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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [८३] थे.मगर अब शास्त्रार्थ क्यों नहींकरते,लो उनकी आत्मा जाने' इतने. परभी आप संघके आमंत्रणका लिखते हो सो भी 'श्रीकच्छीजैन ए. सोसीयन सभा' ने सर्व जैनश्वेतांबर मुनिमहाराजोको सभाकरनेकी विनती की थी, सो आमंत्रण हो ही चुका फिर वारंवार क्या? यदि आप मुनिमंडळमें है तबतो आपकोभी आमंत्रण होचुका, यदि आप अपनेको भिन्न समझते हैं तो संघ आमंत्रणभी कैसे कर सकताहै, मैं पहिलेही लिखचुकाहूं कि 'न सब संघ बीचमें पडे और न न्यायर. नजीको शास्त्रार्थ करनापडे ऐसी कपटता क्यों रखतेहो,आपके गच्छवालोंको आपका भरोसा न होवे, तो वे आपको विनती न करें, अ. थवा आपकी बात सच्ची मालूम न होवे तो मौनकर जावे,इसमें हम क्याकरें. आप अपनापक्ष सच्चा समझतेहोतो शास्त्रार्थको पधारो. आप दूरदूरसे खंडनमंडनका विवाद चलाते हैं, किताबें छपवाते हैं, तबतो संघसे पूछनेकी दरकार रखतेनहींहैं, फिर उसबातका निर्णय करनेकी अपने में ताकत न होनेसे संघकी बात बीचमैलाते हैं, यहभी एक तरह की कमजोरी व अन्यायकीही बातहै और यह विवाद तो खास करके मुख्यतासे साधुओंकाही है, श्रावकों का नहीं.श्रावक तो साधुके कहने मुजब पर्युषणापर्वका आराधन करनेवाले हैं,इस. लिये साधुओंकोही मिलकर इसका निर्णय करना चाहिये.. ५-पहिले राजा महाराजाओंकी सभामें शास्त्रार्थ होताथा और अभीके भारतक्रमहाराज लंडनमें हजारों कोशबहुतदुरहैं,उनकी आज्ञाकारिणी और प्रजापालीनी कोर्ट व कोतवाली है, इसलिये वहां सभामें किसी तरहका बखेडा न होने के लिये और शांतिसे पक्षपात रहित पूरा न्याय होने के लिये विद्वानोंकी साक्षीपूर्वक शास्त्रार्थ होने में कोई तरहकाभी हरजा नहीं है.यह तो जगतप्रसिद्धही बात है,कि अ दालतमें जो न्यायालय है,उसमें सुलह शांतिसे पूरा न्याय मिलताहै इसलिये न्यायाधीशके समक्ष इन्साफ मिलनेके लिये शास्त्रार्थ करने का हमने लिखा सो न्याय युक्तही है. देखो-पंजाबमें जैनियोंके औरआर्यसमाजियोंके अदालतमेही शास्त्रार्थ हुआथा उससेही जैनियोंको पूरा न्याय मिला, विजय हुईथी.उसीतरह न्यायसे धर्मवाद करनेको वहां हम बहुत खुशीले तैयार हैं, अब आपभी जलदी पधारो, हम तो सिर्फ न्यायसे इन्साफ चाहते हैं. वहांभी बहुत आदमी देखनेको आसकते हैं, सचेको भय नहीं रहता झूठेको भय रहता है.इस लिये वो बीचमें आडी२ बातोसे झूठे २ बहाने बतलाकर किसी तरह For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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