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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [५६ ] या,तब महाराज तो वहांही ठहरकर अनेक प्रकारके कष्ट सहन करतेहुएभी भव्यजीवोंके उपकारकेलिये जिनाशानुसार सत्यबातें लोगोंको बतलाते रहे, और चैत्यमें ठहरने वगैरह चैत्यवासियोंकी कल्पित बातोका खंडन करते रहे, यह बात 'गणधर सार्धशतक' ग्रंथकी लघुवृत्ति तथा वृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रों में खुलासा लिखी है । जिसपरभी ऊपर मुजब चैत्यवालियोंकीभूलोको तथा जिनाशानुसार सत्य बातोंके प्रसंगको मायावृत्तिसे छुपा करके आपना नवीन मत स्थापन करनेकेलिये चामुंडिकादेवीके मंदिरमें ठहरेथे' ऐसा प्रत्यक्ष मिथ्या लिखकर महाराजकी झूठी निंदा की, और दृष्टिरागी बाल जीवोंकोभी परम उपकारी युग प्रधान आचार्य महाराजके झूठे अवर्ण. वाद बोलनेवाले बनाये. यहभी सत्तावीशवी बडी भूलकी है। २८ “ यो न शेष सूरीणामज्ञातसिद्धांतरहस्यानाम्" इत्यादि 'गणधर सार्धशतक' ग्रंथकी १२२वीं गाथाकी लघुवृत्ति तथा बृह वृत्तिके यह वाक्य सिद्धांतकेरहस्यको नहीं जाननेवाले द्रव्यलि. गी चैत्यवासियों संबंधी है, मगर पहिले होगये उन सर्व पूर्वाचायौसंबंधी नहीं है, जिसपरभी 'पहिले जितने आचार्य होगये हैं, उन सबोंको सिद्धांतके रहस्यको नहीं जाननेवाले ठहराकर जिनवल्लभसू. रिजीने छठा कल्याणक नवीन प्रकाशित किया ऐसा अर्थ कहते हैं। सो अपनी विद्वत्ताकी लघुताकारक अपनी अज्ञानता प्रकट करतेहें। क्योंकि शेष' कहनेसे सिद्धांतके रहस्यको जानने वाले सर्व पूर्वाचार्योको छोडकर सिद्धांतके रहस्यको नहीं जानने वाले बाकीके अशानियोंका ग्रहण होताहै, और 'अशेष' कहनेसे सर्वका ग्रहण होस. कताहै,मगर यहांतो ' अशेष' शब्द नहीं है, किंतु 'शेष' शब्दहै, इ. सलिये सर्व पूर्वाचायौँका ग्रहण नहीं होसकता, जिसपरभी सर्वपूर्वाचार्योंका ग्रहणकरते हैं, सो ‘शेष' शब्दके अर्थकोभी नहीं जाननेवाले अपनी अज्ञानतासे शास्त्रोंके खोटे २ अर्थ करके, यहभी अठ्ठावीशवी बडी भूलकी है। इस बातकोभी विशेष विवेकी तत्त्वज्ञ विद्वान् लोग स्वयं विचार सकते हैं। देखिये-खरतरगच्छ वालोंने अपने पूर्वाचार्योंके चरित्रों में, जैसेश्रीअभयदेवमूरिजी महाराज संबंधी 'श्रीस्थंभन पार्श्वनाथ प्रकट कर्ता' तथा ' श्रीनवांगी वृत्ति कता' वगैरह बातें,उन महाराजने जैनसमाजपर किए हुए उपकारोंकी यादगिरिकालये प्रसंशारूप लिखीहैं । तैसेही-श्रीजिनवल्लभसूरिजी महाराज संबंधीभी 'दश सह For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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