आता है इस लिये मुहूर्त्तके निमित्तिक कार्य्यं अधिकमास में नही हो सकते है परन्तु धर्मकार्थ्य तो बिना मुहूर्तका होनेसे अवश्यही करनेमें आता है यह तात्पर्य शुद्ध समाचारी कारका सत्यथा तथापि न्यायाम्भोनिधिजीनें (पृष्ठ १५० पंक्ति ६ में नारचन्द्र ज्योतिष ग्रन्थका प्रमाण दिया है सो तो होरीके स्थान में वीरीका विवाह कर दिया है ) ऐसा उपहातका वाक्य लिखके उपरोक्त सत्यबातका निषेध करदिया और फिर उसी स्थानका 'हरिशयने, इत्यादि श्लोक लिखके हरिशयने श्रीकृष्णजीका शयन ( सोना ) जो चौमासामें और अधिक मास में शुभकार्य का न होना दिखाकर पर्यु For Private And Personal Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९८ ] षणा पर्धका भी नहीं होनेका उत्सूत्र भाषणरूप दिखाते कुछ भी विचार न किया क्योंकि चौमासेमें मुहूर्त निमित्तिक शुभकार्य नही होते है परन्तु बिना मुहूत्तंका श्रीपर्युषणा पर्वतो खासकरके श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने वर्षा ऋतुमें करनेका कहा है जिसका किञ्चिन्मात्र भी न्यायाम्भोनिधिजी विचार न करते श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्धार्थमें और विद्वान् पुरुषों के आगे अपने नामकी हासी करानेका कारणरूप हरिशयन का चौमासमें और अधिक मासमें शुभकार्य का न होनेका दिखाकर पर्युषणापर्व न होनेका भोले जीवोंको दिखाया। हा अतीव खेदः इस उपरकी बातको पाठकवर्गको तथा न्यायाम्भोनिधिजीके परिवारवालोंकों और उन्होंके पक्षधारि. योकों (सत्यग्राही हो कर) दीर्घदृष्टि से बिचारनी चाहिये; दूसरा और भी सुनो----जो न्यायांभोनिधिजीके तथा उन्होंके परिवारवालोंके दिलमें ऐसाही होगा कि मुहूर्त के निमित्तका शुभकार्य न होवे वहां बिना मुहूर्त्तका धर्मकार्य भी नही होना चाहिये तब तो उन्होंके आत्माका सुधारा धर्मकार्योंके बिना होनाही मुश्किल होगा क्योंकि ज्योतिषशास्त्रोंके आरम्भसिद्धि ग्रन्थमें १, तथा लघु वृत्तिमें २, और वहद्वत्तिमें ३, जन्मपत्री पद्धतिमें ४, नारचन्द्र. प्रकरणमें ५, तथा तहिप्पणमें ६, लमशुद्धिग्रन्थमें , तत् पृत्तिमें ८, मुहूर्त्तचिन्तामणिमें ९, सहत मुहूर्तसिन्धुमें १० दूसरी मुहूर्त्तचिन्तामणिमें ११, तथा पीयूषधारा वृत्तिमें १२, मुहूर्तमार्तण्डमें १३, विवाह वृन्दावनमें १४, प्रथम और दूसरा विवाह पडल ग्रन्थमें १५-१६, चार प्रकरणका नारचन्द्र For Private And Personal Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १० ] में १७, रनकोषमै १८, लग्नचन्द्रिका, १९, ज्योतिषसारमें २०, और ज्योतिर्विदाभरण वृत्तिमें २१, इत्यादि अनेक ज्योतिष शास्त्रों में कितनेही मास १, कितनीही संक्रान्ति २, कितनेही वार ३, कितनीही तिथियां ४, कितनेही योग ५, कितनेही नक्षत्र ६, और जन्मका नक्षत्र , जन्मका मास ८, अधिक मास ९, क्षयमास १०, अधिक तिथि ११ क्षय तिथि "१२, व्यतीपात १३, और कृष्ण पक्षकी तेरस चौदश अमावस्या इन क्षीण तिथियों में १४, पापग्रहयुक्त चन्द्रमें १५, पापग्रह युक्त लममें १६, गुरुका अस्तमें १७, शुक्रका अस्तमें १८, गुरु शुक्रकी वाल और वृद्धावस्थामें १९, ग्रहणके सात दिनोंमें २०, लग्नका स्वामी नीचामें २१, और अस्समें २२, सन्मुख योगिनीमें २३, चन्द्रदग्ध तिथिमें २४,सन्मुख राहुमें २५, सिंहस्थ में २६, मलमासमें २७, हरिशयनका चौमासामें २८, भद्रामें २९, और तिथि, वार, नक्षत्र, लग्न, दिशा वगैरह आपसमें अशुभ योगोंमें ३०, इत्यादि अनेक निमित्त कारणोंमें मुहूर्त निमित्तिक शुभकार्य वजन किये हैं इस लिये न्यायां भोनिधिजी तथा उन्होंके परिवारवाले जो ज्योतिषशास्त्रों के 'अशुभ योगोंसें शुभकायौँका वजन देखके धर्मकायोंका भी वर्जन करेंगे तब तो उन्होंको धर्मकार्य कब करनेका वख्त मिलेगा अथवा शुभयोग बिना धर्मकार्य न करते किसीका आयुष्यपूर्ण हो जावे तो उन्हकी आत्माका सुधारा कब होगा सो पाठकवर्ग बुद्धिजन पुरुष विचार लेना-और मेरा इसपर आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको इतनाही कहना है कि न्यायांभोनिधिजी उपरोक्त ज्योतिष शास्त्रोंके शुभाशुभयोगों को न देखते सिंहस्यमें तथा हरिशयनका For Private And Personal Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०० ] चौमासामें और अधिक मासादिमें धर्मकार्य करते होवेंगे तब तो 'हरिशयनेऽधिके मासे इत्यादि उपरका श्लोक नारचन्द्रके दूसरे प्रकरण का लिखके अधिक मासादि जितने स्थान बताये उसमें शुभकार्य मही होता है, ऐसे अक्षर लिखके पर्युषणा पर्व करनेका निषेध भोले जीवोंको वृथा क्यों उत्सूत्र भाषणरूप दिखाया और उत्सूत्र भाषणका भय होता तो उपरकी मिथ्या बातों लिखी जिसका मिथ्या दुष्कृत्य देकरके अपनी आत्माकी शुद्धि करनी उचित थी और न्यायांभोनिधिजीके परिवारवालोंको ऐसा उत्सूत्र भाषणरूप मिथ्या बातोंका अब हट भी करना उचित नही हैइसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंसे मेरा यही कहना है कि ज्योतिषके शुभाशुभ योगोंका और सिंहस्थका, चौमासाका, अधिक मासादिक का विचार न करते, निःशङ्कित होकर श्रीजिनोक्त मुजब धर्मकार्योंमें उद्यम करके अपनी आत्माका कल्याण करो आगे इच्छा तुम्हारी ;__और आगे फिर भी न्यायांसोनिधिजीमें लिखा है कि [ रत्नकोषाख्य ज्योतिःशास्त्र विषे भी ऐसा कहा है यथा यात्रा विवाहमण्डन, मन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि, परिहर्तव्यानि बुद्धैः, सर्वाणि नपुंसके मासि ॥१॥ भावार्थः-यात्रामण्डन, विवाहमण्डन और भी शुभ कार्य है सो भी पण्डित पुरुषोंने सर्व नपुंसके मासि कहने से अधिक मासमें त्यागने चाहिये अब देखिये इस लेखसे भी अधिक मासमें अत्युत्तम पर्युषणापर्व करनेकी संगति नही हो सकती है ] For Private And Personal Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०१ ] इस लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्ग को दिखाता हुंजिसमें प्रथमतो न्यायांशोनिधिजीकों ज्योतिषग्रन्थका विवाहादि कार्योंका दृष्टान्त दिखा करके पर्युषणा पर्वका निषेध करनाही उचित नही है इसका उपरमें अच्छी तरहसे खुलासा हो गया है और दूसरा यह है कि श्री तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने मासवृद्धिको कालचूलाकी उत्तम ओपमा दिवी है तथापि न्यायांसोनिधिजीने तीनों महाशयोंका अनुकरण करके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्धार्थ में तथा इन महाराजोंकी आशातना का भय न करते मासद्धिको नपुंसककी तुच्छ ओपमा लिख करके भोले जीवों को अपने फन्दमें फसाये हैं सो वड़ाही अफसोस है और तीसरा यह है कि रत्नकोषाख्य (रत्नकोष) ज्योतिष शास्त्र में तो मुहर्तके निमित्तसें जो जो कार्य होते हैं उसी में अनेक कारण योग वजन किये हैं उसीकों सब को छोड़करके सिर्फ एक अधिक मास सम्बन्धी लिखते हैं सो भी न्यायांभोनिधिजीको अन्याय कारक है इसलिये मुहूर्त के कार्योंको दिखाकर बिना मुहूर्त्तका पर्युषणापर्व करनेका निषेध करना योग्य नहीं हैं। ___ और भी चौथा सुनो-(यात्रामण्डन, विवाहमण्डन और भी शुभकार्य है सोभी पण्डित पुरुषोंने सर्व नपुंसके मासि कहने से अधिक मासमें त्यागने चाहिये) इसपर मेरा इतना ही कहना है कि पूर्वोक्त तीनों महाशय और चौथे न्यायाम्भोनिधिजी यह चारों महाशय अधिकमासको नपुंसक कहके जो सर्व शुभकार्य त्यागने का ठहराते है। इससे तो यह सिद्ध होता है कि पौषध, प्रतिक्रमण, ब्रह्मचर्य, २६ For Private And Personal Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ! २०२ । दान, पुण्य, परोपगार, सात क्षेत्रमें द्रव्यखर्चना, जीव दया, देवपूजा, गुरुवन्दनादि देवगुरुभक्ति, साधर्मिकवात्सल्य, विनय, वैयावच्च, आत्मसाधनरूप स्वाध्याय, ध्यानादि, श्रावकके और धर्मोपदेशका व्याख्यानादि साधुके उचित जो जो शुभकार्य है उन्ही शुभकार्योंकों अधिक मासको नपुंसक कहके त्याग देनेका चारों महाशयोंने उपदेश किया होगा। भक्तजनोंको त्यागनेका नियम भी दिलाया होगा, आपने भी त्यागे होवेंगें और अधिक मासको नपुंसक कहके शुभकार्य चारों महाशय स्यागनेका ठहराते है इससे अशुभ कार्योका ग्रहण होता है इसलिये उपरोक्त कार्योसे विरुद्ध याने अधिक मामको नपुंसक जानके सर्व शुभकार्य त्यागते हुए--निन्दा, ईर्षा, झगड़ादि अशुभकार्य करनेका चारों महाशयोंने उपदेश किया होगा। दूष्टि रागियोंसे करानेका नियम भी दिलाया होगा और अपने भी ऐसे ही किया होगा। तब तो ( अधिक मासमें सर्वशुभकार्य त्यागनेका ) ज्योतिषशास्त्रका नामसें चारों महाशयोंका लिखके ठहराना उचित ठीक होसके परन्तु जो अधिक मासमें निन्दा ईर्षादि अशुभकाऱ्या त्यागके देवगुरुभक्ति वगैरह शुभकार्य चारों महाशयोंने करनेका उपदेश दिया होगा भक्तजनोंसे करानेका नियम भी दिलाया होगा और अपने भी उपरके अशुभ कार्योंका त्यागकरके शुभकार्योंको किये होवेंगे तबतो अधिक भासमें ज्योतिष शास्त्रका नाम लेकरके सर्व शुभकार्य त्यागनेका ठहराना चारों महाशयोंका भोले जीवोंको भ्रममें गेरके मिथ्यात्व बढ़ाने के सिवाय For Private And Personal Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०३ ] और क्या होगा सो बुद्धिजन सज्जन पुरुष स्वयं विचार लेना । अब पांचमा और भी सुनो कि जो न्यायाम्भोनिधिजी अधिक मासको नपुंसक कहके यात्रा मण्डनका शुभका त्यागनेका ठहराते है परन्तु जैनके और वैष्णव के अनेक तीर्थ स्थान है उसी में अमुक अधिकमास में अमुक तीर्थयात्रा बन्ध हुई कोई देशी परदेशी यात्री यात्रा करने को न आया ऐसा देखने में तो दूर रहा किन्तु पाठकवर्गके सुनने में भी नही आया होगा तो फिर न्यायाम्भोनिधिजीनें कैसे लिखा होगा सो पाठक वर्ग विचार लेना । और छठा यह है कि न्यायाम्भोनिधिजी किसी भी अधिक मासमें कोई भी श्रीशत्रजय वगैरह तीर्थस्थान में ठहरे होवे उस अधिक मासमें तीर्थयात्रा खास आपने fear होगी तो फिर अधिक मासमें यात्राका निषेध भोले जीवोंको वृथा क्यों दिखाया होगा सो निष्पक्षपाती सज्जन पुरुष स्वयं विचार लो ; और सातमी वारकी समीक्षा में कदाग्रहियोंका मिथ्यात्व रूप भ्रमको दूर करनेके लिये मेरेकों लिखना पड़ता है कि न्यायाम्भोनिधिजी इतने विद्वान् न्यायके समुद्र होते भी गच्छका मिथ्या हठवादसे संसार व्यवहार में विवाहादि बड़े ही आरम्भके कराने वाले और अधोगतिका रस्तारूप लौकिक कार्य्य न होनेका दृष्टान्त दिखाकर महान् उत्तमोत्तम निरारम्भी ऊङ्घ गतिका रस्ता रूप लोकोत्तर कार्य्यका निषेध करती वरूत न्यायाम्भोनिधिजीके विद्वत्ताको चातुराई किस जगह चलो गईथी सो प्रत्यक्ष असङ्गत और उत्सूत्र भाषणरूप लिखते For Private And Personal Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०४ } जरा भी विचार न आया क्योंकि विवाहादि कार्य्य तो चौमासामें और रिक्तातिथिमें तथा कृष्ण चतुर्दशी अमावस्यादि तिथि वगैरह कु वार कु नक्षत्र कु योगादि अनेक कारण योगों में निषेध किये हैं और श्रीपर्युषणादि धर्मकार्य तो विशेष करके चौमासामें रिक्तातिथिमें तथा कृष्ण चतुर्दशी अमावस्यादि तिथियों में कु वार कु नक्षत्र कु योगादि होते भी तिथि नियत पर्व करने में आते हैं इस बातका विवेक बुद्धिसें हृदयमें विचार किया होता तो विवाहादि कार्यों का दृष्टान्तसे महान् उत्तम पर्युषणा पर्व करनेका निषेध के लिये कदापि लेखनी नही चलाते यह बातपाठकवर्गको अच्छी तरहसे विचारनी चाहिये ;--- और भी आठमी तरहसे सुन लीजिये-कि पूर्वोक्त तीनों महाशयोंने और चौथे न्यायांभोनिधिजीने भोले जीवों के आत्मसाधनका धर्मकायों में विघ्नकारक, अधिक मासको तुच्छ नपुंसकादिसे लिखा है सो निःकेवल श्रीतीर्थकर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणरूप प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि धर्मकार्यों में अधिक मास उत्तम श्रेष्ठ महान् पुरुषरूप है ( इसलिये अधिक मासमें धर्मकायौंका निषेध नही हो सकता है) इस बातका विशेष विस्तार दृष्टान्त सहित युक्तिके साथ अच्छी तरहसे सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा करने में आवेगा सो पढ़नेसे सर्व निःसन्देह हो जावेगा ; और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीने अधिक माम को निषेध करनेके लिये जैन सिद्धान्तसमाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ ९२ की पंक्ति १७ सै पृष्ठ ३ की आदिमें अई पंक्ति तक For Private And Personal Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०५ ] लेख लिखके अपनी चातुराई प्रगट किवी हैं उसीका उतारा नीचे मुजब जानो [अधिक मासको अचेतन रूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है तो औरोको अङ्गीकार न करना इसमें तो क्याही कहना देखो आवश्यक नियुक्ति विषे कहा है यथाजइ फुल्ला कणिआरडा, चूअग अहिमासयंमिघुठंमि । तुहनखमं फुल्लेउ, जइ पच्चंता करिति इमराई ॥१॥ भावार्थः हे अंब अधिक मासमें कणियरको प्रफुल्लित देखके तेरेको फुलना उचित नही है क्योंकि यह जाति बिनाके आडम्बर दिखाते हैं अब देखिये हे मित्र यह अच्छी जातिको वनस्पति भी अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होती है] ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गकों दिखाता हुं-कि हे सज्जन पुरुषों न्यायाम्भोनिधिजीने प्रथमतो ( अधिकमासको अचेतनरूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है ) यह अक्षर लिखे है सो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि दशलक्ष प्रत्येक वनस्पति तथा चौदह लक्ष साधारण वनस्पति यह चौवीश लक्ष योनीकी सब वनस्पति अवश्यमेव अधिक मासमें हवा पाणीके संयोगसे यथोचित नवीन पैदाश होती है औरवृद्धि पामती है प्रफुल्लित होती है और निमित्त कारणसें नष्ट भी होजाती है जैसे बारह मासोंमें हानी वृद्धयादि वनस्पतिका स्वभाव है तैसे ही अधिक मास होनेसे तेरह मासों में भी बरोबर है यह बात अनादि कालसें चली आती है और प्रत्यक्ष भी दिखती है क्योंकि इस संवत् १९६६ का लौकिक पञ्चाङ्गमें दो For Private And Personal Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ २०६ ] श्रावण मास हुवे है तब भी दोनु श्रावण मास में वर्षा भ खूब ( गहरी ) हुई है तथा वनस्पति को भी नवीन पैदा होते वृद्धि होते और हानी होते पाठकवर्गने भी प्रत्यक्ष देखा है और देश परदेशके सब वगीचों में मी दोनं मासोंमें फलों करके तथा फूलों करके वृक्ष प्रफुल्लित पाठकवर्गके देखनेमें आये होंगें और हरेक शहरोंमें वनमालि लोग अधिक मासमें शाक, भाजी, फल, फूल, वेचते हुवे सब पाठकवर्गके देखने में आते हैं यह बात तो हरेक अधिक मासमें प्रत्यक्ष देखनेमें आती है परन्तु कोई भी अधिक मासमें कोई भी देशमें कोई भी शहरमें शाक, भाजी, फल, फूलादि नवीन पैदा नही होते हैं तथा शहरमें भी वनमालि लोग बेचनेको नही आये हैं वैसा तो कोई भी पाठकवर्गके सुननेमें भी कभी नही आया होगा । यह दुनिया भर की जगत् प्रसिद्ध बात है इस लिये अधिक मासको वनस्पति अवश्य ही अङ्गीकार करती है तथापि न्यायाम्भोनिधिजीने (अधिकमासको अचेतनरूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है ) यह प्रत्यक्ष मिथ्या भोले जीवोंको अपना पक्षमें लाने के लिये लिख दिया यह बड़ा ही अफसोस है । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir और फिर भी न्यायाम्भोनिधिजी ( अधिक मासको अचेतनरूप वनस्पति भी नही अङ्गीकार करती है तो औरोको अङ्गीकार न करना इसमें तो क्याही कहना ) इस लेखको लिखके मनुष्यादिकोंको अधिक मास अङ्गीकार नही करनेका ठहराते है इस पर तो मेरेकों इतनाही कहना है कि न्यायाम्भोनिधिजीके कहनेसें तो सब दुनिया के सब लोगोंकों अधिक मासमें खाना, पीना, सोना, बैठना, For Private And Personal Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०७ । लेना, देना, स्त्रियोंकों गर्भका होना और वृद्धि पामना, जन्मना, मरणा, और संसारिक व्यवहारमें व्यापारादि कृत्य करना, दुनीयामें रोगी, तथा निरोगी होना, और दान पुण्यादि भी करना, इत्यादि पाप और पुण्यके कार्य करना ही नही होता होगा तब तो मनुष्यादिकोंकों अधिक मास अङ्गीकार नही करनेका ठहराना न्यायाम्भोनिधिजीका बन सके परन्तु जो ऊपरके कहे, पाप, पुण्यके, कार्य्य दुनियाके लोग अधिक मासमें करते है इस लिये न्यायाम्भोनिधिजी का उपरका लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या होनेसे पक्षपाती हठयाहीके सिवाय आत्मार्थी बुद्धिजन कोई भी पुरुष मान्य नही कर सकते है इसको विशेष पाठकवर्ग विचारलेना ; और आगे फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीने श्रीआवश्यक नियुक्तिकी गाथा लिखी है सो भी नियुक्तिकार श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुखामिजीके विरुद्धार्थमें उत्सूत्रभाषणरूप और इस गाथाका सम्बन्ध तथा तात्पर्य समके बिना भोले जीवोंकों संशयमें गेरे हैं इसका विशेष विस्तार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नाम की समीक्षामें अच्छी तरहसे किया जावेगा सो पढ़के सर्वनिर्णय करलेना-और फिर भी न्यायाम्भोनिधिजीने श्रीआवश्यक नियुक्तिकी गाथाका भावार्थ लिखा है कि ( हे अंब अधिक मासमें कणियरको प्रफुल्लित देखके तेरेको फूलना उचित नहीं है क्योंकि यह जाति बिनाके आडम्बर दिखाते हैं ) इस लेखसे अधिक मासमें कणियरको फूलना ठहराते अंबको नही फूलना ठहराकर कणियरको तुच्छ जातिकी और अंबको उत्तम जातिका ठहराते हैं सोभी इन्होंकी समझमें फेर है क्योंकि For Private And Personal Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०८ ] कणियर तो सबीही मासोंमें फूलती है और आंबे भी सबीही मासोंमें फूलके फलते है सो कलकत्ता, मुंबई वगैरह शहरोंके अनेक पुरुष जानते है । और कणियर तो उत्तम जातिकी और अंब तुच्छ जातिका कारण अपेक्षा से ठहरता है इसका विशेष खुलासा सातवे महाशयको समीक्षामें करने में आवेंगा और आगे फिर भी श्रीआवश्यक निर्युक्ति की गाथा पर न्यायाम्भोनिधिजीनें अपनी चातुराई को प्रगट feat है कि ( अब देखीये हे मित्र यह अच्छी जातिकी वनस्पति भी अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होती है) इस उपरके लेखकी समीक्षा पाठकवर्गकों सुनाता हुं कि न्यायांभोनिधिजी अच्छी जातीको वनस्पतिको अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होनेका ठहराते हैं। इस न्यायानुसार तो न्यायांभोनिधिजी तथा इन्होंके परिवारवाले भी जो अच्छी जातिकी वनस्पतिका अनुकरण करते होवेंगे तब तो अधिक मासको तुच्छही जानके खाना, पीना, देव दर्शन, गुरु वन्दन, विनय, भक्ति, वृद्धादिककी वैयावच्च, धर्मोपदेशका व्याख्यान, व्रत, प्रत्याख्यान, देवसी, राई, पाक्षिक प्रतिक्रमणादि कार्य्य करके अपनी आत्माकों पापकृत्योंसे आलोचित देखकरके हर्षसें प्रफुल्लित चित्तवाले नही होते होवेंगे तब तो उपरका लेख वनस्पति सम्बन्धीका लिखना ठीक हैं और उपर कहे सो कृत्योंसे आप हर्षित होते होवेंगे तब तो वनस्पतिकी बातको लिखके भोले जीवोंको श्रीजिनाज्ञारूपी रत्नसे गेरनेका कार्य करना सो प्रत्यक्ष मिथ्यात्वका कारण है, और विद्वान् पुरुषोंके आगे हास्यका हेतु है सो बुद्धिजन पुरुष विचार लेना ; - For Private And Personal Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०९ ] और भी दूसरा सुनो अचेतनरूप वनस्पतिको यह अ. वक मास उत्तम है किंवा तुच्छ है इस रीतिका कोई भी प्रकारका ज्ञान नही है इसलिये ( अच्छी जातिकी वनस्पति भी अधिक मासको तुच्छही जानके प्रफुल्लित नही होती है ) यह अक्षर न्यायांभोनिधिजीके प्रत्यक्ष मिथ्या है। और भी मेरेकों बड़े ही अफसोसके बाथ लिखना पड़ता है कि न्यायाम्भोनिधिजीनें उपरमें वनस्पति सम्बन्धी उटपटाङ्ग लेख लिखते कुछ भी पूर्वापरका विचार विवेक बुद्धिसे नही किया मालुम होता है क्योंकि - प्रथम । ( अधिकमास को अचेतनरूप वनस्पति भी नहीं अङ्गीकार करती है) यह अक्षर लिखे फिर आगे श्रीआवश्यक निर्युक्लि की गाथा ( शास्त्रकार महाराजके विरुद्धार्थमें ) लिखके भी भावार्थ में दूसरा । ( हे अम्ब अधिक मासमें कणियरको प्रफुल्लित देखके तेरेको फुलना उचित नही है ) यह लिख दिया है इससे सिद्ध हुवा कि अधिकमासको वनस्पति जो कणियरकी जाति उसीने अङ्गीकार किया और प्रफुलित हुई और वनस्पतिकी जाति अंबा भी अधिक मासको अङ्गीकार करके प्रफुल्लित होताथा तब उसको कहा कि तेरेकों फूलना उचित नही है । अब पाठकवर्ग विचार करो कि प्रथमका लेखमें अधिक मासको वनस्पति अङ्गीकार नही करनेका लिखा और दूसरे लेखमें अधिक मासमें वनस्पतिकों फूलना अङ्गीकार करनेका लिखदिया इसलिये जो न्यायाम्भोनिधिजी प्रथम का अपना लेख सत्य ठहरावेंगे तो दूसरा लेख मिथ्या हो जावेगा और दूसरा लेखको सत्य ठहरायेंगे तो प्रथनका डेब २७ For Private And Personal Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २९० ] मिथ्या हो जावेगा इसलिये पूर्वापर विरोधी (वित्तम्बादी) वाक्य लिखनेका जो विपाक श्रीधर्मरत्नप्रकरणकी वृत्तिमें कहा है (सो पाठ इसी ही पुस्तकके पृष्ठ ८६ । ८७।८८ में उप गया है) उसीके अधिकारी न्यायाम्भोनिधिजी ठहर गये सो पाठकवर्ग विचार लेना; और अधिकमासकों तुच्छ न्यायाम्भोनिधिजी ठहराते हैं सो तो निःकेवल श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातनाका कारण करते है क्योंकि श्रीतीर्थङ्करादि महाराजोंने अधिकमासको उत्तम माना है (इसका अधिकार इसी ही पुस्तकमें अनेक जगह वारम्वार छपगया है और आगे भी छपेगा ) इस लिये अधिकमासको तुच्छ न्यायाम्भोनिधिजी को लिखना उचित नहीं था सो भी पाठकधर्म विचार लो;. और आगे फिर भी जैन सिद्धान्त समावारीकी पुस्तकके पृष्ठ ९३ की प्रथम पंक्ति से १२ वी पंक्ति तक ऐसे लिखा है कि (हे परीक्षक और भी युक्तियां आपको दिखाते है कि यह जगतके लोक भी बारामासमें जिस जिस मासके साथ प्रतिबद्धकार्य होते है सो तिस तिस मासमें अधिक मासको छोड़के अवश्य ही करते है जैसे कि आशोज मास प्रतिबद्ध दीवालीपर्व अधिक मासको छोड़के आसोज मासमें ही करते है और आम्बलकी ओली छ मासके अन्तरमै करनेको भी अधिक मासको छोड़के आसोज भासमें और चैत्रमासमें करते है ऐसे अनेक लौकिक कार्य भी अपने माने मासमें ही करते है परन्तु आगे पीछे कोई भी नही करते है तो हे मित्र भाद्रवमास प्रतिबद्ध ऐसा परम पर्युषणा For Private And Personal Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१९ ] पर्व और मासमें करना यह सिद्धान्तसें भी और लौकिक रीतिमें भी विरुद्ध है) यह न्यायाम्भोनिधिजी का उपरोक्त अपनी पुस्तकके पृष्ठ ९३ की पंक्ति१२ वी तकका लेख है;___ इस उपरके लेखकी विशेष समीक्षा खुलासाके साथ लौकिक और लोकोत्तर दृष्टान्त सहित युक्ति पूर्वक पांचवें महाशय न्यायरत्न जी श्रीशान्तिविजयजीके नामसे और सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामसें करने में आवेगा तथापि संचितसे इस जगह भी करके दिखाता हुं जिसमें प्रथमतो अधिक मासको निषेध करने के लिये न्यायाम्भो. निधिजी तथा इन्होंके परिवारवाले और इन्होंके पक्षधारी एक दो छोड़के हजारों कुयुक्तियां करके बालदृष्टि रागियों को दिखाकर अपने दिल में खुती माने परन्तु जैन शास्त्रोंकी स्थाद्वादशैलीके जानकार आत्मार्थी विद्वान् पुरुषों के आगे एक भी कुयुक्ति नही चल सकती है किन्तु कुयुक्तियांक करने वाले उत्सूत्र भाषणका दूषणके अधिकारी तो अवश्यही होते हैं इस लिये उपरके लेख में न्यायांभोनिधिजीने युक्तियां के नामसे वास्तविकमें कुयुक्तियां दिखा करके अधिक मासको गिनतीमें निषेध करना चाहा सो कदापि नही हो सकता है क्योंकि दीवाली ( दीपोत्सव) और ओलियां यह दोन कार्य जैन शास्त्रों में लोकोत्तर पर्वमे माने हैं सो प्रसिद्ध है तथापि न्यायांभोनिधिजी ओलियांकों लौकिक पर्व लिखते कुछ भी मिथ्या भाषणका भय न किया मालुम होता है, और दीवाली शास्त्रकारोंने कार्तिक मास प्रतिबद्ध कही है सो जगत् प्रसिद्ध है और मारवाड़ पूर्व पञ्जाबादि देशोंके जैनी अच्छी तरहसे जानते हैं और खास न्यायांभोनिधिजी For Private And Personal Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१२ ] पडाव देशके होते भी और अनेक शास्त्रों में कार्तिकमासका सुलासासें लिखा होते भी भोले जीवोंके आगे अपनी बात जमानेके लिये अपने देशकी और शास्त्र की बातको छोड़कर अनेक शास्त्रोंका पाठ भी छोड़ते हुए, गुजराती भाषाका प्रमाण लेकरके आसोज मास प्रतिबद्धा दीवाली लिखते हैं सो भी विचारने योग्य बात है और अधिक मास होनेसे अवश्य करके सातमें मासे ओलियां करने में आती हैं तथापि न्यायांभोनिधिजीने अधिक मास होते भी छ मासके अन्तर में लिखा हैं सो मिथ्या है और जैन शास्त्रों में तथा लौकिक में जो जो मास तिथि नियत पर्व है सो अधिक मास होने सें प्रथम मासका प्रथम पक्षमें और दूसरे मासका दूसरा पक्ष में करनेमें आते हैं इस बातका विशेष निर्णय शा समाधान सहित उपरोक्त पांच में और सातमें महाशयके नामकी समीक्षामें आगे देखके सत्यासत्यका पाठक वर्ग स्वयं विचार करलेना और आगे फिर भी न्यायांसोनिधिजीने लिखा है कि ( हे मित्र भाद्रव मास प्रतिबद्ध ऐसा परम पर्युषणापर्व और मासमें करना यह सिद्धान्तसे भी और लौकिक रीतिसे भी विरुद्ध है ) इस लेखसे न्यायांभोनिधिजी दो श्रावण होते भी भाद्रव मास प्रतिबद्ध पर्युषणा ठहरा करके दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालोंकों सिद्धान्त से और लौकिक रीतिसे भी विरुद्ध ठहराते हैं सो निःकेवल आपही उत्सूत्र भाषण करते हैं क्योंकि दो प्रावण होनेसे श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छादिके अनेक पूर्वाचाव्योंने दूसरे प्रावणमें पर्युषणापर्व करनेका अनेक For Private And Personal Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१५ ] शास्त्रों में कहा है और प्राचीन कालमें भी मासवद्धि होने में प्रावण मास प्रतिबद्ध पर्युषणा थी इसलिये मासवद्धि दो श्रावण होते भी भाद्रव मास प्रतिबद्ध पर्युषणा ठहराना शास्त्रविरुद्ध है और दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालोंको सिद्धान्तसें और लौकिक रीतिसे विरुद्ध ठहराना सो भी प्रत्यक्ष मिथ्या भाषण कारक हैं इसका उपरमें अनेक जगह विस्तारसे छपगया है और आगे विशेष विस्तार सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षामें करनेमें आवेगा;____ और आगे फिर भी न्यायांभोनिधिजीने पर्युषणा सम्बन्धी अपना लेख पूर्ण करते अन्तमें पृष्ठ ९३ पंक्ति१३ सें पंक्ति १० तक ऐसे लिखा है कि [ पूर्वपक्ष पृष्ठ १५७ में लिखे हुए पाठका कुछ भी समाधान न किया उत्तर-हे परीक्षक अधिक मासको जब कालचूला मान लिया तो शास्त्रके लिखे हुए ५० दिन भी सिद्ध होगये और ७० दिन भी सिद्ध होगये तो फिर काहेको अपने अपने मासमें नियत धर्मकार्य छोड़के और और कल्पना करके आग्रह करना चाहिये ] यह उपरका लेख न्यायांशोनिधि जीका शास्त्रोंके विरुद्ध और मायाशत्तिका भोले जीवोंकों भ्रमानेके वास्ते है क्योंकि प्रथम तो शुद्धसमाचारीके पृष्ठ १५७ में श्रीकल्पसूत्रका मूल (सवीसइ राइमासे इत्यादि ) पाठ लिखा है और दूसरा श्रीवहत्कल्पचूर्णिका पाठसे प्राचीनकालकी अपेक्षायें पांच पांच दिनकी वृद्धि करते दशवें पञ्चक में पचास दिने पर्युषणा दिखाई है और उसी श्रीवह कल्पकी चूर्णिमें अधिक मासको निश्चयके साथ अवश्य - गिनती में लेना कहा है जिसका पाठ आगे छठे महाशय For Private And Personal Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१४ ] श्रीवल्लभ विजयजीके नामकी समीक्षामें लिखने में आवेगा, इसलिये शुद्ध समाचारीकी पुस्तकके पृष्ठ १५७ का पाठ सम्बन्धी पूर्वपक्ष उठाकर उसीका उत्तरमें अधिक मासकी गिनती निषेध करना सो तो प्रत्यक्ष न्यायाम्भोनिधिजीका शास्त्र विरुद्ध उत्सूत्र भाषण रूप है ; और दूसरा यह भी सुन लीजीये कि-श्रीनिशीथ चूर्णि कार श्रीजिनदास महत्तराचार्यजी पूर्वधर महाराजने और श्रीदशवकालिक सूत्रके प्रथम चूलिकाकी वृहद्घत्तिकार सुप्रसिद्ध श्रीमान् हरिभद्र सूरिजी महाराजने अधिकमासको कालचूलाकी उत्तम ओपमा गिनती करने योग्य लिखी है तथापि इन महाराजके विरुद्धार्थ में न्यायाम्भोनिधिजी इतने विद्वान् होते भी अधिक मासको कालचूला मानते भी निषेध करते है सो बड़ी ही विचारने योग्य आश्चर्य की बात है ;___ और दो श्रावण होनेसे भाद्रपदतक ८० दिन होते है तथा दो आश्विन होनेसे कार्तिक तक १०० दिन होते है तथापि ८० दिनके ५० दिन और १०० दिनके १० दिन न्यायाम्भोनिधिजीने अपनी कल्पनासें काल वूलाके बहाने बनाये सो कदापि नही बन सकते है इसका विस्तार तीनों महाशयों की और खास न्यायाम्भोनिधिजीकी भी समीक्षा में अच्छी तरहसे उपरमें छप गया है सो पढ़के सर्वनिर्णय कर लेना:-और दो श्रावण मास होनेसें दूसरे प्रावण मास प्रतिबद्ध पर्युषणा पर्व है इसलिये दो श्रावण होते भी भाद्रव मासकी भ्रान्ति करना शास्त्र विरुद्ध है और अब न्यायाम्भोनिधिजीके नाम की पर्युषणा सम्बन्धी समीक्षा के अन्त में For Private And Personal Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीजिनाजाके आराधक सत्यग्राही सज्जन पुरुषोंसे मेरा यही कहना है कि जैसे पूर्वोक्त तीनों महाशयोंने अपने विद्वत्ताकी कल्पित बात जमानेके लिये पूर्वापर विरोधी तथा उटपटाङ्ग और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्ध और अनेक शास्त्रोंके पाठोंको उत्यापन करके अपना अनन्त संसार वृद्धिका भय नही किया तैसें ही चौथे महाशय न्यायाम्भोनिधिजीने भी तीनों महाशयोंका अनुकरण करके पूर्वापर विरोधी तथा उटपटाङ्ग और प्रीतीर्थङ्करगणधरादि महाराजोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषण करने में कुछ भी भय नही किया परन्तु मैंने भी भव्य जीवोंके शुद्ध श्रद्धा होनेके उपगारकी बुद्धिसे शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक सत्य बातोंका देखाव करके कल्पित बातोंकी समीक्षाकर दिखाइ है उसीको पढ़के सत्य बातका ग्रहण और असत्य बातका त्याग करके अपनी आत्माका कल्याण करने में उद्यम करेंगे और दृष्टिरागका पक्षपातकों न रखेंगे यही मेरा पाठक घर्गको कहना है ;___ और न्यायाम्भोनिधिजीके लेख पर अनेक पुरुष संपूर्ण रीतिसें पूरा भरोसा रखतेथे कि न्यायाम्भोनिधिजी जो लिखेंगे सो शास्त्रानुसार सत्यही लिखेंगे ऐसा मान्यकरके उन्होंसे पूज्यभाव बहोत पुरुषोंका है। और मेरा भी था परन्तु शास्त्रों का तात्पर्य्य देखने से जो जो न्यायांभोनिधि जीने महान् उत्सूत्र भाषणरूप अमर्थ किया सो सो सब प्रगट होगया जिसका नमुनारूप पर्युषणा सम्बन्धी न्यायाम्भो. निधिजीने कितनी जगह प्रत्यक्ष मिथ्या और उत्सूत्र भाषण किया है सो तो उपरकी मेरी लिखी हुई समीक्षा पढ़ने में For Private And Personal Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २९६ ] urohant प्रत्यक्ष दिख जायेंगा तथा और भी न्यायाम्भोनिधिजीनें जैन सिद्धान्तसमाचारी नामको पुस्तकमें अनुमान १५० अथवा १६० शास्त्रोंके विरुद्धार्थमें अनेक जगह प्रत्यक्ष मिथ्या तथा अनेक जगह मायावृत्तिरूप और अनेक जगह शास्त्रोंके आगे पीछे के पाठ छोड़के अधूरे अधूरे तथा शास्त्र कारके अभिप्रायके विरुद्ध अनेक जगह अन्याय कारक और अनेक सत्यबातोंका निषेध करके अपनी कल्पित बातोंका उत्सूत्र भाषणरूप स्थापन इत्यादि महान् अनर्थ करके भोले दृष्टिरागी गच्छ कदाग्रही बालजीवोंकों श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाका मोक्षरूपी रस्तापरसें गेरके संसाररूपी मिथ्यात्व का रस्तामें फसानेके लिये जैन सिद्धान्त समाचारी, पुस्तक का नाम रखके वास्तविकमें अनन्त संसारकी वृद्धिकारक मिथ्यात्वरूप पाखण्डकी समाचारी न्यायाम्भोनिधिजीनें प्रगट करके अपनी आत्माकों इस संसाररूपी समुद्र में क्या क्या इनामके योग्य ठहराई होगी तथा अब इन्होंके परिवार वाले और इन्होंके पक्षधारी भी उसी मुजब वर्तते है जिन्होंकों इस संसार में क्या इनाम प्राप्त होगा सो श्रीज्ञानीजी महाराज जानें ; - इस लिये श्रीसङ्घकों और न्यायाम्भोनिधि जीके पक्षधारी तथा इन्होंके परिवार वालोंको उपर की पुस्तक सम्बन्धी बातोंके लिये मेरा अभिप्राय इस पुस्तक के अन्तमें विनती पूर्वक जाहिर करनेमें आवेगा और पांचवें महाशय न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजी तथा छठे महाशय श्रीवल्लभविजयजी और सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा में प्रसङ्गोपात थोड़ी थोड़ी बातोंका उपर की पस्तक सम्बन्धी दर्शाव भी करनेमें आवेगा ;इति चौथें महाशय न्यायाम्भोनिधिजी श्रीआत्मारामजीके नामकी पर्युषणा सम्बन्धी संक्षिप्त समीक्षा समाप्तः ॥ For Private And Personal Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१७ ] अब आगे पांचवें महाशय न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजीने मानवधर्मसंहिता नामा पुस्तकमें जो पर्युषणा सम्बन्धी लेख अधिक मासको निषेध करनेके लिये लिखा है उसकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हु जिसमें प्रथमतो मानवधर्मसंहिता पुस्तकके पृष्ठ ८०० की पंक्ति १७ वीं से पृष्ठ ८०१ की पंक्ति २१॥ तक जैसा न्यायरत्न जी का लेख है वैमाही नीचे मुजब जानो ; [दो श्रावण होतो भी भादवेमें ही पर्युषणापर्व करना चाहिये, अगर कहा जाय कि-आषाढसुदी १४ चतुर्दशीसें ५० रोज लेना कहा यह कैसे सबुत रहेगा ? जबाब-कल्पसूत्रकी टीकामें पाठ है कि-अधिकमास कालपुरुषकी चूलिका यानी चोटी है, जैसे किसी पुरुषका शरीर उचाईमें नापा जाय तो चोटीकी लंबाई नापी नही जाती, इसी तरह कालपुरुषकी चोटी जो अधिकमास कहा सो गिनती में नही लिया जाता, कल्पसूत्रकी टीकाका पाठ कालचूलेत्यविवक्षणादिनानां पञ्चाशदेव,-अगर लिया जाता हो तो पयुषणा पर्व-दूसरे वर्ष श्रावणमें और इस तरह अधिक महिनों के हिसाबमैं हमेशां उक्त पर्व फिरते हुवे चले जायगें, जैसे मुसल्मानों के ताजिये-हर अधिक मासमें बदलते रहते हैं, दूसरा यह भी दूषण आयगा कि-वर्षभरमें जो तीन चातुमासिक प्रतिक्रमण किये जाते हैं उनमें पञ्चमासिक प्रतिक्रमणपाठ बोलना पड़ेगा, शीतकालमें और उष्णकालमें तो अधिक महिना गिनतीमें नहीं लाना और चौमासेमें गिनती में लाकर श्रावणमें पर्युषणा करना किस न्यायकी बात हुई ? अगर कहा जाय कि-पचास दिनकी गिनती For Private And Personal Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । २९८ । लिइ जाती है तो पिछले ७० दिनकी जगह १०० दिन हो जायगें, उधर दोष आयगा, संवत्सरीके पीछे ७० दिन शेष रखना-यह बात समवायाङ्गसूत्र में लिखी है-उसका पाठ-वासाणं सवीसयराए मासे वइक ते सत्तरिराइंदिएहिं सेसै हिं, इसलिये वही प्रमाण वाक्य रहेगा कि-अधिकमास कालपुरुषकी चोटी होनेसें गिनतीमें नहीं लेना, अधिक महिनेकों गिनतीमें लेनेसें तीसरा यह भी दोष आयगा कि-चौईस तीर्थङ्करों के कल्याणिक जो जिस जिस महिनेकी तिथिमें आते हैं गिनतीमें वे भी बढ़ जायगें, फिर क्या । तीर्थङ्करोंके कल्याणिक १२० से भी ज्यादे गिनना होगा ? कभी नही, इस हेतुसे भी अधिकमास नही गिना जाता अधिक महिनेके कारण कभी दो भादवे हो तो दूसरे भादवेमें पर्युषणा करना चाहिये जैसें दो आषाढमहिने होते हैं तब भी दूप्तरे आषाढ़में चातुर्मासिककृत्य किये जाते हैं वैसे पर्युषणा भी दूसरे भादधेमे करना न्याययुक्त है।] ___अब न्यायरत्न जीके उपरका लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हु जिसमें प्रथमतो ( दी श्रावण हो तो भी भादवें मेंही पर्युषणापर्व करना चाहिये) यह लिखना न्यायरत्नजीका शास्त्रों में विरुद्ध है क्योंकि खास न्यायरत्नजीकेही परमपूज्य श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्योंने दो श्रावण होने में दूसरे श्रावणमें पर्युषणापर्व करनेका कहा है जिसका अधिकार उपरमें अनेक जगह और खास करके चारों महाशयोंके नामकी समीक्षामें अच्छी तरह से छपगया है इसलिये दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें अपने पूर्वजों के विरुद्धार्थ में पर्यु. घणापर्व स्थापन करना न्यायरत्नजीको उचित नही है। For Private And Personal Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २९ ] और दूसरा यह है कि श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महान् उत्तम पुरुषोंने सूत्र, चूर्णि, भाष्य, वृत्ति, नियुक्ति प्रकरणादि अनेक शास्त्रों में मासवृद्धिके अभावसे भाद्रपदमें पचास दिने पर्युषणा करनी कही है परन्तु एकावन ५१ में दिने श्रीजिनाज्ञाके आराधक पुरुषोंकों पर्युषणा करना नही कल्पे और एकावन दिने पर्युषणा करने वालोंकों श्री जिनाज्ञाके लोपी कहे है सो प्रसिद्ध है तथापि न्यायरत्नजी इतने विद्वान् हो करके भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके वधनको प्रमाण न करते हुए अनेक सूत्र, घूर्यादि शास्त्रों के पाठोंको उत्थापते हुए मासवृद्धि दो श्रावण होते भी ८० दिने भाद्रपदमै पर्युषणापर्व करनेका लिखते कुछ भी उत्सूत्र भाषणका भय नही करते हैं यह वड़ाही अफसोस है;___ और दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें पर्युषणा करनेसे प्रत्यक्ष ८० दिन होते हैं तथा अधिकमास भी शास्त्रानुसार और न्याययुक्ति सहित अवश्य निश्चय करके गिनतीमें सर्वथा सिद्ध है सो उपरमें अनेक जगह छपगया है इसलिये अधिक मासकी गिनती निषेध करना भी उत्सत्र भाषणरूप अन्याय कारक है तथापि न्यायरत्नजीने उत्सत्र भाषणका विचार न करते अधिक मासको गिनतीमें निषेध करने के लिये जो जो विकल्प करके शास्त्रोंके विरुद्धार्थ में भोले जीवोंकी श्रद्धाभङ्ग होनेके लिये लिखा है उसीकी समीक्षा करता हु जिसमें प्रथमतो दो श्रावण होनेसे भाद्रपद तक ८० दिन होते हैं जिसका अपनी कल्पमासे ५० दिन बनानेके लिये न्यायरत्नजी लिखते है कि[ कल्पसूत्रकी टीकामें पाठ है कि अधिकमास काल. For Private And Personal Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२० ] पुरुषकी चूलिका यानी चोटी है जैसे किसी पुरुषका शरीर उचाई में नापा जाय तो चोटीकी लंबाई नापी नही जाती है इसी तरह कालपुरुषकी चोटी जो अधिकमास कहा सो गिनती में नही लिया जाता कल्प पत्र की टीकाका पाठ कालचूलेत्यविवक्षणादिनानां पञ्चाशदेव ] इस उपरके लेख में न्यायरत्न जीने अधिकमासको कालपुरुषकी चोटी लिखकर गिनती में नही लेनेका ठहराया है सो निःकेवल श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्वार्थ में उत्सूत्र भाषणरूप है. क्योंकि श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अधिक मासको दिनों में पक्षोंमें मासोंमें वर्षों में अनादिकाल हुवा निश्चय करके गिनती में लिया है आगे लेवेंगे और वर्तमान कालमें भी श्रीसीमंधर स्वामीजी आदि तीर्थङ्कर गणधरादि महाराज महाविदेह क्षेत्रमें अधिक मासको गिनतीमें लेते हैं तैसेही इस पञ्चमें कालमें भरत क्षेत्रमें भी अनेक आत्मार्थी पुरुष अनेक शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक देशकालानुसार अधिक मासको अवश्यही गिनतीमें लेते हैं इस बातका अनेक जगह उपरमें अधिकार छपगया है और आगे भी छपेगा इसलिये अधिकमासकों गिनती में नही लेनेका ठहराना न्यायरत्नजीका उत्सूत्र भाषणरूप होनेसे प्रमाणिक नही हो सकता है। और न्यायरत्नजी अधिक मासको कालपुरुषकी चलिका कहकर चोटी अर्थात् घासकी तरह केशांकी चोटीवत् लिखते हैं सो भी शास्त्रोंके विरुद्ध है क्योंकि श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने चूलिका याने शिखरकी ओपमा गिनती करने योग्य दिवी है । जैमे। लक्ष योजनका सुमेरु For Private And Personal Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२१ ] पर्वतके चालीश योजनका शिखरको तथा अन्य भी हरेक पर्वतोंके शिवरों कों और देव मन्दिरोंके शिखरों को शास्त्रकारों ने क्षेत्रलाकी ओपमा दिवी है नतु केशांकी चोटीवत् घामकी, और श्रापञ्चपरमेष्टि मन्त्र के शिखररूप चार पदों को तथा श्रीआचाराङ्गका सूत्र के शिखररूप दो अध्ययनकों और श्रीदशवेकालिकजी सूत्रके शिखररूप दो अध्ययनको शास्त्रकारोंनें भावचूलाकी ओपमा दिवी है जिसकी अवश्यही गिनती करने में आती हैं । तैसेही । चन्द्रसंवत्सररूप कालपुरुष के शिखररूप अधिक मासकों कालचूलाको उत्तम ओपमा गिनती करने योग शास्त्रकारोंनें दिवों है और अधिक मास होनेसें तेरह मोंका अभिवर्द्धितसंवत्सर श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांने कहा है तो अनेक शास्त्रों में प्रसिद्ध है और खात करके अधिक मासको कालचूलाकी उत्तम ओपमा लिखने वाले श्रीजिनदास महत्तराचार्य्यजी पूर्वधर महाराज भी निश्चय करके गिनती में लेने का लिखते हैं, और भी दूसरा सुनों कि- जैसे | श्रीतीर्थङ्कर महाराजे के निज निज अंगुलियों के प्रमाणसे मस्तक तक शरीर की लंबाई १०८ अंगुलीकी होती है और मस्तक पर बारह अंगुलीकी उष्णिका ( शिखा ) की शिखररूप चूलाकी ओपमा है जिसकों सामिल लेकर १२० अंगुलीका श्रीतीथंङ्कर महाराज के शरीरके गिनतीका प्रमाण सब शास्त्रकारोंने कहा है । तैसेही । संवत्सररूप कालपुरुष का निज स्वभाविक प्रमाण ३५४ दिन, ११ घटीका और ३६ पलका है तथा संवत्सररूप कालपुरुषका शिखररूप अधिक मासको कालचूलाको ओपमा है जिसका प्रमाण २० दिन For Private And Personal Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Acharya [ २२२ ] ३० घटीका और ५८ पलका है जिसको सामिल लेकर ३८३ दिन ४२ घटीका और ३४ पल प्रमाणे तेरह मासोंकी गिनती का हिसाबसे अभिवर्द्धित संवत्सर सबी शास्त्रकारोंने और खास श्रीतपगच्छके पूर्वाचार्योंने भी कहा है। और अधिक मासको कालचूला कहनेसे भी गिनतीमें अवश्यही लेना शास्त्रकारोंने कहा है उस सम्बन्धी इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ४८ से ६५ तक तथा और भी अनेक जगह छपगया है सो पढ़नेसे सर्व निःसन्देह हो जायेगा इसलिये न्यायरत्नजी अधिक मासको कालपुरुषकी चोटी लिखकरके गिनतीमें नही लेनेका ठहराते हैं सो वृथा अपनी कल्पनासें भोले जीवोंकी शास्त्रानुसार सत्य बात परसें श्रद्धाभङ्ग कारक उत्सूत्र भाषण करते हैं सो उपरके लेखसे पाठकवर्ग विशेष अपनी बुद्धि से भी विचार सकते हैं ; और श्रीकल्पसत्रको टीकाका प्रमाण न्यायरत्नजीने दिखाया सो तो ( अंधेचुये थोथेधान, जैसेगुरु तैसेयजमान) की तरह करके अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणरूप अन्ध परम्पराका मिथ्यात्वको पुष्ट किया है क्योंकि प्रथम श्रीधर्मसागरजीने श्रीकल्पकिरणावली में श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांके विरुद्धार्थमें अपनी कल्पनासें जैन शास्त्रोंके अतीव गम्भीरार्थके तात्पर्य्यको समझे बिना उत्सूत्र भाषरूप जैसे तैसे लिखा है उसीकों देखके दूसरे श्रीजयविजयजीने श्रीकल्पदीपिकामें तथा तीसरे श्रीविनयविजय जीने श्रीमुखबोधिकामें भी उसी तरहके उत्सूत्र भाषणके गप्पोंको लिखे हैं और उसीका शरणा लेकरके चौथे न्यायांभो निधिजीने भी जैन मिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकमें अपनी For Private And Personal Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२३ ] चातुराईके साथ उत्सत्र भाषणकी बाते प्रगट किवी है और ऐसेही गाडरीया प्रवाहवत् उसी बातोंकों वर्तमानमें न्यायरत्नजी जैसे भी लिखते हैं परन्तु तत्त्वार्थको जरा भी नही विचारते हैं क्योंकि श्रीविनयविजयजी वगैरह चारो महाशयोंने कालचूलाके नामसे अधिक मासकों गिनतीमें नही लेनेका शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमे ठहराया है जिसकी समीक्षा अच्छी तरहसे इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ५८सें यावत् पृष्ठ २९६ तक उपरमें छप चुकी है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा तथापि श्रीविनयविजयजी कृत श्रीसुखबोधिकाके अनुसार अपनी अपनी चातुराइसैं विशेष कुयुक्तियांके विकल्प उठा करके भोले जीवोंको भ्रममें गेरनेके लिये न्यायरत्नजी वगैरहने पृथा परिश्रम किया है उन कुयुक्तियांका समाधान युक्तिपूर्वक लिखना यहां सरू है जिसमें न्यायरत्न जीने श्रीकल्पसूत्रकी टीकाका पाठ श्रीधिनयविजयजी कृत दिखाया सो उत्सत्र भाषणरूप होनेसे मैंने उसीकी समीक्षा तो पहिलेही कर दिखाई है इसलिये श्रीविनयविजयजीकृत उत्सूत्र भाषण रूप उपरके पाठकों म्यायरत्नजीको लिखना भी उचित नही है और पक्षग्राहियोंके सिवाय आत्मार्थी पुरुषोंकों मान्य करना भी उचित नही है याने सर्वथा त्यागने योग्य है सो उपरके लेखसे पाठकवर्ग भी अच्छी तरहसें विचार लेना ; और आगे फिर भी अधिक मासको गिनती में नही लेनेके लिये न्यायरत्नजीने अपनी चातुराईको प्रगट करके लिख दिखाई है कि ( अगर लिया जाता हो तो पर्युषणा पर्व दूसरे वर्ष श्रावणमें और इस तरह अधिक महिनोंके For Private And Personal Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२४ ] हिसाबलें हमेशां उक्त पर्व फिरते हुवे चले जायगे जैसे मुसल्मानोंके ताजिये हर अधिकमास में बदलते रहते हैं) न्यायरत्नजीका इस लेख पर मेरेको बड़ाही आश्चर्य सहित खेद उत्पन्न होता है और न्यायरत्न जी की बड़ी हो अज्ञता प्रगट दिखता है मोह दिखाता हूं-जिसमें प्रथम तो आश्चर्य्य उत्पन्न होने का तो यह कारण है कि स्याद्वाद, अनेकांत, अविरूवादी, अनन्त गुणी, परमोत्तम ऐसे श्रीसर्वज्ञ भगवान् श्रीजिनेन्द्र महाराजोंक कथन करे हुवे अत्युत्तम अहिंसा धर्मके वृद्धिकारक अर्द्ध गतिका रस्तारूप धर्मध्यान दानपुण्य परोपकारादि उत्तमोत्तम शुभकार्यों का निधि शान्त चित्तको करने वाले और पापपङ्क (कर्मरूप मेल) को नष्ट करने वाले श्रीपर्युषणा पर्व के साथ उपरोक्त गुणोसें प्रतिकुल मिथ्यात्वी और वितविटंबक पाखंड रूप अधर्मकी वृद्धि कारक तथा छ (६) कायके जीवोंका विनाश कारक नरकादि अधोगतिका रस्तारूप आतरौद्रादि युक्त ताजियांका दृष्टान्त न्यायरत्न जीने दिखाया इसलिये मेरेकों आश्चर्य उत्पन्न हुवा कि जो न्यायरत्न जीके अन्तःकरण में सम्यक्त्व होता तो चिन्तामणिरत्न रूप श्रीपर्युषणापर्वके साथ काचका टुकड़ारूप ताजियांका दृष्टान्त लिखके अपनी कल्पित बातको जमानेके लिये अधिक मास का निषेध कदापि नही दिखाते इस बातकों पाठकवर्ग भी विचार लेना ;• और बड़ा खेद उत्पन्न होनेका तो कारण यह है कि श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योने और खास न्यायरत्न जीके पूज्य अपने श्रीतपगच्छके ही पूर्वा For Private And Personal Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २२५ ] चाय्याने अनेक शास्त्रों में अधिकमासको सर्वथा करके परिपूर्ण रीतिसें विस्तारपूर्वक खुलासाके साथ निश्चय करके अवश्यही गिनतीमें लिया है. जिसमें श्रीचन्द्रप्रज्ञप्ति १ तथा वृत्ति २ श्रीसूर्यप्रज्ञप्ति ३ तथा वृत्ति ४ श्रीज्योतिषकरण्ड पयन्ना ५ तथा वृत्ति ६ श्रीप्रवचनसारोद्धार ७ तथा वृत्ति श्रीसमवायाङ्गजीसूत्र " तथा वृत्ति १० श्रीजम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति १९ तथा तीनकी दो (२) वृत्ति १३ इत्यादि अनेक शास्त्रोंके पाठ न्यायरत्नजीने देखे है जिसमें अधिक मासको गिनती में लिया है जिसमें भी श्रीज्योतिषकरण्ठपयन्नाकी वृत्ति तो न्यायरत्नजीने एकवार नहीं किन्तु अनेकवार देखी है उसी में तो विशेष करके समयादि कालकी व्याख्या किवी है कि असंख्याता समय जाने से एक आवलिका, १, ६७, ७७, २१६, आवलिका जानेसे एकमुहूर्त होता है त्रीश मुहूर्त में एक अहोरात्रि रूप दिवस होता है ऐसे पन्दरह दिवस जानेसे एकपक्ष होता है दो पक्षसे एकमास होता है दो माससे एक ऋतु होता है छ ऋतुयोंसें एक सम्वत्सर होता है इसी ही तरहसे नक्षत्र सम्वत्सरके, चन्द्रसम्वत्सरके, ऋतु सम्बत्सर के, सूर्यसम्वत्सरके, और अभिवर्द्धितसम्वत्सरके, मुहूतीका जूदा जूदा हिसाब विस्तारपूर्वक दिखाकर पांच सम्वत्सरोंका एक युगके ५४९०० मुहूर्त दिखाये हैं जिसमें एक युगके पांच संवत्सरोमें दो अधिक मासके भी मुहूत्तोंकी गिनती साथमें लेने से ही ५४९०० मुहूर्त्तका हिसाब मिलता है अन्यथा नहीं इस तरहसें कालकी व्याख्या समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, वर्ष, युग, पूर्वाङ्ग, पूर्व, पल्योपम, सागरोपम और उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी कालसै अनन्तकालकी २८ For Private And Personal Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२६ ] व्याख्या की गिनती में अधिक मासको प्रमाण किया है और अधिक मासकी उत्पत्तिका कारण कार्य्यादि गिणित पूर्वक श्रीमलयगिरिजी महाराजने श्रीज्योतिषकर ण्डपयनाकी वृत्ति में विस्तार किया है इस ग्रन्थको न्यायरत्नजीनें अनेक वार देखा है और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि सर्वज्ञ महाराजोंने अधिक मासको गिनती में प्रमाण किया है सो अनेक शास्त्रोंके पाठ प्रसिद्ध है और खास न्यायरत्नजीनें मानवधर्म संहिता पुस्तकके पृष्ठ २४ की पंक्ति २० वी से २२शा पंक्ति तक ऐसे लिखा है कि ( उत्सूत्र भाषण समान कोई 'वड़ा पाप नही सब क्रियाधरी रहेगी उक्त पाप दुर्गतिको ले जायगा जमालिजीनें गौतम गणधर जैसी क्रिया किन लेकिन देख लो किस गतिको जाना पड़ा ) और पृष्ठ ५८८ की पंक्ति १४-१५ में फिर भी लिखते हैं कि ( सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र के पाठको उत्थापन करेगा उसका निर्वाण होना मुश्किल है) इस लेख पर सें सज्जन पुरुषोंकों विचार करना चाहिये कि - श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि सर्वज्ञ महाराजोंने अधिकमास को गिनती में प्रमाण किया हुवा है सो अनेक शास्त्रोंके पाठ प्रसिद्ध है तथापि पक्षपातके जोरसें न्यायरत्तजीनें अनन्ततीर्थङ्कर गणधरादि सर्वज्ञ भगवानोंके विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषण करनेके लिये सर्वज्ञ प्रणीत अनेक शास्त्रोंके पाठोंकों उत्थापन करके उत्सूत्र भाषणका बड़ा भारी पाप दुर्गतिको देनेवाला तथा संसार में रुलानेवाला अपना लिखा हुवा उपरका लेखको भी सर्वथा भूल गये इसलिये मेरेकों बड़ा खेद उत्पन्न हुवा कि न्यायबजी जानते हुए भी उत्सूत्र भाषणरूप For Private And Personal Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२७ ] संसारकी खाड़में गिरे और अपनी आत्माका बचाव ती करना दूर रहा परन्तु भोले जीवोंको भी उसी रस्ते पहुचाये सो उपरके लेखसे पाठकवर्ग विशेष विचार लेना; और अधिक मासको गिनती में निषेध करनेके लिये न्यायरत्नजीने मुसलमानोंके ताजिये हरेक अधिक मासके हिसाब से फिरनेका दृष्टान्त दिखाके सर्वज्ञ कथित पर्युषणा पर्व भी अधिक मासके हिसाबसे फिरते रहनेका न्यायरत्न जीने लिखा सो बड़ी अज्ञता प्रगट किवी है जिसका कारण यह है कि श्रीसर्वज्ञ भगवानोंने मासवृद्धि हो अथवा न हो तो भी खास करके विशेष जीवदयादिककेही कारणे वर्षा ऋतु में आषाढ़ चौमासीसे उपरके लिखे दिनोंके गिनतीकी मर्यादा [प्रमाण] से निश्चय करके श्रावण अथवा भाद्रपद मेंही-कारण, कार्य, ऋतु, मास, तिथिका नियमसे ही श्रीपर्युषणापर्वका आराधन करना कहा है तथापि न्यायरत्न जी अधिक मासके हिसाबसे पर्युषणापर्व फिरते हुए चले जानेका लिखकर जैन शास्त्रोंके विरुद्धार्थ में आषाढ़, ज्यैष्ठ, वैशाखादिमें पर्युषणा होने का दिखाते हैं इसलिये न्यायरत्नजीकी अक्षतामें कुछ कम हो तो पाठकवर्ग तत्त्वार्थकी बुद्धिसे स्वयं विचार लेना ;___तथा और भी न्यायरत्नजीके विद्वत्ताकी चातुराईका नमुना सुनिये-कि श्रीजैन शास्त्रों में पांच प्रकारके संवत्सरों से एक युगका प्रमाण कहा हैं जिसमें सूर्यकी गतिका हिसाबसे सूर्य संवत्सरकी अपेक्षासें जैनमें मासवृद्धिका अभाव हैं परन्तु चन्द्र की गतिका हिसाबसें चन्द्रसंवत्सरकी अपेक्षासे एक युगकी पूरतीके ही लिये खास दो अधिकमास For Private And Personal Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२६ ] होते हैं जब अधिकमास जिस संवत्सर में होता है तब उस संवत्सर में तेरह मास होनेसे संवत्सरका नाम भी अभिवर्द्धित कहा जाता है—अधिक मासको गिनती में लिया जिससे संवत्सरका भी प्रमाण वढ़ गया और युगकी पूरतीका भी बरोबर हिसाब मिलगया – अधिक मास अनादिकाल हुए होता रहता है तथा मासवृद्धि हो अथवा न हो तो श्री श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने श्रीपर्युषण पर्वका आराधन वर्षा ऋतु में ही करना कहा है यह बात आत्मार्थी विवेकी विद्वानोंसे छुपी हुई नही है याने प्रसिद्ध है इसलिये श्री पर्युषण पर्व अधिक मास हो तो भी वर्षा ऋतुके सिवाय और ऋतुयोंमें कदापि नही हो सकते हैं और मुसलमान लोग तो सिर्फ एक चन्द्र दर्शनको अपेक्षासें २९ । ३० दिनका महिना मान्य करके बारह महिनोंके ३५४ दिनका एक वर्ष मानते है और अधिक मासका भिन्न व्यवहारको नही मानते हैं याने चन्द्रके हिसाब से बारह बारह महिनोंका एक एक वर्ष मानते चले जाते हैं परन्तु अपने माने मास तारीख नियत ताजियें भी करते रहते हैं और जैन तथा दूसरे हिन्दू अधिक मासको मान्य करके तेरह मासोंका वर्ष मानते हैं तथा अपने माने मास, तिथि नियत पर्व भी करते है इसलिये जैन तथा दूसरे हिन्दूयांके तो ऋतु, मास, तिथि नियत पर्व अधिक मास होतो भी फिरते हुए नही चले जाते है परन्तु मुसलमान लोग अधिक मासको नही मानते हुए अनुक्रमे सीधा हिसाबसें ही वर्त्तते है इस लिये लौकिक में अधिक मास होनेसें मुसलमानोंके ताजिये अमुक ऋतुमें तथा अमुक लौकिक मासमें होते हैं यह For Private And Personal Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २२९ ] नियम नही रहता है याने हर अधिक मासके हिसाबसे पश्चादानुपूर्वी अर्थात् आषाढ़, ज्यैष्ठ, वैशाख, चैत्र, फाल्गुन, माघ, पौषादि हरेक मासोंमें होते है इसलिये मुसलमानोंके ताजिये फिरनेका दृष्टान्त लिखके श्रीपर्युषणापर्व फिरनेका दिखाना सो पूरी अज्ञताका कारण है— इसलिये श्रीसर्वज्ञ कथित श्रीपर्युषण पर्व फिरनेका और अधिक मासको गिनती में निषेध करने के संबन्धी मुसलमानोंके ताजियांका दृष्टान्त उत्सूत्र भाषणरूप होनेसें न्यायरत्नजीको लिखना उचित नही है इस बातको सज्जन पुरुष उपरके लेखसे स्वयं विचार सकते है ; और आगे फिर भो न्यायरत्नजीनें अपनी कल्पनाऐं लिखा है कि ( दूसरा यह भी दूषण अयगा कि वर्षभर में जो तीन चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किये जाते है उसमें पचमासिक प्रतिक्रमणका पाठ बोलना पड़ेगा शीतकालयें और उष्णाकालमें तो अधिक महिना गिनती में नहीं लाना और चौमासेमें गिनती में लाकर श्रावणमें पर्युषणा करना किस न्याय की बात हुई ) इस लेख से न्यायरत्नजीनें जैनशास्त्रों का तथा अधिक मासको गिनती में प्रमाण करने वालोंका तात्पर्य्यको समके बिना दूसरा दूषण लगाया सो मिथ्याभाषण करके बड़ी भूल करी है क्योंकि जिस चौमासेमें अधिक मास होता है उसीको अभिवर्द्धित चौमासा कहा जाता है संवत्सरवत् अर्थात् जिस संवत्सर में अधिक मास होता है उसीको अभिवर्द्धित संवत्सर कहते है इसी ही न्यायानुसार अधिक मास होवे तब उस चौमासे में पञ्चमास तथा संवत्सर में तेरह मासका पाठ सर्वत्र प्रतिक्रमण में अवश्य For Private And Personal - Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३० ] ही बोला जाता है इसका विशेष निर्णय सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा करने में आवेगा; और शीतकाल हो तथा उष्ण काल हो भथवा वर्षाकाल हो परन्तु लौकिक पञ्चाङ्गमें जो अधिकमास होगा उसी कालमें अवश्य ही गिनतीमें करके प्रमाण करना यह तो स्वयं सिद्ध न्याययुक्ति की बात है जैसे वर्षाकालमें श्रावण भाद्रपदादि मास वढ़नेसें गिनतीमें लिये जाते है तैसे ही शीतकालमें तथा उष्ण कालमें भी जो माप्त बढ़े सो ही गिनाजाता है इस लिये न्यायरनजीने उपरका लेखमें शीतकालमें और उष्णकालमें अधिक मासको गिनती में नही लानेका लिखती बख़्त विवेक बुद्धिसे विचार किया होता तो मिथ्या भाषणका दूषण नही लगता सो पाठकवर्ग विचार लेना, और इसके अगाड़ी फिर भी भ्यायरत्नजीने अपनी विद्वत्ताकी चातुराई को प्रगट करने के लिये लिखा है कि [ अगर कहा जाय कि पचाशदिनकी गिनती लिइजाती है तो पिछले ७० दिनकी जगह १०० दिन होजायेगे उधर दोष आयगा संवत्सरीके बाद 90 दिन शेष रखना यह बात समवायाङ्ग सूत्रमें लिखी हैं उसका पाठ-वासाणं सवीसइराइ मासे वइकन्ते सत्तरिराइदिएहिं सेसेहिं,--इस लिये वही प्रमाणवाक्य रहेगा कि अधिक मास कालपुरुषकी चोटी होनेसे गिनतीमें नही लेना] इस लेखपर मेरेको बड़े अफसोसके साथ लिखना पड़ता है कि न्यायरत्नजीको विद्वत्ताकी चातुराई किस जगहमें चली गई होगी सो अपने मायके विद्यासागरादि विशेषणेको अनुचितरूप कार्यकरके उपरके For Private And Personal Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २३१ ] [ लेखमें दो श्रावण होनेसें भाद्रपद तक ८० दिन होते हैं जिसके ५० दिन बनालिये और दो आश्विन होनेसें कार्त्तिक तक १०० दिन होते हैं जिसके 90 दिन अपनी कल्पनासें बना लिये परन्तु श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके कथित सूत्र सिद्धान्तोंके पाठोंका उत्थापनरूप मिध्यात्वका कुछ भी भय नही किया क्योंकि श्रीतीर्थङ्कर गंणधरादि महाराजोंने अनेक सूत्र सिद्धान्तों में समयादि सूक्ष्मकालकी गिनती सें एकयुगके दोनुं ही अधिक मासको गिनती में लिये है इसका विस्तार उपरमें अनेक जगह छप गया हैं और षट्द्रव्यरूप वस्तुयोंमें एककाल द्रव्यरूप वस्तु भी शाश्वती है जिसके अमन्ते कालचक्र व्यतीत होगय है और आगे भी अनन्ते कालचक्र व्यतीत होवेंगे जिसमें चन्द्र, सूर्य्यके, शाश्वते विमान होनेसे चन्द्रके गतिका हिसाबसें अनन्ते अधिक मास भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके सामने व्यतीत होगये और आगे भी होवेंगे इस लिये सम्यक्त्वधारी मोक्षाभिलावी आत्मार्थी प्राणी होगा सो तो कालद्रव्यकी गिनतीके दो अधिक मास तो क्या परन्तु एक समय मात्र भी गिनती में कदापि निषेध नही कर सकता है तथापि न्यायरत्नजी जैन श्वेताम्बर धर्मोपदेष्टा तथा विद्यासागरका विशेषण धारण करते भी श्रीसर्वज्ञ कथित सिद्धान्तों में कालद्रव्य रूप शाश्वती वस्तुका एक समयमात्र भी निषेध नही हो सके जिसके बदले एक दम दो मासकी गिनती निषेध करके श्रीजैन श्वेताम्बर में उत्सूत्र भाषणरूप मिथ्यास्वके उपदेष्टा होनेका कुछ भी भय नही करते है, हा अतीव खेदः, — इस लेखका तात्पर्य यह है कि जैन शास्त्रानुसार Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३२ ] एक समय मात्र भी जो काल व्यतीत हो जावे उसकी अव. श्यही गिनती करने में आती है तो फिर दो अधिक मासको गिनतीमें लेने इसमें तो क्याही कहना याने दो अधिक मासकी निश्चय करके अवश्यही गिनती करना सोही सम्ययत्व धारियों को उचित है इसलिये दो अधिक मासकी गिनती निषेध करके ८० दिनके ५० दिन और १०० दिनके ७० दिन न्यायरत्न जीने उत्सूत्र भाषणरूप अपनी कल्पनासे बनाये सो कदापि नही बन सकते है इसलिये दो श्रावण होनेसे अनेक शास्त्रानुसार पचास दिने दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करना और पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन भी अनेक शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक रहते है जिसको मान्य करने में कोई दूषण नही हैं तथापि न्यायरत्नजीने दूषण लगाया सो मिथ्या है इस उपरके लेखका विशेष विस्तार तीनों महाशयोंके नामकी समीक्षामें इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १९७ में पृष्ठ १२८ तक तथा चौथे महाशयके नामकी समीक्षामें भी पृष्ठ १७४ सै पृष्ठ १८५ तक भी अच्छी तरहसे सूत्रकार श्री गणधर महाराजके तथा वृत्तिकार महाराजके अभिप्राय सहित युक्तिपूर्वक छप चुका है सो पढ़ने से सर्व निर्णय हो जावेगा; तथा थोडासा और भी सुन लिजीयें कि, श्रीसमवायाङ्गजी सत्रमें श्रीगणधर महाराजने तथा कृत्तिकार महाराजने अनेक जगह खुलासापूर्वक अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण किया है तथापि न्यायरत्नजी हो करके सत्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में अधिक मासकी गिनती निषेध करके मूलसूत्रके पाठोंको तथा वृत्तिके पाठोंको For Private And Personal Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३३ ] उत्थापन करते है और चार मासके १२० दिनका वर्षाकाल सम्बन्धी उपरका पाठ श्रीगणधर महाराजने कहा है तथापि इसका तात्पर्य्य समझे बिना दो श्रावण होनेसे पांच मासके १५० दिनका वर्षाकालमें उपरका पाठ सूत्रकार तथा वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थ में न्यायरत्नजी लिखते हैं इसलिये न्यायरत्नजीको श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठोंका तात्पर्य समझमें नही आया मालुम होता है तो फिर न्यायरत्न का और विद्यासागरका जो विशेषण श्रीशान्तिविजयजी ने धारण किया है सो कैसे सार्थक हो सकेगा सो पाठक वर्ग सज्जन पुरुष अपनी बुद्धिसे स्वयं विचार लेना ; और न्यायरत्नजी कालपुरुषकी घोटीकी भ्रान्तिसे अधिक मासको गिनतीमें निषेध करते हैं सो भी जैन शास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना उत्सूत्र भाषण करते हैं इसका निर्णय इन्ही पुस्तकके पृष्ठ ४८ में ६५ तक तथा चारों महाशयोंके नामकी समीक्षामें और खास म्यायरत्नजीकेही नामकी समीक्षामें उपरमें पृष्ठ २२० । २२१ । २२२ तक अच्छी तरहसें खुलासाके साथ छप गया है सो पढ़नेसें सर्व निर्णय हो जावेगा कि शिखररूप चूलाकी उत्तम ओपमा गिनती करने योग्य दिनी है इसलिये चोटी कहके निषेध करनेवाले मिथ्यावादी है सो उपरोक्त लेख सें पाठकवर्ग स्वयं विचार लेना ;___और इसके अगाड़ी फिर भी न्यायरत्नजीने लिखा है कि ( अधिक महिनेको गिनतीमें लेनेसें तीसरा यह भी दोष आयगा कि चौरस तीर्थङ्करोंके कल्याणिक जो जिस जिस महिनेकी तिथिमें आते हैं गिनतीमें वे भी बढ़ जायगें ३० For Private And Personal Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३४ ] फिर क्या तीर्थङ्करों के कल्याणिक १२० से भी ज्यादे गिनना होगा कभी नही इस हेतु से भी अधिक मास नही गिना जाता) इस लेख की समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं जिसमें प्रथमतो उपरके लेखमें न्यायरत्नजीने अधिकमासको गिनती में लेने वालोंको तीसरा दूषण लगाया इस पर तो मेरे को इतनाही कहना उचित है कि न्यायरत्न जीने श्री अनन्ततीर्थङ्कर गणाधरादि महाराजोंकी आशातना करके खूब मिथ्यात्व बढ़ाया है क्योंकि श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराज अधिक मासको गिनतीमें मान्य करते हैं सो अनेक सिद्धान्तों में प्रसिद्ध है और न्यायरत्नजी अधिक मासको गिनती मान्य करने वालोंको दूषण लगाते हैं जिनसे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी प्रत्यक्ष आशा. तना होती है इसलिये जो न्यायरत्नजीको श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातनासें अनन्त संसार वृद्धिका भय लगता हो तो अधिक मासको गिनतीमें लेने वालोंकों दूषण लगाया जिसकी आलोचना लेकर अपनी आत्माको दुर्गतिसे बचाना चाहिये आगे न्यायरत्नजीकी जैसी इच्छा मेरा तो धर्मबन्धुकी प्रीतिसे लिखना उचित है सो लिख दिखाया है और अधिक मासको श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने गिनतीमें मान्य किया है उसीके अनुसार कालानुसार युक्तिपूर्वक वर्तमानमें भी अधिक मासको आत्मार्थी पुरुष मान्य करते हैं जिन्होंको एक भी दूषण नही लग सकता है परन्तु कल्पित दूषणोंको लगाने वालों को तो उत्सत्र भाषणरूप अनेक दूषणों के अधिकारी होना पड़ता है मो आत्मार्थी विवेकी सज्जन पुरुष इन्ही पुस्तकके पढ़नेसे स्वयं विचार सकते हैं। For Private And Personal Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३५ ] और अनन्त कालचक्र हुए अधिक मास भी होता रहता है तैसेही अनन्त चौवीशी होगई जिसमें श्रीतीर्थङ्कर महाराजोंके कल्याणक भी होते रहते हैं परन्तु किसीने भी कल्याणक बढ़ जानेके भयसे अधिक मासकी गिनती निषेध नही करी है तथापि इप्त पञ्चमें कालके विद्यासागर म्यायरत्न का विशेषण धरानेवाले श्रीशान्ति विजयजी इतने बड़े विद्वान् कहलाते भी जैन शास्त्रोंके गम्भीरार्थको समके बिना कल्याणक वढ़ जानेके भय से अधिक मासकी गिनती निषेध करते हैं यह भी एक अलौकिक आश्चर्यकी बात है क्योंकि जैन ज्योतिषशास्त्रानुसार मासवृद्धिके कारणसे जब दो पौष अथवा दो आषाढ़ होते थे तब उस समय कोई भव्य जीवोंको श्रीतीर्थङ्कर महाराजोंके कल्याणककी तपश्चर्यादि करनेका इरादा होता था तब पहिले श्रीज्ञानीजी महाराजकों पूछके पीछे करते थे जिसमें दो मासके कारणसें कोई भगवान्का प्रथम मासमें कल्याणक होया होवे उसी कल्याणकको प्रथम मासमें आराधन करते थे और कोई भगवान्का दूसरे मासमें कल्याणक होया होवे उसी कल्याणकको दूसरे मासमें आराधम करते थे जिससे जिन जिन भगवान् का जो जो कल्याणक मास वृद्धिके कारणसें प्रथम मासमें अथवा दूसरे मासमें होया होवे उसीको उसी मुजब श्रीज्ञानीजी महाराजको पूछके आराधन करते थे, पक्षवत्, अर्थात् अमुक भगवान् का अमुक कल्याणक अमुक मासके प्रथम पक्षमें होया होवे उसीको प्रथम पक्षमें आराधन करते थे और दूसरे पक्ष में होया होवे उसीको दूसरे पक्षमें आराधन करते थे उसी तरह For Private And Personal Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३६ ] दो मासके कारणसे श्रीज्ञानीजी महाराजके कहने मुजब कल्याणक आराधन करनेमें आते थे और अधिक मासको गिनतीमें भी करने में आता था इसलिये अधिक मासकी गिनती करनेसें श्रीतीर्थङ्कर महाराजोंके कल्याणक गिनतीमें नही बढ़ सकते है और इस पञ्चमें कालमें भरत क्षेत्र में श्रीज्ञानीजी महाराजका अभाव होनेसें और लौकिक पञ्चाङ्गमें हरेक मासोंकी वृद्धि होनेके कारणसें प्रथम मासका प्रथम कृष्ण पक्ष और दूसरे मासका दूसरा शुक्लपक्षमें मास तिथि नियत कल्याणकादि धर्मकार्य तथा लौकिक और लोकोत्तर पर्व करनेमें आते है जिसका युक्तिपूर्वक दृष्टान्त सहित सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीके नामकी समीक्षा लिखने में आवेगा सो पढ़नेसे विशेष निर्णय हो जावेगा इस लिये न्यायरत्नजी कल्याणक बढ़ जानेके भयसे अधिक मासकी गिनती निषेध करते है सो जैन शास्त्रों के विरुद्ध उत्सूत्रभाषण करते है सो उपरके लेखसे पाठकवर्ग भी विशेष विचार सकते है। ___और इसके अगाड़ी फिर भी न्यायरत्नजीने लिखा है कि ( अधिक महिनोंके कारण से कभी दो भादवे हो तो दूसरे भाद्रवेमें पर्युषणा करना चाहिये जैसे दो आषाढ़ महिने होते है तब भी दूसरे आषाढ़में चातुर्मासिक कृत्य किये जाते है वैसे पर्युषणा भी दूसरे भाद्रवेमें करना न्याययुक्त है) ___उपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं कि हे सज्जन पुरुषों उपरके लेख में न्यायरत्नजीने मासवृद्धि के कारणसे दो आषाढ़ और दो भाद्रपद लिखे जिससे अधिक मास गिनतीमें सिद्ध होगया फिर अधिक मासको For Private And Personal Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३७ ] गिनती में लेनेवालोंको दूषण लगाना यह तो न्यायरत्नजीका हठवादसे प्रत्यक्ष अन्यायकारक है सो पाठकवर्ग भी विचार सकते है। ___और भी दूसरा सुनो-खास न्यायरत्न जीने संवत् १९६६ की सालका बयान याने शुभाशुभका फल संक्षिप्तसें जैनपत्र के साथ, जूदा हेण्डबिलमें प्रसिद्ध किया है उसी में [ इस वर्षमें श्रावण महिना दो है ऐसा लिखा है तथा अधिक मास के कारण दोनही श्रावणकी गिनती सहित तेरह मासों के प्रमाणसें तेरह अमावस्या और तेरह पूर्णिमाकी सब घड़ियोंकी गिनती दिखाइ है और प्रथम श्रावण वदी ११ तथा १२ के दिन और दूसरे श्रावण वदी १० के दिन अच्छा योग्य बताया है और प्रथम प्रावण शुदीमें सप्त नाड़ीचक्रमें सूर्य्य और गुरु जलनाड़ी पर आनेका लिखा है और प्रथम श्रावण शुदी पञ्चमीके दिन सिंह राशि पर शुक्र आनेका लिखा है फिर दूसरे श्रावण शुक्लपक्षमें बुधका उदय होगा वहां दुनियाके लोग सुखी रहनेका लिखा है फिर प्रथम श्रावण वदी ४ बुधवार तक दुर्मति नामा संवत्सर रहनेका लिखा है बाद याने प्रथम श्रावण वदी पञ्चमी गुरुवारका दुन्दुभि नामका संवत्सर लगनेका लिखा है फिर दूसरे श्रावणमें मीन राशि पर शनि और मङ्गल वक्र होनेका लिखा है ] इस तरहसें खुलासाके साथ न्यायरत्नजी अपने स्वहस्ते दोन श्रावण महिनोंको बरोबर लिखते है गिनतीमें लेते है छपाके प्रसिद्ध करते है ( और दोनु श्रावणके कारण मैं तेरह मासाँके ३८३ दिनका वर्ष दुनियामे प्रसिद्ध है) इस पर निष्पक्षपाती आत्मार्थी सज़्जन पुरुषोंको न्याय दृष्टि से For Private And Personal Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३८ ] विचार करना चाहिये कि न्यायरत्नजी आप स्वयं दोनु श्रावण मासकी हकीकत जूही जूदी लिखते है फिर गिनतीमें निषेध भी करते है यह तो ऐसे हुवा कि ममजननी वन्ध्या अथवा मम वदने जिल्हा नास्ति, इस तरहसे बाललीलावत् न्यायरत्नजी विद्याके सागर हो करके भी कर दिया हाय अफसोम, अब इस जगह मेरेको लाचार होकर लिखना पड़ता है कि न्यायरत्नीजीकी विद्वत्ताकी चातुराई किम देशके कोणेमें चली गई होगा सो पूर्वापरका विधार विवेक बुद्धिसे किये बिना श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण करके तेरह मासका अभिवर्द्धित संवत्सर अनेक सिद्धान्तों में कहा है जिसके उत्थापनका भय न करते उलटा अधिक मासको गिनती करने वालोंको मायावृत्तिसें मिथ्या दूषण लगादिये और फिर आपभी अधिक मासको प्रमाण करके लोगोंमें ज्योतिषशास्त्रके वि. द्वान् भी प्रसिद्ध होते है परन्तु अधिक मासको गिनतीमें करनेवालोंको मिथ्या दूषण लगानेका और पूर्वापर विरोधी विसंवादी रूप मिथ्या वाक्यके फल विपाकका जरा भी भय नही करते है इसलिये जैन शास्त्रानुसार तो दूसरों को मिथ्या दूषण लगानेके और विसंवादी भाषणके कर्मबन्धकी आलोचनाके लिये बिना अथवा भावान्तरमें भोगे बिना छूटना बहुत मुश्किल है सो जैन शास्त्रोंका तात्पर्य के जानकार विवेकी पुरुष स्वयं विचार सकते है और न्यायरत्न जीको भी उत्सूत्र भाषणका भय हो तो न्याय दृष्टि से तत्वार्थको अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये ; For Private And Personal Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २३९ ] तथा और भी न्यायरत्नजीको थोड़ासा मेरा यही कहना है कि अधिकमासको आप कालपुरुषकी चोटी जान कर गिनती में नही लेनेका ठहराते हो तब तो दो आषाढ़, दो श्रावण दो भादवेका लिखना आपका वृथा हो जावेगा और दो आषाढ़ादि मासोंको लिखते हो तथा उसी मुजब वर्तते हो तब तो कालपुरुषकी चोटी कहके अधिकमासको गिनती में निषेध करते हो सो आपका वृथा है और दो आषाढ़, दो श्रावण, दो भादवे लिखना सब धर्म और कर्मका व्यवहार भी दोनु मासका करना फिर गिनती में नही लेना यह तो कभी नही हो सकता है इसलिये दोनु मासका धर्म और कर्मका व्यवहारको मान्य करके दोनुं मासको गिनती में लेना सो ही न्यायपूर्वक युक्तिकी बात है तथापि निषेध करना धर्मशास्त्रोंके और दुनियाके व्यवहारसे भी विरुद्ध है इस लिये इसका मिथ्या दुष्कृत ही देना आपको उचित है नहीं तो पूर्वापर विरोधी विसंवादी वाक्यका जो विपाक श्रीधर्मरत्नप्रकणको वृत्ति में कहा है सो पाठ इन्ही पुस्तक के पृष्ठ ८६ ८७ ८८ में छपगया है उसीके अधिकारी होना पड़ेगा सो आप विद्वान् हो तो विचार लेना ; और दो आषाढ़ होनेसे दूसरे आषाढ़में चौमासी कृत्य किये जाते है जिसका मतलब न्यायरत्नजीके समझमें नहीं आया है सो इसका निर्णय सातमें महाशय श्रीधर्मविजयजी के नामकी समीक्षा में करने में आवेगा और दो भादवें होनेसें दूसरे भादवेंमें पर्युषणापर्व करना न्याय युक्त न्यायरत्नजी ठहराते है परन्तु शास्त्रसम्मत न्याय युक्त नही है क्योंकि For Private And Personal Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४० ] शास्त्रों में आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने अवश्य ही पर्युषणा करना कहा है और दो भादवें होनेसें दूसरे भादवे में पर्युषणा करने ८० दिन होते हैं जिससे दूसरे भादवेमें ८० दिने पर्युषणा करना और ठहराना शास्त्रोंके और युक्ति के विरुद्ध है इसलिये प्रथम भादवेंमें ही ५० दिने पर्युषणा करना शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक न्याय सम्मत है इसका विशेष निर्णय तीनों महाशयोंके नामको समीक्षामें इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १४० । १४१ । १४२ की आदि तक अच्छी तरह से छप गया है उसीको पढ़ने से सर्व निर्णय हो जावेगा । और फिर भी न्यायरत्नजीनें अपनी बनाई मानवधर्म संहिता पुस्तक के पृष्ठ ८०० की पंक्ति ४ से १० तक तिथियाँ की हानी तथा वृद्धिके सम्बन्ध में और पृष्ठ ८०१ की पंक्ति २२|| मैं पृष्ठ ८०२ पंक्ति १० तक पर्युषणा में तिथियांकी हानी तथा वृद्धिके सम्बन्धमें शास्त्रों के प्रमाण बिना अपनी मति कल्पनायें उत्सूत्र भाषणरूप लिखा है जिसकी समीक्षा आगे तिथि निर्णयका अधिकार सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजी के नामकी समीक्षामें करने में आवेगा वहां अच्छी तरहसे न्याय रत्नजोकी कल्पनाका ( और न्यायाम्भोनिधिजीनें जैन सिद्धान्त समाचारीकी पुस्तकमें जो तिथियांकी हानी तथा वृद्धि सम्बन्धी उत्सूत्र भाषण किया है उसीका भी ) निर्णय साथ साथ में ही करनेमें आवेगा सो पढ़ने से तिथियांकी हानी तथा वृद्धि होने से धर्मकाय्यों में किसी ऐतिसे वर्तना चाहिये जिसका अच्छी तरहसे निर्णय हो जायेंगा ;इति पाँचवें महाशय न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजी के नामकी पर्युषणा सम्बन्धी संक्षिप्त समीक्षा समाप्ता ॥ For Private And Personal Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४१ ] और सप्टेम्बर मासकी २७ मी तारीख सन् १९०८ आश्विन शुक्ल २ वीर संवत् २४३४ के रविवारका मुम्बईसे प्रसिद्ध होनेवाला जैन पत्रके २४ वें अङ्कके पृष्ठ ४ में गत वर्षे न्यायरत्नजीकी तरफसें लेख प्रसिद्ध हुवा हैं जिसमें खास करके श्रीखरतरगच्छ वालोंको श्रीमहावीर स्वामीजीके ६ कल्याणकके सम्बन्धमें पूछा हैं और आपने श्रीहरिभद्र सूरिजी महाराजके तथा श्रीअभयदेवसरिजी महाराजके विरुद्धार्थ में श्रीपञ्चाशक मूलसूत्रका तथा तवृत्तिका अधूरा पाठ लिखके श्रीमहावीर स्वामीजीके पांच कल्याणक स्थापन करके ६ कल्याणकका निषेध किया है सो उत्सूत्र भाषण करके अनेक सत्र, चूर्णि, वृत्ति, प्रकरणादि शास्त्रोंके पाठोंका उत्थापन करके श्रीगणधर महाराजके, श्रीश्रुत केवली महाराजके, पूर्वधर महाराजोंके और बुद्धिनिधान पूर्वाचार्यों के वचनका अनादर करते पञ्चमकालके अपने हठवादकी विद्वत्ता न्यायरत्नजीने अनन्त संसारकी बढ़ाने वाली प्रसिद्धकरी हैं जिसकी समीक्षा और आगस्ट मासकी २९ वी तारीख सन् १९०९ दूसरे श्रावण सुदी १३ वीर संवत् २४३५ रविवारका जैन पत्रके २१ वें अङ्कके पृष्ठ १५ वा में जो न्यायरत्नजीकी तरफ, फिर भी लेख प्रसिद्ध हुवा हैं उमीमें 'खरतरगच्छ मीमांमा, नामकी किताब छपवा कर प्रसिद्ध करके [ जैसे न्यायाम्भोनिधिजीने जैन सिद्धान्तसमाचारी, पुस्तकका नाम रस्कके वास्तविकमें उत्सत्र भाषण का मिथ्यात्वरूप पाखण्डको प्रगट किया हैं (जिसका किञ्चिन्मात्र इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १५१ और पृष्ट २१५ । २१६ में दिखाया हैं, उसीका नमुनारूप पर्युषणा सम्बन्धी समीक्षा भी For Private And Personal Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४२ । इन्ही पुस्तकके पृष्ठ १५७ से २१४ तक उपरमें छप चुकी हैं) तैसेही न्यायरत्न जीने भी प्राय उन्ही बातोंको अपनी चातुराई से कुछ कुछ न्यूनाधिक करके ] मिथ्यात्वका पीष्टपेवणरूप मानु अपनी और अपने गच्छ वासी हठग्राही भक्तजनोंकी संसार वृद्धिका कारणरूप. शास्त्रानुसार सत्य बातोंका निषेध और शास्त्रकारों के विरुद्धार्थ में कल्पित बातोंका स्थापनकर पुस्तक प्रगटकरके अविसंवादी अत्युत्तम जैनमें विसंवादरूप मिथ्यात्वका झगड़ा फैलाना न्यायरत्नजी चाहते हैं, जिसकी और गत वर्ष के लेखकी समालोचनारूप समीक्षा इस जगह लिखके न्यायरत्नजीके उत्सूत्र भाषणकी तथा कुतर्कोंकी चातुराईका दर्शाव प्रगट करना चाहुं तो जरूर करके २५० अथवा ३०० पृष्ठका यहां विस्तार वढ़ जावें जिससें आठों महाशयों के नामकी पर्युषणा सम्बन्धी अबी जो समीक्षा सरू हैं उसी में अन्तर पड़ जावें और यह ग्रन्थ भी बहुत बड़ा हो जावें इसलिये अबी यहां न्याय रत्नजी सम्बन्धी विशेष न लिखते पर्युषणा सम्बन्धी विषय पूरा होये बाद अन्त में थोडासा संक्षिप्तसे लिखने में आवेगा जिससे श्रीजिनाज्ञा इच्छक आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको सत्यासत्यका निर्णय स्वयं मालुम हो सकेगा ;____ और अब छठे महाशय श्रीवल्लभविजयजीकी तरफसे पर्युषणा सम्बन्धी जो लेख जैन पत्र में प्रगट हुवा है उसीकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं-जिसमें प्रथमही आगष्ट मासकी ८ वी तारीख संवत् १९०९ गुजराती प्रथम श्रावण वदी १ रविवारका मुम्बई सें प्रसिद्ध होने वाला जैनपत्रके १८ वें अङ्कके पृष्ठ १० विषे गुजराती भाषामें For Private And Personal Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४३ ] प्रश्नोत्तर छपे हैं जिसमें किसी मुम्बईवाले श्रावकने प्रश्न किया हैं कि ( पर्युषणपर्व पेला श्रावणमां करिये तो दोष लागेके केम) इस प्रश्नका श्रीपालणपुरसे श्रीवल्लभविजयजीने यह जबाब दिया कि ( पर्युवणपर्व पेला श्रावणमां नज थाय आज्ञाभङ्ग दोष लागे) इस लेखका मतलब ऐसे निकलता हैं कि गुजराती प्रथम श्रावण बदी हिन्दी दूसरे श्रावण वदीसें लेकर दूसरे श्रावण शुदी में अर्थात् आषाढ़ चतुर्मासीसें पहात दिने पर्युषणा करने वालोंको जिनाज्ञा भङ्गके दूषित ठहराये तब श्रीलश्करसे श्रीबुद्धिसागरजीने श्रीपालणपुर श्रीवल्लभविजयजीको सुन्दर ओपमा सहित वन्दनापूर्वक विनय भक्सेि एक पोष्टकार्ड लिख भेजा उसी में लिखा था कि-आगष्ट मास की-८ वीं तारीखका जैन पत्रके १८ वें अङ्कमें (पर्युषण पर्व पेला श्रावणमां नजथाय आज्ञाभङ्ग दोष लागे ) यह अक्षर जिप्त सूत्र अथवा वृत्तिके आधारसें आपने छपवाये होवें उसी सूत्र अथवा वृत्तिके पाठ लिखकर भेजनेकी कृपा करना आपको मध्यस्य और विद्वान् सुनते हैं इस लिये आपने शास्त्र के प्रमाण बिना अपनी कल्पनासे झूठ नही छपवाया होगा तो जरूर शास्त्र पाठके अक्षर लिख कर भेजेंगें इत्यादि-इस तरहका पोष्टकार्ड में मतलब लिख कर खानगीमें भेगाथा सो कार्ड श्रीवल्लभविजयजीको श्रीपालणपुरमें खास हाथोहाथ पहुंच गया परन्तु श्रीवल्लभविजयजीने उस कार्ड का कुछ भी पीला जबाब लिखकर नहीं भेजा जब कितनेही दिन तक तो जबाब आनेकी राह देखी तथापि कुछ भी जबाब नही आया तब फिर भी For Private And Personal Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४४ ] दूसरा पत्र श्रीवल्लभविजयजीको, उपर लिखे मतलब के लिये भेजने में आया तो भी श्रीवल्लभविजयजीनें कुछ भी जबाब नही दिया तब श्रीपालणपुर के प्रसिद्ध आदमी पीताम्बर भाई हाथी भाई महताके नामसे एक पत्र लिखा उसीमें भी विशेष समाचार पर्युषणा सम्बन्धी श्रीवल्लभविजयजीनें दूसरे श्रावणमें आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने पर्युषणा करने वालोंको आज्ञाभङ्गका दूषण लगाया जिसका खुलासे उत्तर पूढाया था और उसी पत्र में ५० दिने पर्युषणा शास्त्रकारोंने करनेका कहा हैं उसी सम्बन्धी पाठ भी लिख भेजे थे वह पत्र श्रीवल्लभविजयजीको पीताम्बर भाईने पहुंचाया और जबाब भी पूछा इतने पर भी श्रीवल्लभविजयजीनें अपनी बातका जबाब नही दिया और शास्त्रोंके पाठोंको प्रमाण भी नही किये परन्तु स्वपक्षपातका पण्डिताभिमान के जोर सें अन्याय कारक विशेष झगड़ा फैलानेका कारण करके माया वृत्ति से आप निदूषण बन कर श्रीबुद्धिसागरजीको दूषित ठहराने के लिये अकोबर मासकी ३१ वी तारीख सन् १९०ल आसोज वदी ३ वीर संवत् २४३५ का अङ्क २९ वा के पृष्ट ४-५में अपनी चतुराईकों प्रगट करी हैं जिसको इस जगह लिख दिखाता हुं ; [ खबरदार ! होवो होशियार ! ! करो विचार ! निकालो सार ! ! ! लेखक - मुनि-बल्लभ विजय - पालणपुर, इसमें शक नहीं कि, अंग्रेज सरकार के राज्य में, कलाकौशल्य की अधिकता हो चुकी है, हो रही है और होती रहेगी ! परंतु गाम वसे वहां भङ्गी चमारादि अवश्य होते हैं ! तद्वत अच्छी अच्छी बातोंकी होशियारीके साथ में बुरी For Private And Personal Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४५ ] बुरी बातोंकी होशियारी भी आगे ही आगे बढती हुई नजर आती है ! इस वास्ते खबरदार होकर होशियारीके साथ विचार कर सार निकालनेका ख्याल रखना योग्य हैताकि पीछेसे पश्चात्ताप करनेकी जरूरत न रहे ! __ राज्य अंग्रेज सरकारका हैं कानून ( कायदे) सबके लिये तैयार है ! चाहे अमीर हो, चाहे गरीबहो ; चाहे राजा हो, चाहे रंक हो! चाहे शहरी हो, चाहे गँवार हो ! जो एक कहेगा दो सुनेगा ! थोडे समयकी बात है, लश्कर से बुद्धि सागर नामा खरतर गच्छीय मुनिके नामका पत्र हमारे पास आया, जिसमें पर्युषणाकी बाबत कुछ लिखा था, हमने मुनासिब नहीं समजा कि' वृथा समय खोकर परस्पर ईर्षाकी वृद्धि करनेवाला काम किया जावे ! कितनेही समयसै गच्छ संबंधी टंटा प्रायः दबा हुवा है, तपगच्छ खरतरगच्छ दोनो ही गच्छ प्रायः परस्पर संपसे मिले जुलेसे मालुम होते है' उनमें फरक पड़नेसे कुछ दबे हुए जैन शासन के वेरिओंका जोर हो जानेका सम्भव है। यह तो प्रसिद्धही है कि दोनोंकी लड़ाई में तीसरेका काम हो जाता है। यद्यपि महात्मा मोहनलालजी महाराज खरतर गच्छके थे, तथापि तपगच्छवाले उनको अधिकसे अधिक मान देते थे ! यही गच्छ पक्षकी कुछक शांति लोकोंके देखने में आती थी ! मरहूम महात्मा भी तपगच्छकी बाबत अपना जुदा ख्याल नहीं जाहिर करते थे ! बलकि खुद आप भी तपगच्छकी समाचारी करते थे जो कि प्रायः प्रसिद्ध ही है परन्त सूर्पनखा ममान जीव उभय पक्षको दुःखदायी होते हैं तद्वत् बुद्धिसागर For Private And Personal Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४६ ] खरतर गच्छीय मुनि नाम धारकने भी अपनी मनःकामना पूर्ण न होनेसे, रावणके समान हुँढियांका सरणा लेकर युद्धारंभ करना चाहा है।] पाठकवर्गकों छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीके उपर का लेखकी समालोचनारूप समीक्षा करके दिखाता हुं जिसमें प्रथमतो मेरेकों इतना ही कहना उचित हैं कि छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजी साधु नाम धारक होकर खास आप झगड़े का मूल खड़ा करके दूसरेको दूषित करना और अन्याय कारक माया वृत्तिका मिथ्या भाषणसे आप निर्दूषण बनना चाहते है सो सर्वथा अनुचित हैं क्योंकि प्रथम ही आपने (शास्त्रकारोंकी रीति मूजब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार आषाढ़ चौमासीसे पचास दिने श्रावणवृद्विके कारणसे दूमरे श्रावणमें पर्युषणा करनेवालोंकों) आज्ञाभङ्ग का दूषण लगा के जैन पत्रमें छपवा कर प्रगट कराया तब श्रीलश्करसे श्रीबुद्धिसागरजीने आपकों खानगीमें शास्त्रका प्रमाण पूछा था उन्ही को शास्त्रका प्रमाण आप खानगीमें पीछा नहीं लिख सके और अन्यायकी रीतिसें उलटा रस्ता पकड़के खानगीकी वार्ताको प्रसिद्धीमें लाकर कृथा निष्प्रयोजनकी अन्यान्य बातोंको और भङ्गी चमार सूर्पनखा वगैरह अनुचित शब्दोंको लिखके विशेष झगड़ेका मूल खड़ा करके भी आप निर्दूषण बनकर अपने अन्यायको न देखते हुए और शास्त्र के पाठकी बात न्याय रीतिसें पूछने वाले को दूषित ठहराते हुए अपने योग्यता माफक शब्द प्रगट किये याने लौकिकमें कहते हैं कि-जैसी होवे कोठे, वैसी For Private And Personal Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४७ ] निकले होठे,-अर्थात् जिस आदमीके जैसी बात दिलमें होवे उस आदमीसें वैसेही अन्तरकी बातके सचकरूप शब्द करके सहित भाषा निकलती है तैसेही छठे महाशयजीने भी मानु अपनी आत्मामें रहनेवाले गुणों के सचक शब्द लिखके प्रसिद्ध किये है सो वह द्रव्य शब्दके भाव गुण छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीमें अवश्य ही दिखते हैं सोही पाठकवर्गकों दिखाता हुं और साथ साथमें छठे महाशयजीकी अन्याय कारक अन्यान्य बातोंकी समीक्षा भी करता हुं ; छठे महाशयजीने ( गाम वसे वहाँ भङ्गी चमारादि अवश्य होते हैं ) यह अक्षर लिखे हैं इस पर मेरेको इतना ही कहना उचित हैं कि श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके आराधन करनेवाले जो सज्जन है सोही मानों गाम वसता है उसी गामरूपी श्रीजिनशासनमें उत्सत्र भाषक निन्दकादि भङ्गी चमारोंकी तरह उक्त महाशयजी आदि वसते हैं सो उस गामकी निन्दारूप मलिनताकों उठाते हुए भी आप पवित्र बनना चाहते है सो कदापि नही बन सकते हैं और आगे फिर भी लिखा हैं कि ( अच्छी अच्छी बातोंकी होशियारीके साथमें बुरी बुरी बातोंकी होशियारी भी आगे ही आगे बढ़ती हुई नजर आती हैं) छठे महाशयजीके इन अक्षरों पर मेरेको यही कहना पड़ता है कि इस अंग्रेजी राज्यमें कलाकौशल्यता और न्यायशीलताके कारण श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञारूपी अच्छी अच्छी होशियारीको वृद्धिके साथ साथमें बुरी बुरी होशियारीकी तरह प्रथम कदाग्रहके बीज लगानेवाले For Private And Personal Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २४८ ] तथा अन्यायमें चलनेवाले और दूसरोंको मिथ्या दूषण लगानेवाले छठे महाशयजी वगैरह अनेक पक्षपाती पुरुष बुरी बुरी, होशियारीकी बातोंका सरणा लेते हैं सो घड़ी ही अफसोसकी बात हैं ; और आगे फिर भी छठे महाशयजीनें लिखा है कि ( खबरदार होकर होशियारीके साथ विचारकर सार निका लनेका ख्याल रखना योग्य हैं ताकि, पीछेसे पश्चात्ताप करने की जरूर न रहें ) इन अक्षरोंको लिखके छठे महाशयजी दूसरेको होशियार होनेका बताते हैं परन्तु अपनी आत्माकी तरफ कुछ भी होशियारी न दिखाते हुए बिन विचारा काम करके इन भव तथा पर भव और भवो भवमें पश्चात्ताप करनेका कुछ भी भय नही रखते हैं क्योंकि श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महान् उत्तम धुरन्धराचायोंने और खास छठे महाशयजीके ही पूर्वज पूज्यपुरुषोंने अनेक सूत्र, वृत्ति, चूर्णि प्रकरणादि अनेक शास्त्रोंमें आषाढ़ चौमासीसें एक मास और वीश दिने याने पचास दिने श्रीपर्युषण पर्वका आराधन करना कहा है और इस वर्त्तमान कालमें लौकिक पञ्चाङ्गमें श्रावणादि मासोंकी वृद्धि होने के कारणसे आषाढ़ चौमासीसे पचास दिन दूसरे श्रावण में पूरे होते हैं तब शास्त्रानुसार पचास दिनकी गिननीसें दूसरे श्रावण में पर्युषणा करनेवाले श्रीजिवेश्वर भगवान्‌की आज्ञाके आराधक ठहरे और जैन शासनके प्रभावक तथा युगप्रधान और बुद्धिनिधान उत्तमाचायोंकी श्रीजिनाशा मुजब दूसरे श्रावण में पर्युषणा करनेकी अनुक्रमें अखण्डित महत परम्परा (अनुमान १४०० वर्ष हुए जैनपञ्चाङ्गके अभाव , For Private And Personal Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२ [ २४९ ] से आत्मार्थी पुरुषोंकी) चली आती है उसी मुजब मोक्षाभिलाषी सज्जन वर्त्तते हैं जिन्हों को छठे महाशयजीनें अपनी क्षुद्रबुद्धिकी तुच्छ विद्वत्ताके अभिमान से उत्सूत्र भाषणका भय न करते एकदम आज्ञा भङ्गका दूषण लगाके छापामें छपानेकी आज्ञा करी और शास्त्रानुसार चलने वालों को मिथ्या दूषण लगानेके कारणसे झगड़ा फैलानेके कारण का जरा भी विचार नही किया और जब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने पचास दिने पर्युषणा करनेका कहा है उसीके अनुसारे आत्मार्थी सज्जन पुरुष दूसरे श्रावणमें पचास दिने पर्युषणा करते है जिन्होंको छठे महाशयजी आज्ञाभङ्गका दूषण लगाते है जिससे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके वचनका अनादर होकर उन महाराजोंकी महान् आशातना होती है तथा अनेक सूत्र, चूर्णि, वृत्ति, प्रकरणादि शास्त्रोंके पाठोंके मुजब नहीं वर्त्तने से उत्थापन होता है और उन महाराजोंकी आशातना तथा अनेक शास्त्रों के पाठोंका उत्थापन और उन महाराजोंकी आज्ञानुसार अनेक शास्त्रोंके प्रमाणयुक्त वर्त्तने वालों को स्वपक्षपात के पंडिताभिमान में मिथ्या दूषण लगाना सो निःकेवल उत्सूत्रभाषणरूप है और उत्सूत्र भाषणके लिये ; श्रीभगवतीजी सूत्रमें १ तथा तद्वृत्ति में २ श्रीउत्तराध्ययनजी सूत्रमें ३ तथा तीनकी छ (६) व्याख्यायोंमें श्रीदशवेकालिक सूत्रमें १० तथा तीनकी चार व्याख्यायों में १४ श्रीसूयगडाङ्गजी (सूत्रकृताङ्गजी) सूत्रकी नियुक्तिमें १५ तथा तद्वृत्ति में १६ श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रमें ११ तथा तद्वृत्ति १८ श्री आवश्यकजी सूत्रकी चूर्णि में १९ श्री आवश्यकजी सूत्रकी Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५० ] वहत्तिमें २० तथा प्रथम लघु वृत्तिमें २१ और दूसरी लघु वृत्तिमें २२ श्रीविशेषावश्यकमें २३ तथा तवृत्तिमें २४ श्रीसाधप्रतिक्रमणसत्रकी वृत्तिमें २५ श्रीमूलशुद्धिप्रकरणमें २६ श्रीमहानिशीथ सत्रमें २७ श्रीधर्मरत्नप्रकरणमें २८ तथा तद्वृत्ति २९ श्रीसङ्घपट्टक वृहद्वत्तिमें ३० श्रीश्राद्धविधि वृत्तिमें ३१ श्रीआगम अष्टोत्तरीमै ३२ तथा तत्तिमें ३३ श्रीसन्देहदोलावलीवृत्तिमें ३४ श्रीसम्बोधसत्तरीमें ३५ तथा तत्तिमें ३६ श्रीवैराग्यकल्पलतामें ३१ श्रोत्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित्रमें ३८ और श्रीकल्पसूत्रकी सात व्याख्यायोंमें ४५ इत्यादि अनेक शास्त्रों में और भाषाके स्तवन, पद, ढाल वगैरहमें भी अनेक जगह लिखा है कि शास्त्र पाठ तथा एकाक्षरमात्रभी प्रमाण नहीं करनेवाला निन्हव उत्सूत्र भाषककों श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्य परम गुरुजन महाराजोंकी आशातना करने वाला और उन्हीं महाराजोंके वाक्यकों न मानता हुवा उत्थापन करने वाला बहुलकर्मी, माया सहित मिथ्या भाषण करने वाला, संयमसे भ्रष्ट, घोर नरक में गिरने वाला, चतुरगतिस्प संसारमें कटुक विपाक दारुण ( भयङ्कर ) फलको भोगने वाला, सम्यगदर्शमसें भ्रष्ट, मिथ्यात्वी, दुर्लभबोधि, अनन्त संसारी, मोहन्यादि आठ कोंके चीकणे बन्धको बाँधने वाला, पापकारी इत्यादि अनेक विशेषण शाखोंमें कहे हैं जिसके सब पाठ इस जगह लिखने से बहुत विस्तार हो जावे तथापि भव्यजीवोंको निःसन्देह होनेके लिये थोडेसे पाठ भी लिख दिखाता हुं ; श्रीलक्ष्मीवल्लभगणिजी कत श्रीउत्तराध्ययनवृत्तौ अष्टादशाध्ययने-संयतराजर्षि क्षत्रियमुनिर्वदति हे महामुने For Private And Personal Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५१ ] ये पापकारिणो नराः पापं असत् परूपणं कुर्वन्तीत्येवं शीलाः पापकारिणो ये नराः भवन्ति ते नराः घोरे भीषणे ( भयङ्करे ) मरके पतन्ति च पुनः धर्म सत् परुपणरूपं चरित्राराध्यदिव्यं दिवः सम्बन्धीनी उत्तमां गतिं गच्छन्ति इत्यादि ॥ इस पाठमें उत्सूत्र परूपणा करने वालेको भयङ्कर नरक और सत्य परूपणा करने वालेकों देव लोगकी गति कही हैं । और श्रीशान्तिमूरिजीकृत श्रीधर्मरत्नप्रकरण मूल तथा तवृत्ति श्रीदेवेन्द्रसरिजी कृत भाषा सहित श्री पालीताणासें श्रीजैनधर्म विद्याप्रसारकवर्गकी तरफसे छपके प्रसिद्ध हुवा हैं जिसके तीसरे भागके पृष्ठ ८२। ३। ८४ का पाठ गुजराती भाषा सहित नीचे मुजब जानो ;यथा-अइ साहस मेयं जं, उस्मुत्त-परूवणा कडुविधागा ॥ जाणंतेहिवि दिनइ, निद्दे सो मुत्तबज्झत्थे ॥१०॥ मूलनो अर्थ-उत्सूत्रपरूपणा कडवां फल आपनारी के एवं जाणतांछतां पण जेओ सूत्रबाह्य अर्थमां निश्चयापी देछे ते अति साहसछे ॥ ११ ॥ टीका-ज्वलज्ज्वालानल प्रवेशकारिनर साहसादप्यधिकमतिसाहसमेतद्वर्तते यदुत्सत्रपरूपणा सत्रनिरपेक्ष देशना कटुविपाका दारुणफला जानानैरवबुध्यमानैरपि दीयते वि. तीर्य्यते निर्देश्यो निश्चयः सूत्रबाटै जिनेन्द्रागमानुक्ताथै वस्तु विचारे किमुक्तं भवति दुभासिएण इक्केण, मरीईदुक्खसागरं पत्तो। भमिओ कोडाकोडिं, सागरसिरिनामधिज्जाणं ॥१॥ उस्मुत्तमा चरन्तो-बंधइकम्म सुचिकणं जीवो । संसारञ्च पवढाइ, मायामोसं च कुवइय ॥ २॥ उम्मग्गदेपओमग्ग-मास For Private And Personal Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५२ ] ओ गूढहिययमाइलो। सढसीलोयससल्यो-तिरिया बंधए जीवो ॥३॥ उम्मग्गदेसणाए-चरणं नासन्ति जिणवरिंदाणं। वावन्नदंसणा खलु-नहुलभातारिसादटुं ॥४॥ इत्याद्यागम वचनानि श्रुत्वापि स्वाग्रहग्रहग्रस्त चेतसो यदन्यथान्यथा व्याचक्षते विधति च-तन्महासाहसमेवा नर्वापारासारसंसार पारावारोदरविवरभावि भूरिदुःखभाराङ्गीकारादिति । ___टीकानो अर्थ-बलती आगमा पेसनारमाणसनासाहसकरतां पण अधिक आ अतिसाहसछे के सूत्रनिरपेक्ष देशना कडवां एटले भयङ्कर फल आपनारीछे एम जाणनारा होइने पण सूत्रबाह्य एटले जिनागममां नही कहेल अर्थमां ए वस्तु विचारमा निर्देश एटले निश्चय आपीदेछे-एटलेशंका तेकहेछे-मरीचि एकदुर्भाषितथी दुःख नादरियामा पडी क्रोडाक्रोडसागरोपम भम्यो।१। उत्सत्र आचरतां जीव चीकणा कर्म बांधेछे संसारवधारेले अने मायामृषा करेछे ।२। उन्मार्गनी देशना करनार मार्गनो नाशकरनार गूढहृदयथी मायावी शठ अने सशल्य जीव तिर्यंचनो आयुष्य बांधेछे ।३। जेओ उन्मार्गनी देशनाथी जिनेश्वरना चारित्रनो नाशकरेछे तेवा दर्शनभ्रष्ट लोकोने जोवा पणसारा नहीं।४। आवगेरे आगमना वचनो सांभलीने पण पोताना आग्रहमां ग्रस्त बनी जे कांइ आडं अवलुं बोलेछे तथा करेछे ते महा साहसजछे केमके एतो अपार अने असार संसाररूप दरि याना पेटमा थनार, अनेक दुःखनभार एकदम अङ्गीकार करवा तुल्य छ । और फिर भी तीसरा भागके पृष्ठ २४२ का पाठ भाषा सहित नीचे मुजब जानो यथा For Private And Personal Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५३ ] अयमत्राशयः-सम्यक्त्वज्ञामचरणयोः कारणं यतएवमागमः ता दंसणिस्सनाणं, नाणेण विणा गहुंति चरणगुणा ॥ अगुणस्स नत्यि मुक्खो, नत्थि अमुक्खस्स निवाणं ॥१॥ इति तच्च गुरुबहुमानिन एव भवत्यतो दुःकरकारकोपि तस्मिवज्ञानविदध्यात् तदाज्ञाकारि च भूयाद्यत उक्तंउहहम दसमदुवालसहिं, मासद्ध मास खमणेहिं ॥ अकरंतो गुरुवयणं, अणंत संसारिओ अणिओ ॥१॥इत्यादि इहां आशय एछे के सम्यक्त्व ए ज्ञान अने चारित्रनु कारणछे जे माटे आगममा आरीते कहेलुछे-सम्यक्त्व वंतनेज जान होयछे अने ज्ञान विना चारित्रना गुण होता नथी अगुणीने मोक्ष नथी अने मोक्ष बगरमाने निर्वाण नथी, हवे ते सम्यक्त्व तो गुरुनो बहुमान करनारनेज होयछे एथी करीने दुःकरकारी थईने पण तेनी अवज्ञा नहीं करतां तेना आज्ञाकारी थर्बु जे माटे कहेलुंछे के छठ, अठम, दशम, द्वादश तथा अर्द्धमासखमण अने मासखमण करतो थको पण जो गुरुनो वचन नही माने तो अनंत संसारी थायछे। ___और श्रीरत्नशेखरसूरिजी कृत , श्रीश्राद्धविधित्तिका गुजरातीभाषान्तर शाः-चीमनलाल शांकलचंद मारफतीयाने श्रीमुंबई में छपवा कर प्रसिद्ध किया है जिसके पृष्ठ २८८ का लेख मीचे मुजब जानो ;.. आशातमाना विषयमा उत्सूत्र [ सूत्रमा कहेला आशयथी विरुद्ध] भाषणकरवाथी अरिहंतनी के गुरुनी अव हेलना करवी ए मोटी आशातनाओ अनन्तसंसारनी हेतुछे जेमके उत्सूत्र प्ररूपणाथी सावधाचार्या, मरीची,जमाली,कुल For Private And Personal Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२५४ ] बालुओसाधु विगेरे घणाक जीवो अनन्त संसारी पयाले कह्युछे के —— उत्सूत्तभासगाणं, बोहिनासो अनंत संसारो । पाण ए वि धिरा उत्सुक्तं ता न भासति ॥ १ ॥ तित्ययरं पवयण सूअं, आयरिअ गणहरं महट्ठीअ । आसायंतो बहुसो, अनंत संसारिओ होई ॥ २ ॥ उत्सूत्रना भाषकने बोधिबीजनो नाश थायछे अने अनन्त संसारनी वृद्धिथायले माटे प्राणजतां पण धीरपुरुषो तत्सूत्र वचन बोलता नथी तीर्थङ्कर, प्रवचन [ जैनशासन ] ज्ञान, आचार्य, गणधर, उपाध्याय, ज्ञानादिकथी महर्द्धिकसाधु, साधु ए ओनी आशातना करतां प्राणी घणुकरी अनन्त संसारी थायले । और सुप्रसिद्ध युगप्रधान श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी महाराजने श्रीआवश्यकभाष्य [ विशेषावश्यक] में कहा है यथा -- जे जिनवयणु तिम्ने, वयणं भासन्ति जे उ मन्नति । सम्मदिठीणं तं दंसणपि संसार बुद्धि करंति ॥ १ ॥ भावार्थ:- जो प्राणी श्रीजिनेश्वर भगवान् का वचनके विरुद्धवचन [उत्सूत्र ] भाषण करता होवे और उसीको जो मानता होवे उस प्राणीका मुख देखना भी सम्यक्त्वधारियोंको संसार वृद्धि करता है ॥ १ ॥ अब आत्मार्थी विवेकी सज्जन पुरुषोंको निष्पक्षपातकी दीर्घदृष्टि विचार करना चाहिये कि उत्सूत्र भाषण करने वाला तो संसारमें रुले परन्तु उत्सूत्र भाषकका मुख देखनेवाले अर्थात् उस उत्सूत्र भाषक सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट, दुष्टाचारीको श्रद्धापूर्वक वन्दनादि करने वालोंको भी संसार की वृद्धिका कारण होता है तो फिर इस वर्तमान पञ्चम काल में उत्सूत्र भाषकोंको परमपूज्यमानके उन्ही के कहने For Private And Personal Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५५ ] मुजब वर्तने वाले गच्छपक्षी दृष्टिरागी विचारे भोले जीवोंके कैसे कैसे हाल होवेंगे सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जानें-- ... उपरमें उत्सूत्र भाषक सम्बन्धी इतमा लेख लिखनेका कारण यही है कि उत्सूत्रभाषक पुरुष श्रीतीर्थपती श्री तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी और अपने पूर्वजोंकी आशातना करने वाला और भोले जीवोंको भी उसी रस्ते पहुंचानेके कारणसे संसारकी वद्धि करता है जिसमें उसीकों पर भवमें तथा भवो भवमें नरकादि अनेक विडम्बना भोगनी पड़ती है इसलिये महान् पश्चात्तापूका कारण बनता है और इस भवमें भी उत्सूत्र भाषकको अनेक उपद्रव भोगने पड़ते है, तैसे ही छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीने भी उत्सूत्र भाषण करके श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाके आराधक पुरुषोंको मिथ्या आजा. भङ्गका दूषण लगाकर जैनपत्रमें प्रसिद्ध कराके झगड़ेका मूल खड़ा किया और बड़े जोरके साथ पुनः जैनपत्र में फैलाया जिससे आत्मार्थी निष्पक्षपाती सज्जनपुरुष तथा अपने [छठे महाशयजीके ] पक्षधारी श्रीतपमच्छके सज्जन पुरुष और खास छठे महाशयजीके मण्डलीके याने श्रीन्यायाम्भोनिधिजीके परिवार वाले भी कितने ही पुरुष छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीपर पूरा अभाव करते है कि ना हक वृथा जो संपसे कार्य होतेथे जिसमें विघ्नकारक झगड़ा खड़ा किया है इसलिये छठे महाशयजीको इन भवमें भी पूरे पूरा पश्चात्ताप करनेका कारण होगया है तथा करते भी है। और उत्सूत्र भाषण करके दूसरों को मिथ्या दूषण लगा. For Private And Personal Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५६ ] मेके कारणसें उपरोक शास्त्रोंके प्रमाणानुसार पर अवमें तथा भवोभवमें छठे महाशयजीको पूरे पूरा पश्चात्ताप करना पड़ेगा इस लिये प्रथमही पूर्वापरका विचार किये विना पश्चात्ताप करनेका कार्य करना छठे महाशयजी को योग्य नही था तथापि किया तो अब मेरेको धर्मबन्धु की प्रीतिसें छठे महाशयजीको यही कहना उचित है कि आपको उपरोक्त कार्योसें संसार वृद्धिके कारणसें यावत् भवोभवमें पश्चात्ताप करनेका भय लगता होवे तो. अच्छका पक्षपात और पण्डिताभिमान को दूरकरके सरलतापूर्वक मन वचन कायासें श्रीचतुर्विध संघसमक्ष उपर कहे सो आपके कार्योंका मिथ्या दुष्कत देकर तथा आलोचना लेकर और अपनी भूल पीशी ही जैनपत्र द्वारा प्रगट करके उपरोक्त उत्सूत्रभाषणके फल विपाकोंसें अपनी आत्माको बचा लेना चाहिये नही तो बड़ी ही मुश्किलीके साथ उपर कहे सो विपाकोंको भवान्तरमें भोक्ते हुए जरूर ही पश्चात्ताप करनाही पड़ेगा वहां किसीका भी पक्षपात नही है इस लिये आप विवेक बुद्धिवाले विद्वान् हो तो हृदयमें विचार करके चेत जावो मैंने तो आपका हितके लिये इतना लिखा है सो मान्य करोगे तो बहुत ही अच्छी बात है आगे इच्छा आपकी ;____ और आगे फिर भी छठे महाशयजी-अंग्रेज सरकारके कायदे कानून दिखाकर एक कहेगा दो मुनेगा-ऐसा लिखते हैं इस पर मेरेको बड़ेही अफसोसके साथ लिखना पड़ता है कि छठे महाशयजी साधु हो करके भी इतना मिथ्यात्वको वृथा क्यों फैलाते हैं क्योंकि सम्यक्त्वधारी For Private And Personal Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५७ ] आत्मार्थी सज्जन पुरुष होते हैं सो तो अपनी भूलको मंजूर कर दूसरेको हितशिक्षारूप सत्य बातको प्रमाण करके उपकार मानते हुए सुख शान्तिसे संप करके वर्तते हैं और मिथ्यात्वी होते है सो सत्य बातकी हितशिक्षाको कहनेवाले पर क्रोधयुक्त हो कर अपनी भूलको न देखते हुए अन्यायसें झगड़े का मूल खड़ा करनेके लिये (हितशिक्षाको ग्रहण नही करते हुए ) एककी दो सुनाकर रागद्वेषसे विसंवाद करते हैं तैसेही छठे महाशयजीने भी एककी दो सुनानेका दिखाया परन्तु शास्त्रार्थसें न्याय पूर्वक सत्य बातको ग्रहण करने की तो इच्छा भी न रख्खी, इस बातको दीर्घ दृष्टि से सज्जन पुरुष अच्छी तरहसे विशेष विचार सकते हैं,-- __और सरकारी कानून कायदेका छठे महाशयजीने लिखा है इस पर भी मेरेको यही कहना पड़ता है कि प्रथम झगड़ा खड़ा करनेवाले और दूसरोंको मिथ्या दूषण लगानेवाले तथा मायावृत्तिकी धूर्ताचारीसें वक्रोक्तिकरकेपण्डिताभिमानसें अमुचित शब्द लिखनेवाले और खानगी में न्याय रीतिसें पूछने वालेको प्रसिद्धीमें लाकर उसीको अयोग्य ओपमा लगाके अवहेलना करने वाले आप जैतोंको हितशिक्षा देनेके लिये तो जरूर करके सरकारी कानून तैयार हैं परन्तु आप साधुपदके भेषधारी हो इसलिये सज्जन पुरुष ऐसा करना उचित नही समझते हैं तथापि आप तो उसीके योग्य हो-महाशयजी याद रख्खो-सरकारके विरुद्ध चलनेसें इसीही भवमें जलदि शिक्षा मिलती है तैसेही श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके विरुद्ध चलने वाले उत्सूत्र भाषकको भी इस अवमैं लौकिक में तिर For Private And Personal Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५८ ] स्कारादि तथा पर भवमें और भवो भवमें खूब गहरी वारं. वार नरकादिमें शिक्षा मिलती है इस बातका विचार सज्जन पुरुष जब करते हैं तब तो आपके गुरुजन न्यायांभोनिधिजी वगैरहको और आपके गच्छवासी हठग्राही जो जो पूर्व उत्सूत्र भाषक हुए है तथा वर्तमानमें आप जैसे है और भी आगे होवेंगे उन्होंको क्या क्या शिक्षा मिलेगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने क्योंकि आप लोग उत्सत्र भाषणकी अनेक बातें कर रहे हो जिसमेंसें थोडीसी बातें नमुना रूप इस जगह लिख दिखाता हूं ; १ प्रथम-अधिकमासको गिमतीमें निषेध करते हो सो उत्सूत्रभाषण है। २दूसरा-अधिकमास होनेसे तेरह मासोंके पुण्यपापादि कार्य करके भी तेरह मासोंके पापकृत्योंकी आलोचना नही करते हो और दूसरे तेरह मासोंके पापकृत्योंकी आलो. चना करते है जिन्होंकों दूषण लगाके निषेध करते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। ३ तीसरा-श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार अधिक मासको गिनतीमें प्रमाण करनेवालोंको मिथ्या दूषण लगाते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। ४ चौथा-जैन ज्योतिषाधिकारे सर्वत्र शास्त्रों में अधिक मासको गिनतीमें अच्छी तरहसे खुलासैके साथ प्रमाण करा है तथापि आप लोग जैन शास्त्रों में अधिक मासको गिनती में प्रमाण नही करा है ऐसा प्रत्यक्ष महा मिथ्या बोलते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। ५ पांचमा-पर्युषणाधिकारे सर्वत्र जैन शास्त्रों में आषाढ़ For Private And Personal Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५९ ] चौमासीसे दिनोंकी गिनती करके पचास दिनेही निय करके पर्युषणा करनेका कहा है तथापि भाप लोग दो मावण अथवा दो भाद्रपद होनेसे ८० दिने पर्युषणाकरते हो और ८० दिनके ५० दिन भोले जीवोंको दिखाते हो सो भी माया सहित उत्सूत्र भाषण हैं। ६ छठा-मासद्धिके अभावसे भाद्रपदमें पर्युषणा करनी कही है तथापि आप लोग मासवृद्धि दो श्रावण होते श्री भाद्रपदमें पर्युषणा ठहराते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है । सातमा-श्रीनिशीथ भाष्यमें १ तथा चूर्णिमें २ श्रीवृहस्कल्पभाष्यमें ३ तथा पूर्णिमें ४ और दत्तिमें ५ श्रीसमबायाज जीमें ६ तथा तवृत्तिमें ७ इत्यादि अनेक शास्त्रों में मासद्धिके अभावसे चार मासके १२० दिनका वर्षाकालमें पचासदिने पर्युषणा करनेसें पर्युषणाके पिछाड़ी ७० दिन स्वभाविक रहते हैं जिसको भी आप लोग वर्तमानमें दो आवशादि होनेसे पांच मासके १५० दिनका वर्षाकालमें भी पर्युषणाके पिछाड़ी ७० दिन रहनेका ठहराते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। ८ आठमा-अधिक मास होनेसे प्राचीन कालमें भी पर्युषणाके पिछाड़ी १०० दिन रहते थे तथा वर्तमानमें भी श्रावणादि अधिक मास होनेसें पर्युषणाके पिछाड़ी १००दिन शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक रहते हैं जिसको निषेध करते हो और १०० दिन मानने वालोंको दूषण लगाते हो सो भी उत्सूत्र भाषण हैं। नवमा-अधिक मासके ३० दिनोंका शुभाशुभकृत्य तथा धर्मकर्म और सर्व व्यवहारको गिनतीमें लेकर मान्य करते हो For Private And Personal Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६० ] अप न्यायानुसार दो आश्विनमास होनेसें पर्युषणाके पिछाड़ी कार्मिक मक १०० दिन होते हैं जिसके ७० दिन अपनी काल्पनासें कहते हो सो भी प्रत्यक्ष अभ्यायकारक उत्सूत्र भाषण है। १० दशमा-जैन शास्त्रों में मास वृद्धिको बारह मासोंके ऊपर शिखररूप अधिक मासको कहा है और लौकिकमें भी पुरुषोत्तम अधिक मास कहा हैं इसलिये धर्मव्यवहारमें अधिक मास बारह मासोंसे विशेष उत्तम महान् पुरुषरूप है जिसको भी आप लोग नपुंसक निःसत्व तुच्छादि कहके भोले जीवोंके धर्मकायों में हानी पहुंचातेका कारण करते हो सो भी उत्सूत्र भाषण हैं। १९ इग्यारमा-अधिक मासको कालचुलाकी उत्तम ओपमा गिनती करने योग्य शास्त्रकारोंने दिनी हैं तथापि आप लोग कालचूला कहनेसे अधिक मास गिनती में नही आता है ऐसा कहते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। १२ बारहमा-अधिक मासमें प्रत्यक्ष वनस्पति फलफूलादि प्रफुल्लित होती है तथापि आप लोग नही फूलनेका कहते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। १३ तेरहमा-अधिक मासके कारणसें श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महारोजोंने अभिवर्द्धितसंवत्सर तेरह मासोका कहा है तथापि आप लोग अधिक मासको गिनती निषेध करके श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणथरादि महाराजोंका कहा हुवा अभिवर्द्धित संबस्सरका प्रमाणको तथा अभिवर्द्धित संवत्सरकी संज्ञाको नष्ट कर देते हो इसलिये श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातना कारक For Private And Personal Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अनन्त संसारकी वृद्विरुप यह भी महान् उत्सत्र भाषण है। १४ चौदहमा श्रीजैनशास्त्रोंमें षद्व्यरूप शाश्वती वस्तुयोंमेंसें कालद्रव्य रुपभी एक शाश्वती वस्तु है जिसका एक समयमात्र भी जो कालव्यतीत होजावे उसीका गिनती में कदापि निषेध नही हो सकता है यह अनादि स्वयं सिद्ध मर्यादा है तथापि आपलोग समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन, पक्षसे, दो पक्षका जो एकमास बनता हैं उसी को गिनतीमें निषेध करके अनादि स्वयं सिद्ध मर्यादाको अपनी कल्पनासे तोडमोडकरके ३० मासे-एकमासका गिनतीमें निषेध करनेके हिसावी,३० वर्षे-एकवर्ष, ३०युगेएकयुग, इसी तरहसे, ३० कोडा कोडी सागरोपमें-एक कोडाकोडी सागरोपमके कालको-उहा कर गिनतीमें निषेध करनेका वथा प्रयास करते हो सो भी यह महान् उत्सूत्र भाषण है। ___ और १५ पंदरहमा-जैनपञ्चाङ्ग का अबी वर्तमानकालमें विच्छेद है तथापि आपलोंगोंकी तरफसे मिथ्यात्वकी वृद्धिकारक मनमानी अपनी कल्पनाका पञ्चाङ्गको जैनपञ्चाङ्ग ठहराकर प्रसिद्ध करबाते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है - १६ सोलहमा-श्रीनिशीथसत्रके भाष्यादि शाखोंमें सूर्योदयकी पर्व तिधिको न माननेवालेको मिथ्यात्वी कहा है और लौकिक पञ्चाङ्क में दो चतुर्दशी वगैरह तिथियां होती है उसी में पर्वरुप प्रथम चतुर्दशी सूर्योदय से लेकर अहोरात्रि ६० घड़ी नक संपूर्ण चतुर्दशीका ही वर्ताव रहता है उसीमें अपर्व सूप त्रयोदशीके वर्तावका गन्ध भी नही है तथापि आप लोग अपने पक्षपातके जोरसें और पण्डिताभिमानका For Private And Personal Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६२ ] फन्दसें जबरदस्ति सूर्योदयको पर्वरूप प्रथम चतुर्दशीको पर्वरूप नही मानते हुए, अपर्वरूप त्रयोदशी बनाकर के संख्याते, असंख्याते, अनन्ते जीवोंकी हानी तथा अब्रह्मचर्य्यादि पञ्चाश्रव सेवनका और सब संसार व्यवहारके कायोंसे आरम्भादि होनेका कारणमें अधोगतिके रस्ता की खर्चीरूप कायोंमें आपलोग कटीबद्ध तैयार हो और अपने संयमरूप जीवितव्यके नष्ट होनेका और मिथ्यात्वी बननेका कुछ भी भय नही करते हो इस लिये यह भी उत्सूत्र भाषण है । ११ सतरहना भी इसीही तरहसें लौकिक पञ्चाङ्गमें दो दूज, दो पञ्चमी, दो अष्टमी, दो एकादशी, वगैरह सूर्योदयको पर्वतिथियां होती है जिसको बदल कर, अपर्वकी - दो एकम, दो चतुर्थी, दो सप्तमी, दो दशमी वगैरह करके मानते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है । १८ अठारहना भी इसीही तरहसे विशेष करके लौकिक पञ्चाङ्गमें संपूर्ण चतुर्दशी पर्वरूप तिथि होती है और दो पूर्णिमा तथा दो अनावस्या भी होती है जिसको तोडमोड़ करके संपूर्ण चतुर्दशीकी, त्रयोदशी और दो पूर्णिमाकी तथा दो अमावस्याकी भी दो त्रयोदशी कोइ भी जैनशास्त्रोंके प्रमाण बिना अपनी कपोल कल्पनायें बना लेते हो सो भी उत्स भाषण हैं । १९ एगुनवीशमा - लौकिक पञ्चाङ्गमें जब कोई कोई वख्त दो पूर्णिमा अथवा दो अमावस्या होती है उसीमें चन्द्र अथवा सर्य्यका ग्रहण प्रथम पूर्णिमाको अथवा प्रथम अमावस्याको होता है जिसको सब दुनिया मानती है और For Private And Personal Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६३ ] शास्त्रों में भी पूर्णिमा अथवा अमावस्याके दिन ग्रहण होने का कहा है तथापि आप लोग सब दुनियाके तथा शास्त्रों के भी विरुद्ध होकरके प्रगट पने ग्रहणयुक्त पूर्णिमा अथवा अमावस्याको चतुर्दशी ठहराकर चतुर्दशीकाही ग्रहण मानते हो यह तो प्रत्यक्ष अन्याय कारक तत्सत्र भाषण है। २० वीशमा-चतुर्दशी का क्षय होनेसे पाक्षिककृत्य पूर्णिमा अथवा अमावस्याको करनेका जैनशास्त्रोंमें कहा है तथापि आप लोग नहीं करते हो और दूसरे करने वालोंको दूषण लगाके निषेध करते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है। २९ एकवीशमा-आप लोग एकान्त आग्रहसें सूर्योदयके बिनाकी तिथिको पर्वतिथिमें नही मानना, ऐसा कहते हो परन्तु जब चतुर्दशीका क्षय होता है तब सूर्योदयकी अयोदशीको चतुर्दशी कहते हो सो भी उत्सत्र भाषण है। २२ बावीशमा-श्रीजनज्योतिषकी गिनती मुजब, चन्द्र के गतिकी अपेक्षासें श्रीचन्द्रप्रज्ञप्ति तथा श्रीसर्यप्रज्ञप्ति यत्ति वगैरह अनेक जैनशास्त्रों में पर्वकी तिथियांके क्षय होनेका लिखा है और लौकिक पञ्चाङ्गमें भी कालानुसार पर्वकी तिथियांका क्षय होता है और जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब वर्तनेकी पूर्वाचार्योंकी खास आज्ञा है, तैसेही आप लोग-दीक्षा, प्रतिष्ठा वगैरह धर्म व्यवहारके कार्यो में घड़ी, पल, तिथि, वार, नक्षत्र, योग राशिचन्द्र, शुभाशुभ मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास वगैरह सब व्यवहार लौकिक पञ्चाङ्गानुसार करते हो तथापि आप लोग, लौकिक पश्चाइमें जो पर्वतिथियांका क्षय होता है उसीको नही मानते हो और माननेवालोंको दूषण लगाके निषेष करते है। सेो भी उत्सत्र भाषण है। For Private And Personal Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६४ ] २३ तेवीशमा-लौकिक पञ्चाङ्गमें दो चतुर्दशी होती है उन्होके मुजब आप लोगोंके पूर्वजोंने भी दो चतुर्दशी लिखी है जिसको आप लोग नहीं मानते हो और लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब युक्तिपूर्वक कालानुसार और पूर्वाचाय्योंकी परम्परासे दो चतुर्दशी वगैरह पर्व तिथियांको माननेवालों को दूषण लगाके निषेध करते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है । २४ चौवीशमा- आपके पूर्वज कृत ग्रन्थ में तिथिका शुद्धाशुद्ध सम्बन्धी जो प्रमाण बताया है उसी मुजब आप लोग नही मानते हो और स्वच्छन्दाचारीसे ( अपनी मति की कल्पना करके) संपूर्ण प्रथम पर्वतिथिको अपर्व ठहरा करके दूसरी - दो अथवा तीन पल ( एक मिनिट ) मात्र की अल्पतर तिथिमें जाते हो और दूसरे - कालानुसार युक्ति पूर्वक तथा विशेष धर्मबुद्धिके लाभका कारण जानके प्रथम संपूर्ण ६० घड़ी की पर्वतिथिको मानते हैं तैसेही दूसरी पर्वतिथिको भी यथायोग्य मानते हैं जिन्होको दूषण लगाके निषेध करते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है । इस तरहकी अनेक बातें आपलोगों में उत्सूत्र भाषण की हो रही है जिसका तथा आपके गुरुजी श्री न्यायाम्भो निधिजीनें भी जैन सिद्धान्त समाचारी पुस्तकका नाम रखके अनुमान ५० जगह उत्सूत्र भाषण करा है जिसका भी नमुनारूप थोड़ीसी बातें आगे लिखने में आयेंगे और उपरकी सब बातोंका निर्णय शस्त्रोंके प्रमाणसे और युक्तिपूर्वक मेरे लिखीत इन्हीं ग्रन्थको आदिसें अन्त तक स्थिरचित्त सत्यग्राही होकर निष्पक्षपातसें मध्यस्य दृष्टि रखकर विशुद्धभावसें पढ़नेवाले आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको अच्छी तरहसें मालूम हो सकेगा ; For Private And Personal Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६५ ] और उत्सत्र भाषणके फलविपाक सम्बन्धी उपरमें ही पृष्ट २४० से २५६ तक लिखने में आया है उसीका भय लगता हो, तथा श्रीजिनेश्वर भगवान् के वचन पर आपलोगोंकी कुछ भी श्रद्धा हो, और अपनेही श्रीतपगच्छके नायक श्रीदेवेन्द्र सरिजी तथा श्रीरत्नशेखर मूरिजीके उत्सत्र भाषक सम्बन्धी उपरोक्त वाक्योंको आपलोग सत्यमानतेहो, और श्रीदेवेन्द्र सरीजी कृत श्रीधर्मरत्नप्रकरण वृत्ति आपलोगोंके समुदाय में विशेष करके व्याख्यानाधिकारे तथा पठन पाठनमें भी वारंवार आती है उन्हीके वाक्यार्थकी आपके हृदय में धारणा हो, तो ऊपरका लेखको परमहितशिक्षारूप समझके उत्सत्र भाषण करते हो जिसको छोड़ो, तथा उत्सूत्र भाषण करा होवे उसीका मिथ्या दुष्कृत देवो, और गच्छके पक्षपात को तथा पण्डिताभिमानको छोड़के श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञा मुजब शास्त्रोंके महत् प्रमाणानुसार आषाढ़ चौमासी से ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेका और अधिक मामको गिनतीमें प्रमाणादि अनेक सत्य बातोंकों ग्रहण करो, और भक्तजनोंकों करावो जिससे आपकी और आपके भक्त जनोंकी आत्मसिद्धिका रस्तापावो-श्रीजिनाज्ञारूपी सम्यक्त्वरत्नके सिवाय मोक्ष साधनमें गच्छका पक्षपात तथा पण्डिताभिमान कुछ भी काम नहीं आता है इसलिये गच्छ पक्षको छोड़के श्रीजिनामा मुजब सत्यबातको ग्रहण करना सोही आत्मार्थी विवेकी विद्वान् सज्जन पुरुषोंको परम उचित है। और आगे फिर भी छठे महाशयजीने लिखा है कि ( थोड़े समयकी बात हैं बुद्धिसागर नामा खरतरगच्छीय ३४ For Private And Personal Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६६ ] भुनिके नामका पत्र हमारे पास आया जिसमें पर्युषणाकी बाबत कुछ लिखाथा हमने मुनासिब नही समजा कि वृथा समय खाकर परस्पर ईर्षाकी वृद्धि करनेवाला काम किया जावे ) इस लेखपर मेरेको वड़ाही आश्चर्य उत्पन्न होता है कि श्रीवल्लभविजयजी ने अपनी मायावृत्तिकी चातुराईको खब प्रगट करी है क्योंकि प्रथम आपनेही दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करने वालोंको आज्ञाभङ्गका दूषण लगाया था उसी सम्बन्धी आपको मोबुद्धिसागरजीने शास्त्रका प्रमाण खानमीमें ही पत्र भेजके पूछा था जिसका जबाब पीछा खानगीमें ही लिख भेजने में तो छठे महाशयजी आपको बहुत समय सृथा खोनेका और परस्पर ईर्षाकी वृद्धि होनेका बड़ा ही भय लगा परन्तु लम्बा चौड़ा लेख जैनपत्रमें भङ्गी धमारादि शब्दोंसें तथा निष्प्रयोजनकी अन्यान्य बातोंको और श्रीबुद्धिसागरजीको सूर्पनखाकी वृधा अमुचित ओपमा लगाके उन्हकी खानगीकी पूछी हुई बातको ( पीछा ही खानगीमें जबाब न देते हुए ) प्रसिद्धमें लाकर अन्यायके रस्त से सन्हकी अवहेलना करनेमें और श्रीखरतरगच्छवालोंके परमपूज्य प्रभावकाचार्यजी श्रीजिनपतिसूरिजी महाराजका श्रीजिनामा मुजब अनेक शास्त्रोंके प्रमाणयुक्त सत्यवाक्यको पक्षपातके जोरसे अप्रमाण ठहरा कर श्रीखरतरगच्छवालोंके दिलमें पूरे पूरा रंज उत्पना करके और दूसरे गुजराती भाषाके लेखमें भी-सर्व संघको, कान्फरन्सको, शेठियोंको, वकीलको, बेरिस्टरको, नाणाकोथली ( रुपैयोंकी थैली ) वगैरहको सावधान सावधान करके श्रीसंघके आपसमे और For Private And Personal Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६७ ] कोर्ट कचेरीमें बड़ेही भारी झगड़ेके कारण करनेका लेख लिखने में तथा प्रसिद्ध करानेमें तो छठे महाशयजी श्रीवामविजयजी आपको खूब लम्बा चौड़ा समय भी मिल गया, और परस्पर आपसमें ईर्षाकी वृद्धि होनेका किञ्चित् भी भय न लगा परन्तु श्रीबुद्धिसागरजीके पत्रका जबाब खानगीमें लिखनेसें छठे महाशयजीको वृथा समय खोनेका तथा परस्पर ईर्षाकी वृद्धि करनेवाला काम करने का भय लगा, यह कैसी अलौकिक विद्वत्ताकी चातुराई ( सज्जन पुरुषोंको आश्चर्य उत्पनकारक ) छठे महाशयजी मापने गच्छ पक्षी दृष्टिरागी बालजीवोंको दिखाकर अपनी बातको जमाई सो आत्मार्थी विवेकी विद्वान् पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे। और आगे फिर भी छठे महाशयजी में लिखा है कि ( कितनेही समयसें गच्छ सम्बन्धी टंटा प्राय दबा हुआ है तपगच्छ खरतरगच्छ दोनोंही पक्ष प्रायः परस्पर संपसे मिले जुलेसें मालूम होते हैं ) इस लेख पर भी मेरेको यही कहना उचित है कि गच्छ सम्बन्धी टंटा दबाकरके शान्त करनेका और संपसें वर्तनेका श्रीखरतगच्छवालांकी महान् सरलताका कारण है क्योंकि श्रीतपगच्छके तो भाप जैसे अनेक महाशय संपके मूलमें अनी लगाके श्री खरतरगच्छवालोंकी सत्य बातका निषेध करनेके लिये सत्सूत्र भाषण करके अपनी मति कल्पनाकी मिथ्या बातका स्थापन करनेके लिये विशेष करके हर वर्षे गांम गांममें पर्युषणाके व्याख्यानाधिकारे श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञानुसार अनेक शास्त्रों के महत् प्रमाण मुजब अधिक मासकी For Private And Personal Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६८ ] गिनती अनादि स्वयं सिद्ध है जिसका खण्डन करके और श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महान् धुरन्धराचार्थ्यांनें और श्री खरतरगच्छ के तथा श्रीतपगच्छ के भी पूर्वाचाय्यने श्रीवीरप्रभुके, छ कल्याणक अनेक शास्त्रों में खुलासा पूर्वक कहे हैं तथापि आप लोग श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की और अपने पूर्वजों की आशातनाका भय न करते उन्ही महाराज के विरुद्ध हो करके, छ कल्याणकका निषेध करते हो और श्रीखरतरगच्छवालोंके ऊपर मिथ्या कटाक्ष करते हुए अनेक बातोंका टंटा खड़ा करनेका कारण करनेवाले आप जैसे अनेक कटीबद्ध तैयार है और अपने संसार वृद्धिका भय नही रखते है इस बात को इसीही ग्रन्थको संपूर्ण पढ़नेवाले विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे और इसका विशेष विस्तार इसीही ग्रन्थके अन्त में भी करने में आवेगा वहां श्रीखरतरगच्छवालोंकी कैसी सरलता है और श्रीaurच्छवाले आप जैसोंकी कैसी वक्रता है जिसका भी अच्छी तरहसें निर्णय हो जायेंगा। और आगे फिरभी छठे महाशयजीनें लिखा है कि ( उनमें - अर्थात्, तपगच्छके खरतरगच्छके आपसमें- -फरक पड़नेसें कुछ दबे हुए जैनशासनके वेरियोंका जोर हो जानेका सम्भव है ) इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना पड़ता है कि छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजी आप श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छके आपसमें विरोध बढ़ाकर संपको नष्ट करना नही चाहते हो और दोनुं गच्छको संपसें मिले जुलेसें रहने की जो आप अन्तर भाव से इच्छा रखते हो तबतो श्रीजनाज्ञा मुजब अनेक महत् शास्त्रोंके प्रमाण For Private And Personal Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६९ युक्त श्रीखरतरगच्छ वालोंकी सत्य बातोंको प्रमाण करके अपनी कल्पित बातोंको छोड़ दो और श्रीखरतरगच्छवालों पर मिथ्या आक्षेप जो आपने उत्सूत्र भाषण करके करा है तथा श्रीबुद्धिसागरजी पर जो जो अन्यायसै अनुचित लेख लिखके जैनपत्र में प्रसिद्ध कराया है जिसकी क्षमा मांगकर उत्सूत्र भाषणका मिथ्या दुष्कृत दो और अपनी भूलको पिछीही जैन पत्र में प्रगट करके सुखशान्तिसें संप करके बत्तों तब दोनुं गच्छके संप रखने सम्बन्धी आपका लिखना सत्य हो सकेगा पर तु जब तक छठे महाशयजी आपके बिना विचारके करे हुए अनुचित कार्योंकी आप क्षमा नही मांगोंगे और सत्य बातोंका ग्रहण भी नही करते हुए अपनी कल्पित बातोंके स्थापन करनेके लिये जो वार्ताका प्रकरण चलता होवे उसीको छोड़के अन्यायके रस्तेसे अन्यान्य अनुचित बातोंको लिखके विशेष झगड़ा बढ़ाते रहोंगे तब तो दोनुं गच्छके संप रखने सम्बन्धी आपका लिखना प्रत्यक्ष मायावृत्तिका मिथ्या है और भोले जीवोंको दिखाने मात्रही है अथवा लिखने मात्रही है सो विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे और दोनुं गच्छके आपसमें वादविवादके कारणसे दबे हुए जैनशासनके धेरियोंका जोर होनेसे मिथ्यात्व वढ़नेका छठे महाशयजी जो आपको भय लगता होवे तो आपनेही प्रथम जैनपत्र में शास्त्रानुसार चलनेवालोंको मिथ्या दूषण लगाके उत्सूत्र भाषणसें झगड़ा खड़ा करा और पुनःपुनः ( दीर्घकाल चलने रूप ) जैन पत्रमें फैलाया है जिसको पिछीही अपने हाथमिथ्या दुष्कृतसे क्षमाके साथ अपनी भूलको जैन . For Private And Personal Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७० ] पत्रही सुधार लो जिससे दोनं गच्छवालोंके मापसमें संप बना रहेगा और दोनु गच्छके आपसमें संपको नष्ट करनेवाले माप लोगोंकी सरफसे पर्युषणाके व्याख्यानमें तथा छापे द्वारा जो जो कार्य करने में आते हैं उसको भी बंध कर दीजिये जिससे दोनु गच्छवालोंके भापसमें जो संप है उसीसें भी खूब गहरा विशेष संप हो जावेगा; तब जैन शासनके वेरियों का कुछ भी जोर नही हो सकेगा, इतने पर भी आप जैसे शास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वक सत्य बात को ग्रहण नही करते हुए, अन्यायसें वाद विवाद करके झगड़ेको बढ़ाते रहोंगे जिस पर जो जो जैनशासनके निन्दक शत्रयोंका जोर बढ़नेका कारण होगा तो जिसके दोषाधिकारी खास आप लोगही होवोंगे सो विवेकबुद्धिसें हृदयमें विचार लेना, और आगे श्रीमोहनलालजीके सम्बन्ध में लिखकर तपगच्छकी समाचारीके बाबत जो आपने लिखा है इसका जबाब-अबी नवमें महाशय श्रीमाणकमुनिजी प्रगट हुवे हैं जिसने अपनी अकलका नमुना जैन पत्र में प्रगट करा है उसीका जबाब आगे लिखने में आवेगा वहां श्रीमोहनलालजी सम्बन्धी भी लिखने में आवेगा;__और छठे महाशयजीने फिर भी अपनी विद्वत्ता की चातुराईका दर्शाव दिखाया है कि-( सूर्पनखा समान जीव उभय पक्षको दुःखदायी होते है तद्वत् बुद्धिसागर खरतरगच्छीय मुनि नाम धारकने भी अपनी मनःकामना पूर्ण न होनेसें रावणके समान ढूंढियोंका सरणा लेकर युद्धारम्भ करना चाहा है ) इस लेख पर मेरेको इनताही कहना है कि-जैसे किसी परितको किसी आदमीमें कोई For Private And Personal Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१ बातका खुलासा पूछा तब उस पण्डितकी उसी बातका खुलासा करनेकी बुद्धि नही होनेसे अपने विद्वत्ताकी इज़्जत रखनेके लिये उस बातका सम्बन्धको छोड़के निष्प्रयोजन की वृथा अन्यान्य बातोंको लाकर अनुचित शब्दोंसे यावत् क्रोधका सरणा ले करके अपनी विद्वत्ताकी बातको जमाता है परन्तु विवेकी विद्वान् पुरुष उस पण्डितका मिथ्या पण्डिताभिमानको और अन्यायके पाखण्डको अच्छी तरह मैं समझ लेते हैं-तैसेही छठे महाशयजी आपनें भी करा अर्थात् आषाढ़ चौमासीसें ५० दिने दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करनेवालोंको आज्ञाभङ्गका दूषण लगाने सम्बन्धी प्रीबुद्धिसागरजीने आपको शास्त्रका प्रमाण पूछा उसीको शास्त्रका प्रमाण बतानेकी आपकी बुद्धि नही होनेसें और शास्त्रका प्रमाण भी आपको नही मिलनेसे ऊपर कहे सो नामधारी पण्डितवत् आपने भी अपनी विद्वत्ताकी इज्जत रखने के लिये शास्त्रका प्रमाण बतानेके सम्बन्धको छोड़ करके निष्प्रयो. जनकी वृथा अन्यान्य बातेंकों लिखकर अनुचित शब्दसे यावत् क्रोधका सरणा लेकर अपनी विद्वत्ताको जमानी चाही परन्तु निष्पक्षपाती विद्वान् पुरुषोंके आगे आपका मिथ्या पण्डितासिमानका और अन्यायके पाखरहका दर्शाव अच्छी तरहसें खुल गया हैं कि-इठे महाशयजीके पास शास्त्रका प्रमाण न होनेसें श्रीबुद्धिसागरजीको सूर्पनखाको ओपमा वगैरह प्रत्यक्ष मिथ्या वाक्य लिखके अपने नामकी हासी कराई है क्योंकि श्रीबुद्धिसागरजीने सूर्पमखाकी तरह दोनु पक्षको दुःखदाई होनेका कोई भी कार्य नही करा है तथा न ढूंढियांका सरणा लिया है For Private And Personal Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७२ ] और न युद्धारम्भ करना चाहा है-तथापि श्रीवल्लभविजयजीने मिथ्या लिखा यह बड़ाही अफसोस है परन्तु 'सतीको' भी वेश्या अपने जैसी समझती है तद्वत् तैसेही छठे महाशयजीने भी निर्दोषी श्रीबुद्धि नागरजीको दोषित ठहरानेके लिये अपने कृत्य मुजब सूर्पनखाके समानका तथा ढूंढियांका सरणा लेनेका और युद्धारम्भ करने का मिथ्या आक्षेप करा मालूम होता है क्योंकि उपरके कृत्य छठे महाशयजी मेंही प्रत्यक्ष है सोही दिखाता हूं; जैसे-सूर्पनखा दोनुं पक्षवालोंको दुःखदाई हुई तैसेही छठे महाशयजी (श्रीवल्लभविजयजी) भी दोनुं गच्छवालोंके आपतका संपको नष्ट करनेके लिये वाद विवादसे झगड़ेका मूल लगाके दोनुं गच्छवालोंको तथा अपने गुरुजनोंके नामको और अपने सम्प्रदायवालोंको भी दुःखदाई हुवे है इस लिये मेरेको भी इस ग्रन्थ की रचना करके आठों महाशयोंके उत्सूत्र भाषणके कुतोंकी ( शास्त्रानुसार और युक्तिपूर्वक ) समीक्षा करके मोक्षाभिलाषी सज्जनोंको सत्यासत्यका निर्णय दिखाने के लिये इतना परिश्रम करना पड़ा है सो इस ग्रन्थको पढ़नेवाले विवेकी मध्यस्थ पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे ;____ और छठे महाशयजी आप लोग अनेक बातोंमें ढूंढियां का सरणा ले कर उन्हें काही अनुकरण करते हो जिसमें से थोडीसी बातें इस जगह दिखाता हूं; १ प्रथम-श्रीजिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाजीको मानने पूजनेका निषेध करनेके लिये ढूंढिये लोग अनेक प्रकारको श्रीजिनमूर्तिकी निन्दा करते हुए अनेक कुतों करके भोले For Private And Personal Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१३ ] जीवोंके सत्यबातकी श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रत्नको, हरण करके मिथ्यात्व बढ़ाते है तैसेही श्रीअनन्त जिनेश्वर भगवानों का कहा हुवा तथा प्रमाण भी करा हुवा अधिकमासको गिनतीमें निषेध करनेके लिये, आप लोग भी अधिकमासकी अनेक प्रकारसे जिन्दा करते हुए अनेक कुतर्को करके भोले जीवोंके सत्य बातकी श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रत्नका हरण करके मिध्यात्व बढ़ाते हो इसलिये श्रीजैनशासन के निन्दक मिथ्यात्वी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । २ दूसरा - श्रीजैनशास्त्रोंमें नाम, स्थापना, द्रव्य, और भाव, यह चारोंही निक्षेपे मान्य करने योग्य, उपयोगी कहे हैं तथापि ढूंढिये लोग उत्सूत्र भाषणका भय न करते अनन्त संसारकी वृद्धि कारक, स्थापनादि निक्षेपोंको निषेध करके बिना उपयोग के ठहराते हैं तैसेही श्रीजैनशास्त्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावसें, चारोंही प्रकार की चूलाका प्रमाण गिनती करने योग्य, उपयोगी कहा है और गिनती में भी लिया है तथापि आप लोग उत्सूत्र भाषण का भय न करते कालचूलादिका प्रमाणको गिनती में निषेध करके प्रमाण नही करते हो सो भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । ३ तीसरा -ढूंढिये लोग 'मूलसूत्र मानते हैं मूलसूत्र मानते हैं' ऐसा पुकारते हैं परन्तु अपनी मति कल्पनायें अनेक जगह शास्त्रों के पाठोंका उलटा अर्थ करते हैं और अनेक शास्त्रोंके पाठोंको तथा अर्थको भी छुपाते हैं और शास्त्रों के प्रमाण बिना भी अनेक कल्पित बातोंको करके मिथ्यात्व में फसते हैं और भोले जीवोंको फसाते हैं तैसेही आपलोग भी 'पञ्चाङ्गी मानते हैं पञ्चाङ्गी मानते हैं' ऐसा ३५ For Private And Personal Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१४ ] पुकारते हो परन्तु अपनी मति कल्पना अनेक जगह शास्त्रों के पाठोंका उलटा अर्थ करते हो और अनेक शास्त्र के पाठोंको तथा अर्थको भी छुपाते हो और शास्त्रों के प्रमाण बिना भी अनेक कल्पित बातों करके मिथ्यात्व में फसते हो और भोले जीवोंको फसाते हो ( इसका विशेष आगे करनेमें आवेगा ) इस लिये भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । ४ चौथा - जैसे ढूंढिये लोगोंकी गांम गांमनें वारम्वार श्रीजिन प्रतिमाजीकी और श्रीजैनाचाय्योंकी निन्दा अवहेलना करनेकी आदत है जिसमें अपने संसार वृद्धिका भय नही रखते हैं तैसेही आप लोगोंकी भी गांम गांममें श्रीपर्युषण पर्वका व्याख्यान वगैरह में श्रीवीरप्रभुके छ ( ६ ) कल्याणककी और श्रीजिनेन्द्र भगवान् का तथा पूर्वाचायका प्रमाण करा हुवा अधिक मासको निन्दा अवहेलना करनेकी आदत है जिससे आप लोग भी उत्सूत्र भाषणका भय न करते हुए संसार बृद्धिसे कुछ भी डरते नही हो इस लिये भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । ५ पाँचमा - जैसे ढूंढिये लोग चर्चा करो चर्चा करो ऐसा पुकारते हैं परन्तु चर्चाका समय आनेसें मुख छिपाते हैं और जो बातकी चर्चा करनेकी होवे जिसकी शास्त्रार्थ मैं न्यायपूर्वक चर्चा करनी छोड़कर अन्याय से निष्प्रयोजन की अन्य अन्य बातांका झगड़ा खड़ा करके यावत् क्रोधका सरणा लेकर - रांड़ नपुती जैसी वृथा लड़ाई करके निन्दा ईर्षा से संसार वृद्धिका कारण करते है परन्तु शास्त्रोक्त चर्चा वार्ता रोतिसें एक भी बात के सत्यअसत्यका निर्णय करके For Private And Personal Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७५ ] असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करनेकी इच्छाही नही रखते हैं तैसेही आप लोगोंके भी कृत्य है ( इस बातका इस ग्रन्यके अन्त में खुलासा करनेमें आवेगा ) इस लिये उपरकी बातमें भी ढूंढियांका सरणा आप लोगही लेते हो। ६ छठा-जैसे कितनेही ढूंढिये लोग शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक श्रीजिनमूर्तिको मानने पूजने वगैरहकी सत्य बातोंको जानते हुए भी अपने मत कदा ग्रहको मालमें फस करके इस लोककी मानता पूजनाके लिये अपने दृष्टिरागी भक्तजनोंके आगे मिथ्यात्वके उदयसें सत्य बातांका निषेध करके अपने अन्ध परम्पराकी उत्सूत्र भाषणरूप कल्पित बातोंका स्थापन करके संसार वृद्धिका कार्य करते हैं तैसेही कितनीही बातों में आपके गुरुजी न्यायाम्भोनिधिजी ( श्रीआत्मारामजो ) ने भी किया है और आप लोग भी करते हो (जिसका खुलासा आगे करने में आता है ) इस लिये भी ढूंढियांका सरणा आप लोगही लेते हो। सातमा-जैसे कितनेही ढूंढिये श्रीजैन तीर्थों को छोड़के अन्य मतियोंके मिथ्यात्वी तीर्थों में जाते हैं तैसेही खास श्रीवल्लभाविजयजीने भी कराया अर्थात् घासीराम और जुगलराम इन दोन ढूंढक साधुयोंने (श्रीजिनेश्वर भगवान् तुल्य श्रीजिनमूर्ति की तथा श्रीजैनशासनके प्रभाविक महान् उत्तम श्रीजैनाचार्योंकी ) द्वेष बुद्धिसें वृथा निन्दा करनेका और शास्त्रोंके विरुद्ध होकरके उत्सूत्र भाषणका तथा अपनी मति कल्पना मुजब मिथ्या बातोंमें वर्त्तनेका मिथ्यात्वरूप ढूंढक मतका पाखण्डको संसार वृद्धिका कारण For Private And Personal Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७६ ] जानकर छोड़ दिया और शास्त्रानुसार सत्य बातोंको ग्रहण करनेकी इच्छासे श्रीवल्लभविजयजीके पास जैन दीक्षा लेने को आये तब श्रीवल्लभविजयजीनें तथा उन्हें के दृष्टिरागी श्रावकोंने विचार किया कि - घासीराम और जुगलरामने ढूंढक मतके साधु भेषमें अनुचित कार्य्यो ( असूची की क्रियायों) से अपने शरीरको अपवित्र किया है इसलिये इन दोनका शरीर प्रथम पवित्र कराके पीछे दीक्षा देनी चाहिये ऐसा विचार करके दोनु को पवित्र करनेके लिये जैन तीर्थों में न भेजते हुए अन्य मतियोंके मिथ्यात्वी तीर्थ में काशी गङ्गाजी भेजकर के पवित्र कराये ( इसका विशेष आगे लिखने में आवेंगा ) इसलिये भी ढूंढियांका सरणा आपही लेते हो । इत्यादि अनेक बातों में छठे महाशयजी आप लोगही ढूंढियांका सरणा लेकर उन्होंकाही अनुकरण करते हो, तथापि आपने श्रीबुद्धिसागरजीको ढूंढियांका सरण लेनेका लिखा है सो प्रत्यक्ष मिथ्या है क्योंकि श्रीबुद्धिसागरजीनें ढूंढियांका सरणा लेनेका कोई भी कार्य्यं नही करा है इतने पर भी आपके दिल में यह होगा कि श्रीबुद्धिसागर - जीनें ढूंढियाकी मारफत पत्र हमको पहुंचाया इसलिये ढूंढियांका सरणा लेनेका हमने लिखा है तो भी महाशयजी यह आपका लिखना सर्वथा अनुचित है क्योंकि दुनियामें यह तो प्रसिद्ध व्यवहार है कि --- कोई गांग में किसी आदमीको एक पत्र भेजा जिसका जबाब नहीं आया तो थोड़े दिनोंके बाद दूसरा भी पत्र भेजने में आता है, दूसरे पत्रका भी जवाब नहीं आनेसें तीसरी For Private And Personal Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७७ ] बेर उसी गांमका प्रतिष्ठित आदमी मारफत अथवा अपना जानकार संवेगी तथा ढूंढिया तो क्या परन्तु ब्राह्मण, सेवग, वगैरह हरेक जातिका हरेक धर्मवाला पुरुषकी मारफत उसीका निर्णय करनेमें आता है तेनेही श्रीबुद्धिसागरजीनें भी किया अर्थात् दो पत्र आपको शास्त्रका प्रमाण पूछनेके लिये भेजे तथापि आपका कुछ भी जबाब नहीं आया तब तीसरी बेर प्रसिद्ध आदमी अपना जानकार के मारफत, आपको भेजे हुए पूर्वोक्त पत्रोंका जबाब पूछाया उसमें सरणा लेनेका कदापि नहीं हो सकता है परन्तु आप लोग अनेक बातों ढूंढियांका सरणा लेते हो सो ऊपर मेंही लिख आया हूं सो विचार लेना; और दोनु गच्छवालोंके आपसमें वादविवाद तथा कोर्ट कचेरी में झगडा टंटा रूप वृथा युद्ध करनेको तथा कराने को आपही तैयार हो सो तो आपके लेखसें प्रत्यक्ष दीखता है । महाशयजी अब--किसकी मनः कामना पूर्ण न होनेसें किसीने ढूंढियांका सरणा लेकर युद्धारम्भ करना चाहा है और सूर्पनखाकी तरह दोनं पक्षको दुःखदाई भी कौन हुवा है सो ऊपरका लेखको तथा आगेका लेखको और इन्ही ग्रन्थको पढ़कर हृदयमें विवेक बुद्धि लाकर विचार कर लीजिये, --- और भी आगे छठे महाशयजी अपने और अपने गुरुजी न्यायाम्भोनिधिजीके उत्सूत्र भाषणके कृत्यों को तथा उन कृत्योंके फल विपत्कोंका न देखते हुए श्रीबुद्धिसागरजी ने शास्त्रोंके पाठोंका प्रमाण सहित पत्र लिखकर पालणपुर For Private And Personal Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २१८ । निवासी महता पीताम्बरदास हाथीभाईको भेजा था उस पत्रके शाखोंके पाठोंको छोड़करके और छिद्रग्राही हो करके उस पत्रपर द्वेषबुद्धिसैं छठे महाशयजीने वृथाही आक्षेप किया है और उनके साथ कितनीही निष्प्रयोजनकी बातें लिखी है उसीका जबाब आगे (छठे महाशयजीके दूसरे गुजराती भाषाके लेखका जबाब छपेगा) वहां लिखने में आवेंगा ; और आगे फिर भी छठे महाशयजीने लिखा है कि (बनारससे प्रसिद्ध हुवा मुनि धर्मविजयजीके शिष्य मुनि विद्याविजयजीका, पर्युषणा विचार नामा लेख देख लेना ) इसपर भी मेरेको प्रथम इतमाही कहना है कि तीसरे महाशयजी श्रीविनयविजयजीने श्रीमुखबोधिका कृत्तिमें पर्युषणा सम्बन्धी प्रथम अपने लिखे वाक्यार्थको छोड़ करके गच्छ कदाग्रहके हठवादसे उत्सूत्र भाषणका भय न करते अनेक कुतों करी है (जिसका निर्णय इसीही ग्रन्यके पृष्ठ ६८ से १५० तक उपर ही छप चुका है ) उन्ही कुतोंको देखके सातमें महाशयजी श्रीधर्मविजयजी तथा उन्हके शिष्य विद्याविजयजी भी कदाग्रहकी परम्परामें पड़के उत्सूत्र भाषणकेही कुतोंका संग्रह करके, शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्रायके विरुद्ध होकरके अधूरे अधूरे पाठ लिखकर भोले जीवोंको मिथ्यात्व में गेरनेके लिये अपना लेख प्रगट करा है (इसका जवाब आगे उपेगा) उसीकोही गुजराती भाषामें जैन पत्रवालेनेभी अपना संसार बढ़ानेके लिये अपने जैन पत्रमें प्रगट करा है और उसी उत्सूत्र भाषणकी कुतकोंको छठे महाशयजी आप भी देखनेका लिखकर उन्हीको पुष्ट For Private And Personal Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २७९ ] करके उसी तरहके उत्सूत्र भाषणके फलप्राप्त करने के लिये आप भी उसीमें फसे, हाय अफसोस-गच्छ कदाग्रह के वस होकरके अपना पक्ष जमानेके लिये सत्य असत्यका निर्णय किये बिना अपनी मतिकल्पमासे इतने विद्वान् कहलाते भी स्वच्छन्दाचारीसें लिखते कुछ भी विचार नहीं किया यह तो इस कलियुगकाही प्रभाव है,___ और दूसरा यह है कि न्याय अन्यायको न देखने वाले तथा दृष्टिरागके झूठे पक्षग्राही और कदाग्रहके कार्यमें आगेवान ऐसे श्रीकलकत्तानिवासी श्रीतपगच्छके लक्ष्मीचंदजी सीपाणीको पालणपुरसे श्रीवलभविजयजीकी तरफका पत्र आया था उसी पत्रमें ६-७ जगह मिथ्या बातें लिखी है उसी पत्रके अक्षर अक्षरका उतारा, मेरे ( इस ग्रन्थकारके ) पास है उसी उतारेकी नकलको यहाँ लिखकर उसीकी समीक्षा करनेका मेरा पूरा इरादा था परन्तु विस्तारके कारणसे सब न लिखते नमुनारूप एक बात लिख दिखाता हूं छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजी लक्ष्लीचन्दजी सीपाणीको लिखते हैं कि [ बनारससे पर्युषणा विचार नामा नेकट निकला है उसीकाही भाषान्तर छापेवालेने छापा है इसमें हमारा कोई मतलब नही है ना हम इस बातको मन वचन काया करके अच्छी समझते हैं] इस जगह सज्जन पुरुषोंको विचार करना चाहिये कि सीपाणीजीके पत्रमें पर्युषणा विधारको तथा उसीका भाषान्तर छापेवालेने छापेमें प्रसिद्ध करा है उसीको छठे महाशयजी मन, वचन, काया अच्छा नही समझते हैं For Private And Personal Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८० ] तो फिर उसी बातको याने पर्युषणा विचारको देख लेनेका लिख करके उसीको छापामें पुष्ट किया, यह तो प्रत्यक्ष मायावृत्तिका कारण है इसलिये जो सीपाणीजीके पत्रका वाक्य छठे महाशयजी सत्य मानेंगे तो छापेमें पर्युषणा विचारको पुष्ट करनेका जो वाक्य लिखा है सो वृथा हो जावेंगा और छापेका वाक्य सत्य मानेंगे तो सीपाणीजीके पत्रका वाक्य मिथ्या हो जावेंगा और पूर्वा. पर विरोधी विसंवादी दोन तरह के वाक्य कदापि सत्य नही हो सकते हैं इसलिये दोनुमेंसे एक सत्य और दूसरा मिथ्या माननाही प्रसिद्ध न्यायकी बात है, जिसमें सीपाणी जीके पत्रका वाक्यको सत्य मानोंगे तो छापेका लेख विसंवादीरूप मिथ्या होनेकी आलोचना छठे महाशयजी आप को लेनी पड़ेगी और छापेका वाक्यको सत्य मानोंगे तो सीपाणीजीके पत्रका वाक्य विसंवादीरूप मिथ्या होनेकी आलोचना लेनी पड़ेगी और पर्युषणा विचारमें उत्सूत्र वाक्य लिखे हैं उसीके अनुमोदनके फलाधिकारी होना पड़ेगा सो विवेक बुद्धि हो तो अच्छी तरह विचार लेना; __और छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीके खबरदारका इस लेखमें तथा सावधान सावधानका दूसरा गुजराती भाषाका लेखमें और सीपाणिजोके पत्रका लेखमें इन तीनों लेखोंका वाक्यमें कितनीही जगह मायावत्ति ( कपट ) का संग्रह है इससें श्रीवल्लभविजयजीको कपट विशेष प्रिय मालूम होता है और चर्चा चन्द्रोदय की पुस्तकमें भी श्रीवल्लभविजयजीको 'दम्भप्रिय' लिखा है सोही नाम उपरके कृत्योंसे सत्य कर दिखाया है, For Private And Personal Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८१ ] और इसके आगे दम्भप्रियजी श्रीवल्लभविजयजीने अपने लेखके अन्त में जो लिखा है उसीको यहां लिखके ( पीछे उसीकी समीक्षा कर ) दिखाता हूं; [ बुद्धिसागर मुनिजी ! याद रखना वो प्रमाण माना जावेगा, जो कि-तुम्हारे गच्छके आचार्यों से पहिलेका होगा मगर तुम्हारेही गच्छके आचार्यका लेख प्रमाण न किया जावगा ! जैसाकि तुमने श्रीजिनपति सूरिजीकी समाचारीका पाठ लिखा है कि, दो श्रावण होवे तो पीछले प्रावणमें और दो भाद्रपद होवे ती पहिले भाद्रपदमें पर्युषणापर्वसांवत्सरिक कृत्य-करना ! क्योंकि, यही तो विवादास्पद है कि, श्रीजिनपतिसूरिजीने समाचारीमें जो यह पूर्वोक्त हुकम जारी किया है कौनसे सूत्रके कौनसे दफे मुजिव किया है हां यदि ऐसा खुलासा पाठ पञ्चाङ्गीमें आप कही भी दिखा देवें कि, दो श्रावण होवे तो पीछले श्रावणमें और दो भाद्रपद होवे तो पहिले भाद्रपद में --सांवत्सरिक प्रतिक्रमण, केशलुच्चन, अष्टमतपः, चैत्यपरिपाटी, और सर्वसंघके साथ खामणाख्य पर्युषणा वार्षिक पर्व करना, तो हम माननेको तैयार है !] जपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि-हे सज्जन पुरुषों छठे महाशयजी दम्मप्रियेजीके अन्तरमें कपट भरा हुवा होनेसे ऊपरका लेख भी कपटयुक्त लिखा है क्योंकि (बुद्धिसागर मुनिजी याद रखना वो प्रमाण माना जावेंगा जो कि तुम्हारे गच्छके आचार्यों में पहिले का होगा) यह अक्षर छठे महाशयजीके मायावृत्तिसे दूष्टिरागी भोले जीवोंको दिखाने मात्रही है नतु प्रमाण For Private And Personal Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २८२] करनेके लिये यदि ऊपरके अक्षर प्रमाण करनेके लिये होवे तो- अधिक मासकी गिनती, तथा पचास (५०) दिने पर्युषणा और श्रीवीरप्रभुके छ (६) कल्याणक, सामयिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही वगैरह अनेक बातें श्री तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने और पूर्वधरादि श्रीजैन शासन के प्रभाविक पूर्वाचाय्यने पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों में प्रगटपने खुलासे के साथ कही है जिस पर छठे महाशयजी की श्रद्धा नही जिससे प्रमाण नही करते हुए उलटा निषेध करके उत्सूत्र भाषण से संसार वृद्धिका भय नही रखते हैं । वीही आश्चर्य्यकी बात है कि श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की तथा पूर्वाचाय्यको कथन करी हुई अनेक बातें प्रमाण न करते हुए उत्सूत्र भाषणरूप अपनी मतिकल्प नासें चाहे वैसा वर्ताव करना और पूर्वाचार्य्यो का प्रमाण मंजूर करनेका दिखाकर आप भले बनना यह तो प्रत्यक्ष मायावृत्तिसे उठे महाशयजीनें अपने दम्भप्रिये नामको सार्थक करके विशेष पुष्ट करने के सिवाय और क्या लाभ उठाया होगा सो इन्ही ग्रन्थको पढ़नेवाले सज्जन पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे ; और आगे फिर भी दम्भप्रियेजीनें लिखा है कि ( तुम्हारेही गच्छ के आचार्य्यका लेख प्रमाण न किया जावेंगा ) यह लिखना छठे महाशयजी दम्भप्रियेजीको श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातना कारक पञ्चाङ्गी के अनेक शास्त्रोंका उत्थापनरूप मिथ्यात्वको बढ़ाने वाला संसार वृद्धिका कारणभूत हैं क्योंकि १ प्रथमतो- श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी परम् For Private And Personal Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८३ ] परानुसार पञ्चाङ्गीके अनेक प्रमाणयुक्त श्रीखरतरगच्छके बुद्धि निधान प्रभाविकाचार्योंने अनेक शास्त्रोंकी रचना भव्य जीवोंके उपगारके लिये करी है जिसको न माननेवाले दम्भप्रियेजी जैसे प्रत्यक्ष श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आशातना करनेवाले पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंके उत्थापक अद्धारहित जैनाभास मिथ्यात्वी बनते हैं इस बातको विशेष सज्जन पुरुष अपनी बुद्धिसे स्वयं विचार लेवेंगे, २ दूसरा यह है कि--श्रीखरतरगच्छ प्रसिद्ध करनेवाले श्रीजिनेश्वर सूरिजी महाराजकृत श्रीअष्टकजी सूत्रकी वृत्ति तथा श्रीपञ्चलिङ्गी प्रकरण मूल और तत्ति श्रीखरतरगच्छ के श्रीजिनपति सूरीजी कृत और श्रीखरतरगच्छ नायक सुप्रसिद्ध बुद्विनिधान महान् प्रभाविक श्रीमदायदेवसूरिजी महाराजने श्रीनवाङ्गी वृत्ति उपरान्त श्रीउवाइजी श्रीपञ्चाशक जी श्रीषोडषकजी वगैरहकी अनेक वृत्ति और प्रकरणस्तोत्रादि बहुतही शास्त्रोंकी रचना करी है तथा और भी श्रीखरतरगच्छके अनेक आचार्योंने सैकड़ो शास्त्रोंकी रचना करी है जिन्हकोमानते हैं व्याख्यानमें वांचते हैं तथापि दम्भप्रियेजी (तुम्हारे गच्छके आचार्यका लेख प्रमाण न किया जावेंगा) ऐसा लिखते हैं सो कितनी मायावत्तिसे अन्याय कारक है इसको भी निष्पक्षपाती सज्जन स्वयं विचार सकते हैं ;___ और श्रीजिनेश्वर सूरिजीसें निश्चय करके श्रीखरतरगच्छ प्रसिद्ध हुवा है इसलिये श्रीनवाङ्गीवृत्तिकार श्रीमदभयदेव सूरिजी भी श्रीखरतरगच्छमें हुवे हैं तथापि श्रीजिनवल्लभ सूरजीसे अथवा श्रीजिमदत्त सूरिजीसें १२०४ में खरतर हुवा For Private And Personal Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org [ ८४ ] ऐसा कहते हैं सो मिथ्यावादी है इसका विशेष विस्तार शास्त्रोंके प्रमाण सहित इस ग्रन्यके अन्त में करने में आवेंगा, ३ तीसरा यह है कि-खास दम्भप्रियेजीके गुरुजी श्रीन्यायाम्भोनिधिजीने चतुर्थ स्तुतिनिर्णयः पुस्तकमें श्रीखरतरगच्छके श्रीअभयदेव सूरिजी श्रीजिनवल्लभ मूरिजी श्री जिनपतिसूरिजी वगैरह आचार्योंकी समाचारियों के पाठ लिखे हैं और श्रीखरतरगच्छके आचार्यका वचनको नही मानने वालों को पृष्ठ ८८ के मध्यमें मिथ्यात्वी ठहराये हैं (इसका खुलासा इन्ही ग्रन्थके पृष्ठ १५० । १६० में छपगया है) और दम्भप्रियेजी श्रीखरतरगच्छके आचार्यजीका लेख प्रमाण नही करके अपने गुरुजीके लेखसै ही आप मिथ्यात्वी बनते हैं सो भी वड़ीही आश्चर्य्यकी बात है ; ४ चौथा यह है कि-दम्भप्रियेजी श्रीखरतरगच्छके आचार्यजीका लेख प्रमाण नही करते हैं इसको देखके और भी कितनेही अज्ञानी तथा गच्छ कदाग्रही अपने अपने गच्छके आचार्योंका लेखको प्रमाण मान करके और सब गच्छवालोंके आचार्योका लेखको प्रमाण नही मानेगे जिस से श्रीजिनवाणीरूपी पञ्चाङ्गीके सैकड़ो शास्त्रोंका उत्थापन होगा और अपनी अपनी मतिकल्पना करके चाहे जैसा वर्ताव करना सरू करेंगे तो श्रीजिनेश्वर भगवान्की अति उत्तम, अविसंवादी, श्रीजनशासनकी अखण्डित मर्यादा भी नही रहेगी और कदाग्रही लोग अपने अपने पक्षका आग्रह में फसके मिथ्यात्व वढ़ाते हुवे संसार वृद्धि करेंगे जिसके दोषाधिकारी दम्भप्रियेजी वगैरह होवेंगे और आप दूसरे गच्छके आचार्यका लेख प्रमाण नही करोंगे तो दूसरे गच्छवाले For Private And Personal Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८५ ] आपके गच्छके आचार्यका लेख प्रमाण नही करेंगे जिससे भी वृथा वाद विवादसें मिथ्यात्व बढ़ता रहेगा और सत्य असत्यका निर्णय भी नही हो सकेगा और दम्भप्रियजी अनेक गच्छोंके आचार्योंका लेखको प्रमाण करते हैं परन्तु श्रीखरतरगच्छ के आचार्यका लेख प्रमाण नहीं करते हैं यह भी तो प्रत्यक्ष अन्यायकारक हठवादका लक्षण है इसलिये दम्भप्रियेजी वगैरह महाशयोंसे मेरा यही कहना है कि श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महारजोंकी परम्परा मुजब, पञ्चाङ्गीके प्रमाण पूर्वक कालानुसार, न्यायकी युक्ति करके सहित श्रीखरतरगच्छके आचार्योका तो क्या परन्तु सब गच्छके आचार्योंका लेखको प्रमाण करना सोही आत्मार्थी मोक्षाभिलाषी सज्जनोंको परम उचित है। वैसेही इस ग्रन्थकारने भी श्रीतपगच्छके श्रीधर्मसागर जी तथा श्रीजयविजयजी और श्रीविनयविजयजी इन तीनों महाशयोंके शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक लिखित पाठोंको इसीही ग्रन्थके आदिका भागमें पृष्ठ ९ । १० । ११ में लिखे है और उसीका भावार्थः भी पृष्ठ १२ से १५ तक लिखके उसीका तात्पर्य्यको पृष्ठ १६ में प्रमाण किया हैं (और इन तीनों महाशयोंने प्रथम अपने लिखे वाक्यार्थको छोड़के गच्छ कदाग्रहका मिथ्या पक्षको स्थापन करनेके लिये उत्सूत्र भाषणरूप अनेक बातें लिखी है जिसकी समीक्षा भी शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक इसीही ग्रन्यके पृष्ठ ६८ से १५० तक उपरमें छप गई है ) और भी श्रीतपगच्छके अनेक आचार्यों के लेख प्रमाण करने में आते हैं जैसे इस ग्रन्थकारने श्रीतपगच्छके आचार्योके शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक लेखोंको For Private And Personal Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८६ । प्रमाण किये हैं-तैसेही छठे महाशयजी आप भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी वाणीरूप पञ्चाङ्गीको श्रद्धापूर्वक प्रमाण करनेवाले आत्मार्थी मोक्षाभिलाषी होवोंगे तो श्रीखरतरगच्छके आचार्यों के शावानुसार युक्तिपूर्वक लेखों को अवश्यही प्रमाण करके अपने मिथ्या हठवादको जलदी ही छोड़ देवोंगे तो अपर कहे सो दूषणोंका बचाव होनेसे बहुत लाभका कारण होगा आगे इच्छा आपकी ; और आगे फिर भी दम्भप्रियेजीने लिखा है कि (तुमने श्रीजिनपति सूरिजीकी समाचारीका पाठ लिखा है कि दो श्रावण होवे तो पीछले श्रावणमै और दो भाद्रपद होवे तो पहिले भाद्रपदमें पर्युषणापर्व-सांवत्सरिक कृत्य करना ) यह लिखना मी छठे महाशयजी आपका कपटयुक्त है क्योंकि श्रीबुद्धिसागरजीने पूर्वधरादि महाराजकृत तीन शास्त्रोंके पाठ लिखके भेजे थे जिसमेंके पूर्वधराचार्यजी महाराजके मूलसूत्रके तथा चूर्णिके दोन पाठोंको छुपाते हो सोही छठे महाशयजी आपका कपट है इसलिये में इस जगह प्रथम आपका कपटको खोलकरके पाठक वर्गको दिखाता हूं १ प्रथम श्रीचौदह पूर्वधर अतकेवली श्रीभद्रबाहु स्वामीजी कृत श्रीकल्पसूत्रका मूलपाठ लिखा था उसी पाठमें आषाढ़ चौमासीसें एकमास और वीशदिने पर्युषणा करना कहा है श्रावण अथवा भाद्रपदका नियम नही कहा है परन्तु ५० दिनका नियम है सोही दिनोंकी गिनतीसे ५० दिने पर्युषणा करना चाहिये श्रीकल्पसूत्रका मूलपाठ भावार्थ सहित इसीही ग्रन्यके आदिमें पृष्ठ ४।५।६में छप गया है सोही पाठ इस वर्तमान कालमें आत्मार्थियोंको प्रमाण करने योग्य है ; For Private And Personal Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २ ] १ दूसरा श्रीपूर्वधर पूर्वाचार्यजी कृत श्रीवहत्कल्पचूर्णिका पाठ लिख भेजा था सोही श्रीरहत्कल्पचूर्णिके तीसरे उद्देशके पृष्ठ २६४ से २६५ तकका पर्युषणा सम्बन्धी पाठको यहां लिख दिखाता हूं तथाच तत्पाठः इदाणिं जमि काले वासावासं ठाइतवं, जच्चिरं वा जाए वा विहीए तं भणन्ति, आसाढ़ गाथा बाहिं ठिया गाथा, उस्सग्गेण जाय आसाढ़पुसिमाए चेव पज्जोसवेंति, असत्ति खेत्तस्स बाहिंठाइत्ता, वसभा खेत्तं अतिगन्तु वासावासजोग्गाणि, संथारग खेलमलगादीणि गिरहन्ति, काइयउच्चारणा भूमिओ बंधन्ति, ताहे आसाढ़पुतिमाए अतिगन्तुं,पञ्चेहिं दिवसेहिं पज्जोसवणा कप्पं कथित्ता, सावणबहुलपरूखस्स पञ्चमीए पज्जोसर्वेति पज्जोसवित्ता, उक्कोसेण मग्गसिरबहुलदसमीओ जाव, तत्थ अस्थितवं, किंकारणं पच्चिस्कालं वसति जतिचिरूखल्लो वासं वा पडति, तेण इच्चिरं इधरा कत्तियपुलिमाए चेव णिग्गन्तवं, एत्थतु गाथा अस्मिन्नत्र पज्जोसवेह इत्यर्थः ॥ अणभिग्गहितं णाम, गिहत्या जति पुच्छन्ति, ठितत्यं वासावासं एवं, पुच्छितेहिं, भणियवं, ण ताव ठामो केचिरंकालं एवं, वीसतिरायं वा मासं, कथं, जति अधिमासतो पडितो तो वीसतिरायं, गिहिणातं म काजति, किंकारणं, एत्य अधिमासओ चेव मासो गणिज्जति, सो वीसाए समं, वीसतिरातो भमति घेव, अथ ण पडितो अधिमास तो वीसतिरातं मासं, गिहिणातं ण कज्जति, किं पुण एवं उच्यते । असिवादि गाथाद्ध, असिवादीणि कारणाणि जाताणि, अथवा ण णिरातं वासं आरद्धं, साधे लोगो चिंतेजा भणावठित्ति तेण घस संग्गहे करेंति, For Private And Personal Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८८ ] असंथरं ताणं णिग्गमणं दो तेहियभणियं ठियामोत्ति, पच्छा लोगो भणेज्जा एत्तिलयंपि एते ण याणन्ति एवं पवयणोवधातो भवति, ठियामोतिय अणि ते लोगो चिंतेइ जाणते अवस्स परिसइ ताधे लोगो धरछंदेण हलक्रलियादी करेंति, तम्हा सवीसति राते मासे अभिग्रहीतं गृहीज्ञातमित्यर्थः । एत्थ उगाथा एत्थेति, आसाढ चउम्मासिए पडिक्वते, पञ्चेहिं पञ्चेहिं दिवसेहिं गतेहिं, जत्य जत्थ वासावासयोग्गं खेत्तं पडिपुरम तत्थ तत्य पज़्जोसवे यवं, जाव सवीसह रातो मासो, उस्सग्गेण पुण आसाढ़सुद्धदसमि पच्छद्ध, इय. सत्तरी गाथा, एवं सत्तरी भवति, सवोसति राते मासे पज्जो सवेत्ता, कत्तिय पुसिमाए पडिकमित्ता, बितियदिवसे णिग्गयाण, पञ्चसत्तरी भद्दवयअमावसाए पज्जोसवेताणं, भद्दवयबहुलदसमीए असीत्ति, भद्दवयबहुलपञ्चमीए पञ्चासीति सावणपुस्लिमाए णउत्ति, सावणसुद्धदसमीए पञ्चणउत्ति, सावण सुद्धपञ्चमीए सतं, सावण अमावसाए पंचुत्तरं सयं, सावणबहुलदसमीए दसुत्तरं सतं, सावणबहुलपञ्चमीए पणरसुत्तर सतं,आसाढ़पुसिमाए वीसुत्तरं सतं, कारणे पुण छम्मासितो जेठोत्ति उक्कोसो उग्गही भवन्ति, कथं जति वा पच्छद्ध अस्य व्याख्या, कत्तिएण गाथा उवहिए, आसाढ मासकप्पए कते वासावासपाउग्ग खेत्तासती, तत्थेव वासो कातव्यो, पञ्चहिं दिवसेहिं पज़्जोसवणा कप्पं कथिता, चाउम्मासिए चेव पज्जोसवेति, तं पुण इमेण कारणेण मग्गसिर अस्थिज्जा जति वासति पच्छद्धं आलम्बणं मासं पड़ेति, चिरकलो, आसाढ़े वासा रत्तिया चत्तारि मग्गमिरोय एते छम्मासिओ जेटोग्गहो, पत्थाणेहिं पवत्तेहिंपि णिग्गतवं। For Private And Personal Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २ ] देखिये ऊपर के पाठमें पर्युषणाधिकारे चेव निश्चय करके अधिकमासको गिनतीमें कहा है और पूर्वधरादि उग्रविहारी महानुभावोंके लिये निवासरूप पर्युषणा (योग्यक्षेत्र तथा उपयोगी वस्तुयोंका योग होनेसे) उत्सर्गसे आषाढ़पूर्णिमाकोही करनी कही परन्तु योग्यक्षेत्रादिके अभावसे अपवादसे पांच पांच दिनकी वृद्धि करते अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीश दिन (श्रावण शुक्लपञ्चमी) तक तथा चन्द्रसंवत्सरमें पचास दिन ( भाद्रपदशुक्लपञ्चमी ) तक पर्युषणा करनी कही-आषाढ़पूर्णिमाकी तथा पांच पांच दिन की वृद्धिको पर्युषणाको अधिकरणदोषोंकी उत्पत्ति न होने के कारण गृहस्थी लोगोंके न जानी हुई अज्ञात पर्युषणा कही है इसका विशेष खुलासा इन्ही ग्रन्थमें अनेक जगह छपगया है और वीशदिने तथा पचास दिने गृहस्थी लोगों की जानी हुई ज्ञातपर्युषणा कही उसीमें वार्षिक कृत्य वगैरह करनेमें आतेथे इसकाभी खुलासा इन्ही ग्रन्थ में अनेक जगह छप गया है जिसमें भी विशेष विस्तार पूर्वक पृष्ठ १०१ से ११७ तक अच्छी तरहसें निर्णय करने में आया है। और मासद्धिके अभावसे पर्युषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक ७० दिन रहते हैं तैसेहीमासद्धि होनेसें पर्यषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक १०० दिन रहते हैं इसका भी विस्तार अनेक जगह छपगया है जिसमें भी विशेष करके पृष्ठ १२० से १२९ तक और १७४ सें १८३ तक अच्छी तरहसें निर्णयके साथ छपगया है और उत्कृष्टसें १८० दिन का कल्प कहा है; और तीसरा श्रीजिनपतिसूरिजी कृत श्रीसमाचारी ग्रन्थकापाठलिख नाथा सोहीपाठ यहां दिखाताहूं यथा : For Private And Personal Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ pro ] साणे भद्दवएवा, अहिंगमासे चाउमासीओ ॥ परमास इमे दिणे, पज्जोसवणा कायवा न असीमे, इति Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal - प्रमाण भावार्थ:- :- श्रावण और भाद्रपद मास अधिक होतो भी आषाढ़ चौमासीसे पचासमै दिन पर्युषणा करना चाहिये परन्तु अशीमें दिन नही करना । इस जगह सज्जन पुरुषोंको विचार करना चाहिये कि ऊपरोक्त तीनों शास्त्रों के पाठ आगमानुसार तथा युक्ति पूर्वक होने से छठे महाशयजीको प्रमाण करने योग्य थे तथापि गच्छका पक्षपातके और पण्डिताभिमानके जोरसें ऊपरोक्त शास्त्रों के पाठोंको न करते हुवे श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठको तथा श्रीवृहत्कल्पवर्णिके पाठको छुपाकरके मायावृत्तिसें श्रीजिनपति सूरिजी की समाचारीके पाठ पर अपने विद्वत्ताकी चातुराई दिखाई है कि ( यही तो विवादास्पद है कि श्रीजिनपति सूरिजीनें समाचारीमें जो यह पूर्वोक्त हुकमजारी किया है कौनसे सूत्रके कौनसे दफे मुजिब किया है ) छठे महाशयजीके इस लेख पर मेरेको बड़ाही आश्चर्य सहित खेदके साथ लिखना पड़ता है कि श्रीवल्लभविजयजीको अनुमान २२ । २३ वर्ष दीक्षा लिये हुए है तथा कुछ व्याकरणादि भी पढ़े हुए सुनते हैं परन्तु इस जगह तो श्रीवल्लभविजयजीनें अपनी खूब अज्ञता प्रयट करी हैं क्योंकि श्रीनिशीथसूत्र के लघु भाष्य में, १ तथा वृहद्भाष्यमें २ और चूर्णि में ३ श्रीवृहत् कल्पसूत्र के लघु भाष्य में ४ तथा बृहत्भाष्यमें ५ और चूर्णिमें ६ श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रमें 9 तथा चूर्णिमें ८ श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रमें ९ तथा तद्वृत्ति में १० और श्रीस्थानाङ्गजी सूत्रकी वृत्ति में १९ इत्यादि अनेक शास्त्रों में कहा है कि पचास दिने अवश्यही पर्युषणा Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir करनी चाहिये। तथापि पर्युषणा करने योग्यक्षेत्र नही मिले तो विजन ( जङ्गल ) में भी वृक्ष नीचे पचास वें दिन जरूर पर्युषणा करनी परन्तु पचासमें दिनकी रात्रिको उल्लङ्घन नही करना यह बात तो प्रसिद्ध है इसीके सम्बन्धमें इन्ही ग्रन्थके आदिमें श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रकी वृत्तिका पाठ पृष्ठ १८१९ में और श्रीवृहत्कल्पवृत्तिका पाठ पृष्ठ २१ से २५ तक, और श्रीदशाश्रुतस्कन्धसत्रकी चूर्णिका पाठ पृष्ठ ९१ से २४ तक, और श्रीनिशीथसूत्रकी चूर्णिका पाठ पृष्ठ १५ सेंल तक, तथा तद्भावार्थ पृष्ठ १०० से १०५ तक छप गया है,-- उपरोक्त शास्त्रों में आषाढ़ चौमासीसें पांच पांच दिनोंकी वृद्धि करते (दश पञ्चकमें) पचासवें दिने प्रसिद्ध पर्युषणा मासवृद्धिके अभावसें चन्द्रसंवत्सरमें करनी कही है और मासद्धि होनेसें अभिवर्द्धित संवत्सरमें पांच पांच दिनोंकी वृद्धि करते (चौथे पञ्चकमें) वीशवें दिने प्रसिद्ध पर्युषणा कही सो प्राचीनकालाश्रय पूर्वधरादि उग्रविहारी महाराजोंके लिये श्रीजैनज्योतिषके पञ्चाङ्ग मुजब वर्त्तनेके सम्बन्धमें कही परन्तु अबी इस वर्तमानकालमें जैन पञ्चाङ्ग के अभावसे और पड़ते कालके कारणसे ऊपरका व्यवहार श्रीसन्धकी आज्ञासे विच्छेद हुवा है सोही दिखाता हूं। श्रीतीत्योगालिय (तीर्थोद्गार) पयन्नामें कहा है -यथा ;वीसदिणेहिं कप्पो, पंचगहाणीय कप्पठवणाय, नवसय तेणउएहिं, वुच्छिन्ना संघआणाए॥१॥ देखिये ऊपरकी गाथामें वीश दिनका कल्य, तथा पांच पांच दिनकी वृद्धि करके अज्ञातपर्युषणास्थापन करनेसे पिछाड़ी कालावग्रह संबंधी श्रीवृहत्करपत्ति, श्रीदशाश्रुतचूर्णि, For Private And Personal Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २९२ ] श्रीनिशीथचूर्णि,श्रीवृहत्कल्पचूर्णिके, पाठ खुलासापूर्वक छप गये हैं सोही पंचकपरिहानीका कल्प, और कल्प स्थापना याने योग्य क्षेत्रके अभावसे पांच पांच दिनकी वृद्धिसे अज्ञातपर्युषणा स्थापन करे उसी रात्रिको वहां श्रीकल्पसूत्र के पठन करनेका कल्प, यह तीनों बाते वीर संम्वत् १९३ (विक्रम संम्वत् ५२३ ) में श्रीसंघकी आज्ञासै विच्छेद हुई। तब चन्द्रसंवत्सरमें और अभिवर्द्धितसंवत्सरमें भी आषाढ़ चौमासीसें ५० दिने पर्युषणा करनेके कल्पकी मर्यादा रही तथा पचासवें दिनही श्रीकल्पसूत्रके पठन करने के कल्पकी मर्यादा भी रही और उसी वर्षे श्रीमान् परम उपगारी श्रीदेवढुिंगणिक्षमाश्रमणजी महाराज श्रीजैनशास्त्रोंको पुस्तका रूढमें किये उसी समय श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रके आठमें अध्ययनको लिखती बख्त, जिन चरित्र तथा स्थिरावली और साधुसमाचारीका संग्रह करके अष्टम अध्ययनको संपूर्ण किया तब पांच पांच दिनको वृद्धिसें अभिवर्द्धित सम्वत्सरमें चार पञ्चक वीश दिनका तथा चन्द्रसम्वत्सरमें दशपञ्चकका ( कल्प) व्यवहारको न लिखा और चन्द्रसं० अभिवर्द्धितसं० इन दोनुसम्वत्सरों में५० दिनका एकही नियम होनेसे पचास दिनेही प्रसिद्ध पर्युषणा करनेका नियम दिखाया है यह श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रका अष्टमाध्ययन श्रीकल्पसूत्रजीके नामसे जदा भी प्रसिद्ध है उसी श्रीकल्पसूत्रका पर्युषणा सम्बन्धी पाठ भावार्थ सहित इन्ही ग्रन्थकी आदिमें पृष्ठ ४।६ तक छप चुका है सोही पाठार्थ सूर्य्यकी तरह प्रकाश करता है कि इस वर्तमानकालमें आपाढ़ चौमामीसे पचास दिन जहां पूरे होवे वहांही पर्यु For Private And Personal Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २९३ ] षणा करनी चाहिये इसीही श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठादिके अनुसार श्रीजिनपतिसूरीजीने समाचारी, लिखाहै किअधिक मास हो तो भी पचास दिने पर्युषणा करना परन्तु असी दिने नही करना चाहिये-इप्त लेखको देखके छठे महाशयजी लिखते हैं कि (यहीतो विवादास्पद है श्रीजिन पति सूरिजीने समाचारीमें जो यह पूर्वोक्त हुकम जारी किया है कौनसे सूत्रके कौनसे दफे मुजब किया है ) इस पर मेरेको इतनाही कहना है कि श्रीकल्पसूत्रके पर्युषणा सन्बन्धी साधुसमाचारीका मूलपाठ इन्ही ग्रन्यके पष्ठ ४।५ में छपा है उसी मूलपाठके अनेक दो मुजब श्रीजिनपति सूरिजीने समाचारीमें पूर्वोक्त हुकम जारी किया है सो श्रीजैन आगमानुसार है इसका निर्णय उपरमेंही कर दिखाया हैं इसलिये छठे महाशयजी आपको श्रीजिनपति सूरिजीके वाक्यमें जो शङ्कारूपी मिथ्यात्वका भ्रम पड़ा है सो उपरका लेखको पढ़के निकालदो और मिथ्या पक्षको छोड़कर मत्य बातको ग्रहण करके, निःसन्देहरूपी सम्यक्त्व रत्नको प्राप्तकरो क्योंकि आपके विवादास्पदका निर्णय उपरमेही होगया है। और पृष्ठ १५७ से १६५ तक भी पहिले छपगया है । बड़ेही आश्चर्यकी बात है कि-श्रीवल्लभविजयजीको २२॥२३ वर्ष दीक्षा लिये हुवे और हर वर्षे गांम गांममें श्रीपर्युषणापर्वके व्याख्यानमें खुलासा पूर्वक व्याख्या सहित वंचाता हुवा श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठका तथा मूलपाठके व्याख्या का अर्थ भी उन्हकी समझमें नहीं आया होगा इसलिये ५० दिने पर्युषणा करनेका श्रीजिनपति सूरिजीका लेख पर शङ्का करी इससे मालूम होता है कि पर्युषणा सम्बन्धी For Private And Personal Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २९४ ] श्रीकल्पसूत्रके पाठसैं तथा तद्पाठकी व्याख्यासे आप अ होवेंगे अथवा तो भोले जीवोंको गच्छ कदाग्रहका भ्रम में गेरनेके लिये जानते हुवे भी तीसरे अभिनिवेश मिथ्यात्व के आधिन हो करके मायावृत्तिसे लिखा होगा सो विवेकी विद्वान् स्वयं विचार लेवेंगे : और आगे छठे महाशयजी दम्भप्रियजीनें फिरभी लिखा है कि ( हाँ यदि ऐसा खुलासा पाठ पञ्चाङ्गी में आप कहीं भी दिखा देवें कि दो श्रावण होवे तो पीछले श्रावण में और दो भाद्रपद होवें तो पहिले भाद्रपद में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण, केश लुचन, अष्टमतपः, चैत्यपरिपाटी, और सर्व सङ्घके साथ खामणारूप पर्युषणा वार्षिकपर्व करना तो हम मानने को तैयार है ) श्रीवल्लभविजयजीके इस लेखपर मेरेको प्रथमतो इतना ही कहना है कि ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेबालोंको आपने आज्ञा भंगका दूषण लगाया तब श्रीबुद्धिसागरजीनें आपको पत्र द्वारा पूछा कि कौनसे शास्त्रों के पाठ मुजब ५० दिने पर्युषणा करनेवालोंको आपने आज्ञा भङ्गका दूषण लगाया है सो बतावो इस तरहसे शास्त्रका प्रमाण पूछा उसीको आप शास्त्रका प्रमाणतो बता सके नहीं तब पंडिताभिमानके जोर की मायावृत्तिसे निष्प्रयोजनकी अन्य अन्य बातें लिखके उलटा उन्होंमैं ही शास्त्रका प्रमाण पूछने लगे सो दंभप्रियजी यह आपका पूछना अन्यायकारक है क्योंकि प्रथम आपने ही आज्ञा भंगका दूषण लगाया है इसलिये प्रथम आपको ही शास्त्रका प्रमाण बताना न्याययुक्त उचित है तथापि जब तक आप For Private And Personal Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २९५ ] अपनी बात संबन्धी शास्त्रका प्रमाण नही बतावोगे तब तक आपका दूसरोंको पूछना है सो निकेवल बाललीलावत् विवेकशून्यतासे अपने नामकी हासी करने का कारण है सो विद्वान् पुरुष स्वयं विचार सकते है ; दूसरा-श्रीवल्लभविजयजी से मेरा (इस ग्रन्थकारका) बड़ेही आग्रहके साथ यही कहना है कि आपने ५० दिने पर्युषणा करनेवालोंको आज्ञा अंगका दूषण लगाया सो शास्त्रप्रमाण मुजब और न्यायकी युक्ति करके सहित सिद्ध कर दिखावो अथवा नहीं सिद्धकर सकोतो श्रीचतुर्विध संघ समक्ष मन बचन कायासें अपनी उत्सूत्रभाषणके भूलकी क्षमा मांगकर मिथ्या दुष्कृतसें अपनी आत्माको भवान्तर में उत्सूत्रभाषण की शिक्षा भोगनेसे बचालेवो ;~-- और आप इन दोनुमेसें एक भी नही करोगे ओर इस बातको छोड़ कर निष्प्रयोजनकी अन्य अन्य बातोंसें था वाद विवाद खण्डन मण्डन तथा दूसरेकी निन्दा अवहेलनासे झगड़ा टंटा कर के आपसमें जो जो संपसे शासन उन्नतिके और भव्य जीवोंके उद्वारके कार्य होते है जिसमें विघ्न कारक राग द्वेष निन्दा ईर्षासें कर्म बन्धके हेतु करोगे करावोगे और मिथ्यात्वको वढावोगे जिसके दोषाधिकारी निमित्त भूत दम्भप्रियजी श्रीवल्लभविजयजी खास आपही होवोगे इस लिये निष्प्रयोजनकी अन्याय कारक वृथा अन्य अन्य बातों को छोड़कर अपनी बात संबन्धी शास्त्रका प्रमाण दिखावो अथवा अपनी भूल समझके क्षमाके साथ मिथ्या दुष्कृतदेवो नहीं तो आप आत्मार्थी मोक्षाभिलाषी हो ऐसा कोईभी सज्जन नहीं मान सकेंगे किन्तु इस लौकिकमें दृष्टिरागि For Private And Personal Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६ ] योंसे पूजता मानताके लिये पण्डिताभिमानके जीरखें उत्सूत्रभाषणसें संसार वृद्धिका भय न करते बालजीवोंकों कदाग्रहमें गेरके मिथ्यात्वको बढानेवाले आप हो सोतो श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्यको जाननेवाले विवेकी सज्जन अवश्यही मानेगें यह तो प्रसिद्धही न्यायकी बात है ; तीसरा यह है कि दूसरे प्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणापर्व करने संबन्धी पञ्चाङ्गीका पाठ पूछके मानने को छठे महाशयजी आप तैयार हुए हो परन्तु अपनी तरफसे पंचांगीका पाठ बता सकते नहीं हो इससे यह भी सिद्ध होगया कि इस वर्तमान कालमें दो श्रावण अथवा दो भाद्रपद होनेसे पर्युषणापर्व कबकरना जिसकी आपको अबीतक शास्त्रोंके प्रमाण मुजब पूरे पूरी मालूम नहीं है तो फिर दूसरोंको आज्ञा भंगका दूषण लगाके निषेध करना यहतो प्रत्यक्ष आपका महामिथ्या उत्सूत्रभाषणरूप वथा ही झगड़ेको बढानेवाला हुवा सो विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ; चौथा औरभी सुनो यहतो प्रसिद्ध बात है कि आषाढ चौमासीसे ५० दिने श्रीपर्युषणा पर्वका आराधन वार्षिक कृत्यादिसें करना कहा है इस न्यायके अनुसार दूसरे श्रावण में अथवा प्रथम भाद्रपदमें ५० दिने पर्युषणा करना सोतो अल्प बुद्धिवाले भी समझ सक्ते है। तो फिर क्या छठे महाशयजीकी इतनी भी बुद्धिनहींहै सो ५० दिने दूसरे प्रावण में अथवा प्रथम भाद्रपदमें पर्युषणा करने संबंधी पञ्चाङ्गी का पाठ पूछते है। इसपर कोई कहेगा कि छठे महाशयजी की ५० दिने पर्युषणा करनेकी बुद्धि तो हैं। इसपर मेरेको For Private And Personal Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २९७ ] इतनाही कहना है कि ५० दिने पर्युषणा करनेकी बुद्धि हैं तो फिर जानते हुवे भी तीसरे अभिनिवेशिक मिथ्यात्व के अधिकारी क्यों बनके पचाङ्गीका प्रमाण पूछकरके भोलेजीवों को संशयरूपी मिथ्यात्वका भ्रममें गेरे है और अधिकमास की गिनती निश्चय करके स्वयं सिद्ध है सो कदापि निषेध नहीं हो सकती है जिसका खुलासा इस ग्रन्थ में अनेक जगह छपगया है इसलिये दो श्रावण होते भी ८० दिने भाद्रपद में अथवा दो भाद्रपद होनेसे भी ८० दिने दूसरे भाद्रपद में पर्युषणा अपनी मति कल्पनासें श्रीजिनाज्ञाविरुद्ध क्यों करते है क्योंकि पचासवें दिन की रात्रिको भी उल्लङ्कन करनेवालेको शास्त्रों में आज्ञा विराधक कहा है इसलिये ८० दिने पर्युषणा करनेवाले अवश्यही आज्ञा के विराधक है यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध है और ८० दिने पर्युषणा करनेका कोईभी श्रीजैनशास्त्रों में नहीं लिखा है परन्तु ५० दिने पर्युषणा करनेका तो पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों में लिखा है सो इसीही ग्रन्थ में अनेक जगह छपगया है तथापि दंभप्रियजीने अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपद में ५० दिने पांच कृत्योंसें पर्युषणा वार्षिक पर्व करने संबंधी पंचांगीका पाठ पूछके भोले जीवोंको भ्रममें गेरे है सो दंभप्रियेजीके मिथ्यात्वका भ्रमको दूर करनेके लिये और मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही भव्यजीवोंको निःसन्देह होनेके लिये इस जगह मेरेको इतनाही कहना है कि-श्रीकल्प सूत्र के मूलपाठ में ५० दिने पर्युषणा करनी कही है इसलिये श्रावणमास की वृद्धि होने में दूसरे श्रावण में अथवा भाद्रपदात की वृद्धि होने सें प्रथम भाद्रपद में जहां ५० दिन पूरे होवे वहांही प्रसिद्ध पर्युषणा में ३८ For Private And Personal Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २८ ] साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणादि पांच कृत्योंसे वार्षिकपर्व करमेका समझना चाहिये क्योंकि जहां प्रसिद्ध पर्युषणा वहांही वार्षिक कृत्यादि करनेका नियम है सो तो श्रीकल्पसूत्रकी नव () व्याख्यायोंमें श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छा दिके सबी टीकाकारोंने खुलासा पूर्वक लिखा है इसका विस्तार इसीही ग्रन्थकी आदिसें लेकर पृष्ठ २० तक छप गया है और उन्ही टीकाओं में पचास दिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीको सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि पांच कृत्योंसें वार्षिक पर्वरूप प्रसिद्ध पर्युषणा करनी कही है सो तो मास वृद्धिके अभावसे चन्द्रसंवत्सर में नतु मासवृद्धि होते भी अभिवर्द्धित संवत्सरमें क्योंकि प्राचीनकालमें भी पौष अथवा आषाढ़ मासको द्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सरमें वीश दिने श्रावणशुक्ल पञ्चमीको सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि पाँच कृत्योंसे प्रसिद्ध पर्युषणा जैनपञ्चाङ्गानुसार करने में आती थी इस बातका निर्णय श्रीकल्पसूत्रकी टीकाओं में तथा इसीही ग्रन्थमें अनेक जगह और विशेष करके पृष्ठ १०७ से ११७ तक छप गया है परन्तु इस वर्तमान कालमें वीश दिने पर्युषणा करनेका कल्पविच्छेद होनेसें तथा जैन पञ्चाङ्गके अभावसें और लौकिक पञ्चाङ्गमें हरेक मासोंकी वृद्धि होने के कारणसे ५० दिनेही प्रसिद्ध पर्युषणा वार्षिक कृत्यादिसें करनेकी शास्त्रोंकी तथा श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छादिके पूर्वज पूर्वाचार्योंकी मर्यादा है सो तो इस ग्रन्यकी आदिसेंही लेकर ऊपर तकमें अनेक जगह छप गया है और सातमें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीके नामकी सभी क्षामें भी छपेगा ( और वर्षाकालमें जीवदयादिके लियेही For Private And Personal Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २ल्ल ] खास करके दिनोंकी गिनती से पर्युषणा करनेका श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों में खुलासा पूर्वक कहा है) इस लिये इस वर्त्तमान काल में दूसरे श्रावण में अथवा प्रथम भाद्रपदमें ५० दिनेही प्रसिद्ध पर्युषणा गांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि पांच कृत्यों सहित अवश्यही निश्चय करके करनी चाहिये सो पञ्चाङ्गी के अनेक शास्त्रों के प्रनाणानुसार तथा युक्तिपूर्वक स्वयं सिद्ध है सो तो ऊपरके लेखको तथा इस ग्रन्थको आदिसें अन्ततक आठों महाशयों के लेखकी समीक्षाको पढ़नेवाले मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे तथा इठे महाशयजी आप भी हृदयमें विवेक बुद्धि लाकर के न्याय दृष्टिसें पढ़कर अच्छी तरह से विचारो और आप सत्यवादी महा व्रतधारी आत्मार्थी होवो तो पञ्चाङ्गीके अनेक प्रमाणानुसार और खास आपके गच्छके भी पूर्वाचाय्यकी मर्यादानुसार ५० दिने दूसरे श्रावणमें अथवा प्रथम भाद्रपद में सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि पाँच कृत्योंसे प्रसिद्ध पर्युषणा वार्षिकपर्व करनेका ऊपरोक्त प्रत्यक्ष न्यायानुसार तथा युक्तिपूर्वक शास्त्रोंके प्रमाणको ग्रहण करो और शास्त्रोंके प्रमाण बिना तथा युक्तिके विरुद्धका मिथ्या कदाग्रहको छोड़ो और ५० दिने पर्युषणापर्व करनेका निषेध करने सम्बन्धी जितनी कुतकीं करनी है सो सबीही संसारवृद्धिकी हेतुरूप तथा भोले जीवोंकी सत्यबात परसें श्रद्धा भ्रष्ट करके गच्छ कदाग्रहके मिथ्यात्वका भ्रम में गेरनेके लिये अपने विद्वत्ताकी हासी करानेवाली है सो भवभीरू मोक्षाभिलाषी आत्मार्थियोंको करनी उचित नही है तो फिर छठे For Private And Personal 4 - Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०० महाशयजीने शास्त्रानुसार ५० दिने पर्युषणा पर्व करने वालोंको मिथ्या आज्ञाभङ्गका दूषण लगाके उत्सूत्र भाषणरूप ८० दिने पर्युषणा करनेका पुष्टकिया जिसकी आलोचना लिये बिना कैसे आत्मका सुधारा होगा सोन्यायदृष्टि वाले सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ;___अब छठे महाशयजी श्रीवल्लभविजयजीने दूसरे गुजराती भाषाके लेखमें मिथ्यात्वके झगड़ेको बढ़ानेके लिये जो लेख लिखा है उसीका नमूना यहाँ लिख दिखा करके पीछे उसीकी समीक्षा करता हूं--नवेम्वर मासकी 9वीं तारीख सन् १९०९ गुजराती आश्विन वदी १ हिन्दी कार्तिक वदी १वोर संवत् २४३५ का जैनपत्रके ३० वा अङ्कके पृष्ठ पांचमा की आदिमें ही लिखा है कि,[ वन्दे वीरम्-लेखक मुनि वालभविजय मु. पालणपुर सावधान ! सावधान !! सावधान !!! आचार्य सावधान ! उपाध्याय सावधान ! पन्यास सावधान ! गणी सावधान ! साधसाध्वी सावधान ! यतीवर्ग सावधान ! श्रावक श्राविका सावधान ! शेठीयाओ सावधान ! कोन्फरन्स सावधान ! वकील प्लीडर सावधान ! 'बेरिस्टअटलो सावधान ! नाणा कोथली सावधान । लागता वलगता सावधान ! कागज कलम सावधान ! खड़ीओ रुशनाई सावधान ! सावधान ! सावधान !! सावधान !!! तपगच्छमान धरावनार सावधान ! खरतरगच्छीय सावधान !] छठे महाशयजीके इन अक्षरों पर मेरेको वड़ाही आश्चर्य्य उत्पन्न होता है कि श्रीवल्लभविजयजीकी विवेक For Private And Personal Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९ ] बुद्धि कैसी शून्य होगई है सो अपनी हासी करानेवाले बिना विचारे शब्द लिखते कुछ भी लज्जा नही आई क्योंकि श्रीवल्लभविजयजी आत्मार्थी महाव्रतधारी साधु होते तो वकील, बेरिस्टर, और नाणा कोथली, वगैरहको सावधान ! सावधान !! पुकारके कोर्ट कचेरीमें झगड़ा बढ़ानेकी तैयारी कदापि नही करते तथापि करी इससे विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे कि-श्रीवल्लभविजयजीने भेष धारण करके साधु नाम धराया परन्तु अन्तरमें श्रद्धारहित होनेसे शास्त्रार्थ पूर्वक सत्य असत्यका निर्णय करना छोड़ करके श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छके आपसमें कोर्ट कचेरीमें झगड़ेको बढ़ानेके लिये श्रीजैनशासनकी निन्दा करानेवाले तथा मिथ्यात्वको बढ़ानेवाले और अपने नामको लज्जनीय शब्द लिखते पूर्वापरका कुछ भी विचार न किया और शक्त दिवाने बड़ेही पागल की तरह-नाणा कोथली (रूपैयोंकी थेली) तथा कागद कलम और खड़ीओ रुशनाई (द्वात शाही) अचेतन अजीव वस्तुयोंको सावधान ! सावधान !! पुकारा-वाह क्या विद्वत्ताकी चातुराईका नमूना छठे महाशयजीने प्रकाशित किया है सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे, और दूसरा यह है कि खास छठे महाशयजीकी सम्मति पूर्वक पञ्जाब अमृतशहरसे, घासीराम और जुगलरामको गङ्गाजी भेजकर पवित्र करवाये जिसका कारण संक्षिप्तसे इसीही ग्रन्यके पृष्ट १७५-१७६ में छपगया है और विशेष विस्तार पूर्वक पञ्जाब लाहोरसें जसवन्तराय जैनीकी मारफत श्रीआत्मानन्द जैन पत्रिका मासिक पत्र प्रसिद्ध For Private And Personal Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०२ ] होता है उसी में सन् १९०८ के २-३ अङ्कमें छप चुका है उसी घासीराम और जुगलरामको गङ्गाजी भेजकर पवित्र कराने सम्बन्धी ढूंढकसाधुनामधारक कुंदनमल्लने १४ पृष्ठकी छोटीसी एक पुस्तक बनाकरके प्रगट कराई है सो पुस्तक छठे महाशयजीने वांची है और उन्हके पास भी है उसी पुस्तकमें छठे महाशयजीके गुरुजी न्यायाम्भोनिधिजी श्रीआत्मारामजी सम्बन्धी तथा श्रीजैनश्वेताम्बर मूर्तिपूजने वालों सम्बन्धी और श्रीसिद्धाचलजी श्रीगीरनारजी श्रीआबूजी श्रीसमेतशिखरजी वगैरह श्रीजैनतीर्थों सम्बन्धी अनेकतरहके अनुचित शब्द लिखके निन्दा करी है उसीके निमित्त भूत छठे महाशयजी वगैर हुवे हैं और उसी पुस्तकके पृष्ठ ३-४में घासीराम और जुगलरामको गङ्गाजीके जलसे पवित्र कराये तैसेही छठे महाशयजीके गुरुजी श्रीआत्मारामजीको गङ्गाजीके जलसें पवित्र न कराने के कारण अपने गुरुजीको और अपने गुरुजीकी सम्प्रदायमें दीक्षा लेनेवालोंको अपवित्र ठहरनेका कलङ्क लगवाया और पृष्ठ ११ में घासीराम, जुगल रामको गङ्गाजी भेजने वालोंको तथा भेजाने वालोंको और सम्मती देकर अच्छा समझने वाले छठे महाशयजी आदिको मिथ्यात्वी, पाखण्डी, वगैरह शब्दोंका इनाम दे कर फिर पृष्ठ १३ के अन्त में गङ्गाजी भेजने वालोंको श्रीजैनशासनको लांछन ( कलङ्क) लगानेवाले ठहराकरके तीन वार धीक्कारका इनाम दिया है। इस जगह निष्पक्षपाती सज्जन पुरुषोंको विचार करना चाहिये कि श्रीजैनतीर्थोंकी तथा श्रीजैनतीर्थों को मानने वालोंको द्वेष बुद्धिसे बड़ेही अनुचित शब्दोंसें निन्दा करके For Private And Personal Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०३ ] भारी कम के बंध किये हैं और श्रीजैनशासनके निन्दकोंको भी उसी रस्त पहुंचानेके लिये नरकादि अधोगतिका सार्थवाह ( कुंदनमल ढूंढक ) बना है और पुस्तक प्रगट कराई हैं जिसमें छठे महाशयजीके गुरुजीकी तथा उन्हों के सम्प्रदाय वालोंकी भी निन्दा करी हैं तथा खास छठे महाशयजी वगैरह को भी अनेक शब्द लिखते तीनवार धोक्कार भी लिख दिया हैं और श्रीजैनशासनको निन्दा करके मिथ्यात्व बढ़ानेका कारण किया - उसीको तो छठे महाशयजीनें कुछ जबाब भी न दिया और सर्व श्रीसङ्घको तथा वकील, बेरिस्टर वगैरहको सावधान करके कोर्ट कचेरीमें श्रीजैनशासन के निन्दक कुंदनमल्लको शिक्षा दिलाने की किञ्चिन्मात्र भी बहादुरी न दिखाई परन्तु श्री खरतरगच्छके और श्रीतपगच्छके आपसमें वृथाही कोर्ट कचेरी में झगड़ा फैलाने के लिये और मिथ्यात्व बढ़ाने के लिये, वकील, बेरिस्टर, वगैरको सावधान करके वड़ीही बहादुरी दिखाई हैं सो वड़ीही आश्चर्य्यकी बात है कि श्रीजैनशासनके दुशमन निन्दको से तो मुख छिपाते हैं और आपस में झगड़ा करनेकी बहादुरी दिखाते कुछ लज्जा भी नही पाते है, - · अब छठे महाशयजीको मेरा ( इस ग्रन्थकारका ) इतनाही कहना है कि आप सम्यक्त्वी और श्रीजैनशासनके प्रेमी होवो तो प्रथम श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छके आपनमें न्यायानुसार शास्त्रार्थ पूर्वक अन्तरका पक्षपात छोड़कर सत्य असत्यका निर्णय करके असत्यको छोड़के सत्यको ग्रहण करो और श्रीजैनशासन के निन्दक कुंदनमल्लके For Private And Personal Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०४ ] मिथ्यात्वका पाखण्डको च्छेदन करनेके लिये अपनी बहा दुरी प्रगट करो-जबतक कुंदनमलके मिथ्यात्व बढ़ानेवाले लेखका जबाब आप नही देवोगे तबतक आपकी विद्वत्ता स्थाही समझने में आवेगी और ढूंढोके मुखपर शाही फिरानेके इरादेसे कार्य करनेकी अक्कल आपने दोडाई थी परन्तु पूर्वापरका विचार किये बिना कार्य कराया जिससे आपकेही मुखपर शाही फिरने जैसा कारण बनगया और श्रीजैनती की तथा अपने गुरुजी वगैरहकी निन्दा कराने के निमित्त भूत दोषाधिकारी भी आपकोही बनना पड़ा है और अपने बड़ोको अपवित्र ठहरानेका कलङ्क भी लगवाया है इसलिये कुंदनमल्ल ढूंढकके निन्दारूपी मिथ्या गप्पोंका जबाब देना आपकोही उचित है तथापि उन्हका जबाब देना आपको मुश्किल होवे तो आपके मण्डलीमें विद्वत्ता का अभिमान धारण करनेवाले बहुतसे साधुजी है उन्हके पास उसीका जबाब दिलाना चाहिये इतने पर भी आप की तथा आपके मण्डलीके साधुओंकी कुंदनमलके लेखका जबाब देनेकी बुद्धि नही होवे तो मेरी तरफसें इस ग्रन्थको संपूर्ण हुए बाद "कुंदनमलके मिथ्यात्वका पाखगडच्छेदन कुठार" नामा ग्रन्थ आप लिखो तो बनाकर प्रगट करू जिसमें श्रीजैनतीर्थों पर तथा श्रीजैनतीथों को माननेवालों पर और आपके गुरुजी वगैरह पर जो जो आक्षेप करके दूषण लगाया है जिसका न्यायानुसार युक्तिपूर्वक अच्छी तरहसे जबाब लिखके सबके आक्षेपको दूर करने में आवेगा और कुंदनमलने अपने अन्तर गुण युक्त जो जो शब्द लिखे हैं उत्तीकाही न्याय युक्तिपूर्वक खास कुंदनमलकेही ऊपर घटानेमें आवेगा, For Private And Personal Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०५ ] और आगे फिर भी छठे महाशयजीने लिखा है कि ( अमो नहोता धारताके महात्मा मुनि मोहनलालजीना काल पछी अहवो पण काल आवशे के जे आपसमां जंजाल फेलावी फालमारी पायमालकरी हाल बेहाल करी देशे पण अवितव्यताने कोण रोके) इत्यादि अनेक तरहके अनुचित शब्द लिखके श्रीमोहनलालजी पर तथा उन्होंके समुदाय वालों पर द्वेषबुद्धिसे खूबही कटाक्ष करके नाटकरूपसे कितनीही बातों में उन्होंको कलङ्क लगाया है उसीका भी यक्ति पूर्वक जबाब यहां लिखनेसें बहुतही विस्तार होजावे इस लिये श्रीमोहनलालजीके तथा उन्होंके संप्रदायके पूर्णप्रेमी और गुरुभक्त (पन्यासजी श्रीजशमुनिजी, पन्यासजी श्रीहर्षमुनिजी, और पन्यासजी श्रीकेशरमुनिजी वगैरह मंडली के साधओंमेंसे) जो महाशय होवेंगे सो दंभप्रियजीके लेखका जबाब लिखके श्रीमोहनलालजीका तथा उन्होंकी समुदाय वालोंका कलङ्कको दूर करेगा। और इसके आगे फिर भी लिखा है कि (प्रश्नोत्तरमालिका नामे अक चोपड़ी रतलाममां वीरसंवत् २४३५ नाकारतक सुदीपाँचमें बेरिस्टरनूखोटुं नाम लखी छपाववामां आवेल छे जेमा तपगच्छ उपर हुमलोकर्या सिवाय बीजुकाई पण मालम पड़तु मथी कारणके जेजे सवालो लख्याछे प्रायःसर्वना उत्तरो कलकत्ता थी प्रगट थयेल चोपडीना उत्तर रूपे जैन सिद्धान्त समाचारी नामे भावनगरनी जइन धर्मप्रसारक सभा तरफ थी छपायेल चोपड़ीमां आवी गयेल छे ) छठे महाशयजीके ऊपरका लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हुं जिसमें प्रथमतो-प्रश्नोत्तरमालिका, For Private And Personal Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०६ ] मामा छोटीसी पुस्तकको देख करके छठे महाशयजी श्रीवल्लभ विजयजी और श्रीकलकत्तानिवासी लक्षमीचन्दजी सीपाणी वगैरह महाशय कहते फिरते हैं कि-देखो प्रथम वाद विवाद का कारण खरतरगच्छवालोंकी तरफसे होता है जिसका नमूनारूप प्रश्नोत्तरमालिका नामा पुस्तक लोगोंको दिखाते हैं परन्तु प्रश्नोत्तरमालिका पुस्तक बननेका कारण समझे बिना द्वेष बुद्धिसें मिथ्या भाषण करके प्रथम वाद विवादके कारण करनेका श्रीखरतरगच्छवालोंको झूठा दूषण लगाते हैं क्योंकि प्रथम रतलामसें श्रीतपगच्छके श्रावक वृद्धिचन्दजी छोगालालजी गांधीने श्रीहेदरावादमें चौमासा ठहरे हुवे न्यायरत्नजी श्रीशान्तिविजयजीको पत्र द्वारा, पांच-छ कल्याणकादि सम्बन्धी कितने ही सवाल पूछे जिसके जबाब सप्टेम्बर मासकी २७ वी तारीख सन् १९०८ आश्विन शुदी २ वीर संवत् २४३४ के जैनपत्रका २४ वां अङ्कके पृष्ट ४ में छपे हैं उसी में श्रीखरतरगच्छवालोंको श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक सम्बन्धी पूछा तब उसीके निमित्त कारणसे उसीका जबाब रूपमें श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकसम्बन्धी शास्त्रोंके पाठों सहित कितनेही शास्त्रानुसार सवालों पूर्वक--प्रश्नोत्तरमालिका नामा पुस्तक छपी है इसलिये प्रश्नोत्तरमालिका छपने के निमित्त कारण श्रीशान्तिविजयजी है जो श्रीशान्ति विजयजी श्रीखरतरगच्छवालोंको श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक सम्बन्धी नही पूछते तो श्रीखरतरगच्छवालोंको उसीका जबाबरूपमें प्रश्नोत्तरमालिका छपा करके प्रगट करनेकी कोई जरूरत नही थी परन्तु प्रथम जो कोई सवाल पूछेगा उसीका जवाब तो शास्त्रानुसार अवश्यही देना सो न्याय For Private And Personal Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०७ ] युक्त बात हैं इसलिये प्रथम वाद विवादका कारण श्रीखरतरगच्छवालोंकी तरफसे नही किन्तु मीतपगच्छवालोंकीही तरफसें होता है ;___ और (बेरिस्टरनं खोटंनाम लखी छपावामां आवेलछे) छठे महाशयजीका यह भी लिखना द्वेष बुद्धिका मिथ्या है क्योंकि यह तो दुनिया में प्रसिद्ध व्यवहार है कि-ऋषभ, महावीर, वर्द्धमान, गौतम, इन्द्र, लक्ष्मीपति, अमर, राजा, महाराज, सिंहजी, इत्यादि अपने संसारिक सम्बन्धियोंमें अनेक तरह के व्यवहारिक नाम होते हैं उसी नामको बोलनेमें अथवा लिखने में कोई दूषण नही है और श्रीजैनशास्त्रों में भी व्यवहारिक नामसे अनेक बातें लिखने में आती है तैसेही उन्हको भी अपने संसारिक सम्बन्धियोंमें व्यवहारिक नामसे बेरिस्टर कहते हैं सोही नाम लिखा है उसीको छठे महाशयजी झठा ठहराते हैं सो तो प्रत्यक्ष द्वेष बुद्धिका कारण है ; और छठे महाशयजीने लिखा है कि ( तपगच्छ उपर हुमलो कर्या सिवाय बीजुकाई पण मालम पड़तु नथी ) इन अक्षरों पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि सत्ययुग चौथे कालमें भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके अमृत समान धर्मोपदेशको सुन करके भी-भारी कर्मे मिथ्यात्वी प्राणी उन्हीमहराजोंके अवर्णवाद बोलकर संसार रद्धिका कारण करते थे तो अब इस कलियुग पञ्चमकालमें गच्छुकदाग्रही, हठवादी, परिडताभिमानी, दुःखगर्भित, मोहगर्भित वैराग्य वाले, अन्तरमें श्रद्धारहित, मिथ्याभाषक, कलयुगी भारी कर्मप्राणी-श्रीजैनशास्त्रोंके प्रत्यक्ष प्रमाणोंका अवर्णवाद For Private And Personal Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०८ ] बोलके, संसार वृद्धिका कारण करे तो कोई आश्चर्यकी बाब नहीं है तैसेही छठे महाशयजी दम्भप्रियजी श्रीवल्लभविजयजीने भी किया, अर्थात् प्रश्नोत्तरमालिका पुस्तक में शास्त्रोंके पाठ दिखाये और शास्त्रानुसार कितनी ही बातें भी लिखी है उसको प्रमाण करना तो दूर रहा परन्तु तपगच्छ उपर हुमलो ( जुलम ) करनेका ठहरा करके श्रीजैनशास्त्रों की बातोंके अवर्णवाद लिखे सो तो उन्हें केही कमका दोष है ; और आगे फिर भी प्रश्नोत्तरमालिका सम्बन्धी छठे महाशयजी लिखते हैं कि ( जे जे सवालो लख्या छे प्रायः सर्वना उत्तरो कलकत्ता थी प्रगट थयेल चोपड़ीना उत्तररूपे जैनसिद्धान्त समाचारी नामे भावनगरनी जइनधर्मप्रसारक सभा तरफ थी छपायेल चोपड़ीमां आवी गयेल छे ) इस लेख पर भी प्रथमतो मेरेको इतनाही कहना है कि-कलकत्तेसें चोपड़ी ( पुस्तक ) प्रगट होनेका जो छठे महाशयजी लिखते हैं सो तो भूलसे मिथ्या है क्योंकि कलकत्तेसे पुस्तक प्रगट नही हुई थी किन्तु (न्यायाम्भोनिधिजी केही उत्सूत्र भाषणके अन्यायपर) मकसूदाबाद के श्रावकने मुंबई में छपवाकर 'शुद्ध समाचारी प्रकाश' नामा पुस्तक प्रगट किई है उसीमें श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यजी महाराजोंकी आज्ञानुसार पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंके पाठार्थी सहित जो जो बाते लिखने में आई है उसीका और प्रश्नोत्तरमालिकामें भी जो जो शास्त्रोंकी बातें लिखके सवाल पूछने में आये हैं । उसीके एक सवालका भी जवाब में उत्सूत्र भाषणके सिवाय शास्त्रार्थ पूर्वक कुछ भी जवाब जैन सिद्धान्त समाचारी नामक पुस्तकमें नही लिखा है । For Private And Personal - Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०९ ] और (ढूंढिोले पण याद राख सामायिक लेतां प्रथम इरियावहिया केहवी अने पछी करेमिभंतेनो पाठ केहवो १, श्रीमहावीर स्वामिना पांच कल्याणक २, वगेरे बातोमां तो तमोने पण बाधाज आवशे माटे तपगच्छ उपरथयेल आक्षेप जोई फुलीने फालका न थाशो आबावतमा तो तमो पण जवाब दारजछो) इन अक्षरों करके छठे महाशयजी अपना मन्तव्य स्थापन करनेके लिये इस जगह ढूंढि योंको भी अपने सामिल मिलाते हुवे उन्होंकाही सरणा ले करके सामायिक सम्बन्धी तथा कल्याणक सम्बन्धी श्रीखरतरगच्छवालोंके साथ वाद विवादरूप युद्ध करना चाहते हैं और बहुत वर्षोंका गच्छ सम्बन्धी विवाद दबा हुवा था, उसीको भी पीछाही सरू करके शुद्धसमाचारी प्रकाशकी सत्य बातोंका उत्तररूपमें जैन सिद्धान्तसमाचारी नामक, परन्तु वासत्विकमें उत्सूत्र भाषणके संग्रहकी-पुस्तकको आगे करके अपना मन्तव्यको पुष्ट किया इसलिये इस जगहऊपरकी दोनं पुस्तकोकी सब बातोंके सत्य असत्यका निर्णय करके मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही भव्यजीवोंको दिखाना मेरे को उचित है परन्तु बहुत विस्तार हो जानेके कारणसे नमूनारूप थोड़ीसी बातोंका निर्णय करके संक्षिप्तसे दिखाता हुं, जिसमें प्रथम शुद्धसमाचारी प्रकाशमें सामायिकका अधिकार है तथा जैनसिद्धान्तसमाचारी नामक पुस्तकमें भी प्रथम सामायिकका अधिकार है और छठे महाशयजी भी ढूंढियोंका साथ करके प्रथम सामायिक सम्बन्धी लिखते हैं इसलिये मेंभी इस जगह प्रथम सामायिक सम्बन्धी शास्त्रार्थ पूर्वक थोडासा लिखता हुं : For Private And Personal Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ११० ] श्रावकके सामायिक करनेकी विधिमें सामायिकाधिकार प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका उच्चारण करना ऐसे कोई भी शास्त्रोंमें नहीं कहा है किन्तु प्रथम करेमिझतेका उच्चारण किये बाद पीछेसें इरियावही करना श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंकी परम्परानुसार है और पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों में भी कहा है सोही दिखाता हुं : श्रीजिनदास महतराचार्यजी पूर्वधर महाराजकृत श्री आवश्यकजी सूत्रकी चूर्णिमें १, श्रीमान् महान् विद्वान् सुप्रसिद्ध १४४४ ग्रन्यकार श्रीहरिभद्रसूरिजी कृत श्रीआव. श्यकजी सूत्रकी वहवृत्तिमें २, श्रीचन्द्रगच्छके श्रीतिलकाचार्यजी कृत श्रीआवश्यकजीसूत्रको लघुपत्तिमें ३, श्रीयशोदेव उपाध्यायजी कृत श्रीनवपदप्रकरणको विवरणरूप वृत्तिमें ४, श्रीपाश्र्वनाथस्वामिजी की परम्परामें श्रीउक्केशगच्छके श्रीदेवगुप्तसूरिजी कृत श्रीनवपदप्रकरणकी वृत्ति५, पुनः श्रीपूर्वाचार्यजी कृत श्रीमवपदप्रकरणकी वृत्तिमें ६, श्रीलक्षमीतिलकसूरिजीकृत श्रीश्रावकधर्म प्रकरणकी वृत्तिमें 9, श्रीखरतरगच्छनायक सुप्रसिद्ध श्रीनवाङ्गीवृत्तिकार श्री मदभयदेवसूरिजी कृत श्रीपञ्चाशकजी सूत्रकी वृत्तिमें ८, श्रीवड़गच्छके श्रीयशोदेवसूरिजी कृत श्रीपञ्चाशकजी सूत्रकी चूर्णिमें , श्रीचन्द्रगच्छके श्रीविजयसिंहाचार्यजीकृत श्री श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रकी चूर्णिमें १०, श्रीपूर्णपल्लीयगच्छके कलिकाल सर्वज्ञ विरुदधारक महान्विद्वान् सुप्रसिद्ध तीन करोड़ श्लोकोंकी रचनासे अनेक ग्रन्यकर्ता श्रीहेमचन्द्राचार्यजी कृत श्रीयोगशास्त्र की वृत्ति में १९, श्रीखरतरगच्छके श्रीवर्द्धमानसूरिजी कृत श्रीकथाकोश ग्रन्थमें १२, श्रीपूर्वाचार्यजी कृत For Private And Personal Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३११ ] श्रीश्राद्धदिन कृत्य मूलसूत्रमें १३, श्रीतपगच्छनायक सुप्रसिद्ध श्रीमान् देवेन्द्रसूरिजी कृत श्रीश्राद्धदिनकत्यसूत्रकी वृत्तिमें १४, श्रीयशोदेवसूरिजी कृत श्रीवन्दनकचूर्णिमे १५, श्रीखरतरगच्छके श्रोअभयदेवसूरिजी रुत श्रीसमाचारी ग्रन्थमे १६, तथा श्रीजिनप्रभसूरिजी कृत श्रीविधिप्रपा नामा समाचारी ग्रन्थमे १७, और श्रीखरतरगच्छके दूसरे श्रीवर्द्धमानसूरिजी कृत श्रीआचारदिनकर ग्रन्थमें १८, श्रीतपगच्छके श्रीकुलमण्डनसूरिजो कत श्रीविचारामृत संग्रह ग्रन्थमें १९, तथा श्रीतपगच्छके सुप्रसिद्ध श्रीरत्नशेखरसूरिजी कृत श्रीश्राद्ध प्रतिक्रमणसूत्रकी वृत्ति ( वन्दित्तासूत्रकी अर्थदीपिकानामा टीका) में २०,और सुप्रसिद्ध श्रीहीरविजयसूरिजीके सन्तानिये श्रीमानविजयजी उपाध्यायजी कृत श्रीधर्मसंग्रह ग्रन्थको वृत्ति-जो कि सुप्रसिद्ध श्रीमान् यशोविजयजी उपाध्यायजीने शुद्ध करी है उसीमें २१, इत्यादि अनेक शस्त्रों में श्रीपूर्वधरादि पूर्वाचाय्याने और श्रीखरतरगच्छके तथा श्रीतपगच्छादि अनेक गच्छोंके अनेक पूर्वाचायोंने प्रावकके सामायिक विधिमे (सामायिकाधिकारे) प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेसें इरियावहीका प्रतिक्रमण करना खुलासापूर्वक कहा है जिसके विषयमें सब पाठ यहां लिखनेसें बहुत विस्तार होजावे तथापि श्रीतपगच्छके वर्त्तमानिक सत्यग्राही आत्मार्थी सज्जन पुरुषोंको निःसन्देह होनेके लिये अपनेही पूर्वजोंके बनाये ग्रन्थोंके पाठ इस जगह लिख दिखाता हुं श्रीतपगच्छनायक सुप्रसिद्ध विद्वान् अनेक ग्रन्थकार श्रीदेवेन्द्रसूरिजी कृत श्रीश्राद्धदिनकृत्य सूत्रकी वृत्तिका पाठ नीचे मुजब जानो: For Private And Personal Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१२ ] साम्प्रतमष्टादशं सत्कार द्वारमाह ॥ ततो वैकालिकाविकालवेलायामन्तर्मुहूर्त्त रूपायां नन्तरं तामेवव्यनक्ति अस्तमिते दिवाकरे अर्द्धबिम्बादर्वाक इत्यर्थः ॥ पूर्वीतेन विधानेन पूजाकृत्वेति शेषः । पुनर्वन्दते जिनोत्तमान् । प्रसिद्ध चैत्यवन्दनविधिनेति ॥२२८॥ अथैकोनविंशतिवन्दनको पलक्षितमावश्यकद्वारमाह ॥ ततस्तृतीयपूजानन्तरं श्रावकः पोषधशालाङ्गत्वा यतनया प्रमाष्टि ततो नमस्कारपूर्वकं व्यवहित तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । स्थापयित्वैव तत्र सूरिं स्थापनाचार्य्यं । ततो विधिना सामाकिं करोति ॥ २२९ ॥ अथ तत्र साधवोऽपि सन्ति । श्रावकेण गृहे सामायिकं कृतं । ततोऽसौ साधुसमीपे गत्वा किं करोति इत्याह । साधुसाक्षिकं पुनः सामायिकं कृत्वा । ईर्ष्या प्रतिक्रम्यागमनमालोचयेत् । तत आया दिन् वदित्वा । स्वाध्यायं काले चावश्यकं करोति ॥ २३० ॥ देखिये ऊपरके पाठमें सांमको पूर्वोक्त विधिसें श्री जिनराजकी पूजा करके प्रसिद्ध विधिसे चैत्यवन्दन करे बाद पौषधशाला में जाकर यतना पूर्वक प्रमार्जना करके गुरु अभावसे नमस्कार पूर्वक स्थापनाचार्य्यजीकी स्थापना करके तिस विधि अर्थात् श्रीआवश्यकादि शास्त्रोक्त विधिसे सामायिक करे और पौषधशाला में श्रीगुरुजी महाराज होवे और अपने घरसें सामायिक करके पौषधशाला में गया होवे तो फिर भी गुरु साक्षि करेमिभंतेका उच्चारण करके पीछे इरियावही पड़िकमके आचार्य्यादि महाराजोंको वन्दना करे और स्वाध्याय करे पीछे अवसर होनेसे प्रतिक्रमण करे - For Private And Personal Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१३ ] और श्रीतपगच्छके प्रभाविक श्रीहीरविजयजीसरिजीके सन्तानिये श्रीमानविजयजी कृत श्रीधर्म संग्रहकी वृत्तिको सुप्रसिद्ध श्रीयशोविजयजीने शुद्ध करी है उसीका पाठ यहां दिखाता हुं :___यथा--आवश्यक सूत्र मपि सामायिअं नाम सावज्जजोगपरिवज्जणं णिरवज्जजोगपडिनेवणं चेत्ति, तत्रायमावश्यकचूमि,पञ्चाशकचर्णि,योगशास्त्रवत्त्यायुक्तो विधिर्यथाश्रावकः सामायिककर्ता द्विधा भवति ऋद्धिमाननृधिकश्च योऽसावनृद्धिकः स चतुर्षु स्थानेषु सामायिकं करोति जिनगृहे, साध्वन्तिके, पोषधशालायां, स्वगृहे वा यत्र वा, विश्राम्यति निर्व्यापारो वा आस्ते तत्र च यदा साधुसमीपे करोति तदायविधिः यदि कस्माच्चिदपि अयं नास्ति केनचिद्विवादो नास्ति, ऋणं वा न धारयति माभूत्तत् कृताकर्षणापकर्षणनिमित्तसंक्तशः, तदा स्वगृहेऽपि सामायिक कृत्वा ईयां शोधयन् सावद्यां भाषां परिहरन्, काष्ठलोष्ठ्वादिना यदि कार्य, तदा तत्स्वामिनमनुज्ञाप्य प्रति लिख्य प्रमाज्यंच गृह्णन्, खेलसिंघाणकादीन् विवेचयंश्च स्थंडिलं प्रत्यवेत्य, प्रमृज्य पञ्चसमितिसमितस्त्रिगुप्तिगुप्तः साध्याश्रयं गत्वा, साधूनमस्कृत्य सामायिकं करोति, तत्सूत्र यथा करेमिभंते सामाइअं सावज्ज जोगं पच्चस्कामि जाव साहू पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि तस्मभंते पडिक्कमामि निन्दामि गरिहामि अप्याणं वोसिरामि त्ति ॥ एवं कृततामायिक, ईर्यापथिक्याः प्रतिक्रामति पश्चादागमनमालेच्य,यथाज्येष्ठमाचार्यादीन्वन्दते, पुनरपि गुरु वन्दित्या प्रत्युमेक्षितासने ४० For Private And Personal Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१४ ] " निविष्टः शृणोति, पठति, पृच्छति वा, एवं चैत्यभवनेऽपि - द्रष्टव्यं, यदा तु पोषधशालाया स्वगृहे वा सामायिक गृहीत्वा तत्रैवास्त तदागमनं नास्ति यस्तु राजादि महर्द्धिकः स गन्धसिन्धुरस्कन्धाधिरूढ़ छत्रचामरादिराज्यालंकृतो हास्तिकाश्रीयपादातिकरणकाद्या परिकरितो भेरीभांकारभरिताम्बरतला वन्दिवृन्दकोलाहला कुलीकृतन मस्तलो ने कसा मन्तमण्डलेश्वराहमहमिकासंप्रेक्ष्यमाणपादकमलः पौरजनः सश्रद्रुमङ्गुल्योपदर्श्य मानो मनोरथैरुपस्पृश्य मानस्तेषामेवा डिबन्धान् लाजालु डिपातान् शिरःप्रणामाननुमोदमानः अहो धन्यो धर्मो य एवंविधैरुपसेव्यते इति प्राकृतजनैरपि लाघ्यमानोJaaसामायिक एव जिनालयं साधुवसतिं वा गच्छति तत्र मतो राजककुदानि छत्रचामरोपानम्मुकुटखड गरूपाणि परिहरति आश्यवक चूर्णी तु मउडं न अवणेइ कुंडलाणि णाम मुद्दे च पुष्कतंबोलपावारगमादि वोसिरइत्ति भणितं जिनार्चनं साधुवन्दनं वा करोति यदि त्वसौ कृतसामायिक एव गच्छेत्तदा गजाश्वादिभिरधिकरणं स्यात्तच्च न युज्यते कर्तु तथा सामायिकेन पादाभ्यामेव गन्तव्यं तच्चानुचितं भूपतीनां आगतस्य च यद्यसौ श्रावकस्तदा न कोऽप्यभ्युत्यानादि करोति अथ यथा भद्रकस्तदा पूजा कृतास्तु इति पूर्वमेवासनं मुञ्चति आचार्य्याश्च पूर्वमेवोत्थिता आसते मा उत्थानानुत्यानकृता दोषा भूवन्निति आगतश्चासौ सामाथिकं करोतीति पूर्ववत्, - देखिये ऊपर के पाठ में श्रीजिनदास महत्तराचार्य्यजी पूर्वधर महाराजकृत श्री आवश्यकजी सूत्रकी चूर्णि १, श्री यशोदेवसूरिजी कृत श्रीपञ्चाशकजी सूत्रकी चूर्णि २, तथा For Private And Personal Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१५ ] कलिकालसर्वज विरुद-धारक श्रीहेमचन्द्राचार्यजी कृत श्री योगशास्त्र की वृत्ति ३, और आदिशब्दसे श्रीहरिभद्रसरिजी कृत श्रीआवश्यकजी सूत्रको शहद्वत्ति वगैरह अनेक शास्त्रा. नुसार-सामायिक करने वाले दो प्रकारके प्रावककी विधिमें खुलासा पूर्वक प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछे में इरियावहीका प्रतिक्रमण करना अच्छी तरहसे स्पष्ट करके लिखा है। और श्रावक अपने घरमें वा गुरु अभावसे पौषध शालामें सामायिक करे वहां 'जाध नियमं पज्जुवा सामि' ऐसा पाठ उच्चारण करे और श्रीगुरुजी महाराजके सामने सामायिक करे वहां 'जावसाहू पज्जुवा सामि' ऐसा पाठ उच्चारण करे और श्रीजिनमन्दिरमें सामायिक करे वहां 'जावईय पज्जुवा सामि' ऐसा पाठ उच्चारण करे-इसका उपरोक्त शास्त्रोंमें खुलासै पाठ है । और भी श्रीतपगच्छके श्रीरत्नशेखरसरिजी कृत श्रीश्राद्धप्रतिक्रमणवृत्ति ( श्रीवन्दीता सत्रकी अर्थदीपिका टीका ) में भी प्रावकके नधमा सामायिक व्रताधिकारे पर मुजब ही पाठ है और उसीका भाषान्तर श्रीमुम्बईवाले श्रावकभीमसिंह माणकने निर्णयसागर प्रेसमें श्रीजैनकथा रनकोष भाग चौथा (४) में छपवाया है जिसके पृष्ठ ३३० से ३३८ तक देख लेना : और ऊपरोक अनेक शास्त्रोंके पाठ भावार्थ सहित एक दूसरा और भी ग्रन्थ छपता है उसीमें विस्तार पूर्वक अनेक पाठ छपगये है जिसका भेद आगे खोलुंगा अब मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही सज्जन पुरुषोंको इस जगह विचार करना चाहिये कि-श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि For Private And Personal Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१६ ]. महाराजांकी आज्ञानुसार पूर्वधरादि श्रीप्राचीनाचार्योंने तथा सबीही गच्छोंके पूर्वाचार्योंने और श्रीतपगच्छके भी प्रभाविक पुरुषोंने अनेक शास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक सामा. यिकाधिकार प्रथम करेमिझतेका उच्चारण किये बाद पीछेसें इरियावही कही है मो आत्मार्थियोंको प्रमाण करने योग्य है तथापि श्रीतपगच्छके वर्तगानिक प्रायः करके सबीही श्रावक महाशयों को ऊपर मुजब वर्तना तो दूर रहा परन्तु ऊपर मुजब श्रद्धा भी नहीं रखते है और उलटे उन शास्त्रोंके विरूद्वार्थ में अपनी मतिकल्पनासें वर्तते हैं उन्होंको श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके आराधक तथा खास अपनेही गच्छके प्रभाविक पुरुषोंकी आज्ञाके आराधक और पञ्चाडीके शास्त्रोंपर श्रद्धारखनेवाले कैसे कहे जावें और अनेक शास्त्रोंके प्रत्यक्ष प्रमाणको विधिको छोड़ करके अन्ध परम्परासें गड्डरीह प्रवाहवत् उन्ही शास्त्रोंके विरुद्ध वर्तने वालोंकी क्रिया भी कैसे सफल होगा-और श्रीजैनशास्त्रोंके एक पद पर अथवा एक अक्षर पर भी जो पुरुष श्रद्धा नही रखे वह प्राणी जमालि की तरह निन्हव, मिथ्यादूष्ठि कहा जाता है सो तो अनेक शास्त्रोंमें प्रसिद्ध बात है तथापि श्रीतपगच्छके वर्तमानिक जो जो मुनि महाशय और श्रावक महाशय ऊपरोक्त अनेक शास्त्रों पर तथा उन शास्त्रोंके कर्ता श्रीजैनशासनके प्रभाविक पुरुषोंके वचनों पर और खास अपनेही गच्छके पूर्वज पुरुषोंके वचनों पर श्रद्धानहीं रखते हैं उन्होंको-पक्षग्राही, दृष्टिरागी, शास्त्रोंकी श्रद्धा रहितके सिवाय और सम्यक्त्वी कौन कहेगा सो तत्त्वग्राही पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ; For Private And Personal Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१७ ] और इस वर्तमान कालमें सुप्रसिद्ध न्यायाम्भोनिधिजी श्रीआत्मारामजी अनेक शास्त्रों के अवलोकन करनेवाले गीतार्थ कहलाते थे इसलिये श्रीपूर्वधर महाराज कृत श्री आवश्यक चूर्णि वगैरह २१ शास्त्रोंके प्रमाण सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही सम्बन्धी ऊपरमेंही पृष्ठ ३१०-३११ में छपे है उन्ही शास्त्रों के पाठोंको सामायिक सम्बन्धी न्यायाम्भोनिधिजीने वांचे है लोगोंको सुनाये है और उन्ही शास्त्रकार महाराजोंको श्रीजैमशास्त्रोंके अतीव गहनाशयको समझनेवाले, बुद्धिनिधान, प्रभाविक, श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके आराधक, सत्यवादी, पर उपगारी, मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी, और भव्य जीवोंको मोक्षसाधनका श्रीजिनाज्ञाके आराधनरूप रस्ताको दिखाने वाले गीतार्थ उत्तमपुरुष मानते थे लोगोंको भी कहते थे और उन्ही महाराजोंके बनाये ऊपरोक्त पञ्चाङ्गीके शास्त्रोंको नही माननेवालोंको मिथ्यात्वी ठहरा करके उन्ही महाराजोंकी आशातमा करनेवाले पञ्चाङ्गीकी श्रद्धारहित जैनाभास संसारगामी कहते थे और शास्त्रोंके पाठोंको छुपा करके अथवा आगे पीछेके सम्बन्धको छोड़ करके शास्तकार महाराजके विरुद्धार्थमें अधरे अधरे पाठ लिखके उलटे तात्पर्य्य भोले जोवोंको दिखाने वालोंको संसारमें परिभ्रमण करनेवाले ठहराते थे सोही खास न्यायाम्भोनिधिजीके बनाये 'चतुर्थस्तुतिनिर्णयः' वगैरह ग्रन्थोंसे प्रत्यक्ष दिखता है तथापि बड़ेही अफसोसकी बात है कि दूरवि बहुलकर्मी मिथ्यात्वीकी तरह पञ्चाङ्गीके ऊपरोक्तादि अनेक शास्त्रोंके पाठोंपर श्रीआत्मारामजीकी अन्तरमें श्रद्धा नही For Private And Personal Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१८ ] थी इसलिये श्रीपूर्वधरादि महाराजोंके बनाये श्रीआवश्यक. चूर्णि वगैरह पञ्चाङ्गीके शास्त्रोंके पाठोंपर उन्हेंोंको संशयरूपी मिथ्यात्वका भ्रम रहा अथवा अपनी विद्वत्ताके अभिमानसे संसार वृद्धिका भय नही करते अभिनिवेशिकमिथ्यात्वके अधिकारी बनके ऊपरोक्त शास्त्रोंके पाठोंके तात्पर्य्यको जानते हुवे भी प्रमाण नही करे और भोले जीवोंको भी पञ्चाङ्गीके ऊपरोक्तादि शास्त्रोंके पाठोंकी शुद्ध श्रद्धा रहित बनानेके लिये 'जैनसिद्धान्त समाचारी' नामक पुस्तकमें पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों के विरुद्धार्थने अन्य अन्य विषयोंके अधिकारवाले अधूरे अधूरे पाठ लिसके उसीका भी उलटा तात्पर्य बालजीवोंको दिखा करके (उत्सूत्र भाषणरूप अनेक जगह लिखके) अपनी समुदायबालोंको तथा अपने गच्छवालोंको संशयरूपी मिथ्यात्वके भ्रममें गेरे हैं और श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाका आराधनरूपी मोतसाधनका रस्ताकी सत्यबातोंका निषेध करके संसार यद्धिके कारणरूप मिथ्यात्वको फैलानेवाली अपनी मतिकल्पनाकी भिध्या बातोंको स्थापन करी है जिसका विस्तारसे शास्त्रार्थ पूर्वक इस जगह निर्णय करनेसे बड़ाही विस्तार होजावे तचापि न्यायाम्भोनिधिजी का ( अपनी समुदायवालों पर तथा अपने गच्छवालों पर ) गेरा हुवा मिथ्यात्वका अमको अवश्यही दूर करके मोक्षाभिलाषी सत्यग्राही भव्यजीवोंकी शुद्ध श्रद्धारूपी सम्यकत्व रत्नकी प्राप्तिके उपगारके लिये सत्य बातोंका दर्शाव भी जरूरही होना चाहिये इसलिये जैनसिद्धान्त समाधारी नामक पुस्तकके उत्तररूपने 'आत्मभ्रमोच्छेदनभानुः' नामा ग्रन्थ छपना भी सरू होगया है उसीमें न्यायाम्भोनिधि For Private And Personal Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९ ] जीने जैन सिद्धान्त समाचारी नामक पुस्तकमें जो जो उत्सूत्र भाषण किये है जिसका अच्छीतरहसें विस्तार पूर्वक निर्णय छप रहा है परन्तु इस जगह भी न्यायदृष्टिवाले आत्मार्थी भव्यजीवोंको निःसन्देह होनेकेलिये सामायिकाधिकारसम्बन्धी न्यायाम्भोनिधिजीनें जो जो उत्सूत्र भाषण किये हैं उसीका निर्णय के साथ संक्षिप्तसें दिखाता हुं १प्रथम-सामायिकाधिकारे पहिले करेमिभंतेका उच्चारण कियेपीछे इरियावहीका प्रतिक्रमण करना अनेक शास्त्रोंमें कहा है सो ऊपर ही छपगया है और सामायिकाधिकार सम्बन्धी कोई भी शास्त्रोंमें पूर्वापर विरोधी विसंवादी वाक्य नही है याने कोई भी शास्त्रमें सामायिकाधिकारे प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंतेका उच्चारण किसी भी पूर्वाचार्यजीने नहीं कहा है तथापि न्यायाम्भोनिधिजी 'जैनसिद्धान्त समाचारी' नामक पुस्तक के पृष्ठ ३० के मध्यमें सामायिकविधि सम्बन्धी अनेक शास्त्रोंके आपसमें पूर्वापर विरोध विसंवाद ठहराते हैं सो उत्सूत्र भाषण है इसका विस्तार 'आत्मनमोच्छेदनभानुः' नामा ग्रन्यके पृष्ट ३ से 9 तक छप गया है और सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही सबी शास्त्रोंमें कही है जिसके विषयमें श्रीपूर्वधरादि प्रभाविक पुरुषोंके बनाये ग्रन्थोंमें तथा श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छादिके पूर्वजोंने भी ऊपर मुजबही कहा है उसीके अनेक पाठ अर्थ सहित 'आत्मभ्रमोच्छेदनभानुः' के पृष्ठ ७ से २६ तक खुलासा पूर्वक छपगये है परन्तु सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमि भंते किसी भी शास्त्र में नही लिखी है सोही दिखाता हुं : For Private And Personal Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२० ] २ दूसरा-श्रीगणणधर महाराज श्रीसुधर्म स्वामीजी कृत श्रीमहानिशीथ सत्रके तीसरे अध्ययनमें उपधानके अधिकारमें चैत्यवन्दनादि सम्बन्धी विस्तार पूर्वक खुलासे पाठ है जिसके सम्बन्धवाले आगे पीछेके सब पाठको छोड़ करके थोडासा अधूरा पाठ न्यायाम्भोनिधिजीने जैनसिद्धान्त समाचारी नामक पुस्तकके पष्ठ ३० वामें लिख करके गणधर महाराजके विरुद्धार्थमें सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करी सो भी उत्सत्र भाषण है इसका भी विस्तार पूर्वक निर्णय संपूर्ण पाठार्थ सहित 'आत्माभ्रमोच्छेदनभानुः' नामा ग्रन्थके पृष्ठ २७ के अन्त में पृष्ठ ३७ तक अच्छी तरहसे छपगया है। __ ३ तीसरा-श्रीहरिभद्रसूरिजी कृत श्रीदशवैकालिकजी सूत्रके चूलिकाकी ७वीं गाथाको वृहत्ति में साधुके उपदेशाधिकारमें गमनागमनादि कारणसें इरियावही करके स्वाध्यायादि करने सम्बन्धी विस्तार पूर्वक सुलासे पाठ है ( श्रीदशवैकालिकजी मूलसूत्र, अवचूरि, भाषार्थ, दीपिका, और सहवृत्ति सहित छपी हुई प्रसिद्ध है जिसके पृष्ठ ६१९ । ६८०।६८१ में छपगया है ) जिसके सम्बन्धवाले सब पाठको छोड़ करके सिर्फ एकपद मात्रही न्यायाम्भोनिधिजीने जैन नामक, पुस्तकके, पृष्ठ ३१ की आदिमें लिखके वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थ में सामयिकाधिकारे प्रथम इरियावही स्थापी सो भी उत्सत्र भाषण है इसका भी विस्तार पूर्वक निर्णय 'आत्मभ्रमोच्छदनभानुः' के पृष्ठ ३० से ४८ तक छपगया है। ४ चौथा-श्रीत्तपगच्छके श्रीधर्मघोषसूरिजी कृत श्री For Private And Personal Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२१ ] संघाचारभाष्य वृत्तिमें दशत्रिक सहित श्रावकके चैत्य'वन्दनकी विधि कथाओं सहित कही है जिसमें सातमीत्रिकमें यतनापूर्वक तीनवार भूमि प्रमार्जन करके इरियावही पूर्वक चैत्यवन्दम करने सम्बन्धी पुष्कली श्रावककी कथा कही है उसीके भी आगे पीछेके सब पाठको छोड़ करके थोडासा अधरा पाठ न्यायां में 'जैन० ना० पुस्तकके' पृष्ठ ३१ में लिखके ग्रन्थकार महाराजको गुरुविरोधीका दूषणके अधि. कारी ठहरा करके ग्रन्थकार महाराजके विरुद्धार्थमें सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करी सो भी उत्सत्र भाषण है इसका भी निर्णय संपूर्ण पाठ सहित ग्रन्थकार महाराजके अभिप्राय पूर्वक 'आत्मभ्रमो के' पृष्ठ ४८ से ६८ तक छपगया है। ५ पांचमा-श्रीतपगच्छनायक श्रीदेवेन्द्रसरिजी कृत श्रीधर्मरल प्रकरणको वृत्तिमें स्वाध्याय करने सम्बन्धी विस्तारसे पाठ है जिसकी भी एक गाथा न्यायां ने 'जैन० ना० पुस्तकके' पृष्ठ ३३ के मध्यमें लिखके उसी गाथामें दो जगह दो मात्रा भी जादा लगाके अर्थ भी उलटा करा और अपने पूर्वजकोही विसंवादीका दूषण लगा करके वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थमें सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापी सो भी महान् उत्सत्र भाषण है इसका भी विस्तारसें निर्णय 'आत्म० के पष्ठ ६९ सें 39 तक छपगया है। ६ छठा-श्रीरत्नशेखरसूरिजी कृत श्रीश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रकी वृत्तिमें आवश्यकचूर्णि वगैरह अनेक शास्त्रोंके प्रमाणानुसार सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासे कही है उसी शास्त्रोंकी विधि मुजब प्रावक ४१ For Private And Personal Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२२ ] अपने घरसैं सामायिक करके पौषधशालामें गुरुमहाराजके पास प्रतिक्रमण करनेके लिये आवे वहां इरियावही पूर्वक षड़ावश्यकरूप प्रतिक्रमण करनेके सम्बन्ध में पाठ है जिसका सम्बन्ध छोड़कर ग्रन्थकार महाराजको भी विसंवादके दूषित ठहरानेके लिये उलट पुलट अधूरा पाठ, न्यायां० ने 'जैन० मा० पुस्तकके' पृष्ठ ३४ के आदिमें लिखके ग्रन्थकार महाराजकेविरुद्धार्थमें सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापनकरी सो भी उत्सूत्र भाषणरूप है इसका निर्णय, 'आत्मके' पृष्ठ ७७ से ८३ तक छपगया है। ___ सातमा-श्रीयशोदेवसरिजी कृत श्रीपञ्चाशकजीकी चूर्णिमें सामायिक विधिके विषे प्रथम करेमिझतेका उच्चारण किये बाद पीछेसें इरियावहीका प्रतिक्रमण करना खुलासे लिखा है उसी पाठको तो छुपा दिया और पौषधविधि सम्बन्धी पाठको न्याने 'जैन ना० पु० के' पृष्ठ ३४ के अन्तमें लिखके चूर्णिकार महाराजको विसंवादीका दूषण लगाके उन्ही महाराजके विरुद्धार्थमें सामायिककी विधिमें प्रथम इरियावही स्थापन करी सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका भी निर्णय 'आत्म० के' पृष्ठ ८४८८६ में छपगया है। ___ ८ आठमा-श्री पूर्वाचार्यजी कृत श्रीविवाहचूलिया सूत्र में सिंहनामा श्रावकने इरियावही पूर्वक चार प्रकारका पौषधकरा उसी सम्बन्धी खुलासे पाठ है तथापि न्यायांभोनिधिजीने पौषध सम्बन्धी पाठको तोड़ करके अधूरा याठ 'जैन ना० पु० के' पृष्ठ ३५ की आदिमें लिखके सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करी सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका निर्णय 'आत्म०' के पृष्ठ साल तक छपगया है। For Private And Personal Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२३ ] नवमा--श्रीतपगच्छके श्रीजयचन्द्रसूरिजी जो कि श्री आवश्यकवहत्ति वगैरह अनेक शास्त्रानुसार तथा अपने ही गच्छके नायक श्रीदेवेन्द्रसूरिजी कृत श्रीश्राद्धदिनकृत्य सूत्रकी वृत्तिके और खास अपने काका गुरुजी श्रीकुलमण्डनसूरिजी कृत श्रीविचारामृतसंग्रहनामा ग्रन्थ के अनुसार सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही श्रद्धापूर्वक मान्य करने वाले थे उन्ही महाराजकृत श्रीप्रतिक्रमणगर्भहेतुनामा ग्रन्थ में साधु और पौषधवाला श्रावक दोनोंके वास्त इरियावही पूर्वक राई प्रतिक्रमण करनेका खुलासा पाठ है जिसमें भी प्रतिक्रमणके सम्बन्धी सब पाठको छोड़ करके ग्रन्थकार महाराजके विरुद्धार्थ में न्याने 'जैनना पु०के' पृष्ठ ३५ वा के मध्यमें थोड़ासा अधूरा पाठ लिखके फिर भी मूल पाठके बिना भाषार्थ में सामायिक शब्दका ज्यादा प्रयोग करके सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करी सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका भी विस्तार 'आत्म के' पृष्ट १९२ तक छपगया है। १० दशमा--श्रीपञ्चम गणधर महाराजकृत श्रीभगवतीजी मूलसूत्रके तथा श्रीखरतरगच्छ नायक श्रीअभयदेवसरीजी कृत तवृत्तिके बारहवें शतकके प्रथम उद्देशमें पौषधके अधिकारमें पुष्कली नामा श्रावक सम्बन्धी इरियावही कही है ( सो छपी हुई श्रीभगवतीजीके पृष्ठ ८१९८२ में अधिकार है ) जिसके भी आगे पीछेके पौषध अधिकारवाले पाठको छोड़ करके न्या० ने 'जैन ना० पुर' के पृष्ठ ३५ के अन्त में थोड़ासा अधूरा पाठ लिखके श्रीसत्रकार तथा वृतिकार महाराजके विरुद्धार्थ में सामायिकमें प्रथम For Private And Personal Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२४ ] इरियावही स्थापन करी सो भी उत्सूत्र भाषणरूप है इसका भी विस्तार 'आत्म० के' पृष्ठ ९३ ७ ९६ के मध्य तक छपगया है। १९ ग्यारहमा-श्रीखरतरगच्छके श्रीअभय देवसरिजी कृत श्रीसमाचारी ग्रन्थमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावहीका खुलासा पूर्वक पाठ है तथापि उस पाठको छुपा करके अपवा लुप्त करके ग्रन्यकार महाराज के विरुद्धार्थमें मिथ्यात्वरूप रोगके उदयसे किसी भारी कम प्राणीने अपनी मति कल्पना मुजब नवीन पाठ बना करके समाधारी ग्रन्थमें लिख दिया है उसीकोही न्यायाम्भोनिधि जीने जैन सिद्धान्त समाचारी नामक पुस्तकके पृष्ठ ३६ में लिखके सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करी है सो भी महान् उत्सत्र भाषण है इसका विस्तार पूर्वक निर्णय 'आत्मभ्रमोच्छेदनभानुः' नामा ग्रन्थ के पृष्ठ ९६ के अन्तसें पृष्ठ १०४ तक छपगया है। १२ बारहमा--श्रीखरतरगच्छवाले सामान्य विशेष पाठ को; तथा श्रीआवश्यक वहत्तिके, और चूर्णिके, पाठको मान्य करते हैं तथापि न्या० ने 'जैन ना० पु० के' पृष्ठ ३८ में सामान्य पाठको तथा श्रीआवश्यक वहत्तिके और चूर्णिके पाठको तुम मान्य नही करते हो ऐसे लिखके श्रीखरतर गच्छवालोंको मिथ्या दूषण लगाया सी भी उत्सूत्र भाषण है इसका भी विस्तार 'आत्म० के' पृष्ठ १०७ से १११ तक छपगया है। १३ तेरहमा--खास न्यायाम्भोनिधिजी अपनी बनाई 'चतुर्थ स्तुतिमिर्णय' नामा पुस्तकके पृष्ठ ८८ के मध्य में श्री For Private And Personal Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५ ] जिनप्रभसरिजी कृत श्रीविधिप्रपा समाचारी ग्रन्थके पाठ को नही माननेवालोंको मिथ्या दृष्टि ठहराते हैं परन्तु आप जैन० मा० पु० के' पृष्ठ३८ में इन्ही महाराज कृत उन्ही ग्रन्थके पाठको नही मानते हुये द्वेषबुद्धिसे आक्षेप करके शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक सत्य बात परसें भोले जीवोंकी श्रद्धाभङ्ग करनेका कारण किया हैं सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका भी विस्तार 'आत्म० के' पृष्ठ १९१ के अन्तसे पृष्ठ ११५ तक छपगया है। १४ चौदहमा-श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी परम्परानुसार श्रीजिनदास महचराचार्यजी पूर्वधर महाराजने श्रीआवश्यकजी सत्रकी चूर्णिमें श्रावकके नवमा सामायिक व्रतमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावही खुलासे लिखी हैं जिसको श्रीजिनाज्ञाके आराधक सबी आत्मार्थी श्रीजैनाचार्यादि महाराजोंने श्रद्धापूर्वक प्रमाणकरी है और श्रीहरिभद्रसरिजी, श्रीदेवगुप्तसूरिजी, श्रीअभयदेवसरिजी, श्रीयशोदेवसरिजी, श्रीहेमचन्द्राचार्यजी, श्रीविजयसिंहाचार्यजी, श्रीदेवेन्द्रसूरि जी, श्रीतिलकाचार्यजी, श्रीलक्ष्मीतिलकसूरिजी, श्रीकुलमण्डनसूरिजी, श्रीरतशेखरसूरिनी, श्रीमानविजयजी (कृत वृत्ति शुद्ध कर्ता श्रीयशोविजयजी) आदि महाराजोंने अपने अपने बनाये ग्रन्थों में सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिझते पीछे इरियावही खुलासे लिखी है उसी मुजब मोक्षाभिलाषी आस्मार्थी प्राणियोंको श्रद्धापूर्वक मन्जूर करनी चाहिये तथापि न्यायाम्मोनिधिजी जैन ना' पु० के पृष्ठ ४१-४२में पूर्वधर महाराजकृत श्रीआवश्यक चूर्णिके पाठ पर और For Private And Personal Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२६ ] भी महानू उत्सूत्र 'आत्म' के ' उत्तमपुरुषोंके बनाये ग्रन्थों पर श्रद्धा नही रखते हुवे अपने अन्तरके मिथ्यात्वको प्रगट करके भोले जीवों को भी शुद्ध श्रद्धारूपी सम्यक्त्व रत्न 'भ्रष्ट करनेका कार्य्य किया सो भाषण है इसका विस्तारसे निर्णय पृष्ठ १३८ से पृष्ठ १५५ तक छपगया है । १५ पदरहमा - श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने चैत्यवन्दनादिके सूत्रोंके उपधान कहे है तथा खास न्यायां - भोनिधिजी भी अपना बनाया 'तत्व निर्णय प्रासाद' नामा ग्रन्थ के पृष्ठ ४५० से ४६४ तक उपधानकी व्याख्या उपर मुजबही करी है और श्रीभगवतीजीमें सामायिकको स्वयं आत्मा कहा है इसलिये आत्माके उपधान नही होते हैं और किसी भी शास्त्र में सामायिक के उपधान नही लिखे है तथापि जैन० ना०' पु० के में सामायिकके उप पृष्ठ ४३ धान उहराते हैं सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका विस्तार 'आत्म० के' पृष्ठ १५६ से १६० तक छपगया है । १६ सोलहमा - श्री शवैका लिकजी सूत्रकी चूलिका में श्री सीमंधरस्वामीजी महाराजने साधुकेही अधिकारका वर्णन किया है सो प्रसिद्ध है तथापि न्या०ने 'जैन० ना० पु०के' पृष्ठ ४४-४५ में श्रीहरिभद्रसूरिजीकृत गृहद्वृत्तिके पाठको अगाड़ी का पिछाड़ी और पिछाड़ीका अगाड़ी उलट पुलट करके भी अधूरा लिखके फिर पृष्ठ ४५ के अन्त में साधुके अधिकार वाले पाठको श्रावकके अधिकार में स्थापन करनेके लिये खूबही परिश्रम किया है सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका विस्तार 'आत्म के' पृष्ठ ११० सें १९५ तक छपगया है । ११ सतरहमा --- श्रीजैनधर्माचार्य्यजी पूर्वापर विरोध For Private And Personal Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२७ ] रहित अविसंवादीपने ग्रन्थ रचना करते हैं तथापि न्याने जैन ना० पु. के पृष्ठ ४७ में श्रीखरतरगच्छनायक श्रीनवाणी वृत्तिकार सुप्रसिद्ध श्रीमदभयदेव सूरिजी महाराजको और श्रीतपगच्छनायक सुप्रसिद्ध श्रीमद्देवेन्द्रसूरिजी महाराजको विसंवादी पूर्वापर विरोधि लिखनेवाले ठहराये हैं सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका विस्तारसें निर्णय 'आत्म० के' पृष्ठ १९७ से २१६ तक छपगया हैं। १८ अठारहमा-श्रीखरतरगच्छके श्रीवर्द्धमानसूरिजीने आचारदिनकर नामा ग्रन्थमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासा पूर्वक लिखी है जिसका तात्पर्य समझे विना न्याने 'जैन ना० पु. के' पृष्ठ ४८ के आदिमें सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करने के लिये परिश्रम करके लिखा है सो भी उत्सूत्र भाषणरूप है इसका निर्णय 'आत्म० के' पृष्ठ २१९ ॥ २२० । २२१ तक छप गया है। १९ एकोनवीशहमा-श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी महान् परम्परानुसार श्रीखरतरगच्छमें प्रथम करेमिभंतेके उच्चारण करनेका अखण्डित व्यवहार आज तक चला आता है तथापि न्या० ने 'जैन ना० पु०' के पृष्ठ ४८ के मध्य में प्रथम इरियावहीकी परम्परा ठहराई हैं सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका निर्णय 'आत्म० के पृष्ठ' २२३-२२४ में छपगया है। ___ २० वीशहमा-श्रीआवश्यकचूर्णि, वहत्ति , लघुत्ति , श्रीपञ्चाशकवृत्ति, चूर्णि, श्रीयोगशास्त्रवृत्ति, वगैरह अनेक शास्त्रोंकी सामायिक बिधिको न्याने 'जैन० ना० पु० के' For Private And Personal Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२८ ] पृष्ठ ४८ के मध्यमें तुच्छ शब्दसें लिखके ( शास्त्रों की तथा शास्त्रकार श्रीपूर्वधरादि महाराजोंकी आशातना करके ) निषेध करी हैं सो भी उत्सूत्र भाषण है इसका विस्तार आत्म०के' पृष्ठ २२५ से छपना सरू है। ___२१ एकवीशहमा-श्रीजैनशास्त्रोंमे सर्व जगह सानायिक सम्बन्धी प्रथम करेमिभंते करनेकी एकही विधि है तथापि न्या० ने जैन ना० पु. के पृष्ठ ४८ अन्तमें सामायिक सम्बन्धी पूर्वापर विरोधी दो विधि स्थापन करी हैं सो भी उत्सूत्र भाषण है उसका निर्णय 'आत्मभ्रमोच्छेदन - भानुः' नामा ग्रन्थमें छपमा सरू है। ऊपर मुजब २१ प्रकारके उत्सूत्र भाषण न्यायाम्भोनिधि जीने सामायिकमें प्रथम इरियावही स्थापन करनेके लिये लिखे हैं और कितनी जगह मायावृत्तिरूप, कितनीही जगह प्रत्यक्ष मिथ्या, कितमीही जगह अन्याय कारक, कितमीही जगह श्रीजैनशास्त्रोंके अतीव गहनाशयको समके बिना उलटा भी लिख दिया है इत्यादि अनेक तरहके अनुचित लेखों करके सामायिक में प्रथम हरियावही ( श्रीजैनशास्त्रोंके तथा श्रीजैनाचार्योंके विरुद्ध) स्थापनेके लिये अपने तथा अपने पक्षधारियोंके संसार वृद्धि के निमित्त भूत खूबही परिश्रम किया है उसीके सबका निर्णय देखने की इच्छा होवे तो 'आत्मभ्रमोच्छेदनानुः' में शास्त्रार्थपूर्वक युक्ति सहित अच्छी तरहसे होगया है सो पढ़नेसे सर्व खुलासा हो जावेगा-और पर्युषणासम्बन्धी यह ग्रन्थ प्रसिद्ध होये बाद थोड़ेही दिनोंमें 'आत्मचमोच्छेदनभानुः' भी प्रगट होनेका सम्भव है। For Private And Personal Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२९ ] - अब सत्यग्राही सज्जनपुरूषोंको निष्पक्षपाती हो करके विचार करना चाहिये कि-एक भामायिक विषयमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरिथावही सन्धी २१ शास्त्रों के प्रत्यक्ष प्रमाणोंको न्याय के समुद्र हो करके भी श्रीआत्मारामजीने छोड़ दिये और आप उन्ही शास्त्रों के पाठोंकी श्रद्धा रहित बनकरके उन्ही शास्त्रों के तथा उन्ही शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमें प्रथम इरियावही स्थापन करने के लिये ऊपरोक्त कैसा अनर्थ करके-कहीं उपधानसम्बन्धी, कहीं माधुके जाने आने सम्बन्धी, कहीं चैत्यवन्दनसम्बन्धी, कहीं स्वाध्यायसम्बन्धी, कहीं पड़ावश्यकरुष प्रतिक्रमणसम्बन्धी, कहीं पौषधसम्बन्धी, इत्यादि अनेक तरहके अन्य अन्य विषयोंके सम्बन्धमें शास्त्रकार महाराजोंने इरियावही कही है जिसके बदले उन्हीं शास्त्रकार सहाराजों के विरु. द्वार्थमें सामाधिक में प्रथम इरियावही स्थापन करनेके लिये आगे पीछे के पाठोंकों छोड़ करके अधूरे अधूरे पाठ लिखते न्यायाम्भोनिधिजी को सवका कुछ भी भय नही लगा और इश लौकिकमें भी अपनी विद्वत्ताकी हासी करानेके कारणरूप इतना अन्याय करते कुछ शर्म भी नहीं आई इसलिये सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही शबी गच्छों के प्रभाविक पुरुषोंने अनेक शास्त्रों में प्रत्यक्ष पने अविसंवादरूप खुलासा पूर्वक लिखी है जिसको जानते हुवे भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके जोरसे श्रीहरिभद्रमूरिजी, श्रीअभयदेवमूरिजी, श्रीदेवेन्द्रसूरिजी वगैरह प्रभाविक पुरुषोंको विसंवादीका मिथ्या दूषण लगा करके मामारि कमें प्रथम इरियावही स्थापनेका विसंवाद כט For Private And Personal Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३० ] रूपी मिथ्यात्वको बढ़ाने वाला झगड़ा ( अविसंवादी श्री. जैनशासनमें इस वर्तमान काल के बालजीवोंकी श्रद्धाभ्रष्ट करनेके लिये) श्रीआत्मारामजीने अपनी विद्वत्ताके अभि मानसे खूबही फैलाया है ;___ और सामायिकाधिकार प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण करनेका निषेध करके प्रथम इरियावही स्थापन करने सम्बन्धी ऊपरोक्त जैन सिद्धान्त समाचारी नामक पुस्तकमें जैसे उत्सूत्र भाषणोंसें मिथ्यात्व फैलाया है तैमेही श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक निषेध करके पाँच कल्याणक स्थापन करने वगैरह कितनी बातों में भी खूबही उत्सूत्र भाषणोंसे मिथ्यात्व फैलाया है जिसका खुलासा आगे लिखुंगा __ और श्रीआत्मारामजीको अपने पूर्व भवके पापोदयसे पहिले ढूंढियोंके मिथ्या कल्पित मतमें दीक्षा लेनी पड़ी थी वहाँ भी अपने कल्पित मतके कदाग्रहकी बात जमानेके लिये अनेक शास्त्रोंके उलटे अर्थ करते थे तथा अनेक शास्त्रों के पाठोंको छोड़के अनेक जगह उत्सूत्र भाषण करके संसार वृद्धिका भय न करते हुवे भोले दृष्टिरागियोंको मिथ्यात्वकी भ्रमजाल में गेरते थे और मिथ्यात्वरूप रोगके उदयसें श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञा मुजब सत्य बातोंको कल्पित समझते थे और श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञा विरुद्ध अपने मत पक्षकी कल्पित मिथ्या बातोंकों सत्य समझते थे और हजारों श्रीजैन शास्त्रोंको उत्थापन करके सत्य बातोंके निन्दक शत्र बनते थे इत्यादि अनेक तरह के कार्यों से अपने ढूंढक मतकी मिथ्या कल्पित बातोंको पुष्ट करके अपने मतको फैलाते थे परन्तु कितनेही वर्षों के बाद अपने पूर्व अवके महान पुण्योदय होनेसे ढंढकमतके पास. For Private And Personal Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१ ] रहकीसबपोल दिनदिनप्रति खुलतीगई जिससे कल्पित हूं ढकमत को श्रीजेनशास्त्रोंकेविरुद्ध और संसारद्धिका हेतु भूत जानकर छोइदिया और श्रीजैनशास्त्रोंके प्रमाणानुसार सत्यबातोंको ग्रहण करने के लिये संवेगपक्ष अङ्गीकारकरके अनेकशास्त्रोंका अवलोकन किया और श्रीजैनतत्त्वादर्श, अज्ञानतिमिरभास्कर, तत्त्वनिर्णयप्रासाद वगैरह भाषाके ग्रन्थोंका संग्रह करके प्रसिद्धभी कराये जिससे विद्वान्भी कहलाये तथा ढूढकमतकी मिथ्यात्वरूप पाखन्छके भ्रमजालसे कितनेहो भन्यजीवोंका उद्धार भी किया और अनेक भक्तजनोंसे खूबही पूजाये-शिष्यवर्गका समुदाय भी बहुत हुवा तथा शुद्ध प्ररूपक, उत्कृष्टिक्रिया करने वाले भी कहलाये और श्रीमद्विजयानन्दमूरि-न्यायाम्भोनिधिजीवगैरह पदवियोंकोभी प्राप्तमये जिससे दुनिया में प्रसिद्ध मी हुवे परन्तु यह तो दुनियामें प्रसिद्ध बात है, कि-जिस आदमीका जो स्वभाव पहिलेसे पड़ा होवे उस आदमीको कितनेही अच्छे संयोगोंसे चाहे जितना उत्तम गिनो अथवा श्रेष्ठ पदमें स्थापनकरो तो भी अपना पहिलेका पड़ा हुवा स्वभाव नहीं छुटता है सोहो बात नीति शास्त्रोंके 'सुभाषितरत्न भान्डागारम्' नामा ग्रन्थके पृष्ठ १०६ में कही है। तैसाही वर्ताव न्यायाम्भोनिधिजी नामधारक श्रीआत्मारामजीने भी किया है, अर्थात्-पूर्वोक्त ढूठकमतके साधुपने में अनेक शास्त्रों के विरुद्धार्थमें अनेक जगह उत्सूत्र भाषणकरने वगैरहके कार्यो का जो पहिले स्वभाव था सो नहींजानेके कारणसे उसीमुजबही संवेगपक्षेमें भी अपने विद्वत्ताके अभिमानसे कल्पितबातोंको स्थापन करनेके लिये पर भवका भय न करके एक 'जैन सिद्धान्त समाचारो' परन्तु वास्तव "उत्सूत्रोंके कुयुक्तियोंकी भ्रमखाड” नामक पुस्तकमें अनुमान १६० शास्त्रोंकेविरुद्ध लिखके, ६० जगह अन्दाज उत्सूत्र For Private And Personal Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २ ] भाषण भी लिखे हैं जिसके नमूनारूप एक सामायिक विषय सम्बन्धी संक्षिप्तसे ऊपर ही लिखने आया है, और पर्युषणाके विषयमें भी अनेक जगह उत्सूत्र भाषण किये है उसकी भी समीक्षा सही ग्रन्थके पृष्ट १५१ से २१६ तक छप गई है सो पढ़नेसे निष्पक्षपाती सत्यग्राही सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे। और 'शुद्धसमाचारी'की पुस्तक, पौषधाधिकारे विधिमार्गन उत्सर्गसे-अष्टमी, चतुदर्शी, पूर्णिमा और अमावस्या इमच्यारों पर्वतिथियों में पोषध करनेसम्बन्धी प्रीसूयगडांगजी, उत्तराध्ययन जो सववाईजी, धर्मरत्नप्रकरण वृत्ति, योगशास्त्र वृत्ति, धर्मबिन्दु कृत्ति, नवपद प्रकरण सृत्तिसमवायांग वृत्ति, पंचाशक वृत्ति आवश्यक पूर्णि, तथा सहद वृत्ति और मीभगवतीजीपूत्र वृत्ति, वगैरह शास्त्रोंके पाठ दिखाये थे जिसका तात्पर्यार्थको समझे विनाशास्तोंके विरुद्ध होकर हमेशां पौषधकरनेका ठहराने के लिये मीभावश्यकसूत्रकी चर्णिमें तथा रत्तिने और लघुरत्तिने और श्रीप्रवचनसारोद्धार इत्तिने, मीसमवायांगजीसूत्रको वृत्तिने श्रीपंचाशकजीकी चूर्णिमें तथा इत्ति और श्रीउपाशकदशांग त्ति वगैरह अनेक शास्त्रों में श्रावकको ११ पडिमाके अधिकारने पांचवी पडिमाकी विधि "भावक दीनमें ब्रह्मचर्य व्रत पाले और रात्रिको नियम करे" ऐसे खुलासे पाठ हैं तिसपरमी न्यायामोनिधिजीने अन्धपरंपरासे विवेक शून्यहोकर शास्त्रकार महाराजोंकेविरुद्धार्थने अपनीमतिकल्पनासमोआवश्यकपत्ति वगैरह पाठका दिवसका ब्रह्मचर्यपाले रात्रिको कुशीलसेवे" ऐसा वीपरीत अर्थ करके मैथुन सेवाको हिंसाका उपदेश करनेका शाखा कारोंको झूठा दूषण लगाके वहामारी अनर्थ करके जैन सिद्धांत मक पुस्तक, दुर्लभबोधिका कारण किया। For Private And Personal Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३३५ ] इत्यादि, इसी तरहसे अनेक बातों बहुत उत्सूत्रोंसे वहा अनर्थ किया है उसके सबका निर्णयतो "आत्मभ्रमोच्छेदन भानुः" के अवलोकनसे अच्छी तरहसे हो जावेगा। __ और न्यायाम्भोनिधिजीने 'जैन सिद्धान्त समाचारी' पुस्तकका नाम रक्खा परन्तु वास्तवमें उत्सूत्र भाषणोंके और कुयुक्तियों के संग्रहको पुस्तक होनेसे आत्मार्थी भव्यजीवोंके मोक्षसाधन में विघ्नकारक और प्रीजिनानासे बालजीवोंकी श्रद्धाभ्रष्ट करनेवाली मिथ्यात्वके पाखन्डको भ्रमजालरूप हैं सो इसके बनानेवालोंको, तथा ऐसी जाल बनानेमें संसारद्धिको हेतु भत खूबही दलाली कौशिस करनेवालोंकों, और मिथ्यात्वको वढ़ा करके संसार, भ्रमानेवाली ऐसीजाल प्रगट करने में मीभावनगरकी श्रीजैनधर्मप्रसारकसभाके मेम्बरलोग उस समय आगेवान् हुए जिन्होंको, और इसके बनानेको खुसीमानकर अनुमोदना करनेवालोंको और इसी मुजब अन्धपरंपराके गाडरीह प्रवाहकी तरह चलकर प्रीजिनाजानुसार सत्यबातों को निन्दा करनेवालोंको मौजिनेश्वर भगवान्की आज्ञाके माराधक सम्यक्त्वी आत्मार्थी जैनी कैसे कहे जावे इस बातको तत्त्वग्राही मध्यस्थ सज्जनस्वयं विचारलेवैगे और शास्त्रोंकेविरुद्ध उत्सूत्रप्ररूपणा करनेवालेको मिथ्यात्वी अनन्त संसारी अनेकशास्त्रों ने कहा है और न्यायाम्भोनिधिजी नाम धारक भीआत्मारामजीने तो एक 'जैन सिद्धान्त समाचारी' नामक पुस्तक इतने शास्त्रोंके विरुद्ध लिखके इतने उत्पन्न भाषण किये हैं तो फिर पहिले दू'टकमतकी दीक्षाने और अन्यकार्यो में कितने सत्सूत्रमाषण करके कितने शास्त्रोकेविरुद्ध प्ररूपणाकरी होगी जिसके फल विपाकका कितना अनन्त संसार कढ़ाया होगा सो तो नीचानीजी महाराज जाने। For Private And Personal Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६:३३४ ] और न्यायाम्भोनिधिजीने श्रीजैनतत्वादर्शमें, अचान तिमिर भास्करने, और श्रीजैनधर्मविषयिक प्रश्नोतर नामा पुस्तकमैजो उत्सूत्रभाषणरूपलिखाहे जिसकेसम्बन्धमें आगे लिखने में आवेगा और इस तरहसे अनेक शास्त्रोंकेपाठोंकी अद्धारहित तथा शास्त्रोंके आगेपीछे के सम्बन्धवालेपाठोंको छोड़करके शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थ में अधूरे अधूरे पाठलिखके उलटे वीपरीत अर्थ करनेवाले और शास्त्रकारमहाराजोंको विसंवादोकामिथ्या दूषण लगानेवाले और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार सत्यबातोंका उत्थापन करके अपनी मतिकल्पनासे अन्धपरम्पराकी मिथ्या बातोंको स्थापन करते हुवे। अविधिरूप उन्मार्गके पाखण्डको फैलाने में सार्थवाह की तरह आगेवान बननेवाले और अपनेही गच्छके प्रभावक पुरुषों को दूषित ठहरानेवाले और बाल जीवोंको सत्य बातोंके भिन्दक बना करके दर्लभबोधिके कारणसे संसारकीखाइमे गेरनेवाले ऐसे ऐसे महान् अनर्थ करनेवालेको गच्छपक्षकादृष्टिरागसे-गीतार्थ, न्यायाम्मोनिधिजी (न्यायके समुद्र ) और युगप्रधान, कलिकाल सर्वज्ञ समान जैनाचार्य वगैरहकी लम्बी लम्बी ओपमालगाके ऐसे उत्सूत्री गाढकदाग्रहियोंकी महिमा बढ़ा करके आईबरसे भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें फंसाने के लिये उत्सूत्रभाषणोंके महान् अनर्थका विचार न करके उपरोक्त मिथ्या गुण लिखनेवालोंकी क्यागतिहोगी तथा कितनासंसारबढ़ावेंगे भौरसम्यक्त्व रत्न कैसे प्राप्तकर सकेंगे सो तो श्रीज्ञानीजीमहाराज जाने। | অ মীজিন সাক্ষী জাহ্মাক্ট জাঙ্কি জল पुरुषोंको मेरा इतनाही कहना है कि परके लेखको पड़के दृष्टिरागके पक्षपातको न रखते हुये संसार सृद्धिकी For Private And Personal Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३३५ ] हेतुभूत मिथ्या बातको छोड़ करके आत्मकल्याणके लिये सत्य बातोंके तत्त्वग्राही होना चाहिये और छठे महाशय जीने ढूंढियांको भी अपने सामिल करके सामायिक सम्बन्धी तथा कल्याणक सम्बन्धी और जैन सिद्धान्त समाचारी सम्बन्धी लिखके अपने पक्षको बात जमानेका परिश्रम किया इसलिये मेने भी सामायिक सम्बन्धी और जैन सिद्धान्त समाचारी सम्बन्धी जपरमें इतना लिखके सत्यग्राही भव्यजीवोंको संक्षिप्तसे शास्त्रार्थ दिखाया है और कल्याणक सम्बन्धी पर्युषणका विषय पूरा हुवे बाद पीछे ते लिखने में आवेगा सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेंगा ;___अब छठे महाशयजी श्रीवल्लभ विजयजीको मेरा ( इस अन्य कारका) इतना ही कहना है कि आबाढ़चौमासीसें पचास दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करनेवालोंको आपने आज्ञा भङ्गका दूषण लगाया तब श्रीलश्करसे श्रीबुद्धिसागरजीने आपको पत्रद्वारा शास्त्र का प्रमाण पूछा उन्हको शास्त्र का प्रमाण आपने बताया नही और छापे में भी पर्युषणा विषयसम्बन्धी शास्त्रार्थ पूर्वक निर्णय करना छोड़ करके अपनी बात जानानेके लिये निष्प्रयोजनकी अन्य अन्य बातोंको लिखके प्रगट करी और अन्याय से विशेष झगड़ा फैलानेका कारण किया इसलिये मेने भी आपके अन्यायको निवारण करनेके लिये मुख्य मुख्य बातोंका संक्षित से खुला ता करके सत्य तत्वग्राही सज्जन पुरुषों को दिखाया हैं जिसको पढ़नेसे न्याय अन्यायका तथा श्रीजिनाज्ञाके आराधक विराधकका निर्णय निष्पक्षपाती पाठकवर्ग स्वयं कर लेवेंगे और मरिचिने एक उत्सूत्र भाषणते एक कोड़ा कोड़ी मागरोपम जितना For Private And Personal Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३३६ ] संसार वढ़ाया इस न्यायानुसार आपके गुरुजी न्यायाम्भो. निधिजीने इतने उत्सूत्र भाषणोंसें कितना ससार वढ़ाया होगा सो तो आप लोगोंको भी न्याय दृष्टि से हृदयमें विचार करना उचित है और अब आप लोग भी उसी तरहके उत्सूत्र भाषणोंसें मिथ्या झगड़ा करते हुए श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञानुसार मोक्षमार्गको हेतुरूप सत्यबातोंका निषेध करके श्रोजिनाज्ञा विरुद्ध संसार वृद्धि की हेतुभूत मिथ्या कल्पित बातोंको स्थापन करके बाल जीवोंकी सत्यबात परसे श्रद्धाभ्रष्ट करते हो और मिथ्यात्वको बढ़ाते हो सो कितना संसार वढ़ावोगे सो तो श्रीज्ञानीजी महा. राज जाने-यदि आपको संसार वद्धिका भय होवे और श्रीजिनाज्ञाके आराधन करने की इच्छा होवे तो जमालिके शिष्योंकी तरह आपसी करों तथा न्यायाम्भोनिधिजीके समुदायवालोंको भी ऐसही करना चाहिये क्योंकि जमा. लिके उत्सूत्र परूपनाको उन्ह के शिष्योंको जबतक मालूम नही थी तबतक तो जमालिके कहने मुजबकी सत्य माना परन्तु जब अपने गुरुकी श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध उत्सूत्र परुपनाकी मालूम होगई तब उसीको छोड़ करके श्रीवीरप्रभुजीके पास आकर सत्यग्राही होगये तैसेही न्यायाम्भो. निधिजीके शिष्यवर्गमें भी जो जो महाशय आत्मार्थी सत्य ग्राही होवेंगे सो तो दृष्टिरागका पक्ष को न रखके अपने गुरुकी उत्सूत्र भाषणकी बातोंको छोड़कर शास्त्रानुसार सत्य बातोंको ग्रहण करके अपनी आत्माका कल्याण करेंगे और भक्तजनको करावेंगे। इति छठे महाशयजोके लेखकी मंक्षिप्त ममीक्षा समाप्ता । For Private And Personal Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । ३३७ । और सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीकी तरफसे 'पर्युषणा विचार'नामा छोटीसी १० पृष्ठकी पुस्तक प्रगट हुई है जिसमें पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध तथा श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांकी और खास अपनेही गच्छके पूर्वा चायौंकी आशातना कारक और सत्य बातका निषेध करके अपने गच्छ कदाग्रहकी मिथ्या कल्पित बातको स्थापन करनेके लिये श्रीजैनशास्त्रोंके अतीव गहनाशयको समझे बिना शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमें बिना सम्बन्धके और अधूरे अधूरे पाठ दिखाके उलटे तात्पर्य्यसे उत्सूत्र भाषण रूप अनेक कुतों करके अपने पक्षके एकान्त आग्रहसें दूसरोंको मिथ्या दूषण लगाके भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरे है और अपनी विद्वत्ताकी हासी कराई है इमलिये अब में इस जगह भव्य जीवोंके मिथ्या त्वका भ्रम दूर होनेसे शुद्ध श्रद्धानरूपी सम्यक्त्वकी प्राप्तिके उपगारके लिये और विलाके अभिमानसे उत्सूत्र भाषण करनेवालोंको हित शिक्षाके लिये पर्युषणा विचारके लेखकी समीक्षा करके दिखाता हूं:___यद्यपि पर्युषणा विचारको पुस्तकमें लेखक नाम विद्या विजयजीका छपा है परन्तु यह ग्रन्थकार उसीकी समीक्षा उन्होंके गुरुजी श्रीधर्मविजयजीके नामसे लिखता हैं जि. सका कारण इमीही ग्रन्थके पृष्ठ ६७.६८ में छपगया है और आगे भी छपेगा इसलिये इस ग्रन्थकारको सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीके नाममेही समीक्षा लिखनी युक्त है सोही लिखता है जिसमें प्रथमही पर्युषणा विचारके लेखकी आदिमें लिखा है कि ( आत्मकल्याणाभिलाषी भव्यजीव ४B For Private And Personal Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८ ] निर्मलता समूलताका विचार छोड़ अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्योंको करते हैं ) इस लेखको देखतेही मेरेको वड़ाही विचार उत्पन्न हुवा कि-सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजी और उन्होंकी समुदायवाले साधुजी बहुत वर्षासें काशीमें रह करके अभ्यास करते हैं इसलिये विद्वान् कहलाते हैं परन्तु श्रीजैनशास्त्रोंका तात्पर्य उन्होंकी समझमें नही आया मालूम होता हैं क्योंकि आत्मार्थी प्राणियोंको निर्मूलता समूलता इन दोनुका विचार अवश्यमेव करना उचित है और निर्मूलता, याने-शास्त्रोंके प्रमाण बिना गच्छ कदाग्रहके परम्पराकी जो मिथ्या बात होवे उसीको छोड़ देना चाहिये और ममूलता, याने शास्त्रोंके प्रमाणयुक्त कदाग्रह रहित गच्छ परम्पराकी जो सत्य बात होवे उसीको ग्रहण करना चाहिये और हेय, ज्ञेय, उपादेय, इन तीनो बातोंकी खास करके प्रथमही विचारने की आवश्यकता श्रीजैनशास्त्रोंमें खुलासा पूर्वक दर्शाई है, इसलिये निर्मूलता, हेय त्यागने योग्य होनेसें और समूलता, उपादेय ग्रहण करने योग्यहोनेसे दोन का विचार छोड़ देना कदापि नही हो सकता है और आत्मकल्याणाभिलाषी निर्मूलता त्यागने योग्यका तथा समूलता ग्रहण करने योग्यका विचार जबतक नही करेगा तबतक उसीको श्रीजिनाजा विरुद्ध वर्त्तनेका अथवा श्रीजिनाज्ञा मुजब वर्त्तनेका, बन्धका अथवा मोक्षका, मिथ्यात्वका अथवा सम्यक्त्वका, संसार वृद्धिका अथवा आत्मकल्याणके कार्योंका, भेदभावके निर्णयको प्राप्त नही हो सकेगा और जबतक ऊपरकी बातोंकी भिन्नताको नही For Private And Personal Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३३९ ] समझेगा तबतक उसीको आत्म कल्याणकारस्ता भी नही मिले गा तो फिर भाव करके श्रीजिनाज्ञा मुजब श्रावकधर्म और साधुधर्म कैसे बनेगा याने निर्मूलता समूलताका विचार छोड़ करके धर्मकृत्योंके करनेवालोंको मोक्ष साधन नही हो सकेगा है क्योंकि उन्हें का धर्मकृत्य तो तत्वातत्वका उपयोगशून्य होजाता है इसलिये आत्मार्थी प्राणियोको निर्मूलता समूलताका विचार करना अवश्यही युक्त है तथापि सातवे महाशयजीने दोनुंका विचार छोड़नेका लिखा हैं सो जैनशास्त्रोंके विरुद्ध होनेसे मिथ्यात्वका कारणरूप उत्सूत्र भाषण है इस बातको तत्वज्ञ पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे ; और ( अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्योंका करते हैं ) सातवें महाशयजीके इन अक्षरों पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि अपनी परम्परापर आरूढ होकर धर्मकृत्यांका करनेका जो आप कहते हो तब तो पर्युषणा विचारके लेखमें आपको दूसरोंका खण्डन करके अपना मण्डन करना भी नहीं बनेगा क्योंकि सबी गच्छवाले अपनी अपनी परम्परापर आरूढ़ होकर धर्मकृत्य करते हैं जिन्हें का खण्डन करके अपना मण्डन करना सो तो प्रत्यक्ष अन्याय कारक वृथा है और परम्परा द्रव्य और भावसें दो प्रकारको शास्त्रकाराने कही है जिसमें पञ्चाङ्गीके प्रमाण रहित वसव से तो गच्छ कदाग्रहको द्रव्य परम्परा संसार वृद्धिकी हेतु भूत होनेसे आत्मार्थियोंको त्यागने योग्य है और पञ्चाङ्गीके प्रमाण सहित वतीव सो भाव परम्परा मोक्षको कारण होनेसें आत्मार्थियोंको प्रमाण करने योग्य हैं For Private And Personal Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । [ ३४० ] और द्रव्य भाव परम्पराका विशेष विस्तार देखनेकी इच्छा होवे तो श्रीखरतरगच्छनायक सुप्रसिद्ध श्रीनवाङ्गी वृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजीकृत श्रीआगम-अष्टोत्तरी नामा ग्रन्थ 'आत्म-हितोपदेश-नामा पुस्तकमें' गुजराती भाषा सहित श्रीअहमदाबादसे छपके प्रसिद्ध होगया है सो पढ़नेसें अच्छी तरहसे मालूम हो जावेंगा। _ और श्री सर्वज्ञ कथित श्रीजैनशासन अविसंवादी होने में श्रोतीर्थङ्कर भगवानोंके जितने गणधर महाराज होते हैं उतनेही गच्छ कहे जाते हैं उन्ह सबीही गच्छवाले महानुभावोंकी ऐकही परूपना तथा एकही वर्ताव होता है और इस वर्तमान कालमें तो बहुतही गच्छवालोंके आपसमें अनेक तरहके विसंवाद होने. जुदी जुदी परूपना तथा जुदा जुदा वर्ताव है और बहुतष्ठी गच्छवाले अपने अपने गच्छकी परम्परा मुजब धर्मकृत्य करते हुवे आप श्रीजिनाज्ञाके आराधक बनते हैं और दूसरे गच्छवालेको झूठे ठहरा करके निषेध करनेके लिये-राग, द्वेष, निन्दा, ईर्षासे खण्डन मण्डन करके, आपसमें वड़ाही भारी विसंवादसे मिथ्यात्वको वढ़ानेवाला झगड़ा करते हैं इसलिये वर्तमान कालमें अपनी अपनी परम्परापर दृढ़ रहने सम्बन्धी सातवें महाशयजीका लिखना मिथ्यात्वका कारणरूप उत्सूत्र भाषण है क्योंकि अपनी अपनी परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकृत्य करने वाले सबी गच्छवाले श्री जिनाज्ञाके आराधक हो जायेंगे तो फिर अविसंवादी श्री जैनशासनकी मर्यादा कैसे रहेगा इसलिये वर्तमान कालमें अपने अपने गच्छपरम्पराकी बातोंका पक्षपात म रखते For Private And Personal Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४१ ] हुवे श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध पञ्चाङ्गीके प्रमाण रहित कल्पित बातोंको छोड़ करके श्रीजिनाज्ञा मुजब पञ्चाङ्गीके प्रत्यक्ष प्रमाण पूर्वक सत्यवातांको ग्रहण करके अपनी आत्माका कल्याण करनेके कार्यों में उद्यम करना चाहिये जिससे आत्मकल्याण होगा नतु तत्वातत्वका विचारशून्य अन्धपरपरम्परामें-जैसे कि, ८० दिने पर्युषणा करना १, फिर मायावृत्तिसें अधिक मासका निषेध भी करना २, तथा श्री वीरप्रभुके छ कल्याणकोंका निषेध करना ३, और सामा. यिक करते पहिलेही इरियावही करना ४, और आंबीलमें अनेक द्रव्य भक्षण करने कराने ५, इत्यादि अनेक बातें शास्त्रों के प्रमाण बिना गड्डरीह प्रवाहकी तरह आत्मार्थियोंको त्यागने योग्य गच्छ कदाग्रह की द्रव्य परम्परासें प्रचलित है नतु शास्त्रोंके प्रमाणानुसार भावपरम्परासें क्योंकि श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंमें दिनोंकी गिनतीसें ५० दिने पर्युषणा कही है १, और अधिकमासको भी खुलासा पूर्वक गिनती में लिया है २, तथा श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकोंको भी अच्छी तरह से खुलासा पूर्वक कहे हैं ३,और सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण करना कहा है ४, और आंबीलमें भी दो द्रव्योंका भक्षण करना कहा है ५, सोही कपरोक्त बातें शास्त्रानुसार भावपरम्परामें होनेसे आत्मा. र्थियोंको ग्रहण करने योग्य है इन ऊपरकी बातोंका निर्णय आठोंही महाशयोंके उत्सूत्र भाषणके लेखोंकी समीक्षा सहित इस ग्रन्थको संपूर्ण पढ़नेवाले निष्पक्षपाती तत्व. ग्राही सज्जन पुरुषोंको स्वयं मालूम हो जायेगा। For Private And Personal Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४२ ] देखिये सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीने शास्त्र. विशारदकी पदवीको अङ्गीकार करी है तथापि पर्युषणा विचारके लेखको आदिमेंही श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको समझे बिना निर्मूलता समूलताका विचार छोड़ने सम्बन्धी और अपनी२ परम्परा पर आरूढ़ होकर धर्मकार्य कहने सम्बन्धी दो उत्सूत्रभाषण प्रथमही बालजीवोंको मिथ्यात्वमें फंसानेवाले लिख दिये और पूर्वापरका कुछ भी विचार विवेक बुद्धिसें हृदयमें नही किया इसलिये शास्त्रविशारद पदवीको भी लजाया-यह भी एक अलौकिक आश्चर्यकारक विद्वत्ताका नमूना है, खैर-अब पर्युषणा विचारके आगेका लेखकी समीक्षा करके पाठक वर्गको दिखाता हूं पर्युषणा विचारका प्रथम पृष्ठके मध्यमें लिखा है कि(पक्षपाती जन परस्पर निन्दादि अकृत्योंमें प्रवर्तमाम होकर सत्यधर्मको अवहेलना करते हैं ) इस लेखपर भी मेरेको इतनाही कहना है कि सातवें महाशयजीने अपने कृत्य मुजब तथा अपने अन्तरगुण युक्त ही ऊपरका लेख में सत्यही दर्शाया है क्योंकि खास आपही अपने पक्षकी कल्पित बातोंको स्थापन करने के लिये श्रीजिनाज्ञा मुजब सत्यबातोंको निषेध करके सत्यवातोंकी तथा सत्यबातोंको मानने वालोंकी निन्दा करते हुवे कुयुक्तियोंसे बालजीवों को मिथ्यात्वके भ्रममें गैरनेके लियेही पर्युषणा विचारके लेखमें उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह करके अविसंवादी श्रीजैनशासनमें विसंवादका झगड़ा बढ़ानेसें श्रीजैनशासनरूपी सत्यधर्मकी अवहेलना करने में कुछ कम नही किया है सो For Private And Personal Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४३ ] तो पर्युषणाविचारके लेखकी मेरी लिखी हुई सब समीक्षाको पढ़नेवाले सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ; और आगे फिरभी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके प्रथम पृष्ठकी पंक्ति १५वीं से पंक्ति१८ वीं तक लिखा है कि (क्षयोपशमिक मतिज्ञानवान् और श्रुतज्ञानवान् पुरुष वे युक्ति प्रयुक्ति द्वारा अपने अपने मन्तव्यके स्थापन करने के लिये अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करते हुए मालूम पड़ते हैं ) सातवें महाशयजीका यह लिखना उपयोगशून्य ताके कारणसें है क्योंकि क्षयोपशमिक मतिज्ञानवान् और अतज्ञानवान् पुरुष वे युक्तिप्रयुक्ति द्वारा अपने अपने मन्तव्य को स्थापन करने के लिये अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करनेवाले सातवें महाशयजी ठहराते है तो क्या वर्तमान कालमें साधु और श्रावक श्रीजिनाज्ञाकी सत्यबातरूपी अपना मन्तव्य स्थापन करनेके लिये और श्रीजैनशासनके निन्दक ढूंढिये और तेरहा पन्यो लोगोंकों तथा अन्यमतियोंको भी समझानेके लिये युक्ति प्रयुक्ति करनेवाले सबीही अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करनेवाले ठहर जावेंगे सो कदापि नहीं इसलिये सातवें महाशयजीका ऊपरका लिखना उत्सूत्र भाषणरूप भूलका भरा हुवा है क्योंकि जो जो कल्पित बातोंको स्थापन करनेके लिये जानते हुवे भी कुयुक्तियों करके बालजीवोंको मिथ्यात्वमें गेरेंगे सो अभि. निवेशिक मिथ्यात्व सेवन करनेवाले ठहरेंगे किन्तु सब नही ठहर सकते हैं परन्तु यह बात तो सत्य है कि 'जैसा खावे अन-तैसा होवे मन्न' इस कहावतानुसार अपने पक्षकी कल्पित बातें जमानेके लिये खास आप अनेक बातोंमें For Private And Personal Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करनेवाले हैं सो आगे लिखने में आवेगा ; __ और पर्यषणा विचारके प्रथम पृष्ठकी १९ वीं पंक्तिसे दूसरे पृष्ठकी पंक्ति दूसरी तक लिखाहै कि ( सिद्धान्तका रहस्य ज्ञात होने पर भी एकांशको आगे करके असत्य पक्षका स्थापन और सत्य पक्षका निरादर करनेके लिये कटिबद्ध होकर प्रयत्न करते दिखाई पड़ते हैं) इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि सातवें महाशयजीनें अपने कृत्य मुजबही जैसा अपना वर्ताव था वैसा ही उपरके लेख में लिख दिखया है इसका खुलासा मेरा आगेका लेख पढ़नेसें पाठकवर्ग स्वयं विचार कर लेवेंगे ;.. और पर्युषणा विचारके दूसरे पृष्ठ की पंक्ति इसे ६ तक लिखा हैं कि ( तत्र वार्षिकपर्व भाद्रपदसितपञ्चम्यां कालि कसूरेरनन्तरं चतुर्थ्यामेवेति-अर्थात् भाद्रपद सुदी पञ्चमीका साम्वत्सरिक पर्व था पर युगप्रधान कालिकाचार्य के समयसे चत में वह पर्व होता है) इस लेख पर भी मेरेको इतना ही कहना है कि-सातवें महाशयजीने उपरके लेखसें वर्त्तमान कालमें दो श्रावण होते भी भाद्रपदमें पर्युषणा स्थापन करनेके लिये परिश्रम किया सो भी उत्सूत्र भाषण है क्योंकि आषाढ़ चौमासीसें पचास दिने पर्युषणा करनेकी श्रीजैनशास्त्रों में मर्यादा पूर्वक अनेक जगह व्याख्या है इसलिये दो श्रावण होनेसे ५० दिने दूसरे प्रावणमें पर्यषणा करना शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक है तथापि मासवृद्धि दो श्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा स्थापन करते हैं सो मिथ्या हठवादसे उत्सूत्र भाषण करते हैं क्योंकि For Private And Personal Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४५ ] मामद्धिके अभावसे पचास दिने भाद्रपदमें पर्युषणा कही है नतु मासद्धि दो श्रावण होते भी। __ओर आगे फिर भी पर्युषणा विचारके दूसरे पृष्ठकी ७ वी पंक्ति से १८॥ वीं पंक्ति तक लिखा है कि (वासाणं सवीमइराइ मासे वक्ते सत्तरिएहिं राइंदिएहिं सेसेहिं इत्यादि समवायाङ्गसूत्र के पाठका पूर्वभाग 'सवीसइ राइमासे वइ. कंते' पकड़कर उत्तर पाठकी क्या गति होगी इसका विचार न रख मूलमन्त्रको अलग छोड़कर दूसरे श्रावण के सुदीमें पर्युषणापर्वके पाँचकृत्य 'संवत्सरप्रतिक्रान्ति लुंञ्चनं चाष्टमं तपः। सर्वार्हद्भक्तिपूजा च सवस्य क्षामणं मिथः' ॥१॥ अर्थात् १ सांवत्सरिकप्रतिक्रमण, २ केशलुञ्चन, ३ अष्टमतपः, ४ सर्वमन्दिरमें चैत्यवन्दन पूजादि, ५ चतुर्विध सङ्घके साथ क्षामणा करते हैं और भक्तों को कराते हैं )। सातवें महाशयजीने ऊपरके लेखमें दूसरे श्रावण शुदी में पांचकृत्यों सहित पर्युषणा करनेवालोंको श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठका उत्तर भागको छोड़ करके पूर्वभागको पकड़ने वाले ठहराये है मो अज्ञातपनेसे मिथ्या है क्योंकि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ मासवृद्धिके अभावसे श्रीजैनपञ्चाङ्गा. नुसार चार मामके १२० दिनका वर्षाकालमें चन्द्रसंवत्सर. सम्बन्धी प्राचीनकालाश्रयी है और वर्तमानकालमें श्रीकल्पसूत्रके मूल पाठानुसार तथा उन्हीकी अनेक व्याख्यायोंके अनुमार आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने में आती हैं इसलिये श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठका उत्तरभागको छोड़कर पूर्वभागको पकड़ने सम्बन्धी सातवे महाशय जीका लिखना मिथ्या है। For Private And Personal Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४६ ] और ( उत्तरपाठकी क्या गति होगी ) सातवें महाशयजीका यह लिखना भी विद्वत्ताके अजीर्णताका है क्योंकि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ चार मासके वर्षाकाल सम्बन्धी होनेसें चार मासके वर्षाकालमें उसी मुजब वर्ताव होता है परन्तु सातवें महाशयजी श्रीगणधर महाराज श्रीसुधर्मस्वामी जी कृत श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठका तथा श्री अभयदेव सूरिजी कृत तवृत्तिके पाठका अभिप्रायः जाने बिना सूत्र. कार तथा वृत्तिकार महाराजके विरुद्धार्थ में दो श्रावणादि होनेसे पाँच मासके १५० दिनका वर्षाकालमें उमी पाठको आगे करके बालजीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरते हुवे उत्सूत्र भाषणरूप कदाग्रह जमाते हैं तो क्या गति होगी सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने । देखिये बड़ेही आश्चर्यकी बात है कि-अपना कदा. ग्रह की उत्सूत्र भाषणरूप कल्पित बातको जमाने के लिये ( उत्तरपाठकी क्या गति होगी ) ऐमा तुच्छ शब्द लिखके श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रके पाठ पर आक्षेप करते कुछ लज्जा भी नही पाते हैं यह भी एक कलयुगी विद्वत्ताका नमूना है। और (मूलमन्त्रको अलग छोड़कर) यह लिखना भी 'चोर डंडे-कोटवालको' इस न्यायानुसार खास सातवें महाशयजी आप अनेक बातोंमें मूलमन्त्ररूप अनेक शास्त्रों के मूलपाठोंको अलग छोड़ते हैं फिर दूसरोंको मिथ्या दूषण लगाते हैं सो उचित नहीं है क्योंकि दूसरे श्रावण में पर्युषणा करने वाले श्रीकल्पसूत्र का मूलमन्त्ररूपी पाठके अनुसारही करते हैं और श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ चार मासके वर्षाकाल. सम्बन्धी होनेसे उसी मुजबही वर्त्तते हैं इसलिये दूमरे For Private And Personal Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४१ ] श्रावणमें पर्युषणा करने वालोंको मूलमन्त्रको अलग छोड़ने सम्बन्धी सातवें महाशयजीका लिखना मिथ्या है और सातवें महाशयजी अनेक बातोंमें मूलमन्त्ररूपी अनेक शास्त्रोंके मूलपाठोंको जानते हुवे भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके अधिकारी बन करके अलग छोड़ते हैं सोही दिखाता हूं ;--- १ प्रथम-हर वर्षे गांम गांममें वंचाता हुवा सुप्रसिद्ध श्रीकल्पसत्रमें पर्युषणा सम्बन्धी मूलमन्त्ररूपी विस्तारमें पाठ है उसीके अनुसार इस वर्तमान कालमें श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी प्राणियों को पर्युषणा करनी चाहिये तथापि सातवें महाशयजी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करते हुवे ( श्रीकल्पमत्रका मूलमन्त्ररूपी पाठ इसीही ग्रन्यके पृष्ठ ४।५ में छप गया है ) उसीको जानते हुवे भी अलग छोड़ते हैं और श्रीकल्पसूत्रके पाठानुसार दूसरे प्राधगामें पर्युषणा करने वालों को झूठे ठहराकर मिथ्या दूषण लगाते हुवे निषेध करते हैं इसलिये शास्त्रानुसार वर्त्तने वालोंकी वृथा निन्दा करके श्रीजिनाज्ञारूपी सत्यधर्मकी अवहेलना । ( तिरस्कार ) करने वाले काशीनिवासी सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजी है। २ दूसरा-श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अनन्त काल हुवे अधिकमासको गिनती में खुलासा पूर्वक प्रमाण किया है तथा आगे करेंगे और सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, प्रकरणादि अनेक शास्त्रों में अधिक मासको गिनतीमें लेने सम्बन्धी विस्तार पूर्वक पाठ है सो कितने ही तो इसीही ग्रन्यके पृष्ठ २७ से ६५ तक छप गये हैं For Private And Personal Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४८ ] और भी अधिक मासको गिनती में प्रमाण करने सम्बन्धी अनेक शास्त्रों के प्रमाण आगे भी लिखने में आवेंगे उसीके अनुसार और कालानुसार युक्तिपूर्वक श्रीजिनाज्ञाके आराधन करने वाले आत्मार्थियोंको अधिकमासकी गिनती निश्चय करके प्रमाण करनी चाहिये तथापि सातवें महाशयजी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करते हुवे श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उत्थापन करके पञ्चाङ्गीके मूलमन्त्ररूपी प्रत्यक्ष पाठोंको जानते हुवे भी अलग छोड़ते हैं और श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की आज्ञानुसार पञ्चाङ्गी के प्रत्यक्ष प्रमाणों सहित कालानुसार और सत्य युक्तिपूर्वक अधिकमासकी गिनती प्रमाण करते हैं जिन्होंको भूठे ठहराकर मिथ्या दूषण लगा करके निषेध करते हैं इसलिये शास्त्रानुसार अधिक मासको प्रमाण करने वालोंकी वृथाही निन्दा करके श्रीजिनाज्ञासपी सत्यधर्मकी अवहेलना करनेवाले भी सातवें महाशयजी है। ३ तीसरा-श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने (श्री आचाराङ्गजी सूत्रकी चूलिकाके मूलपाठमें तथा श्रीस्थानाङ्ग जी सूत्रके पांचवें ठाणेके मूलपाठमें और श्री कल्पसूत्रके मूल पाठ वगैरह) पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों के मूलमन्त्ररूपी पाठोंमें चरम तीर्थङ्कर श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों को खुलासापूर्वक कहे हैं (इसका विशेष निर्णय शास्त्रोंके पाठों सहित आगे लिखने में आवेगा) इसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक पञ्चाङ्गी के शास्त्रोंकी श्रद्धावाले आत्मार्थी पुरुषों को प्रमाण करने योग्य है तथापि सातवें महाशयजो अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करते हुवे ऊपरोक्त शास्त्रों के पाठोंकी मूलमन्त्ररूपी For Private And Personal Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३४९ ] जानते हुवे भी अलग छोड़ते हैं और पञ्चाङ्गीके ऊपरो. कादि अनेक शास्त्रों के अनुसार श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों को मानने वालोंको झूठे ठहराकर मिथ्या दूषण लगा करके निषेध करते हैं इसलिये भी शास्त्रानुसार श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणकों को माननेवालोंकी वृथाही निन्दा करके श्री जिनाज्ञारूपी सत्यधर्मकी अवहेलना करने वाले भी सातवें महाशयजी है। ४ चौथा-श्रीआवश्यकजी सूत्रकी चूर्णि और हत्ति वगैरह पञ्चांगीके अनेक शास्त्रोंमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये पीछे इरियावहीका प्रतिक्रमण खुलासापूर्वक कहा है सोही श्रीजिनाज्ञाके आराधक आस्मार्थी पुरुषोंको प्रमाण करने योग्य है तथापि सातवें महाशयजी अभिनिवेशिक मिथ्यात्व सेवन करते हुवे ऊपरोक्त शास्त्रों के पाठोंको मूलमन्त्ररूपी जानते हुवे भी अलग छोड़ करके उसीके विरुद्ध बालजीवोंको कराते हैं-देखिये षड़ावश्यक करने के लिये मूलमन्त्ररूपी श्रीआवश्यकजी है उसीकी चूर्णि और हवृत्तिके अनुसार उभयकाल ( सांम और सवेर दोन वख्त ) षड़ावश्यकरूपी प्रतिक्रमण करनेका मंजर करते हैं तथापि उसी शास्त्रोंमें सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये पीछे इरियावही करना कहा है उसीको मंजर नही करते हैं जिन्होंको मूलमन्त्र रूपी श्रीआवश्यकादि पञ्चाङ्गीके शास्त्रोंकी श्रद्धाधाले श्री. जिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी कैसे कहे जावे और उन्हेंाके षडाश्यवक भी कैसे सार्थक होगे सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने और विशेष आश्चर्यकी बात तो यह For Private And Personal Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५० ] है कि-खास सातवें महाशयजीकेही परमपूज्य श्रीतपगच्छके ही प्रभाविक श्रीदेवेन्द्रसूरिजीने श्रीश्राद्धदिनकृत्य मूत्रकी वृत्तिमें, श्रीकुलमण्डनसूरिजीने श्रीविचारामृतसंग्रहनामा ग्रन्थमें, श्रीरत्नशेखरसूरिजीने श्रीवन्दीता सूत्रकी पत्तिमें, और श्रीहीरविजय सरिजीके सन्तानीये श्रीमानविजयजीने तथा श्रीयशोविजयजीने श्रीधर्मसंग्रहकी वृत्तिमें खुलासा पूर्वक सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करना कहा है इन महाराजांको सातवे महाशयजो शुद्धपरूपक आत्मार्थी श्रीजिनाज्ञाके आराधक बुद्धि निधान कहते हैं जिसमें भी विशेष करके श्रीयशोविजयजीके नाम सें श्रीकाशी ( धनारसी ) नगरीमें पाठशाला स्थापन करी है तथापि उन महाराजोंके कहने मुजब सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंतेको प्रमाण नहीं करते हैं फिर उन महाराजांको पूज्य भी कहते हैं यह तो प्रत्यक्ष उन महा. राजोंके कहने पर तथा पञ्चाङ्कीके शास्त्रों पर श्रद्धा रहितका ममूना है। यदि सातवें महाशयजो अपने गच्छके प्रभाविक पुरुषों के कहने मुजब तथा श्रीयशोविजयजीके नामसे पाठशाला स्थापन करी है उन महाराजके कहने मुजब वर्त्तने वाले,तथा उन महाराजांके पूर्णभक्त,और पञ्चाङ्गीके शास्त्रों पर श्रद्धा रखने वाले होवेंगे,तब तो सामायिकाधिकार प्रथम करेमिभंतेको प्रमाण करके अपने भक्तोंसें जरूरही करावेंगे तो सातवें महाशयजीको आत्मार्थी समझने में आवेंगा । सामा. यिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते २१ शास्त्रों में लिखी है परन्तु प्रथम इरियावही किसी भी शास्त्र में नहीं लिखी है इसका खुलासा पूर्वक निर्णय इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ३१० से ३२९ सक For Private And Personal Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५१ ] उपरमेंही छपगया है उसीको पढ़ करके भी सातवें महाशय जी अपने कदाग्रहके वस होकरके शास्त्रानुसार सत्यबात को प्रमाण नही करेंगे तो अपने गच्छके प्रभाविक पुरुषोंके वाक्य पर तथा श्रीयशोविजयजीके नामसे पाठशाला स्थापन करी है उन सहाराजके वाक्य पर और पञ्चाङ्गीके शास्त्रोंके पाठों पर श्रद्धा रखनेवाले आत्मार्थी है ऐसा कोई भी विवेकी तत्त्वज्ञ पाठकवर्ग नही मान सकेगा जिसके नामसे पाठशाला स्थापन करी है उसी महाराजके वाक्य मुजब प्रमाण नही करना यह तो विशेष लज्जाका कारण है . इत्यादि अनेक बातों में सातवें महाशयजी अभिनिवे. शिक मिथ्यात्व मेवन करते हुवे मूलमन्त्ररूपी पञ्चाङ्गीके शास्त्रों के पाठों को जानते हुवे भी अलग छोड़ करके शास्त्रोंके प्रमाण बिना अपनी मतिकल्पनासें कुयुक्तियों का सहाराले करके उत्पत्र भाषणमें वर्तते हैं और पञ्चाङ्गीके प्रमाण सहित शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक ऊपरोक्तादि अनेक बातोंको प्रमाण करने वालोंको मूठे ठहरा करके मिथ्या दूषण लगा कर ऊपरोक्त बातोंको निषेध करते हैं इसलिये श्रीजिनेश्वरभगवान्की आज्ञानुसार वर्त्तने वालेकी वृथा निन्दा करके शास्त्रानुसार ऊपरोक्तादि बातोंके विरुद्ध अविसंवादी श्रीजैनशासनमें विसंवादम्पी मिथ्यात्वका झगड़ा बढ़ानेसे अविभवादी श्री जैनशासनरूपी सत्यधर्मकी अवहेलना करने वाले भी सातवें महाशयजीही है। और पञ्चाङ्गीके शास्त्रों के पाठोंकों प्रत्यक्ष देखते हुवे भी प्रमाण नही करते है और अपना कदाग्रहकी कल्पित कुयुक्तियों को आगे करके दृष्टिरागी झूठे पक्षग्राही बालजीवोंकों मिथ्यात्वमें गेरते हैं For Private And Personal Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५२ ] इसलिये सत्यपक्षका निरादर करके असत्य पक्षका स्थापन करनेवाले भी सातवें महाशयजी है इस बातको निष्पक्ष पाती आत्मार्थी विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ; और श्रीकल्पसत्रके मूलपाठानुसार तथा उन्हीकी अनेक व्याख्यानुसार आषाढ़ चौमासीसें ५० दिने दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करनेवालों पर द्वेष बुद्धि करके आक्षेपरूप सातवें महाशयजीने पर्युषणा विबारके दूसरे पृष्ठकी १८॥ वीं पंक्ति में २० वी पंक्ति तक लिखा है कि ( वस्तुतः तो भगवान्की आज्ञाके आराधक भव्यजीवों पर कल्पित दोषोंका आरोप करके अपने भक्तोको भ्रमजाल में फँसाकर संसार बढ़ाते हैं) सातवें महाशयजीका इस लेखको देखकर मेरेको वड़ाही आश्चर्य सहित खेद उत्पन्न होता है कि जैसे ढूंढिये तेरहा पन्थी लोग अपने कदाग्रह की कल्पित बातोंको स्थापन करनेके लिये श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञानुसार वर्त्तने वाले पुरुषोंकी झूठी निन्दा करके संसार वृद्धिका कारण करते हैं तैसेही सातवें महाशयजी भी इतने विद्वान् कहलाते हुवे भी अपने कदाग्रहकी कल्पित बातको स्थापन करनेके लिये श्रीजिनेश्वर भगवान्को आज्ञानुसार वर्तनेवाले पुरुषोंकी जूठी निन्दा करके संसार वृद्धिका कारण करते हैं क्योंकि-श्रीतीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजांकी आज्ञानुसार सूत्र, नियुक्ति, भाष्य,चूर्णि, वृत्ति और प्रकरणादि अनेक शास्त्र में प्रगटपने आषाढ़ चौमासीसें दिनांकी गिनतीके हिसाबसे ५० दिने निश्चय करके श्रीपर्युषणापर्वका आराधन करना कहा है उसीके अनुसार श्रीकल्पमत्रके मूलपाठ For Private And Personal Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५३ ] मुजब तथा उन्हींकी अनेक व्याख्यायोंके पाठ मुजब वर्त. मान काल में दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें आषाढ़ चौमासीसें ५० दिने श्रीपर्युषणापर्वका आराधन आत्मार्थी प्राणी करते हैं और दूसरे भव्यजीवोंकों कराते हैं जिन्होंको तो मिथ्या दूषण लगा करके संसार बढ़ाने वाले ठहराना और आप श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों की आज्ञा विरुद्ध तथा पञ्चाङ्गीके प्रत्यक्ष प्रमाणोंको छोड़ करके अपनी मतिकल्पनासें यावत् ८० दिने पर्युषणा करते हैं और बालजीवोंकों भी कुयुक्तियोंसें भ्रमा करके कराते हैं इसलिये श्रीजिनाज्ञाकी सत्यबातका निषेध करके भी शुद्ध परूपक बनते हुवे संसार वृद्धि का भय नही करना सो मिथ्यात्वीके सिवाय और कौन होगा। _ और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके दूसरे पृष्ठके अन्त २१ । २२ वीं पंक्तिमें लिखा है कि ( उन जीवों पर भावदया लाकर सिद्धान्तानुसार परोपकार दृष्टि से पर्युषणा विचार लिखा जाता है) इस लेखसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालों पर और करानेवालों पर भावदया लाकर सिद्धान्तानुमार परोपकार दृष्टि से पर्युषणा विचार लिखनेका सातवें महाशयजी ठहराते हैं तो निःकेवल बालजीवोंको कदाग्रह में फंसाकरके मिथ्यात्ववढ़ानेके लिये संसार वृद्धि के निमित्तभूत उत्सूत्र भाषण करते है क्योंकि प्रथमतो दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वाले पञ्चाङ्गी के अनेक शास्त्रानुसार करते हैं जिसके सम्बन्धमें इसीही ग्रन्थकी आदिसे २१ पृष्ठ तक अनेक शास्त्रों के प्रमाण-पाठार्थ सहित छप गये हैं इसलिये शास्त्रानुसार वर्तने वालोंको For Private And Personal Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५४ ] झूठे ठहरा करके भावदया दिखाना सो तो प्रत्यक्ष महा मिथ्या है। और भावदयाका स्वरूप जाने बिना सातवें महाशयजी भावदया वाले बनते हैं सो भी तोतेकी तरह तात्पर्य्य समझे बिना रामराम पुकारने जैसा है क्योंकि सातवें महाशयजी भावदयाका स्वरूपही नही जानते हैं इसलिये अबमें पाठकवर्गको भावदयाका स्वरूप संक्षिप्तसे दिखाता हूं श्रीजैनशास्त्रों में भावदया उसीको कहते हैं कि-प्रथमतो चतुर्गतिरूप संसारमें अनन्त कालसे नरकादिमें परिभ्रमणकी वेदना वगैरह स्वरूपको जान करके संसारकी निवृत्तिके लिये श्रीजिनेन्द्र भगवानोंका कहा हुवा आत्महितकारी धर्मको श्रद्धापूर्वक अङ्गीकार करके श्रीजिनेन्द्र भगवानोंके कहने मुजबही धर्मकी परूपना करे और मोक्षकी इच्छासे उसी मुजबही प्रवते तथा दूसरों को प्रवर्त्तावे और सब संसारी प्राणियोंको भी ऐसेही होनेकी इच्छा करे सोही उत्तम पुरुष भावदया कर सकता है, परन्तु सातवें महाशयजी तो उत्सूत्र भाषणोंसें संमार वृद्धिका भय नहीं करने वाले दिखते हैं क्योंकि श्रीजिनेन्द्र भगवानेांने तो अधिक मासको गिनतीमें लेने का कहा है तथापि सातवें महाशय. जी अधिक मासको गिनती में प्रमाण करने की श्रद्धा रहित होनेसे उत्सूत्रभाषणरूप अधिक मासको गिनतीमें लेनेका निषेध करते हैं इसलिये सातवें महाशयजी काशीनिवासी श्रीधर्मविजयजी श्री जिनेन्द्र भगवानोंके कहने मुजब वर्तमे वाले नहीं है किन्तु श्रीजिनेन्द्र भगवानोंके विरुद्ध अपनी मतिकल्पनासें कुयुक्तियों करके बालजीवोंको मिथ्यात्व For Private And Personal Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५५ ] भ्रममें फँसाने वाले होने में उन्होंमें भावदयाका सो सम्भवही मही हो सकता है किन्तु संसार वृद्धिकी हेतुभूत भावहिंसाका कारण तो प्रत्यक्ष दिखता है। ____ और सातवें महाशयजीने सिद्धान्तानुसार परोपकार दृष्टिसें पर्युषणा विचार नहीं लिखा है किन्तु पञ्चाङ्गीके सिद्धान्तोंके विरुद्ध बालजीवोंको श्रीजिनाज्ञाकी शुद्ध अवारूप सम्यक्त्वरत्न से भ्रष्ट करनेको उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह करके अपने कदाग्रहकी कल्पित बात जमानेके आग्रह से पर्युषणा विचारके लेखमें पर्युषणा सम्बन्धी श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यकों समझे बिना अज्ञताके कारणसे कुतोंकाही प्रकाश किया है सो तो मेरा सब लेख पढ़नेसे निष्पक्षपाती सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ;-- __और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठकी आदिसे 9 वीं पंक्ति तक लिखा है कि ( उत्तम रीतिसें उपदेश करते हुए यदि किसीको राग द्वेषकी प्रणति हो तो लेखक दोषका भागी नही है क्योंकि उत्तम रीतिसे दवा करने पर भी यदि रोगीके रोगको शान्ति महो और मृत्यु हो जाय तो वैद्यके सिर हत्याका पाप नहीं है परिणाममें बन्ध, क्रियासे कर्म, उपयोग, धर्म, इस न्यायानुसार लेखकका आशय शुभ है तो फल शुभ है) रूपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवे महाशयजीकी बालजीवों को मिथ्यात्वमें फंसाने वाली मायावृत्तिकी चातुराईका नमूना तो देखो-आप अपने कदाग्रहके पक्षपातसे श्रीजैनशासनकी उन्नतिके कार्यों में विघ्नकारक संपको मष्ट करके For Private And Personal Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५६ ] वृथाही आपसमें झगड़ा बढ़ानेके लिये 'पर्युषणा विचारनामा' पुस्तक प्रगट कराई जिसमें दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालों पर खूबही आक्षेपरूप अनुचित शब्द लिख करके भी आप निर्दूषण बनना चाहते हैं सो कदापि नहीं हो सकते है क्योंकि पर्युषणा विचारके लेखमें सत्यबातको मानने वालोंकी झूठी निन्दा करके वृथाही अपनी मतिकल्पनासे मिथ्या दूषण लगाये है और उत्सूत्र भाषणोंसे बालजीवों को भी मिथ्यात्वमें फँसाये हैं इसलिये ऊपरकी इन बातों के दोषाधिकारी तो सातवें महाशयजी प्रत्यक्षही दिखते हैं यदि सातवें महाशयजीको अपरकी बातोंके दूषणांसें संसार वृद्धिका भय होवे और आत्मकल्याणकी इच्छा होवे तो अबसें भी झगड़ेके कायोंमें न फँसके इस ग्रन्थको संपूर्ण पढ़ करके सत्यबातको ग्रहण करें और पर्युषणा विचारके लेखकी अपनी भूलोंकी क्षमापूर्वक मिथ्या दुष्कृत सहित आलोचना लेवें तो सातवें महाशयजीको शुभ इरादेसे उत्तम रीतिका उपदेश करनेवाले तथा उत्सूत्र भाषणका भय रखनेवाले समझने में आवेंगे इतने पर भी सातवें महाशयजी पर्युषणा विचारके लेखांको अपने दिल में सत्य समझते होवें तो श्रीकाशीमें मध्यस्थ विद्वानोंके समक्ष ( पर्युषणा विचारके लेखांको ) शास्त्रोंके प्रमाण सहित युक्तिपूर्वक सत्य करके दिखावे अन्यथा कदाग्रहसे सत्यबातोंको छोड़ करके कल्पित बातोंको स्थापन करने में तो संसार वृद्धिके सिवाय और क्या लाभ होगा सो सज्जन पुरुष स्वयं विचार लेवें ;--- और उत्तम रीतिसे दबा करनेके भरोसे विश्वासघात For Private And Personal Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ३५७ ] करके विष मिश्रित दवा देकर रोगीको मृत्युके सरण प्राप्त करने वाला वैद्य नाम धारक पुरुष महापापी होता है तैसेही कर्मरूपी रोग से पीड़ित भव्यजीवोंको उत्तम रीतिका उपदेश देनेके भरोसे विश्वासघात से उत्सूत्र भाषणरूप कल्पित कुयुक्तियों का विष मिश्रित उपदेश करके भव्यजीवों को श्रीजिनाज्ञारूप सम्यक्त्वरत्न जीवतव्यसे भ्रष्ट करके मिथ्यात्वरूप मरणके सरण प्राप्त करनेवाला वेषधारी साधु नाम धारक पुरुष महापापी होता है तैसेही सातवें महाशयजीने भी पर्युषणा विचार के लेख में भव्यजीवों को उत्तम रीतिका उपदेश करनेके बहाने उत्सूत्र भाषणरूप कुतकका विष मिश्रित उपदेश करके भव्यजी बांको मिथ्यात्वरूप मृत्युके सरण प्राप्त किये हैं इसलिये भव्य जीवोंको मिध्यात्वरूप मृत्युके सरण प्राप्त करनेके दोषाधिकारी सातवें महाशयजी है यदि सातवें महाशयजीको ऊपरोक्त दूषण के फल विपाकका भय होवे तो अपने कृत्यकी आलोचना लेवेंगे - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir और अपने कदाग्रहकी कल्पित बातको जमानेके लिये उत्सूत्र भाषणकी और कुयुक्तियोंकी बातें लिखनेवालेका परिणाम भी अच्छा नही होता है तथा क्रिया भी अच्छी नहीं होती है और उपयोग भी अच्छा नही होता है इसलिये पर्युषणा विचारके लेखक अपनेको अच्छा फलको चाहना करते हैं सो कदापि नही हो सकेगा किन्तु पर्युषणा विचार के लेखमें शास्त्रकारों के विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणोंकी तथा कुयुक्तियोंकी और शास्त्रानुसार वर्त्तने वालोंकी झूठी निन्दा करके मिथ्या दूषण लगानेकी कल्पना भरी होनेसे For Private And Personal Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५८ ] संसारवृद्धिके फल तो मिलने का दिखता है इस बातको श्रीजैनशास्रोंके तत्त्वज्ञ पुरूष अच्छी तरहसे विचार लेवें : .. और भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठकी ८।।१० पंक्तियों में लिखा है कि ( अधिक मासको लेखामें गिनकर पर्युषणा पर्व करनेवाले महानुभावोंको नीचे लिखे हुए दोषों पर पक्षपात रहित विचार करनेकी सूचना दी जाती है )। इस लेखको देखकर मेरेको वड़ेही खेदके साथ लिखना पड़ता है कि सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीने श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्यको बिना समझे ऊपरके लेखमें इन्होंने श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्यों की और खास अपनेही गच्छके पूर्वाचार्योंकी आशातनाका कारण रुप संसार वृद्धिके हेतुभूत खूबही अज्ञतासें अनुचित लिखा है क्योंकि अनन्ते काल हुवे श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंने अधिकमासको लेखामें गिन करही पर्युषणा करते आये हैं तथा वर्तमान इस पञ्चम कालमें भी श्रीजिनाज्ञाके आराधक सबीही आत्मार्थी जैनाचायाने अधिक मासको लेखामें गिन करही पर्युषणा करी है और आगे भी श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराज जो जो होवेंगे सो सबीही अधिक मासको गिनतीमें ले करही पर्युषणा करेंगे और अनेक आस्त्रोंमें अधिकमासको गिमतीमें लेकरही पर्युषणा करनी लिखी है इसलिये अधिक मासको गिनतीमें लेकरके जो पर्युषणा करते हैं सोही श्रीजिनाज्ञाके आराधक है और अधिक मासको गिनतीमें छोड़ करके पर्युषणा करते हैं सोही श्रीजिनाज्ञाके विराधक For Private And Personal Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३५९ ] तत्सूत्र भाषण करने वाले हैं तैसेही सातवें महाशय जी आप अधिक मासको गिनती में नही लेते हुवे अधिक मासको गिनती में ले करके पर्युषणा करने वालोंको मिथ्या दूषण लगाके उत्सूत्र भाषण में ऊपरोक्त महाराजों की आशातना करके संसार वृद्धिका कुछ भी भय नही करते हैं । हा अति खेदः ? और आगे फिर भी सातवें महायजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठको ११ वीं पंक्तिसें १० वीं पंक्ति तक लिखा है ( प्रथम दोष- आषाढ़ चौमासी बाद पचास दिनके भीतर पर्युषणापर्व करे इन नियमकी रक्षा करते हुए तत्तुल्य दूसरे नियमका सर्वथा भङ्ग होता है क्योंकि पचासवें दिवस संवत्सरी और उसके पीछे सत्तरवें दिन चौमासी प्रतिक्रमण करके पीछे मुनिराजोंको विहार करना चाहिये यदि दूसरे श्रावणमें सांवत्सरिक कृत्य करोंगे तो सौ दिन बाकी रहेंगे तब सत्तर दिनका नियम कैसे पालन किया जायगा इसका विचार करो ) पाठकवर्गको दिखाता पर्युषणा करने वालों लगाया सो निःकेवल ऊपर के लेखकी समीक्षा करके हूं कि ऊपर के लेख में दूसरे श्रावण में को सातवें महाशयजीने प्रथम दोष अज्ञता के कारण से मिथ्या लिखके उत्सूत्र भाषण किया है क्योंकि श्रीनिशीथ भाष्य में १, तथा चूर्णिमें २, श्रीबृहस्कल्पभाष्य में ३, तथा चूर्णि में ४, और वृत्ति में ५, श्रीसम - वायाजी सूत्र में ६, तथा वृत्तिमै 9, श्रीस्थानाङ्गजीको वृत्ति में ८ श्री कल्पसूत्रकी नियुक्लिकी वृत्ति में ९, श्रीकल्पसूत्रकी पाँच व्याख्यायां में १४ श्रीपर्युषणा कल्पचूर्णिमे १५ ल For Private And Personal Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६० ] श्रीगच्छाचारपयन्नाकी वृत्तिमें १६ इत्यादि शास्त्रोंमे. मासवृद्धिके अभावसे चन्द्रसम्वत्सरमें चारमासके १२० दिन का वर्षाकालमें ५० दिने पर्युषणा करनेसे पर्युषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक ७० दिन रहते है जिसके सम्बन्धमें इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ९४ तथा ल और १२० । १२१ वगैरहमें कितनीही जगह पाठ भी छप गये हैं और मासवृद्धि होनेसें अभिवर्द्धित संवत्सरमें जैनपञ्चाङ्गानुसार आषाढ़ चौमासीसे वीश दिने पर्युषणा करने में आती थी तब भी पर्युषणा के पिछाड़ी कार्तिक तक १०० दिन रहते थे इसका भी विशेष खुलासा इसीही ग्रन्थके पृष्ठ १०७ से १२३ तक छप गया है और वर्तमान कालमें जैनपञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्गमें हरेक मासेकी रद्धि हो तो भी ५० दिनेही पर्युषणा करने की मर्यादा है सो भी इसीही ग्रन्थकी आदिसे पृष्ठ २७ तक और छठे महाशयजी श्रीवल्लभ विजयजीके लेख की समीक्षामें पृष्ठ २८६ से २९ तक छप गया है इमलिये वर्तमानकालमें दो श्रावणादि होनेसे पाँच मासके १५० दिनका वर्षाकालमें ५० दिने पर्युषणा करनेसें पर्युषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक १०० दिन रहते हैं सो भी शास्त्रानुसार और युक्तिपूर्वक होनेसे कोई भी दूषण नही है इसका भी विशेष निर्णय इसी ही ग्रन्थके पृष्ठ १२० से १२९ तक और पृष्ठ १७७ के अन्तसे १८५ तक छप गया है इसलिये दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करने वालों को पर्युषणाके पिछाड़ी 90 दिन रखने सम्बन्धी और १०० दिन होनेसे दूषण लगाने गम्बन्धी सातवें महाशयजी लिखना अज्ञात सूचक और उत्सूत्र भाषण है। सो पाठकवर्ग विचारलेवेंगे, For Private And Personal Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६९ ] और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके तीसरे पृष्ठकी २०वीं पंक्तिसें चौथे पृष्ठकी दूसरी पंक्ति तक लिखा है कि ( दूसरा दोष-भाद्रसुदी में पर्युषणा पर्व कहा हुवा है तत्सम्बन्धी पाठ आगे कहेंगे अधिकमास मानने वाले श्रावण सुदीमें पर्युषणा करते हैं शाखानु कूल न होनेसे आज्ञाभन दोष है ) इस लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जनपुरुषों मास वृद्धिके अभावसे चन्द्रसंवत्सरमें भाद्रपदमें पर्युषणा होनेका दोन चूर्णिकार महाराजोंने कहा है तथापि सातवें महाशयजीने वर्तमानकालमें मासवृद्धि दो श्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा स्थापन करनेके लिये आगे पीछेके सम्बन्ध वाले पाठोंको छोड़ करके दोन चूर्णिकार महाराजोंके विरुद्ध थोडासा अधूरा पाठ मायावृत्तिसे आगे लिखा है जिसकी समीक्षा मैंभी आगेही करूंगा । परन्तु इस जगह तो दो प्रावण होनेसे दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करने वालों को सातवें महाशयजीने शास्त्र विरुद्ध ठहरा करके आज्ञा भङ्गका दूसरा दूषण लगाया है सो शाखोंके प्रमाणपूर्वक वर्तने वालोंको झूठे ठहरा करके मिथ्यादूषण लगाया है तथा उत्सूत्र भाषणसे सत्य बातका निषेध करके मिथ्यात्व बढ़ाया है और अपने विद्वत्ताकी हासी भी कराई है कि अधिकमासको गिनती में लेनेका श्रीजैनशास्त्रानुसार तथा कालानुसार लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब और युक्तिपूर्वक निश्चय करके स्वयं सिद्ध है इसलिये अधिक मासकी गिनती निषेध नही हो सकती है इसका विशेष विस्तार छहों महाशयोंके लेखोंकी समीक्षामें अच्छी तरहसें रूप गया है For Private And Personal Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६२ ] और आषाढ़ चौमासीसें पचास दिने अवश्यही पर्युषणा पर्व करनेका सर्वत्र शास्त्रोंमें कहा है जिसका भी विशेष विस्तार इसीही ग्रन्थकी आदिसे लेकर ऊपर तकमें अनेक जगह छप गया है इसलिये वर्तमान कालमें ५) दिनके हिसाबसें दूसरे श्रावणमें पर्युषणापर्व करना सो शास्त्रानुमार और युक्तिपूर्वक सत्य होनेसे उसी मुजब वर्तनेवालोंको जो सातवें महाशयजीने दूषण लगाया हैं सो निःकेवल संसार वृद्धि के हेतुभूत उत्सूत्र भाषण किया हैं इस बातको निष्पक्षपाती पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेगे। और देखिये बड़ेही आश्चर्यको बात है कि सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजी इतने विद्वान् कहलाते हैं और हरवर्षे गांव गांवमें श्रीकल्पमूत्रका मूल पाठको तथा उन्हींकी वृत्तिको व्याख्यानमें वाँचते हैं उसी में ५० दिने पर्युषणा करनेका लिखा है उसी मुजबही दूसरे श्रावणमें ५ दिने पर्युषणा करते हैं जिन्होंको अपनी मति कल्पनासे आज्ञाभङ्गका दूषण लगाना सो विवेकशून्य कदाग्रही अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी और अपनी विद्वत्ताकी हासी करानेवालेके सिवाय दूसरा कौन होगा सो भी पाठकवर्ग विचार लेवेगे ;___ और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके चौथे पृष्ठकी तीसरी पंक्तिसें चौदह वीं पंक्ति तक लिखा है कि ( अधिक मासके मानने वालोंको चौमासी क्षमापनाके समय 'पंचमहं मासाणं दसराहं पक्खाणं पञ्चासुत्तरसयराइंदिआणमित्यादि' और सांवत्सरिक क्षमापनाके समय 'तेरसरह मासाणं छब्बीसरहं पक्खाणं' पाठकी कल्पना करनी पड़ेगी। यदि ऐसा करोगे तो कल्पित आचार For Private And Personal Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६३ ] होनेसे फलसे वञ्चित रहोगे, क्योंकि शास्त्र में तो 'चहुराह मासाणं अढण्हं पक्वाण' इत्यादि तथा 'बारसण्हं मासाणं चउवीसरह पक्खाणं' इत्यादि पाठ है इसके अतिरिक्त पाट नहीं है उसके रहने पर यदि नई कल्पना करोगे तो कल्पना. कुशल, आज्ञाका पालन करनेवाला है या नहीं, यह पाठक स्वयं विचार कर सकते हैं) ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवें महाशयजीके ऊपरका लेखको देखकर मेरेको वड़ाही आश्चर्य उत्पन्न होता है कि सातवें महाशयजीके विद्वत्ताकी विवेक बुद्धि ( ऊपरका लेख लिखते समय ) किस जगह चली गई होगी सो मासवृद्धिके अभावकी बातको मासवृद्धि होतेभी बाल जीवोंको लिख दिखाकरके अपनी बात जमानेके लिये दूसरोंको मिथ्या दूषण लगाते हुवे उत्सूत्र भाषणसें संसार द्धिका भय हृदय में क्यों नहीं लाते हैं क्योंकि जिस जिस शास्त्र में सांवत्सरिक क्षामणाधिकारे बारह मास, चौबीश पक्ष लिखे हैं सो तो निश्चय करके मासवृद्धिके अभावसे चन्द्र संवत्सर संबंधी है नतु मास वृद्धि होतेभी अभिवर्द्धित संवत्सर में क्योंकि मासवृद्धि होनेसें तेरह मास और छबीश पक्ष व्यतीत होने पर भी बारह मास और चौवीश पक्षके क्षामणा करना ऐसा कोई भी शास्त्र में नहीं लिखा है। ___ और श्रीचन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र में १, तथा सवत्तिमें २, श्रीसूर्यप्रजाप्ति सूत्रमें ३, तथा तद्वत्तिमें ४, श्रीसमवायाङ्गजी सूत्र में ५, तथा तवृत्तिमें ६, श्रीनिशीथचूर्णिमें 9, श्रीजंबूद्वीपप्रजाप्ति सूत्र में ८, तथा तीनकी पांच वृत्तियों में १३, श्रीप्रवचन For Private And Personal Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६६४ ] सारोद्वारमें १४, तथा तवृत्तिमें १५, श्रीज्योतिष करगड. पयन्नामें १६, तथा तवत्तिमें १७, इत्यादि अनेक शास्त्रों में मास वृद्धि होनेसें अभिवर्द्धित संवत्सरके १३ मास, २६ पक्ष खुलासा पूर्वक लिखे हैं और लौकिकपञ्चाङ्गमें भी अधिक मास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षका वर्ष लिखा जाता है और सब दुनिया भी धर्मकर्मके व्यवहारमें अधिकमासके कारणसें तेरह मास छवीश पक्षको मान्य करती है उसी मुजबही सब जैनी लोग भी वर्तते हैं इसलिये अधिक मासके होनेसे तेरह मास, छवीश पक्षका धर्म, पापको गिनती में लेकर उतनेही महिनोंके धर्मकार्योंकी अनुमोदना और पाप कार्यों की आलोचना लेनी शास्त्रानुसार और युक्तिपूर्वक है क्योंकि अधिक मास होनेसे तेरह मास छवीश पक्ष में धर्म, और अधर्म, करके धर्मकायाकी गिनती नहीं करना और पापकायाकी आलोचना नहीं करना ऐसातो कदापि नहीं हो सकता है। और जब श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने अधिकमासको गिनतीमें प्रमाण किया है और अभिवर्द्धित संवत्सर तेरह मास छवीश पक्षका कहा हैं तो फिर श्री तीर्थङ्कर गपधरादि महाराजोंके विरुद्ध अपनी मतिकल्पनासे बारह मास चौवीश पक्ष कहके एक मासके दो पक्षोंको छोड़ देना और श्रीअनन्त तीर्थकर गणधरादि महाराजोंका कहा हुवा अनिवर्द्धित संवत्सरके नामका खंडन करना बुद्धिमान कैसे करेंगे अपितु कदापि नहीं। और श्रीअनन्त तीर्थंकर गणरादि महाराजोंने अधिक मासको गिनती में प्रमाण किया है तथापि साहवें महाशयजी सत्सूत्र भाषक होकरके उसीका For Private And Personal Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६५ ] निषेध करने के लिये कटिबद्ध तैयार है तो फिर तेरह मार छवीस पक्ष कहेंगे ऐसा तो संभव ही नहीं हो सकता है जब अधिक मासको गिनतीमें लेनेको ही जिन्हको लज्जा आती है तो फिर तेरह मास छवीश पक्ष कहना तो विशेष उन्हको लज्जाकी बात होवे तो कोई आश्चर्य नहीं है। ___ और सातवें महाशयनी शास्त्रोंके पाठ मंजूर करने वाले होवें तो फिर अधिक मासको श्रीअनंत तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने प्रमाण किया है जिसका अधिकार इसी ही ग्रन्थके पृष्ठ ३२ से ४८ तक वगैरह कितनी ही जगह रुप गया है और सामायिकाधिकारे प्रथम करेमिभंते का उच्चारण किये पीछे इरियावही करनी वगैरह अनेक बातें शास्त्रों में विस्तारपूर्वक कही है जिसको तो प्रमाण न करते दुवे उलटा उत्थापन करते हैं फिर शास्त्रके पाठकी बात करमा सो कैसी विद्वत्ता कही जावे इस बातको पाठक. वर्ग भी विचार सकते हैं। शंका-अजी आप ऊपरमें अनेक शाखोंके प्रमाणों से और युक्तियों से तेरह मास छबीश पक्षकी गिनती करके उतनीही आलोचना लेकर उतनेही क्षामणे सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करनेका दिखाते हो परन्तु सांवत्सरिक प्रति क्रमणकी विधिमें १३ मास, २६ पक्षके, क्षामणे करके उतने ही मासोंकी मालोचमा लेनी किसी शावमें यों नहीं डिसी है। समाधान-भो देवानुप्रिय ! सांवत्सरिक प्रतिक्रमणकी विधि में १३ मास, २६ पक्ष के क्षामणे करके उतने ही मास पक्षोंकी आलोचमा लेनी किसी भी शास्त्र में नहीं लिखी है यह तेरा कहना अज्ञात सूचक है क्योकि श्रीमाब For Private And Personal Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org में [ ३६६ ] श्यक चूर्णि में १ तथा वृहद्वृत्ति में २, और लघुवृत्ति में ३ श्रीप्रवचन सारोद्वार में ४, तथा बृहद्वृत्ति में ५, और लघुवृत्ति में ६, श्रीधर्मरत्न प्रकरणको वृत्तिमें 9, श्री अभयदेव सूरिजी - कृत समाचारी ग्रन्थ में ८, श्रीजिनप्रभसूरिजीकृत विधि प्रपा समाचारी में ल, श्रीजिनपति सूरिजीकृत समाचारी में १०, श्रीसमाचारी शतकमामा ग्रन्थ में ११, श्रीषडावश्यक ग्रंथ १२, श्री तपगच्छ के श्रीजयचन्द्र सूरिजीकृत प्रतिक्रमण गर्भ हेतुनाना ग्रंथ में १३, श्रीरत्नशेखरसूरिजीकृत श्रीश्राद्धविद्धि वृत्ति में १४, प्राचीन प्रतिक्रमण गर्भहेतुनाना ग्रंथ में १५, और श्री पूर्वाचार्यों के बनाये समाचारियोंके चार ग्रंथों में १९, इत्यादि अनेक शास्त्रोंमें देवसी और राइ प्रतिक्रमणके अनंतर पाक्षिक प्रतिक्रमणके मजबही चौमासी और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि कही है और चौमासी सांवत्सरिक शब्दका नामांतर कहके चौमासी में २०, लोगस्स का कायोत्सर्ग तथा पांच साधुओंको क्षमानेकी और सांवत्सरिक में ४० लोगस्सका कायोत्सर्ग तथा ७ वा वगैरह साधुओंको क्षमाणेकी भिन्नता दिखाई है और क्षमाणा के अवसर में संवच्छर शब्द का ग्रहण करने में आता है । संवत्सर कहो । सांवत्सरी कहो । संवछरी कहो । बार्षिक कहो । सबका तात्पर्य एक है और संवत्सर शब्द यद्यपि नक्षत्र संवत्सर १ । ऋतु संवत्सर २ । सूर्य संवत्सर ३. चंद्र संवत्सर ४. और अभिवर्द्धित संवत्सर ५ इन पांच प्रकार के अर्थों में ग्रहण होता है परन्तु क्षामणा के अवसर में तो दो अर्थ ग्रहण करने में आते हैं जिसमें प्रथम मास वृद्धि के अभाव से चन्द्र संवत्सर के बारह मास और चौवीश पक्ष अनेक शास्त्रों में कहे हैं और दूसरा मास Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६१ ] वृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सर के तेरह मास और छबीश पक्ष भी अनेक शास्त्रोंमें कहे हैं इसलिये सांवत्सरिक क्षामणेमें मास रद्धिके अभावसे चंद्रसंवत्सर संबन्धी बारह मास चौबीस पक्ष कहने चाहिये और मास वृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सर सम्बन्धी तेरह मास छबीश पक्ष कहने चाहिये और जिम शास्त्रमें बारह मास चौबीश पक्ष लिखे होवें सो चन्द्र संवत्सर सम्बन्धी समझने चाहिये। इतने पर भी मामवृद्धि होनेसे तेरह मास छबीश पक्ष व्यतीत होने पर भी बारह मास चौबीश पक्ष जो बोलते हैं सो कोई भी शास्त्र के प्रमाण बिना अपनी मति कल्पनाका बर्ताव करके श्रीअनन्त तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंका कहा हुवा अभिवर्द्धित संवत्मरके नामको खंडन करके उत्सूत्र भाषणसें संसार वृद्धिका कारण करते हुवे गरुगम रहित श्रीजैनशास्त्रों के तात्पर्यको नहीं माननेवाले हैं क्योंकि देखो सर्वत्र शास्त्रों में साधके बिहारकी व्याख्यागे नव कल्पि विहार साधुको करनेका कहा है सो मासद्धि के अभावसें होता है परन्तु शीतकालमें अथवा उष्णकालमें मासवद्धि होनेसे अवश्य करके १० कल्पिविहार करनेका प्रत्यक्ष बनता हैं तथापि कोई हठवादी शीतकालमें अथवा उष्णकालमें मास वृद्धि होतेभी नवकल्पि विहार कहनेवालेको माया मिथ्या का दूषण लगता है क्योंकि जैसे कार्तिक पीछे साधने वि. हार किया और मास कल्पके नियम मजब विचरता है उसी समय शीतकाल में अथवा उष्ण काल में अधिक मास होगया तो उम अधिक मास में अवश्य करके दूसरे गांव विहार करेगा परन्तु एकही गांव में दो मास तक कदापि For Private And Personal Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६८ ] नहीं ठहरेगा जब अधिक मास में विहार करके दूसरे गांव जावेगा तब उसीको दश कल्पि विहार हो जावेगा क्योंकि चारमास शीतकालके चारमास उष्ण कालके तथा एक अधिक मासका और एक वर्षाऋतुके चारमासका इस तरह से अवश्य करके दसकल्पि विहार होता है तथापि नव कल्पि कहनेवाला तो प्रत्यक्ष माया सहित मिथ्याभाषण करनेवाला ठहरेगा सो पाठकवर्ग भी विचार सकते हैं और जैसे मास वृद्धि होनेसे दसकल्पि विहार करने में आता है तेसही मा. सवद्धि होनेसें तेरह मास छबीश पक्षोंकी गिनती करके उतनेही क्षामणे करने में आते हैं सो आत्मार्थी श्रीजिनेश्वर भगवान् की आज्ञाके आराधक सत्यग्राही भव्यजीव तो मंजूर करते हैं परन्तु उत्सूत्र भाषक कदाग्रही विद्वत्ता के अभिमानको धारण करनेवालोंकी तो बातही जदी है। और अधिक मासकी गिनती श्रीतीर्थंकर गणधरादि महा. राजोंकी कहीहुई है जिसको संसारगामी मिथ्यात्वी श्रीजि. मात्राका विराधकके सिवाय कौन निषेध करेगा और अधिक मासको माननेवालों को दूषण लगाकरके फिर आप निर्दूषण भी बनेगा। सो विवेकी पाठकवर्ग विचार लेवेंगे। और अधिक मासके कारणसे ही तेरह मास छबीश पक्षका अनिवर्द्धित संवत्सर श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने कहा है इस लिये अवश्य करके पांच मासका एक अभिवति चौमासा भी मामना चाहिये। (शङ्का ) अधिक मासके कारणसे पांच मासका अभिबर्द्धित चौमासा किस शास्त्र में लिखा है। (समाधान) भो देवानुप्रिय ! ऊपर ही ३६३, ३६४ पष्ट में For Private And Personal Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६६ ] १७ शास्त्रों के प्रमाण अधिक मासके कारणसे तेरह मास छवीश पक्षका अभिवर्द्धित संवत्सर संबंधी छपे हैं उसी शास्त्रोंसे तथा यक्तियोंसें और प्रत्यक्ष अनभवसे भी अधिक मासके कारणसे पांच मासका अभिवर्द्धित चौमासा प्रत्यक्ष सिद्ध होता है क्योंकि शीतकालके, उष्णकालके, और बर्षाकालके चार चार मासका प्रमाण है परन्तु जैन पंचांगा. नुसार और लौकिक पंचांगानुसार जिस ऋतुमें अधिक मास होवे उसी ऋतुका अभिवर्द्धित चौमासा पांच मासके प्रमाणका मानना स्वयं सिद्ध है इस लिये अधिकमासके कार. णसें चौमासामें पांचमास दशपक्षका और सांवत्सरीमें तेरह मास छवीशपक्षका अवश्य करके व्यवहार करना चाहिये । शङ्का-अजी आप अधिक मासके कारणसें चौमासामें पांच मास, दशपक्षका और सांवत्सरीमें तेरह मास छवीश पक्षका व्यवहार करना कहते हो सो क्षामणाके अवसरमें तो हो सकता है, परन्तु मुहपत्ती (मुखवस्त्रिका )की प्रतिलेखना करते, वांदणा देते, अतिचारोंकी आलोचना करते वगैरह कार्यों में चौमासीमें पांच मास, दश पक्षका और सांवत्सरीमें तेरह मास छवीश पक्षका व्यवहार कैसे हो सकेगा। समाधान-भो देवानुप्रिय-जैसे मास वद्धिके अभाव, चौमासीमै चार मास, आठ पक्षका और सांवत्सरीमें बारह मास, चौवीश पक्षका, अर्थ ग्रहण करने में आता है और मुखवस्तिकाकी प्रतिलेखनामें, वांदणा देने में, अतिचारोंकी आलोचना वगैरह कार्यों में उतने ही मास पक्षोंकी भावना होती है,तैसे ही मास वद्धि होने के कारणसें चौमासीमें पांच मास,दश पक्षका और सांवत्सरीमें तेरह मास छवीस पक्षका For Private And Personal Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३७० ] अर्थ ग्रहण होता है इसलिये चौमासीमें और सांवत्सरिक कार्यों में भी उतने ही मास पक्षांकी भावना करने में आती है, . और जैसे चंद्रसंवत्सरमें-सांवत्सरिक प्रतिक्रमणमें क्षामणाधिकारे 'बारसगहं मासाणं चउधीसरहं पक्खाणं तिन्निसयसट्ठी राइंदियाणं' इत्यादि पाठ बोलके बारह मास, चौवीश पक्ष, तीन सौ साठ ( ३६० ) रात्रि दिनोंकी आलोचना करने में आती है और चौमासी प्रतिक्रमणमें चउराहं मासाणं अट्ठण्हं पक्वाणं वीसुत्तरसय राइंदियाणं' इत्यादिः पाठ बोलके चार मास, आठ पक्ष, एक सौ वीश रात्रि दिनोंकी आलोचना करने में आती है, तैसे ही अभि. वर्द्धित संवत्सरमें भी सांवत्तरिक क्षामणाधिकारे तेरमगह मासाणं छठवीसरहं पक्वाणं तिन्निसयणउ राइंदियाणं' इत्यादि पाठ बोलके तेरह मास,छवीश पक्ष, तीन सौ नब्बे (३९० ) रात्रि दिनोंकी आलोचना करने में आती है और अभिवर्द्धित चौमासेमें भी 'पंचरहं मासाणं दसरहं पक्वाणं पंचासुत्तरसय राइंदियाणं' इत्यादि पाठ बोलके पांच मास, दश पक्ष एक सौ पचास ( १५० ) रात्रि दिनोंकी आलोचना करने में आती है। ऊपरमें श्रीआवश्यकचूर्णि, श्रीप्रवचनसारोद्धार, श्रीधर्मरत्न प्रकरणवृत्ति और श्रीअभयदेवसूरिजीकृत समाचारी वगैरह शास्त्रोंके प्रमाण प्रतिक्रमण संबंधी लिखने में आये हैं, उन्हीं शास्त्रों के अनुसार ( संवच्छर ) संवत्सर शब्दके ऊपरोक्त न्यायानुसार चंद्र,अभिवर्द्धित इन दोन संवत्सरोंका अर्थ ग्रहण होनेसे क्षामणा संबंधी ऊपरका पाठ उपरोक शास्त्रोंके अनुसार ही समझना । For Private And Personal Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३११] पूर्व पक्ष - अजी आप ऊपरोक्त शास्त्रोंके अनुसार चन्द्र संवत्सरका और अभिवर्द्धित संवस्तरका अर्थ ग्रहण करके चंद्रमें बारह मासादिसें और अभिवर्द्धितमें तेरह मासादिसें. सांवत्सरी में क्षामणा करनेका लिखतेहो परन्तु किसी भी पूर्वाचार्यजीने कोई भी शास्त्र में ऐसा खुलासा क्यों नहीं लिखा हैं । उत्तर पक्ष - भो देवानुप्रिय ! तेरेमें श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पयर्थको समझने की गुरुगम बिना विवेक बद्धि नहीं है इसलिये बालजीवोंको मिथ्यात्वमें फँसानेके लिये वृथा ही ऐसी कुतर्क करता है क्योंकि जब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों ने संवत्सर शब्दके चंद्र और अभिवर्द्धितादि जुड़े जुदे अर्थ कहे हैं जिसमें चन्द्रके बारह मास, चौबीस पक्ष और अभिवर्द्धित तेरह मास, छवोश पक्ष खुलासे कह दिये है, इसलिये पूर्वाचार्यांने संवत्सर शब्दको ही ग्रहण करके व्याख्या करी है और यह तो अल्पबुद्धिवाला भी समझ सकता है कि जब अधिक मासकी गिनती शास्त्रोंमें श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांने प्रमाण करो है और प्रत्यक्षमें वर्तते हैं इसलिये पापकृत्योंकी आलोचनामें तो जरूर ही अधिक मास गिनतीमें लेना सो तो न्यायकी बात है परन्तु विवेकशून्य हठवादी होगा सो ऐसी कुतर्क करेगा कि - अधिक मासकी आलोचना कहां लिखी है जिसको यही कहना चाहिये कि अधिक मासको गिनती में लेकर फिर आलोचना नहीं करनी कहां लिखी है इसलिये ऐसी वृथा कुतकों के करने से मिथ्यात्व बढ़ाने के सिवाय और कुछ भी लाभ नहीं उठासकेगा, क्योंकि जब अधिक मासकी गिनती मंजूर है तो फिर For Private And Personal Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१२ ] आलोचना तो स्वयं मंजूर हो चकी और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंका कहा हुवा तथा प्रमाण भी करा हुवा अधिक मासको उत्सूत्र भाषण करके निषेध करते हैं और प्रमाण करने वालोंको दूषण लगाते हैं सो पुरुष अधिक मासकी आलोचना नही करे तो उन्होंके मति कल्पनाकी बातही जुदी है परन्तु श्रीतीर्थङ्करगणधरादि महाराजांकी आज्ञा. नसार अधिक मासकी गिनती प्रमाण करने वालोंको तो अवश्य ही अधिक मासकी आलोचना करना उचित है। इतने पर भी जो नहीं करने वाले हैं सो श्रीजिनाज्ञाके उत्थापक हैं। और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांकी भाव परंपरानुसार चंद्रसंवत्सरका और अभिवर्द्धित संवत्सरका यथोचित अवसर पर जुदा जुदा अर्थ ग्रहण करके सांवत्सरीमें क्षामणा करनेकी अनुक्रमे अखंडित मर्यादा चली आती है इसलिये पर्वाचार्यों ने अधिक मासकी गिनती करनेकी तो सभी जगह व्याख्या करी है परन्तु क्षामणा सम्बन्धी संवत्सरशब्द लिखा है जिसका कारण यही है कि अधिक मास प्रमाण हुआ तो क्षामणे करने का तो स्वयं प्रमाण हो चुका, जब सम्वेगी साधु मान लिया, तब महाव्रतधारी तो स्वयं सिद्ध हो चुका। जब श्रीजिनेश्वर भगवान्की मूर्तिको श्रीजिन सदृश मान्य करी तब उसीको वंदना पजना तो स्वयं सिद्ध हो गया। जब व्याख्यान बांधना मंजूर कर लिया, तब जानकार तो स्वयं सिद्ध होगया। ऐसे ऐसे अनेक दृष्टान्त प्रत्यक्ष हैं सो विशेष पाठकवर्गभी विचार सकते हैं। और श्रीमशास्त्रोंके तात्पर्यको नहीं जानने वाले For Private And Personal Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३३ ] हठवादी पुरुषोंको तो श्रीप्रवचनसारोद्धार, तथा वृत्ति, और श्रीधर्मरत्नप्रकरण वृत्ति, और श्रीअभयदेवसूरिजी वगैरह पर्वाचायोंके बनाये समाचारियोंके ग्रन्थ और प्रतिक्रमण गर्भ हेतु, श्रीश्राद्धविधिवृत्ति, वगैरह शास्त्रोंके अनुसार सांवत्सरीमें बारह मास चौवीश पक्षके क्षामणा करनेका ही नहीं बनेगा क्योंकि इन शास्त्रोंमें तो बारह मास चौवीश पक्ष भी नहीं लिखे हैं तो फिर बारह मासा दिका अर्थ ऊपरके शास्त्रोंके अनुसार कैसे मान्य करेंगे और पांचों ही प्रतिक्रमणोंकी विधि ऊपरके शास्त्रों में कही है इसलिये ऊपर कहे सो शास्त्रोंके अनुसार पांच प्रतिक्रमणोंकी विधिको तो मान्य करनीही पड़ेगी और संवत्सर शब्दसे बारह मासका अर्थ ग्रहण करोंगे तो मासद्धि होनेसे तेरह मासका भी अर्थ ग्रहण करनाही पड़ेगा सो तो न्यायकी बात हैं और पहिलेके कालमें ऐसी कुतक करनेवाले विवेकशून्य कदाग्रही पुरुष भी नहीं थे नहीं तो पूर्वाचार्यजी जरूर करके विस्तारसे खुलासा लिख देते क्योंकि जिस जिस समयमें जैसी जैसी कुतके करनेवाले पूर्वाचायके समयमें जो जो हठवादी पुरुष थे जिन्होंको समझाने के लिये वैसे वैसेही खुलासा पूर्वाचाय्याने विस्ता. रसे किया है जैसे कि ईश्वरवादी, नास्तिक, वगैरहोके लिये और श्रीजिनमूर्तिको तथा जिनमूर्तिकी पूजा सम्बन्धी शास्त्रोक्त विधिको वर्णन करी हैं, परन्तु मूर्तिके और पूजाके सम्बन्धमें वर्तमान समय जैसी युक्तियां लिखनेकी जरूरत नहीं थी जिसका कारण कि-उस समय श्रीजिनमूर्तिके तथा उसीकी पूजाके निषेधक दूंढिये, तेरहपन्थी, वगैरह For Private And Personal Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३७४ ] कुयुक्तियां करने वाले पुरुष नहीं थे परन्तु वर्तमान समय में श्रीजिनमूर्ति के निन्दक विशेष कुयुक्तियां करने लगे तो वर्त - मान काल में उसीके स्थापनेके लिये विशेष युक्तियां भी होती है। तैसेही इस वर्तमान कालमें तेरह मास छवोश पक्षके निषेध करने वाले सातवें महाशयजी जैसे शास्त्रों के तात्पर्य्यको नहीं जानने वाले पैदा हुवे तो उसीको स्थापन करनेके लिये इतनी व्याख्या भी मेरेको इस जगह करनी पड़ी नहीं तो क्या प्रयोजन था, अब न्यायदृष्टिवाले सत्यग्राही भव्यजीवोंको मेरा इतनाही कहना है कि जैसे श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने श्रीसूयगड़ाङ्गजी, श्रीदशवैकालिकजी, श्रीउत्तराध्ययनजी वगैरह शास्त्रों में साधुके उद्देश करके व्याख्या करो है उसीको ही यथोचित साध्वी के लिये भी समझना चाहिये और श्रीवन्दीतासूत्रकी - " उत्थे अणुवयंमि, निच्च परदारगमण विरइओ ॥ आयरियमप्यसत्थे, इत्थपमायप्प संगेणं ॥ १५ ॥ अपरि गहिआ इत्तर" इत्यादि गाथायोंमें और अतिचारोंकी आलोचना वगैरह में श्रावकका नाम उद्देश करके व्याख्या करी है उसीकोही यथोचित श्राविका के लियेही समझना चाहिये इतने पर भी कोई विवेक शून्य कुतर्के करे कि— अमुक अमुक बातें साधुके और श्रावक के लिये तो कही है परन्तु साध्वी और श्राविका के लिये तो नहीं कही है ऐसी कुतर्क करनेवालेको अज्ञानीके सिवाय, तत्वज्ञ पुरुष और क्या कहेंगे । तैसेही जिस जिस शास्त्र में चन्द्रसंवत्सर की अपेक्षासें जो जो बातें कही है उसीकेही अनुसार यथोचित अवसर में अभिवर्द्धित संवत्सरसम्बन्धी भी समझनी चाहिये For Private And Personal Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१५ ] तथापि विवेकशून्य हठवादी कोई ऐसी कुतर्के करे कि अमुक शास्त्र में मासवृद्धि के अभाव से चन्द्रसम्वत्सर के लिये बारह मासके क्षामणे कहे हैं परन्तु मासवृद्धि होनेसें अभिवर्द्धित सम्वत्सर के लिये तो कुछ नही कहा है, ऐसी कुतर्क करने वालेको अज्ञानीके सिवाय, तत्त्वज्ञ पुरुष और क्या कहेंगे क्योंकि एकके उद्देश्य से जो व्याख्या करी होवे उसीके ही अनुसार दूसरेके लियेही यथोचित समझनेकी श्रीजैनशास्त्रों में मर्य्यादा है इसलिये जूदे नाम उद्देश्य करके जूदी जूदी व्याख्या शास्त्रकार नहीं करते हैं परन्तु जो सत्यग्राही विवेकी आत्मार्थी होवेंगे सो तो सद्गुरुकी सेवासे श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पर्य्य को समझ के सत्यबात ग्रहण करेंगे और विवेक रहित हठवादी होगें जिसके कर्मेौका दोष नतु शास्त्रकारों का, जैसे- श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्यायोंमें प्रसिद्ध बात है कि कोई साधु स्थण्डिले जङ्गल में गयाथा सो कुछ ज्यादा देरीसें गुरु पास आया तब उस साधुका गुरु महाराजने देरी से आनेका कारण पूछा तब उस साधुने रस्ते में नाटकीये लोगों का नाटक देखनेके कारण देरीसें आना हुवा सो कहा, तब गुरु महाराजने नाटकीये लोगोंका नाटक देखने की साधुको मनाई करी सब विवेकी बुद्धिवाले चतुर थे वे तो नाटकणी लुगाइयोंका नाटक वर्जने का भी स्वयं समझ गये, और विवेक बिनाके थे सो तो नाटकणी लुगाइयोंका नाटक देखने को खड़े रहे, तब गुरु महाराजके कहने पर विवेक रहित होनेसे बोलेकी आपने नाटकीये लोगोंका नाटक देखनेकी मनाई करोथी परन्तु नाटकणी लुगाईयों का नाटक देखने की तो मनाई नही करी थी तब गुरु महा For Private And Personal Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३६ ] राजने कहा कि जब नाटककीय लोगोंका नाटक वर्जन किया तब नाटकणी लुगाइयोंका नाटक तो विशेष रागका कारण होनेसे स्वयं वर्जन समझना चाहिये तब उन्होंने गुरु महाराजके कहने मुजबही मंजूर किया-और हठवादी मूर्ख थे सो तो गुरु महाराजकोही दूषित ठहराने लगे कि आपने नाटकीये लोगोंका नाटक वर्जन किया तो फिर नाटकणी लुगाइयोंका नाटक क्यों वर्जन नहीं किया ऊपरके लेखका क्षामणाके सम्बन्धमें तात्पर्य्य ऐसा है जब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने संवत्सर शब्दके चन्द्र, अभिवद्धितादि जूदे जदे भेद प्रमाण सहित कहे हैं और सांवत्सरिक क्षामणाके अधिकारमें संवत्सर शब्दसें व्याख्या करी है जिसमें मासद्धिके अभावसे चन्द्रसंवत्सरमें बारह मासादिसें क्षामणा करने में आते हैं उसीकेही अनुसार विवेक बुद्धिवाले चतुर होवेगे सो तो मासद्धि होनेसे तेरह मासादिसे क्षामणा करनेका स्वयं समझ लेवेंगे और विवेक रहित होवेंगे सो शास्त्रों के अनुसार युक्तिपूर्वक गुरुमहाराजके समझानेसे मान्य करेंगे और विवेक रहित हठवादी होवेंगे सो तो शास्त्रों का प्रमाण और युक्ति होने पर भी शास्त्रकार महाराजोंकोही उलटे दूषित ठहरावेंगे कि अधिक मासकी गिनतीको प्रमाण करके तेरह मास छवीश पक्षका अभिवर्द्धित संवत्सरको शास्त्र. कार लिख गये तो फिर अधिकमास होनेसे तेरह मास छवीश पक्षके क्षामणे करनेका क्यों नहीं लिख गये, इस तरहसें अपनी वक्र जड़ता प्रगट करके बालजीवोंको भी मिथ्यात्वमें फँसावेंगे, पर भवका भय नहीं रखेंगे, For Private And Personal Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३७७ ] और शास्त्रकारों को मिथ्या दूषण लगाके,फिर आप निर्दूषण भी बनेंगे, सो तो कलियुगकाही प्रभावके सिवाय और क्या होगा सो तत्त्वज्ञ पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे। प्रश्नः-श्रीजैनशास्त्र में चन्द्रसंवत्सरके ३५४ दिनका और अभिवर्द्धित संवत्सरके ३८३ दिनका प्रमाणकहा है फिर सांवत्सरी सम्बन्धी चन्द्रसंवत्सरमें ३६० दिनके और अभिवर्द्धित संवत्सर में ३९० दिनके क्षामणे करनेका आप कैसे लिखते हो। उत्तर:-भो देवानुप्रिय, श्रीजिनेन्द्र भगवानोंका कहा हुआ नयगर्भित श्रीजिन प्रवचनकी शैली गुरुगम और अनु । भव बिना प्राप्त नहीं हो सकती है क्योंकि यद्यपि श्रीजैनशास्त्रोंमें चन्द्र संवत्सरके ३५४ दिन, १९ घटीका, और ३६ पलका प्रमाण कहा है और अभिवर्द्धित संवत्सरके ३८३ दिन, ४२ घटीका, और ३४ पलका प्रमाण कहा है सो चन्द्र के विमानकी गतिके हिसाबसे निश्चय नय संबन्धी समझना चाहिये और जो चन्द्रसंवत्सरमें ३६० दिनके और अभिवर्द्धितमें ३९० दिनके क्षामणे करने में आते हैं सो दुनियाकी रीतिसे, व्यवहार नय करके, लोगोंको सुखसे उच्चारण हो सके इसलिये बहुत अपेक्षासें समझना चाहिये। और व्यवहार नयसें चन्द्रसंवत्सरमें ३६० दिनका और अभिवर्द्धित संबत्तरमें ३९० दिनका उच्चारण करके क्षामणे करने में आते हैं परन्तु निश्चय नय करके तो जितने समयसे सांवत्सरीमें क्षामणे करने में आवेंगे उतनेही समय तकके पापकृत्योंकी आलोचना हो सकेगी सो विशेष पाठकवर्ग भी स्वयं विचार लेवेंगे और चौमासी पाक्षिक देवसीराइ प्रतिक्रमण सम्बन्धी भी निश्चय नयकी और व्यवहार For Private And Personal Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३१८ ] नयकी अपेक्षा के लिये आगे लिखंगा अब सत्यग्राही तत्त्वज्ञ पुरुषोंको न्यायदृष्टि से विचार करना चाहिये कि अधिक मासके कारण, चौमामीमें पांच मासादिसें और सांवत्सरिमें १३ मासादिसे क्षामणे करने का अनेक शास्त्रोंके प्रमाणानुसार युक्तिपूर्वक और प्रत्यक्ष अनुभवसे स्वयं सिद्ध है सो तो मैंने ऊपरमें ही लिख दिखाया है परन्तु सातवें महाशयजी कोई भी शास्त्रके प्रमाण बिना पांच मास होते भी चार मासके क्षामण करने का और तेरह मास होते भी १२ मासके क्षामणे करनेका लिख दिखाके फिर शास्त्रानुसार पांच मासके और तेरह मासके क्षामणे करने वालोंको दूषण लगाते हैं सो अपने विद्वत्ताकी हांती करा करके, संसार वृद्धिके हेतुभूत उत्सूत्र भावणके सिवाय और क्या होगा सो पाठकवर्गको विचार करना चाहिये। और भी आगे पर्युषणा विचारके चौथे पृष्ठकी १५ वीं पंलिसें २१वीं पंक्ति तक लिखा है कि-( दूसरी बात यह है किसी समय सोलह (१६) दिनका पक्ष होता है और कभी चौदह दिनका पक्ष होता है उस समय 'एक पख्खाणं पन्नरसण्हं दिवसाणं' इस पाठको छोड़कर क्या दूसरी पाठकी कल्पना करते हो यदि नहीं करते तो एक दिनका प्रायश्चित्त बाकी रह जायगा जैसे तुम्हारे मतमें 'चउण्हं मासाणं' इत्यादि पाट कहने से अधिकमासका प्रायश्चित्त रह जाता है) ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवें महाशयजीके ऊपरका लेखको देखकर मेरेको बड़ाही विचार उत्पन्न होता है कि-सातवें For Private And Personal Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९ ] महाशयजी इतने विद्वान् कहलाते हैं तथापि श्रीजैन शास्त्रों के तात्पर्य समझे बिना अपने कदाग्रहके कल्पित पक्षको स्था. पन करनेके लिये वृथाही क्यों उत्सूत्र भाषण करके अपनी अज्ञता प्रगट करी है क्योंकि लौकिक ज्योतिषके गणित मुजब वर्तमानिक पञ्चाङ्ग में तिथियांकी हानी और वृद्धि होनेका अनुक्रमे नियम है और अधिकमासकी तो मर्वथा करके वृद्धि ही होनेका नियम है परन्तु तिथिकी हानी होनेसे १४ दिन का पक्षकी तरह, मासकी हानी होकर १९ मासका वर्ष कदापि नहीं होता है इसलिये तिथिकी हानी अथवा वद्धि होवे तो भी दुनियाके व्यवहारमें १५ दिनका पक्ष कहा जाता है जिससे क्षामणे भी १५ दिनके करने में आते हैं और मासकी तो हानी न होते, सर्वथा वृद्धिही होती है इसलिये दुनियाके व्यवहारमें भी तेरह मासका वर्ष कहा जाता है परन्तु मासवृद्धि होते भी बारह मासका वर्ष कोई भी बुद्धिमान विवेकी पुरुष नहीं कहते हैं जिससे मातद्धि होनेसे क्षामणे भी १३ मासकेही करने में आते हैं, परन्तु मासवृद्धि होते भी बारह मासके क्षामणे करनेका कोई भी बुद्धिवाले विवेकी पुरुष नहीं मान्य कर सकते हैं। इसलिये तिथियांकी हानि वृद्धि होनेका नियम होनेसें और मासकेसदा वृद्धि होनेका नियम होनेसे दोनका एक सदृश व्यवहार होने का सातवें महाशयजी ठहराते हैं सो कदापि नहीं हो सकता है। और निश्चय व्यवहारादि नय करके श्रीजिन प्रवचन चलता है इसलिये लौकिक पञ्चाङ्ग में १६ दिनका अथवा १४ दिनका पक्ष होते भी व्यवहार नयकी अपेक्षासें १५ दिन के क्षामणे करने में आते हैं परन्तु निश्चय नघकी अपेक्षा से तो For Private And Personal Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८० ] १६ दिनके अथवा १४ दिनके जितने समय तक जितने पुण्य पापादि कार्य करनेमें आये होवे उतनेही पुण्य कार्योकी अनुमोदना और पापकार्योंकी आलोचना करने में आवेगी, देवसी राइ प्रतिक्रमणवत् अर्थात् देवसी और राइप्रतिक्रमणका सांम और सवेरमें चार चार पहरका काल कहा है परन्तु कोई कारण योग संध्या समय देवसी प्रतिक्रमण न होसके तो रात्रिका बारह बजे (मध्यानरात्रि) के समय तक भी प्रतिक्रमण करनेका अवसर मिलनेसे करने में आसके तब निश्चय नय करके तो छ पहरके पाप कार्यों की आलोचना होगी परन्तु व्यवहार नयको अपेक्षासें चार पहरके अर्थवाला देवप्ती शब्द ग्रहण करके देवसी क्षामणे करने में आवेगे अब देखिये अर्द्धरात्रि तक छ पहरमें प्रतिक्रमण करके भी व्यवहार नयसे चार पहरके अर्थवाला देवसी शब्द ग्रहण करने में आवे और पुनः कारण योगे पहर रात्रि शेष रहते ३ बजे ही दूसरीबार राइ ( रात्रि ) प्रतिक्रमणकरनेका कारण पड़ गया तो एक पहर अथवा सवा पहरमें रात्रि प्रतिक्रमण करती समय निश्चय नय करके तो उतनेही समय तकके पापकायोंकी आलोचना होगी परन्तु व्यवहार नयसे चार पहरके अर्थवाला राइ शब्दही ग्रहण करनेमेंआवेगा तैसेही लौकिक पंचाङ्ग मुजब १४ दिने किंवा १५ दिने अथवा १६ दिने पाक्षिक प्रतिक्रमण करने में आवे तो निश्चय नय करके तो उतनेही दिनोंके पापकायोंकी आलोचना करने में आवेगी परन्तु व्यवहार नयकी अपेक्षासें १५ दिनका पक्ष कहने में आता है इसलिये१५ दिनके अर्थवाला पाक्षिक शब्द ग्रहण करके क्षामणे भी करनेने आते हैं, परन्तु व्यवहार नयका For Private And Personal Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८१ ] भड़के दूषणसे डरनेवाले अन्य कल्पना कदापि नहीं करेंगे सो विवेकी सज्जन स्वयंविचार लेवेंगे। और सातवें महाशयजी १६ दिनका पक्षमें १५ दिनके क्षामणे करनेसे एक दिनका प्रायश्चित बाकी रहने संबंधी और १४ दिनका पक्षमें भी १५ दिनके क्षामणे करने से एकदिन का बिना पाप किये भी प्रायश्चित ज्यादा लेने सम्बन्धी ऊपरके लेखसे ठहराते हैं सो निःकेवल अज्ञातपनसे व्यवहार नयका भङ्ग करते हैं जिससे श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उल्लंघन रूप उत्सूत्र भाषक बनते हैं सो भी पाठकवर्ग विचार लेवेंगे। ___ और यद्यपि श्रीजैनपञ्चाङ्ग की गिनतीसें तिथि की वृद्धि होनेका अभाव था तथा पौष और आषाढ़ मासकी सृद्धि होनेका नियम था परन्तु लौकिक पञ्चाङ्गमें तिथि की वृद्धि होनेका गिनती मुजब नियम है और हरेक मासोंकी वृद्धि होनेका भी नियम है। जब जैन पञ्चाङ्गके बिना लौकिक पञ्चाङ्ग मुजब तिथि की रद्धिको सातवें महाशयजी मान्य करके सोलह (१६) दिनका पक्षको मंजूर करते हैं तो फिर लौकिक पञ्चाङ्गानुसार प्रावण भाद्रपदादि मासोंकी वृद्धि होती है जिसको मान्य नहीं करते हुवे उलटा निषेध करनेके लिये पर्युषणा विचारके लेखमें वृथा क्यों परिश्रम करके निष्पक्ष. पाती विवेकी पुरुषोंसे अपनी हांसी कराने में क्या लाभ उठाया होगा सो मध्यस्थ दृष्टिवाले सज्जन वयं विचार लेवेंगे और ( जैसे तुम्हारे मतमें 'चउरहं मासाणं' इत्यादि पाठ कहने से अधिक मासका प्रायश्चित्त रह जाता है) सातवें महाशयजीके ऊपरके लेखपर मेरेको इतनाही कहना है कि For Private And Personal Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८२ ] अधिक मासको मानने वालोंके मतमें तो अधिक मात होने से पांच मासहोते भी चार मास कहनेसे पांचषा अधिक मासका प्रायश्चित्त बाकी रह जाता है इसलिये अधिकमास होनेसे पाँच मास जरूर बोलने चाहिये सो तो बोलतेही हैं इसका विशेष निर्णय अपरमें हो गया है, परन्तु पाँच मास होते भी चार मास बोलने से पाँचवा अधिक मासका प्रायश्चित्त उसीके अन्तर्गत आजानेका ऊपरके अक्षरोंसें सातवें महाशयजीने अपने मतमें ठहरानेका परिश्रम किया है सो कोई भी शास्त्र के प्रमाण बिना प्रत्यक्ष मायावृत्तिसें मिथ्यात्व बढ़ाने के लिये अज्ञ जीवोंको कदाग्रहमें गेरनेका कार्य किया है क्योंकि अधिक मास होनेसे पांचमासके दश पक्ष प्रत्यक्ष में होते हैं और खास सातवें महाशयजी वगैरह भी सब कोई अधिक मासके कारणसे पाँच मासके दश पाक्षिकप्रतिक्रमण भी करते हैं फिर पांचमास दश पक्ष नहीं बोलते हैं सो यह तो 'मम वदने जिहा नास्ति' की तरह बाललीलाके सिवाय और क्या होगा से विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे;__ और आगे फिर भी सातवें महाशयजीने पर्युषणा विचारके पाँचवें पृष्ठ की प्रथम पंक्तिसे छट्ठी पंक्ति तक लिखा हैं कि ( अब लौकिक व्यवहार पर चलिए लौकिक जन अधिक मासमें नित्यकृत्य छोड़कर नैमित्तिककृत्य नहीं करते जैसे यज्ञोपवीतादि अक्षयतृतीया दीपालिका इत्यादि, दिगम्बर लोग भी अधिक मासको तुच्छ मानकर भाद्रपद शुक्लपञ्चमी से पूर्णिमा तक दश लाक्षणिक पर्वमानते है) ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों - श्रीजिनेन्द्र भगवानोंने तो अधिक For Private And Personal Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८३ ] मासको गिनतीमें ले करकेही पर्युषणा करने का कहा है तथापि सातवें महाशयजी पर्युषणा सम्बन्धी श्रीजैनशास्त्र के तात्पर्य्यको समझे बिना अज्ञात पनेसै उत्सूत्र भाषक हो करके अधिक मासका निषेध करनेके लिये गच्छपक्षी बालजीवोंको मिथ्यात्व में फंसाने वाली अनेक कुतकों का संग्रह करते भी अपने मंतव्यको सिद्ध न कर सके तब लौकिक व्यवहारका सरणा लिया तथापि लौकिक व्यवहारसैं भी उलटे वर्तते हैं क्योंकि लौकिक जन (वैष्णवादि लोग) तो अधिक माप्समें विवाहादि संसारिक कार्य छोड़कर संपूर्ण अधिक माप्तको बारहमासोंसे विशेष उत्तम जान करके 'पुरुषोत्तम अधिक मास' नाम रख्खके दान पुण्यादि धर्मकार्य्य विशेष करते हैं और अधिक मासके महात्मकी कथा अपने अपने घर घरमें ब्राह्मणोंसे वंचाकर सुनते हैं। अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि-लौकिकजन भी जैसे बारह मासोंमें संसारिक व्यवहारमें वर्तते हैं तैसेही अधिक मास होनेसे तेरह मासों में भी वर्तते हैं और बारह मासोंसे भी विशेष करके दानपुण्यादि धर्मकार्य अधिक मासमें ज्यादा करते हैं और विवाहादि मुहूर्त निमित्तिक कार्य नहीं करते हैं परन्तु बिना मुहूर्त के धर्मकायाकों तो नही छोड़ते हैं और सातवें महाशयजी लौकिक जनकी बातें लिखते हैं परन्तु लौकिक जनसें विरुद्ध हो करके धर्मकाया में अधिक मासके गिनती का सर्वथा निषेध करते कुछ भी विवेक बुद्धिसैं हृदयमें विचार नहीं करते है क्योंकि लौकिक जन की बात सातवें महाशयजी लिखते हैं तबतो लौकिकजन की तरहही सातवें महाशयजीको भी वर्ताव करना चाहिये सो तो नही करते For Private And Personal Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८४ ] हुवे उलटे ही वर्त्तते हैं सो भी बड़ेही आश्चर्य्यकी बात है । और यज्ञोपवीत, विवाह वगैरह मुहूर्त निमित्तिक कार्य तो चौमासे में, मलमास में, सिंहस्थ में, अधिक मासमें, रिक्का तिथि में, और ग्रहण वगैरह कितनेही योगोंमें नहीं होते हैं परन्तु बिना मुहूर्त्तका पर्युषणादि धर्म कार्य तो चौमासेमें रिक्ता तिथि होने पर भी करनेमें आते हैं इसलिये मुहूर्त्त निमित्तिक कार्य अधिक मासमें न होनेका दिखा करके बिना मुहूर्त्त का पर्युषण पर्वका निषेध करना सो सर्वथा उत्सूत्र भाषण करके भोले जीवोंको मिथ्यात्वमें फंसानेसे संसार वृद्धिका कारण है सो पाठकवर्ग भी विचार सकते हैं । और यज्ञोपवीत विवाहादि मुहूर्त्त निमित्तिक कार्य अधिकमासमें नहीं होनेका सातवें महाशयजी लिख दिखा करके पर्युषणा भी अधिक मासमें नहीं होने का ठहराते हैं तब तो सिंहस्थ, सिंहराशीपर गुरुका आना होवे तब तेरह मासमें यज्ञोपवीत विवाहादि मुहूर्त निमित्त कार्य नहीं करनेमें आते हैं उसीकेही अनुसार सातवें महाशयजीको भी तेरह मास में पर्युषणादि धर्म कार्य नहीं करना चाहिये । यदि करते होवे तो फिर गच्छ कदाग्रही बाल जीवोंको मिथ्यात्वमें फँसानेका वृथा क्यों परिश्रम किया सो तत्वज्ञ पुरुष स्वयं विवार लेवेंगे--और मुहूर्त निमित्तिक संसारिक कार्योंके लिये तथा बिना मुहूर्त्तका धर्म कार्योंके लिये विशेष विस्तार से चौथे महाशयजी न्यायांभीनिधिजीके लेखको समीक्षा में इसीही ग्रन्थ के पृष्ठ १९४ से २०४ तक अच्छी तरहसे छप गया है सो पढ़ने से सर्व निःसंदेह हो जावेगा । For Private And Personal Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८५ ] और अक्षयतृतीया दीपालिकादि सम्बन्धी आगे लिखनेमें आवेगा। और ( दिगम्बर लोग भी अधिक मासको तुच्छ मानकर भाद्रपदशुक्ल पञ्चमीसै पूर्णिमा तक दशलानणिकपर्व मानते हैं ) सातवें महाशयजीका इस लेखपर मेरेको इतनाही कहना है कि-दिगम्बर लोग तो केवलीको आहार, स्त्रीको मोक्ष, साधुको वस्त्र, श्रीजिनमूर्तिको आभूषण, नवाङ्गी पूजा वगैरह बातोंको निषेध करते हैं और श्वेताम्बर मान्य करते हैं इसलिये दिगम्बर लोगोंकी अधिक मास सम्बन्धी कल्पनाको श्वेताम्बर लोगोंको मान्य करने योग्य नहीं है क्योंकि श्वेताम्बरमें पञ्चाङ्गीके अनेक प्रमाण अधिक मासको गिनतीमें करने सम्बन्धी मौजूद हैं इसलिये दिगम्बर लोगोंकी बातको लिखके सातवें महाशयजीने अधिक मासको गिनतीमें लेनेका निषेध करनेको उद्यम करके बालजीवोंको कदाग्रहमें गेरे हैं सो उत्सूत्र भाषणरूप है और सातवें महाशयजी दिगम्बर लोगोंका अनुकरण करते होंगे तब तो ऊपरकी दिगम्बर लोगोंकी बातें सातवें महाशयजीका भी मान्य करनी पड़ेंगी यदि नहीं मान्य करते हो तो फिर दिगम्बर लोगोंकी बात लिखके वृथा क्यों कागद काले करके समयको खोया सो पाठकवर्ग विचार लेवेंगे और आगे फिर भी पर्युषणा विचारके पाँचवे पष्ठको ७ वी पंक्तिसे लट्ठ पृष्ठकी पाँचवीं पंक्ति तक लिखा है कि[अधिकमास संज्ञी पञ्चेन्द्रिय नहीं मानते, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है क्योंकि एकेन्द्रिय वनस्पति श्री अधिक मासमें नहीं फलती। जो फल श्रावण मासमें उत्पन्न होने ge For Private And Personal Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८६ ] वाला होगा वह दूसरेही श्रावणमें उत्पन्न हागा न कि पहिलेमें। जैसे दो चैत्र मास होगे तो दूसरे चैत्रमें आम्रादि फलेंगे किन्तु प्रथम चैत्र में नहीं। इस विषयकी एक गाथा आवश्यकनियुक्तिके प्रतिक्रमणाध्ययनमें यह है"जइ फुल्ला कणिआरया चूअग अहिमासयंमि घुट्ठमि । तुह न खमं फुल्ले जइ पच्चंता करिति डमराई" ॥ १॥ अर्थात् अधिकमासकी उद्घोषणा होनेपर यदि कर्णिकारक फूलता है तो फूले, परन्तु हे आम्रवक्ष ! तुमको फूलना उचित नहीं है, यदि प्रत्यन्तक ( नीच ) अशोभन कार्य करते हैं तो क्या तुम्हें भी करना चाहिये ?, सज्जनोंको ऐसा उचित नहीं है। इस बात का अनुभव पाठकवर्ग करें यदिः अभ्यासकी सफलता हो तो जैसे कुशाग्रबुद्धि आज्ञानिबद्ध हृदय आचायोंने अधिक मासको गिनती में नहीं लिया है उसी तरह तुम्हें भी लेखामें नहीं लेना चाहिये। जिससे पूर्वोक्त अनेक दोषोंसे मुक्त होकर आज्ञाके आराधक बनोगे।] ऊपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि- हे सज्जन पुरुषो सातवें महाशयजीने गच्छ पक्षी बालजीवोंको मिथ्यात्वमें फंसानेके लिये ऊपरके लेख में वृथा क्यों परिश्रम किया है क्योंकि प्रथम तो ( अधिक मास संजी पञ्चेन्द्रिय नही मानते ) यह लिखनाही प्रत्यक्ष महा मिथ्या है क्योंकि संज्ञी पञ्चेन्द्रिय सब कोई अधिक मासको अवश्य करके मानते हैं सो तो प्रत्यक्ष अनुभवसेही सिद्ध है और 'एकेन्द्रिय वनस्सति अधिक. मासमें नही फलनेका' ातवें महाशयजी लिखते हैं सो भी For Private And Personal Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८० ] मिथ्या है क्योंकि वनस्पतिका फलना और फूलोंका, फलोंका उत्पन्न होना सो तो समय, हवा, पानी, ऋतुके, कारण होता है इसलिये वनस्पतिको समय ( स्थिति ) परिपाक न हुई होवे तथा हवा भी अच्छी न होवे जलका संयोग न मिले तो अधिक मासके बिना भी वनस्पति नहीं फूलती है और फल भी उत्पन्न नही होते हैं और अधिक मासमें भी स्थिति परिपक्क होनेसे हवा अच्छी लगनेसें जलका संयोग मिलने से फलती है और फूलोंकी, फलों की उत्पत्ति भी होती है । और जैसे बारह मास में उत्पन्न होना, वृद्धि पामना, फूलना, फलना, नष्ट होना, वगैरह वनस्पतिका स्वभाव है तैसेही अधिक मास होनेसे तेरह मास में भी है सेा तो प्रत्यक्ष दिखता है । और 'जो फल श्रावण मास में उत्पन्न होनेवाला होगा सौ पहिले श्रावण में न होते दूसरे श्रावणमें होगा' ऐसा भी सातवें महाशयजीका लिखना अज्ञातसूचक और मिथ्या है क्योंकि जैन पञ्चाङ्गमें और लौकिक पञ्चाङ्गमें अधिक मासका व्यवहार है परन्तु मुसलमानोंमें, बङ्गलामें, अंग्रेजी में, तो अधिकमासका व्यवहार नहीं है किन्तु अनुक्रमसे मास की तारीख मुजब व्ववहार है जब लौकिक में अधिक मास होनेसे अधिक मासमें वनस्पतिका फूलना, फलना नही होने का सातवें महाशयजी ठहराते हैं तो क्या लौकिक अधिकमासमें जो मुसलमानोंकी, बङ्गलाकी और अंग्रेजीको ३० तारीखोंके ३० दिन व्यतीत होवेंगे उसीमें भी वनस्पतिका फूलना फलना न होनेक: सातवें महा For Private And Personal Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३८८ ] शयजी ठहरा सकेंगे से तो कदापि नहीं तो फिर वृथा क्यों कदाग्रही बालजीवोंको मिथ्यात्वकी श्रद्धामें गेरनेके लिये अधिक मासमें वनस्पतिको नहीं फलनेका उत्सूत्र भाषणरूप प्रत्यक्ष मिथ्या स्थापन करते हैं सो न्यायदृष्टि वाले विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ॥ ___और अधिक मासको वनस्पति अङ्गाकार नही करती है इत्यादि लेख चौथे महाशयजी न्यायाम्भोनिधिजीने भी बालजीवों को मिथ्यात्वमें गेरनेके लिये उत्सूत्र भाषणरूप लिखा था जिसकी भी समीक्षा इसीही ग्रन्यके पृष्ठ २०५ सें २१० तक छप गई है सौ पढ़नेसै विशेष निर्णय हो जावेगा। ____ और 'दो चैत्र मास होंगे तो प्रथम चैत्रमें आम्रादि नहीं फलते दूसरे चैत्रमें फलेगें इस विषय सम्बन्धी आवश्यक नियुक्तिके प्रतिक्रमण अध्ययनकी एक गाथा' सातवें महाशयजीने लिख दिखाई-तो तो निःकेवल अपने विद्वत्ता की अजीर्णता प्रगट करी है क्योंकि श्रीआवश्यक नियुक्ति के रचने वाले चौदह पूर्वधरश्रुतकेवली श्रीमान् भद्रबाहु स्वामीजी जैनमें प्रसिद्ध हैं उन्ही महाराजको अनुमान २२७०वर्ष व्यतीत होगये हैं उन्होंके समयमें अठाशी ग्रहोंके गतिकी मर्यादा पूर्वक जैनपञ्चाङ्ग सुरूथा उसीमें पौष और आषाढ़ मासके सिवाय चैत्रादि मासोंकी वृद्धिकाही अभाव था तो फिर श्रीआवश्यक नियुक्तिके गाथाका तात्पर्यार्थको गुरु गमसें समझे बिना दूसरे चैत्रमें आम्रादि फलनेका सातवें महाशयनी ठहराते हैं सो विवेकी बुद्धिमान् कैसे मान्य करेगें अपितु कदापि नहीं। और श्रीआवश्यक नियुक्तिकी गाथा लिखके अधिक For Private And Personal Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९ ] मासको गिनतीमें लेनेका सातवें महाशयजीने निषेध किया है सो भी निःकेवल गच्छ पक्षके आग्रहसे और अपनी विद्वत्ता के अभिमानसे दृष्टिरागी अज्ञजीवोंको मिथ्यात्वमें फँसाने के लिये नियुक्तिकार महाराजके अभिप्रायको जाने बिना वृथाही परिश्रम किया है क्योंकि नियुक्तिकार महाराज चौदह पूर्वधर इतकेवली थे इसलिये श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांका कहा हुवा और गिनतीमें प्रमाण भी करा हुवा अधिक मासको निषेध करके उत्सूत्र भाषण करने वाले बनेंगे यह तो कोई अल्पबुद्धि वाला भी मान्य नहीं करेगा तथापि सातवें महाशयजीने नियुक्ति की गाथासे अधिक मासको गिनतीमें लेने का निषेध करके चौदह पूर्वधर श्रुतकेवली महाराजको भी दूषण लगाते कुछ भी पूर्वापरका विचार विवेक बुद्धिसे हृदयमें नहीं किया यह तो बड़ेही अफसोसकी बात है। और खास इसीही श्रीआवश्यक नियुक्तिमें समयादि कालकी व्याख्यासे अधिक मासको प्रमाण किया है उसी नियुक्तिकी गाथा पर श्रीजिनदासगणि महत्तराचार्यजीने चूर्णिमें, श्रीहरिभद्र सूरिजीने वृहद्वृत्तिमें, श्रीतिलकाचार्य जीने लघुवृत्तिमें, और मलधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने श्रीविशेषावश्यकवृत्तिमें, खुलासा पूर्वक व्याख्या करी है उसीसे प्रगट पने अधिक मासकी गिनती सिद्ध हैं मो इस जगह विस्तारके कारणसे ऊपरके पाठोंकों नहीं लिखता हूं परन्तु जिसके देखने की इच्छा होवे सो नियुक्तिके चौवीसथा-अध्ययनके पृष्ठ ५१में, वहद् इत्तिके पृष्ठ २०६ में और विशेषावश्यकी वृत्तिके पृष्ठ ४९५ में देख लेना । For Private And Personal Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३० ] अब इस जगह विवेकी पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि-खास नियुक्तिकार महाराज अधिकमासको प्रमाण करने वाले थे तथा खास श्री आवश्यक नियुक्ति में ही अधिक मासको प्रमाण किया है सो तो प्रगट पाठ है तथापि सातवें महाशयजीने गच्छपक्षके कदाग्रहसें दृष्टिरागियों को मिथ्यात्वके झगड़े में गेरने के लिये नियुक्तिकार चौदह पूर्वधर महाराजके विरुद्धार्थ में उत्सूत्र भाषणरूप अपनी मति कल्पनासे, नियुक्तिकी गाथा लिखके उसीके तात्पर्य्यको समझे बिनाही अधिक मासको गिनतीमें निषेध करनेका वृथा परिश्रम किया सो कितने संसारकी वृद्धि करी होगी सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने और तत्त्वज्ञ पुरुष भी अपनी बुद्धिसे स्वयं विचार लेवेंगे। __अब इस जगह पाठकवर्गको निःसन्देह होने के लिये नियुक्तिकी गाथाका तात्पर्य्यार्थको दिखाता हूं। श्रीनियुक्तिकार महाराजने श्रीआवश्यक नियुक्ति में छ (६) आवश्यकका वर्णन करते प्रतिक्रमण नामा चौथा आवश्यक में “पडिक्कमणं १ पडिअरणा २, पडिहरणा ३ वारणा ४ णियतिय ५॥ जिंदा ६ गरहा १ सोही८, पडिक्कमणं अहहा होइ" ॥ ३॥ इस गाथासे आठ प्रकारके नाम प्रतिक्रमणके कहे फिर अनुक्रमे आठोंही नामोके निक्षेपोंका वर्णन किया हैं और भव्यजीवोंके उपगारके लिये अद्धाणे १ पासए २ दुद्धकाय ३ विसोयणा तलाए ४॥ दोकमा ५ चितपुत्ति ६ पइमारियाय ७ वत्थेव ८ अढणय" ॥ १२ ॥ इस गाथासै प्रतिक्रमण सम्बन्धी आठ दृष्टांत दिखाये जिसमें पांचवा गियत्ति अर्थात् निवृत्ति सो उन्मार्गसे हट करके For Private And Personal Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९१ ] सन्मार्गमें प्रवर्तने सम्बन्धी दो कन्याका एक दृष्टांत दिखाया है जिसकी चर्णिकारने, वृहद् वृत्तिकारने और लघुपत्तिकारने खुलासा पूर्वक, व्याख्या करी है और द्रव्य निवृत्ति पर दृष्टांत दिखाके, फिर भाव निवृत्ति पर उपनय करके दिखाया है, उसीके सब पाठोंको विस्तार के कारणसे हम जगह नहीं लिखता हूँ परन्तु जिसके देखनेकी इच्छा होवे सो चर्णिके २६४ पृष्ठमें, तथा वृहद् कृत्तिके २३३ पृष्ठ में देखलेना। और पाठकवर्गको लघुवृत्तिका पाठ इस जगह दिखाता हूँ श्रीतिलकाचार्यजी कृत श्री आवश्यक लघु वृत्तिके १९६ पृष्ठ यथा एकत्र नगरे शाला, पतिः शालासु तस्य च ॥ धूर्तावयंति तेष्वेको, धर्तो मधुरगी सदा ॥१॥ कुविंदस्य सुता तस्य,तेन साईमयुज्यत॥ तेनोचे साथ नश्यामो, याववत्ति न कश्चनः ॥२॥ तयोचेमे वयस्यास्ति, राजपुत्री तया समं ॥ संकेतो. स्ति यथा द्वाभ्यां, पतिरेक करिष्यते ॥३॥ तामप्यानयतेनोचे, साथ तामप्यचालयत् ।। तदा प्रत्यषे महति, गीतं केनाप्यदः स्फुटं ॥ ४ ॥ “जइ फुल्ला कमियारया, चअगअहि मासयंमिघटुंमि ॥ तुह न खमं फुल्लेउ, जइ पच्चंता करिंति इमराइं" ॥ “नखमं नयुक्तं प्रत्यंता नीचकाः डमराणि विप्लवरूपाणि शेषं स्पष्ठ ॥ अत्वैव राजकन्या सा दध्यौ चतं महातरुम् ॥ उपालब्धो वसंतेन, कर्णिकारोउधमस्तरुः ॥॥ पुष्पितो यदि किं युक्तं, तवोत्तमतरोस्त्वया ॥ अधिक मास घोषणा, किं न तेत्यस्यगीः शुभा ॥६॥ चेत्कुविंदी करोत्येवं, कर्तव्यं कि मयापि तन् ॥ निहत्तासामिषाद्रत्न, करंडोमेस्ति विस्मृतः॥ ॥ राजसूः कोपि तत्राहि, गोत्रजैस्त्रासितो For Private And Personal Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३२ ] निजैः ॥ तज्ज्ञातं शरणी चक्रे, प्रदत्ता तेनतस्य सा ॥८॥ तेन श्वशुर साहाय्यानिर्जित्यनिजगोत्रजान ॥ पुनलेभे निजं राज्य, पट्टराज्ञी बभूव सा ॥ २९ ॥ निवृत्तिव्यतोभाणि, भावे चोपनयः पुनः ॥ कन्यास्थानीया मुनयो, विषया धर्स सन्निभाः ॥१०॥ योगीति गानाचार्योपदेशात्तेभ्यो निवर्त्तते ॥ सुगर्भाजनं सस्या, दुर्गतेस्त्वपरः पुनः ॥ ११ ॥ अब विवेकी तत्त्वज्ञपुरुषोंको इस जगह विचार करना चाहिये कि राज्यकन्या उन्मार्गमें प्रवर्तने लगी तब उसी को समझाने के लिये कविने चातुराईसे दूसरेकी अपेक्षा ले कर “जइ फुल्ला" इत्यादि गाथा कही है सो तो व्याख्याकारोंने प्रगट करके कहा है तथापि सातवें महाशयजी नियुक्तिकार महाराजके अभिप्रायको समझे बिनाही राजकन्याके दृष्टान्तका प्रसङ्गको छोड़ करके बिना संबंधकी एक गाथा लिखके अधिक मासमें वनस्पतिको नहीं फलनेका ठहराया परन्तु दीर्घ दृष्टि से पूर्वापरका कुछ भी विचार न किया क्योंकि वसन्त ऋतु मुखसे बोल के आम्र को ओलम्भा देती नहीं, तथा आम सुनता भी नहीं और जैन ज्योतिषके हिसाबसे वसंत ऋतुमें अधिक मास होता भी नहीं, और अधिक मास होनेसे वनस्पतिको कोई उद्घोषणा करके सुनाता भी नहीं है। परन्तु यह तो ग्रन्थकार महाराजने अपनी उत्प्रेक्षारूप चातुराईसे दूसरेकी अपेक्षा ले करके प्रासङ्गिक उपदेशके लिये कहा है इसलिये वास्तवमें अधिक मासको उद्घोषणा आम्रको सुना करके वसन्त ऋतके ओलंभा देने सम्बन्धी नहीं समझना चाहिये क्योंकि वर्तमानक पञ्चाङ्गमें चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, For Private And Personal Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २५ ] श्रावणादि मासों की वृद्धि होनेसें उन अधिक मासोंके समयमें देशदेशान्तरे आम्र वृक्षादिका फूलना, फलना और आमोंका उत्पत्ति होना प्रत्यक्ष देखने में और सुननेमें आता है और किसी देशमें माघ, फाल्गुन मासमें तो क्या परंतु हरेक मासोंमें भी आम्र फूलते हैं और अधिक मासके बिना भी हरेक मासोंमें कणियर भी फूलता रहता है इसलिये शास्त्रकार महाराजका अभिप्रायके विरुद्ध और कारण कार्य्य तथा आगे पीछेको सम्बन्धको प्रस्ताविक बातको छोड़ करके अधूरा सम्बन्ध लेकर शब्दार्थ ग्रहण करनेसे तो बड़ेही अनर्थका कारण होजाता है, जैसे कि - श्रीसूयगड़ाङ्गजीमें वादियोंके मत सम्बन्धकी बातको, श्रीरायप्रशेनी में परदेशी राजाके सम्बन्धकी बातको श्रीआवश्यकजीकी और श्रीउत्तराध्ययनजीको व्याख्यायोंमें नियोंके सम्बन्धकी बातको, और श्रीकल्पसूत्रकी व्याख्यायों में श्रीआदिजिनेश्वर भगवान् के वार्षिक पारणेके अवसर में दोनुं हाथोका विवाद के सम्बन्धकी बातको इत्यादि पञ्चाङ्गी के अनेक शास्त्रों में सैकड़ो जगह शब्दार्थ और होता है परन्तु शास्त्र कार महाराजका अभिप्राय औरही होता है इसलिये उस जगहकी व्याख्या लिखते पूर्वापरका सम्बन्ध रहित और शास्त्रकार महाराजके अभिप्राय विरुद्ध निःकेवल शब्दार्थको पकड़ करके अन्य प्रसङ्गको अन्य प्रसङ्गमें अधूरी बातको लिखने वाला अनन्त संसारी मिथ्या दृष्टि निहूव कहा जावे, तैसेही श्रीआवश्यक नियुक्तिकार महाराजके अभिप्रायके विरुद्धार्थमै शब्दार्थको पकड़ करके बिना सम्बन्धको और अधूरी बात लिखके जो सातवें महाशयजीने बालजीवों ५० For Private And Personal Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९४ ] को मिथ्यात्व में फँसानेका उद्यम किया है सो निःकेवल उत्सूत्र भाषण रूप होने से संसार बृद्धिका हेतुभूत है सो विवेकी तत्त्वज्ञ पुरुष अपनी बुद्धिसे स्वयं विचार लेवेंगे ; और फिर भी श्री आवश्यक निर्युक्लिकी गाथा की बातपर सातवें महाशयजीने अपनी चातुराई भोले जीवोंको दिखाई है कि ( कुशाग्र बुद्धि आज्ञा निबद्ध हृदय आचायने अधिक मासको गिनती में नहीं लिया है उसी तरह तुम्हे भी लेखामें नहीं लेना चाहिये जिससे पूर्वोक्त अनेक दोषोंसे मुक्त होकर आज्ञाके आराधक बनोगे ) सातवें महाशयजीका यहभी लिखना अपनी विद्वत्ताके अजीर्णतासे संसार वृद्धिका हेतु भूत उत्सूत्र भाषण है क्योंकि निर्युक्लिकी गाथामें तो अकिध नसकी गिनती निषेध करने वाला एक भी शब्द नहीं है परन्तु श्री अनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंने अनन्ते कालसे अधिक मासको गिनती में लिया है इस लिये तत्त्वच बुद्धिवाले श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञा के आराधक जितने आत्मार्थी उत्तमाचार्य हुवे है उन सबी महानु भावोंने अधिक मासको गिनती में लिया है और आगे भी लेबेंगे इसलिये इसकलियुग में जो जो अधिक मासको गिनती में लेनेका निषेध करनेवाले हो गये हैं तथा वर्त्त मान में सातवें महाशयजी वगैरह है सो सबीहो पञ्चाङ्गीकी श्रद्धा रहित श्रीजिनाज्ञाके उत्थापक है क्योंकि अधिक मासको गिनती में करने सम्बन्धी २२ शास्त्रोंके प्रमाणतो इसीही ग्रन्थ के पृष्ठ २७/२८ में छप गये हैं और श्रीभगवतीजीमें २३, तथा तद्वृत्तिमें २४, श्रीअनुयोगद्वार में २५, तथा For Private And Personal Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९५ ] तवृत्तिमें २६, श्रीव्यवहारवृत्तिमें २७, श्रीआवश्यकनियुक्तिमें २८, तथा चूर्णिमें २९, वहद्वत्तिमें ३०, लघुत्तिमें ३१, और श्रीविशेषावश्यकवत्तिय ३२, श्रीकल्पसूत्रमें ३३, तथा श्रीकल्प. सूत्रकी सात व्याख्यायोंमें ४०, श्रीजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में ४१, तथा श्रीजम्बूद्वीप प्राप्तिकी पांच व्याख्यायोंमें ४६, श्रीगच्छाचार पयन्नाको वृत्तिमें ४७, श्रीज्योतिष करण्डपयन्नामें ४८, तथा सवृत्ति ४९, श्रीदशाश्रुतस्मान्धसूत्रकी चूर्णिमें ५०, श्रीविधिप्रपामें ५१, श्रीमण्डलप्रकाशमें ५२, सैन प्रश्नमें ५३, और नवतत्त्वकी चार व्याख्यायोंमें ५७, और श्रीतत्त्ववार्थकी वृत्तिऐं ५८, इत्यादि पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रों के प्रमाणोंसे अधिक मातकी गिनती स्वयं सिद्ध है। इसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक पञ्चाङ्गीकी श्रद्धावाले आत्मार्थी प्राणियोंको तो अधिक मासकी गिनती अवश्यमेव प्रमाण करना चाहिये जिससे कुछ भी दूषण नहीं लग सकता है परन्तु निषेध करने वाले है सो और पञ्चाङ्गी मुजब अधिक मासका प्रमाण करनेवालोंको अपनी कल्पनासे मिथ्या दूषण लगाते हैं सो संसारमें परिभ्रमण करने वाले उत्सूत्र भाषक और अनेक दूषणोंके अधिकारी हो सकते है मो तो पाठकवर्ग भी विचार सकते हैं । और पञ्चाङ्गीके एक अक्षरमात्रको भी प्रमाण न करने वाले को तथा पञ्चाङ्गीके विरुद्ध थोडीसी बातकी भी परूपना करने वालेको मिथ्या दृष्टि निहूव कहते है सो तो प्रमिद्ध बात है तो फिर पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रानुसार अधिक मासकी गिनती सिद्ध होते भी, नही मानने वालेको और इतने पञ्चाङ्गोके शास्त्रोंके प्रमाण विरुद्ध परूपना For Private And Personal Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir करने वालेको मिथ्या दृष्टि महानिहव कहने में कुछ हरजा होवेतो तत्त्वज्ञ पुरुपोंको विचार करना चाहिये। ____ अब अनेक दूषणों के अधिकारी कौंन हैं और जिनाज्ञाके आराधक कौन हैं सो विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ;___और भी आगे पर्युषणा विचारके छट्ठ पृष्ठकी ६ पंक्ति से १८ वी पंक्ति तक लिखा है कि ( वादीकी शङ्का यहाँ यह है कि अधिक मासमें क्या भूख नहीं लगती, और क्या पापका बन्धन नहीं होता, तथा देवपूजादि तथा प्रतिक्रमणादि कृत्य नहीं करना ? इसका उत्तर यह है कि क्षधावेदना, और पापबन्धनमें मास कारण नहीं है, यदि मास निमित्त हो तो नारकी जीवोंको तथा अढाईद्वीपके बाहर रहने वाले तिर्यञ्चोको क्षुधावेदना तथा पापबन्य नहीं होना चाहिये। वहाँ पर मास पक्षादि कुछ भी कालका व्यवहार नहीं है। देवपूजा तथा प्रतिक्रमणादि दिनसे बद्ध है मासबद्ध नहीं है। नित्यकर्मके प्रति अधिक मास हानिकारक नहीं है, जैसे नपुंसक मनुष्य स्त्री के प्रति निष्फल है किन्तु लेना ले जाना आदि गृहकार्यके प्रति निष्फल नहीं है उसी तरह अधिक मासके प्रति जानों) अपरके लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्गको दिखाता हूं कि हे सज्जन पुरुषों सातवे महाशयजीने प्रथम वादीकी तरफसें शङ्का उठा करके उसीका उत्तर देने में खूबही अपनी अन्जता प्रगटकरी है क्योंकि क्षुधा लगना सो तो वेदनी कर्मके उदयसे सर्व जीवोंको होता है और वेदनी कर्म भधिक मासमें भी समय समय में बन्धाता है तथा उदय भी For Private And Personal Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Achar [ ३८७ ] आता है और उसकी निवृत्ति भी होती है इसलिये अधिक माममें क्षुधा लगती है और उसीकी निवृत्ति भी होती है। और पाप बन्धनमें भी लन, वचन, कायाके योग कारण है उसीसे पाप बन्धन रूप कार्य होता है और मन, बचन, कायाके, योग ममय समयमें शुभ वा अशुभ होते रहते हैं जिससे समय समय पण्य का अथवा पाप का बन्धन भी होता है और समय समय करकेही आवलिका, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, संबल्सर, युगादिसें यावत् अनन्त काल व्यतीत होगये हैं तथा आगे भी होवेंगे इसलिये अधिक मासमें पुण्य पापादि कार्य भी होते हैं और उसीकी निवृत्ति भी होती है और समयादि कालका व्यतीत होना अढाई द्वीपमें तथा अढाई द्वीपके बाहरमें और ऊर्द्ध लोकमें, अधोलोकमें सर्व जगह में है इसलिये यहांके अधिक मासका कालमें वहां भी समयादिसे काल व्यतीत होता है इसीही कारणसे यहाँके अधिक मासका काल में यहांके रहने वाले जीवोंकी तरहही वहांके रहनेवाले जीवोंको वहां भी क्षधा लगती है और पुण्य पापादिका बन्धन होता है और यद्यपि वहां पक्षमासादिके वर्तावका व्यवहार नहीं है परन्तु यहांझी और वहां भी अधिक मासके प्रमाणका समय व्यतीत होना सर्वत्र जगह एक समान है इसीही लिये चारोंही गतिके जीवोंका आयुष्यादि काल प्रमाण यहांके संवत्सर युगादिके प्रमाणसें गिना जाता है जिससे अधिकमासके गिनतीका प्रमाण-संवत्सर, युग, पूर्वाङ्ग, पूर्व, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, वगैरह सबी कालमें साथ गिना जाता है तथापि सातवें महाशयजी अधिकमासके For Private And Personal Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३९८ । कालमें नारकी जीवोंको तथा अढाई द्वीपके बाहेर रहने वाले जोवोंको क्षधा वेदना तथा पापबन्धन नहीं होनेका लिखते हैं मो अज्ञताके सिवाय और क्या होगा सो पाठकवर्ग स्वयं विवार लेवेंगे ;__ और ( देवपूजा प्रतिक्रमणादि दिनसे बढ़ है मास बद्ध नही है नित्य कर्म के प्रति अधिकमास हानि . कारक नही है) सातवें महाशयजोका यह भी लिन्दना मायावृत्तिसे बालजीवोंको भ्रमानेके लिये मिथ्या है क्योंकि देवपूजा प्रतिक्र नणादि जैसे दिनसे प्रतिबद्धवाले है तैसे ही पक्ष, मासादिसे भी प्रतिबदु वाले है इमलिये पक्ष, मामादिमें जितनी देव पूजा और जितने प्रतिक्रमणादि धर्मकार्य किये जावे उतनाही लाभ मिलेगा और पुण्य अथवा पापकार्य से आत्माको जैते दिवस लाभकारक अथवा हानिकारक होता है तैसेही पक्ष मासादिमें पुण्य अथवा पाप होनेसे पक्ष मासादि भी लाभकारक अथवा हानिकारक होता है इमलिये पक्ष मासादिकके पुण्य कार्योंकी अनुमोदना करके उस पक्ष मासादिको अपने लाभकारी माने जाते हैं तैसेही पक्ष नासादिमें पापकाय्यं हुवे होवे उत्तीका पश्चात्ताप करके उसीकी आलोचना लेने में आती है और उप्ती पक्ष मासादिको अपने हानिकारक समझे जाते हैं और एक पक्षके १५ राइ तथा १५ देवती और एक पाक्षिक प्रतिक्रमण करने में आता है तैसे ही एक मासमें ३० राइ तथा ३. देवसी और दो पाक्षिक प्रतिक्रमण करने में आते हैं मो तो प्रत्यक्ष अनुभव से प्रसिद्ध है इसलिये एक मासके ३० दिनोंमें सब संसार व्यवहार और पुण्य पापादि कार्य होते ना सावं For Private And Personal Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३ ] महाशयजी उसीकी गिनतीका निषेध करते हैं सो तो प्रत्यक्ष अन्याय कारक वृथा है इस बातको पाठकवर्ग भी स्वयं विचार सकते हैं और तीनो महाशयोंने भी ऊपरकी बात संबन्धी बाल लीलाको तरह लेख लिखा था जिसकी भी ममीक्षा इसीही ग्रन्थके पृष्ठ १४२।१४३ में छप गई है सो पढ़ने में विशेष निःसन्देह हो जावेगा;___ और ( जैसे नपंसक मनुष्य स्त्री के प्रति निष्फल है किन्तु लेना लेजाना आदि गृहकार्यके प्रति निष्फल नहीं है उसी तरह अधिक मासके प्रति जानों ) इन अक्षरों करके सातवें महाशयजीने देवपूजा मुनिदान आवश्यकादि ३० दिनों में धर्मकार्य होते भी पर्युषणादि धर्मकार्यों में ३० दिनोंका एक मामको गिनतीमें निषेध करने के लिये अधिक मासको नपंसक ठहरा करके बालजीवोंको अपनी विद्वत्ताकी चातुराई दिखाई है से तो निःकेवल उत्सूत्रभाषण करके गाढ़ मिथ्यात्वसे संसार वृद्धिका हेतु किया है क्योंकि श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधर पूर्वधरादि महाराजोंने जैसे मन्दिरजीके ऊपर शिखर विशेष शोभाकारी होता है उसी तरह कालका प्रमाणके ऊपर शिखररूप विशेष शोभाकारी कालचूलाकी उत्तम ओपमा अधिक मासको दिई है और अधिकमास को गिनतीमें सामिल ले करकेही तेरह मासका अभिवर्द्धित संवत्सर कहा है जिनका विस्तारसें खुलासा इसीही ग्रन्थके पृष्ठ १८ से ६५ तक छयगया है तथापि सातवें महाशयजीने श्रीअनन्त तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आजा उल्लङ्घनरूप तथा आशातना कारक और पञ्चाङ्गीके प्रत्यक्ष प्रमाणोंको छोड़ करके अधिक मामको नपंसककी हलकी For Private And Personal Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०० ] ओपमा लिखके अधिक मासको हिलना करी और संसार वृद्धिका कुछ भी भय न किया सो वढेही अफसोसकी बात है: और वैष्णवादि लोग भी अधिकमासको दानपुण्यादि धर्मकायों में तो बारह मासेांसे भी विशेष उत्तम “पुरुषोतम अधिक मास" कहते हैं और उसीकी कथा सुनते हैं और दानपुण्यादि करते हैं और पञ्चाङ्गमें भी तेरह मास, छवीश पक्षका वर्ष लिखते हैं से तो दुनिया में प्रसिद्ध है तथापि सातवें महाशयजी अधिक मासको नपुंसक कहके उसको गिनतीमें निषेध करते हुबे, तेरहमा अधिक मासको सर्वथाही उड़ा देते हैं और दुनियाके भी विरुद्धका कुछ भी भय नहीं करते हैं से भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका नमूना है क्योंकि सातवें महाशयजो काशी बहुत वर्षों से ठहरे हैं और अधिक मास होनेते परुषोत्तन अधिक मासके महात्म की कथा काशीमें और सब शहरोंने अनेक जगह वंचाती है सौता प्रसिद्ध है और जैनशास्त्रानुसार तथा लौकिक शास्त्रानुसार धर्मकार्यों में अधिक भाम श्रेष्ठ है, तथापि सातवें महाशयजी नपुंसक ठहराते हैं सेले ऐसा होता है कि-- किसी नगरमें एक शेठ रहता था, मो रूपलावण्य करके युक्त और धर्मावलम्बी था इसलिये उसीने परस्त्री गमनका और वेश्याके गमनका वर्जन किया था, सा शेठ किसी अवसरमें बजारके रस्तेसे चला जाता था उसी रस्तेमें कोई व्यभिचारिणी स्त्रीका और वेश्याका मकान आया, तब वह अठ उसीका मकानके पास हो करके आगेको चला गया परन्तु उसीके मकानपर न गया तब उस शेठको देखकर वह For Private And Personal Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०९ ] व्यभिचारिणी स्त्री और बेश्या कहने लगी कि, यह तो नपुंसक है इसलिये हमारे पास नहीं आता है। ___अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि-जैसे उस व्यभिचारिणी स्त्रीका और वेश्याका मन्तव्य लस शेठसे परिपूर्ण न हुवा तब उसी को नपुंसक कहके उसीकी मिन्दा करी परन्तु जो विवेकबुद्धि वाले न्यायवान् धर्मी मनुष्य होयेंगे से तो उस शेठको नपुंसक म कहते हुवे उत्तमपुरुष ही कहेंगे, तैसेही सातवें महाशयजी भी अधिक मासको गिनतीमें लेनेका निषेध करने के लिये उत्सूत्र भाषणरूप अनेक कुथुक्तियोंका संग्रह करते भी अपना मन्तव्यको सिद्ध नहीं कर सके तब नपुंसक कहके अधिक मासकी निन्दा करी और श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञा उम्मङ्घन होनेसे संसार वृद्धिका भय न किया परन्तु जो विवेक बुद्धि वाले न्यायवान् धर्मी मनुष्य होवेंगे सो तो अधिक मासको नपुंसक म कहते हुवे श्रीतीर्थङ्कर मणधरादि महाराजांकी आज्ञानुसार विशेष उत्तमही कहेंगे सो तत्त्वज्ञ पाठक वर्ग स्वयं विचार लेवेंगे ;--- और अधिक मासको नपंसक कहके धर्म कार्योंमें निषेध करने के लिये चौथे महाशयजीने भी उत्सूत्र भाषण रूप कुयुक्तियों के संग्रहवाला लेख लिखके बाल जीवोंको मिथ्यात्त्व में गेरनेका कारण किया था जिसकी भी समीक्षा इसीही ग्रन्थके पृष्ट २००से २०४ तक अच्छी तरहसे खुलासा पूर्वक छप गई है सो पढ़नेसे विशेष निःसन्देह हो जावेगा; और जैसे धर्मी पुरुषोंको पर स्त्री देखने में अधेिकी तरह होना चाहिये परन्तु देव गुरु के दर्शन करने में तो For Private And Personal Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०२ ] चार आंख वालेकी तरह हो जाना चाहिये तैसेही यह शेठ पुरुष है परन्तु पर स्त्रीके गमनका और वेश्याके गनमका वर्जन करनेवाला धर्मावलम्बी होनेसे उनके साथ मैथुन सेवन करनेमें तो नपुंसककी तरह हैं परन्तु अपने नियमका प्रतिपालन करके ब्रह्मचर्य्य धारण करनेमें ता समर्थ होनेसे उत्तम पुरुषकी तरह है अर्थात् आपही उस गुणसे उत्तम पुरुष हैं इसी न्यायानुसार यद्यपि अधिक मास भी गिनती प्रमाणका व्यवहार में तो बारह मासों के बरोबरही पुरुष रूप है उसीमें वैष्णव लोग दान पुण्यादि विशेष करते हैं और उसीके महात्म्यकी कथा सुनते हैं इसीलिये उसीको पुरुषोत्तम अधिक मास कहते हैं । और श्रीजैन शास्त्रों में भी मन्दिर के शिखरवत् कालका प्रमाणके शिखर रूप उत्तम ओपमा अधिक मासको है । उसीमें मुहूर्त नैमित्तिक विवाहादि आरम्भ वाले संसा रिक कार्य्य नहीं होते हैं परन्तु धर्म कार्य्य तो विशेष होते हैं इसलिये उपरोक्त न्यायानुसार मुहूर्त्त नैमित्तिक आरम्भ वाले संसारिक कार्योंमें तो अधिक मास नपुंसककी तरह है परन्तु धर्म कार्योंमें तो विशेष उत्तम होनेसे सबसे अधिक है इसलिये इसका अधिक नास ऐसा नाम भी सार्थक है तथापि धर्म कार्यों और गिनतीका प्रमाण में उसीको नपुंसक ठहरा करके अधिक मासको जिन्दा करते हुए उसीकी गिनती निषेध करते हैं तो वह व्यभिचारिणो स्रोका और वेश्याका अनुकरण करनेवाले हैं सो पाठकवर्ग विश्वार लेबेंगे और अब सातवें महाशयजीके आगेका लेखकी समीक्षा करके पाठ वर्षको दिखाता हूं पर्युषणा विश्वारके उट्ठे पृष्टकी १९ वीं पंक्ति में सातवें पृष्टकी For Private And Personal Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०३ ] चौथी पंक्ति तक लिखा है कि-(जैन पञ्चाङ्गानुसार तो एक युगमें दो ही अधिक मास आते हैं अर्थात् युगके मध्यमें आपाढ़ दो होते हैं और युगान्त में दो पौष होते हैं। दो प्रावण दो भाद्र और दो आश्विन वगैरह नहीं होते । इस भावकी सूचना देने वाली पाठ देखो:"जई जग मज्ज तो दोपोसा जई जग अन्ते दो आसाढ़ा" यद्यपि जैन पञ्चाङ्गका विच्छेद हो गया है तथापि युक्ति और शास्त्र लेख विद्यमान है) सातवें महाशयजीका इस लेख पर मेरेको इतनाही कहना है कि-शास्त्रके पाठसे एक युगमें दो अधिक मास होनेका आप लिखते हो सो यह दोनों अधिक मास जैन शास्त्रानुसार गिनतीमें लिये जाते थे तो फिर ऊपर ही "कुशाग्रह बुद्धि आशानिबद्ध हृदय आचार्योंने अधिक मासको गिमतीमें नहीं लिया है" ऐसे अक्षर लिखके पर्युषणा विचारके सब लेखमें अधिक मासकी गिनती निषेध क्यों करते हो क्या आपको शास्त्रको वाक्य प्रमाण नहीं है, यदि है तो आपका निषेध करना संसार रद्धिका हेतु भूत उत्सूत्रभाषण होनेसे बाल जीवोंको मिथ्यात्वमें फंसाने वाला है से विवेकी पाठक वर्ग स्वयं विचार सकते हैं ; और शास्त्र के पाटमें तो युगके मध्य में दो पौष और युगान्तमें दो आषाढ़ खुलासे कहे हैं तथापि सातवें महाशयजी युगके मध्यमें दो आषाढ और युगान्तमें दो पौष लिखते हैं सो तो बहुत वर्षों से काशीमें अभ्यास करते हैं इसलिये विद्वत्ताके अजीर्णतासे उपयोग शून्यताका कारण है ; For Private And Personal Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०४ 1 ___ और श्रीचन्द्रप्रज्ञप्ति, श्रीसर्यप्रज्ञप्ति, श्रीजंब द्वीप प्र. अप्ति और श्रीज्योतिषकरंडपयन्न वगैरह शास्त्रानुसार तथा उन्होकी व्याख्यायों के अनुसार अधिक मास होने का कारण कार्य तथा गिनतीका प्रमाणको जो सातवें महाशयजी किसी सद्गुरुसे पढ़के तात्पर्यार्थ को समझते और श्री भगवतीजी श्रीअनुयोगद्वार वगैरह शास्त्रानुसार समय, आवलिकादि कालकी व्याख्याको विचारते तो अधिक मासकी गिनती निषेध कदापि नहीं करते और दो श्रावणं दो भाद्र, दो आश्विन वगैरह नहीं होनेका लिखने के लिये लेखनी भी नहीं चलाते से पाठक वर्ग विचार लेबेंगे :__और भी आगे पर्युषणा विचार के सातवें पृष्ठ में लिखा है कि (लौकिक पञ्चाङ्गानुसार अधिक मासको लेखामें गिनने वाले महाशयोंसे पूछता हूं कि यदि आश्विन दो होंगे तो साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणान्तर सत्तरवें दिनमें चौमासी प्रतिक्रमण करोगे कि नहीं, यदि नहीं करोगे तो समवायाङ्ग सत्रके पाठकी क्या गति होगी ? अगर चौभासीका प्रतिक्रमण करोगे तो दूसरे आश्विन सुदी पूर्णमासीके पीछे विहार करना पडेगा। आश्विन मासको लेखामें न गिनकर सत्तर दिन कायम रक्खोगे तो श्रावण अथवा भाद्रमासको लेखामें में गिनकर पचास दिन कायम रख कर भगवान्की आज्ञाके अनुसार भाद्र सुंदी चौथ के रोज साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण क्यों नहीं करते ) इस लेख पर भी मेरेको इतनाही कहना है कि जैन पञ्चाङ्गके अभावसे लौकिक पञ्चाङ्गानुसार वर्ताव करनेको पूर्वाचार्यो की आज्ञा है इसलिये कालानुसार श्रीजैन For Private And Personal Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ you ] शासन में लौकिक पञ्चाङ्ग मुजबही तिथि, वार, घड़ी, प, नक्षत्र, योग, सूर्योदय, दिनमान, तिथिकी हनी, वृद्धि, राशि चन्द्र, पक्ष, मांस, मुहर्त्तं वगैरह से संसार व्यवहार में और धर्म व्यवहारमें वर्ताव करनेमें आता है इसलिये लौकिक पञ्चाङ्गमें जिस मासको वृद्धि होवे उसीको मान्य करके उसी मुजब संसार व्यवहारमें और धर्म व्यवहार में वर्ताव होनेका प्रत्यक्षमें बनता है इसलिये लौकिक पञ्चाङ्ग में दो श्रावण, दो भाद्रपद और दो आश्विन वगैरह होवे उसी के गिनतीको निषेध न करते हुवे प्रमाण करना सो तो पूर्वाचार्यकी आज्ञानुसार तथा युक्ति पूर्वक और प्रत्यक्ष अनुभव से स्वयं सिद्ध है इसलिये अधिक मासकी गिनती निषेध करने वाले अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करने वाले प्रत्यक्षमें बनते है सेा तो विवेकी सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे ; और दो आश्विन होनेसे साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणके बाद 90 दिने चौमासी प्रतिक्रमण करके दूसरे आश्विन में विहार करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि अधिक मार्स होनेसे साम्वत्सरिक प्रतिक्रमणके बाद १०० दिने कार्त्तिकमें चौमासी प्रतिक्रमण करके विहार करने में आता है से शास्त्रानुमार और युक्ति पूर्वक न्यायकी बात है इसलिये कोई भी दूषण नहीं लब सकता है इसका खुलासा इसी हो ग्रन्थ के पृष्ठ ३५९ ३६० में छप गया है और “ समवायाङ्ग सूत्रके पाठकी क्या गति होगी” सातवें महाशयजीका यह लिखना अभिनिवेशिक मिथ्याast प्रगट करने वाला उत्सूत्र भाषण रूप संसार वृद्धिका For Private And Personal Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०६ ] हेतु भूत है क्योंकि श्रीसमवायाङ्गजी सूत्रका पाठ तो श्रीगणः धर महाराजका कहा हुआ है और चार मासके सम्बन्ध वाला है इसलिये उसीकी तो सदाही अच्छी गति है और धार मासके वर्षाकालमें उसी मुजब वर्तने में आता है परन्तु सातवें महाशयजी सूत्रकार महाराजके विरुद्धार्थ में पांच मासके वर्षाकाल में भी उसी पाठको स्थापन करने के लिये सत्रके पाठ पर ही आक्षेप करते हैं और बाल जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरते हैं सो क्या गति प्राप्त करेंगे सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने___और “ आश्विन मासको लेखामें न गिनकर सत्तर दिन कायम रक्खोगे" यह भी सातवें महाशयजीका लिखना मिथ्या है क्योंकि हम तो आश्विन मासको लेखा में गिन करके १०० दिन कायम रखते हैं इस लिये मिथ्या भाषण करनेते महानतके भङ्गका सातवें महाशयजीको भय लगता हो तो मिथ्या दुष्कत देना चाहिये-- और “श्रावण अथवा भाद्रमासको लेखामें न गिनकर पचास दिन कायम रख कर भगवान् की आज्ञाके अनुसार भाद्र सुदी चौथके रोज सम्वत्सरिक प्रतिक्रमण क्यों नहीं करते" सातवें महाशयजीका इस लेख पर मेरेको इतनाही कहना है कि मास इद्धिके अभावले आषाढ चौमासीसे पचास दिने भाद्र शुदी चौथको पर्युषणामें सांवत्सरिक प्रतिक्रमण वगैरह करनेकी तो श्रीजिनेश्वर भगवान्की आज्ञा है परन्तु पचासवें दिनकी रात्रिकोभी उल्लंघन करना नही कल्पता इसलिये दो श्रावण होनेसे श्री कल्पसत्रके तथा उन्होंकी व्याख्यायों के अनुसार ५० दिनकी गिनतीसे दूसरे श्रावण में For Private And Personal Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०७ ] अथवा प्रथम भादमें पर्युषणा करना चाहिये परंतु मास वृद्धि दो श्रावण होतेभी ८० दिने भाद्र शुदी में पर्यषणा करके भी निर्दुषण बनने के लिये अधिक मासके ३० दिनोंको गिनतीमे छोड़करके ८० दिनके ५० दिन गच्छपक्षी बाल जीवोंके आगे कहके आप आज्ञाके आराधक बनना चाहते हैं सो कदापि नहीं हो सकते है क्योंकि श्रीभगवतीजी श्रीअनुयोगद्वार श्रीज्योतिषकरंडपयन और नव तत्व प्रकरणादि शास्त्रानुमार तथा इन्हींकी व्याख्यायोंके अनुसार समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मासादिसे जो काल व्यतीत होवे उसी कालका समय मात्रभी गिनती में निषेध नहीं हो सकता है तथापि निषेध करनेवाले पंचांगीकी श्रद्धारहित और श्री जिनाज्ञाके उत्थापक निन्हव, मिथ्या दृष्टि-संसार गामी कहे जावे, तो फिर एक मासके ३० दिनोंको गिनती में निषेध करने बालेको पंचांगीकी श्रद्धा रहित और श्रीजिनाज्ञाके उत्थापक अभिनिषेशिक मिथ्यात्वी कहने में कुछ भी तो दूषण मालूम नही होता है इसलिये अधिक मास के ३० दिनोंकी गिनती निषेध करने वाले मिथ्या पक्षग्राहियोंकी आत्माका कैसे सुधारा होगा सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने । इसलिये दो आश्विन होनेसे भाद्र शुदी चौथसे कार्तिक तक १२० दिन होते है जिसके ७० दिन अपनी मति कल्पनासे बनाने वाले और दो श्रावण होनेसे भाद्रतक ८० दिन होते हैं जिसके तथा दो भाद्र होनेसे दूसरे भाद्र तक ८० दिन होते हैं जिसके भी ५० दिन अपनी मति कल्पनासे बनाने वाले अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी होनेसे आत्मार्थियों को उन्होंका पक्ष छोड करके इस ग्रन्यको सम्पूर्ण पढ़ For Private And Personal Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४०८ ] कर सत्य बातको ग्रहण करना चाहिये जिसमें आत्मकल्याण है नतु अधिक मासके गिनतीका निषेध रूप अंध परंपराका मिथ्यात्व में; - -- और इसके आगे फिरभी मासवृद्धि होतेभी भाद्र पदमें पर्युषण ठहराने के लिये पर्युषणा विचारके सातवें पृष्ठके अन्त ते आठवें पृष्ठ तक लिखा है कि- (पर्युषणाकल्पचूर्णि, तथा महानिशीवचूर्णिके दसवें उद्देशेमें इसी तरहका पाठ है, “ अन्नया पज्जोसवणादिवसे आगए अज्जका लगेण सालवाहणो भणिओ, भट्टद्वयजुरहपञ्चमीए पज्जो सबणा" इ० तथा “ तत्थ य सालवाहणो राया, सेा असावगा, सेा भ कालगञ्ज इंतं सैाऊण निग्गओ, अभिमुहा समणसंघो अ, महाविभूईए पविट्ठो कालगज्जी, पषिद्ध हिंअभणिअं भवयमुद्ध पञ्चमीपज्जो सचिज्जई समणसंथेण पडिवरणं ता ररणामणिअं तद्दिवसं मम लोगानुवत्तीए इंदो अणुजाणेयव्बो होहित्ति साहू चेइए अणुपज्जुवासिस, तो बट्ठीए पज्जेोसवणा किज्जइ, आयरिएहिं भणिअं न वट्ठिति अतिक्कमितुं, ताहे ररणा भणिअं ता अणागए उत्थीए पज्जोसविति, आयरिएहि भणिअं, एवं भवड, ताहे चउत्थीए पज़्जोस'वियं, एवं जुगप्पहाणेहिं कारणे चउत्पी पवत्तिआ, सा चेषाणुमता सव्वसाहू जमित्यादि" । , ऊपर की पाठ साक्षात् सूचित करती है कि भाद्र खुदी चौथको साम्बत्सरिक प्रतिक्रमण वगैरह करना चाहिये । किन्तु जब दो श्रावण आवें तो श्रावण सुदी चौथ के रोज साम्वत्सरिक कृत्य करे ऐसा तो पाठ कोई सिद्धान्तमें नहीं है तो आग्रह करना क्या ठोक है ? दो भाद्र आवेंतो For Private And Personal Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ܬ [ ४०० ] किसी तरह पूर्वोक्त पाठका समर्थन करोगे । परसत्तर दिनमें चौमासी प्रतिक्रमण करना चाहिये ) ऊपरके लेखको ममीक्षा करके पाठक वर्गको दिखाताहूं कि - हे सज्जन पुरुषो मातवें महाशयजोका ऊपर के लेखको मैं देखता हूं तो मेरे को बड़े ही खेदकेमाथ आश्चर्य उत्पन्न होता है कि, सातवें महाशय श्रीधर्मविजयजीने शास्त्रविशारदजैनाचार्यकी पदवी को धारणकरी है परंतु अपनेकदाग्रह के कल्पित पक्षकीबातको मायावृत्तिसे स्थापित करके बालजीवों को श्रीजिनाज्ञाभ्रष्टकरनेके लिये उन्होंनें अभिनेवेशिक मिथ्यात्वका बहुत ही संग्रह होने से उसपदवीको सार्थक न कर सके परन्तु शास्त्रविराधक उत्स भाषणाचार्यकी पदवीके गुण तो ( सातवें महाशयजी में) प्रगट दिखते है क्योंकि देखो सातवें महाभयजीने मास वृद्धि दो श्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा स्थापन करने के लिये पर्युषणाकल्पचूर्णिका और महानिशीथ के दशवे उद्देशकी चूर्णिका पाठ लिख दिखाया परंतु शास्त्रकार महाराजोके विरुद्धार्थमें अधूरी बात भोले जीवोंको दिखाने से संसारवृद्धिका कुछभी भय हृदयमें लाये मालूम होता है। क्योंकि प्रथमतो महानिशीथकी चूर्णिका नाम लिखा सोतो उपयोग शून्यता के कारण से मिथ्या है क्योंकि महानिशीथ की चूर्णि नहीं किंतु निशीथसूत्रकी चूर्णि है और पर्युषणा कल्प चूर्णिमें तथा निशीथ सूत्रकी चूर्णि में खास पर्युषणा केही संबंधकी व्याख्या में अधिक मासको गिनती में प्रमाण किया है और मास वृद्धि होनेसे अभिवर्द्धित संवत्सर में बीस दिने पर्युषणाकही है तैसेहीं मास वृद्धिके अभाव से चंद्र संवत्सर में ५० दिने पर्युषणा कही है और पञ्चक परिहाणीका कालमें ५२ Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१० ] उत्कृष्ट से १८० दिनके छ मासका कल्प कहा है और मास पद्धिके अभावसे आषाढ़ चौमासीसे पांच पांच दिनकी वृद्धि करते दसवे पञ्चकमें पचासवें दिन भाद्र पद शुक्ल पञ्चमीको पर्युषणा करने में आती थी परंतु कारणसे श्रीकालकाचार्यजीने एकौन पञ्चाशवे (४९) दिन भाद्र शुदी चौथको पर्युषणा करी है जिसका संबंधभी विस्तार पूर्वक दोनु चर्णिमें कहा है मो दोनं चूर्णिके पर्युषणा सम्बन्धी बिस्तारवाले दोनु पाठ भावार्थ सहित इसीही ग्रन्थके पृष्ठ ९२ से लेकर १०४ तक छप गये है सो पढ़नेसे सर्व निर्णय हो जावेगा। परन्तु बड़ेही अफसोसकी बात है कि सातवें महाशयजी दोनं चूर्णिके आगे पीछेके सब पाठोंको छोड़ करके फिर मास इद्धिके अभावसे ४९ वे दिने पर्युषणा करनेवाले पाठको मास वृद्धि दो श्रावण होते भी लिखके दोनों चूर्णिकार महाराजोंके विरुद्धार्थ में यावत् ८० दिने पर्युषणा स्थापन करनेके लिये बाल जीवोंको अधूरे पाठ लिख दिखाते कुछ भी लज्जा नहीं पाते हैं सो भी कलयुगि विद्वत्ताका नसूना है इसलिये मास वृद्धिके अभाव के विस्तार वाले सब पाठोंको छोड़ करके मास वृद्धि होते भी उसीमेंसे अधूरेपाठ सातवेंमहाशयजीने लिखे है सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे शास्त्रविराधक उत्सूत्र भाषणाचार्यके गुण प्रगट दिखाये है सो तो विवेकी पाठक वर्ग स्वयं विचार लेवेंगे, और सुप्रसिद्ध विद्वान् तीसरे महाशयजी श्रीविनय विजयजीने भी, पण्डितहर्षभूषणजीकी और धर्मसागरजीकी धूर्ताईमें पड़कर अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे ऊपरकी दोनों चूर्णिके अधूरे पाठ श्रीसुखबोधिका वृत्तिमें लिखे है उसी तरहसे वर्तमानमें सातवें नहाशयजीने भी किया परन्तु For Private And Personal Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४११ 1 पर भवका और विद्वानोंके आगे अपने नामकी हासी करानेका कुछ भी पूर्वापरका विचार न किया, अन्यथा अन्ध परम्पराके मिथ्यात्वको पुष्टीकारक शास्त्रकार महा. राजोंके विरुद्धार्थमें ऐसे अधूरे पाठ लिखके और कुयुक्तियोंका संग्रह करके बाल जीवोंको सत्य बात परसे श्रद्धा भ्रष्ट करने के लिये कदापि परिश्रम नहीं करते, सो तो निष्पक्षपाती सज्जनोंको विचार करना चाहिये और “जय दो श्रावण आवे तो प्रावण सुदी चौपके रोज सांवत्सरिक कृत्य करे ऐसा तो पाठ कोई सिद्धान्तमें नहीं है तो क्या आग्रह करना ठीक है" यह भी सातवें महाशयजीका लिखना गच्छ पक्षी बाल जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरने के लिये अज्ञताका अथवा अभिनिवेशिक मिथ्यात्वका सूचक है क्योंकि दो श्रावण होते मी भाद्रपदमें पर्युषणा करना ऐसा तो किसी भी शास्त्र में नहीं लिखा है तो फिर दो प्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा करनेका था क्यों पुकारते है और दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें पर्युषणा करना सो तो श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठानुसार तथा उन्हीं की अनेक व्याख्यायोंके अनुसार और युक्तिपूर्वक स्वयं सिद्ध है सो तो इसी ग्रन्थकी आदिमेंही विस्तारसे लिखने में भाया है और खास सातवें महाशयजी भी श्रीकल्पसूत्रके मूलपाठको तथा उसी की मृत्तिको हर वर्षे पर्युषणामें वांचते हैं उसीमें जैन पञ्चाङ्गके अभावसे "जैनटिप्पनकानुसारेण यतस्तत्र युगमध्ये पौषो युगान्ते च आषाढ एव बटुंते नान्येमामास्तहि. प्पनकंतु अधुना सम्यग न ज्ञायतेन्तः पञ्चाशद् भिर्दिमैः पर्युपणा सङ्गते-युक्तेति बद्धाः-" ऐसे अक्षर किरणावली वृत्तिमें For Private And Personal Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१२ ] तथा दीपिका इत्ति में और सुखबोधिका वृत्तिमें अपने ही गच्छके विद्वानोंने खुलासा पूर्वक लिखे हैं सो सातवें महाशयजी अच्छी तरहसे जानते हैं और दो श्रावण होनेसे दूसरे श्रावणमें ५० दिन पूरे होते हैं इसलिये “जब दो प्रावण आवे तो श्रावण सुदी चौथके रोज सांवत्सरिक कृत्य करे ऐसा तो पाठ कोई सिद्धान्तमें नहीं है तो आग्रह करना क्या ठीक है" सातवें महाशय जीका यह लिखना मायावृत्तिसे अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको प्रगट करनेवाला प्रत्यक्ष सिद्ध होगया सो पाठकवर्ग भी विचार लेवेंगे,___और ( दो भाद्र आवे तो किसी तरह पूर्वोक्त पाठका समर्थन करोगे परचसत्तर दिनमें चौमासी प्रतिक्रमण करना पाहिये ) सातवें महाशयजीके इस लेखपर भी मेरेको इतनाही कहना है कि-दो भाद्रआवे तब पूर्वोक्त पाठके अभि. प्रायसै ५० दिनकी गिनती करके प्रथम भाद्रपदमे पर्युषणा करना सो तो न्यायकी बात है परन्तु दो भाद्र होते भी पिछाडीके 90 दिन रखने के लिये दूसरे भादमें पर्युषणा करनेवालोंकी बड़ी भूल है क्योंकि पूर्वोक्त पाठमें कारण योगे ge वें दिन पर्युषणा करी है परन्तु ५१ वें दिन भी नहीं करी है इस लिये दो भाद्र होनेसे दूसरे भाद्रमें पर्युषणा करने वालोंको ८० दिन होते हैं इसलिये श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध बनता है और चार मासके १२० दिनका वर्षाकालमें ५० दिने पर्यु: षणा करनेसे पिछाड़ी 90 दिन रहनेका दोनु चूर्णिके पाठमें खुलासा पूर्वक कहा है सो तो इसीही अन्य के पृष्ट १४ और ल में पाठ छप गये हैं इसलिये मास वृद्धि होते भी पिछा. डीके, 90 दिन, रखनेका आग्रह करने वाले अन्नानियोंकी For Private And Personal Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१३ ] पंक्तिमें गिनने योग्य है सो तो इस ग्रन्थ को संपूर्ण पढ़नेवाले विवेकी सज्जन स्वयं विचार सकते हैं : और दो श्रावण तथा दो भाद्रपद और दो आश्विन हो तोभी आषाढ चौमासीसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें अ. थवा प्रथम भाद्र में पर्युषणा करनी चाहिये जिससे पिछाडी १०० दिने चौमासी प्रतिक्रमण करनेमें आवे तो कोई दूषण नहीं है किन्तु शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक है इसका विशेष विस्तार पहिलेही छप चुका है। और नवमे पृष्ठ के मध्य में तिथिसंबंधी लिखा है जिसकी तो ममीक्षा आगे लिखंगा परन्तु आठवें पृष्ठके अन्त में तथा नवमे पृष्ठके आदि अन्त में और दशवे पृष्ठकी आदिमें छट्ठी पंक्ति तक लिखा है कि(जैसे फाल्गुन और आषाढकी रद्धि होने पर दूसरे फाल्गुनमें और दूसरे आषाढमें चौमासी प्रतिक्रमणादि करते हो, उसी तरह अन्य अधिक मासमें भी दूसरेहीमें करना वाजिब है। वैसा नहीं करोगे तो विरोधके परिहार करने में भाग्यशाली नहीं बनोगे। एक अधिकमासमानने में अनेक उपद्रव खड़े होते हैं और अधिकमासको गिनती में न लेनेवालेको कोई दोष नहीं है । उसी तरह तुम भी अधिक मासको निःसत्त्व मानकर अनेक उपद्रव रहित बनो। इस रीतिको व्यवस्था रहते हुए कदाग्रह न छूटे तो भले स्वपरम्परा पालो परन्तु स्वमन्तव्यमें विरोध न आवे ऐसा वर्तावकरना बुद्धिमानपुरुषोंका काम है। जैसे फाल्गुनके अधिक होने पर दूसरे फाल्गुनमें नैमित्तिक कृत्य करते हो उसी तरह अन्य अधिकमाम आनेपर दूसरे मही नेमे नैमित्तिक कृत्योंके करनेका उपयोग रक्सो कि जिसमें कोई वि. For Private And Personal Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१४ ] रोध न रहे । दो श्रावण हो,अथवा भाद्र हो तथा दो आश्विन होताभी कोई विरोध नहीं रहेगा। तीर्थंकर महारा जकी आज्ञा सम्यक प्रकारसे पलेगी) __ ऊपरके लेखमें सातवें महाशयजीने अधिक मासको निःसत्व मान कर गिनतीमें निषेध किया तथा गिनती में लेनेवालाँको अनेक उपद्रव दिखाये और गिनतीमें नहीं लेनेवालोंको दूषण रहित ठहराये फिर मास वृद्धि होनेसे दूसरे मासमें नैमित्तिक कृत्य करनेका भी ठहराया इसपर मेरेको बड़ेही आश्चर्य सहित खेदके साथ लिखना पड़ता है कि सातवें महाशयजीके विद्वत्ताकी विवेक बुद्धि किस खाइमें चली गई होगी सो अपरके लेख में विवेक शून्य होकर पूर्वापरका विचार किये बिमाही उटपटांग लिख दिया क्योंकि देखो सातवें महाशयजी यदि अधिक मासको निःसत्व मान करके गिनतीमें नहीं लेते होवे तबतो दो प्रावण, दो भाद्र, दो आश्विन, दो फाल्गुण और दो आषाढ़ मासोंका उन्हांका लिखनाही बन्ध्याके पुत्र समान हो जाता है और मास वृद्धि होनेसे दो श्रावणादि लिखते हैं तथा उसी मुजबही वर्ताव करते हैं तब तो अधिक मासको निःसत्व मान करके गिनतीमें निषेध करना ( गिनतीमें नहीं लेना ) सो ममजननीवंध्या समान बाल लीलाकी तरह होजाता है क्योंकि दो श्रावणादि लिखके उसी मुजब वर्ताव करना फिर मास वृद्धि की गिनती निषेध करना यहतो विवेक शून्यके सिवाय और कौन होगा क्योंकि दो श्रावणादि लेखके उसी मुजब बर्ताव करते हैं इसलिये उसीकी गिनतीका निषेध करना तथा गिनतीमें डेमे For Private And Personal Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१५ ] वालोंको अनेक उपद्रव दिखाने और आप दोनं मासों को लिखके उसी मुजब बर्ताव करते भी, उसीको गिनती में न लेते हुये प्रत्यक्ष माया वृत्तिसे दूषण रहित बनना सो सब बाल जोवोंको कदाग्रह में फंसाकर उत्सूत्र भाषणसे संसार परिभ्रमणका हेतु है सो तो निष्पक्षपाती तत्वज पुरुष स्वयं विचार लेवेंगे ; और मास रद्धि होनेसे माम तिथि नियत सब नैमित्तिक कृत्योंको दूसरे मासमें करनेका सातवें महाशयजी ठहराते हैं से भी अज्ञताका सचक है क्योंकि वर्तमान में मास वृद्धि होनेसे मास तिथि नियत कृत्य, आगे पीछे दोनों मासमें करनेमें आते हैं याने कृष्ण पक्षके तिथि नियत कृत्य प्रथम मासके प्रथम कृष्ण पक्षमें करने में आते हैं और शुक्ल पक्षके तिथि नियत कृत्य दूसरे मासके दूसरे शुक्ल पक्षके करने में आते हैं : मित्रवत् न्यायसे अर्थात्-एक नगरमें सज्जनादि गुनगुत व्यवहारिया रहता था उसीने अपने भोजनकी तैयारी करी उसी समय उसीके मित्रका आगमन हुआ तब दूसरा भोजन बनाने का अवसर न होनेसे अपने भोजनमें से आधा मित्रको दिया और आधा आपने ग्रहण किया,उसी दृष्टान्तके न्यायसे एक नगर रूपी संवत्सर उसीमें सज्जनादि गुनयुक्त व्यवहारियावत् मास उसीके भोजन रूपी नैमित्तिक कृत्य और अधिक मास रूपी मित्रका आगमन होनेसे आधे आधे मैमित्तिक कार्य बांट लिये समजो जैसे दो कार्तिक होवेंगे तब श्रीसंभवनाथस्वामीके केवल ज्ञान कल्याणकके श्रीपद्मप्रभुजीके जन्मकल्याणकके तथा दीक्षाकल्याणकके, श्रीने For Private And Personal Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१६ ] मिनाथजीके च्यवन कल्याणकके और श्रीमहावीरस्वामीके मोक्षकल्याणकके उच्छव तपश्चर्यादिकार्य, तथा दीपमालिका (दीवाली) और उसीके सम्बन्धी कार्य प्रथम कार्तिक मासके प्रथम कृष्ण पक्ष में करने में आवेंगे, दो चैत्र होनेसे श्रीपार्श्वनाथजीके केवल ज्ञानादि कार्य प्रथम चैत्रमें तथा श्रीवर्द्धमानस्वामी के जन्मादिके तथा ओलियों वगैरह दूसरे चैत्र में और दो आषाढ होनेसे श्रीआदिनाथ जीके च्यवनादिके कार्य प्रथम आषाढमें और श्रीवर्द्धमानस्वामीके च्यवनादिके कार्य तथा चौमासी वगैरह दूसरे आषाढमें इसी तरहसे सब अधिक मासोंमें समझना चाहिये । और इस बातका विशेष खुलासा पांचवें महाशयजी न्यायरत्नजीके लेखकी समीक्षामें भी लिखने में आया है मो इसीही ग्रन्थके पृष्ठ २३४:२३५॥२३६ में छप गया है सो पढ़नेसे विशेष निर्णय हो जावेगा ;-और मामवृद्धि होनेसे ऊपर मुजबही कल्याणकादि तपश्चर्या करने के लिये खास सातवें महाशयजीकेही पूर्वज श्रीतपगच्छमें सुप्रसिद्ध श्रीविजयसेनमूरिजीने भी कहा है तथाहि श्रीसेनप्रश्ने सप्तसप्तति (७७) पृष्ठे यथा: प्रश्न:-चैत्रमास वृद्धौ कल्याणकादि तपः प्रथमेद्वितीये वा मासिकार्या। ___उत्तरम्-प्रथमचैत्रासित द्वितीयचैत्रमित पक्षाभ्यां चैत्रमास सम्बन्धी कल्याणकादि तपः श्रीतातपादैरपि कार्यमाणं दृष्ठमस्ति तेन तथैवकार्यमित्यादि । और लौकिकजन भी दो भाद्रपद होनेसे श्रीकृष्णजीकी जन्माष्टमी प्रथम भाद्रपदके प्रथमपक्षमें मानते हैं तथा दो For Private And Personal Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१७ ] आश्विन होनेसे श्राद्धपक्ष प्रथम आश्विनमें और दशहरा दूसरे आश्विनमें, इसी तरह से सब अधिक मासांके कारणसे मास नैमित्तिक कार्य आगे पीछे दोनों में मानते हैं। परन्तु सातवें महाशय जी नैमित्तिक कार्य केवल दूसरे मासमें ही करनेका लिख करके दो कार्तिक होवे तब दिवाली वगैरह कृष्ण पक्षके नैमित्तिक कार्य दूसरे कार्तिक तथा दो पौष होवें तब श्रीचन्द्रप्रभुजीके,श्रीपार्श्वनाथजीके जन्म, दीक्षादि कल्याणक दूसरेपौषमें और दो चैत्रहोनेसे श्रीपार्श्वनाथजीके केवल ज्ञान कल्याणकको दूसरे चैत्र में इसी तरहसे कृष्णपक्षके नैमित्तिक कार्य भी दूसरे मासमें ठहराते हैं सो शास्त्रविरुद्ध होनेसे अज्ञताका कारण है क्योंकि ऊपरोक लेखानुसार ऊपर के कार्य प्रथम मासके प्रथम कृष्ण पक्षमें होने चाहिये सैो तो न्याय दृष्टि वाले विवेकी पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे;___और उपरोक्त नैमित्तिक कार्योंके लेखसे दो भाद्रपद होनेसे पर्युषणा भी दूसरे भाद्रपदके दूसरे शुक्ल पक्ष में सातवें महाशयजी ठहराते हैं से भी निषकेवल अपनी अज्ञानता को प्रगट करते हैं क्योंकि मास नैमित्तिक कार्य अधिक मास होनेसे आगे पीछे दोनों मास में करने में आते हैं परन्तु पर्युषणा वैसे नहीं हो सकती है क्योंकि पर्युषणा तो दिनोंके प्रतिबद्ध होनेसे अषाढ़ चौमासीसे ५० दिनकी गिनतीसे अवश्य करके करनेका अनेक शास्त्रों में प्रगट पाठ है इसलिये दो भाद्रपद होनेसै पर्युषणा दूसरे भाद्रपद में नहीं किन्तु प्रथम भाद्रपदमें ५० दिनकी गिनतीसे शास्त्रको प्रमाण करने वाले आत्मार्थियों को करनी चाहिये और प्राचीन कालमें जैन पञ्चांगानुसार मास वृद्धि होनेसे श्रावणमें पर्यु। For Private And Personal Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१८ ] षणा करनेमे आतीथी तथा वर्तमानकालमें दो श्रावण होनेसे दूसरे प्रावणमें पर्युषणा करने में आती है इसलिये मासद्धि होतेभी भाद्रपद प्रतिबद्ध पर्यषणा नही ठहर सकती है किन्तु दिनोंके प्रतिबद्धही गिनने से जहां व्यवहार से ५० दिन पूरे होवे वहांही करनी उचित है इतने परभी सातवें महाशयजी अपने कदाग्रह के हठवादसे शास्त्रों के प्रमा. णोंको छोड़ करके नैमित्तिक कार्यो की तरह दूसरे भाद्रपद में पर्युषणा करनेका ठहराते हैं तोभी उन्होंको प्रत्यक्ष विरोध आता है सोही दिखावते हैं कि-खास सातवें महाशयजीके पूर्वजने अधिक मास होनेसे कृष्ण पक्ष के नैमित्तिक कार्य प्रथम मासके प्रथम कृष्ण पक्ष में करनेका कहा है उसी मुजब सातवें महाशयजी पर्युषणाकरें तब तो पर्यषणाके आठदिनोके उच्छव का अङ्ग हो जावेगा और पर्युषणामे पहिले कृष्ण पक्षके चार दिनोके कार्य प्रथम भाद्रपदमें करने पड़ेगे फिर एक मास पर्यन्त मौन धारण करके पर्युषणामें पिछाड़ीके चार दिनोंके कार्य दूसरे भाद्रपदमे करें तब तो सातवें महाशयजीकी खूब विटंबना होजावे से तत्वज्ञ विवेकी जन स्वयं विचार लेवेगे;___और ओलियों छठे महीने करने में आती है परन्तु अधिक मास होनेसे सातवें महीने करने में आती है तथा चौमासी चौथे महीने करने में आता है परन्तु अधिक मास होनेसे पांचवें महीने करनेमें ओता है सो तो न्यायपूर्वक युक्ति की बात है परन्तु पर्यषणा तो आषाढ चौमासीसे ५० दिने अपश्य करके करनेका कहा है, इसलिये अधिक मास हो तो भी ५० वें दिनकी रात्रिको भी उल्लंघन करनेसे मिघ्या. For Private And Personal Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४१ ] त्वकी प्राप्ति होती है तो फिर दूसरे भाद्रपद में ८० दिने पर्यषणा करमा सो तो कदापि श्रीजिनाज्ञामें नहीं आ सकता है से भी विवेकी पाठकगण स्वयं विचार लेवेंगे; और शास्त्रानुमार भावपरंपरा करके तथा युक्ति पूर्वक और लौकिक व्यवहार मुजब अधिक मास होनेसे नैमित्तिक कार्य आगे पीछे दोनों मासमे करने में आते हैं सोता सातवें महाशयजीके पूर्वजने भी लिखा है जिसका पाठ ऊपरही लिखने में आया है तथापि सातवें महाशयजो प्रथम मासको छोडकरके दूसरे मासमें नैमित्तिक कार्य करने के लिये "वैसा नहीं करोगे तो विरोधके परिहार करने में भाग्यशाली नहीं बनोगे ऐसे अक्षर लिखके प्रथम मासमें नैमित्तिक कार्य करने वालोंके विरोध दिखाते हैं से कोई भी शास्त्र के प्रमाण बिना अपनी मति कल्पनासे भोले जीवोंको भ्रममे गेरने के लिये अपने पूर्वजके वचनको भी विरोध दिखाने वाले सातवें महाशयजी जैसे कलियुगि विनीत प्रगट हुवे है से तो अपने पूर्वजोंको खेटे कहके आप भले बनते हैं इसलिये आत्मार्थियोंको इन्हकी कल्पित बात प्रमाण करने योग्य नही है, और (कदाग्रह न छूटे तो भले स्वपरंपरा पाला) सातवें महाशयजीका यह भी लिखना भोले जीवोंको कदाग्रहमें फंसाकर मिथ्यात्व को बढ़ानेवाला है सो ते इसीही ग्रंथके पृष्ठ ३६५ से ३४२ तकका लेख पढनेसे मालूम हो सकेगा परंतु सातवें महाशयजीने जपरके लेखमें अपने अन्तरके भावका सूचन किया मालूम होता है क्योंकि सातवें महाशयजी बहुत वर्षांस काशी में ठहर कर अपनी विद्वत्ता प्रगट कर रहे हैं For Private And Personal Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२० ] इसलिये भोले जीव जानते है कि सातवें महाशयजीकी तरफ से पर्युषणा विचारका लेख प्रगट हुवा है सेा शास्त्रानुसार गुति पूर्वकही होगा परन्तु उसी लेखको तत्वज्ञ पुरुषों मे देखा तो निषकेवल शास्त्रकार महाराज के विरुद्धार्थमें तथा उत्सूत्र भाषणोंके संग्रह वाला और कुयुक्तियोंके संग्रह वाला होनेसे अज्ञानी जीवोंको मिथ्यात्वमें फंसाने वाला मालूम हुवा तब उसीकी शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक समीक्षा मेरेको भव्यजीवोंके उपकार के लिये इतनी लिखनी पड़ी है इसको बांधकर सातवें महाशयजी को अपनी विद्वत्ता के अभिमानसे और अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके करणसे अपना मिथ्यापक्षके कल्पित कदाग्रहको छोड़कर सत्य बात ग्रहण करनी बहुतही मुश्किल होनेसे ( कदाग्रह न छूटता भले स्व परंपरा पालो ) ऐसे अक्षर लिखके कदाग्रहको तथा शास्त्रों के प्रमाण बिना कल्पित बातोंकी अंध परम्पराको पुष्ट करके ओले जीवों को उसी में फंसाये और आपने भी उसीका शरणाले करके अपना अन्तर मिथ्यात्त्वको प्रगट किया इसलिये इस ग्रंथकारका सब सज्जन पुरुषों को यही कहना है कि जो अल्पकर्मी मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी होगा सोतो शास्त्रों के प्रमाण विरुद्ध अपने अपने कदाग्रहकी अन्ध परंपरा के पक्षका आग्रहमें तत्पर न बनके इस ग्रंथके सम्पूर्ण पढ़ करके पंचांगी प्रमाण पूर्वक युक्ति सहित सत्य बालोंको ग्रहण करेगा दुसरोंसे करावेगा और बहुल कर्मी मिथ्यात्वी होगा सेतो शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक सत्य बातोंको जानकर केभी उसीका ग्रहण न करता हुआ अपने कदायहकी अन्ध परम्परामे रहकर उसीको पुष्ट करने For Private And Personal Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२९ ] के लिये और सत्य बातांका निषेध करनेके लिये नवीनवी कुयुक्तियों के विकल्प खड़े करके विशेष मिध्यात्व फैलावेगा और दूसरे भोले जीवों को भी उसीमें फंसावेगा सोतो उसीकेही निवड़ कर्मो का उदय समझना परन्तु उसीमें शास्त्र कारका कोई दोष नहीं है इसलिये यहां मेरा खुलासा पूर्वक यही कहना है कि अधिकमासको गिनती निषेध करनेवाले और गिनतीप्रमाण करनेवालोंको अनेक कुयुक्तियां कल्पित दूषण लगानेवाले सातवें महाशयजी जैसे विद्वान कहलाते भी निःकेवल अन्ध परम्पराके कदाग्रह में पड़के बालजीवों को भी उसी में फंसानेके लिये अभिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करके श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी और अपने पूर्वजोंकी आशातना करते हुवे पञ्चांगी के प्रत्यक्ष प्रमाणोंको छोड़कर फिर शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमें उत्सूत्र भाषणों करके खूब पाखन्ड फैलायाहे और फैला रहे हैं जिससे श्रीतीर्थंकर महाराजकी आशाको सत्थापन करते हैं इसलिये अधिक मासको गिनती निषेध करनेवाले कदाग्राहियों को मिथ्यादृष्टि निन्हवाकी गिनती में गिनने चाहिये । यदि श्रीतीर्थंकर महाराजकी आज्ञाको अराधन करके आत्म कल्याणकी इच्छा होवे तो अधिक मासके निषेध करने सम्बन्धी कार्योंका मिथ्या दुष्कृत देकर उसीकी गिनती के प्रमाण मुजब वर्तों नहीं तो उत्सूत्र भाषणोंके विपाकता भोगे बिना छूटने मुशकिल है; -- और फिरभी स्वपरम्परा पालने सम्बन्धी सातवें महाशयजी ने लिखा है कि ( स्वमंतव्यमे विरोध म आवे ऐसा बर्ताव करना बुद्धिमान पुरुषोंका काम है) इस डेलपर For Private And Personal Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२२ ] भी मेरेको इतनाही कहना है कि-यह भी सातवें महाशयजीका लिखना अज्ञताका मूचक है क्योंकि श्रीजिनेश्वर भगवान्का कथन करा हुआ श्रीजिन प्रवचन अविसंवादी होनेसे सब गणधरोंके मबगच्छोंकी एकही समाचारी होती है परन्तु इस वर्तमान काल में तो सब गच्छ वालोंकी भिन्न भिन्न समाचारी है और शास्त्रों के प्रमाण विनाही अन्ध परम्परासे कितनी ही बाते चल रही है इसलिये शास्त्र प्रमाण बिनाकी द्रव्य परम्परा पालने वालोंको तो श्रीजिनाज्ञा विरुद्ध महान् विरोध प्रत्यक्ष दिखता है तथापि अपने अन्ध परम्परा के कदाग्रहको नही छोड़ते हैं फिर कुयुक्तियोंसे अपना कदाग्रहके मंतव्यको पुष्ट करके विरोध रहित ( सातवें महाशयजीकी तरह) बनना चाहते है सो तो बुद्धिमान पुरुष नहीं किन्तु अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी पक्के कदाग्रही कहे जाते हैं इसलिये अपने आत्म साधनमें विरोध नही चाहनेवाले तत्वज्ञ पुरुषों को तो शास्त्र विरुद्ध अपनी परम्पराको छोड़ करके शास्त्रानुसार सत्य बातको ग्रहण करनाही परम उचित है;__ और पर्युषणा विचार के दशवें पृष्ठकी सातवीं पंक्तिसे दशवीं पंक्ति तक लिखा है कि (हित बुद्धिसे लिखे हुए विषय पर समालोचना करना हो तो भले करो किन्तु शास्त्र मार्गसे विपरीत न चलने के लिये सावधानी रखना समा. लोचनाकी समालोचना शास्त्र मर्यादा पूर्वक करने को लेखक तैयार है ) सातवें महाशयजीके इस लेखपर भी मेरेको इतना ही कहना है कि-जैसे कितनेही ढूंढ़िये तेरहा पंथी वगैरह कदापही मायावृत्तिवाले धूर्त लोग अपने कदाग्रहके पक्षको For Private And Personal Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२३ ] बढ़ाने के लिये शास्त्रों के आगे पीछेके सब पाठोंको छोड़ करके उमी के बीच में से बिना सम्बन्धके अधूरे पाठके फिर उलट अर्थ करके उत्सूत्र भाषणोंसे तथा कुयुक्तियोंसे भोले जीवोंकी मत्य बातों परसे श्रद्धा भ्रष्ट करके अपने मिथ्यात्वके पाखण्डमें गेरके संसार वृद्धिका कारण करते हैं तो भी हितोपदेशसे अच्छा किया ऐसाअज्ञताके कारणसे वृषा पुकार करते हैं। तैसे ही पर्युषणा विचारके लेखकने भी किया, अर्थात्अपने कदाग्रहमें मुग्ध जीवोंको फंसाने के लिये श्रीनिशीष चूर्णि वगैरह शास्त्रों के आगे पीछेके सब पाठोंको छोड़ करके उसीके बीच मेंसे शास्त्रकारोंके विरुद्धार्थ में बिना मम्बन्धके अधूरे पाठ लिख के उलटे अर्थ करके उत्सूत्र भाष. णोंकी तथा कुयुक्तियोंकी कल्पनायोका पर्यषणा विचारके लेख में संग्रह करके भी अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे हित बडिसे विषय लिखनेका ठहराते हैं सो कदापि नहीं ठहर सकता क्योंकि हितबद्धिके बहानेमिथ्यात्वकेपाखण्डकी वृद्धिका कारण किया है इसलिये भव्यजीवोंके उपकारके लिये पर्युषणा विचारके लेख कीशास्त्रानुमार युक्तिपूर्वक समालोचना करनी मेरेको उचित थी सो करी है जिस पर भी शास्त्रमार्गसे विपरीत न चलने के लिये सावधानी रखनेका सातवें महा. शयजी लिखते हैं इसपर भी मेरेको इतनाही कहना है किखाम आपही अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से (शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक अधिक मासकी गिनती प्रमाण तथा श्रावण वृद्धिसे ५० दिने दूसरे श्रावणमें पर्युषणा और मासवृद्धिसे १३ मासके क्षामणे वगैरह) सत्य बातोंको ग्रहण नहीं करते हुए अपने For Private And Personal Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२४ ] कदाग्रहकी कल्पनाको स्थापन करनेके लियेऔर सत्यबाते का निषेध करने के लिये पर्युषणा विचारके लेख में उत्सूत्र भाष बोंको और कुयुक्तियों के विकल्पोंके प्रत्यक्ष मिथ्या गप्पोंक लिखके भी शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक लिखनेवालेको शाख मार्गमे विपरीत न चलनेके लिये सावधानी दिखाते हैं सो तो प्रत्यक्ष धूर्ताचारोका लक्षण है इमको पाठक वर्ग स्वयं विचार लेवेंगे: और (समालोचनाकी समालोचना शास्त्र मर्यादा पूर्वक करनेको लेखक तैयार है ) सातवें महाशयजोके इस लेख पर भी मेरेको इतनाहीं कहना है कि-पञ्चांगीकी श्रद्धा रहित कदाग्रहमें आगेवान, अनिनिवेशिक मिथ्यात्वको सेवन करने वाले तथा अन्यायमें प्रवर्तने वाले होकरकेभी शास्त्रा. नुसार युक्ति पूर्वक मेरे सत्य लेखों की समालोचना आप कैसे कर सकोगे क्योंकि जो आप पञ्चांगीकी श्रद्धा वाले आत्मार्थी तथा न्यायमें प्रवर्तने वाले होवो तबतो जो जो मैंने पर्यषणा विचारके लेखकी पंक्ति पंक्तिकी शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक समालोचना करके आपके लेखोंको उत्सूत्र भाषण रूप प्रत्यक्ष मिथ्या ठहराये है और सत्य बातोंको प्रगट करी है उसीको आद्यन्त पर्यंत पढ़के अपनी उत्सूत्र भाषणोंकी और प्रत्यक्ष मिथ्या लेखोंके भूलोंकी श्री चतुर्विध संघ समक्ष आलोचना लेकर शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक सत्य बातोंको ग्रहण करो पीछे मेरे लेखकी समालोचना करनेकी आपमें योग्यता प्राप्त होवे तब मेरे लेखकी समालोचना करनेको तैयार होना चाहिये। इतने परभी पर्युषणा विचार के सब लेखोंको आप सत्य समझते हो तो पंक्ति पंक्तिके For Private And Personal Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२५ ] सब लेखाँको शास्त्रानुमार युक्ति पूर्बक सिद्धकर दिखावो नहीं दिखाओ तो उसीकी आलोचना लेकर सत्य बातोंको ग्रहण करो और अपने सब लेखांको शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक सिद्ध नहीं करोंगे तथा अपनी भूलोंकी आलोचना भी नहीं लेवोंगे औरसत्य बातोंको ग्रहण भी नहीं करोंगे तबतक मैंरे लेखकी समालोचना करनेकी आपमें योग्यता प्राप्त नहीं हो सकेगी तथापि आप केवल अपनी विद्वत्ताकी शर्म-केमारे, लौकिक लज्जासे अपनी उत्सूत्र भाषणोंकी तथा प्रत्यक्ष मिथ्या (पर्युषणा विचारके) लेखांकी भूलोंको छुपा करके शास्त्रा. नुसार युक्ति पूर्वक सत्य बातोंके सम्बन्धका सब लेसको छोड़ करके बिना सम्बन्धका अधूरा लेखकी कुयुक्तियों के बिकल्पों से समालोचना करके शास्त्र मर्यादा पूर्वकके बहाने मुग्ध जीवोंको मिथ्यात्वमें फंसाने के लिये पर्युषणा विचार के लेखकी तरह फिर भी उद्यम करोंगे तो उसीके भी सबकी ममालोचना करके आपके अन्यायके पाषण्डको शांत करनेके लिये मैंरेको जलदीसे लेखनी चलानी ही पड़ेगी इसमें फरक नहीं समझना ;___और पर्युषणा विचारके दशवें पृष्टकी १९ वीं पलिसे दशवे पृष्टके अन्त तक लिखा है कि ( पाठक महाशयोंको पक्षपात शून्य होकर निबन्ध देखने की सूचना दी जाती है स्नेहरागके वस होकर अमत्यको सत्य नहीं मानना और गतानुगतिक नहीं बनना तत्त्वान्वेषी बनकर जल्दी पद्ध व्यवहारको स्वीकार करके भगवान्की आज्ञानुसार भाद्र सुदी चौथ के दिन मांवत्सरिक वगैरह पांच कृत्योंका आरा. धनकरके थोड़ेभवमें पञ्चमज्ञानके भागीबनो इसतरह ५४ For Private And Personal Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir का धर्मलाभ पाठकवर्गके प्रति लेखकदेताहै ) इस रीतिसे सातवें महाशयजीने पर्युषणाविचारके लेखको पूर्ण किया है। अब ऊपरके लेखकी समीक्षा करते हैं कि-गच्छके पक्षपातको स्न हरागसे असत्यको सत्यमान करके गतानुगतिक गहुरीह प्रवाहवत् अन्य परम्पराकोही मानने वाले मिथ्या दृष्टि कहे जाते हैं इसलिये तस्वान्वेषी बन करके शास्त्रानुसार युक्ति सम्मत सत्य बातोंका निर्णयपूर्वक ग्रहण करना सोआत्मार्थियोंका काम है इसलिये पक्षपात रहित पर्यषणा विचारके निबन्धको पढ़ा तो साफ मालूम हुआ कि पर्युषणा विचारके लेखकने अपनी अज्ञानताके कारणसे अपने गच्छका पक्षपात करके अन्ध परम्पराका मिथ्यात्वको बढ़ाने के लिये पं० हर्षभूषणजीकी धर्मसागरजीकी और विनयविजयजी वगैरहोंकी, उत्सूत्र भाषणोंकी कल्पनायोंको सत्य मानकर श्रीतीर्थंकर गणधरादि महाराजांकी आज्ञाको उत्थापन करके पर्युषणा विचारके लेख में केवल शास्त्रोंके विरुद्ध उत्सूत्र भाषणोंकी कल्पनायें भरी हुई होनेसे गच्छ पक्षके मिथ्या आग्रह करनेवाले बालजीवोंको श्रीजिनाज्ञासे भ्रष्टकरके मिथ्या त्वमें फंसाने वाला और खास पर्युषणा विचारके लेखकको संसार वृद्धिका हेतु भूत प्रत्यक्ष देखने में आया इसलिये पर्युषणा विचारके लेखकके तथा अन्य आत्मार्थियोंके उपकारके लिये उसीकी समालोचना करके निष्पक्षपाती पाठक गणको सत्यबात दिखाई है सो इसको पढ़कर पर्युषणा वि. चारके लेखक वगैरह यदि आत्मार्थि होवेंगे तब तो गच्छके पक्षपातका आग्रहको न रक्षके असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करके अपनी भूलोको सुधारेंगे और अपनी विद्वत्ताके For Private And Personal Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२७] अभिमानी मिथ्यात्वी होवेंगे तो विशेष कदाग्रह बढ़ाने के लिये उद्यम करेंगे ( उसीका उत्तर तो देनाही होगा ) परन्तु इस ग्रन्थके प्रगट होनेसे सम्यक्त्वो अथवा मिथ्यात्वी की तो परिक्षा अच्छी तरहसे हो जावेगी : और सातवें महाशयजी अधिक मासके ३० दिनोंको गिनती में छोड़ करके दो श्रावण होते भी भाद्रपद में पर्युषणा करमा सो शुद्ध व्यवहारसे भगवानकी आज्ञामे ठहराते हैं सो तो सोनेकी भ्रांतिसे केवल पीतल ग्रहण करने जैसा करके अपनी पूर्ण अज्ञता प्रगट करते हैं क्योंकि अधिक मासकी गिनती छोड़नेसे तो अनन्त संसारकी वृद्धिका हेतुभूत मिथ्यात्वकी प्राप्ति होती है इसलिये अधिक मासकी गिनती निषेध करने वाले कदापि आज्ञाके आराधक नहीं बन सकते हैं किन्तु शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक और प्रत्यक्ष वर्ताव से अधिकमास के ३० दिनोंको गिनती मे लेने से हो भगवानकी आज्ञाका आराधन हो सकता इसलिये अधिकमासकी गिनती प्रमाण करना सोही तत्वान्वेषी शुद्ध व्यवहारको ग्रहण करनेवाले भगवानको आज्ञाके आराधक हो सकेंगे इसलिये मासबृद्धि दो श्रावण होनेसे ५० दिनकी गिनतीसे दूसरे श्रावण में पर्युषण पर्व में सांवत्सरिक वगैरह कृत्योंका आराधन करनेवाले आत्मार्थी होनेसे पञ्चम केवलज्ञानके भागी हो सकेंगे । और अन्त में पाठकवर्गको धर्मलाभ लेखकने लिखा है सो भी बुद्धिकी अजीर्णता प्रगट करी मालूम होती है क्योंकि पाठकवर्ग में तो पर्युषणा विचार के लेखको बांधनेवाले आचार्य, उपाध्याय, गणी, पन्यास तथा साधु साध्वी और लेखकसे दीक्षा For Private And Personal Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४८ ] पर्यायमें अधिक मुनिमण्डली वगैरह सब कोई आजाते हैं इसलिये सबको धर्मलाभ देने की पर्युषणा विचारके लेख ककी ताकत नहीं होते भी देता है तो बद्धिकी अजीर्णतामें क्या न्यूनता रही है सो विवेकीजन स्वयंविचारसकते हैं ; और सातवें महाशयजीने पर्युषणाविचारकेलेख में अधिक मासकी गिनती निषेध करनेके लिये इतना परिश्रम किया है परन्तु अधिक मास किसको कहते हैं जिसकी भी तो उनको मालूम नहीं है क्योंकि, देखो दुनियाके व्यवहारमें तिथि वृद्धिकी तरह दूसरेको अधिक मास कहते हैं। तथा जैनशास्त्रों में भी दूसरेकोही अधिकमास कहा है ॥ और लौकिक पञ्चाङ्गमें दोनों मासके मध्यमें संक्रान्ति रहितकों अधिकमास कहते है परन्तु दिनोंकी गिनती में दोनों मासके ६० दिनांकों बराबर सब कोई लेते हैं इसलिये अधिक मासके दिनोंकी गिनती निषेध नहीं हो सकती है । __और सातवें महाशयजी अधिक मासके ३० दिनांकों गिनतीमें नहीं लेनेका लिख करके भोले जीवोंको बहकाते हैं परन्तु खास आपही अधिक मासके ३०दिनोंको गिनती में ले करके सर्व व्यवहार करते हैं से तो प्रत्यक्ष दीखता है तथापि अधिक मासके ३० दिनोंको गिनती में नहीं लेनेका लिख करके भोले जीवोंको बहकाते हैं से तो 'ममजननी वन्ध्या की तरह प्रत्यक्ष धूर्तताका नमूना है सो तो विवेकी जन स्वयं विचार लेवेंगे। और सातवें महाशयजीने अधिकमासको नपुसक निः सत्व ठहराकर उसीको गिनतीमें छोड़देने का लिखा है परंतु सब दो भाद्रपद होते हैं तब अधिक मास रूप दूसरे भाद्र For Private And Personal Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२ ] पदमें खास आप पर्युषणा करते हैं और ८।१०।१५ २०१६३०२४०१४५ दिनके उपवासोंकी तपस्याकी गिनती में अधिक मासके ३० दिनको बराबर गिनते हैं । तो अब पाठकवर्गको विचार करना चाहिये कि खास आप अधिक मासके दिनोंको तपश्चर्याकी गिनती में लेते हैं तथा अधिक मासमें ही पर्युषणा करते हैं तथापि उसीको नपुंसक निःसत्व ठहराकर दृष्टिरागी भोले भाले जीवोंको श्रीजिनाज्ञासे भ्रष्ट करते हैं सो अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से कितने संसार वृद्धिका हेतु है सो तत्वज्ञ स्वयं विचार लेवेंगे, - www और पर्युषणा विचारका छपाई खर्चा और टपाल खर्चा श्रीयशोविजयजीकी पाठशाला के सम्बन्धसे लगा है सो तो यहां दलीपसिंह जी जौहरीके पास काशी की पाठशालालासे उदयराज कोचरका पोष्टकार्ड आया है उसी से तथा और भी कितनेही कारणोंसे सिद्ध होता है उसका विशेष विस्तार अवसर होनेसे पुनरावृत्ति में लिखने में आवेगा और पर्युषणा बिचारका लेख काशी में उसी पाठशालेसे प्रगट भी हुवा है तथापि सातवें महाशयजी अपनी निन्दा के भय से श्री यशोविजयजी की पाठशाला के नामसे पर्युषणा विचारके लेखको प्रगट न कराते उदयराज कोचर के नामसे प्रगट कराया और श्रीकाशी (वाणारसी ) का नाम भी न लिखाते प्रत्यक्ष मिथ्या फलोधीका नाम लिखा के मायाबृत्ति से फलोधी के नामसे प्रगट कराया तो फिर अनुमान ६० जगह सत्सूत्र भाषणोंवाला तथा १० जगह प्रत्यक्ष मिथ्यालेखवाला और सत्य बात का निषेध करके अपनी कल्पनाकी मिथ्या बातको स्थापने For Private And Personal Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३० ] की कुयुक्तियों वाला और श्रीजिनाज्ञा मुजब वर्त्तनेवालोंको जूठी कल्पनासे दूषण लगाके अनन्त संसारका हेतु भूत मिथ्यात्यको बढ़ानेवाला पर्युषणा विचार के लेख में अपना नाम प्रगट करते लज्जा आवे तो निज शिष्यविद्या विजयजीका नाम लिख देवें तोभी कुछ विशेष आश्चर्य नहीं है सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे, -- • और काशीनिवासी नातवें महाशयजी जैनतत्व दिग्दर्शन, आत्मोन्नति दिग्दर्शन, जैनशिक्षादिग्दर्शन वगैरह छोटे छोटे लेखोंको तो अपने नामसे प्रगट करते हैं तथा विद्याविजयजी भी अपने गुरुजीका लम्बा चौड़ा नाम समेत जैनपत्र में अपना लेख प्रगट करते हैं और छोटी छोटी पुस्तकें भी श्रीयशोविजयोकी पाठशाला के नामसे प्रगट करने में आती है परन्तु पर्युषणा विचार के लेखमें न तो सातवें महाशयजीका नाम लिखा तथा विद्याविजयजीने भी अपने गुरुजीका नाम भी नहीं लिखा और अपना निवास ठिकाना भी नहीं लिखा और श्रीयशोविजयजीकी पाठशालाका नाम भी नहीं लिखा इसपर भी बुद्धिजन विचार करें तो स्वयं मालूम हो सकेगा कि सातवें महाशयजीने दुनिया में अपनी निन्दाकी शर्म के मारे गुपसुप प्रगट कराया है क्योंकि इतने विद्वान् ऐसे प्रसिद्ध आदमी होकर के भी गच्छके पक्षपातसे ऐसा अनर्थ क्यों किया इसका भेद न खुलने के वास्ते पाठ शालाका तथा पाठशाला के उत्पादकका नाम नहीं लिखा है परन्तु विवेकी बुद्धिजनों के आगे तो ऐसी धूर्तता नहीं छुप सकती है, -- For Private And Personal Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३१ । और जैनपत्रका अधिपति आठवा महाशय श्रावकनाम धारक भगुभाई फतेचन्दने सेम्बर मासकी २२वीं तारीख सन् १९०९ दूसरे श्रावण बदी १३, परन्तु हिन्दी भाद्रपद कृष्ण १३ वीर मंवत् २४३५ के जैनपत्रका २३ वा अङ्ककी आदिमेंही 'पर्युषणा विषे विचार' नामसे जो लेख प्रगट करा है सो तो सातवें महाशयजीके पर्युषणा विचारके लेखको ही गुजराती भाषामें लिखकी प्रगट किया है इमलिये जैनपत्रवालेके लेखकी तो सातवें महाशयजीके लेखकी तरह कपर मुजबही समीक्षा समझ लेना और जैनपत्रवाला संप संप पुकारता है परन्तु एकएकको निन्दा करके कुसंपकी एद्धि करता है तथा गच्छके पक्षपातसे सत्य बातोंका निषेध करके अपना मिथ्यापक्षको स्थापन करने के लिये उत्सूत्रभाषणोंसे दुर्गतिका रस्ता लेता है और अज्ञानी जीवोंकोभी वहांही पहुंचानेके लिये उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह जैनपत्रमें प्रगट करता है और कान्फरन्स सुकृत भण्डारादिसे शासनोन्नतिके कायों में विघ्नकारक गच्छोंके खण्डनमण्डनका झगड़ा एकवार नहीं किन्तु अनेकवार जैनपत्रमें उठाया है क्योंकि देखो पर्युषणा सम्बन्धी भी प्रथमही छठे महाशयजीकी मिथ्या कल्पनाकर उत्सूत्र भाषणका लेखको जैनपत्रमें प्रगट करके झगड़ेकी नीव रोपन करी तथा सातवें महाशयजीके भी उत्सूत्र भाषणोंके संग्रहवाला लेखका भाषान्तर प्रगट करके उत्सूत्रभाषणोंके भयङ्कर विपाक लेने के लिये दुर्गतिका रस्ता लिया और फिर भी छठे महाशयजी की तरफके श्रीखरतरगच्छ वालों की निन्दावाले तथा कोर्ट कचेरी में झगड़ा लड़ाके दीर्घकाल पर्यन्त कुसंपकी वृद्धि करनेवाले दो For Private And Personal Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३२ ] लेखेको प्रगट करके अपनी पूर्ण मूर्खता प्रगट करी और पर्युषणा, सामायिक, कल्याणक, वगैरह बातोंका झगड़ा बढाया है ( जिसका निर्णय तो इस ग्रन्थके पढ़नेसे मालम हो सकेगा ) इसलिये जैनपत्रवाले आठवें महाशयको जो संसारवृद्धिसे दुर्गतिमें परिभ्रमणका भय होवे तो उत्सूत्र भाष. णांका मिथ्या दुष्कृत देकर श्रीदनर्विध संघ ममक्ष उसीकी आलोचन लेवे तथा फिर कभन. डन मण्डन करके दूमरों की निन्दासे गच्छका झगड़ा न उठावे और असत्यको छोडकर सत्यको ग्रहण करे नहीं तो पक्षपातसे उत्सत्रभाषणके विपाक तो भोगे बिना कदापि नहीं छुटेंगे। और मैरेको बड़ेही खेदके साथ बहुतही लाचार हो करके लिखना पड़ता है कि-अधिक मासके ३० दिनांकी गिनती निषेध करनेवाले उत्सत्र भाषक मिथ्या हठग्राही अभिनिवेशिक मिथ्यात्वियोंकी विवेक बुद्धि कैसी नष्ट हो गई है से पूर्वापरका विचार किये बिनाही अधिक मासके ३० दिनों में सर्वकार्य करते भी पक्षपातके आग्रहसे गहरीह प्रवाहकी तरह मिथ्यात्वको अन्ध परम्परासे एक एककी देखादेखी तात्पर्यार्थके उपयोग शून्य होकरके उसीकोही पकड़कर उसीकी पुष्टि करते हैं परन्तु श्रीजिनाज्ञाका उत्थापन करके बाल जीवोंको मिथ्यात्व में फंसानेसे अपनी आत्मघातका कुछ भी भय नहीं करते हैं क्योंकि पञ्चाङ्गी प्रमाण पूर्वक और युक्ति सहित श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाके आराधक सबी आत्मार्थी जैनाचार्य वगैरह अधिक मासके दिनोंकी गिनती प्रमाण करकेही प्राचीन कालमें पूर्वधरादि महाराज भी पर्युषणा करते थे तथा वर्तमानमेंभी For Private And Personal Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३३ ] सब कोई आत्मार्थि जन अधिक मासकी गिनती प्रमाण करकेही पर्युषणा करते हैं और आगे भी ऐसे ही करेंगे परन्तु शासननायक श्रीवर्द्धमान स्वामीके मोक्ष पधारे बाद अनुमान एक हजार वर्ष व्यतीत हुए पीछे उत्सूत्र भाषणों में आगेवान गच्छ कदाग्रही शिथिलाचारी धर्मधूर्त जैनामास पाखण्डी चैत्य वासियोंने पञ्चाङ्गी प्रमाणपूर्वक प्रत्यक्षसिद्ध होते ही कितनीही सत्य बातोंको निषेध करके अपनी मति कल्पनासे उत्सूत्र भाषणरूप कुयुक्तियों करके श्रीजिनाज्ञाविरुद्ध कल्पित बातोंकी प्ररूपणा करी और अविसंवादी श्रीजैन शासनमें वि संवादके मिथ्यात्वको बढ़ाया था जिसमें शास्त्रानुसार तथा युक्ति पूर्वक अधिक मासकी गिनती तथा आषाढ़ चौमासीसे ५०दिने श्रीपर्युषणा पर्वका आराधन करनेका प्रत्यक्ष दिखते हुए भी लौकिक पञ्चाङ्गमें मासद्धि दो श्रावणादि होनेसे प्रत्यक्ष शास्त्रोके तथा युक्तिके भी विरुद्ध होकर यावत् ८० दिने श्रीपर्युषणा पर्वका आराधन करनेका सरू करके श्रीजिनाज्ञाका उत्थापनसे मिथ्यात्व फैला या और निर्दूषण बननेके लिये अधिक मासकी गिनती निषेध करके उत्सत्र भाषणोंकी कुयक्तियोंसे अज्ञानीजीवोंको अपने मिथ्यात्वको भ्रमजालमें फसाने के लिये धर्मधूर्ताई करने में कुछ कम नहीं किया था सो तो श्रीसंघपटककोव्याख्याओंके अवलोकनकरनेसे अच्छी तरहसे मालूम हो सकताहै । ___ और कितनेही भारी कर्मे प्राणी तो उपरोक्त मिथ्यात्वकी भ्रमजाल में फसकर अन्धपरम्परासे उसीकाही पुष्ट करते हुए बाल जीवोंको अपने फंदमें फसाते रहते थे उसी मिथ्यात्यकी अन्धपरम्पराकेही अनुसार पं० श्रीहर्षभूषणजी For Private And Personal Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३४ ] और धर्मसागर जी वगैरह जो जो लेख लिख गये हैं और वर्त्तमान में 'शास्त्र विशारद जैनाचार्य्य' की उपाधिधारक सातवें महाशयजी श्रीधर्म विजयजी जैसे प्रसिद्ध विद्वान् कहलाते भी उसी अन्धपरम्परासे मिथ्यात्व के कदाग्रहको पकड़कर अज्ञ जीवोंको उसीमें फसानेके लिये उसीको विशेष पुष्ट करनेका उद्यम करते हैं परन्तु श्रोजिनेश्वर भगवानको आज्ञाका उत्थापन करके प्रत्यक्ष पञ्चाङ्गी प्रमाण विरुद्ध प्ररूपणा करते हुए अभिनिवेशिक मिथ्यात्व से सज्जन पुरुषोंके आगे हास्य काहेतु करनेका कारण करते भी कुछ लज्जा नहीं पाते हैं सो तो इस कलियुगमें पाखण्ड पूजा नामक अच्छेरेका प्रभावही मालूम पड़ता है । इसलिये श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी पुरुषको ऐसे उत्सूत्र भाषकों की कुयुक्तियों के भ्रममें न पड़ना चाहिये और निष्पक्षपातने इस ग्रन्थको आदिने अन्त तक बांचकर असत्यको छोड़के सत्यको ग्रहण भी करना चाहिये परन्तु गच्छके आग्रह से उत्सूत्र भाषणको बातोंको पकड़कर उसी में नहीं रहना चाहिये । और भी श्रीधर्मसागरजीकी तथा श्रीविनयविजयजीकी धर्मधुताई का नमूना पाठक वर्गको दिखाहूं, कि देखो श्रीविनयविजयजीने श्रीलोकप्रकाश नामा ग्रन्थ बनाया है सो प्रसिद्ध है उसीमें अधिक मासको गिनती प्रमाण करी है अर्थात् समयादि सुक्षमकालसे आवलिका मुहूर्तादिककी व्याख्या करके ३० मुहूर्तीका एक अहोरात्रि रुप दिवस, सो १५ दिवसांसे एकपक्ष, दो पक्षोंसे एकमास बारह मासोंसे चन्दसंवत्सर और अधिक मास होने से तेरह नासोका अभिवर्द्धित संवत्सर इन पांचों संवत्सरों से For Private And Personal Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ४३५ ) एक युगके १८३२ दिनांके ५४९०० ( चौपन हजार नौ सौ) मूहूतोंकी व्याख्या श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रके अनुसार श्रीविनय विजयजी लोकप्रकाशमें स्वयं लिखते हैं तैसेही श्रीधर्ममागरजीने भी श्रीजंदीपप्रज्ञप्तिकी वृत्तिमें ऊपर मजबही पांचोंके दो अधिकमानों के दिनोंकी तथा पक्षों की और महूतों की गिनती पूर्वक एक युगके १८३२ दिनोंके ५४९० मुहर्त खुलामा पूर्वक लिखे हैं। तथापि वडेही खेदकी बात है कि इन दोनों महाशयोंने गच्छकदाग्रह का पक्ष करके उत्सूत्रभाषणले संसार वृद्धिका भय न रखा और बालजीवोंको प्रोभिनाज्ञाको सत्य वात परसे श्रद्धाभ्रष्ट करने के लिये श्रीकल्पसूत्र की कल्पकिरणावलीकृत्तिमें तथा सुखबोधिका वृत्ति में काल चलाके बहाने से दोनों अधिक मासके ६१ दिनोंकी गिनती निषेध करके अपने स्वहस्ये एक युगके दो अधिक मासों के दिनों की मुहूत्तों की गिनती पूर्वक १८३० दिनोंके ५४९०० मुहतोंको श्रीतीर्थकर गणधर महाराजकी आज्ञानुसार लिखे हैं उमीका अङ्गकारक दो अधिक मामके ६० दिनांके अनुमान १८०० मुहूत्तों के कालका व्यतीत होना प्रत्यक्ष होते भी उसीको गिनती में से सर्वथा उड़ादेकर श्रीतीर्थकर गणधर महाराजके कथनका प्रभाणमें अङ्ग डालने वाले सेख लिखते पूर्वापरका विवेकबुद्धि से कुछ भी विचार न किया और उत्सूत्र भाषणोंका संग्रह कर के कुयुक्तियों से अस नोजीवोंको भ्रमाने का कारण किया इमलिये इन दोनों महाशयोंकी धर्मधूर्ताई में कुछ कम होने तो न्यायदृष्टिवाले विवेकीसममा स्वयं विचार लेवेंगे। और इन दोनों महाशयोंके For Private And Personal Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३६ ] सम्बन्धी पूर्वापरविरोधि (विषमवादी) तथा उत्सूत्र भाषणोंकी कुयुक्तियोंवाले और सम्यक्त्वसे भ्रष्ट करके मिथ्यात्वमें गेरनेवाले लेखांको दीर्घ संसारीके सिवाय और कौन मान्य करके श्रीतीर्थकर गणधरादि महाराजोंकी आशातनाकारक उलटा बर्ताव करेगा सो भी तत्वज्ञ पुरुष न्याय दृष्टि वाले सज्ज न स्वयं विचार लेवेंगे___ और अधिक मासके निषेधक श्रीधर्मसागरजी श्रीजय विजयजी श्रीविनयविजयजी और पं० श्रीहर्षभूषणजी वगैरहोंने जो जो गच्छकदाग्रही दृष्टिरागी मुग्ध जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरने के लिये उत्सूत्र भाषणोका और कुयुक्तियोंका संग्रह करके अपना संसार वृद्धिका कारण करते हुए अपने ऐसे कल्पित लेखेको सत्य मामनेवाले अपने पक्षग्राहियोंका भी संसार वृद्धिका कारण कर गये हैं सो इन सब उत्सूत्र भाषणरूप कल्पित कुयुक्तियोंके लेखांका निर्णय तो इस ग्रन्थ में अनुक्रम साता महाशयोंके लेखांकी समीक्षामें होगया है सो इस ग्रन्थको आदिसे अन्त तक पक्षपात रहित होकर न्याय दृष्टि से पढ़नेसे सब बातोंका अच्छी तरहसे निर्णय मालम होजावेगा । तथापि जो पं० श्रीहर्षभूषणजीने पर्युषणस्थिति नामक लेख में जो जो उत्सूत्र भाषणांका और कुयुक्तियोंका संग्रह करके मिथ्य त्वका कारण किया है उसीका दिग्दर्शनमात्र थोडासा नमूना इस जगह पाठकगणको दिखाता हूं यथा श्रीसोमंधरमरहंतं नत्वापर्युषणास्थितिं ब्रवेवर्तितभा. द्रस्य व्यक्तं युक्त्यागमक्र नैः ॥ नन्वशीत्यादिनः पर्युषणापवसिद्धान्ते व प्रेकमस्तीत्येवं वेतहि पंव मासात्मक वर्ग For Private And Personal Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३७ ] चतुर्मासिकमपि सिद्धांते कवर्वति सत्यं परमधिकमासोऽस्मा भिर्नगण्यमानोस्ति एवं चेत्तर्हि अस्माभिरपि यदाधिकः श्रावणो भाद्रपदोवावर्द्धते तदर नगण्यते तेनाशीतिदिनानि पञ्चाशदिनान्येवेतीत्यादि। अब पं० हर्षभूषणजीके ऊपरका लेखको तत्वज्ञ पुरुष निष्पक्षपातसे विचारेंगेता प्रत्यक्षपने उनके भ्रमजालका परदा खुल जावेगा क्योंकि युक्ति और आगम क्रमके बहाने उत्सत्र भाषणाका संग्रह करके कुयुक्तियोंकी भ्रमजालमें बालजी. वोंको गेरनेका कारण किया है सो तो प्रत्यक्ष दिखता है क्योंकि ८० दिने पर्युषणा करनेका किसी भी शास्त्र में नहीं कहा है परन्तु श्रावण भाद्रपदादि अधिक होनेसे पंचमासके १० पक्षोंके १५० दिनका अभिवर्द्धित चौमासा तो प्रत्यक्षपने अनुभवसे देखने में आता है इसलिये निषेध नहीं हो सकता है और अधिक मासको गिनतीमें निषेध करके दूसरे श्रावण के ३० दिनोंको गिनती में छोड़कर ८० दिनके ५० दिन अपनी मतिकल्पनासे बनाते हैं सो निषकेवल उत्सूत्र भाषण है क्यों कि शास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वकसे तो ८० दिनके ५० दिन कदापि नहीं हो सकते हैं सो तो इस ग्रन्यको पढ़नेवाले स्वयं विचार लेवेंगे। और फिर आगे । ननु 'अभिवढियंभि वीसा इयरेसु सवीसइमासो' निशीधभाष्ये इत्यत्राधिकमासोगणितास्ति । इस तरहसे अधिक मासकी गिनती सम्बन्धी पूर्वपक्ष उठाकर उसीका उत्तरमें-'आसाढ़ परिणमाएपविठा' इत्यादि निशीथ पूर्णिका अधरा पाठसे अज्ञात पर्युषणाकी और 'बीसदिणे हिंकप्पो' इत्यादि बिनाही प्रसङ्गकी विच्छेद For Private And Personal Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३८ ] कल्पमम्बन्धीबातलिखके बालजीवोंको भ्रममैगेरें और अधिक मासकी गिनती निषेध दिखा कर अपनो विद्धत्ताकी चातुराई विवेकी तत्वज्ञ पुरुषों के आगे हास्थ की हेतु रूप प्रगट करी है क्योंकि निशीथचूर्णिमें ही खास अधिक मारूको गिनती प्रमाण करीहै और अज्ञात तथा ज्ञात पर्युषणा सम्ब न्धी विस्तारसे व्याख्या को है सो पाठ भावार्थ महित तीनों महाशयों के लेखा की समीक्षामें इसही ग्रन्थके पष्ट ९५ से १०४ तक छपगयाहै इसीलिये आगे पीछेके प्ररूंग व ले सब पाठको छोड़कर विना सम्बन्धके अधरे पाठसे बाल जीवोंको भ्रम में गेरने सोमी उत्सत्र भाषण है। और आगे फिर भी अधिक मासमें क्या क्ष धा नहीं लगती है तथा कार्योदय नही होताहै और देवमिक पाक्षिक प्रतिकमण, देवपूजा मुनिदानादि क्रिया शुद्ध नहीं होती है सो गिनती में नहीं लेतेहो इस तरह का पूर्व पक्ष उठोकर उसीका उत्तर में पांचमासके चौमासेमें तुमभी चारसास कहतेहो इत्यादि अज्ञानतासै प्रत्यक्ष मिथ्या और उटपटांग लिखा है सोते. वृथाही हास्य का हेतु कियाहै । और श्री उत्तराध्ययनजीके २६ अध्ययनका पौरूष्याधिकारे मामहद्धिके अभाव सम्बन्धी सविस्तर पाठको छोड़कर “असाढमासे दुप्यया सिर्फ इतमाही अधूरा पाठ लिखके उत्सत्र भाषण से भोले जीवोंको भ्रमानेका कारण कियाहै इसका निर्णयतो तीनों महाशयों के लेखको समीक्षामें इसही ग्रन्थ के पृष्ठ १३६ । १३७ में छप. गयाहै । और श्रीआवश्यक निर्यक्तिकी गाथाका तात्पर्यार्थको समझे बिना तथा प्रसंगकी बातको छोड़कर 'जइ फन्ला' For Private And Personal Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir {१३९ ] इत्यादि गाथा लिखके उत्सूत्र भाषणले मिथ्यात्वका कारण कियाहै जिम का निणयता चौथे और सातवें महाराजजी के लेखकी ममीक्षामें इमही ग्रन्थ के पृष्ठ २०५ से २१० तक और ३८५ से ३९५ तक सविस्तार छपगयाहै सो पढ़नेसै हर्षभषणजो की शास्त्रार्थ शन्य विद्वत्ताका दर्शन अच्छी तरह से हेजावेगा। और श्रीनिशीथ तथा श्रीदशवैकालिकवृत्ति के नामसे जलासंबंधीकल्पित अधरा पाठ लिख के उसी पर अपनी मतिसे कुविकल्प उठाकर कालचलाके बहाने अधिक मासकी गिनती उत्नत्र भाषणरूप निषेध करके वाल जीवोंके आगे धर्म ठगाई फैलाई है जिसका निर्णयतो 'जैन सिद्धांत समाचारी के लेखकी समीक्षामें इसही ग्रन्थ के पृष्ठ ५८ से ६५ तक और पांचवें महाशयजी के लेखकी समीक्षामें पृष्ठ २० से २२३ तक छपगयाहै सो पढने मालम होजावेगा। और रत्न कोष ज्योलिष ग्रन्थका १ श्लोक लिखके अधिक मासमें मुहूर्त नैमित्तिक बिवाहादि संसारिक कार्य नहीं होनेका दिखाकर विनामुहतका पर्युषणादि धर्म कार्यमी अधिकमासमें नहाने का दिखाया सभी उत्सत्र भाषणहै इस बातका निर्णय चौथे महाशयके लेख की समीक्षामें पृष्ठ १९४ से २०४ तक छप गयाहै। ___ और भी इसीही तरहसे अधिक मासके ३० दिनों को गिनतीमें निषेध करके ८० दिनके ५० दिन बालजीवोंके आगे सिद्ध करने के लिये कुयक्तियों के विकल्पोका और उत्मत्र भाषणोंका संग्रह करके भी फिर जोजो मायवृद्धि के अभाव सम्बन्धी श्रीपर्युषणा कल्पचर्णि, निशीथचर्णि,पर्यषणा कल्पटिप्पण और संदेहविषौषधित्तिके सविस्तार वाले सब पाठों को छोष्ठकरके उसी के पूर्वापरका संबंध विनाके और For Private And Personal Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४४० ] शास्त्रकार महाराजाके अतिप्राय विरुद्ध अधरे अधरे पाटोको लिखके दृष्टिरागो गच्च कदाग्रही बिवेकशून्य मुग्ध जीवो के आगे मास वृद्धि दो श्रावण होतेभी भाद्रपदमें पर्यषणा ठहराकर दिखानेका प्रयास किया जिसका निर्णय तो इस ग्रन्थमें अच्छी तरहसे सविस्तार शास्त्रकार महाराजांके अभिप्राय सहित शास्त्रों के संपूर्ण पाठाों पूर्वक लिखने में आयाहै सो पढनेसे निष्पक्षपाती सज्जन स्वयं विचार करलेवेंगे। औरभी सप्रसिद्ध श्रीकुलमंडनसूरिजीने विचारामृत संग्रह नामा प्रकरण में पर्युषणाधिकारे पष्ठ १३ में अधिक मासकी गिनती निषेध करनेके लिये जो लेख लिखा है उसीका भी नमना यहाँ दिखाताहूं। यथा यगततीय पंचम वर्ष संभावीयोऽधिकमासः स्यात् नासौलाके लोकोत्तरेच चतुर्मास सांवत्सरिकादि प्रमाण चिंतायांक्वाप्युपयुज्यते, लोके दीपोत्सवाक्षयतृतीया भूमिदोहादिषु शुद्ध द्वादश मासांताविषु लोकोत्तरेचचतुर्मासिकेषु 'आसाढमासे दुप्पया' इत्यादि पौरुषी प्रमाण चिंतायां षण्यासायण प्रमाण्यां वर्षातर्मावि जिनजन्मादि कल्याणकेष वृद्धावासस्थित स्थविर नवविभागक्षेत्र कल्पमायांच नायंगण्यते कालचलत्वादस्य । तथाहि । निशीथे दशवैकालिककृत्तीच, चूला चातुर्विध्यं द्रव्यादिभेदात् तत्र द्रव्य चूला ताम्रचलादि क्षेत्रचला मेरोश्चत्वारिंशद्योजन प्रमाण चूलिका कालचूला युगेतृतीय पंचमवर्ष योरधिक मासकः भावचूलातु दशवैकालिकस्यचूलिकाद्वयं । नच बूलाचूलावतः प्रमाण चिंतायां पृथक् व्याक्रियते । यथा । लक्ष. योजन प्रमाणस्यमेरोः प्रमाणचिंतायां चूलिका प्रमाणमिति For Private And Personal Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( ४४१ ) यश्चाधिक मासको जनशाने पौषाषाढस्पः लौकिक शास्त्रघु चैत्राद्यश्विनमासांत सप्तमासव्यवस्थित मासरूपोऽभिवद्धित नासौक्य चित्कृत्येप्रयुज्यते । यदुक्त रत्नकोशाख्य ज्योतिष - शास्त्र । यात्राविवाहमंडनमन्यान्यपि शोभनानि कर्माणि परिहर्तध्यानिबुधैः सर्वाणिनपुंसकेमासि ॥ जति अहिमासओ पडितो तो वीसतीरायं गिहिणायं न कज्जति किं कारणं अथ अहिमासओ चेव मासे गणिज्जति तोवीसाएसमं सवीसति रातो मासोभमतिचेव इति वृहत्कल्प चू० पत्र २९५ उ०३ । पुनः। जम्हा अभिचढ्ढिय वरिसे गिम्हचेवसोमासो अक्वन्तो तम्हावीस दिणा अणभिग्गहियंकीरइ निशी० चू०३० १० पत्र ३१७ इहकल्प निशीथ चर्णिक्रदभ्यामपिस्वाभिगृहीतगृहस्थ जातावस्थान व्यतिरिक्ततेषु कार्येषु क्वाप्यधिकमासको नामग्रहणं प्रमाणीकृतो न दृश्यते इति ।। अब श्रीकुलमंडनमूरिजी कृत उपरके लेखको देखकर मेरेको बडेही अफसोसके साथ लिखना पड़ता है कि-ऐसे सुप्रसिद्धविद्वान् पुरुष आचार्यपदकेधारक होकरके भी स्वगच्छा ग्रहका पक्षपात करके उत्सूत्र भाषणोंसे संसारवृद्धिकामय न करते हुवे कुयुक्तियोंकासंग्रहसे बालजीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरनेका उद्यम किया है से श्रीअनन्त तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंके वचनका उत्थापनरूप है क्योंकि पांच वर्षों के एकयुगमें तीसरे तथा पांचवे वर्ष जो पौष तथा आषाढको अधिकमास जैनशास्त्रोंमकहाहै उसीकाही मंदिरोंके शिखर वत् तथा मेरुचूलिकावत् और दशवकालिकजो आचारांगजी की चलिकावत् कालचलाको उत्तम श्रेष्ठ ओपमा देकर दिनोंमें पक्षों में मासोंमें गिनती करके वर्ष तथा युगादि For Private And Personal Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४४२ ] कका प्रमाणश्रीअनन्त तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंने कहाहै तथा श्रीवृहत्कल्पचर्णि श्रीनिशीथचर्णिमें निश्चय अधिक मासको गिन करके वीशदिने ज्ञात पर्युषणा कहीहै तथापि श्रीकुलमडनसूरिजीने पर्युषणाधिकारे कालचलाके बहाने अधिक मासको गिनतीमें निषेध किया सो श्रीअनन्त तीर्थकर गणधरादि महाराजों की आजा उत्थापन रूप उत्सूत्र भाषण है। और 'आसाढमासे दुप्पया,संबंधी तो उपरमेंही हर्षभू. षणजीके लेखका उत्तर में सूचना करने में आगईहै । और स्थिवीर कल्पियोंके अधिकमासहोतेझी नवविभागक्षेत्र याने मवकल्पि विहारकालिखासोभी प्रत्यक्षमिय्या है क्योंकि १० कल्पिविहारप्रत्यक्षपने होताहै इसकानिर्णय तथा दीवाली अक्षय तृतीयादि लौकिक संबंधी लिखाहै जिसका निर्णय और श्रीजिनेश्वर भगवान्के कल्याणक संबंधी लिखा है जिसका भी निर्णय तो सातवें महाशयजीके लेखकी समीक्षा, होगया है। और एक युगके दोनों अधिक मासांके दिनोंकी गिनती पूर्वक १८३० दिनों में सूर्यचारके दश [१०] अयण श्रीतीर्थकरगणधरादि महाराजांने कहेहैं सो श्रीचंद्र पनति श्रीसूर्यपन्नति श्रीजंबूद्वीपपन्नति श्रीज्योतिषकरंडपयन्न तथा इनही शास्त्रोको व्याख्यओं में और श्रीवहत्कल्पवृत्ति, मंडल प्रकरणादि अनेकशास्त्र में प्रगटपाठहै और लौकिकर्मभी अधिकमासहोनेसे उसीकेदिनांकी गिनतीपूर्वक १८३ दिने दक्षिणायणसे उत्तरायणमें सर्यमंडलहोनेका प्रत्यक्षदेखने में आता है इसलिये ६ मासके अयणकाप्रमाणमें अधिकमास नही गिनने For Private And Personal Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४४३ ] संबंधी श्रीकुल मंडन सूरिजी का लिखना प्रत्यक्ष मिथ्या है। और जैन पंचांगानुसार पौष तथा आषाढ की वृद्धि होती थी तब भी उसी के दिनोंको पर्युषणादि सब धर्म कार्यों में गिनती करतेथे सातो उपरमेंही श्रीवृहत्कलन चूर्णि श्रीनि शीवचूर्णिके पाठसे प्रत्यक्ष दिखता है परन्तु वर्तमानकाले जैन पंचांग के अभाव से लौकिक पंचांगानुसार वर्ताव करने में आता है उसीमें चैत्रादि मासोंकी वृद्धि होती है उसी के ३० दिनोंमें दुनियांका सब व्यवहार तथा धर्म व्यवहार प्रत्यक्ष पहाता है इसलिये उसीके दिनांकी गिनती निषेध नहीं होसकती है तथापि जो संक्रांति रहित मलमास केभरोसे अधिक मासके दिनोंकी गिनती निषेध करते है से अपनी पूर्ण अज्ञानतासे भोले जीवोंको गल्छकदा ग्रह में गेरनेका कार्य करते हैं क्योंकि संक्रांति रहित अधिक मास को मलमास कहा है तैसेही दो संक्रांति वाले क्षय मासको भी मलमास कहा है परन्तु अधिक मासके तथा क्षय मास के दिनोंकी गिनती बरोबर करते हैं । तथाहि कमलाकर भट विरचित ( लौकिक धर्मशास्त्र) निर्णय सिंधौनामा ग्रंथे । तत्र संक्ष ेपतः कालः षोढा - अब्दोयनमृतुमीसः पक्षदि - बस इति ॥ पुनस्तत्र वक्षमाणः श्रावणादि द्वादश मासे स्तब्ई | मलमासेतु सति षष्ठिदिनात्मकः एको मासो द्वादश मासत्वमविरुद्धमिति ॥ तथाच व्यासः षष्ट्यातु दिवसेमांसः कथितो बादेरायणैः - इति ॥ अथ मलमास क्षयमास निर्णय । अथ मल मासः तत्रैकमात्र संक्रांति रहितः सितादिवांदा मासा मठ मासः एकमात्र संक्रांति राहित्यमसंक्रातित्वेन संक्रांति द्वयत्वेनच भवतिइति । मल मासो द्वेषा For Private And Personal Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४४४ ] अधिक मासः क्षयमासश्चेति । तदुक्तं काठक गृह्ये । यस्मिन् मासे न संक्रांति । संक्रांति द्वयमेववामलमासः। सविज्ञयो मासः स्यातु त्रयोदशः। तथा चोक्तं हेमाद्रि नागर खंडे । नमो वा नभस्योवा मलमासा यदा भवेत् सप्तमःपितृ पक्षस्यादन्यत्रैवतु पंचमः ॥ ___अब देखिये उपरोक्त शास्त्रों के पाठोंसे लौकिक शास्त्रों में अधिक मासके दिनोंकी गिनती करीहै इसलिये निषेध करने वाले गच्छकदाग्रहसे अज्ञानता करके प्रत्यक्ष मिथ्या भाषण करने वाले बनते हैं सोतो पाठक वर्ग स्वयं विचार सकतेहैं। और अधिक मासको बारह मासेसे जदा गिनके तेरह मासैका वर्ष कहे तथा अधिक मासको जदा न गिनके संयोगिक मासके साथ गिने तो ६० दिवसका महिना मान के बारह मासका वर्ष कहे तोभी तात्पर्यार्थसेतो दोनों तरह करके अधिक मासके दिनोंकी गिनती लौकिक शास्त्रों में प्रगटपने कही है इस लिये निषेध नही होसकती है। ____ और संक्रांति रहित अधिक मासको मलमास कहा तैसेही दो सक्रांति वाले क्षयमासको भी मलमास कहाहै सो चैत्रसे आश्विन तक सात मासों में से हरेक अधिक मास होते हैं तैसेही कार्तिकसे पौष तक तीनमासेगमें से हरेक मास क्षयभी होतेहै. और जैसे तीसरे वर्ष अधिक मास होताहै सो प्रसिद्ध है तैसेही कालांतरमें क्षय मासभी होता सो लौकिक शास्त्रों में प्रसिद्धहै । ___औरमासद्धि के अभावमें आषाढ़ चौमासीसेपंचम पितृपक्ष होताहै परंतु श्रावण भाद्रपद मासको वृद्धि होनेसे अधिक मासके दोनोपक्षोंकी गिनती पूर्वक सप्तम पितृपक्ष लिखा है। For Private And Personal Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४४५ ] और अधिक तथा क्षय संज्ञा वाले मास समुच्चयके व्यव हार में ता संयोगिक मासके सामिल गिने जाते है परंतु भिन्न भिन्न व्यवहार में तो दोनों मासोंके दिनों की गिनती जूदी जूदी करनेमें आती है सेा अधिक मास संबंधी तो उपर में तथा इस ग्रन्थ में लिखने में आगया है परंतु क्षयमास संबंधी थोड़ा सा लिखदिखाता हूं कि जब कार्तिक मासका क्षय होवे तब उसीके दिनोंकी गिनतीपूर्वक ओलियोंकी आश्विन पूर्णिमा से १५ दिने दीवाली तथा श्रीवीरप्रभुके निर्वाण कल्याणक तथा २० वे दिन ज्ञानपंचमी और ३० वें दिन कार्तिक पूर्णिमा से चौमासा पूरा होनेसे मुनि विहार होता है इस तरह से मार्गशीर्ष पौषका भी क्षय होवे तब मौन एकादशी, पौष दशमी वगैरह पर्व तथा और श्रीजिनेश्वर भगवान् के जम्मादि कल्याणकों की तपश्चर्यादि कार्य करने में आते हैं । अब श्रीजिनेश्वर भगवान्‌की आज्ञा के आराधक सज्जन पुरुषों को न्याय दृष्टिसे विचार करना चाहिये कि -क्षयमास के दिन में दीवाली वगैरह वार्षिक वर्ष किये जाते है उसी मुजबही श्रीतपगच्छ के सबी महाशय करते हैं इसलिये क्षय मासके दिनों की गिनती निषेधकरनेकातो किसीभी महाशय जीने कुछभी परिश्रम न किया । और पर्युषणा में तथा पर्यु - वणासंबंधी मासिक डेढमासिक तपश्चर्यादि कार्यों में अधिक मासके दिनों की गिनती प्रत्यक्षपने करते हुवे भी दूसरे गच्छ वालो से द्वेषबुद्धि रखके अधिक मासको गिनती निषेध करने के लिये उत्सूत्र भाषणे से कुयुक्तियों का संग्रह करनेका श्री तपगच्छ के अनेक महाशयांने खूबही परिश्रम किया है से तो प्रत्यक्षपने स्वगच्छाग्रहके इटवाद का नमूना है सो इस For Private And Personal Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४४६ ] बातको इस ग्रन्थके पढनेवाले सज्जन स्वयं विचार लेवेंगे । और अधिक मासको कालचूला कहते हुए भी नपुंसक लिखते हैं सभी श्री अनन्ततीर्थंकर गणधरादि महाराजों की आशातना करने के बरोबर है तथा विवाहादि मुहूर्तनैमित्तिक संसारिककार्योंके लियेभी उपर में ही हर्ष भूषणजी के लेखसूचना करने में आगई हैं । और वो दिनको ज्ञात पर्युषणाके सिवाय और कार्यों में अधिकमासको प्रमाण करनेका नहीं दिखता है यह लिखना भी श्रीकुलमंडनसूरिजी का प्रत्यक्षमिथ्या है क्योंकि दिनों की पक्षोंकी मासों की गिनतीका कार्य में, चौमासेके वर्षक युग के प्रमाणकी गिनतीका कार्यमें, क्षामण के कार्य में, सामायिक प्रतिक्रमण पौषध देवपूजा उपवास शीलव्रतादि नियमेांका प्रत्याख्यानोंके गिनतीका कार्यों में चौमासी छमासी वर्षो तथा वीसस्थानकजीके और पर्युषणादि तप केदिनों की गिनती के कार्यों में और आगनेोके योग वहनादि कार्यों में, अधिक मासके दिनों की गिनती को प्रमाण गिननेमें आती है सो तो प्रत्यक्ष अनुभव की प्रसिद्ध बात है । और एकजगह अधिकमासको कालचूला लिखते हैं दूसरी जगह नपुंसक लिखते हैं तथा एकजगह श्रीवृहत्कल्पचणि श्रीनिशीथच जिंकेपाठोंसे 'चेव' निश्चय अधिकमासको गिनती करने का लिखते हैं दूसरी जगह नही गिनने का लिखते हैं इसतरहसे बालजीवों को भ्रम में गेरनेवाले पूर्वापरविरोधि (विसंवादी) लेखलिखते कुछ भी विचार न किया सोभी कलयुगी विद्वत्ताका नमूना हैं । और आगे फिरभी जो जैन पंचाङ्गानुसार प्राचीन कालमें अभिवर्द्धितसम्बत्सर में वीरादिने अर्थात् श्रावणशुदी For Private And Personal Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४४१ ] पंचमीको ज्ञात पर्युषणा वार्षिक कृत्यादिपूर्वक करने में आती थी, उसीको वर्षाकालको स्थितिरूप गृहस्थी लोगों के आगे कहने मात्रही वार्षिककृत्योंरहित ठहरानेके लिये और अभि वर्द्धितभी ५० दिने भाद्रपदमें वार्षिक कृत्यों सहित पर्युष जाको ठहरानेकेलिये चूर्णिकारादि महाराओं के अभिप्रायको समझे बिनाही उलटा विरुद्धार्थमें और अधिक मास संबंधी पूर्वापरको सब व्याख्याके पाठोंको छोड़करके अधिकरण दोषोके तथा उपद्रवादिके संबंध वालेअधूरेपाठ लिखके फिर चंद्रसम्बत्सर में ५० दिन की तरह अभिवर्द्धितसंबत्सर में २० दिने ज्ञात पर्युषणा दिखा करके ५० दिनको ज्ञात पर्युषणा में ता वार्षिक कृत्य करनेको सिद्ध करते हैं परंतु २० दिनको ज्ञात पर्युषणाको अपनी मतिकल्पना से गृहस्थी लोगोंके आगे वर्षास्थितिरूप ठहराकर वार्षिक कृत्योंको निषेध करते हैं से कदापि नहीं हो सकता है क्योंकि ५० दिनको ज्ञात पर्युaणा वार्षिक कृत्योंकी तरह २० दिनको ज्ञात पर्युषणा में झी वार्षिक कृत्य शास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वक स्वयं सिद्ध है इसका सविस्तार निर्णय तीनों महाशयोंके लेखोंकी समीक्षा में इसी ग्रन्थ के पृष्ठ १०७ से ११७ तक अच्छी तरह से रूपगया है इस लिये जो श्रीकुलमंडन सूरिजीने २० दिनको पर्युषणाको वार्षिक कृत्यों रहित ठहरानेके लिये मास वृद्धि के अभाव संबंधी पाठोंको मास वृद्धिहोती भी अधूरे अधूरे लिखके वाल जीवोंको दिखायेहै सेा आत्मार्थिपनेका लक्षण नहींहै । सातो न्यायदृष्टिवाले सज्जन स्वयं विचार लेखेंगे । और अभिवर्द्धितमें वोश दिने ज्ञात पर्युषणा वार्षिक कृत्यों पूर्वक करनेसे । प्रथम चौथे वर्षे ११ । ११ मासे तथा For Private And Personal Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir { ४४८ ] दूसरे पंचम वर्षे १३ । १३ मासे और तीसरे वर्षे १२ मासे वार्षिक कृत्य होनेका दिखाकर पांच वर्षोंके ६० माम श्रीकु. लमंडन सूरिजी लिखते है सारो श्रीअनंत तीर्थंकर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञाकोप्रत्यक्षपने उत्थापनकरके उत्सूत्रभाषण करनेवाले बनते हैं क्योंकि अभिवद्धि तमें वीशदिने श्रावणमें पर्यषणा करनेसे जैनशास्त्रानुसारतो प्रथम चौथे वर्षे १३ । १३ मासे और दूसरे तीसरे पंचमें वर्षे १२॥१२ मासे वार्षिक कृत्य होनेका बनताहै और पांच वर्षों के ६२ मास श्रीअनंत तीर्थकर गणधरादि महाराजोंकी आज्ञानुसार जैनशास्त्रों में प्रसिद्ध है। और मासहिसे तेरहमासहोतेभी १२ मासके क्षामणे लिखतेहै सभी अज्ञानताका सूचकहै क्योंकि मासवृद्धि होने से तेरहमास छवीशपक्षकक्षामणे कियेजातेहै इसका निर्णय सातवे म० ले० समीक्षामें इसही ग्रन्थ के पृष्ठ ३६३ से ३७८ तक छपगयाहे सो पढनेसे सब निर्णय होजावेगा। और जैनशाखोंमें मुख्य करके एकबातकी व्याख्या करते है उसीकेही अनुसार यथोचित दूसरी बातोंके लियेभी समझा जाताहै इसलिये जिन जिन शाखामें चंद्रसंवत्सर में ५० दिने तथा अभिवर्द्धित संवत्सरमें २० दिने ज्ञात पर्य षणा कही सो यावत् कार्तिक तक खुलासा लिखाहै जिसपर विवेक बुद्धिसे विचार किया जावेतो जैसे चंद्रसंवत्सर, ५० दिन जहां पूरे होवे वहां स्वभावसेही भाद्रपद समजते हैं तैसेही अभिवर्द्धित संवत्सरमें २० दिन जहां पूरे होवे वहां भी स्वभाविक रीतिसे श्रावण समजना चाहिये । और चार मासके १२० दिनका बर्षा काल में ५० दिने पर्यषणा करनेसे For Private And Personal Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४ ] पिशाही कार्तिक तक 90 दिन स्वभावसेही रहते है तैसे ही २० दिने पर्यषणा करने से भी पिछाडी कार्तिक तक १०० दिनो स्वयं समझना चाहिये तथापि चंद्र संघस्सरमें भाद्रपदकी तरह अभिवर्द्धित संवत्सर में श्रावणमें पर्यषणा करनेका तथा पर्युषणाके पिछाडी 90 दिनकी तरह १०० दिन रहने का कहां कहा है, ऐसी प्रत्यक्ष अज्ञानताको सूचक कुयुक्ति करके बाल जीवोंको भ्रमानेसे कर्म बंधके सिवाय और कुछभी लाभ नहीं होने वालाहै । क्योंकि जिन जिन शास्त्रों में चंद्रसंवत्सर में५० दिने भाद्रपद में पर्यषणाकरके पिछाडी ७० दिन कार्तिक तकका लिखाहै और अभिवतिमें० दिने पर्यषणा करनेका भी लिखदियाहै उसी शामन पाटोंके भावार्थ से अभिर्द्धितमें २० दिने भाषण में पर्यषणा करनेका और पर्यषणा के पिछाड़ी १०० दिन रहनेका स्वयं सिद्ध है सोतो अल्प मतिवालेभी स्मझमकते हैं । ____ और फिरभी २० दिनकी ज्ञात तथ निश्चय और प्रसिद्ध पर्यषणामें वार्षिक कृत्यों का निषेध करने के लिये आषाढ पूर्णिमाको अज्ञात तथा अनिश्चय और अप्रसिद्ध पर्यषणामें वार्षिककृत्य करनेका दिखाते है सोभी अज्ञानताकासूचक है क्यों कि वर्षकी परतीहुये बिना तथा अज्ञात पर्युषणामें वार्षिक कृत्य कदापि नहीं होसकते हैं किन्तु वर्ष की पूर्तिहोनेसे ज्ञात पर्युषणामें वार्षिक कृत्य होते हैं और अधिक मास होनेसे श्रावणमें १२ मासिक वर्ष पूरा होजाता है इसीलिये श्रावण में ज्ञातपर्युषणा करके वार्षिक कृत्य सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादिक कार्य करने में आते हैं। ___ और मासद्धि होतेभी भाद्रपद में पर्युषणा स्थापन करने के लिये श्रीजीवाभिगमजी सत्रका एकपदमात्र लिखदिखाया ५८ For Private And Personal Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४५० ] साता अपनी विद्वात्ताकी हासी कराने जैसा कियाहै क्योंकि वहांता श्रीनन्दीश्वरध्वीपाधिकारे जिन चैत्योंकी व्याख्य करके वहां चौमासी में तथा संवत्मरीमें और श्रीजिनेश्वर भगवान् के जन्मादि कल्याणकों में भुवनपति बगैरह बहुत देवोंके अठाई उच्छव करने का लिखाहै परन्तु वहां भाद्रपदकातो नाममात्र भी नहीं है सेा सूत्र वृत्ति सहित छपाहुवा श्रीजीवा भिगमजी के पृष्ठ ८४३ में खुलासा पूर्वक अधिकार है इस लिये ऐसे ऐसे पाठोको लिखके बाल जीवोंको भ्रममें गेरनेसे तो अपने कल्पित बातकी पुष्टि कदापि नहीं हो सकती है सो विवेकी पाठक गणभी स्वयं विचार सकते हैं । और श्रीकुलमंडन सूरिजी के उपरोक्त लेखके अनुसार हो धर्मसागरजीने भी तस्करवृत्ति करके धर्म धूर्ताईसे निजको तथा गच्छ कदाग्रही बालजीवोंको दुर्लभबोधिका कारण करनेके लिये 'तत्वतरंगिणी' ग्रन्थ का नाम रखके वासत्विक में 'कुयुक्तियों की भ्रमजाल' बनाकर उसीमें पर्युषणा संबंधी मिथ्यात्वका कारणरूप जो लेख लिखा है जिसका निर्णय तथा 'प्रवचनपरिक्षा' नामक ग्रन्थर्मेभी उत्सूत्र भाषणोंके संग्रहसे कुयुक्तियों करके पर्युषणा संबंधी जो लेख लिखा है जिसका निर्णय तो ऊपरके लेखको तथा इस ग्रन्थको विवेक बुद्धिसे पढ़नेवाले तत्वज्ञ पुरुष स्वयंही समझ लेवे गेः- अब पाठकगणको मेरा इतनाही कहना है कि श्रीजैन शास्त्रों में अधिक मासको कालचूलाकी जो उत्तम ओपमा देते हैं उसीके दिनोकी गिनती करनेमें आती है तथा लौकिक शास्त्रानुमार और प्रत्यक्ष पने बर्तावकी सत्ययुक्तिके अनुसार करके भी अधिकमासके दिनो की गिनती क For Private And Personal Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir Acharya Shri ki { ४५१ ] रने में आती है जिसका विस्तार पूर्वक इस ग्रन्थमें छयगया है इसलिये कालचूला वगैरह के बहाने करके कुयुक्तियों से उसीके दिनो की गिनती निषेध करने वाले श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाके लीपी उत्सूत्रभाषक बनते हैं, सो तो इस ग्रन्यको पढ़ने वाले तत्वज्ञ स्वयं विचार सकते हैं इसलिये श्रीजिनेश्वरभगवानकी आज्ञाके आराधन करनेकी इच्छावाले जो आत्मायी सज्जन होगे सो तो अधिकमामके दिनोंकी गिनती निषेध करनेका संसारवद्धिका हेतुभूत उत्सूत्र भाषणका साहस कदापि नहीं करेंगे, और भव्यजीवोंको इस ग्रन्यको पढ़ करके भी अधिकमासके निषेध करने वालों का पक्ष ग्रहण करके अभिनिवेशिक मिथ्यात्वसे बालजीवोंको कुयुक्तियोंके भ्रममें गेरनेका कार्य करनामी उचित नही है और गच्छका पक्षपात छोड़कर न्याय दृष्टि से इस ग्रन्थका अवलोकन करके अधिकमासके दिनोकी गिनती पूर्वकही पर्युषणादि धर्म व्यवहारमें वर्ताव करना सोही सम्यक्त्वधारी आत्मार्थियों को परम उचित है इतने परमो जो कोई अपने अन्तर मिथ्यात्वं के जोरसे अज्ञ जीवोंको भ्रमानेके लिये अधिक मासकी गिनती निषेध संबंधी कुयुक्तियोंका संग्रह करके पूर्वापरका विचार किये बिनाही मिथ्यात्वका कार्य करेगा तो उसीका निवारण करनेके लिये और भव्य जीवों के उपकार के लिये इस ग्रन्थ कारकी लेखनी तैयारही समझना । ___ अब पर्युषणासंबंधी लेख की समाप्तिके अवसरमें पाठक गणको मेरा इतनाही कहना है कि श्रीतपगच्छके विद्वान् कहलाते जोजोमहाशय जी श्रीअनंततीर्थंकर गणधरादि म. हाराजांके विरुद्धार्थ में पंचांगीके अनेक प्रमाणोंका प्रत्यक्षपने For Private And Personal Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४५२ ] उत्यापन करके उत्त भाषणों से कुयुक्तियों के संग्रह पूर्वक अधिकमासको कालचूला वगैरहके बहानेसे निषेधकरने संबं. धी-कल्पकिरणापली तथा मुखबोधिका कृत्तिवगैरहके लेखों को हरवर्षे श्रीपर्युषणापबं के दिनों में बांचते हैं जिसको गच्छकदा ग्रही पक्षपाती अज्ञजीव श्रद्धापूर्वक सत्यमानते हैं ऐसे उपदेशक तथा श्रोता श्रोजिनाज्ञाके आराधक पंचांगीको श्रद्धावाले सम्यक्त्वी आत्मार्थी हैं ऐसा कोहभी विवेकीतत्वज्ञ तो नही कहसकेगे। क्योंकि श्रीअनंत तीर्थंकर गणधरादि महःराजेका प्रमाण कियाहुवा कालचलाकी श्रेष्ट ओपमा वाला अधिकमासको निषेधकरने वालों में प्रत्यक्षपने श्रीजिनज्ञा का विराधकपना होनेसे मिथ्यात्वसिद्ध होताहै सो तत्वज्ञ स्वयं विचार सकते हैं । इसलिये मिथ्यात्वसे संसार में परिभ्रमण करनेका भय करने वाले तथा श्रीजिनाज्ञामुजब वर्तने की इच्छा करने वाले विवेकियोंको तो श्रीजिनशा विरुद्ध उपरोक्त कार्य करना तथा उसी मुजब श्रद्धा रखना उचित नही है किंतु श्रीजिनाज्ञामुजब पर्युषणाके ब्याख्यान सुनने वाले भव्यजीवोंके आगे अधिक मासकी गिनती करनेका शास्त्र प्रमाणपूर्वक सिद्धकरके दूसरे प्रावणमैं वा प्रथम भाद्रपद में श्रीपर्यषा पर्वका आराधन करना तथा दूसरों से करना सोही आत्महितकारीहै सो तत्वदृष्टि से विचारना चाहियेःइति अधिक मासके निषेधक उत्सत्र भाषी कुयुक्तियों करनेवाले सातवें महाशयजी वगैरहे।के पर्युषणा सम्बन्धि अज्ञ जीवों को मिथ्यात्वमें गेरने के लेखांकी संक्षिप्त समीक्षा समाप्तः ॥ HALA For Private And Personal Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir For Private And Personal