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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १९६ ] किये ऐसे मिथ्या लिखना उचित नही था, इसका विशेष विचार पाठकवर्ग अपनी बुद्धिसे स्वयं कर लेना ; और ( इसी द्वितीय प्रकरण में ऐसा श्लोक है यथाहरिशयनेऽधिकमासे, गुरुशुक्रास्ते न लग्नमन्वेष्यं ॥ लग्न शांशाधिपयो,र्नीचास्तगमे च न शुभं स्यात् ॥१॥ भावार्थः अधिक मासादिक जितने स्थान बतायें उसमें शुभकार्य नही होते हैं तो अब बारा मासिक पर्युषणापर्व कैसे करनेकी सङ्गति होगी ) इस उपरके लेखसें न्यायांभोनिधिजीने अधिक मासमें पर्युषणा करनेका निषेध किया इस पर मेरेकों प्रथमतो इतनाही लिखना पड़ता है कि उपरके श्लोकका अधूरा भावार्थ लिखके न्यायाम्भोनिधिजीने भोले जीवोंकों भ्रममें गेरे हैं इसलिये इस जगह उपरके श्लोकका पूरा भावार्थ लिखने की जरूरत हुई सो लिखके दिखाता हूंहरिशयने, याने, जो श्रीकृष्ण जीका शयन (सोना) लौकिक में आषाढशुक्ल एकादशी (११) के दिनसे कार्तिकशुक्ल एकादशीके दिन तक चार मासका ( परन्तु मासवृद्धि दो श्रावणादि होनेसे पांच मासका ) कहा जाता हैं उसी में १, और वैशाखादि अधिक मासमें २, गुरुका अस्तमें ३, शुक्रका अस्तमें ४, और ज्योतिष शास्त्र मुजब लग्नके नवांशांका अधिपति नीचा हो ५, अथवा अस्त हो ६, इतने योगों में पण्डित पुरुषको लग्न नहीं देखना चाहिये क्योंकि उपरके योगोंमें लम देखे तो शुभ फल नही हो सकता है इसलिये ज्योतिषशास्त्रोंमें उपरके योगों में लग्न देखने की मनाई किवी है इस तरहसे उपरोक्त शोकका भावार्थ होता है ॥ १॥ अब न्यायाम्सोनिधिजीने नारचन्द्रके दूमरे प्रकरणका For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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