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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८५ ] दोनों किताबोंकी उत्सूत्र प्ररूपणासंबंधी १२ भूलेतो विज्ञापन नं ७ में दिखलादी हैं, और भी बहुत हैं सो सभा में विशेष खुलासा होगा. और७ विज्ञापन का तो पहिले कुछभी उत्तर आपने नहीं दिया. और नवमेका देने लगे, यह भी आपका अन्याय है, और सभामें निर्णय होनेवाला है, जिसपरभी आप अभी किताब द्वारा जवाब मांगते हैं, इससे साबित होता है, कि शास्त्रार्थ करनेकी आपकी इच्छा नहीं है, अन्यथा ऐसा क्यों लिखते, यदि हो तो कत्र विचार है, सो लिखो आपकी तीसरी पुस्तककाभी उत्तर उस समय सभामें मिलजावेगा मगर दोनों किताबों में जैसी उत्सूत्रता भरी है, वैसी तीसरी में भी होगा, तो सभामें सिद्ध करके बतलाना मुश्किल होगा. और उसकी आलोया लेनी पडेगी. अधिकमहीने के दिनोकी गिनती, व आषाढचौमासीसे ५० वें दिन दूसरे श्रावणमें या प्रथम भाद्रपद में पर्युषणापर्व कर ना तथा श्री वीरप्रभुके ६ कल्याणक मान्यकरने और श्रावकके सामाविकर्म प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये बाद पीछे से इरियावहीकरना शास्त्रानुसार होनसे इनबातों को कोईभी निषेद्धनहीं करसकता. विशेष सूचना-गये चौमासेमें हमने सब मुनिमहाराजोको पपणापर्वका निर्णय करने की सभा करनेकेलिये विनतीपत्र से आमंत्रण भेजा था तथा 'श्री कच्छीजैन एसोसियन सभा' नेभी सब मुनिमहाराजोको सभा भरकर वर्षोवर्ष के अधिकमाससंबंधी इस विवाद के निर्णय करने की विनती की थी, जिसपर भी कोई सभा करनेको न आये, सबने चुप लगादी. अब आप लोगभी चौमासा वगैरहके बहाने बतलाकर सभा न करोंगा, तो फिर आपकीभी हार समझी जावेगी. तथा आपके पक्ष के सब मुनियों की भी सत्यताकी परीक्षा दुनिया स्वयंकर लेवेगी. और सभा करनेका मंजूर किये बिना व्यर्थ निष्प्रयोजनके विषयांतर के वितंडावादवाले लंबे चौडे किसीकेभी लेखका उत्तर आजसे नहीं दिया जावेंगा. संवत् १९७५ आषाढ वदी ३ गुरुवार, हस्ताक्षर-मुनि-मणिसागर, मुंबई. देखिये- ऊपर मुजब विज्ञापन छपवाकर जाहिर किया था, तोभी न्यायरत्नजीने शास्त्रार्थ करनेको सभामें आनेका मंजूर किया नहीं. विज्ञापन, ७वेंमें लिखेप्रमाणे, अपनी १२भूलोको सुधारकर उसका प्रा. यश्चित्तभीलियानहीं, तथा अनुक्रमसे उनभूलोकोशास्त्रप्रमाणसे साबि तकरके सत्य ठहरास केभीनहीं और हमनेशास्त्रानुसारसत्य बातें बतलायाथा उन्होंको अंगीकार भी किया नही और अपने पकडे हुए झूठे For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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