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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८४] सेभी अपनी इज्जतका बचावकरके शास्त्रार्थकरनेसे भगने चाहताहै। ६- आपकी इच्छा धर्म स्थान ही सभा करनेकी हो तो भी हम तैयार हैं, देखो- आपकेही गच्छके आपके बडील आचार्य आनंद सागरजीजोअभी मुंबई में श्रीगौडीजीकेउपाश्रयमेहै,उनके व्याख्यानमें हजारों आदमियोंकीसभाभरातीहै, वहां आपका और हमारा शास्त्रा. र्थहोतोभी हमेमंजूरहै,मगर ऊपर लिखेमुजबनियमानुसार होनाचा. हिये. अथवा मुंबई में अन्य स्थानभी बहुत हैं, जहां आप लिखे वहांही सही. वालकेश्वरमें हमारे गुरुजी महाराजके पास २-३ श्रावकोंके समक्ष आपने कहाथा, कि- आनंदसागरजी शास्त्रार्थ करेंगे, तो मै साक्षीरहूंगा और यदि मैं शास्त्रार्थ करूंगातो आनंदसागरजीको साक्षी बनाऊंगा सो यह योगभी आपके बन गया है, अब अपनी प्रतिज्ञासे आपको बदलना उचित नहीं है ,और सभादक्ष-दंडनायक वगै. रह नियमभी मिलकर जलदी करीयेगा. ७- और आप लिखतेहैं, कि “ पर्युषणापर्व निर्णय,छपनेको नव महीने होगये दरेक बयानका पूरेपूरा उत्तर दीजिये" जबाब-महाशयजी श्रावको विशेष पैसे खर्च न होनेके लिये व किताबें छपवानेसे बहुत वर्षांतक खंडन मंडनका प्रपंच नहीं चलाने के लियेही आपकी किताबोंका उत्तर सभामें देनेका विचार रख्खा है,सो प्रथम विज्ञापनमें लिखभी चुका हूं. इसलिये ९ महीनेका लिखना आपका अनुचितहै, और श्रीमान् पन्यासजी केशरमुनिजीके बनाये 'प्रश्नोत्त. र विचार" और 'हर्षहृदयदर्पण'का दूसरा भागके पर्युषणासंबंधी लेख, व 'प्रश्नोत्तर मंजूरी के तीन (३) भागके ४००-५०० पृष्ट छपेको आज ४ वर्ष ऊपर हो चुका है,उनकी प्रत्येक बातका उत्तर आजतक आप कुछभी नहींदे सकते, तो फिर ९ महीने किस हिसाबमें हैं,औ. र मैरे लघुपर्युषणा निर्णयके सब लेखोकाभी पूरा उत्तर ११ महीनेहो गये तो भी आजतक आप न दे सके, बल्कि सत्य सत्य लेखोके पृष्टकेपृष्ट और पंक्तियेकी पंक्तिये छोडकर अधूरा२लेख लिखकर उल टा२ ही जवाब देते हैं, यह जवाब नहीं कहा जा सकता,सत्यता तभी मानी जा सकेगा कि पूरे पूरा लेख लिखकर अभिप्राय मुजब बरोबर उत्तर दिया जावे, सो तो आपने अपनी दोनों किताबों में कहींभी नहीं किया,और उलट पुलट झूठाझूठाही लिख दिखलायाहै, सो यह युक्तही है सत्यको कौन असत्य बना सकताहै।मगर कुक्तियोंसे बात को अपनी तरफ खींचना अलग बात है। दोस्खये हमने तो आपकी For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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