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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१५] छठे कल्याणककी नवीन प्ररूपणा करी'ऐसा कहकर जो लोग छठे क. ल्याणकका निषेध करते हैं. वो लोग तीर्थकर, गणधर, पूर्वधरादि पूर्वाचार्योंकी और खास अपनेही तपगच्छकेभी पूर्वीचार्योंकीभी आशातना करनेवाले ठहरते हैं, इसलिये आत्मार्थी भवभिरू विवेकी जनोंको तो छठे कल्याणकका निषेध करना सर्वथा योग्यनहींहै, मगर निषेध करनेवालोंने यह पचीशवीभी बड़ी भूलकी है। २६- सभा मंडल में जाहिर व्याख्यान करते हुए परोपकारकेलिये सत्य बात प्रकट करने में अपनी स्वाभाविक प्रकृतिसे,सञ्चके जोशमें आकर कितनेक वक्तालोग चौकी,टेबल, या पाटापर जोरसे अपना हाथ पिछाड़ते हुए अपना मतव्य प्रकट करतेहै, तथा कितनेक छा. ती ठोकते हुए. या भुजा आस्फालन करते हुए, अपनी सत्यबात प्र. कट करते हैं, और कोई विशेष प्रबल विद्वान् वादी तो हाथमें खूब उंचा झंडा लेकर नगारेको पीटवाते हुए विवाद करनेकेलिये नगरमें उद्घोषणा करवाते हैं, मगर यह बात कोई प्रकारसे अनुचित नहींहै, किंतु सत्यबात प्रकाशित करने में अपनी हिम्मत बहादुरीकी स्वाभाविक प्रकृति है। इसीतरहसे श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराजनेभी सर्व शिथिलाचारी चैत्यवासियोंके सामने चैत्यवासका निषेध व आग. मानुसार श्रीमहावीरस्वामिके छ कल्याणक मानने वगैरह विषयों सं. बंधी सत्यवाते प्रकाशित करने में अपनी हिम्मत बहादुरीसे भुजास्फालन पूर्वक कहाथा,कि-'चैत्य वास निषेधादिक ऊपरकीबाते जो न मा ननेवाले होवे,वो उन्होंकीश स्त्रार्थ करनेकी ताकत हो तो मेरे सामने आकर उन बातोंका शास्त्रार्थसे निर्णय करो' मगर उस समय किसी भी चैत्यवासीकी महाराजके साथ शास्त्रार्थ करनेकी हिम्मत नहीं हुई. तब महाराजने सब लोगोंके सामने ऊपर मुजब सत्यबाते प्रकाशित. की.इसीतरहसे 'गणधरसाधशतक' बृहद्वृत्ति, लघुवृत्ति वगैरहका भावार्थ समझे बिनाही श्रीजिनवल्लभसूरिजीने 'स्कंधास्फालनपूर्वक' छठा कल्याणक नवीन प्रकट किया, ऐसा कहकर चैत्यवास निषेध वगैरह ऊपरकी सबबातोका संबंध छुपाकर छठेकल्याणको नवीन ठह राकरके जो निषेधकरते हैं,सो मायावृत्तिसे व्यर्थही भोलेजीवोंको उ. मार्गमें गेरनेकेलियेमिथ्याभाषणकरके यहभी छवीशवीबडीभूलकीहै. २७-श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज चैत्यवासका खंडन करनेवालेथे, इसलिये चैत्यवासियोने महाराजको शहरमें उहरनेको जगह नहीं दी. और द्वेषबुद्धिसे चामुंडिका देवीके मंदिरमे ठहरनेका बतला. For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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